Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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__ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध वह स्वाध्याय, ध्यान एवं चिन्तन-मनन के समय का उल्लंघन नहीं करेगा और स्वाध्याय आदि के करने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय या क्षयोपशम होगा और उसके ज्ञान में अभिवृद्धि होगी। और समय पर क्रियाएं न करके आगे-पीछे करने से अधिक स्वाध्याय आदि के लिए भी व्यवस्थित समय नहीं निकाल सकेगा। अतः मुनि को मास कल्प एवं वर्षावासकल्प के पश्चात् बिना किसी कारण के काल का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए
अब सूत्रकार उपस्थान क्रिया के सम्बन्ध में कहते हैं
मूलम्- से आगंतारेसुवा ४ जे भयंतारा उडुबद्धियं वा वासावासियंवा कप्पं उवाइणावित्ता तं दुगुणतिगुणेण वा अपरिहरित्ता तत्थेव भुजो संवसंति, अयमाउसो ! उवट्ठाणकिरिया यावि भवति ॥७९॥
छाया- स आगन्तागारेषु वा ४ ये भयंतार:( भयत्रातारः) ऋतुबद्धं वा वर्षावासं वा कल्पमुपनीयतं द्विगुणत्रिगुणेन वा अपरिहृत्य तत्रैव भूयः संवसन्ति, अयमायुष्मन् ! उपस्थानक्रिया चापि भवति।
पदार्थ-से-वह-भिक्षु।आगंतारेसु वा ४-धर्मशाला आदि स्थानों में। जे भयंतारो-पूज्य मुनिराज। उडुबद्धियं-शीतोष्ण काल में मासकल्प तथा। वासावासियं वा-वर्षाऋतु में चातुर्मास। कप्पं-कल्प को। उवाइणित्ता-बिता कर। तं-वह अन्यत्र । दुगुणतिगुणेण वा-द्विगुण त्रिगुण काल को। अपरिहरित्ता-न बिता कर। तत्थेव-वहीं।भुजो-पुनः। संवसंति-निवास करते हैं।अयमाउसो-हे आयुष्मन् शिष्य ! यह । उवट्ठाणकिरिया यावि-उपस्थान क्रिया। भवति-होती है, अर्थात् इसे उपस्थान क्रिया कहते हैं। .
मूलार्थ हे आयुष्मन् ( शिष्य)! जो साधु धर्मशाला आदि स्थानों में, शेषकाल में मास कल्प आदि और वर्षा काल में चातुर्मासकल्प को बिताकर अन्य स्थानों में द्विगुण या त्रिगुण काल को न बिताकर जल्दी ही फिर उन्हीं स्थानों में निवास करते हैं, तो उन्हें उपस्थान क्रिया लगती है।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु-साध्वी ने जिस स्थान में मास कल्प या वर्षावासकल्प किया है, उससे दुगुना या तिगुना काल व्यतीत किए बिना उक्त स्थान में फिर से मास या वर्षावास कल्प नहीं करना चाहिए। यदि कोई साधु-साध्वी अन्य क्षेत्र में मर्यादित काल बिताने से पहले पुनः उस क्षेत्र में आकर मास या वर्षावास कल्प करते हैं तो उन्हें उपस्थान क्रिया लगती है। इससे स्पष्ट है कि जिस स्थान में एक महीना ठहरे हों उस स्थान पर दो या तीन महीने अन्य क्षेत्रों में लगाए बिना मास कल्प करना नहीं कल्पता। इसी तरह जहां चातुर्मास किया है उस क्षेत्र में दो या तीन वर्षावास अन्य क्षेत्रों में किए बिना पुनः वर्षावास करना नहीं कल्पता। इस प्रतिबन्ध का कारण यह है कि नए-नए क्षेत्रों में घूमते रहने से साधु का संयम भी शुद्ध रहता है और अनेक क्षेत्रों को उनके उपदेश का लाभ भी मिलता है। और अनेक प्राणियों को आत्म विकास करने का अवसर मिलता है। मुनियों का आवागमन कम होने से कई बार लोगों की श्रद्धा में शिथिलता एवं विपरीतता भी आ जाती है। नन्दन-मणियार का उदाहरण हमारे सामने है। वह व्रतधारी श्रावक था, परन्तु साधुओं का संपर्क कम रहने से, साधुओं का दर्शन न होने से