Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध एक क्षेत्र में स्थिरवास रहते हैं। जब कभी उनके पास ग्रामानुग्राम विचरते हुए अतिथि रूप से अन्य साधु आ जाते हैं तब स्थिरवास रहने वाले भिक्षु उन्हें कहते हैं- पूज्य मुनिवरो ! यह ग्राम बहुत छोटा है, उसमें भी कुछ घर सन्निरुद्ध-बन्द पड़े हुए हैं। अतः आप भिक्षा के निमित्त किसी दूसरे ग्राम में पधारें? यदि इस ग्राम में स्थिरवास रहने वाले किसी एक मुनि के माता-पिता आदि कुटुम्बी जन या श्वसुर कुल के लोग रहते हैं या-गृहपति, गृहपलियें, गृहपति के पुत्र, गृहपति की पुत्रियें, गृहपति की पुत्र-वधुयें, धायमातायें दास और दासी तथा कर्मकार और कर्मकारियें, तथा अन्य कई प्रकार के कुलों में जो कि पूर्व परिचय वाले, या पश्चात् परिचय वाले हैं, उन कुलों में इन आगन्तुक-अतिथि साधुओं से पहले ही मैं भिक्षा के लिए प्रवेश करूँगा और इन कुलों से मैं इष्ट वस्तु प्राप्त करूंगा यथा शाल्यादिपिंड, लवण रस युक्त आहार, दूध, दही, नवनीत, घृत, गुड़, तेल, मधु, मद्य, मांस शष्कुली (जलेबी आदि) जलमिश्रितगुड़, अपूप-पूड़े और शिखरणी (मिठाई विशेष) आदि आहार को लाऊंगा और उसे खा पीकर, पात्रों को साफ और संमार्जित कर लूंगा। उसके पश्चात् आगन्तुक भिक्षुओं के साथ गृहपति आदि कुलों में प्रवेश करूंगा और निकलूंगा, इस प्रकार का व्यवहार करने से मातृस्थान-छल-कपट का सेवन होता है। अतः साधु को इस प्रकार नहीं करना चाहिए। उस भिक्षु को भिक्षा के समय उन भिक्षुओं के साथ ही उच्च-नीच और मध्यम कुलों से साधु मर्यादा से प्राप्त होने वाले निर्दोष आहार पिंड को लेकर उन अतिथि मुनियों के साथ ही उसे निर्दोष आहार करना चाहिए यही संयम शील साधु-साध्वी का निर्दोष आचार है।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में स्थिरवास रहने वाले मुनियों के पास आए हुए अतिथि मुनियों के साथ उन्हे कैसा व्यवहार करना चाहिए इसका निर्देश किया गया है। कोई साधु हृदय की संकीर्णता के कारण आए हुए अतिथि मुनियों को देखकर सोचे कि यदि यह भी इसी गांव में से भिक्षा लाएंगे तो मेरे को प्राप्त होने वाले सरस आहार में कमी पड़ जाएगी। अतः इस भावना से वह आगन्तुक मुनियों से यह कहे कि इस गांव में थोड़े से घर हैं, उसमें भी कई घर बन्द पड़े हैं, इसलिए इतने साधुओं का आहार इस गांव में मिलना कठिन है। अतः आप दूसरे गांव से आहार ले आएं। या वह उन्हे दूसरे गांव जाने को तो नहीं कहे, परन्तु उनके साथ गोचरी (आहार लाने) को जाने से पूर्व ही अपने माता-पिता या श्वसुर आदि कुलों से या परिचित कुलों से सरस-स्वादिष्ट एवं इच्छानुकूल पदार्थ लाकर खा लेना और उसके बाद उनके साथ अन्य साधारण घरों से भिक्षा लाकर खाना, माया एवं छल-कपट का सेवन करना है। अतः साधु को आगन्तुक मुनियों के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा व्यवहार साधुता के अनुकूल तो क्या, इन्सानियत के अनुकूल भी नहीं है, इसलिए सूत्रकार ने इस तरह का व्यवहार करने का निषेध किया है। साधु का कर्तव्य है कि वह नवागन्तुक मुनियों के साथ अभेद वृत्ति रखे, उनके साथ आहार को जाए और जैसा आहार उपलब्ध हो उसे प्रेम एवं स्नेह से उनके साथ बैठकर करे।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'समाणा-वसमाणा' का अर्थ है- जो साधु चलने-फिरने में या विहार करने में असमर्थ होने के कारण किसी एक क्षेत्र में स्थिरवास रहते हैं। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त खाद्य पदार्थों के नाम उस समय में घरों में खाए जाने वाले पदार्थों को सूचित करते हैं। इससे उस समय की खाद्य व्यवस्था का पता लगता है। प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित खाद्य पदार्थों में मद्य मांस का भी