Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध वा-दास को। दासिं वा-अथवा दासी को तथा। कम्मकरं वा-नौकर को वा। कम्मकरिं वा-नौकरानी को। से-वह। पुव्वामेव-पहले ही।आलोइजा-अवलोकन करके कहे कि।आउसित्ति वा-हे आयुष्मति ! भगिणित्ति वा- हे भगिनि ! मे-मुझे। इत्तो अन्नयरं- इस विविध प्रकार के। भोयणजायं-भोजन जात-भोजन समुदाय में से। दाहिसि ? - देगी ? से-वह। सेवं-इस प्रकार से। वयंतस्स-बोलते हुए साधु को। परो-दूसरे।असणं वाअशनादिक चतुर्विध आहार में से।आहटु-लाकर।दलइज्जा-देवे।तहप्पगारं-इस प्रकार के।असणं वा ४अन्नादि चतुर्विध आहार को।सयं वा-स्वयं। पुण-पुनः । जाइज्जा-मांगे। से-वह। परो वा-दूसरा। दिज्जा-देवें तो। फासुयं-प्रासुक आहार। जाव-यावत् मिलने पर। पडिग्गाहिजा-ग्रहण करे-स्वीकार कर ले।
___ मूलार्थ-साधु वा साध्वी गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होने पर यदि यह जाने कि यहां पर महोत्सव के लिए जन एकत्रित हो रहे हैं, तथा पितृपिण्ड या मृतक के निमित्त भोजन हो रहा है या इन्द्रमहोत्सव, स्कन्दमहोत्सव, रुद्रमहोत्सव, मुकुन्दबलदेव महोत्सव, भूत महोत्सव, यक्ष महोत्सव, इसी प्रकार नाग, स्तूप, चैत्य, वृक्ष, गिरि, गुफा, कूप, तालाब, हृद(झील) उदधि, सरोवर' सागर
और आकर सम्बन्धि महोत्सव हो रहा हो तथा इसी प्रकार के अन्य महोत्सवों पर बहुत से श्रमणब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी लोगों को एक बर्तन से परोसता हुआ देख कर दो थालियों से यावत् संचित किए हुए घृतादि स्निग्ध पदार्थों को परोसते को देखकर तथाविध आहार-पानी जब तक अपुरुषान्तरकृत है यावत् मिलने पर भी साधु ग्रहण न करे। यदि इस प्रकार जाने कि जिन को देना था दिया जा चुका है तथा वहां पर यदि वह गृहस्थों को भोजन करते हुए देखे तो उस गृहपति की भार्या से, गृहपति की भगिनी से, गृहपति के पुत्र से, गृहपति की पुत्री से, पुत्रवधू से, धाय माता से, दास-दासी नौकर-नौकरानी से पूछे कि हे आयुष्मति ! भगिनि! मुझे इन खाद्य पदार्थों में से अन्यतर भोजन दोगी? इस प्रकार बोलते हुए साधु के प्रति यदि गृहस्थ चार प्रकार का आहार लाकर दे अथवा अशनादि चतुर्विध आहार की स्वयमेव याचना करे या गृहस्थ स्वयं दे और वह आहार-पानी प्रासुक और एषणीय हो तो साधु उसे ग्रहण कर ले।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि गृह प्रवेश, नामकरण आदि उत्सव तथा मृतक कर्म या इन्द्र, स्कन्द एवं रुद्र आदि से सम्बन्धित उत्सवों के अवसर पर शाक्यादि भिक्षु, श्रमण-ब्राह्मण, गरीब- भिखारी आदि गृहस्थ के घर पर भोजन कर रहे हों और वह भोजन पुरुषान्तर कृत नहीं हुआ हो तो साधु उसे अनेषणीय समझ कर ग्रहण न करे। यदि अन्य भिक्षु आदि भोजन करके चले गए हैं, अब केवल उसके परिवार के सदस्य, परिजन एवं दास-दासी ही भोजन कर रहे हों, तो उस समय साधु प्रासुक एवं एषणीय आहार की याचना कर सकता है या उस घर का कोई सदस्य साधु को आहार की प्रार्थना करे तो वह उसे ग्रहण कर सकता है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'पिण्ड नियरेसु' का अर्थ है- मृतक के निमित्त तैयार किया गया भोजन । प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि उस समय इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, बलदेव, भूत, यक्ष, नाग आदि के उत्सव मनाए जाते थे। और इन अवसरों पर गृहस्थ लोग प्रीति भोज करते थे।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'स्तूप एवं चैत्य' शब्द एकार्थक नहीं, किन्तु, भिन्नार्थक हैं। मृतक की