Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक ५
६५ साधु था साध्वी भिक्षार्थ गमन करने पर यह देखें कि मार्ग में यदि गड्ढा, स्थाणु-खूटा, कण्टक, उतराई की भूमि, कटी हुई भूमि, विषम-ऊंची नीची भूमि, और कीचड़ वाला मार्ग है तो वह अन्य मार्ग के होने पर उसी मार्ग से यत्न पूर्वक गमन करे किन्तु उक्त सीधे मार्ग से न जाए। क्योंकि उक्त सीधे मार्ग से गमन करने पर आत्मा और संयम की विराधना होने की संभावना है।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भिक्षा के लिए जाते समय साधु को विवेक से चलना चाहिए। यदि रास्ते में मदोन्मत्त बैल या हाथी खड़ा हो या सिंह, व्याघ्र , भेड़िया, आदि जंगली जानवर खड़ा हो तो अन्य मार्ग के होते हुए साधु को उस मार्ग से नहीं जाना चाहिए और इसी तरह जिस मार्ग में गड्ढे आदि हैं उस मार्ग से नहीं जाना चाहिए। क्योंकि उन्मत्त बैल आदि एवं हिंस्र जन्तुओं से आत्म-विराधना हो सकती है और गड्ढे आदि से युक्त पथ से जाने पर संयम की विराधना हो सकती है। अतः मुनि को उस पथ से न जाकर अन्य पथ से जाना चाहिए, यदि अन्य मार्ग कुछ लम्बा भी पड़ता हो तो भी उसे संयम रक्षा के लिए लम्बे रास्ते से जाना चाहिए।
उस युग में कई बार मुनि को भिक्षा के लिए एक गांव से दूसरे गांव भी जाना पड़ता था और कहीं-कहीं दोनों गांवों के बीच में पड़ने वाले जंगल में सिंह, व्याघ्र आदि जंगली जानवर भी रास्ते में मिल जाते थे। इसी अपेक्षा से इनका उल्लेख किया गया है। परन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि कुत्तों की तरह शेर भी गांवों की गलियों में घूमते रहते थे। अतः आहार के लिए जाने वाले मुनि को ग्रामान्तर में जाते हुए शेर आदि का मिल जाना भी संभव है, इस दृष्टि से सूत्रकार ने मुनि को यत्ना एवं विवेक पूर्वक चलने का आदेश दिया है।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा० गाहावइकुलस्स दुवारबाहं कंटगबुंदियाए परिपिहियं पेहाए तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुन्नविय अपडिलेहिय अप्पमज्जिय नो अवंगुणिज वा, पविसिज वा निक्खमिज वा, तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणुनविय पडिलेहिय २ पमजिय २ तओ संजयामेव अवंगुणिज्ज वा पविसेज वा निक्खमेज वा ॥२८॥ ____ छाया- स भिक्षुर्वा गृहपतिकुलस्य द्वारभागं कंटकशाखया परिपिहितं प्रेक्ष्य तेषां पूर्वमेवावग्रहं अननुज्ञाप्य अप्रतिलेख्य अप्रमृज्य न उद्घाटयेत् वा प्रविशेद् वा निष्क्रामेद् वा, तेषां पूर्वमेव अवग्रहं अनुज्ञाप्य प्रतिलेख्य प्रतिलेख्य प्रमृज्य प्रमृज्य ततः संयतमेव उद्घाटयेद् वा प्रविशेद् वा निष्क्रामेद् वा।
पदार्थ-से-वह। भिक्खूवा- साधु और साध्वी।गाहावइकुलस्स-गृहपति के कुल के दुवारबाहंद्वार भाग को। कंटगबुंदियाए-कंटक शाखा से। परिपिहियं-बंद किए हुए को। पेहाए- देखकर। तेसिं-उन