Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
आसणाणि जाव गिहाणि वा तेहिं अणोवयमाणेहिं उवयंति अयमाउसो ! अणभिक्कंतकिरिया यावि भवइ ॥ ८१ ॥
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छाया - इह खलु प्राचीनं वा यावत् रोचमानैः बहून् श्रमण-ब्राह्मण- अतिथि- प्र-कृपणवनीपकान् समुद्दिश्य तत्र तत्र अगारिभिः अगाराणि चेतितानि भवन्ति, तद्यथा - आदेश वा यावत् भवनगृहाणि वा, ये भयत्रातारः तथाप्रकाराणि आदेशनानि यावद् गृहाणि वा तैः अनवपतद्भिः अवपतन्ति, अयमायुष्मन् ! अनभिक्रान्तक्रिया चापि भवति ।
पदार्थ - इह-इस संसार में। खलु निश्चय ही । पाईणं-पूर्वादि दिशाओं में जो श्रद्धालु गृहस्थ हैं, साधु क्रिया को नहीं जानते हैं परन्तु बसती दान का स्वर्गफल उन्होंने सुना है और उस पर जाव- यावत् श्रद्धा और। रोयमाणेहिं-रूचि करने से। बहवे बहुत से। समणमाहणअतिहिकिवणवणीमए - शाक्यादि श्रमण, ' ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और वनीपकों को। समुद्दिस्स उद्देश्य करके । तत्थ तत्थ-जहां तहां। अगारीहिं-उनगृहस्थों ने। अगाराई-गृह। चेइयाई - बड़े विशाल रूप में बनाए हैं। तं०-जैसा कि । आएसणाणि - लोहकार शाला। जाव- यावत्। भवणगिहाणि - - तलघर आदि । जे - जो । भयंतारो-पूज्य मुनिराज । तहप्प० - तथाप्रकार के । आएसणाणि - लोहकार शाला । जाव - यावत् । गिहाणि - तलघरों में जो कि । तेहिं उन गृहस्थों और शाक्यादि श्रमणों से। अणोवयमाणेहिं-उपयोग में नहीं लिए गए हैं। उवयंति-ठहरते हैं तो । अयमाउसो - हे आयुष्मन् शिष्य ! यह । अणभिक्कंतकिरिया यावि भवइ - अनभिक्रान्त क्रिया है ।
मूलार्थ — हे आयुष्मन् शिष्य ! संसार में बहुत से श्रद्धालु गृहस्थ ऐसे हैं जो साधु के आचार विचार को नहीं जानते हैं, परन्तु बसती दान के स्वर्गादि फल को जानते हैं। अस्तु, उन लोगों ने उक्त स्वर्ग के फल पर श्रद्धा और अभिरुचि करते हुए शाक्यादि श्रमणों का उद्देश्य करके लोहकार शाला यावत् तलघर आदि बनाए हैं। यदि ये लोहकारशाला यावत् तलघर आदि स्थान, गृहस्थों ने तथा शाक्यादि श्रमणों ने अपने उपभोग में नहीं लिए हैं, अर्थात् बनने के बाद वे खाली ही पड़े रहे हैं। ऐसे स्थानों में यदि जैन साधु ठहरते हैं तो उन्हें अनभिक्रान्त क्रिया लगती है ।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पूर्व सूत्र में अभिव्यक्त की गई बात को दोहराते हुए कहा गया कि यदि किसी श्रद्धालु गृहस्थ द्वारा शाक्य आदि श्रमणों एवं अपने उपभोग के लिए बनाए गए स्थानों में वे अन्यमत के श्रमण एवं गृहस्थ ठहरे नहीं हैं; उन्होंने उस मकान को अपने उपभोग में नहीं लिया है, तो जैन साधु को वहां नहीं ठहरना चाहिए। इसमें आरम्भ आदि के दोष की दृष्टि के अतिरिक्त एक कारण यह भी है कि यदि कालान्तर में उस मकान में कोई उपद्रव हो गया या उससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ तो लोगों में यह अपवाद फैल सकता है कि इसमें सबसे पहले जैन मुनि ठहरे थे । अतः इस तरह की भ्रान्ति न फैले इस दृष्टि से भी साधु को पुरुषान्तरकृत मकान में ही ठहरना चाहिए।
अब वर्ज्याभिधान क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - इह खलु पाईणं वा ४ जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं एवं