Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक ३
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याचना करनी चाहिए ।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में उपाश्रय की याचना करने की विधि का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है कि साधु को सबसे पहले यह जानना चाहिए कि यह मकान किसके अधिकार में है अथवा किस का है ? मकान मालिक का परिज्ञान करने के बाद उससे उस मकान में ठहरने की आज्ञा मांगनी चाहिए। यदि वह पूछे कि आप कितने समय तक ठहरेंगे तो मुनि उससे कहे कि हम वर्षावास में ४ महीने और शेष काल में एक महीने से ज्यादा बिना किसी कारण के एक स्थान में नहीं ठहरते हैं । यदि वह एक महीने के लिए मकान देने को तैयार न हो तो वह जितने दिन ठहरने की आज्ञा दे उतने दिन उस मकान में ठहरे। उसकी आज्ञा की अवधि पूरी होने के बाद उसकी पुन: आज्ञा लिए बिना साधु को उस मकान में नहीं ठहरना चाहिए। गृहस्थ ने जितने समय के लिए जितने भू-भाग को उपभोग में लेने की आज्ञा दी हो उतने समय तक उतने ही क्षेत्र को अपने काम में ले। यदि कोई गृहस्थ साधुओं की संख्या के विषय में पूछे तो मुनि को निश्चित संख्या में नहीं बंधना चाहिए। क्योंकि, कई बार स्वाध्याय आदि के लिए स्थान की अनुकूलता देखकर आस-पास के क्षेत्र में स्थित साधु भी स्वाध्याय, ध्यान आदि के लिए आ जाते हैं और वापिस चले भी जाते । इस तरह सन्तों की संख्या कम-ज्यादा भी होती रहती है । इसलिए इस सम्बन्ध में उसे इतना ही कहना चाहिए कि साधुओं की संख्या असीम है, उसे नियमित रूप से नहीं बताया जा सकता, परन्तु आपने जितने समय के लिए आज्ञा दी है उससे ज्यादा समय आपकी आज्ञा लिए बिना कोई भी साधु नहीं ठहरेगा ।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अहालंद - यथालंद' पद का अर्द्धमागधी कोष में निम्न अर्थ किया है'जितने समय के लिए कहा गया हो उतने समय तक ठहरे।' पानी से भीगा हुआ हाथ जितनी देर में सूखे उतने समय को जघन्य यथालन्द काल कहते हैं और पांच दिन की अवधि को उत्कृष्ट यथालन्द काल कहते हैं तथा उन दोनों के बीच के समय को मध्यम यथालन्द काल कहते हैं ।
इस तरह उपाश्रय की आज्ञा लेने के बाद साधु को किस तरह रहना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - से भिक्खू वा जस्सुवस्सए संवसिज्जा तस्स पुव्वामेव नामगुत्तं जाणिज्जा । तओ पच्छा तस्स गिहे निमंतेमाणस्स वा अनिमंतेमाणस्स वा असणं वा ४ अफासुयं जाव नो पडिगाहेज्जा ॥ ९० ॥
छाया - स भिक्षुर्वा यस्योपाश्रये संवसेत् तस्य पूर्वमेव नामगोत्रं जानीयात्, ततः पश्चात् तस्य गृहे निमंत्रयतः वा अनिमंत्रयतः वा अशनं वा ४ अप्रासुकं यावन्न प्रतिगृहीयात् । पदार्थ - से- वह। भिक्खू वा - साधु अथवा साध्वी । जस्सुवस्सए - जिसके उपाश्रय में। संवसिज्जाठहरे। तस्स-उसके। नामगुत्तं नाम और गोत्र को । पुव्वामेव- पहले ही । जाणिज्जा - जाने । तओ पच्छा
२. अर्द्धमागधी कोष, पृष्ठ ४५७ ।