Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक १
तथाप्रकारं अशनं वा ४ अपुरुषान्तरकृतं वा अबहिर्निर्गतं अनात्मीकृतं अपरिभुक्तं अनासेवितं, अप्रासुकं अनेषणीयं न प्रतिगृहीयात् । अथ पुनः एवं जानीयात् पुरुषान्तरकृतं बहिर्निर्गतं, आत्मीकृतं परिभुक्तं आसेवितं प्रासुकं एषणीयं यावत् प्रतिगृण्हीयात् ।
पदार्थ - से- वह । भिक्खू वा साधु या । भिक्खुणी वा-साध्वी । जाव - यावत् । पविट्ठे समाणेघर में प्रवेश करने पर । से- वह साधु या साध्वी । जं जो । पुण-पुनः । जाणिज्जा - जाने । असणं वा ४- अशनादिक आहार। बहवे बहुत । समणा शाक्यादि भिक्षु । माहणा-ब्राह्मण । अतिहि अतिथि । किवण-कृपण-दरिद्री । वणीमए- भिखारी । समुद्दिस्स- इनको उद्देश्य कर। जाव- यावत् । चेएड़ देता है। तं - उस । तहप्पगारं तथा प्रकार के । असणं वा ४-अशनादि-अन्नादि चतुर्विध आहार जो कि । अपुरिसंतरकडं वा-पुरुषान्तर कृत नहीं है अथवा । अबहिया नीहडं जो घर से बाहर नहीं निकाला गया है। अणत्तट्ठियं दाता ने अपना नहीं बनाया है । अपरिभुक्तं - और न उसमें से किसी ने खाया है एवं । अणासेवियं- किसी ने आसेवन भी नहीं किया है, ऐसे । अफासुयं-अप्रासुक-सचित्त। अणेसणिज्जं - अनेषणीय- सदोष आहार को । जाव- यावत् मिलने पर जैन भिक्षु । नो पडिग्गाहिज्जा - ग्रहण न करे ।
अह-अथ । पुण-पुनः- फिर यदि । एवं जाणिज्जा - इस प्रकार जाने कि यह अशनादिक चतुर्विध आहारादि पदार्थ। पुरिसंतरकडं - पुरुषान्तरकृत है। बहिया नीहडं- बाहर निकाला गया है । अत्तट्ठियं - अपना किया हुआ है। परिभुक्तं खाया हुआ है। आसेवियं-सेवन किया हुआ है। फासूयं - प्रासुक - अचित्त है और । सण- एषणीय निर्दोष है। जाव- यावत्- ऐसा आहार मिलने पर साधु । पडिग्गाहिज्जा ग्रहण करे ।
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मूलार्थ - गृहस्थ कुल में प्रवेश करने पर साधु-साध्वी इस प्रकार जाने कि अशनादिक चतुर्विध आहार जो कि शाक्यादि भिक्षु, ब्राह्मण, अतिथि, दीन और भिखारियों के निमित्त तैयार किया गया हो और दाता उसे दे तो इस प्रकार के अशनादि आहार को जो कि अन्य पुरुष कृत न हो, घर से बाहर न निकाला गया हो, अपना अधिकृत न हो, उसमें से खाया या आसेवन न किया गया हो तथा अप्रासु और अनेषणीय हो, तो साधु ऐसा आहार भी ग्रहण न करे ।
और यदि साधु इस प्रकार जाने कि यह आहार आदि पदार्थ अन्य कृत है, घर से बाहर ले जाया गया है, अपना अधिकृत है तथा खाया और भोगा हुआ है एवं प्रासुक और एषणीय है तो ऐसे • आहार को साधु ग्रहण कर लें ।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि किसी गृहस्थ ने शाक्यादि भिक्षुओं के लिए • आहार बनाया है और वह आहार अन्य पुरुषकृत नहीं हुआ है, बाहर नहीं ले जाया गया है, किसी व्यक्ति उसे खाया नहीं है और वह अप्रासुक एवं अनेषणीय है, तो साधु के लिए अग्राह्य है । यदि वह आहार पुरुषान्तर हो गया है, लोग घर से बाहर ले जा चुके हैं दूसरे व्यक्तियों द्वारा खा लिया गया है और वह प्रासुक एवं एषणीय है, तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है।
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प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अथ' शब्द का पूर्व सूत्र की अपेक्षा एवं 'पुनः ' शब्द का विशेषणार्थ में प्रयोग किया गया है।