Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी इक्षु [ईख] को, सछिद्र इक्षु को तथा जिसका वर्ण बदल गया, त्वचा फट गई एवं शृगालादि के द्वारा खाया गया ऐसा फल, तथा बैंत का अग्रभाग और कन्दली का मध्यभाग तथा अन्य इसी प्रकार की वनस्पति, जो कि कच्ची और शस्त्र परिणत नहीं हुई, मिलने पर अप्रासुक जानकर साधु उसे स्वीकार न करे।
___ गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी लशुन, लशुन के पत्र, लशुन की नाल और लशुन की बाह्यत्वक्-बाहर का छिलका, तथा इसी प्रकार की अन्य कोई वनस्पति जो कि कच्ची और शस्त्रोपहत नहीं हुई है, मिलने पर अप्रासुक जान कर उसे ग्रहण न करे।
गृहपति कुल में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी अस्तिक (वृक्षविशेष) के फल,तिन्दुकफल, बिल्वफल और श्रीपर्णीफल, जो कि गर्त आदि में रखकर धूएं आदि से पकाए गए हों, तथा इसी प्रकार के अन्य फल जो कि कच्चे और अशस्त्र परिणत हों मिलने पर अप्रासुक जान कर उन्हें ग्रहण न करे।
गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी शाल्यादि के कण कणमिश्रित छाणस, कणमिश्रित रोटी, चावल, चावलों का चूर्ण-आटा, तिल, तिलपिष्ठ-तिलकुट और तिलपर्पटतिलपपडी तथा इसी प्रकार का अन्य पदार्थ जो कि कच्चा और अशस्त्र परिणत हो. मिलने पर अप्रासुक जानकर उसे ग्रहण न करे। यह साधु का समग्र-सम्पूर्ण आचार है।
___ हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि अग्रबीज, मूलबीज, स्कन्धबीज, पर्वबीज, अग्रजात, मूलजात, स्कन्धजात, पर्वजात, कन्द का, खजूर का एवं ताड़ का मध्य भाग तथा इक्षु या शृगाल आदि से खाया हुआ फल, लहसुन का छिलका, पत्ता, त्वचा या बिल्व आदि के फल आदि सभी तरह की वनस्पति जो सचित्त है, अपक्व है, शस्त्र परिणत नहीं हुई है, तो साधु को उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अग्रबीज' एवं 'अग्रजात' में यह अन्तर है कि अग्रबीज को भूमि में बो देने पर उस वनस्पति के बढ़ने के बाद उसके अग्रभाग में बीज उत्पन्न होता है, जब कि अग्रजात अग्रभाग में ही उत्पन्न होता है, अन्यत्र नहीं। वृत्तिकार ने 'नन्नत्थ' शब्द के दो अर्थ किए हैं-एक तो अन्यत्र उत्पन्न नहीं होते हैं और दूसरा अर्थ यह किया है कि कदली (केला) आदि फलों का मध्य भाग छेदन होने से नष्ट हो जाता है। इस तरह वे फल अचित्त होने से ग्राह्य हैं। परन्तु, इन अचित्त फलों को छोड़ कर, अन्य अपक्व एवं शस्त्र से परिणित नहीं हुए फलों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसी तरह शृगाल आदि पशु या पक्षियों के द्वारा थोड़ा सा खाया हुआ तथा आग के धुंए से पकाया हुआ फल भी अग्राह्य है।
प्रस्तुत सूत्र का अनुशीलन-परिशीलन करने से स्पष्ट हो जाता है कि उस युग में साधु प्रायः बगीचों में ठहरते थे। शृगाल आदि द्वारा भक्षित फल बगीचों में ही उपलब्ध हो सकते हैं। क्योंकि शृगाल आदि जंगलों में ही रहते एवं घूमते हैं, वे घरों में आकर फलों को नहीं खाते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उस युग में साधु अधिकतर बगीचों में ठहरते थे। इसी कारण वनस्पति की ग्राह्यता एवं अग्राह्यता पर विशेष रूप से विचार किया गया है। जैसे गर्म पानी के चश्मे भी बहते हैं, परन्तु फिर भी वह पानी साधु के लिए अग्राह्य है। इसी तरह कृत्रिम साधनों से पकाए जाने वाले फल भी अग्राह्य हैं। क्योंकि वह उष्ण योनि के जीवों का समूह होने से सचित्त हैं। इसी तरह कुछ फल ऐसे हैं, जो अपक्व एवं शस्त्र परिणत नहीं होने