Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
मूलार्थ - संखडि में गए हुए साधु को वहां अधिक सरस आहार करने एवं अधिक दूधादि पीने के कारण वमन हो सकता है या उस आहार का सम्यक्तया पाचन नहीं होने से विसूचिका, ज्वर या शूलादि रोग उत्पन्न हो सकते हैं। इसलिए भगवान ने संखडि में जाने के कार्य को कर्म आने का कारण कहा है।
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इसके अतिरिक्त संखडि में गया हुआ साधु गृहपति एवं उसकी पत्नी, परिव्राजकपरिव्राजिकाओं के सहवास से मदिरा पान करके निश्चय ही अपनी आत्मा का भान भूल जाएगा। और उस स्थान से बाहर आकर उपाश्रय की याचना करेगा, परन्तु अनुकूल स्थान नहीं मिलने पर वह गृहस्थ या परिव्राजकों के साथ ही ठहर जाएगा। और मदिरा के प्रभाव से वह अपने स्वरूप को भूल कर अपने आप को गृहस्थ समझने लगेगा। उस समय स्त्री या नपुंसक पर आसक्त होने लगेगा। उसे मदोन्मत्त देखकर रात्री में या विकाल में स्त्री या नपुंसक उसके पास आकर कहेंगे कि हे आयुष्मान् श्रमण ! बगीचे या उपाश्रय के एकान्त स्थान में चलकर ग्रामधर्म-मैथुन का सेवन करें। इस प्रार्थना को सुनकर कोई अनभिज्ञ साधु उसे स्वीकार भी कर सकता है। अतः इस तरह आत्म पतन होने की सम्भावना होने के कारण भगवान ने संखडि में जाने का निषेध किया है और इसे कर्मबन्ध का स्थान कहा है। इसमें प्रतिक्षण कर्म आते रहते हैं। इसलिए साधु को पूर्व संखडी या पश्चात् संखडी में जाने का मन में भी संकल्प नहीं करना चाहिए।
हिन्दी विवेचन - यह हम देख चुके हैं कि साधु को संखडि में आहार के लिए जाने का निषेध किया गया है। पूर्व उद्देशक में बताया गया है कि वहां जाने से साधु को अनेक दोष लगने की सम्भावना है। प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि संखडि में आहार को जाने से साधु को शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक हानि भी होती है। क्योंकि साधु का आहार सात्त्विक एवं नीरस होता है और प्रायः ऐसा करने से उसकी आंते भी उस आहार को पचाने की अभ्यस्त हो जाती हैं। और संखडि में सरस एवं प्रकाम भोजन बनता है और दूध आदि पेय पदार्थ भी होते हैं और सरस एवं स्वादिष्ट पदार्थों के कारण वे अधिक खाए जा सकते हैं। इससे साधु को वमन हो सकती है, या पाचन क्रिया ठीक न होने से विसूचिका, शूल आदि भयंकर रोग हो सकते हैं और उसके कारण उसकी तुरन्त मृत्यु भी हो सकती है । इस तरह आर्त्त एवं रौद्र ध्यान में प्राण त्याग करके वह दुर्गति में जा सकता है। इसलिए साधु को ऐसे स्थानों में आहार आदि को नहीं जाना चाहिए।
दूसरा दोष यह है कि संखडि में जाने पर वहां आए हुए अन्य मत के भिक्षुओं से उसका घनिष्ठ परिचय होगा और उससे उसकी श्रद्धा में विपरीतता आ सकती है। और उनके संसर्ग से वह मद्य आदि पदार्थों का सेवन कर सकता है और उनके कारण अपने आत्म भान को भूलकर संयम के विपरीत आचरण का सेवन भी कर सकता है। शराब के नशे में उन्मत्त होकर वह नृत्य भी सकता है और किसी उन्मत्त स्त्री द्वारा भोग का निमन्त्रण पाकर उस पथ पर भी फिसल सकता है। इस तरह संखडि में जाकर वह अपने संयम का सर्वथा नाश करके जन्म-मरण के अनन्त प्रवाह में प्रवहमान हो सकता है।
इस तरह संखडि शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक चिन्तन एवं आध्यात्मिक साधना आदि सबका