Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक २
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प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि जिस मकान में मल-मूत्र के परिष्ठापन का योग्य स्थान न हो वहां साधु को नहीं ठहरना चाहिए तथा यह भी स्पष्ट होता है कि मल-मूत्र के त्याग के लिए साधु द्वार खोलकर जा सकता है एवं वापिस आने पर बन्द भी कर सकता है।
इस सूत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि साधु को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए, जिसमें गृहस्थ का कीमती सामान पड़ा हो। इस तरह गृहस्थ के साथ ठहरने से साधु की साधना में अनेक दोष आने की संभावना है। इसलिए साधु को गृहस्थ से युक्त मकान में नहीं ठहरना चाहिए।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - से भिक्खू वा से जं० तणपुंजेसु वा, पलाल-पुंजेसु वा सअंडे जाव ससंताणए, तहप्पगारे उ० नो ठाणं वा ३ । से भिक्खू वा० से जं० तणपुं० पलाल अप्पंडे जाव चेइज्जा ॥७६ ॥
छाया - स भिक्षुर्वा स यतः तृणपुंजेषु वा पलालपुंजेषु वा साण्डः यावत् ससन्तानकः तथाप्रकारे उपाश्रये नो स्थानं वा ३ । स भिक्षुर्वा स यत् तृणपुंजेषु वा पलालपुं० अल्पाण्डे यावत् चेतयेत् ।
पदार्थ - से वह । भिक्खू वा भिक्षु अथवा भिक्षुणी । से वह । जं० - जो फिर उपाश्रय के सम्बन्ध में जाने, जैसे कि । तणपुञ्जेसु वा तृण के समूह में । पलालपुञ्जेसु वा पलाल के समूह में। सअंडे - अण्डे । जाव-यावत्। ससंताणए-मकड़ी के जाले हैं तो । तहप्पगारे - इस प्रकार के । उ०- उपाश्रय में साधु । नो ठाणं वा ३-कायोत्सर्गादि क्रिया न करे। से वह । भिक्खू वा० - भिक्षु साधु या साध्वी । से वह । जं०- उपाश्रय को जाने, जैसे कि । तपु० - तृण का समूह। पलाल० - अथवा पलाल के समूह में । अप्पंडे-अंडों से रहित है। जाव-यावत् मकड़ी आदि के जालों से रहित है तो इस प्रकार के उपाश्रय में । चेइज्जा - कायोत्सर्गादि क्रिया करे एवं ठहरें ।
मूलार्थ - साधु अथवा साध्वी उपाश्रय के संबन्ध मे यह जाने कि यदि तृण एवं पलाल का समूह अण्डों से युक्त है, अथवा मकड़ी के जालों से युक्त है तो इस प्रकार के उपाश्रय में कायोत्सर्गादि न करे। वह भिक्षु यदि यह जाने कि यह उपर्युक्त प्रकार का उपाश्रय अण्डों से रहित यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, तो इस प्रकार के उपाश्रय में कायोत्सर्गादि क्रियाएं कर सकता
है। हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में यह अभिव्यक्त किया गया है कि तृण और पलाल (घास) के पुंजों से निर्मित्त उपाश्रय अण्डे आदि से युक्त हो तो साधु को वहां नहीं ठहरना चाहिए और न कायोत्सर्ग (ध्यान) ही करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि उस युग में साधु गांवों में अधिक भ्रमण करते थे । क्योंकि, घास-फूस की झोंपड़िएं ( मकान ) प्रायः गाँवों में ही मिलती हैं। और इस पाठ से यह भी ध्वनित होता है कि मकान के जिस भाग में साधु को कायोत्सर्ग आदि क्रियाएं करनी हों, उस भाग में अण्डा एवं त्रस जीव आदि न हों। दशवैकालिक सूत्र में भी बताया गया है कि कायोत्सर्ग करते समय या अन्य समय में मुनि के शरीर पर या वस्त्र - पात्र आदि पर ऊपर से त्रस जीव गिर गया हो तो मुनि उसे बिना किसी तरह