Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक ६
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बाद जिस हाथ से जल की बूंदे टपकती हों उसे जलार्द्र कहते हैं और जिससे बूंदें नहीं टपकती हों परन्तु गीला हो उसे स्निग्ध कहते हैं ।
आचारांग की कुछ प्रतियों में 'अफासुयं' के साथ ' अणेसणिज्जं' शब्द भी मिलता है, वृत्तिकार ने भी अप्रासुक और अनेषणीय आहार लेने का निषेध किया है। यहां पर यह प्रश्न हो सकता है कि प्राक शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है- निर्जीव' । अतः अप्रासुक का अर्थ हुआ सजीव पदार्थ । अतः सचित्त जल से हाथ या पात्र धोने मात्र से पदार्थ अप्रासुक कैसे हो जाते हैं ?
इसका समाधान यह है कि प्रस्तुत प्रकरण में इस शब्द का प्रयोग अकल्पनीय अर्थ में हुआ है और उसके समान होने के कारण इसे भी अप्रासुक कहा गया है और मध्यम पद लोपी समास के सदृश होने से यहां इसे ग्रहण किया गया है। जैसे राजप्रश्नीयसूत्र में वैक्रिय से उत्पन्न किए गए अचित्त पुष्पों के लिए जल एवं स्थलज शब्दों का प्रयोग किया गया है। जब कि वे जलज एवं स्थलज नहीं हैं । परन्तु, उनके समान दिखाई देने के कारण उन्हें जलज एवं स्थलज कहा गया है। इसी तरह अप्रासुक शब्द अकल्पनीय शब्द के समान होने के कारण यहां उसे ग्रहण किया गया है।
अब आहार की गवेषणा के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - से भिक्खू वा २ से जं पुण एवं जाणिज्जा पिहुयं वा बहुरयं वा जाव चाउलपलंबं वा असंजए भिक्खुपडियाए चित्तमंताए सिलाए जाव ससंताणाए कुट्टिसु वा कुट्टन्ति वा कुट्टिस्संति वा उप्फणिंसु वा ३ तहप्पगारं पिहुयं वा० अफासुयं नो पडिग्गाहिज्जा ॥ ३४ ॥
छाया - स भिक्षुर्वा २ अथ पुनरेवं जानीयात् पृथुकं वा बहुरजसं वा यावत् तन्दुलप्रलम्बं वा असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया चित्तमत्यां शिलायां यावत् संतानोपेतायां अकुट्टिषुः, कुट्टन्ति वा कुट्टिष्यन्ति वा अदुः ३ वा तथाप्रकारं २ पृथुकं वा अप्रासुकं न प्रतिगृण्हीयात् ।
पदार्थ - से- वह । भिक्खू वा साधु या साध्वी । से- अथ । जं-जिस आहार आदि को । पुण-फिर । एवं - इस प्रकार से । जाणिज्जा - जाने । पिहुयं वा - शाल्यादि के कण अथवा । बहुरयं वा बहुत रज वाले शाल्यादि के कण। जाव-यावत्। चाउलपलंबं वा - अर्द्धपक्व शाल्यादि कण । असंजए - गृहस्थ ने। भिक्खुपडियाएभिक्षु को देने के लिए। चित्तमंताए सिलाए - सचित्त शिला पर जाव- यावत् । ससंताणाए - मकड़ी के जाला आदि से युक्त काष्ठ आदि पर । कुटिंसु वा उन धान्य के दानों को कूट कर रखा है। कुट्टंति-या कूट रहा है या । कुट्टिस्संति वा - कूटेगा या उसने। उप्फणिंसु वा - साधु के निमित्त धान्यादि को भूसी से पृथक् किया है, कर रहा है या करेगा। तहप्पगारं तथा प्रकार के । पिहुयं वा - शाल्यादि कण मिलने पर साधु । अफासुयं - उन्हें अप्राक जानकर । नो पडिग्गाहिज्जा ग्रहण न करे ।
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प्रगताः प्राणा यस्मात् स प्रासुकः ।