Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक ३
२१३ जाने। इमाई-इन । चउहिं-चार।पडिमाहि-प्रतिमाओं-प्रतिज्ञाओं से साधुको।संथारगं-संस्तारक को।एसित्तएगवेषणा करनी चाहिए। खलु-वाक्यालंकार में है। तत्थ-इन चार प्रतिमाओं-प्रतिज्ञाओं में से। इमा-यह। पढमापहली। पडिमा-प्रतिमा-प्रतिज्ञा है अर्थात् अभिग्रह विशेष है। से भिक्खूवा-वह साधु या साध्वी। उद्दिसिय २नाम ले ले कर। संथारगं-संस्तारक की। जाइजा-याचना करे। तंजहा-जैसे कि। इक्कडं वा-तृण विशेष से निर्मित।कढिणं वा-बांस की त्वचा से निर्मित। जंतुयं वा-तृण से निष्पन्न। परगं वा-परक-जिससे पुष्पादि गून्थे जाते हैं, वह तृण। मोरगं वा-मयूर-पिच्छ से निर्मित। तणगं वा-तृण विशेष। सोरगं वा-कोमल तृण विशेष से निर्मित। कुसं वा-दूर्वा आदि से निष्पन्न। कुच्चगं वा-कूर्चक-जिससे कूर्चक बनाए जाते हैं उसका बना हुआ। पिप्पलगं वा-पीपल के काष्ठ विशेष से निर्मित और। फलगं वा-शाली आदि के घास से बना हुआ संस्तारक।
वह साधु। पुठ्वामेव-पहले ही। आलोइज्जा-देखे और कहे कि। आउसोत्ति वा-हे आयुष्मन् ! गृहस्थ ! भ०-हे भगिनि ! मे-मुझको। इत्तो-इन संस्तारकों में से। अन्नयरं-कोई एक। संथारगं-संस्तारक। दाहिसिदोगी? तह-तथाप्रकार के। संथारगं-संस्तारक की। सयं वा णं-स्वयं-अपने आप। जाइज्जा-याचना करे। वा-अथवा। परो-गृहस्थ बिना याचना किए ही। देजा-दे तो। फासुयं-उसे प्रासुक अथवा। एसणीयं-एषणीय मिलने पर। जाव-यावत्। पडि-ग्रहण करे। पढमा पढिमा-यह पहली प्रतिमा अर्थात् अभिग्रह विशेष है।
- मूलार्थ-साधु या साध्वी को बस्ती और संस्तारक सम्बन्धि दोषों को छोड़कर इन चार प्रतिज्ञाओं से संस्तारक की गवेषणा करनी चाहिए, इन चार प्रतिज्ञाओं में से पहली प्रतिज्ञा यह हैसाधु तृण आदि का नाम ले लेकर याचना करे। जैसे- इक्कड़-तृण विशेष, कठिन बांस से उत्पन्न हुआ तण विशेष, तृण विशेष, तृणविशेषोत्पन्न पुष्पादि के गुन्थन करने वाला मयूर पिच्छ से निष्पन्न संस्तारक, दूब, कुशादि से निर्मित संस्तारक पिप्पल और शाली आदि की पलाल आदि को देख कर साधु कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ! अथवा भगिनि ! बहन ! क्या तुम मुझे इन संस्तारकों में से किसी एक संस्तारक को दोगी? इस प्रकार के प्रासुक और निर्दोष संस्तारक की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ ही बिना याचना किए दे तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। यह प्रथम अभिग्रह की विधि है।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में निर्दोष संस्तारक की गवेषणा के लिए उदिष्ट, प्रेक्ष्य, तस्यैव और यथासंस्तृत चार प्रकार के अभिग्रह का उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग में सूत्रकार को संस्तारक से तृण, घास-फूस आदि बिछौना ही अभिप्रेत है। अत: यदि साधु-साध्वी को बिछाने के लिए तृण आदि की आवश्यकता पड़े तो, उन्हें ग्रहण करने के लिए वह साधु या साध्वी जिस प्रकार का तृण या घास ग्रहण करना हो उसका नाम लेकर उसकी गवेषणा करे। अर्थात् तृण आदि की याचना के लिए जाने से पूर्व यह उद्देश्य बना ले कि मुझे अमुक प्रकार के तृण का संस्तारक ग्रहण करना है। जैसे-इक्कड़ आदि के तृण, जिनका नाम मलार्थ में दिया गया है। इस तरह उस समय एवं आज भी साध-साध्वी विभिन्न तरह के तण एवं घास-फूस के बिछौने का प्रयोग करते हैं। अतः संस्तारक संबन्धी पहली प्रतिमा (अभिग्रह) है कि साधु यह निश्चय करके गवेषणा करे कि मुझे संस्तारक के लिए अमुक तरह का तृण ग्रहण करना है। इस
१. प्रस्तुत चार प्रतिमाओं में से जिनकल्पी मुनि को तस्यैव और यथासंस्तृत ये दो प्रतिमाएं ही कल्पती हैं। परन्तु, स्थविरकल्पी मुनि को चारों प्रतिमाएं कल्पती हैं।
- आचाराङ्ग वृत्ति।