Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अपने स्वाद का पोषण करने के लिए छल-कपट नहीं करना चाहिए। जैसा आहार दिया गया है, उसे उसी रूप में रोगी साधु के सामने रख देना चाहिए।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु-समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे वा मणुन्नं भोयणजायं लभित्ता से य भिक्खू गिलाइ से हंदह णं तस्स आहरह, से य भिक्खू नो भुंजिजा आहारिजा, से णं खलु मे अंतराए आहरिस्सामि, इच्चेयाइं आयतणाई उवाइक्कम्म॥६१॥
छाया-भिक्षाकाः नामेके एवमाहुः समानान् वा वसमानान् वा ग्रामानुग्रामं दूयमानान् वा मनोज्ञं भोजनजातं लब्ध्वा स च भिक्षुः ग्लायति स गृणीत, णं तस्य आहरत स च भिक्षुः नो भुंक्ते आहरेत् स न खलु मे अन्तरायं आहरिष्यामि इत्येतानि आयतनानि उपातिक्रम्य। ''
पदार्थ-नाम-संभावना अर्थ में है। एगे-कोई एक।भिक्खागा-भिक्षा से जीवन व्यतीत करने वाले भिक्षु-साधु। एवमाहंसु-इस प्रकार साधुओं के समीप आकर कहने लगे। समाणे वा-संभोगी साधुओं को। वसमाणे-अथवा एक क्षेत्र में स्थिर वास रहने वालों को अथवा। गामाणुगामं दूइज्जमाणे वा-ग्रामानुग्राम विहार करने वालों को। मणुन्नं-मनोज्ञ। भोयणजायं-भोजन पदार्थ। लभित्ता-प्राप्त कर। से-वह। भिक्खू साधु, बसते हुए या विहार करने वाले आगन्तुक साधु को कहे कि। गिलाइ-जो भिक्षु रोगी है उसके लिए। हंदह-यह आहार ले लो। तस्स-उसको।आहरह-दे दो। णं-वाक्यालंकार में है, यदि। से-वह। भिक्खू-रोगी साधु। नो भुंजिज्जा-न खावे, तो। आहारिज्जा-वापिस लाकर हमको दे देना क्योंकि हमारे यहां भी रोगी साधु है। य णंप्राग्वत्। से-वह-भिक्षु, लेने वाला कहने लगा कि यदि। मे-मुझे। नो अंतराए-कोई अंतर न हुआ अर्थात् आने में कोई विघ्न उपस्थित न हुआ तो।आहरिस्सामि-मैं वापिस लाकर दे दूंगा, इस प्रकार प्रतिज्ञा कर, वह आहार रोगी को न देकर आप ही खा जाता है तो। इच्चेयाई-इस प्रकार यह कार्य। आयतणाइं-कर्म बन्धन का कारण है। उवाइक्कम्म-इनको सम्यक् प्रकार से दूर करके रोगी साधु की सेवा करनी चाहिए। क्योंकि छल-कपटादि से कर्म का बन्ध होता है।
मूलार्थ-एक भिक्षाशील साधु, संभोगी साधु वा एक क्षेत्र में स्थिरवास रहने वाला साधु गृहस्थ के वहां से मनोज्ञ आहार प्राप्त करके ग्रामानुग्राम विचरने वाले अतिथि रूप में आए हुए साधुओं से कहे कि तुम रोगी साधु के लिए यह मनोज्ञ आहार ले लो, यदि वह रोगी साधु इसे न खाए तो यह आहार हमें वापिस लाकर दे देना, क्योंकि हमारे यहां भी रोगी साधु है। तब वह आहार लेने वाला साधु उनसे कहे कि यदि मुझे आने में कोई विघ्न न हुआ तो मैं इस आहार को वापिस लाकर दे दूंगा, परन्तु रस लोलुपी वह साधु उस आहार को रोगी को न देकर स्वयं खा जाए और पूछने पर कहे मेरे शूल उत्पन्न हो गया था अर्थात् मेरे पेट में बहुत दर्द हो गया था इस लिए मैं नहीं
आ सका, इस प्रकार वह साधु मायास्थान का सेवन करता है, अतः इस तरह के पापकर्मों के स्थानों को सम्यक्तया दूर करके, रोगी साधु की आहार आदि के द्वारा सेवा करनी चाहिए।