Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक १० उच्छुडालगं वा-अथवा छिली हुई इक्षु शाखा का एक भाग। सिंबलिं वा-अथवा मूंग आदि की किसी भी प्रयोग से प्रासुक हुई अचित फलियां, अथवा। सिंबलथालगं वा-बल्ली आदि की अग्नि प्रयोग से अचित्त हुई फलियां। खलु-वाक्यालंकार में है। अस्सिं पडिग्गहियंसि-इस प्रकार का आहार गृहस्थ के पात्र में पड़ा हुआ है। अप्पे सिया भोयणजाए-जिस में भोजन योग्य अंश अल्प है और। बहुउज्झियधम्मिए-परठने-फैंकने योग्य अंश अधिक है। तहप्पगारं- तथाप्रकार के। अंतरुच्छुयं वा-छिला हुआ इक्षु पर्व का मध्य भाग आदि मिलने पर। अफा०-साधु उसे अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। से भिक्खू वा २-वह साधु अथवा साध्वी गृहपति के घर में गया हुआ। से जं०-वह आहार को जाने जैसे कि-बहुअट्ठियं वा मंसं-बहुत अस्थि वाला गूदा अर्थात् जिस वनस्पति के फलों में गुठलियां अधिक हों और गुद्दा कम हो अथवा। मच्छं वा बहुकंटयं-मत्स्य नामक वनस्पति, जिसके फल में कांटे विशेष होते हैं। अस्सिं खलु०- इस प्रकार का आहार गृहस्थ के पात्र में है तथा। तहप्पगारंतथा प्रकार का।बहुअट्ठियं वा मंसं-बहुत अस्थि वाला अर्थात् बहुत गुठली वाला गूदा और बहुत कांटों वाला अचित्तफल। लाभे संते-मिलने पर अकल्पनीय जान कर ग्रहण न करे।
से भिक्खू वा-वह भिक्षु अथवा भिक्षुकी गृहस्थ के घर में गया हुआ। णं-वाक्यालंकार में है। सिया-कदाचित्। बहुअट्ठिएण मंसेण वा-बहुत गुठलियों वाले गूदे से और। मच्छेण वा-बहुत कांटों वाली मत्स्य नामक वनस्पति के फलों से। उवनिमंतिज्जा-उपनिमंत्रित करे कि। आउसंतो समणा !-हे आयुष्मन् श्रमणो ! बहुअट्ठियं मंसं-बहुत अस्थियों वाले गुदे को। पडिगाहित्तए-ग्रहण करना। अभिकंखसि-चाहते हो? एयप्पगारं-इस प्रकार के।निग्घोसं-निर्घोष-शब्द को।सुच्चा-सुन कर और। निसम्म-हृदय में विचार कर। से-वह भिक्षु।पुव्यामेव-पहले ही।आलोएजा-देखे और गृहस्थ के प्रति कहे कि।आउसोत्ति वा-हे आयुष्मन् गृहपते ! या बहन ! खलु-निश्चय ही।मे-मुझे। बहुअट्ठियं वा मंसं-बहुत गुठलियों वाला गूदा। पडिगाहित्तएग्रहण करना। नो कप्पइ-नहीं कल्पता किन्तु यदि तू। मे-मेरे को। दाउं-देना। अभिकंखसि-चाहता है या चाहती है तो। जावइयं-इसमें से जितना।पुग्गलं-पुद्गल खाद्य अंश है। तावइयं-उतना ही।दलयाहि-दे,दे।मा य अट्ठियाई-अस्थियां-गुठलियां मत दे। से-वह, गृहस्थ। सेवं-उस भिक्षु के इस प्रकार।वयंतस्स-कहने पर। परो-वह। अभिहटु-लाकर।अन्तो पडिग्गहंसि-घर में जाकर अन्य पात्र में। बहु-बहुत गुठलियों वाला गूदा। परिभाइत्ता अविभक्त कर और। निहटु-बाहर लाकर। दलइज्जा-दे तो।तहप्पगारं-तथा प्रकार वा।पडिग्गहप्रतिग्रह पात्रगत आहार । परहत्थंसि वा-गृहस्थ के हाथ में हो अथवा। परपायंसि वा-गृहस्थ के पात्र में हो। अफासुयं-उसे अप्रासुक जानकर मिलने पर ग्रहण न करे। से-उस भिक्षु ने। आहच्च-कदाचित्। पडिगाहिए सिया-ऐसा आहार ले लिया हो अर्थात् गृहस्थ ने पात्र में डाल दिया हो, तो फिर। तं-उस गृहस्थ को। नोहित्ति वइज्जा-न अच्छा कहे और। नो-नाहीं। अणिहित्ति वा-बुरा कहे किन्तु। स-वह भिक्षु। तं-उस आहार को आयाय-लेकर। एगंतं-एकान्त स्थान में। अवक्कमिज्जा-चला जाए और वहां जाकर। अहे आरामंसिवाबाग मे अथवा। अहे उवस्सयंसि वा-उपाश्रय में ही। अप्पंडे जाव संताणे-जहां चींटी आदि के अण्डे और मकड़ी आदि के जाले न हों। मंसगं मच्छगं-वहां फल के गूदे और मत्स्य वनस्पति फल को। भुच्चा-खाकर। अट्ठियाइ-गुठलियों और। कंटए-कांटों को। गहाए-ग्रहण कर और। से-वह भिक्षु। तं-उसको। आयायलेकर। एगंतं-एकान्त स्थान के ।अवक्कमिज्जा-चला जाए और वहां जाकर।अहेज्झामथंडिलंसि वा-अग्नि द्वारा दग्ध भूमि आदि अचित्त एवं निर्दोष स्थान को। जाव-यावत्। पमज्जिय २-अच्छी तरह प्रमार्जित करके। परट्ठविजा- ठन गुठलियों को वहां पर ही फैंक दे।