Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक ७ इसी प्रकार के। पाणगजायं-अन्य अचित्त पानी का। पुव्वामेव-पहले ही। आलोइज्जा-अवलोकन करे-देखे और देखकर कहे। आउसोत्ति वा-आयुष्मन्-गृहपते! भइणित्ति वा-हे भगिनि ! हे बहिन ! इत्तो-इसमें से। अन्नयरं-किसी एक तरह के। पाणगजायं-पानी को।मे-मुझे। दाहिसि-देगी ? से-वह गृहपति।से-उस साधु को। एवं-इस प्रकार। वयंतस्स-बोलते हुए को। परो-गृहस्थ। वइजा-कहे। आउसंतो-आयुष्मन्। समणाश्रमण ! तुमं चेवेयं-तुम इसी। पाणगजायं-जल जात को। पडिग्गहेण वा-अपने पात्र से। उस्सिचिया-नीचे उतार कर-उलीचकर।णं-वाक्यालंकार में है। उयत्तिया-पानी को नितार कर।णं-वाक्यालंकार में है।गिण्हाहिपानी के बर्तन को पकड़ो तो।तहप्पगारं-इस प्रकार के।पाणगजायं-अचित्त पानी को।सयंवा-साधु स्वयं ही। गिण्हिज्जा-ग्रहण करे। वा-अथवा। परो-यदि गृहस्थ। से-उस साधु को। दिजा-दे तो। फासुयं-उसे प्रासुक जानकर।लाभे संते-मिलने पर।पडिगाहिज्जा-साधु ग्रहण कर ले।
मूलार्थ-साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर पानी के भेदों को जाने जैसे कि- चूर्ण से लिप्त बर्तन का धोवन, अथवा तिल आदि का धोवन, चावल का धोवन अथवा इसी प्रकार का अन्य कोई धोवन तत्काल का किया हुआ हो। जिसका कि स्वाद चलित नहीं हुआ हो, रस अतिक्रान्त नहीं हुआ हो।वर्ण आदि का परिणमन नहीं हुआ हो और शस्त्र भी परिणत नहीं हुआ हो तो ऐसे पानी के मिलने पर भी उसे अप्रासुक जानकर साधु ग्रहण न करे। यदि पुनः वह इस प्रकार जाने कि यह धोवन बहुत देर का बनाया हुआ है और इसका स्वाद बदल गया है, रस का अतिक्रमण हो गया है, वर्ण आदि परिणतं हो गया है और शस्त्र भी परिणत हो गया है तो ऐसे पानी को प्रासुक जानकर साधु उसे ग्रहण कर ले।
फिर वह साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में जलार्थ प्रविष्ट होने पर जल के विषय में इस प्रकार जाने, यथा-तिलों का धोवन, तुषों का धोवन, यवों का धोवन तथा उबले हुए चावलों का जल, कांजी के बर्तन का धोवन एवं प्रासुक तथा उष्ण जल अथवा इसी प्रकार का अन्य जल इनको पहले ही देखकर साधु गृहपति से कहे- आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा-[स्त्री हो तो] हे भगिनि! क्या मुझे इन जलों में से किसी जल को दोगी? तब वह गृहस्थ, साधु के इस प्रकार कहने पर यदि कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस जल के पात्र में से स्वयं उलीचकर और नितार कर पानी ले लो। गृहस्थ के इस प्रकार कहने पर साधु स्वयं ले ले अथवा गृहस्थ के देने पर उसे प्रासुक जान कर ग्रहण कर ले।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को वह पानी ग्रहण करना चाहिए जो शस्त्र परिणत हो गया है और जिसका वर्ण, गंध एवं रस बदल गया है। अतः बर्तन आदि का धोया हुआ प्रासुक पानी यदि किसी गृहस्थ के घर में प्राप्त हो तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। इस प्रकार निर्दोष एवं एषणीय प्रासुक जल गृहस्थ की आज्ञा से स्वयं भी ले सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि कभी गृहस्थ पानी का भरा हुआ बर्तन उठाने में असमर्थ है और वह आज्ञा देता है तो साधु उस प्रासुक एवं एषणीय पानी को स्वयं ले सकता है।
प्रस्तुत सूत्र में ९ तरह के पानी के नामों का उल्लेख किया गया है- १-आटे के बर्तनों का धोया