Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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स्थिरीकरोतीति स्थविरः ।
प्रथम अध्ययन, उद्देशक १०
१२५
-५-गणी - गणोऽस्यातीति गणी - गणाचार्य: ।
६- गणधर :- गणधरो - जिनशिष्यविशेषः ।
७-गणावच्छेदकः-गणस्यावच्छेदो-विभागोऽशोऽस्यास्तीति यो हिगणांशं
गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायैवोपधिमार्गणादि निमित्तं विहरति स गणावच्छेदकः ।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि उक्त सातों उपाधियां गण की, संघ की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए रखी गई हैं। इनमें गणावच्छेदक का कार्य साधुओं की उपधि आदि की आवश्यकता को पूरा करना है। जब कि आचाराङ्ग सूत्र के वृत्तिकार आचार्य शीलांक ने गणावच्छेदक को गण, गच्छ या संघ का चिन्तक बताया है'। परन्तु, आचार्य अभयदेव सूरि ने जो अर्थ किया है, वह दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र वर्णित आठ गणि संपदाओं से संबन्ध रखता है।
प्रस्तुत सूत्र में 'पुरे संथुवा' और 'पच्छा संथुवा' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य दीक्षाचार्य एवं वाचनाचार्य से है। उक्त सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि दीक्षाचार्य एवं वाचनाचार्य (आगम का ज्ञान कराने वाले) अलग-अलग होते थे ।
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प्रस्तुत सूत्र में खाधु के वात्सल्य भाव का वर्णन किया गया है और साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उसे प्रत्येक कार्य आचार्य आदि की आज्ञा से करना चाहिए । उन्हें बिना बताए या उन्हें बिना पूछे न स्वयं आहार करना चाहिए एवं न अन्य साधुओं को देना चाहिए। ऐसे आहार आदि कार्यों में माया, छल, कपट आदि का परित्याग करके सरल भाव से साधना में संलग्न रहना चाहिए ।
साधु को माया-कपट से सदा दूर रहना चाहिए इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - से एगइओ मणुन्नं भोयणजायं पडिगाहित्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएइ मा मेयं दाइयं संतं दट्ठूणं सयमाइए आयरिए वा जाव गणावच्छेए
वा, नो खलु में कस्सइ किंचि दायव्वं सिया, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं
करिज्जा। से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गहं कट्टु इमं खलु इमं खलुत्ति आलोइज्जा, नो किंचिवि निगूहिज्जा | से एगइओ अन्नयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता भद्दयं २ भुच्चा विवन्नं विरसमाहरइ माइ० नो एवं ॥ ५७ ॥
छाया - स एकतर: मनोज्ञं भोजनजातं प्रतिगृह्य प्रान्तेन भोजनेन प्रतिच्छादयेत् ममेदं दर्शितं सत् दृष्ट्वा स्वयं आदद्यात् आचार्यः वा यावत् गणावच्छेदक : वा नो खलु मे कस्यापि किंचिद् दातव्यं स्यात्, मातृस्थानं संस्पृशेत्, नो एवं कुर्यात् । स तमादाय तत्र गच्छेत् गत्वा पूर्वमेव उत्तानके हस्ते प्रतिग्रहं कृत्वा इदं खलु इदं खलु इति आलोचयेत् दर्शयेत्, न किञ्चिदपि
१ गणावच्छेदकस्तुः गच्छकार्यचिन्तकः ।