Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक ३ साधु को उसके धोखे में नहीं आना चाहिए और उसकी तरह स्वयं को भी छल-कपट का सहारा नहीं लेना चाहिए। साधु को सदा सरल एवं निष्कपट भाव ही रखना चाहिए । यदि कोई गृहस्थ छल-कपट रखकर उपाश्रय के गुण-दोष जानना चाहे, तब भी साधु को बिना हिचकिचाहट के उपाश्रय सम्बन्धी सारी जानकारी करा देनी चाहिए । इसी से साधु की साधना सम्यक् रह सकती है ।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'चरियारए' पद से विहार चर्या का 'ठाणरए' से ध्यानस्थ होने का, 'निसिहियाए' से स्वाध्याय का, 'उज्जुया' से छल-कपट रहित सरल स्वभाव वाला होने का एवं 'नियाग पडिवन्ना' से संयम में मोक्ष के ध्येय को सिद्ध करने वाला बताया गया है। और 'संतेगइय पाहुडिया उक्खित्तपुव्वा भवइ' पद से यह स्पष्ट किया गया है कि साधु के उद्देश्य से बनाए गए उपाश्रय को निर्दोष बताना तथा 'एवं परिभुक्षुत्तव्व भवइ, परिट्ठवियपुव्वा भवइ' आदि पदों से इस बात को बताया गया है कि कुछ श्रद्धालु भक्त रागवश सदोष मकान को भी छल-कपट से निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं, साधु को उनकी बातों में नहीं आना चाहिए
यदि कभी परिस्थितिवश साधु को चरक आदि अन्य मत के भिक्षुओं के साथ ठहरना पड़े, तो किस विधि से ठहरना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - से भिक्खू वा० से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा खुड्डियाओ खुड्डदुवारियाओं निययाओ संनिरुद्धाओ भवंति, तहप्पगा० उवस्सए राओ वा वियाले वा निक्खममाणे वा पं पुरा हत्थेण वा पच्छा पाएण वा, तओ संजयामेव निक्खमिज्ज वा २ । केवली बूया - आयाणमेयं, जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तएं वा मत्तए वा दंडए वा लट्ठिया वा भिसिया वा नालिया वा चेलं वा चिलिमिली वा चम्मए वा चम्मकोसए वा चम्मछेयणए वा दुब्बद्धे दुन्निक्खित्ते अणिकंपे चलाचले, भिक्खू य राओ वा वियाले वा निक्खममाणे वा २ पयलिज्ज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा० हत्थं वा० लूसिज्ज वा पाणाणि वा ४ जाव ववरोविज्ज वा। अह भिक्खूणं पुव्वोवइट्ठं जं तह॰ उवस्सए पुराहत्थेण निक्ख० वा पच्छा पाएणं तओ संजयामेव नि० पविसिज्ज वा ॥ ८८ ॥
छाया - स भिक्षुर्वा० स यत् पुनरुपाश्रयं जानीयात् - क्षुद्रिकाः क्षुद्रद्वाराः नीचाः संनिरुद्धा भवन्ति, तथाप्रकारे उपाश्रये रात्रौ वा विकाले वा निष्क्रममाणः वा प्रविशन् पुरो हस्तेन वा पश्चात् पादेन वा ततः संयतमेव निष्क्रामेद् वा प्रविशेद् वा, केवली ब्रूयाद आदानमेतत्, ये तत्र श्रमणानां ब्राह्मणानां वा छत्रको वा मात्रकं वा दण्डको वा यष्टिर्वा वृशिका वा नलिका वा चेलं वा चिलिमिली वा चर्मको वा चर्मकोशको वा चर्मछेदनं वा दुर्बद्धः दुर्निक्षिप्तोऽनिष्कम्पः चलाचलः भिक्षुश्च रात्रौ वा विकाले वा निष्क्रममाणः प्रविशन् वा प्रस्खलेत् वा पतेद् वा स तत्र प्रस्खलन् वा पतन् वा हस्तं वा लूषयेत् वा प्राणानि ४ यावद्