Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक ३
१९७ संथारदुवारपिहणओ-संस्तारक भूमि को सम करने और द्वार बन्द करने के लिए किवाड़ आदि बनाने से। पिंडवाएसणाओं-तथा पिंडपानैषणा की दृष्टि से भी शुद्ध उपाश्रय का मिलना कठिन है अर्थात् जिसके उपाश्रय में साधु ठहरता है वह गृहस्थ प्रायः आहार का आमंत्रण करता है। अतः साधु वह आहार लेता है तो उसे दोष लगता है, और नहीं लेता तो गृहस्थ के मन को ठेस लगती है। अतः यह कारण भी उपाश्रय की प्राप्ति में विशेष कर बाधक है। यदि उत्तरदोष से शुद्ध उपाश्रय मिल भी गया है तो फिर स्वाध्याय आदि की अनुकूलता से युक्त उपाश्रय का मिलना तो और भी कठिन है, अब सूत्रकार यही बताते हैं कि।य-फिर।से-वे।भिक्खू-भिक्षु-मुनिराज।चरियारएनव कल्पी विहार की चर्या में रत हैं। ठाणरए-तथा कायोत्सर्गादि करने में रत हैं। निसीहियारए-स्वाध्याय करने में रत हैं। सिज्जासंथारपिंडवाएसणारए-शय्या-वस्ती-संस्तार-अढाई हाथ प्रमाण शयन करने का स्थान अथवा रोगादि कारण से शय्या संस्तारक में रत है अर्थात् अंगार एवं धूम आदि दोषों से रहित आहार करते। संति-हैं। भिक्खुणो-कोई-कोई भिक्षु। एवमक्खाइणो-इस प्रकार वसती के यथावस्थित गुण-दोषों के कहने वाले हैं। उज्जुया-सरल हैं। नियागपडिवन्ना-संयम एवं मोक्ष से प्रतिपन्न हैं। अमायं कुव्वमाणा-माया नहीं करने वाले। वियाहिया-कहे गए हैं।
अब सूत्रकार गृहस्थों द्वारा साधु को वस्ती दान देने सम्बन्धि छल करने के विषय में बताते हैं। संतिकितने ही गृहस्थ ऐसे हैं जो साधु को उपाश्रय देने में छल करते हैं यथा- । पाहुडिया-जो उपाश्रय साधु के उद्देश्य से बनाया गया है उसको। उक्खित्तपुव्वा भवइ-दिखाकर कहते हैं कि आप इस उपाश्रय में रहें क्योंकि यह उपाश्रय। निक्खित्तपुव्वा भवइ-हमने अपने लिए बनाया है तथा। परिभाइयपुव्वा भवइ-हमने पहले ही आपस के बंटवारे में बांट लिया है। परिभुत्तपुव्वा भवइ-वह हम लोगों द्वारा पहले ही भोगा जा चुका है। परिवियपव्वा भवड-हमने बहतं पहले से इसे छोड़ा हआ है अतः आपके लिए निर्दोष होने के कारण ग्राह्य है। गृहस्थ इस प्रकार कुछ भी छल-बल करें परन्तु साधु उनके प्रपंच को जानकर कदापि उक्त उपाश्रय में न रहे। यदि कोई गृहस्थ उपाश्रय के गुण दोषादि के विषय में पूछे तो साधु उसको शास्त्रानुसार उपाश्रय के गुण दोष बता दे।अब शिष्य प्रश्न करता है कि- हे भगवन् ! साधु उपाश्रय के गुणदोषों के सम्बन्ध में। एवं वियागरेमाणे-इस प्रकार कहता हुआ। समियाए वियागरेइ ?-क्या सम्यक् कथन करता है ? आचार्य उत्तर देते हैं। हंता भवइ-हां, वह सम्यक् कथन करता है।
. मूलार्थ-भिक्षा के लिए ग्राम में गए हुए साधु को यदि कोई भद्र गृहस्थ यह कहे कि भगवन् ! यहां आहार-पानी की सुलभता है, अतः आप यहां रहने की कृपा करें। इसके उत्तर में साधु यह कहे कि यहां आहार-पानी आदि तो सब कुछ सुलभ है परन्तु निर्दोष उपाश्रय का मिलना दुर्लभ है। क्योंकि साधु के लिए कहीं उपाश्रय में छत डाली हुई होती है, कहीं लीपा-पोती की हुई होती है, कहीं संस्तारक के लिए ऊंची-नीची भूमि को समतल किया गया होता है और कहीं द्वार बन्द करने के लिए दरवाजे आदि लगाए हुए होते हैं, इत्यादि दोषों के कारण शुद्ध निर्दोष उपाश्रय का मिलना कठिन है। और दूसरी यह बात भी है कि शय्यातर का आहार साधु को लेना नहीं कल्पता है। अतः यदि साधु उसका आहार लेते हैं तो उन्हें दोष लगता है और उनके नहीं लेने से बहुत से शय्यातर गृहस्थ रुष्ट हो जाते हैं। यदि कभी उक्त दोषों से रहित उपाश्रय मिल भी जाए, फिर भी साधु की आवश्यक क्रियाओं के योग्य उपाश्रय का मिलना कठिन है। क्योंकि साधु