Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध मूलार्थ-गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु-साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि चावल के दाने सचित्त रज से युक्त हैं, अपक्व या गृहस्थ ने साधु के लिए सचित्त शिला पर या मकड़ी के जालों से युक्त शिला पर कूटा है, या कूट रहा है या कूटेगा। और इसी तरह यदि साधु के लिए चावलों को भूसी से पृथक किया है, कर रहा है या करेगा तो साधु इस प्रकार के चावलों को अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ सचित्त रज कणों से युक्त चावल आदि अनाज के दानों को या अर्द्ध पक्व चावल आदि के दानों को सचित्त शिला पर पीस कर या वायु में झटक कर उन दानों को साधु को दे तो साधु उन्हें अप्रासुक समझकर ग्रहण न करे। इससे समस्त सचित्त अनाज के दाने तथा सचित्त वनस्पति एवं बीज आदि का समावेश हो जाता है। यदि कोई गृहस्थ इन्हें सचित्त शिला पर कूट-पीस कर दे या वायु में झटक कर उन्हें साफ करके दे तो साधु उन्हें कदापि ग्रहण न करे।
___ 'कुटिंटसु' आदि क्रिया पदों में एकवचन की जगह जो बहुवचन का प्रयोग किया गया है, वह आर्ष वचन होने के कारण उसे 'तिङ् प्रत्यय' का एक वचन समझना चाहिए।
प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्य यह है कि सचित्त अनाज एवं वनस्पति आदि तो साधु को किसी भी स्थिति में ग्रहण नहीं करनी चाहिए, चाहे वह सचित्त शिला पर कूट-पीस कर या वायु में झटक कर दी जाए या कूटने-घाटकने की क्रिया किए बिना ही दी जाए। इसके अतिरिक्त यदि अचित्त अन्न के दाने, वनस्पति या बीज सचित्त शिला पर कूट-पीस कर या वायु में झटक कर दिए जाएं तो वे भी साधु को ग्रहण नहीं करने चाहिएं।
अब आहार ग्रहण करते समय साधु को पृथ्वीकायिक जीवों की किस प्रकार यतना करनी चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं बिलं वा लोणं उब्भियं वा लोणं अस्संजए जाव संताणाए भिंदिसु ३ रुचिंसु वा ३ बिलं वा लोणं उब्भियं वा लोणं अफासुयं नो पडिग्गाहिज्जा ॥३५॥
छाया-सभिक्षा यावत् सन् अथ यत् बिलं वा लवणं उभिदितं वा लवणं असंयतः यावत् सन्तानोपेतायां अभैत्सुः भिन्दन्ति भेत्स्यन्ति वा, अपिषन् (पिष्टवन्तः) पिषन्ति पेक्ष्यन्ति बिलं वा लवणं उद्भिदितं वा लवणं अप्रासुकं न प्रतिगृण्हीयात्।
पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा- साधु अथवा साध्वी। जाव-यावत्। समाणे-भिक्षा के लिए गृहपति के कुल में प्रविष्ठ होने पर। से जं-यह जान ले कि। बिलं वा लोणं-खदान से उत्पन्न हुए लवण। उब्भियं वा लोणं-अथवा समुद्र के क्षार जल से उत्पन्न हुए लवण को। असंजए-गृहस्थ ने। जाव-यावत्। संताणाएसचित्त अथवा जाले आदि से युक्त शिला पर। भिंदिसु ३-भेदन किया है या वह भेदन कर रहा है या भेदन करेगा,