Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक ३
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नाश करने वाली है। इस लिए साधु को संखडि के स्थान की ओर भी नहीं जाना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा २ अन्नयरिं संखडिं सुच्चा निसम्म संपहावइ उस्सुयभूएण अप्पाणेणं, धुवा संखडी, नो संचाएइ तत्थ इयरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियंवेसियं पिंडवायं पडिग्गाहित्ता आहारं आहारित्तए,माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा।से तत्थ कालेण अणुपविसित्ता तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहित्ता आहारं आहारिज्जा॥१६॥
___ छाया- स भिक्षुर्वा २ अन्यतरां संखडिं श्रुत्वा निशम्य सम्प्रधावति उत्सुकभूतेनात्मना, ध्रुवा संखडिः न शक्नोति तत्र, इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः सामुदानिकं (भैक्षम् ) एषणीयं वैषिकं पिण्डपातं परिगृह्य आहारमाहर्तुमातृस्थानं संस्पृशेन् न एवं कुर्यात्। स तत्र कालेनानुप्रविश्य तत्रेतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः सामुदानिकं (भैक्षम् ) एषणीयं वेषिकं पिण्डपातं प्रतिगृह्यहारमाहारयेत्।
पदार्थ- से-वह। भिक्खू वा २-साधु अथवा साध्वी । अन्नयरिं -अन्यतर-किसी एक स्थान पर।संखडिं- संखड़ि को।सुच्चा-सुनकर।निसम्म-विचार कर। उस्सुयभूएण-उत्सुकतायुक्त।अप्पाणेणंआत्मा से। संपहावइ-जाता है। धुवा-निश्चित। संखडी-है। तत्थ-वहां-संखडि वाले ग्राम में। इयरेयरेहिंइतर-इतर-संखडि रहित। कुलेहिं-कुलों से। सामुदाणियं-सामुदानिक बहुत से घरों का। एसियं-एषणीयआधाकर्मादि दोषों से रहित। वेसियं-साधु के वेष द्वारा प्राप्त किया गया। पिंडवायं-पिण्डपात-आहार को। पडिग्गाहित्ता-लेकर। आहारं आहारित्तए- आहार करने-भक्षण करने के लिए।नो संचाएति-शक्ति सम्पन्न नहीं होगा अतः। माइट्ठाणं-मातृस्थान का। संफासे-स्पर्श होता है। नो एवं करिजा- अतः वह ऐसा न करे किन्तु। से- वह भिक्षु। तत्थ-उस संखडि वाले ग्राम में। कालेण-भिक्षा के समय। अणुपविसित्ता-प्रवेश करके। तत्थियरेयरेहि-संखडि वाले-घर से इतर। कुलेहि-कुलों-घरों से। सामुदाणियं-सामुदानिक। एसियं -निर्दोष। वेसियं-केवल साधु वेष से प्राप्त हुआ। पिंडवायं-पिण्डपात आहार को।पडिग्गाहित्ता-ग्रहण करके। आहार-उस आहार को।आहारिजा-भक्षण करे खाए, परन्तु संखडि में जाने का उद्योग न करे।
मूलार्थ-जो साधु वा साध्वी किसी अन्य स्थान पर संखडि को सुन कर तथा मन में निश्चय कर उत्सुक आत्मा से वहां जाता है, संखडि का निश्चय कर संखडि वाले ग्राम में या संखडि से भिन्न, जिन घरों में संखडि नहीं है आधाकर्मादि दोषों से रहित भिक्षा प्राप्त होती है। उनमें इस भावना से आहार को जाता है कि मुझे वहां भिक्षा करते देख कर संखडि वाला व्यक्ति मुझे आहार की विनती करेगा ऐसा करने से मातृस्थान-कपट का स्पर्श होता है। अतः साधु इस प्रकार का कार्य न करें। वह भिक्षु संखडि-युक्त ग्राम में प्रवेश कर के भी संखडि वाले घर में आहार को न जाएं, परन्तु अन्य घरों में सामुदानिक भिक्षा जो कि आधाकर्मादि दोषों से रहित है, ग्रहण करके अपने संयम का परिपालन करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को संखडि में जाने के लिए छल