Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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___श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध या प्रज्वलित आग को बुझाते हैं। अतः उनके साथ बसते हुए भिक्षु के मन में कभी ऊंचे-नीचे परिणाम भी आ सकते हैं। कभी वह यह भी सोच सकता है कि ये गृहस्थ अग्नि को उज्ज्वलित और प्रज्वलित करें या ऐसा न करें, यह अग्नि को बुझा दें या न बुझाएं। इसलिए तीर्थंकरादि ने भिक्षु को पहले ही यह उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के सागारिक उपाश्रय में न ठहरे।
हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में भी गृहस्थ के साथ गृहवास करने का निषेध किया गया है और बताया गया है कि उसके साथ निवास करने से मन विभिन्न संकल्प-विकल्पों में चक्कर काटता रहेगा। कभी गृहस्थ दीपक प्रज्वलित करेगा और कभी जलते हुए दीपक को बुझा देगा। उसके इन कार्यों से साधु की साधना में रुकावट पड़ने के कारण उसके मन में ऊंचे-नीचे संकल्प-विकल्प उठ सकते हैं। इन सब संकल्प-विकल्पों से बचने के लिए साधु को गृहस्थ के साथ नहीं ठहरना चाहिए।
इस संबन्ध में सूत्रकार और भी बताते हैं
मूलम्- आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावइस्स कुंडले वा गुणे वा मणी वा मुत्तिए वा हिरण्णे वा सुवण्णे वा कडगाणि वा तुडियाणि वा तिसराणि वा पालंबाणि वा हारे वा अद्धहारे वा एगावली वा कणगावली वा मुत्तावली वा रयणावली वा तरुणियं वा कुमारि अलंकियविभूसियं पेहाए , अह भिक्खू उच्चाव एरिसिया वा सा नोवा एरिसिया इय वा णं बूया इय वा णं मणं साइज्जा। अह भिक्खूणं पु०.४ जं तहप्पगारे उवस्सए नो ठा० ॥७०॥
छाया- आदानमेतत् भिक्षोः गृहपतिभिः सा संवसतः इह खलु गृहपतेः कुंडलं वा गुणं वा मणिं वा मौक्तिकं वा हिरण्येषु वा सुवर्णेषु वा कटकानि वा त्रुटितानि वा त्रिसराणि वा प्रालम्बानि वा, हारं वा अर्द्धहारं वा, एकावलिं वा कनकावलिं वा मुक्तावलिं वा रत्नावलिं वा तरुणिकां वा कुमारी वा अलंकृतविभूषितां प्रेक्ष्य, अथ भिक्षुः उच्चावचं. मनः कुर्यात् ईदृशी वा सा नो वा ईदृशी इति वा ब्रूयात् इति वा मनः स्वदेत अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टम् ४ यत् तथाप्रकारे उपाश्रये नो स्थानं ३ चेतयेत्।
पदार्थ:- आयाणमेयं-गृहस्थों के साथ निवास करना साधु के लिए कर्मबन्ध का कारण है। भिक्खुस्स-साधु को।गाहावईहिं सद्धिं-गृहस्थों के साथ।संवसमाणस्स-बसते हुए ये दोष लग सकते हैं, जैसे कि। इह खलु-निश्चय ही उस स्थान में। गाहावइस्स-गृहस्थ के। कुंडले वा-कुण्डल-कानों में डालने के आभूषण। गुणे वा-धागे में पिरोया हुआ आभूषण विशेष, अथवा मेखला-तगड़ी। मणी वा-चन्द्रकान्तादि मणि। मत्तिए वा-अथवा मोती। हिरण्णेवा-दीनार-मोहर आदि। सवण्णेवा-सवर्ण-सोना। कडगाणि वा-कडे। तुडियाणि वा-भुजाओं के आभूषण। तिसराणि वा-तीन लड़ी का हार। पालंबाणि वा-गले में धारण करने वाली एक लम्बी माला। हारे वा-अठारह लड़ी का हार। अद्धहारे वा-नौ लड़ी का अर्द्धहार। एगावली वा