Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध सकता है। परन्तु, साध्वियां ऐसे स्थान में ठहर सकती हैं। यदि किसी वस्ती में उपरोक्त क्रियाएं पुरुष करते हों तो वहां साध्वियों को नहीं ठहरना चाहिए। छेद सूत्रों में भी बताया गया है कि जिस मकान में स्त्रियां रहती हों उस मकान में साधु को तथा जिस मकान में पुरुष रहते हों उस मकान में साध्वियों को ठहरना नहीं कल्पता।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार लिखते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा से जं. इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा निगिणा ठिया निगिणा उल्लीणा मेहुणधम्मं विन्नविंति रहस्सियं वा मंतं मंतंति नो पन्नस्स जाव नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥१७॥
____ छाया- स भिक्षुर्वा स यत् इह खलु गृहपतिर्वा यावत् कर्मकर्यो वा नग्नाः स्थिताः नग्नाः उपलीनाः मैथुनधर्मं विज्ञपयन्ति रहस्यं वा मंत्र मंत्रयन्ते न प्राज्ञस्य यावन्न स्थानं वा ३ चेतयेत्।
___ पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा०-साधु अथवा साध्वी।से जं०-यदि उपाश्रय के सम्बन्ध में जाने कि। खलु-वाक्यालंकार में है। इह-इस संसार में। गाहावई वा-गृहपति। जाव-यावत्। कम्मकरीओ वा-उसकी दासियां। निगिणा ठिया-नग्न हो कर खड़ी हैं। निगिणा उल्लीणा-नग्न प्रच्छन्न। मेहुणधम्म-मैथुन धर्म विषयकारहस्सियं-किंचित् रहस्य को। विन्नविंति-परस्पर- आपस में कह रही हैं अथवा। मंतं मंतंति-अकार्य के लिए. परस्पर गुप्त मन्त्रणा, गुप्त विचार करती हैं इसलिए। नो पन्नस्स जाव-प्रज्ञावान साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में निष्क्रमण और प्रवेश नहीं करना चाहिए तथा। नो ठाणं वा ३ चेइज्जा-कायोत्सर्गादि भी नहीं करना चाहिए।
मूलार्थ-जिस उपाश्रय-वस्ती में गृहपति यावत् उसकी स्त्रियां और दासियां आदि नग्न अवस्था में खड़ी हैं, और नग्न होकर मैथुनधर्म विषय परस्पर वार्तालाप करती हैं, अथवा कोई रहस्यमय अकार्य के लिए गुप्तमंत्रणा-गुप्त विचार करती हैं तो बुद्धिमान साधु को ऐसे उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए और उसमें कायोत्सर्गादि भी नहीं करना चाहिए।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जिस मकान में स्त्री -पुरुष नग्न होकर आमोद-प्रमोद में व्यस्त हों, विषय-भोग सम्बन्धी वार्तालाप करते हों, रात्रि में मैथुन सेवन के लिए परस्पर प्रार्थना करते हों या किसी रहस्यमय कार्य के लिए गुप्त मन्त्रणा कर रहे हों, तो विवेक सम्पन्न साधु को ऐसे
नो कप्पइ निग्गंथाणं इत्थीसागारिए उवस्सए वत्थए।
कप्पड़ निग्गंथाणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए। नो कप्पइ निग्गंथीणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए।
कप्पइ निग्गंथीणं इत्थीसागारिए उवस्सए वत्थए। नो कप्पइ निग्गंथाणं पडिबद्धए सेजाए वत्थए। कप्पइ निग्गंथीणं पडिबद्धए सेजाए वत्थए।
- बृहत्कल्प सूत्र, १, २७-३२। ।