Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध पुप्फेइ वा कसायं कसाएइ वा सव्वमेयं भुंजिजा, नो किंचिवि परि०॥५३॥
छाया- स भिक्षुर्वा २ अन्यतरत् पानकजातं प्रतिगृह्य पुष्पं २ आपीय कषायं २ परिष्ठापयेत् मातृस्थानं संस्पृशेत् न एवं कुर्यात्। पुष्पं पुष्पमिति वा कषायं कषाय इति वा सर्वमेतत् भुंजीत न किञ्चिदपि परिष्ठापयेत्।
पदार्थ-से-वह। भिक्खू वार-साधु अथवा साध्वी गृहस्थ के घर मे प्रवेश करने पर। अन्नयरंकोई एक। पाणगजायं-पानी को। पडिगाहित्ता-लेकर फिर उसमें से। पुष्कं २-वर्ण गन्ध युक्त पानी को।
आविइत्ता-पीकर और।कसायं २-कषाय अर्थात् वर्ण गन्ध रहित जल को।परिट्ठवेइ-फैंक देतो।माइट्ठाणंउसे मातृस्थान का। संफासे-स्पर्श होता है अतः। नो एवं करिजा-वह इस प्रकार न करे, किन्तु। पुष्कं-वर्णगन्ध युक्त को। पुप्फेइ वा-वर्णगन्ध युक्त समझकर। कसायं-कषाय वर्ण गन्ध रहित को भी। कसाएइ वावर्णगन्ध रहित समझकर। सव्वमेयं-सभी तरह के जल का। जिजा-पान करे, उसमें से। किंचिवि-थोड़ा सा भी। नो परि०-बाहर नहीं फैंके।
मूलार्थ-गृहस्थ के घर में जाने पर यदि कोई साधु या साध्वी जल को ग्रहण करके उसमें से वर्ण गन्ध युक्त जल को पीकर कषायले पानी को फैंक देता है तो उसे मातृस्थान- कपट का स्पर्श होता है। अतः वह ऐसा न करे, किन्तु वर्ण, गन्ध युक्त या वर्ण, गन्ध रहित जैसा भी जल उपलब्ध हो उसे समभाव पूर्वक पी ले, परन्तु उसमें से थोड़ा सा भी न फैंके।
हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि कभी खट्टा या कषायला पानी आ गया हो तो मुनि उसे फैंके नहीं। मधुर पानी के साथ उस पानी को भी पी ले। आहार की तरह पानी पीने में भी साधु अनासक्त भाव का त्याग न करे। दशवैकालिक सूत्र में भी इस सम्बन्ध में बताया गया है कि मधुर या खट्टा जैसा भी प्रासुक पानी आ जाए, साधु को बिना खेद के उसे पी लेना चाहिए।
अब फिर से आहार के विषय का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं-,
तहेवुच्चावयं पाणं, अदुवा वारधोअणं। संसेइमं चाउलोदगं अहुणाधोयं विवज्जए॥ जं जाणेज चिराधोयं, मईए दंसणेण वा। पडिपुच्छिऊण सुच्चा वा, जं च निस्संकियं भवे॥ अजीवं पडिणयं नच्चा, पडिगाहिज्ज संजए। अह संकियं भविज्जा, आसाइत्ताण रोअए। थोवमासायणट्ठाए, हत्थगम्मि दलाहि मे। मा मे अचंबिलं पूर्य; नालं तिण्हं विणित्तए॥ तं च अच्चंबिलं पूर्य, नालं तिण्हं विणित्तए। दित्तिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥ तंच हुज अकामेणं; विमणेण पडिच्छियं। तं अप्पणा न पिबे, नो वि अन्नस्स दावए॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया। जयं पडिट्ठविजा, परिट्ठप्प पडिक्कमे॥ - दशवैकालिक सूत्र ५, १, ७५-८१
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