Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक १
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प्रवृत्ति कर्मबन्ध का कारण होने से साधु के लिए इसका निषेध किया है। यदि कोई साधु तटस्थ एवं मध्यस्थ भाव से संघर्ष को शान्त करने का प्रयत्न करता है तो उसका कहीं निषेध नहीं किया गया है, भगवान महावीर ने कहा है कि साधु जनता को शान्ति का मार्ग बताए और उपदेश के द्वारा कलह को शान्त करने का प्रयत्न करे। अस्तु, प्रस्तुत प्रसंग में जो निषेध किया है वह राग-द्वेष युक्त भाव से किसी का पक्ष लेकर हां या ना करने का निषेध किया गया है, और इसी भावना को सामने रख कर साधु को परिवार युक्त मकान में ठहरने का निषेध किया गया है, जिससे वह पारिवारिक संघर्ष से अलग रहकर अपनी साधना में संलग्न रह सके ।
इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावई अप्पणो सयट्ठाए अगणिकायं उज्जालिज्जा वा पज्जालिज्ज वा, विज्झविज्ज वा, अह भिक्खू उच्चावयं मणं नियंच्छिज्जा एए खलु अगणिकायं उ० वा २ मा वा उ० पज्जलिंतु वा मा वा प०, विज्झविंतु वा मा वा वि०, अह भिक्खूणं पु० जं तहप्पगारे उ० नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥ ६९ ॥
छाया- - आदानमेतद् भिक्षोः गृहपतिभिः सार्द्धं संवसतः इह खलु गृहपतिः आत्मनः स्वार्थमग्निकायं उज्ज्वालयेद् वा प्रज्वालयेद् वा विध्यापयेद् वा अथ भिक्षुः उच्चावचं मनः कुर्यात् एते खलु अग्निकायमुज्वालयन्तु वा २ मा वा उज्वालयन्तु, प्रज्वालयन्तु वा मा वा विध्यापयन्तु अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टं यत् तथाप्रकारे उपाश्रये नो स्थानं वा ३ चेतयेत् ।
पदार्थ - भिक्खुस्स- भिक्षु को । गाहावईहिं गृहपतियों-गृहस्थों के । सद्धिं साथ। संवसमाणस्सनिवास करना। आयाणमेयं - यह कर्म बन्धन का कारण है । इह खलु निश्चय ही उस उपाश्रय में। गाहावईगृहस्थ । अप्पणी संयट्ठाए अपने स्वार्थ के लिए- आत्म-प्रयोजन के लिए । अगणिकायं - अग्निकाय को। उज्जालिज्जा वा - उज्वलित करे अथवा । पज्जालिज्जा-प्रज्वलित करे। वा अथवा । विज्झविज्ज वा - बुझावे, इस प्रकार के काम करते हुए को देखकर । अह - अथ । भिक्खू भिक्षु कभी । उच्चावयं-ऊंचा -नीचा । मणं नियंच्छिज्जा - मन करे, यथा । खलु निश्चय ही। एए-ये गृहस्थ लोग । अगणिकायं-अग्निकाय-अग्नि को । उ० वा. २ - उज्वलित करें । मा वा उ०- अथवा उज्वलित न करें, तथा । पज्जालिंतु प्रज्वलित करें। मा वा प०अथवा प्रज्वलित न करें। विज्झाविंतु वा-बुझा दें । मा वा वि० अथवा न बुझाएं। अह अथ । भिक्खूणंभिक्षुओं को। पु० - तीर्थंकरादि का पहले ही यह उपदेश है। जं- जो । तहप्पगारे - तथाप्रकार के । उ०- उपाश्रय में। ठाणं वा ३ - स्थानादि । नो चेइज्जा-न करे- ठहरे।
मूलार्थ - गृहस्थादि से युक्त उपाश्रय में ठहरना साधु के लिए कर्म-बन्ध का कारण है। क्योंकि वहां पर गृहस्थ लोग अपने प्रयोजन के लिए अग्नि को उज्वलित और प्रज्वलित करते हैं
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उत्तराध्ययन सूत्र १०