Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक १०
१३१ आदि ही हो सकते हैं। प्रज्ञापना सूत्र में बीज (गुठली ) के लिए अस्थि शब्द का प्रयोग किया गया है । यथा'एगट्ठिया बहुट्ठिया' एक अस्थि (बीज) वाले हरड़ आदि और बहुत अस्थि (बीज) वाले अनार, अमरूद आदि। इससे स्पष्ट होता है कि उक्त शब्दों का वनस्पति अर्थ में प्रयोग हुआ है । अतः वृत्तिकार का कथन संगत नहीं जंचता ।
जब हम प्रस्तुत प्रकरण का गहराई से अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि वृत्तिकार का कथन प्रसंग से बाहर जा रहा है। उक्त सूत्र में गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु का आहार के सम्बन्ध में गृहस्थ के साथ होने वाले सम्वाद का वर्णन किया गया है, न कि औषध के सम्बन्ध में । यदि वृत्तिकार के कथनानुसार यह मान लें कि बाह्य लेप के लिए साधु मांस ग्रहण कर सकता है। तो यह प्रश्न उठे बिना नहीं रहेगा कि बाह्य लेप के लिए कच्चे मांस की आवश्यकता पड़ेगी, न कि पक्व मांस की और कच्चे मांस के लिए किसी के घर न जाकर कसाई की दुकान पर जाना होता है । और यहां कसाई की दुकान का वर्णन न होकर गृहस्थ के घर का वर्णन है। इससे स्पष्ट है कि वृत्तिकार का अपवाद में मांस ग्रहण करने का कथन आगम के अनुकूल प्रतीत नहीं होता। क्योंकि प्रस्तुत पाठ में इसका कहीं भी संकेत नहीं किया गया है कि रोग को उपशान्त करने के लिए मांस को बान्धना चाहिए। अतः वृत्तिकार का कथन प्रस्तुत सूत्र से विपरीत होने के कारण मान्य नहीं हो सकता ।
प्रस्तुत सूत्र के पूर्व भाग में वनस्पति का स्पष्ट निर्देश है और उत्तर भाग में मांस शब्द का उल्लेख है । इस तरह पूर्व एवं उत्तर भाग का परस्पर विरोध दृष्टिगोचर होता है। एक ही प्रकरण में वनस्पति एवं मांस का सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता। और अस्थि एवं मांस शब्द का आगम एवं वैद्यक ग्रन्थों में गुठली एवं गुद्दा अर्थ में प्रयोग मिलता है। आचाराङ्ग सूत्र में जहां धोवन (प्रासुक) पानी का वर्णन किया गया है, वहां अस्थि शब्द को प्रयोग किया गया है। उसमें बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ आम्र आदि के धोवन को साधु के सामने छानकर एवं अस्थि (गुठली ) निकाल कर दे तो ऐसा धोवन पानी साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां गुठली के लिए अस्थि शब्द का प्रयोग हुआ है । और यह भी स्पष्ट है कि आम्र के धोवन अस्थि (हड्डी) के होने की कोई सम्भावना ही नहीं हो सकती। उसमें गुठली
१ ते मांस शुद्धि जे कुलिया विना आहार न उं दलछड़ ते जिमी नदं कुलिया कंटकादि लेई एकांति निरवद्य स्थंडिलइंज्झाम थंडिलंसि कहतां अग्निदग्ध स्थानक नीवाहादिक तिहां आवी पडिलेही २ प्रमार्जी २ परिठवई। ए परठवि वा नी विधि जाणवी जिणि कारणी एकेक वनस्पति माहिला कुलिया आहारी न सकिवइ पान न कराय कंटक गलइ न अतरइ तिणी कारणि परठविवा कह्या । इहां वृत्तिकार लोक प्रसिद्ध मांस मत्स्यादिक न उ भाव वखाणय उछ इ पर सूत्र स्यडं विरोध भणिए अर्थ न संभवइ । पछड़ बली श्री जिनमतना जाण गितार्थ जे प्रमाण करेइं ते प्रमाण । शास्त्र माहिं अस्थि शब्द इं कुलिया घणे ठामे कह्या छ । श्री पन्नवणा माहिं वनस्पति अधिकारि "एगट्ठिया, बहुअट्ठिया" एहवां शब्द छइ एगट्ठिया हरड़इ प्रभृति बहुअट्ठिया दाड़िम प्रभृति जाणि वा इमइज इहां अस्थि न इ शब्दइं कुलिया बोल्या छइ, त उ मांस शब्दिई मांहिल उ गिर संभावियइ, एह भणी वनस्पति विशेष मांस मत्स शब्दिइं फलाख्या छइ इम चारित्रिया नइ मांस अने मत्स उघाडइ भाविं कारणं पुण आहारवा योग्य न दीसइ, तथा वली सूत्र माहिं ए साधु नइ उत्सरिंग कह्यउ छड़, वृत्ति माहिं अपकादि पद बखाणि उंछ, तिणि विशादिं सूत्र स्यउं मिलतुं पण नथी, तिणि कारणि वनस्पति विशेष कहतां सूत्र नउ अर्थ जिम उत्सर्गि छइ तिमइ जमिल इति भावः । - उपाध्याय पार्श्वचन्द्र सूरि ।
२.
आचारांग सूत्र, २, १, ८, ४३ ।