Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक ११ भिक्षु। गिलाइ-रोगी है। सेहंदह-यह आहार तुम ले लो। णं-वाक्यालंकार में है। तस्साहरह-उसके लिए दे दो। से य भिक्खू-यदि रोगी-वह भिक्षु।न भुंजिज्जा-न खावे तो।तुमं-चेव-तुम ही। जिजासि-भोग लेना।णंवाक्यालंकार में है।से एगइओ-वह कोई एक भिक्षु गृहस्थ से आहार लेकर मन में विचारता है कि।भोक्खामित्ति कटु-इस आहार को मैं ही भोगूंगा-मैं ही खाऊंगा। पलिउंचिय पलिउंचिय-अस्तु मनोज्ञ आहार को छुपा छुपाकर वातादि रोगों को उद्देश्य कर। आलोइज्जा-दिखलाता है। तंजहा-जैसे कि। इमे पिंडे-यह जो आहार साधुओं ने आपके लिए दिया है, यह अपथ्य है; क्योंकि। इमे लोए-यह रूक्ष आहार है। इमे तित्ते-यह तिक्त है। इमे कडुयए-यह कटुक है। इमे कसाए-यह कषाय है। इमे अंबिले-यह खट्टा है। इमेमहुरे-यह मीठा है। खलु-निश्चय ही। इत्तो-इससे। किंचि-किंचिन्मात्र भी। गिलाणस्स-रोगी को।नो सयइत्ति-लाभ नहीं होगा, सा करने से वह भिक्षमाइटठाणं-मातस्थान-छलके स्थान का।संफासे-सेवन करता है। एवं-इस प्रकार।नो करिजा-वह न करे किन्तु।तहाठियं-तथावस्थित।आलोइज्जा-दिखलावे।जहाठियं-यथावस्थित।गिलाणस्सरोगी को। सयइत्ति-लाभ पहुंचे। तं-जैसे कि। तित्तयं तित्तएति-तिक्त को तिक्त। वा-और। कडुयं कडुअंकटुक को कटुक। कसायं कसायं-कषाय को कषाय।अंबिलं अंबिलं-खट्टे को खट्टा। महुरं महुरं-मधुर को मधुर कहे।
मूलार्थ-एक क्षेत्र में किसी कारण से साधु रहते हैं, वहां पर ही ग्रामानुग्राम विचरते हुए अन्य साधु भी आ गए हैं और वे भिक्षाशील मुनि मनोज्ञ भोजन को प्राप्त कर उन पूर्वस्थित भिक्षुओं को कहें कि अमुक भिक्षु रोगी है उसके लिए तुम यह मनोज्ञ आहार ले लो। यदि वह रोगी भिक्षु न खाए तो तुम खा लेना ? अस्तु, किसी एक भिक्षु ने उनके पास से आहार लेकर मन में विचार किया कि यह मनोज्ञ आहार मैं ही खाऊंगा! इस प्रकार विचार कर उस मनोज्ञ आहार को अच्छी तरह छिपा कर, रोगी भिक्षु को अन्य आहार दिखाकर कहे कि यह आहार भिक्षुओं ने आप के लिए दिया है। किन्तु यह आहार आपके लिए पथ्य नहीं है, क्योंकि यह रूक्ष है, तिक्त है, कटुक है, कसैला है, खट्टा है, मधुर है, अतः रोग की वृद्धि करने वाला है, आपको इससे कुछ भी लाभ नहीं होगा। जो भिक्ष इस प्रकार कपट चर्या करता है, वह मातृस्थान का स्पर्श करता है, अतः भिक्षु को ऐसा कभी नहीं करना चाहिए। किन्तु जैसा भी आहार हो उसे वैसा ही दिखाए- अर्थात् तिक्त को तिक्त, कटुक को कटुक, कषाय को कषाय, खट्टे को खट्टा और मीठे को मीठा बताए। तथा जिस प्रकार रोगी को शांति प्राप्त हो उसी प्रकार पथ्य आहार के द्वारा उसकी सेवा-शुश्रूषा करे।
हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में रोगी साधु की निष्कपट भाव से सेवा शुश्रूषा करने का आदेश दिया गया है। यदि किसी साधु ने किसी रोगी साधु के लिए मनोज्ञ आहार दिया हो तो सेवा करने वाले साधु का कर्त्तव्य है कि जिस साधु ने जैसा आहार दिया है उसे उसी रूप में बताए। ऐसा न करे कि उस मनोज्ञ आहार को स्वयं के लिए छिपाकर रख ले और बीमार साधु से कहे कि तुम्हारे लिए अमुक साधु ने यह रूखा-सूखा, खट्टा, कषायला आदि आहार दिया है जो आपके लिए अपथ्यकर है। यदि स्वाद लोलुपता के वश साधु इस तरह से सरस आहार को छुपाकर उस रोगी साधु को दूसरे पदार्थ दिखाता है
और उसके सम्बन्ध में गलत बातें बताता है तो वह माया-कपट का सेवन करता है। कपट आत्मा को गिराने वाला है। इससे महाव्रतों में दोष लगता है और साधु साधुत्व से गिरता है। अतः साधु को अपने