Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक ९
११५ आयुष्मन् ! गृहस्थ ! अथवा भगिनि ! मुझे आधाकर्मिक आहार-पानी खाना और पीना नहीं कल्पता है, अतः मेरे लिए इसको एकत्रित न कर और न पका। उस भिक्षु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ, आधाकर्म आहार को एकत्रित करता है या पकाता है, और उसे लाकर देता है तो इस प्रकार के आहार को अप्रासुक जानकर वह ग्रहण न करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में दो बातों का उल्लेख किया गया है- १-साधु आहार का समय होने से पहले अपने पारिवारिक व्यक्तियों के घरों में आहार को न जाए। क्योंकि उसे अपने यहां आया हुआ जानकर वे स्नेह एवं श्रद्धा-भक्ति वश सदोष आहार तैयार कर देंगे। इस तरह साधु को पूर्वकर्म दोष लगेगा। २-यदि कोई गृहस्थ साधु के लिए आधाकर्मी आहार बना रहा हो, तो उसे देखकर साधु को स्पष्ट कह देना चाहिए कि यह आहार मेरे लिए ग्राह्य नहीं है। यदि इस बात को जानते-देखते हुए भी साधु उस गृहस्थ को आधाकर्म आदि दोष युक्त आहार बनाने से नहीं रोकता है , तो वह माया का सेवन करता है। यदि साधु के इन्कार करने के बाद भी कोई आधाकर्म आहार बनाता रहे और वह सदोष आहार साधु को देने के लिए लाए तो साधु उसे ग्रहण न करे। - प्रस्तुत सूत्र में जो सम्बन्धियों के घर में जाने का निषेध किया है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि यदि उनके घर में राग-स्नेह भाव के कारण आहार में दोष लगने की सम्भावना हो तो वहां साधु आहार को न जाए। क्योंकि आगम में परिवार वालों के यहां आहार को जाने एवं आहार-पानी लाने का निषेध नहीं किया है। आगम में बताया है कि स्थविरों की आज्ञा से साधु सम्बन्धियों के घर पर भी भिक्षा के लिए जा सकता है।
निष्कर्ष यह है कि साधु को १६ उद्गम के, १६ उत्पादन के और १० एषणा के ४२ दोष टाल कर आहार ग्रहण करना चाहिए और ग्रासैषणा के ५ दोषों का त्याग करके आहार करना चाहिए। इस तरह साधु को ४७ दोषों से दूर रहना चाहिए।
साधु को सभी दोषों से रहित निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए, इसका उल्लेख करके अब सूत्रकार उत्सर्ग एवं अपवाद में आहार ग्रहण करने की विधि का उल्लेख करते हुए कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा० से ज० मंसं वा मच्छं वा भज्जिज्जमाणं पेहाए तिल्लपूयं वा आएसाए उवक्खडिजमाणं पेहाए नो खद्धं २ उवसंकमित्तु ओभासिज्जा, नन्नत्थ गिलाणणीसाए॥५१॥
१. व्यवहारसूत्र, उद्देशक ६। - २ १६ उद्गम और १० एषणा के दोषों का उल्लेख पीछे कर चुके हैं। प्रस्तुत प्रकरण में वृत्तिकार ने शेष दोषों का उल्लेख करते हुए लिखा है
धाई, दाइ, निमित्ते, आजीव, वणिमगे तिगिच्छा य। कोहे, माणे, माया, लोभे य हवंति दस एए। पुट्विं, पच्छा, संथव, विजा, मंते, अचुण्ण, जोगे य।
उप्पायणाय दोसा सोलसमे मूलकम्मे य॥ ग्रासैषणा के ५ दोषसंजोअणा, पमाणे, इंगाले,धूम, कारणे चेव।
- आचारांग वृत्ति।