Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक ९
१११ विरमण त्याग व्रत को धारण करने वाले एवं। गुणवंतो-पिण्ड विशुद्धि आदि उत्तरगुणों को धारण करने वाले। संजया-संयत-अर्थात् इन्द्रिय और मन पर विजय प्राप्त करने वाले। संवुडा-आस्रव। द्वारों को बन्द करने वाले। बंभयारी-ब्रह्मचारी अर्थात् नव विध ब्रह्मचर्य गुप्ति से युक्त।मेहुणाओ धम्माओ-मैथुन धर्म से। उवरया-उपरतनिवृत। भवंति-होते हैं। खलु-वाक्यालंकार में है। एएसिं-उनको। आहाकम्मिए-आधाकर्मिक। असणं वा ४-अशनादिक चतुर्विध आहार। भुत्तए वा-खाना। पायए वा-पीना। नो-नहीं। कप्पइ-कल्पता। पुण-फिर। से जं-वह जो। इमं-यह। अम्हं-हमारे। अट्ठाए-वास्ते। निट्ठियं-बना हुआ है। तं-वह। असणं वा ४अशनादिक चतुर्विध आहार। सव्वमेयं-सभी। समणाणं-इन श्रमणों को। निसिरामो-दे देते हैं। अवियाईअपिच और फिर। वयं-हम। पच्छा-पीछे से। अप्पणो अठे-अपने लिए।असणं वा ४-अशनादिक चतुर्विध आहार। चेइस्सामो-और बना लेंगे। एयप्पगारं-इस प्रकार के। निग्योसं-शब्द को। सुच्चा-सुनकर। निसम्मविचार कर। तहप्पगारं-वह साध इस प्रकार के। असण-अशनादि चतर्विध आहार को। अफासयं०-अप्रासक जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे।
. मूलार्थ इस क्षेत्र में पूर्वादि चारों दिशाओं में कई गृहपति एवं उनके परिजन आदि श्रद्धावान् सद्गृहस्थ रहते हैं, और वे परस्पर मिलने पर इस प्रकार बातें करते हैं कि ये पूज्य श्रमण शील निष्ठ हैं, व्रतधारी हैं, गुण संपन्न हैं, संयमी हैं, संवृत-आस्रवों का निरोध करने वाले हैं, परम-ब्रह्मचारी हैं, मैथुन धर्म से सर्वथा निवृत्त हैं ! इनको आधाकर्मिक अशनादि चतुर्विध आहार लेना नहीं कल्पता है। अतः हमने जो अपने लिए आहार बनाया है, वह सब आहार इन श्रमणों को दे देंगे, और हम अपने लिए और आहार बना लेंगे। उनके इस प्रकार के वार्तालाप को सुन कर तथा विचार कर साधु इस प्रकार के आहार को अप्रासुक जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को अपने घर में आया हुआ देखकर यदि कोई श्रद्धालु गृहस्थ एक-दूसरे से कहें कि ये पूज्य श्रमण संयम निष्ठ हैं, शीलवान हैं, ब्रह्मचारी हैं। इसलिए ये आधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार नहीं लेते हैं। अतः हमने जो अपने लिए आहार बनाया है, वह सब आहार इन्हें दे दें और अपने लिए फिर से आहार बना लेंगे। इस तरह के विचार सुन कर साधु उक्त आहार को ग्रहण न करे। क्योंकि इससे साधु को पश्चात्कर्म दोष लगेगा।
__ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त तीन शब्द विशेष विचारणीय हैं- १-सड्ढा, २-असण वा ४ और ३चेइस्सामो। १- सड्ढा-प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने श्रावक एवं उपासक दोनों शब्दों का उपयोग न करके 'सड्ढा' शब्द का उपयोग किया है। इसका तात्पर्य यह है कि व्रतधारी एवं साधुसमाचारी से परिचित श्रावक इतनी भूल नहीं कर सकता कि वह पश्चात्कर्म का दोष लगाकर साधु को आहार दे। अतः इससे यह स्पष्ट होता है कि इस प्रकार का आहार देने का विचार करने वाला व्यक्ति श्रद्धानिष्ठ भक्त है, परन्तु साधु आचार से पूरी तरह परिचित नहीं है। वह इतना तो जानता है कि ये आधाकर्म आदि आहार ग्रहण नहीं करते हैं। परन्तु, उसे यह ज्ञात नहीं है कि ये पश्चात् कर्म दोष युक्त आहार भी ग्रहण नहीं करते हैं। परन्तु, यह स्पष्ट कर दिया गया है कि चाहे दाता श्रद्धालु हो, प्रकृति का भद्र हो, दोषों से अज्ञात हो फिर भी