Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक ५ आदि प्रवेश किए हुए हैं तो उनके सामने अथवा जिस द्वार से वे निकलते हैं उसके सन्मुख खड़ा नहीं हो। किन्तु एकान्त स्थान में -जहां न कोई आता हो और न कोई देखता हो जाकर खड़ा हो जाए। वहां खड़े हुए उस साधु को देख कर वह गृहस्थ यदि अशनादिक चतुर्विध आहार लाकर दे
और देता हुआ कहे कि आयुष्मन् श्रमणो ! यह अशनादिक चतुर्विध आहार मैंने आप सबके लिए दिया है- आप लोग यथारुचि इस आहार को एकत्र मिलकर खा लें या परस्पर विभाग कर लें, बांट लें, तब उस आहार को लेकर वह साधु यदि मौन वृत्ति से उत्प्रेक्षा करे-विचार करे कि यह मुझे दिया है अतः मेरे लिए ही है, तो उसे मातृस्थान-मायास्थान का स्पर्श होता है। अतः उसे ऐसा नहीं करना चाहिए, अपितु उस आहार को लेकर जहां पर अन्य श्रमणादि खड़े हों वहां जाकर प्रथम उन्हें उस आहार को दिखाए और दिखाकर कहे कि आयुष्मन् श्रमणो ! यह अशनादि चतुर्विध आहार गृहस्थ ने हम सबके लिए दिया है। इस आहार को हम मिल कर खालें अथवा परस्पर में विभाग कर लें, बांट लें। ऐसा कहते हुए उस साधु को यदि कोई भिक्षु कहता है कि आयुष्मन् श्रमण ! तुम ही इस आहार का विभाग कर दो, सब को बांट दो, तब वहां पर विभाग करता हुआ वह साधु अपने लिए प्रचुर शाक, भाजी या रसयुक्त मनोज्ञ, स्निग्ध और रूक्ष आहार को न रक्खे, किन्तु वहां आहार विषयक मूर्छा, गृद्धि, और आसक्ति आदि से रहित होकर सबके लिए समान विभाग करे, यदि सम विभाग करते हुए उस साधु को कोई भिक्षु यह कहे कि आयुष्मन् श्रमण! तुम विभाग मत करो हम सब वहां ठहरे हुए हैं, एकत्र बैठकर इस आहार को खा लेंगे और जल पी लेंगें। तब वह भिक्षु वहां पर भोजन करता हुआ आहार विषयक मूर्छा, गृद्धि और आसक्ति आदि को त्यागकर अपने लिए प्रचुर यावत् स्निग्ध और रूक्षादि का विचार न करता हुआ समान रूप से उस आहार का भक्षण करे तथा जलादि का पान करे अर्थात् इस प्रकार से खाए जिससे समविभाग में किसी प्रकार की न्यूनाधिकता न हो।
हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भिक्षा के लिए गया हुआ साधु यह देखे कि गृहस्थ के द्वार पर शाक्यादि अन्य मत के भिक्षुओं की भीड़ खड़ी है, तो वह गृहस्थ के घर में प्रवेश न करके एकान्त स्थान में खड़ा हो जाए। यदि गृहस्थ उसे वहां खड़ा हुआ देख ले और उसे अशन आदि चारों प्रकार का आहार लाकर दे और साथ में यह भी कहे कि मैं गृह कार्य में व्यस्त रहने के कारण सब साधुओं को अलग-अलग भिक्षा नहीं दे सकता। अतः आप यह आहार ले जाएं और आप सबकी इच्छा हो तो साथ बैठ कर खा लें या आपस में बांट लें। इस प्रकार के आहार को ग्रहण करके वह भिक्षु (मुनि) अपने मन में यह नहीं सोचे कि यह आहार मुझे दिया गया है, अत: यह मेरे लिए है और वस्तुतः मेरा ही होना चाहिए, यदि वह ऐसा सोचता है तो उसे दोष लगता है। अत: वह मुनि उस आहार को लेकर वहां जाए जहां अन्य भिक्षु खड़े हैं और उन्हें वह आहार दिखाकर उनसे यह कहे कि गृहस्थ ने यह आहार हम सब के लिए दिया है। यदि आपकी इच्छा हो तो सम्मिलित खा लें और आपकी इच्छा हो तो सब परस्पर बांट लें। यदि वे कहें कि मुनि तुम ही सब को विभाग कर दो, तो मुनि सरस आहार की लोलुपता में फंसकर अच्छा-अच्छा आहार अपनी ओर न रखे, समभाव पूर्वक वह सबका समान हिस्सा कर दे। यदि वे कहें कि विभाग करने की क्या आवश्यकता है। सब साथ बैठकर ही खा लेंगे, तो वह मुनि उनके साथ