Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक ५ चाहिए और वहां अचित्त भूमि को देखकर वहां जीव-जन्तु से रहित अचित्त काष्ठ आदि के टुकड़े एवं अचित्त मिट्टी आदि से अशुचि को साफ करके, फिर अपने शरीर को धूप में सुखाकर शुद्ध करना चाहिए।
उपाध्याय पार्श्व चन्द्र ने अपनी बालावबोध' में लिखा है कि भगवान ने अशुचि से लिप्त स्थान को पानी से साफ करने की आज्ञा नहीं दी है।
परन्तु आगम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अशुचि को दूर करने के लिए साधु अचित्त पानी का उपयोग कर सकता है। आगम में यह भी बताया गया है कि गुरु एवं शिष्य शौच के लिए एक ही पात्र में पानी ले गए हों तो शिष्य को गुरु से पहले शुद्धि नहीं करनी चाहिए और प्रतिमाधारी मुनि के लिए सब तरह से जल स्पर्श का निषेध होने पर भी शौच के लिए जल का उपयोग करने का आदेश दिया गया है। आगम में पांच प्रकार की शुद्धि का वर्णन आता है, वहां जल से शुद्धि करने का भी उल्लेख है ।
और अशुचि की अस्वाध्याय भी मानी है। इससे स्पष्ट होता है कि जल से अशुचि दूर करने का निषेध नहीं किया गया है। साधक को यह विवेक अवश्य रखना चाहिए कि पहले अचित्त एवं जन्तु रहित काष्ठ आदि से उसे साफ करके फिर अचित्त पानी से साफ करे।
प्रस्तुत सूत्र से यह भी ज्ञात होता है कि उस युग में गांवों के रास्ते सम एवं बहुत साफ-सुथरे नहीं होते थे। लोग रास्ते में ही पेशाब, खंखार आदि फैंक देते थे। जहां-तहां गड्ढे भी हो जाते थे, जिनसे वर्षा के दिनों में पानी भी सड़ता रहता था। इस तरह उस युग में गांवों में सफाई की ओर कम ध्यान दिया जाता था।
. इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भिक्ख वा० से जं पुण जाणिज्जा गोणं वियालं पडिपहे पेहाए, महिसं वियालं पडिपहे पेहाए, एवं मणुस्सं आसं हत्थिं सीहं वग्धं विगं दीवियं अच्छं तरच्छं परिसरं सियालं बिरालं सुणयं कोलसुणयं कोकंतियं चित्ताचिल्लडयं वियालं पडिपहे पेहाए सइपरकम्मे संजयामेव परक्कमेजा, नो उज्जुयं गच्छिज्जा।
से भिक्खू वा समाणे अंतरा से उवाओ वा खाणुए वा कंटए वा घसी वाभिलगावा विसमे वा विज्जले वा परियावज्जिज्जा, सइपरक्कमे संजयामेव, '. १ पर श्री वीतारागिई इम न कह्यो पाणी सुं धोवे, एहवी जयणा श्री वीतरागे पदे सि जाणवी पालवी इत्यर्थः। - उपाध्याय पाश्वचन्द्र।
२ निशीथ सूत्र, उद्देशक ४। ३ समवायांग सूत्र, ३३, दशाश्रुतस्कंध, दशा ३, ४ दशाश्रुतस्कंध दशा ७। ५ पंचविहे सोए पण्णते तंजहा-पुढविसोए, आउसोए, तेउसोए, मंतसोए, वंभसोए। स्थानांग सूत्र, स्था०५ उ०३। .६ स्थानांग सूत्र, स्थान १०।