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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦).
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર - સંયોજક- બાબુલાલ સરેમલ શાહ હીરાજૈન સોસાયટી, રામનગર, સાબરમતી, અમદાવાદ-૦૫. (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦
પૃષ્ઠ
296
160
164
202
48
306
322 668
516
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१४.
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પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને સેટ નં.-૨ ની ડી.વી.ડી.(DVD) બનાવી તેની યાદી
या पुस्तat परथी upl stGnels sरी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्दति बृदन्यास अध्याय-६
पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા
| पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृति टीका
श्री धर्मदतसूरि 06080 संजीत राममा
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
सं श्री रसिकलाल हीरालाल कापडीआ 062 | व्युत्पतिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय
| श्री सुदर्शनाचार्य 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पू. मेघविजयजी गणि 064 | विवेक विलास
सं/४. श्री दामोदर गोविंदाचार्य 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 066 | सन्मतितत्वसोपानम्
पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 067 | 6:शभादीशुशनुवाई
पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू . चतुरविजयजी म.सा. 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया | कालिकाचार्यकथासंग्रह
| सं/Y४. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
श्री वामाचरण भट्टाचार्य 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन | 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं | श्री भगवानदास जैन 074 | सामुदिइनi uiय थी
४.
श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र supम ला1-1
४. श्री साराभाई नवाब 0768नयित्र पद्मसाग-२
४. श्री साराभाई नवाब 077 | संगीत नाटय ३पावली
४. श्री विद्या साराभाई नवाब 078 मारतनां न तीर्थो सनतनुशिल्पस्थापत्य
१४. श्री साराभाई नवाब 079 | शिल्पयिन्तामलिला-१
१४. श्री मनसुखलाल भुदरमल 080 दशल्य शाखा -१
१४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 081 | शिल्पशाखलास-२
१४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 082 | शल्य शास्त्रला1-3
| श्री जगन्नाथ अंबाराम 083 | यायुर्वहनासानुसूत प्रयोगीला-१
१४. पू. कान्तिसागरजी 084 ल्याएR8
१४. श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री 085 | विश्वलोचन कोश
सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा 086 | Bथा रत्न शास-1
श्री बेचरदास जीवराज दोशी 087 | Bथा रत्न शा1-2
श्री बेचरदास जीवराज दोशी 088 |इस्तसजीवन
| सं. पू. मेघविजयजीगणि એ%ચતુર્વિશતિકા
पूज. यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
| सं. आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૮૫
વિશ્વલોચન કોશ
:દ્રવ્યસહાયક :
સુવિશાલ ગચ્છાધિપતિ પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજય રામચંદ્ર-ભટૂંકરકુંદકુંદસૂરીશ્વરજી મહારાજાના શિષ્યરત્ન
વર્ધમાનતપોનિધિ પૂજ્યપાદ ગણિવર્ય શ્રી નયભદ્રવિજયજી મ.સા.ની શુભ પ્રેરણાથી શ્રી જિનાજ્ઞા આરાધક સંઘ-મીઠાખળી (નવરંગપુરા)
જ્ઞાનખાતાની રકમમાંથી લાભ લીધો છે.
: સંયોજકઃ
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણપાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૦
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नमोऽनेकान्ताय । श्रीश्रीधरसेनाचार्यविरचित
विश्वलोचनकोश |
अपरनाम
( मुक्तावलीकोश )
नावृत्तिः ]
5
भाषाटीकासमेत 1,
*(_
जिसे
आकलूजनिवासी नाथारंगजी गांधीने
मुहम्मदपुर - माजरा जिला रोहतक - निवासी पंडित नन्दलाल शर्मासे भाषाटीका कराकर बम्बई निर्णयसागर प्रेस में बालकृष्ण रामचन्द्र घाणेकरके प्रबंध से छपाकर प्रकाशित किया ।
श्रीवीरनिर्वाण संवत् २४३८
जून १९१२ ईस्वी
[ मूल्य एक रु० सात आना.
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Published by Gandhi Natha Rangaji,
Dabaragalli, Bombay.
Printed by B. R. Ghanekar at the “ Nirnaya-Sagar *
Press, 23, Kolbhat Lane, Bombay.
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विश्वलोचनकोश.
अपरनाम मुक्तावलीकोश.
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पुस्तक मिलनेका पता
श्रीजैनग्रंथरत्नाकर कार्यालय
हीराबाग, पो० गिरगांव-बंबई ।
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प्रस्तावना ।
पाठक महाशय, एक विद्वान्ने कहा है कि
कोशश्चैव महीपानां कोशश्च विदुषामपि ।
उपयोगो महानेष क्लेशस्तेन विना भवेत् ॥ अर्थात् जिस प्रकार राजाओंके लिये कोश (खजाना) आवश्यक है, उसके विना उनका काम नहीं चल सकता है-उन्हें क्लेश होता है, उसी प्रकारसे विद्वानोंके लिये कोश (शब्दभांडार) आवश्यक है । कोशके विना विद्वानोंका काम नहीं चल सकता है वे अपने हृदयके भाव दूसरोंपर सुचारुरूपसे प्रगट नहीं कर सकते हैं। इससे आप समझ सकते हैं कि, कोशकी कितनी उपयोगता है।
संस्कृतका शब्दभांडार यद्यपि अब भी कम नहीं है, तो भी पुरातत्त्वज्ञ विद्वानोंका अनुमान है कि, वह पूर्व समयमें इससे भी बहुत थाअपार था । संस्कृतका प्रचार धीरे २ कम हो जानेसे और विविध विषयके सैकड़ों ग्रन्थोंके लुप्त हो जानेसे वह बहुत मामूली रह गया है। __ इस समय संस्कृतभाषामें जो शब्दसमूह पाया जाता है, उसके रक्षण
और पोषणमें कोश ग्रन्थकारोंने प्रधान सहायता पहुंचाई है और आज जब कि संस्कृत बोलचाल की भाषा नहीं है, इन्हीं कोशकारोंकी कृपासे हम संस्कृत ग्रन्थोंका अध्ययन तथा परिशीलन कर सकते हैं। __ संस्कृतमें काव्यसाहित्य अलंकारादि ग्रन्थोंके समान कोश ग्रन्थ भी बहुत हैं। डा० भांडारकर महाशयने अमरकोषकी भूमिकामें कोश ग्रन्थोंकी एक विस्तृत सूची प्रकाशित की है । परन्तु खेद है कि, अभी तक उनमेंसे बहुत ही थोड़े ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। कई वर्ष पहिले बम्बईके निर्णयसागर प्रेससे एक अभिधानसंग्रह नामका सेरीज छपना प्रारंभ हुआ था
और उससे आशा हुई थी कि, संस्कृतका कोशसमूह धीरे २ प्रकाशित हो जायगा, परन्तु दुर्भाग्यसे दो ही भाग प्रकाशित हुए, और कोई भाग
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( २ )
प्रकाशित नहीं हुआ और तबसे अब तक इस विषय में कहीं से कोई प्रयत्न हुआ सुनाई नहीं पड़ा । हमारी समझमें संस्कृत साहित्यको सुपुष्ट सुस्पष्ट और विभवशाली बनानेके लिये कोशग्रन्थोंके प्रकाशित होनेकी बहुत बड़ी आवश्यकता है, इसलिये संस्कृत साहित्यके उपासकों को इस विषय में फिर प्रयत्न करना चाहिये ।
यह विश्वलोचन वा मुक्तावली कोश उक्त आवश्यकताकी ही यत्कि - ञ्चित् पूर्ति करनेके लिये प्रकाश किया जाता है । इसकी एक प्रति ईडर ( महीकांठा) के सुप्रसिद्ध सरस्वती भवन से प्राप्त हुई थी । इसकी उत्तमता और अन्य कोशग्रन्थोंसे जो इसमें विलक्षणता है, उसे देखकर प्रसिद्ध विद्याप्रचारक सेठ रामचन्द नाथाजी (नाथारंगजीवाले) ने इसके प्रकाशित करनेकी इच्छा प्रगट की और साथ ही श्रीयुक्त पं० धन्नालालजी काशलीवाल, पं० पन्नालालजी वाकलीवाल और नाथूराम प्रेमी आदिकी सम्मतिसे आपने यह भी चाहा कि, इसकी भाषाटीका भी हो जाय, तो भाषा जाननेवालोंको भी इससे लाभ पहुंचे । तदनुसार सेठजीने इस ग्रन्थके संशोधनका तथा भाषाटीकाका कार्य मुझे सौंपा और मैंने अपनी शक्ति के अनुसार इसे सम्पादन करके आपके सम्मुख उपस्थित किया है । जब ईडरकी एक प्रतिसे इसके संशोधनका कार्य न चल सका, नानाप्रकारकी कठिनाइयां उपस्थित होने लगीं, तब एक प्रति सरस्वतीभवन आरासे, और दो प्रतियां पं० जवाहिरलालजी शास्त्रीके द्वारा जयपुरके किन्हीं दो भंडारोंसे मंगाई गई । इस तरह इन चार प्रतियोंसे इस ग्रन्थका सम्पादन किया गया है । इनमें जयपुरकी एक प्रति औरोंकी अपेक्षा विशेष शुद्ध थी । इसके संशोधन कार्यमें मुझे जो परिश्रम पड़ा है, उसका अनुभव वे पाठक अच्छी तरहसे कर सकेंगे, जो इसको ध्यानपूर्वक देखेंगे और इस बातसे परिचित होंगे कि, एक अप्रकाशित अपरिचित ग्रन्थका सम्पादन करना और ऐसे प्रतियोंपर से जो कि बहुत ही अशुद्ध हों, कितना कठिन कार्य है । मैं यह स्वीकार करता हूं कि, मेरी बुद्धिके प्रमादसे अब भी इसमें बहुतसी अशुद्धियां रह गई होंगी और
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उनके लिये मैं पाठकोंसे क्षमा भी चाहता हूं, तो भी इतना कहे विना नहीं रहूंगा कि, मैंने इसमें परिश्रम करनेमें कमी नहीं की है। - इस ग्रन्थके रचयिता श्रीधरसेन नामके जैन विद्वान हैं। इनके गुरुका नाम श्रीमुनिसेन था, जो कि सेनसंघके आचार्य थे और बड़े भारी कवि तथा नैयायिक थे । दिगम्बर सम्प्रदायके मुनियोंके जो चार संघ हैं, सेन उनमेंसे एक है। श्रीधरसेन नानाशास्त्रोंके पारगामी विद्वान् थे और बड़े २ राजा लोग उनपर श्रद्धा रखते थे । वे काव्यशास्त्रके मर्मज्ञ तथा कवि भी थे। उन्होंने नाना कवियोंके रचे हुए कोशोंसे तथा ग्रन्थोंसे संग्रह करके इस यथार्थतया विश्वलोचन कोशकी रचना की है। इन सब बातोंका परिचय इस कोशकी प्रशस्तिके निम्न लिखित श्लोकोंसे मिलता है:
सेनान्वये सकलसत्त्वसमर्पितश्री: श्रीमानजायत कविर्मुनिसेननामा । आन्वीक्षिकी सकलशास्त्रमयी च विद्या यस्यास वादपदवी न दवीयसी स्यात् ॥ १॥ तस्मादभूदखिलवाडमयपारदृश्वा विश्वासपात्रमवनीतलनायकानाम् । श्रीश्रीधरः सकलसत्कविगुम्फितत्त्वपीयूषपानकृतनिर्जरभारतीकः ॥२॥ तस्यातिशायिनि कवेः पथि जागरूकधीलोचनस्य गुरुशासनलोचनस्य । नानाकवीन्द्ररचितानभिधानकोशानाकृष्य लोचनमिवायमदीपि कोशः ॥३॥ साहित्यकर्मकवितागमजागरूकैरालोकितः पदविदां च पुरे निवासी।
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( 8 )
वर्त्मन्यधीत्य मिलितः प्रतिभान्वितानां चेदस्ति दुर्जनवचो रहितं तदानीम् ॥ ४ ॥ यत्नो मयायमनपायमशेषविद्या विद्याधरीपरिवृढस्य मतौ नियोक्तम् । त्यक्त्वा पुनर्विमलकौस्तुभरत्नमन्यो लक्ष्मीविनोदरसिको रसिकोस्ति धन्यः ॥ ५ ॥
नागेन्द्रसंग्रथितकोशसमुद्रमध्ये नानाकवीन्द्रमुखशुक्तिसमुद्भवेयम् । विद्वग्रहादमरनिर्मित पट्टसूत्रे
मुक्तावली विरचिता हृदि संनिधातुम् ॥ ६ ॥ वीतरागस्य सुरभेर्यशः कुसुमशालिनः ।
श्रितोस्मि चरणस्थानं यः पुंनागत्वमागतः ॥ ७ ॥
श्रीधरसेनाचार्य किस समयमें हुए हैं, इस बातका पता न तो इस प्रशस्तिसे लगता है और न किसी अन्य ग्रन्थसे । हमने इस विषय में जो सामान्य प्रयत्न किया था, उसमें हमें सफलता प्राप्त नहीं हुई । परन्तु यदि कोई ऐतिहासिक पंडित इन महानुभाव कोशकारका समयनिर्णय करनेका तथा इनके अन्यान्य ग्रन्थोंके पता लगानेका परिश्रम उठावेंगे, तो उन्हें अवश्य सफलता होगी ।
' दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्त्ता और उनके ग्रन्थ' नामक पुस्तकसे मालूम होता है कि, जैनियोंमें श्रीधर, श्रीधरसेन आदि नामके कई विद्वान् हो गये हैं और उनके बनाये हुए श्रुतावतार, भविष्यदत्तचरित्र, नागकुमार कथा आदि कई ग्रन्थ हैं, परन्तु उक्त ग्रन्थोंके देखे विना यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि, वे इन श्रीधरसेनसे पृथक् हैं अथवा यही हैं ।
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यह नानार्थकोश है । संस्कृतमें कई नानार्थकोश हैं, परन्तु जहां तक हम जानते हैं, कोई भी इतना बड़ा और इतने अधिक अर्थोंको बतलानेवाला नहीं है । इसमें एक २ शब्दको जितने अर्थोंका वाचक बतलाया है, दूसरोंमें इससे प्रायः कम ही बतलाया है। उदाहरणके लिये एक 'रुचक' शब्दको ही लीजिये । जहां अमरमें चार, मेदिनीमें दश इसके
अर्थ बतलाये हैं, तहां इसमें १२ अर्थ बतलाये हैं। यही इस कोशमें विशेषता है।
यथा--
एरण्ड उरुवूकश्च रुचकश्चित्रकश्च सः।
अमरकोश द्वितीयकाण्ड वनौषधिवर्ग श्लोकांक ५१. फलपूरो बीजपूरो रुचको मातुलुङ्गके ।
अमरकोश द्वितीयकाण्ड वनौषधिवर्ग श्लोकांक ७८. सौवर्चलेक्षरुचके । अमरकोश द्वितीयकाण्ड वैश्यवर्ग श्लोकांक ४३. सौवर्चलं स्याद्रुचकम् । अमरकोश द्वितीयकाण्ड वैश्यवर्ग श्लोकांक १०९,
रुचको बीजपूरे च निष्के दन्तकपोतयोः । न द्वयोः सर्जिकाक्षारे पश्वाभरणमाल्ययोः । सौवर्चलेऽपि माङ्गल्यद्रव्ये चाप्युत्कटेपि च ।
मेदिनीकोश कत्रिक श्लोकांक १४६-१४७. रुचकं मातुलद्रव्ये दन्ते सौवर्चले नजि । उत्कटे चाश्वभूषायां विडङ्गे कण्ठभूषणे ॥ बीजपूरेऽपि दीनारे रोचनादेववृक्षयोः ।
विश्वलोचनकोश कतृतीय श्लोकांक १४६-४७.
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आशा है कि, विद्वजन निष्पक्षदृष्टिसे इस ग्रन्थके महत्त्वको समझकर लाभ उठावेंगे और इसके प्रचार करनेका प्रयत्न कर मेरे और प्रकाशकमहाशयके परिश्रम तथा अर्थव्ययको सफल करेंगे। अलमतिविस्तरेण प्राज्ञेषु ।
बम्बई ता. १५ मई १९१२.
नन्दलाल शर्मा।
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Colorocks
श्रीपरमात्मने नमः ।
कविपण्डित - श्रीश्रीधरसेन - विरचितः
विश्वलोचनकोशः ।
( मुक्तावली )
मंगलाचरणम् ।
जयति भगवानास्तां धर्मः प्रसीदतु भारती वहतु जगती प्रेमोद्वारं तरन्त्वशुभं जनाः । अयमपि मम श्रेयान्गुम्फस्तनोतु मनोमुदं किमधिकमितस्त्यक्तावेगा भवन्तु विपश्चितः ॥ १ ॥ परिभाषा |
स्वरकादिक्रमादादिर्निर्णीतोऽन्तश्च कादिभिः । द्वितीयेऽप्यत्र वर्णेऽपि नियमः काद्यनुक्रमात् ॥ २ ॥
ग्रन्थकर्ताका मंगलाचरण |
भगवान जिनेन्द्रदेव जयवन्त वर्तते हैं, धर्म स्थित रहे, सरस्वती प्रसन्न हो, पृथ्वी प्रसन्नताको धारण करे, जन अशुभ ( पाप ) रहित हों, और यह मेरा ग्रंथ सबको आनंद देनेवाला हो, और यहां अधिक क्या कहैं विद्वान वेगों के त्यागनेवाले अर्थात् निराकुल हों ॥ १ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [कान्तवर्गेअथ कान्तवर्गः।
कैकम् । को ब्रह्मानिलसूर्याग्नियमात्मद्योतबर्हिषु । के सुखे वारि शीर्षे च कुः शब्दे ना भुवि स्त्रियाम् ॥ ३ ॥
कद्वितीयम् । अकं दुःखाघयोरङ्को रेखायां चिह्नलक्ष्मणोः । नाटकादिपरिच्छेदोत्सङ्गयोरपि रूपके ॥ ४ ॥ चित्रयुद्धेऽन्तिके मन्तौ स्थानभूषणयोरपि । अर्कः सूर्येऽर्कपर्णेऽपि शके स्फटिकताम्रयोः ॥ ५॥ एकस्तु स्यात्रिषु श्रेष्ठे केवलेतरयोरपि । कंकः खगे लोहपृष्ठे कृतान्ते कपटद्विजे ॥ ६ ॥
परिभाषार्थ । इस प्रन्थमें खर वर्ण और ककार आदि वर्णके क्रमसे आदि (शब्दोंकी आदि) निर्णय की गई है और अंत भी ककार आदिसे निर्णय कियागया है जैसे कि-"को ब्रह्माऽनिलसूर्याऽग्नि-" और दूसरे वर्ण विषै भी काकार आदिके क्रमका नियम कियागया है जैसे कि-"अकं दुःखाऽधयोरको रेखायां चिह्नलक्ष्मणोः"॥२॥ कैक।
.! आदि ग्रंथका विश्रामस्थल, गोद, क-ब्रह्मा, वायु, सूर्य, अग्नि, धर्मराज, रूपक, सङ्ख्या, चित्रयुद्ध, समीप,
आत्मा, प्रकाश, मयूरपक्षी (पुंलिंग) अपराध, स्थान, भूषण, (पुं० ) क-सुख, जल, मस्तक, (नपुंसक) अर्क-सूर्य, आकका पत्ता, इंद्र, स्फटिकु-शब्द, ( पुं० ) कु-पृथ्वी, कमणि, तांबा, (पुं० ) ॥ ५ ॥ (स्त्रीलिंग) ॥३॥
एक-श्रेष्ठ, केवल ( अद्वितीय ), कद्वितीय।
इतर ( दूसरा), (त्रिलिंगी) अक-दुःख, पाय, (न०)॥४॥ कंक-काकविशेष, धर्मराज, कपटअंक-रेखा, चिह्न, लक्षण, नाटक [. से बना हुआ ब्राह्मण, (पुं०)॥६॥
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कद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
कर्कः कर्केतने वह्नौ श्वेताश्वे मुकुरे घटे । कल्कोऽस्त्री पापविकिट्टदोषदम्भबिभीतके ॥ ७ ॥ पापाश्रयेऽपि काकस्तु वायसे पीठसर्पिणि । शिरोवक्षालने धृष्टे मानद्वीपदुमान्तरे ॥ ८ ॥ काका स्यात्काकजंघायां काकोलीकाकनासयोः । काकमाचीकाकतुण्डीमलपूरक्तिकासु च ॥ ९ ॥ काकं काकसमूहे स्यात्स्त्रीणां च रतबन्धने । किष्कुर्वितस्तौ हस्ते च प्रकोष्ठे कुत्सिते पुमान् ॥ १० ॥ कोकश्चक्रे वृके ज्यैष्ठयां खजूरीभेकविष्णुषु । छेकस्तु गृहसंसक्तविश्वस्तमृगपक्षिणोः ॥ ११ ॥ नागरे त्रिषु वक्रे च टङ्कोऽस्त्री ग्रावदारणे ।
टङ्कणे प्रावभित्तौ च मानभेदाऽभिधानयोः ॥ १२ ॥ कर्क-रत्नविशेष, अग्नि, श्वेतअश्व, किष्कु-बालिस्तप्रमाण, हस्तप्रमाण,
दर्पण, घट, (पुं०) ___पहुँचा, निन्दित, (पुं०) ॥ १० ॥ कल्क-पाप, विष्ठा, किट्ट (खलीआदि)
कोक-चकवा, भेडिया, मुलहटी, दोष, दंभ, बहेडा ॥ ७ ॥ पापी, (पुं० न०)
। खजूरवृक्ष, मेंढक, विष्णु, (पुं०) काक-काक,पीठसर्पिन् (खंजता लंगडा) छेक-घरमें पालाहुआ मृग, और
शिरका धोना, धृष्टपुरुष, प्रमाण पक्षी, (पुं० )॥ ११ ॥ . (तोल), द्वीप, वृक्षविशेष (पुं०)॥८॥
नगर में होनेवाला विदग्ध पुरुष, टेढा काका-गुंजावृक्ष, काकोली, विकंटक
___ पुरुषआदि, (त्रि.)। वृक्ष, मकोय, काकादनी, कठूमरवृक्ष ।
गुंजा, (स्त्री० ) ॥ ९ ॥ टेक-पत्थरको फोडनेवाला औजार, काक-काकसमूह, स्त्रियोंका रतबंधन, । सुहागा, पत्थरकी भीत, प्रमाण (न०)
। तोलविशेष, नाम ॥ १२॥
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विश्वलोचनकोश:- [ कान्तवर्गकपित्थान्तरजङ्घाऽसिकोषकोपखनित्रके । तर्कः काङ्क्षावितकोंहे कर्मशास्त्रप्रभेदयोः ॥ १३ ॥ तोकं त्वपत्ये पुत्रे च तोका दुहितरि स्त्रियाम् । त्रिका कूपस्य नेमौ स्यात्रिकं पृष्ठधरे त्रये ॥ १४ ॥ द्विकः स्याच्चक्रवाकेऽपि नाके काकेऽपि संमतः । नाकुः पुंसि मुने दे नाकुवल्मीकशैलयोः ॥ १५॥ नाकः खर्गेऽन्तरिक्षे च निष्कोऽस्त्री हेमकर्षयोः । अष्टाधिकवर्णशते वक्षोऽलङ्करणे पले ॥ १६ ॥ हेम्नः पलेऽपि दीनारे न्यङ्कर्झषे मुनौ मृगे । पङ्कोऽस्त्री कर्दमे पापे पाकस्तु पवने शिशौ ॥ १७ ॥ पाको जरापरीपाके स्थाल्यादौ क्लेदनिष्ठयोः । बकः कके शिवमयां रक्षोभेदकुबेरयोः ॥ १८ ॥
नीला कैथवृक्ष, (पुं० न० ) पिंडुली, एकसौ आठ स्वर्ण ( दोसौ सोलह
(स्त्री.) खड्ग, खजाना, खोद- तोलापरिमाण) सुवर्णका सिक्का, हृद
नेका औजार, (पुं० न०)। यका आभूषण, चारतोलापरिमाण तर्क-इच्छा, विशेषतर्ककरना, खंडन- (पुं० न० )॥ १६ ॥ . ___ मंडन, कर्म,न्यायशास्त्र, (पुं०)॥१३ | न्यंक-मत्स्यविशेष, एकमुनि, मृग, तोक-संतानमात्र, पुत्र, (न०) पं.)
तोका पुत्री (स्त्री० ) त्रिका-कूएका चाक, (स्त्री.) पीत पक-कींच, पाप, (पुं० न० )
नीचेका अस्थि, ३ संख्या (न.) १४ पाक-वायु, शिशु (बालक) ॥१७॥ द्विक-चकवा,२संख्या, काकपक्षी,(पुं०)।
___ वृद्धपना, बरतनमें अन्नकी खुरचन, नाकु-मुनिविशेष, सर्पकी बाँबी, पर्वत, स्थिति, (पुं०)। (पुं०)॥१५॥
| बक-काकविशेष पक्षी, गूमा-औषध, नाक-वर्ग, आकाश, (पुं०) बकनामक राक्षस, कुबेर, (पुं.) निष्क-सवर्ण. दोतोले परिमाण. ॥ १८ ॥
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कद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः
: ।
बङ्कस्तु पुंसि नद्यादिभङ्गपर्याणभागयोः ।
भङ्गुरे वाच्यवद्वङ्को बल्कं वल्कलखण्डयोः ॥ १९ ॥ भूकश्छिद्रेऽवकाशे च भेको मण्डूकमेघयोः । मुष्कोऽण्डकोशे वृन्दे च मुष्को मोक्षकशाखिनि ॥ २० ॥ मूकस्त्ववाक्यतो दीने रङ्कः कृपणमन्दयोः । अथ राका दृष्टरजःकन्यायां सरिदन्तरे ॥ २१ ॥ पूर्णेन्दुपूर्णिमायां च कच्छूरोगेऽपि दृश्यते । रेको विरेके शङ्कायामधमे त्वभिधेयवत् ॥ २२ ॥ रोकं दत्त्वा ऋये रन्ध्रे नावि रोकस्तु रोचिषि । लङ्का रक्षःपुरे शाखाकुलटाशाकिनीष्वपि ॥ २३ ॥ लोको जनेऽपि भुवने स्यादवात्तु विलोकने । शङ्कुः कीले शिवे सङ्ख्यायादोऽस्त्रभिदि किल्बिषे ॥ २४ ॥
बंक - नदीआदिका बांकापना, अश्वके | पूर्णचंद्रमावाली पूर्णिमा, खर्जू रोग, जीनका भाग, (पुं० ) नष्टहोनेवालीवस्तु (त्रि०)
( स्त्री० )
बल्क - वृक्षका छिलका, टुकड़ा ( न० ) ॥ १९ ॥
भूक- छिद्र, पोल, ( पुं० ) भेक-मेंडक, मेघ, ( पुं० ) मुष्क- अंडकोश,
मोखा
समूह, (कटपाडर ) वृक्ष (पुं० ) ॥ २० ॥
मूक- गूँगा, दीन, (पुं० )
रंक - कृपण, मन्द, (पुं० ) राका - रजखलां कन्या, नदीका मध्यभाग ॥ २१ ॥
रेक - दस्त लगना, शंका, (पुं० ) नीच ( त्रि० ) ॥ २२ ॥ रोक - द्रव्यदेकर खरीदना, छिद्र, नौका ( न० ) दीप्ति प्रकाश ( पुं० ) लंका - राक्षसपुरी, वृक्षशाखा, कुलटा स्त्री, शाकिनी, (स्त्री० ) ॥ २३ ॥ लोक- -जन, भुवन, अवलोक. देखना ( पुं० ) । शंकु-काष्टआदिका कीला, महादेव, एक गिन्ती, जलजन्तु, अत्रविशेष, पाप, (पुं० ) ॥ २५ ॥
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विश्वलोचनकोश:
शङ्का त्रासे वितर्के च शल्कं शकलवल्कयोः । चूर्णे शाकस्तु शक्तौ स्याद्रक्षद्वीपनृपान्तरे ॥ २५ ॥ शाकं हरितके क्लीबे पत्रपुष्पफलादिके ।
शुकः कीरे व्यासपुत्रे रावणस्य च मन्त्रिणि ॥ २६ ॥ शुकं तु प्रथिपर्णे स्याच्छिरीषे शोणकेऽपि च । शुल्कं घट्टादिदेयेऽस्त्री जामातुरपि बन्धके ॥ २७ ॥ शूकः स्यादनुकम्पायां शूकः शुङ्गेऽपि पुंस्ययम् । शोकः स्याच्छुभसङ्घाते स्त्रीणां च करणान्तरे ॥ २८ ॥ श्लोको यशसि पद्ये स्यादुपहास्य उपात्परः । सृको वातोत्पलशरे स्तोकः स्याच्चात काल्पयोः ॥ २९ ॥ कतृतीयम् । अणुको निपुणेsedsत्री त्वनीकं रणसैन्ययोः । अनूकं शीलकुलयोरनूकं गतजन्मनि ॥ ३० ॥
शंका- त्रास, विशेषतर्क, ( स्त्री० ) शल्क-टुकड़ा, वृक्षका छिलका, चूना, ( न० )
|
|
- शाक-शक्ति, एकप्रकारका वृक्ष, एक द्वीप, एक राजा, (पुं० ) ॥२५॥ हरितशाक, पत्र, पुष्प, फल आदि ( न ० ) शुक-सूवा पक्षी, व्यासपुत्र, रावणका मंत्री, (पुं० ) ॥ २६ ॥ शुक-गठिवन नामक वृक्ष सिरस वृक्ष, सोनापाठा - वृक्ष ( न० > शुल्क-घाटआदिपर देनेका कर, जामा ताको देने का दायजा ( न० ) ॥२७॥ शूक - दया, बडकावृक्ष (पुं० ) ।
>
|
[ कान्तवर्गे
-
शोक- किसी वस्तु की हानिआदिसे दुःख,
स्त्रियोंके चित्तका व्यापार विशेष २८ श्लोक - यश, छन्दोबद्ध कविता, और उपउपसर्गसेपरे उपश्लोक-उपहास अर्थात् ठट्ठा ( पुं० ) सृक-वायु, कमल, बाण, (पुं० ). स्तोक- पपीहा - पक्षी, ( पुं० ) अल्प ( त्रि० ) ॥ २९ ॥ कतृतीय ।
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अणुक - निपुण, अल्प, (पुं०न० ) अनीकरण, सेना, (न० ) अनूक - शील, कुल, बदीतहुवा जन्म ( न० ) ॥ ३० ॥
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कतृतीयम् । भाषाटीकासमेतः ।
अन्तिकं निकटे चुल्लयामन्तिका शातलौषधौ । नाट्योक्तौ चांतिका ज्येष्ठभगिन्यां परिकीर्तिता ॥ ३१ ॥ अन्धिका कैतवे सिद्धे शर्वर्यामन्धयोषिति । अभीको निर्भयक्रूरकविकामिषु वाच्यवत् ॥ ३२ ॥ अम्बिका पार्वती पाण्डुजननीजननीष्वपि । तिन्तिडीकाचुक्रिकयोरम्लोद्गारेपि चाऽम्लिका ॥ ३३ ॥ अर्भकस्तु मतो डिम्भे मूर्खे भ्रूणे कृशेपि च । कुबेरस्यालका पुर्यामलकचूर्णकुन्तले ॥ ३४ ॥ अलर्को धवलार्के स्याद्योगोन्मत्तककुक्कुरे । अलीकं त्रिदिवे क्लीबं मिथ्यायामाप्रिये त्रिषु ॥ ३५ ॥ अशोको वझुले माने दुमेऽशोकं तु पारदे । अशोका कटुरोहिण्यां शोकशून्ये तु वाच्यवत् ।। ३६ ॥
अन्तिक (का)-समीप, चूल्हा, अलका-कुबेरकी पुरी, (स्त्री०) (न० ) थूहरवृक्षका भेद, नाट्यमें, अलक-डेढे केश-जुल्फें (पुं० ) बड़ी बहन (स्त्री० ) ॥ ३१ ॥
॥ ३४ ॥ अन्धिका-कपट, सिद्ध, रात्रि, अलर्क-सफेद आकका वृक्ष, प्रयोगसे अन्धी स्त्री, (स्त्री० )
किया बावला कुत्ता, (पुं० ) अभीक-भयरहित, क्रूर, कवि, कामीपुरुष (त्रि.)॥३२॥
| अलीक-स्वर्ग, ( न० ) असल्य,
___ लंबाई, अप्रिय, (त्रि.) ॥ ३५॥ अम्बिका-पार्वती, पांडुराजाकी ___ माता, माता, ( स्त्री० )
अशोक-अशोक-वृक्ष, परिमाणभेद, अम्लिका-अमली, चूका शाक, खट्टी तिनिश ( तिवस ) वृक्ष, (पुं० ) डकार, ( स्त्री.)॥३३॥
पारा ( न.) अर्भक-बालक, मूर्ख, गर्भ, दुबला, अशोका-कटुरोहिणी, ( स्त्री० ) (पु.). .
। शोकरहित (त्रि०) ॥ ३६ ॥"
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विश्वलोचनकोश:- [कान्तवर्गेआढको मानभेदेऽस्त्री तुवर्यामाढकी स्मृता । आतङ्को रोगसन्तापशङ्कासु मुरजध्वनौ ॥ ३७॥ आनकः पटहे भेर्या मृदङ्गे ध्वनदम्बुदे । आलोको दर्शनेऽपि स्यादुद्योते बंदिभाषणे ॥ ३८ ॥ आह्निकं दिननिर्वत्यै भोजने नित्यकर्मणि । इक्ष्वाकुः कटुतुब्यां स्त्री सूर्यान्वयनृपे पुमान् ॥ ३९ ॥ उदर्क एष्यत्कालीयफले मदनकण्टके । उलूकः पेचके शक्रे कुरुयोधेऽपि सम्मतः ॥ ४० ॥ उष्णकस्त्वातुरे तप्ते क्षिप्रकारिनिदाघयोः । उष्ट्रिका मृत्तिकाभाण्डभेदे करभयोषिति ॥ ४१ ॥ ऊर्मिका त्वङ्गुलीये स्यात्तरङ्गे मधुपध्वनौ । ऊर्मिका वस्त्रभङ्गेऽपि तथोबाहुलकेऽपि च ॥ ४२ ॥
आढक-२५६ तोलेका परिमाण,(पुं०)। वंशमें होनेवाला एकराजा आढकी-अरहर ( स्त्री० )।
(पुं० ) ॥ ३९ ॥ आतंक-रोग, सन्ताप, शंका, मृदं-उद-अगाडी होनेवाला फल, औ. गका शब्द ( पुं० ) ॥ ३७॥
। षधि विशेष, (पुं०) थानक-ढोल, भेरी, मृदङ्ग, गर्जता
उलूक-उल्लू-पक्षी, इन्द्र, कुरुदलमें
___ होनेवाला एक योधा (पुं०)॥ ४० ॥ हुवा मेघ (पुं०)
उष्णक-आतुर, तप्तहुवा, शीघ्रता आलोक-दर्शन, देखना, प्रकाश, | करनेवाला, ग्रीष्म ऋतु, (पुं० )
बंदिजनोंकरके विरद कहना, (पुं०) उष्टिका-मृत्तिकापात्रविशेष, ऊँटनी, ॥ ३८ ॥
(स्त्री०)॥ ४१ ॥ आझिक-दिनभरका किया कर्म, ऊर्मिका-अंगूठी,तरंग,भौंरोंका शब्द,
भोजन, नित्यकर्म, (न०) __ वस्त्रखंड, वस्त्ररचनाविशेष, भुजा इक्ष्वाकु-कडवी तूंबी, (स्त्री) सूर्य । उठानेवाला, (स्त्री)॥ ४२ ॥
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कतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
अंशुकं सूक्ष्मवसने वस्त्रमात्रोत्तरीययोः । कञ्चकः कवचे वाणवारे निर्मोकचोलके ॥ ४३ ॥ हर्षादात्ताङ्गवस्त्रे च कञ्चकी त्वौषधान्तरे । कटकोस्त्री राजधान्यां सानौ सेनानितम्बयोः ॥ ४४ ॥ वलये सिन्धुलवणे दन्तिदन्तविभूषणे । कटुकं कटुरोहिण्यां व्योषेऽपि कटुमात्रके ॥ ४५ ॥ कटाकुस्तु दुराधर्षे दुःशीले ना विलेशये। . गोधूमचूर्णे कणिकः स्त्रियां सूक्ष्माऽग्निमन्थयोः ॥ ४६ ॥ कण्टकोऽस्त्री द्रुमाङ्गेऽथ दूषके कर्णिदूषके । रोमाञ्चे क्षुद्रशत्रौ च मारौ मीनादिकीकसे ॥ ४७ ॥ कनकं हेम्नि धत्तूरे चम्पके नागकेसरे । किंशुके काञ्चनारे च कालीयेऽपि क्वचिन्मतः ॥ ४८ ॥
अंशुक-बारीक वस्त्र, वस्त्रमात्र, कुटाकु-तेजस्वी, दुःशील, सर्प,(पुं०) डुपट्टा, ( न०)
कणिक-गेहूँका आटा,(पुं० ) सूक्ष्मकंचुक-कवच, बाणोंकों निवारणकरने- मात्र, अरणी (अगेथू) वृक्ष,
वाला द्रव्य, सर्पकी कांचली, अंग- (पुं० ) ॥ ४६ ॥ रखा ( वस्त्र) की हर्षसे प्राप्तहुए कण्टक-वृक्षका कांटा, दूषक पुरुष,
वस्त्रवाला, (पुं०)॥ ४३ ॥ कर्णिदूषक रोग, रोमांच, तुच्छ शत्रु, कंचुकि-न् औषधिविशेष (पुं०) ४४ मारीरोग, मच्छी आदिकी हड्डी, कटक-राजधानी, पर्वतशिखर, सेना, (न०)॥ ४७ ॥ नितम्ब (चूतड़ ), कंगन, समुद्रन-कनक-सुवर्ण, धतूरा, चम्पा, नाग
मक, हाथीदाँतका आभूषण (पुं०) केसर, केसू पुष्प, कचनार, और कटुक-कटुरोहिणी, सुंठ-मिरच-पी- | यकृत् रोग, यह कहीं कहीं, माना है पल,कडवी ओषधी मात्र (न०) ४५! (न.)॥ ४८ ।।
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विश्वलोचनकोश:करकोsस्त्री करके स्वात्कुण्ड्यां चाथ पुमान्खगे । कुसुम्भे दाडिमे हस्ते करका तु घनोपले ॥ ४९ ॥ करङ्कः सस्यसन्त्यक्तनालिकेराऽस्थिमस्तके | कर्णिका कर्णभूषायां गुवाकादिच्छटांशके ॥ ५० ॥ करिहस्ताग्रभागे च करमध्याङ्गुलावपि । नलिनीबीजकोशे च कुट्टिन्यामपि कुत्रचित् ॥ ५१ ॥ कलङ्कोऽङ्के कालायसमले दोषाऽपवादयोः । कावृकः कृकवाकौ स्यात्पीतमस्तककोकयोः ॥ ५२ ॥ कामुकः कामिनि ख्यातोऽशोकवृक्षाऽतिमुक्तयोः । कारकः कर्तरि ज्ञेयः कर्मादौ कारकं मतम् ॥ ५३ ॥ कारिका विवृतिश्लोके यातनायां कृतावपि । नटस्त्रियां नापितादिशिल्पे क च कारिका ॥ ५४ ॥
हरी, मस्तककी खोपरी ( पुं० ) कर्णिका - कर्णका आभूषण, सुपारी आदिका टुकडा ॥ ५० ॥
करक-माथे की खोपरी, कँडी या | कावृक-मुरगा पक्षी, पीतमस्तक पक्षी कमंडलु, (पुं० न० ) पक्षिविशेष, ( कावरी ), चकवा पक्षी ( पुं० ) कसुंभा अनार, हाथ, ( पुं० ) करका - ओला ( स्त्री० ) ॥ ४९ ॥ करंक
॥ ५२ ॥
- कडब डांठला, नालीरकी डो- | कामुक - कामी पुरुष, अशोक वृक्ष, माधवीलता, (पुं० )
हाथी की सूँडका अग्रभाग, मध्यमाअंगुली, कुमोदनीका बीजकोश, कुट्टिनी स्त्री ( स्त्री ० ) ॥ ५१ ॥ कलङ्क चिह्न, लोहेका मल, दोष, निन्दा, (पुं० )
[ कान्तवर्गे
-
कारक-कुछभी करनेवाला पुरुष, (पुं०) कर्मआदि कारक ( न० ) ६ ॥ ५३ ॥
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कारिका - व्याख्याकरनेवाला-श्लोक, पीडा, कृति, नटकी स्त्री, नाईआदिकी कारीगरी, कुछभी करनेवाली स्त्री, ( स्त्री० ) ॥ ५४ ॥
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कतृतीयम् । ]
भाषा टीकासमेतः ।
वंशे ना कार्मुकं चापे कर्मशक्ते तु वाच्यवत् । कालिका चण्डिकायां स्याद्योगिनीभेदकाष्ण्ययोः ॥ ५५ ॥
पश्चाद्दातव्यमूल्ये च पटोलकलतान्तरे । रोमाली धूमरीमांसीकाकीवृश्चिकपत्रके ॥ ५६ ॥ घनाव लावलं धूमप्रभेदे नवनीरदे ।
किम्पाकस्तु महाकालफले मूर्खे च कीचकः ॥ ५७ ॥ दैत्येवातध्वनिध्वंसे शुष्कवंशे द्रुमान्तरे ।
कीटकः कृमिजातौ स्यान्निष्ठुरेऽपि च कीटकः ॥ ५८ ॥ कुलकस्तु कुलश्रेष्ठे वल्मीके काकतिन्दुके । कुलकं श्लोकसम्बद्धगुच्छकेऽपि पटोलके ॥ ५९ ॥ कुलिको नागभेदे स्यात्कुलश्रेष्ठे द्रुमान्तरे । कुशिकस्तु मुन तैलशेषे सर्जे कलिद्रुमे ॥ ६० ॥
११
कार्मुक-बाँसका वृक्ष, धनुष (पुं० ) | कीचक - दैत्यविशेष, वायुसे उखाकर्म में समर्थ, (त्रि ० ) डाहुवा और बाजताहुवा सूखा बांस, वृक्षविशेष, (पुं० ) ।
कालिका - चंडिका देवी, योगिनी विशेष, कालापना ॥ ५५ ॥ पीछे दियाजानेवाला वस्तुका मूल्य, परवलकी बेल, रोमावली, एक, किन्नरी, जटामांसी- औषधी, कागन पक्षी, बीछूका डंक, ॥ ५६ ॥ मेघावली, धूमविशेष, नवीनमेघ, कुलिक-नागविशेष, कुलमें श्रेष्ठ, ( स्त्री० ), वृक्षभेद ( तालमखाना ) (पुं) किम्पाक-बडेकालका फल, मूर्ख, । कुशिक-मुनि, तेलकी बँची खलीआदि शालवृक्ष, बहेडावृक्ष, (पुं० ) ॥ ६० ॥
(पुं० ) ॥ ५७ ॥
कीटक - कृमिजाति, कठोर, (पुं०) ५८ कुलक- कुलमें श्रेष्ठ पुरुष, बाँबी,
मकर तेंदुवानामक वृक्षविशेष, (पुं०) श्लोकसंबद्धगुच्छा, परवल, ( न० ') ॥ ५९ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [कान्तवर्गेकुषाकु मर्कटे भानौ बृहद्भानौ पुमांस्त्रिषु । परोत्तापिन्यपि मतं कूर्चिका सूचिकान्तरे ॥ ६१ ।। तूलिका क्षीरविकृतिकुञ्चिकाकुङ्मलेषु च । कूपको गुणवृक्षे स्यात्तैलपात्रे कुकुन्दरे ॥ १२ ॥ कूपे जलस्थग्रावादौ स्याच्च तुर्यां तु कूपिका । कूलकः पुंसि वल्मीके स्तूपेऽस्त्री कूलकं तटे ।। ६३ ॥ कृषकः कर्षके पुंसि फालेऽपि कृषके पुमान् । पारदारकरक्तेऽपि निःखेऽपि त्रिषु कञ्चकः ॥ ६४ ॥ कोरकः कुङमले न स्त्री ककोलकमृणालयोः । कोशाङ्कस्तु करीरे स्यादिक्षौ कीटान्तरेऽपि च ।। ६५ ।। कौतुकं त्वभिलाषेऽपि कुसुमे नमहर्षयोः । परम्परासमायाते मङ्गले चातिशायिनि ॥ ६६ ॥
कुषाकु-बन्दर, सूर्य, अग्नि, (पुं०) (पुं० न०) नदीआदिका तट दूसरोंको कष्टदेनेवाला (त्रि.)। (न० ) ॥ ६३ ॥
_ | कृषक-खेंचनेवाला पुरुष, खेतीकरकृर्चिका-सूईभेद ॥ ६१ ॥ चित्र
नेवाला, हलकी फाल, परस्त्रीमें खेंचनेकी कलम,दुग्धविकार(मलाई),
आसक्त (पुं०) चाबी, कुड्मल (फूलकली)( स्त्री.
कञ्चक-द्रव्यरहित (त्रि.) ॥६४॥ कृपक-नावका खंभा, तेलका पात्र कोरक-बिनाखिली फूलकी कली, ( पा), नितंबों (चूतड़ों ) में कंकोलवृक्ष, कमल (पुं० न० ) पड़ाहुवा खड्डा, कूवाँ, जलमें स्थित कोशाङ्क-कैरका वृक्ष, ईख,कीटविशेष, पत्थरआदि, (पुं०)
(पुं ) ॥ ६५ ॥ कपिका-कपड़ा बुननेका औजार कौतुक-अभिलाषा,पुष्प,ठहाके वचन, (स्त्रो० ) ॥ ६२॥
आनंद, परंपरासे प्राप्तहुवा मंगल, कूलक-बँधी (पुं० ) मिट्टीका समूह, अतिशय ॥ ६६ ॥
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तृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
विवाह सूत्रे विषयाभोगकाले समुत्सवे । कौशिको गुग्गुलूलूकनकुलेष्वहितुण्डिके ॥ ६७ ॥ इन्द्रे च विश्वामित्रे च कोशज्ञे चाथ कौशिकी । चण्डिकायां नदीभेदे ऋमुको भद्रमुस्तके ॥ ६८ ॥ गुवाकपट्टिकालोध्रकूर्पास ब्रह्मदारुषु । खट्टकः सौनिकेऽपि स्यान्माहिषक्षीरफेनके ॥ ६९ ॥ खनकश्चित्ततत्त्वज्ञे सन्धिचौरेऽवदारके ।
मूषके खुल्लकस्तु स्यात्खल्पे नीचे कनीयसि ॥ ७० ॥ खोलकः पाकवल्मीकपूगकोशे शिरस्त्रके । गणिका यूथिकावेश्यात र्कारीकरिणीष्वपि ॥ ७१ ॥ अग्निमन्थेऽपि गणिका दैवज्ञे गणकः पुमान् । गण्डकः खड्गिनि ख्यातः सङ्ख्याविद्याप्रभेदयोः ॥ ७२ ॥
विवाहसूत्र, विषयोंके भोगनेका काल, उत्सव, ( न० ) कौशिक-गूगलवृक्ष, उखूपक्षी, नौला, सर्पपकड़नेवाला, ॥ ६७ ॥ इन्द्र, विश्वामित्रऋषि, कोश ( खजाना ) का जाननेवाला ( पुं० ) कौशिकी - चण्डिका ( देवी ), नदीभेद, (स्त्री० ) मुक-भद्रमोथा-वृक्ष (पुं० ) ॥ ६८ ॥ सुपारी वृक्ष, लाललोध, साधारणलोध,स्त्रियोंकी कञ्चुकी,तूलवृक्ष, (पुं०) ट्टिक - कसाई, भैंस का दूधके झाग, ( पुं० ) ॥ ६९ ॥
१३
खनक- चित्तके तत्त्वको जाननेवाला, सन्धि (सुरंग ) लगानेवाला चोर, खोदनेका औजार, मँसा, (पुं० ) खुल्लक-खल्प, नीच, बहुत छोटा, ( पुं० ) ॥ ७० ॥ खोलक - पाक, शिरस्त्र, (पुं० )
बाँबी, सुपारीफल,
गणिका - जूही झाड, वेश्या, खांसन टाहाकल वृक्ष, हथिनी ॥ ७१. अरणीवृक्ष, (स्त्री) बीज, गणक - ज्योतिषी (पुं० ), (पुं) :-गैंडा, सङ्ख्याविशेऽई जोधाविशेष, (पुं० ) ॥ ७० ) ॥ ८५ ॥
गण्डक
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१४
विश्वलोचनकोश:
गुह्यको गोपिते यक्षे गृह्यकश्छे कनिघ्नयोः । गैरिकं धातुभेदे स्याद्धातुमात्रे च काञ्चने ॥ ७३ ॥ गोरङ्कः पक्षिजातौ च नग्नके श्रुतिपाठके । गोलको मणिके जाराद्विधवातनये गुडे ॥ ७४ ॥ ग्रन्थिस्तु करीरेस्यादैवज्ञे गुग्गुलुमे । माद्रेयेप्यद्वयोर्ग्रन्थिपर्णीपिप्पलिमूलयोः ॥ ७५ ॥ ग्राहको घातिविहगे ग्रहीतरि तु वाच्यवत् । चटकः कलर्बिकः स्यात्तत्पुत्रीयोषितोः स्त्रियाम् ॥ ७६ ॥ चतुष्की मशकयौ यष्टिकावेश्मभेदयोः । चुलुकः : प्रसृतौ च स्याच्चुलुका भाजनान्तरे || ७७ || चपकोsस्त्री पानपात्रे मधुमद्यप्रभेदयोः । चारकः पालकेऽश्वादेः स्यात्सञ्चारकबन्धयोः ॥ ७८ ॥
गुह्यक- रक्षा कियाहुवा,
योनि, ( पुं० )
यक्ष - देव- | ग्राहक - पक्षी मारनेवाला पक्षी, (पुं०) सर्प आदिकों का पकड़नेवाला (त्रि०) गृह्यक- पालाहुवा पक्षीआदि, अधीन चटक - चिडापक्षी, (पुं० ) पुरुष आदि (पुं० ) गैरिक- धातुभेद ( गेरू ), धातुमात्र, सुवर्ण, ( न० ) ॥ ७३ ॥ गोरङ्क - पक्षिविशेष, नंगापुरुष, वंदीजनका पढना, (पुं० ) लक-गोला, जारसे उत्पन्नहुवा विधवाका पुत्र, गुड, (पुं० ) ॥ ७४ ॥
१-क - कैरवृक्ष, ज्योतिषी, गूगलकूपिक माद्रीका पुत्र, (पुं० )ग्रन्थि - ( स्त्री / गांडर दूब ), पीपलामूल, कूलः– बँव ॥ ७५ ॥
1
[ कान्तवर्गे
चटिका चिडाकी पुत्री और स्त्री ( स्त्री० ) ॥ ७६ ॥ चतुष्की-मसैरी - पलंगपरताननेकी,
छडी, एकप्रकारका पत्थर (स्त्री० ) चुलुक - प्रसृति ( पस्सो) (पुं० ) चुलुका - पात्रविशेष (स्त्री० ) ॥ ७७ ॥ चषक - जलआदिपीने का पात्र ( प्याला),
शहद, मदिराभेद, ( पुं० ) चारक - घोडा आदिका चरानेवाला, राजाका गुप्तदूत, संचारकरनेवाला, बन्ध, (पुं० ) ॥ ७८ ॥
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तृतीयम् । भाषाटीकासमेतः । चित्रकं तिलके क्लीबं वह्निसंज्ञेतु चित्रकः । एरण्डे चालवाले च चित्रकः श्वापदान्तरे ॥ ७९ ॥ चीरको विक्रियालेखे झिल्लिकायां तु चीरिका । चुम्बकः कामुके धूर्ते बहुविद्योपजीवने ॥ ८० ॥ मतः पुंस्येव चुलुकः प्रसृते भाजनान्तरे। चुल्लकी शिशुमारे स्यात्कुण्डीभेदे कुलान्तरे ॥ ८१ ॥ चूतकोऽन्धौ रसाले च कपिपूर्वः कपीतने । चूलिका नाटकाङ्गे स्यात्कर्णमूले च हस्तिनाम् ।। ८२ ॥ जतुकाऽजिनपत्रायां जतुकं हिङ्गुलाक्षयोः । जनकः स्नातराजर्षी जनकः करणान्तरे ॥ ८३ ॥ जम्बुकः फेरवेऽपि स्यान्नीचे पश्चिमदिक्पतौ । जालकः कोरके दम्भप्रभेदे जालिनीफले ॥ ८४ ॥ गिरिसारे जलौकायां जालिका विधिवस्त्रियाम् ।
भटानामश्मरचिताङ्गरक्षिण्यां च जालिका ॥ ८५ ॥ चेत्रक-तिलकविशेष, ( न० ) चीता स्तियोंका कर्णमूल (स्त्री.) ॥ ८२॥ ( ओषधि ), अरंडवृक्ष, थाँवला, जतका-चमगीदड पक्षी ( बाघल),
चीता (सिंहभेद) (पुं०)॥ ७९ ॥ (स्त्री० ) रिक-विकारलेखन ( पुं० ) जतुक-हींग, लाख, (न०) तरिका भंभीरी-प्राणी (स्त्री०) जनव (म्बक-कामीपुरुष, धूर्त, बहुविद्यो- क पजीवी, (पुं० ) ॥ ८०॥ जम्बु लुक-पस्सो, पात्रविशेष, (पुं०) (: ल्लकी-शिशुमार-जलजन्तु, कुंडी- जाल भेद, कुलविशेष ( स्त्री०)॥ ८१॥ तक-कूवां, आम कपि शब्दसे परे ॥ कपिचूतक-अंबाडा ( पुं०) जालि.
नपर जलकेलिये [लिका-नाटकका एक अंग, ह.} ओं श, (पुं० ) ॥९॥
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१६
विश्वलोचनकोश:
जाहको घोङ्खमार्जारखजाकातुण्डिकासु च । जीवको वृक्षभेदे स्यात्प्राणकेऽप्यहितुण्डिके ॥ ८६ ॥ पीतशाले क्षपणके वृद्धिजीविनि सेवके । जीविकामाहुराजीवे जीवन्त्यामपि जीविका ॥ ८७ ॥ झिल्लीका झिल्लिकाऽप्येव विलेपनमले स्मृतः । चीरिकायामपि भवेदातपस्य च रोचिषि ॥ ८८ ॥ दुच्छको गन्धकुट्यां स्याद्व्यवहाराऽभ्यवकाशके । टुण्टुकः शोणकेऽल्पे च क्रूरके त्वभिधेयवत् ॥ ८९ ॥ डिण्डिको नमके दायें स्त्रीचोरे तु रतात्परः । डिम्बका जलबिम्बे स्यात्कोणके कामुकस्त्रियाम् ॥ ९० ॥ ausatsar तरुस्कन्धे समासप्रायवाचिके । गृहदारौ पुमांस्तु स्यात्फेनखंजनमायिषु ॥ ९१ ॥
जीवक-जीवक- वृक्ष, जिवानेवाला,
सर्प पकड़नेवाला, (पुं० ) ॥८६॥ पीला सालका वृक्ष, जैनमुनि, बडी आयुवाला, सेवक, ( पुं० ) जीविका - आजीवन,
गिलोय - बेल,
( स्त्री० ) ॥ ८७ ॥
[ कान्तवर्गे
जाहक - घोंख (जाहा ), मार्जार, (पुं०) | दुच्छक-मुशनामक गंधद्रव्य, व्यवकड़छी, कन्दूरी - औषधि, (स्त्री) हार, अवकाश, ( पुं० ) टुण्डुक - सोना- वृक्ष, अल्प, (पुं० ) क्रूर, ( त्रि० ) ॥ ८९ ॥ डिण्डिक बंदीजन स्त्रीरत, रतडिंडिक-स्त्रीचोर ( पुं० ) डिम्बिका - जलबिंब, वीणाआदिबाजा बजानेका गज, रति इच्छावाली स्त्री, ( स्त्री० ) ॥ ९० ॥ तण्डक - वृक्षस्कन्ध, समासप्रायवाची, घरका वृक्ष, झाग, खंजन-पक्षी, मायावी - पुरुष, (पुं० ) ॥ ९१ ॥
झिल्लि (ल्ली ) का भँभीरी - प्राणी | विशेष, विलेपनमल, धूपकी दीप्ति, (स्त्री० ) ॥ ८८ ॥
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कतृतीयम् । भाषाटीकासमेतः ।
तर्ककः काटिणि ख्यातस्तर्केऽर्के गृध्रपक्षिणि । तक्षको नागभेदे स्याद्वर्द्धकिद्रुमभेदयोः ॥ ९२ ॥ तारको दैत्यभित्कर्णधारयोईशि तारकम् । ऋक्षे कनीनिकायां च तारकं तारिकाऽपि च ॥ ९३ ।। तिलकं द्रुमभेदे च रोगे च तिलकालके । क्लीबं सौवर्चले क्लोम्नि ललामेऽस्त्री तु चित्रके ॥ ९४ ॥ तुलकः तुलकायां स्यात्तथा दधिकपक्षिणि । तुरुष्कः सिहके म्लेच्छभेदस्त्रीवासयोरपि ॥ ९५ ॥ तूलिका चित्रविन्यासलेखन्यां तूलतल्पयोः । त्रिशंकुर्नुपभेदेऽपि शलभे वृषदंशके ॥ ९६ ॥ दर्शकस्तु प्रतीहारे दर्शयितृप्रवीणयोः । दारको भेदकेऽपत्ये कूपके तु विपूर्वकः ॥ ९७ ॥
तर्कक-इच्छावाला, तर्क, सूर्य, गृध्र- तुरुष्क-हींग, म्लेच्छजाति, स्त्रियोंपक्षी, (पुं० )
का निवासस्थान,( पुं० )॥ ९५॥ तक्षक-नागभेद, बढई, वृक्षभेद नलिका-चित्रखेंचनेकी कलम, रूई, (पुं०)॥ ९२ ॥
___ शय्या, (स्त्री०) ता (रिका)रक-एकदैत्य, नावको चलानेवाला(पुं०)नेत्र,(न.)नक्षत्र,
त्रिशंकु-एकराजा, टीडी, बिलाव नेत्रतारा, ( न०स्त्री० ) ॥ ९३ ॥ (पु० ) ॥ ९६ ॥ तिलक-वृक्षभेद (तिल), रोग, दर्शक-पौलिया मनुष्य, कुछभी दिखा
शरीरपर तिलका श्यामचिह्न, (न०) नेवाला, चतुर, (पुं०) कालानोंन, फुप्फुस, श्रेष्ठ, स्त्रियों
का तिलकविशेष (पुं० न०) १ दारक-फाडनेवाला, सन्तान, तुलक-तुली, दधिक (पक्षिवि-विदारक-नदीसूखनेपर जलकेलिये शेष) (पुं०)
__ खोदाहुवा खडा, (पुं०) ॥९॥
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१८
विश्वलोचनकोशः- [ कान्तवर्गेदीपको वागलङ्कारे प्रदीपे दीप्तिकारके । दीप्यकं त्वजमोदे स्याद्यवानीबर्हिचूडयोः ॥९८ ॥ दूषिका लोचनमले तूलिकायां च दूषिका । द्रावकस्तु शिलाभेदे विदग्धे घोषकेऽपि च ।। ९९ ॥ धनिकः साधुधान्याकधवेषु धनिका स्त्रियाम् । धावको जवके राजगतिकर्मणि योगिनि ॥ १०० ॥ धेनुका तु भवेद्धेनौ करिपत्नीप्रसूतयोः । धेनुकं करणे स्त्रीणां धेनुवृन्देऽपि धेनुकम् ।। १०१ ॥ नग्नको बन्दिनि ग्रन्थे नग्ने गौ- तु नग्निका। नन्दको हरिखङ्गेऽपि हर्षके कुलपालके ।। १०२ ॥ नरको निरयेऽपि स्यान्नरको दानवान्तरे । नर्तकः पोटगलके चारणे केलके नटे ॥ १०३ ॥
दीपक-वाणीका अलंकार ( दीपक | धेनुका-गौ, हथिनी, प्रसूतिका स्त्री,
नामक), दीपक, प्रकाश करनेवाला (स्त्री० ) (पुं० )
धैनुक-स्त्रियोंका उपस्करण, गौवोंदीप्यक-अजमोद-औषधि, अजवा-| का समूह, ( न०) ॥ १०१॥
यन, मोरकी चोटी (न०) ॥९८॥ नग्नक-बंदीजन,ग्रन्थ,नंगापुरुष,(पुं०) दृषिका नेत्रमल,शय्यासाधन, (स्त्री०) | नग्निका-कन्या (स्त्री० ) द्रावक-शिलाभेद, चतुर, तोरई नन्दक-विष्णुका खड्ग, आनंददाता, (पुं० ) ॥ ९९ ॥
। कुलकी रक्षाकरनेवाला(पुं०)॥१०॥ धनि (का)क-साधुजन, धनियां, नरक-नरक-लोक, नरकनामक
स्वामी, (पुं०) धनिका स्त्री, (स्त्री०) दानव, (पुं० ) धावक-शीघ्रचलनेवाला, राजाकी | नर्तक-नड या देवनल, चारण-जाति, - गति कर्मवाला, योगी, (पुं०)१०० केला-वृक्ष, नट, (पुं०) ॥ १०३॥
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कतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
नर्तकी लासिकायां स्यात्करिण्यामपि नर्तकी। नायको नेतरि श्रेष्ठे हारमध्यमणावपि ॥ १०४ ।। नालीकः पिण्डजेऽप्यज्ञे नालीकः शरशल्ययोः । नालीकं पद्मखण्डेऽपि नाडीकं सरसीरुहे ॥ १०५ ॥ निपाकः पवने स्वेदेऽप्यसत्कर्मफलेऽपि च ।। निर्मोको व्योम्नि सन्नाहे मोचने सर्पकचुके ।। १०६ ॥ वारकोऽश्वे महामात्ये हस्तिसङ्खयेऽपि नीटकः। नीलिका नीलिकीक्षुद्ररोगसेफालिकासु च ॥ १०७ ।। पताका स्याद्वैजयन्त्यां सौभाग्येङ्गध्वजेऽपि च । पद्मकं पद्मकोशेऽपि करिबिन्दुषु पङ्कजे ॥ १०८ ॥ पराको व्रतमात्रेऽपि पराकः शयकेऽपि च । उभौ पर्यङ्कपल्यौ वृष्यां पर्यस्तिखण्डयोः ॥ १०९॥
नर्तकी-नृत्यकरनेवाली-स्त्री, हस्तिनी, सर्पकी काँचुली ॥१०६॥ रोकनेवाला (स्त्री०)
__ अश्व, बडामंत्री, (पुं) नायक-प्रेरणाकरनेवाला-पुरुष, श्रेष्ठ नीटक हस्तियुद्ध (पुं० )
पुरुष, हारकेबीचकी मणि (पुं०) नीलिका-नीलबडी-वृक्ष, क्षुद्ररोग, ॥ १०४ ॥
! निर्गुण्डीवृक्ष, ( स्त्री० )॥ १०७ ॥ नालीक-पिंडसे उत्पन्न होनेवाला,मूर्ख, पताका-इंद्रकी ध्वजा, सौभाग्य,नाटनालीक-बाण, शल्य (भाला) (पुं०) कका अंग, ध्वजा-मात्र, (स्त्री.) नालीक-कमलसमूह, ( न०) पद्मक-कमलकोश, हस्तीका शरीरके नाडीक-कमल, (न०) ॥ १०५ ॥
| बिन्दु, कमल, (न.) ॥१०८॥ निपाक-वायु, पसीना, खोटाकर्मका पराक-व्रतमात्र, सोनेवाला (पुं० ) फल (पुं०)
। पर्यक-पल्यंक-शय्या, 'चटाई, नोक-आकाश, कवच, छोडना, बिछौना, टुकड़ा (पुं० ) ॥१०९॥
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विश्वलोचनकोशः- [ कान्तवर्गेपार्श्वद्वारि सपक्षे च पक्षे पार्श्वे च पक्षकः। पाटकस्तु महाकिष्कौ वाद्येऽपि कटकान्तरे ॥ ११० ॥ अक्षादिचालने मूलद्रव्यापचयकूलयोः ।। पातुकः पतयालौ स्यात्प्रपाते जलहस्तिनि ॥ १११ ॥ पालंकः शाकभेदेऽपि शल्लकीवाजिपक्षिणि । पावकोऽग्नौ सदाचारे भल्लातकवितङ्कयोः ॥ ११२ ॥ चित्रकेऽप्यग्निमन्थेऽपि त्रिषु पाचनकारिणि । पिण्याकः शिलके हिङ्गौ तिलकलेकेऽपि कुङ्कुमे ॥ ११३ ॥ पिनाको हरकोदण्डे शूलेऽस्त्री पांसुवर्षणे । पिष्टको यवधान्यादिचमसे चक्षुषो रुजि ॥ ११४ ॥ पुत्रकः शरभे पुत्रे धूर्ते वृक्षनगान्तरे ।
पुत्रिका पुत्तलीपुत्र्योस्तथा यावकतूलिके ॥ ११५ ॥ पक्षक-पसवाड़ाका दरवाजा,पक्षवाला, पिण्याक-गंधद्रव्यविशेष (शिलारस), पक्ष, पसवाड़ा, (पुं० )
हींग, तिलोंकी खली, केसर, पाटक-हस्तप्रमाण, बाजा, कंकणभेद (पुं० ) ॥ ११३ ॥
॥ ११० ॥ पाशा आदिका डालना, पिनाक-महादेवका धनुष, त्रिशूल,
मूलद्रव्यका खर्च,नदी के किनारे (पुं० (पुं० न०) धूलिउडानेवाला (त्रि.) पातुक-पड़नेकेस्वभाववाला, पर्वतमें। गिरनेका स्थान, जलहस्ती, (पुं०)
पिष्टक-यवधान्यआदिका चमस (अ
___ग्निमें होमनेका द्रव्य ), नेत्ररोग, ॥ १११ ॥ पालंक-पालक नामका शाक, सेह- (पु० ) ॥ ११४ ॥
प्राणी, वाज पक्षी, (पुं० ) पुत्रक-रोझ-पशु, पुत्र, धूर्त , वृ. पावक-अग्नि, सदाचार, भिलावा, क्षविशेष, पर्वतविशेष, (पुं०) वितंक वृक्ष, ॥ ११२॥ चीता पुत्रिका-पूतली-काष्ठआदिकी, पुत्री,
औषधि, अरडूं या अगेथु-वृक्ष, जौकी तुली (नाली), (स्त्री.) (पुं० ) पाचक औषधि (त्रि.) ॥११५ ॥
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कतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
पुलकः कृभिभेदे स्यान्मणिदोषे शिलान्तरे । गजान्नपिण्डे रोमाञ्चे गल्वर्कहरितालयोः ॥ ११६ ॥ पुलाकस्तुच्छधान्ये स्यात्संक्षेपे भक्तशिक्थके । पुष्पकं तु कुबेरस्य विमाने रत्नकङ्कणे ॥ ११७ ।। नेत्ररोगे च कासीसे चीरिकायां रसाञ्जने । मृदङ्गारशकट्यां च लोहकांस्ये च पुष्पकम् ॥ ११८ ॥ पूर्णकः स्वर्णचूडे स्यान्नासच्छित्त्यां च पूर्णिका । पृथुकश्चिपिटे बाले पृदाकुस्तु सरीसृपे ॥ ११९ ॥ पृदाकुर्वृश्चिकेऽपि स्याध्याघ्रचित्रकयोरपि । उलूके गजलाडूलमूलप्रान्तेऽपि पेचकः ॥ १२० ॥ पेटकोऽस्त्री पुस्तकादेमञ्जूषायां कदम्बके । प्रतीकः प्रतिकूले त्रिष्वेकदेशविलोमयोः ॥ १२१ ॥ प्रमादेऽवयवे चाथ प्रसेकः सेचने च्युतौ ।
प्राणकः सत्त्वजातीये बोलके जीवकद्रुमे ॥ १२२ ॥ पुलक-कृमिविशेष, मणिदोष, एकप्र- । पृथुक-चूडा-धानका, बालक, (०)
कारका पत्थर, हस्तीके अनका पिंड, पृदाकु-सर्प, ॥११९ ॥ बीछू, बघेरा, रोमांच, मद्यपानपात्र, हरिताल| चीता, (पुं० )। (पुं०) ॥ ११६ ॥
पेचक-उल्लू-पक्षी, हस्तीकी पूँछका मूपुलाक-तुच्छधान्य, संक्षेप, भातका लभाग, (पुं०) ॥१२० ॥ माँड, (पुं०)
| पेटक-पुस्तकआदिकोंकी सन्दूक, समूपुष्पक कुबेरका विमान, रत्नजटितक- ह, (पुं० न०) ऋण, (न.)॥ ११७ ॥ नेत्ररोग, प्रतीक-प्रतिकूल, एकदेश, विलोम कासीस, भंभीरी-प्राणी, रसोत, (उलटा) ॥ १२१ ॥ प्रमाद, मिट्टीकी सिगडी, लोहा, कांसी-धातु अवयव ( अंग) (त्रि.) (न०)॥ ११८॥
प्रसेक-सेचन करना, गिरना, (पुं०) पूर्णक-काबरी-पक्षी, (पुं० ) प्राणक-प्राणीमात्र, बोलनामक द्रव्य, पूर्णिका-नाकछिदावाली, ( स्त्री०) जीयापोता-वृक्ष (पुं०) ॥ १२२ ॥
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विश्वलोचनकोशः
[ कान्तवर्गेप्रियकस्तु कदम्बे स्यादलिचित्रकुरङ्गयोः । प्रियङ्गौ पीतशाले च कुङ्कुमप्रिययोरपि ॥ १२३॥ फलकं चित्रविन्यासे पट्टिकाव्रणभेदयोः। वराको वाच्यवच्छोच्येऽनुकम्प्ये सङ्गरे पुमान् ॥ १२४ ।। वसुकः शिवमयां स्यादर्कपर्णेऽपि रोमके। बहुकोऽर्के कर्कटके दात्यूहे जलखादके ॥ १२५ ।। वारकोऽश्वविशेषे च गतावपि निषेधके । वार्द्धकं वृद्धसंघाते वृद्धत्वे वृद्धकर्मणि ॥ १२६ ॥ बालकोग्नौ शिशौ केशे वाजिवारणवालधौ । स्याद्वालक तु हीबेरे पारिहार्यागुलीयके ॥ १२७ ॥ बालिका बालुका बाला पिंछोलाकर्णभूषणे । बालुका सिकताऽपि स्याद्वालुकं त्वेलवालुके ।। १२८ ॥
प्रियक-कदंब-वृक्ष भौंरा, चित्रमृग, वार्द्धक-वृद्धसमूह, वृद्धपना, वृद्धका __ कंगुनीधान, विजयसार वृक्ष, केसर, कर्म, (न०) ॥ १२६ ॥
प्रियवस्तु ( स्त्री० ) ॥ १२३ ॥ बालक-भिलावाका वृक्ष, बालक,केश, फलक-मुखादिपर चित्रविन्यास, पट्टी- अश्व हस्तीकी पूंछमें मोटाभाग,(पुं०)
काष्टआदिकी, व्रणभेद, ( न० ) बालक-नेत्रबाला-औषध, पहुँचेका बराक-शोचकरनेयोग्य (त्रि० ) द- आभूषण, उँगलीका आभूषण,(न०)
याकरनेयोग्य, युद्ध (पुं० )॥१२४॥ ॥ १२७ ॥ वसक-बडीमौलसिरी, आकक पत्त, बालिका-बालका, स्त्री १६ वषसाँभरनमक, (पुं०)
। की, कडा, कर्णभूषण, (स्त्री०) बहुक-आक,कर्कट-प्राणी, जलकाक,
जलखादक--पक्षी (पुं०)॥१२५॥, | बालुका-बालू-मिट्टी, (स्त्री) बारक-अश्वविशेष, अश्वकी गतिवि- बालुक-एलवा-ओषधी, (न०)
शेष, (पुं० ) रोकनेवाला, (त्रि०) ॥१२८ ॥
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२३
कतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
वृश्चिकः शूककीटेऽपि द्रुणे राश्योषधीभिदोः । भस्मकं भस्मरोगे स्याद्विडङ्गकलधौतयोः ॥ १२९ ॥ भालाङ्को रोहिते शाकप्रभेदे कच्छपे हरे। महालक्षणसम्पूर्णपुरुषे करपत्रके ॥ १३० ॥ स्याद्भूतीकं तु भूनिम्बमालातृणककत्तृणे । यवान्यामपि कपूरे भूतीकं कट्फलेऽद्वयोः ॥ १३१ ॥ भूमिका रचनायां स्यान्मूर्त्यन्तरपरिग्रहे । भ्रामकः फेरवे धूर्ते सूर्यावर्तशिलान्तरे ॥ १३२ ॥ मण्डूको दर्दुरे बन्धप्रमेदे शोणकेऽप्यथ । मण्डूकपा मण्डूकी मधुको यष्टिकाह्वये ॥ १३३ ॥ बन्दिपक्षिप्रभेदे च मधुपर्यो स्त्रियामपि । मल्लिको मल्लिका चैव राजहंसान्तरे द्वयम् ॥ १३४ ॥
बृश्चिक-केंचुवा (कसर), बीछू, । भूमिका रचना, खाँगबनाना,(स्त्री०)
वृश्चिकराशि, ओषधी विशेष,(पुं०) भ्रामक-गीदड, धूर्त, सूर्यावर्त-मणि, भस्मक-भस्मकरोग, बायविडंग, सुव- शिलाभेद, (पुं०)॥ १३२ ॥ र्ण (न०) ॥ १२९ ॥
मण्डूक-मेंडक, बन्धविशेष, सोनाभालाङ्क-हरीडा-वृक्ष, शाकभेद, क
छुवा, महादेव, बडेलक्षणोंसे पूर्ण मनुष्य, करोंत (बढईका औजा- मण्डूकी-मंडूकपर्णी, मुलहटी, (स्त्री०) र) (पुं० )॥ १३ ॥ मधु(का)क-मुलहटी, ॥१३३॥ भूनिम्ब-चिरायता, बचकेसमान ज- बंदीजन, पक्षिविशेष, गिलोय,
लतृण, सुगन्ध-रोहिसतृण, अज- (पु० स्ना० ) वान, कपूर, कायफल, (न०) मल्लि (का) क-राजहंस, (पुं०
। स्त्री०)॥ १३४ ॥
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२४
विश्वलोचनकोशः- [कान्तवर्गेमल्लिका तृणशून्येऽपि मीनमृत्पात्रभेदयोः। मशकः क्षुद्रजन्तूनां प्रभेदेऽपि गदान्तरे ॥ १३५ ॥ मातृका धात्रिकायां स्यात्करणे मातरि खरे । मामकं ममतायुक्तं मातृभ्रातरि मामकः ॥ १३६ ॥ मालिका पुष्पमालायां मालिका सरिदन्तरे । मालिको गरुडेऽपि स्यान्मालिका कण्ठभूषणे ॥ १३७ ॥ मेचकः श्यामले बर्हिचन्द्रे ध्वान्तेऽथ मेचकम् । वाच्यवत्कृष्णवर्णे स्यान्मोचकः कदलीतरौ ।। १३८ ॥ तत्प्रसूनेऽपि शिग्रौ च निर्मोचकविरागिणोः । मोदको न स्त्रियां खाद्यप्रभेदे हर्षकेऽन्यवत् ॥ १३९ ॥ यमकं संयमे शब्दाऽलङ्कारे यमजे त्रिषु । याजको यागशीले स्यात्पूजके राजकुञ्जरे ॥ १४० ॥ मल्लिका-मल्लिका ( मोगरा ) पुष्प, मेचक-श्यामवर्ण, मोरका चन्दा,
मच्छी, मिट्टीका पात्रविशेष,(स्त्री०) (पु.) अन्धकार, (न०) मशक-मच्छर, रोगविशेष (पुं०) कालारंगवाला द्रव्य, (त्रि०)
मोचक-केला-वृक्ष, ॥१३८ ॥ मातृका-धाय (दूधप्यानेवाली), केलाका-पुष्प, सहजना-वृक्ष, करण (साधक), माता, वर्णमाला, छुडानेवाला, विरागी-पुरुष (पुं० ) (स्त्री०)
मोदक-खाद्यविशेष (लड्डू) (पुं०न०) मामक-ममतायुक्त द्रव्य, (त्रि.)
आनंददेनेवाला (त्रि०) ।। १३९॥ माताका भाई (मामा) (पुं०)
यमक-शब्दालंकार, (पुं० ) किसीमालिका-पुष्पमाला, नदीविशेष, द्रव्यका जोडा (त्रि.) (स्त्री०)
याजक-यागशील-पुरुष, पूजाकरनेमालिक-गरुड (पुं०) मालिका वाला, राजाओंमें श्रेष्ठ, (पुं० ) कंठभूषण (माला) (स्त्री०)॥१३७॥ ॥ १४० ॥
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२५
कतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
याज्ञिको याजके दर्भे यज्ञकार्योपजीविनि । युतकं यौतके युग्मे चलनाग्रेऽपि संशये ॥ १४१ ॥ वस्त्रान्तरे वधूवस्त्राञ्चले युक्ते तु वाच्यवत् । यूथिका तु मता यूथ्यामम्लानकुसुमे कचित् ॥ १४२ ॥ रक्तकोऽम्लानबन्धूकरक्तवस्त्रे तु रागिणि । रजको धावके पुंसि कीरेऽपि रजकः पुमान् ।। १४३ ।। रसिका तु रसालायां काञ्चीरसनयोरपि । लेखाकेदारयो राजसषेपेऽपि च राजिका ।। १४४ ॥ रात्रकस्तत्र यो वेश्यागृहे गमितवत्सरः । रात्रकं पञ्चरात्रेऽथ रुचको मातुलुङ्गके ।। १४५ ॥ रुचकं मातुलद्रव्ये दन्ते सौवर्चलस्रजि । उत्कटे चाश्वभूषायां विडङ्गेकण्ठभूषणे ॥ १४६ ॥
याशिक-यज्ञकरानेवाला, कुशा, यज्ञ- | रसिका-शिखरन, ऊस- (गन्ना),
कार्यसे आजीवन करनेवाला,(पुं)। करधनी ( कटिभूषण ), जिह्वा, युतक-वरवधूके देनेको वस्त्रादि, (स्त्री० ) दो वस्तु ( जोडा),
राजिका-रेखा ( लकीर ), श्वेत स! स्त्रियोंके उत्तम जंघावस्त्रका अग्रभाग संदेह, ॥ १४१ ॥
रसौं, राई. ( स्त्री०) ॥ १४४ । वस्त्रविशेष, वधूवस्त्रका अंचल, युक्त रात्रक-जो वेश्याके घर में एक वर्ष (संयुक्त) (त्री०) __रहे वह पुरुष (पुं०)। यूथिका-जूही-वृक्ष, अच्छाखिलाहु रात्रक-पंचरात्र (ग्रंथविशेष) (पुः
वा-पुष्प, (स्त्री० ) ॥ १४२ ॥ रक्तक-कांटेदारसेवती,दुपहरिया पुष्प, रुचक-बिजोरा-वृक्ष ॥ १४५ _ रक्तवस्त्र, स्नेहकरनेवाला, (पुं०) धतूरा-झाड, दाँत, कालानमक रजक-धोबी, सूवा-( तोता ) पक्षी, सज्जीखार, उत्कट, अश्वकाआभूषण (पुं०)॥ १४३ ॥
बायबिडंग, कंठभूषण, ॥ १४६
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विश्वलोचनकोश:
बीजपूरेऽपि दीनारे रोचनादेववृक्षयोः । रुण्डिका रणभूर्द्वार पिण्डिकादूतिकार्थिका ॥ १४७ ॥ जमदग्निप्रियायां च हरेण्वामपि रेणुका |
लम्पाकः पुंसि देशे स्याल्लम्पको लम्पटे त्रिषु ॥ १४८ ॥ लासको उसके लास्यकारकेऽपि मयूर के | लूनकः स्यात्पशौ भिन्ने लोचको नेत्रतारके ॥ १४९ ॥ मांसपिण्डे च पिण्डे च योषिद्धालविभूषणे ।
कज्जले नीलचोले च मौय थचर्मणि ॥ १५० ॥ कदल्यां कर्णपूरे च निर्बुद्धिनृषु लोचकः । वस्तु खले धूर्ते गृहबभौ च फेरवे ॥ १५१ ॥ बन्धकः स्याद्विनिमये वसासत्योस्तु बन्धकी । बन्धूकं बन्धुजीवे स्याद्वन्धूकः पीतशालके ॥ १५२ ॥
२६
सुवर्णसिक्का, कुंकुम - केसरआदि, देवदार वृक्ष ( न० ) रुंडिका - रणभूमि, द्वार पिंडी ( देहली ), दूती, मागनेवाली, (स्त्री० ) ॥ १४७॥ रेणुका - जमदग्नि ऋषिकी स्त्री, मटर
धान्य, ( स्त्री० )
लम्पाक- देशविशेष ( पुं० ) लम्पट,
।। १५१ ।।
( त्रि० ) ॥ १४८ ॥ लासक-शोभावान, नृत्यकरनेवाला, | बन्धक - दोवस्तुवोका
मोर, (पुं० )
लूनक- विदारणकिया पशु, (पुं० ) लोचक नेत्रका तारा ॥ १४९ ॥ मांसपिंड, पिंड, स्त्रीकेभालका आभूषण, कज्जल, नीला वस्त्र,
ध
[ कान्तवर्गे
नुषकी प्रत्यंचा, भृकुटीकीं ढीली च मडी ॥ १५० ॥ केला, कर्णका आभूषण, निर्बुद्धि मनुष्य (पुं० ) वञ्चक-खल ( खोटामनुष्य ), धूर्त
मनुष्य, गृहमें पालाहुवा नौला ( प्राणी ), गीदड, ( पुं० )
बदलाकरना,
(गिरवी) (पुं० ) बन्धकी - वसा, व्यभिचारिणी स्त्री,
( स्त्री० )
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बन्धूक - दुपहरिया पुष्प, ( न० ) पीला सालका वृक्ष (पुं) || १५२ ॥
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कतृतीयम् । भाषाटीकासमेतः।
२७ वर्तको वर्तिका पक्षिप्रभेदेऽश्वखुरे पुमान् । वर्णको बन्दिनि कवौ चारणेऽस्त्री तु वर्णके ।। १५३ ॥ विलेपनादौ चित्रादौ लिपिमस्यां च चन्दने । वर्णिका कठिनीमस्योर्लेखन्यामपि वर्णिका ॥ १५४ ॥ वल्मीको वामलूरे स्यान्मुनिरोगविशेषयोः । वार्षिकं त्रायमाणायां वर्षाकालभवेन्यवत् ॥ १५५ ॥ गोवाहके तु वाहीको वाहीको पृकदेशजे । वाह्रीको वाह्निकोऽश्वे च देशभेदे हये पुमान् ॥ १५६ ॥ वालीकं वाह्निकं द्वे च न द्वयोहि वीरयोः । वितर्कः संशयेऽप्यूहे विचारे च क्वचिन्मतः ॥ १५७ ।। विपाकः परिणामेऽपि खेदे खादुनि दुर्गतौ । विवेकस्तु विचारे स्याज्जलद्रोण्यां रहस्यपि ॥ १५८ ॥
वर्तक-घोडेका सुम्, (पुं०) वाहीक-बैलआदि से बोझा बहनेवर्तिका-बत्तख पक्षी, ( स्त्री०) वाला, पृक्वदेशमें होनेवाला (पुं०) वर्णक-बंदीजन, कवि, चारण, का-...
वाली (ह्रि)क-अश्वभेद, देशभेद, लापीलारंग (पुं० न०)॥ १५३ ॥
अश्वमात्र, (पुं०) ॥ १५६ ॥ विलेपनआदि, चित्रआदि; लिखने
कीस्याही, चंदन, (पुं० न०) वाही(ह्नि)क-हींग, कालीमिरच, वर्णिका-लिखनेकी खडिया मिट्टी, (न०) लिखनेकी स्याही, कलम ( स्त्री०)वितर्क-संदेह, खंडनमंडन, विचार
॥ १५४ ॥ वल्मीक-बाँबी, मुनि, रोगविशेष,
(पुं०)॥ १५७ ॥ (पुं० )
| विपाक-परिणाम फल, खेद, खा. वार्षिक-त्रायमाण नामक-औषधि दिष्ट वस्तु, दुर्गति, (पुं०)
(न०) वर्षाकालमें होनेवाला द्रव्य, विवेक-विचार, जलका बड़ा (त्रि०)॥ १५५ ॥
। पात्र, एकांत, (पुं०) ॥ १५८ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [कान्तवर्गेवृषाङ्कः शङ्करे साधौ भल्लातकमहोक्षयोः । वैजिकं शिग्रुतैलेऽपि हेतौ सद्योऽङ्कुरेऽपिच ॥ १५९ ॥ व्यलीकं विप्रियाकार्यवैलक्ष्येष्वपि पीडने । क्लीबमेव व्यलीकस्तु नागरे वाच्यलिङ्गकः ।। १६० ॥ शंखकं वलये कंबौ शिरोरोगे च शङ्खकः। शम्बुको गजकुम्भान्ते शम्बूकः शुक्तिकान्तरे ।। १६१ ॥ दैत्यभेदेऽपि शम्बूकः शम्बूका जलशुक्तिषु । शलाका तु शरे शल्ये चातपत्राणपञ्जरे ।। १६२ ॥ तर्कुकाष्टयां च मदने शारिकाश्वाविदोरपि । शल्लकी श्वाविद्रुमयोः शायकः शरखगयोः ॥ १६३ ।। शार्ककः शर्करापिण्डे दुग्धफेने च शार्ककः। शिशुकः शिशुमारे च शिशौ पश्चादुलूपिनि ॥ १६४ ॥
वृषाङ्क-महादेव, साधु, भिलावा, शलाका-बाण, शल्य ( भाला ),
बडाबैल ( साँडबैल) (पुं०) छत्र, पिंजरा, ॥ १६२॥ चरखा, वैजिक-सहँजनेका तेल, हेतु ( का- मैनफल-वृक्ष, मैंना-पक्षी, सेह
रण ), तत्कालके वृक्षका अंकुर प्राणी, (स्त्री०) (न०)॥ १५९ ॥
शल्लकी सेह-जीव, वृक्षविशेष व्यलीक-अप्रिय, अकार्य, विलक्ष
(साल) (स्त्री.) णता, पीडा, (न०) नागर (विदग्धजन ) (त्रि.) ॥ १६० ॥
शायक-बाण, खड्ग (पुं० ) ॥१६३॥ शंखक-कंकण, शंख, (न०) शिर- शार्कक-शकरका पीडा, दूधके का रोग, (पुं०)
__ झाग, (पुं०) शंबूक-हस्तिकुंभका प्रान्त, शुक्तिका शिशुक-शिशुमार (मच्छ ), बालक,
जीव ॥ १६१ ॥ दैत्यभेद, (पुं०) शिशुमारके आकार मछली (पुं०) शंबूका-जलशुक्ति (शंखला) (स्त्री०) ॥१६४ ॥
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कतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
शीतकः सुस्थिते शीतकालेऽनागतदर्शिनि । शूककः प्रावटप्रहौ शूककः पारदेऽपि च ॥ १६५॥ कृतमालस्तु शम्याकः शम्याकस्तर्वाधृष्टयोः । सम्पर्कः स्यान्निधुवने संसर्गे स्पर्शनेऽपि च ॥ १६६ ॥ सरकः स्यादविच्छिन्नपान्थपतौ शरे पुमान् । अस्त्रियां सीधुपाने च सीधुपात्रे च सीधुनि ॥ १६७ ॥ सस्यको नालिकेरादिसारे खङ्गे मणावपि । सूचकः खलकाकौतुसूचीषु शुनि बोधके ॥ १६८ ॥ सूतकं जन्मनि क्लीबं सूतकः पारदेऽस्त्रियाम् । सृदाकुर्दावकुलिशाऽनिलेषु प्रतिसूर्यके ॥ १६९ ॥ सेचकः सेक्तरि भवे त्रिषु पुंसि तु वारिदे ।
सेवको वल्लकीभान्तवककाष्ठेऽनुजीविनि ॥ १७० ॥ शीतक-सुस्थित, शीतकाल, आल-| मणिविशेष (हरीमणि) (पुं०) सी, (पुं०)
सूचक-खल (चुगलखोर मनुष्य), शूकक-गहरा कुंवाँ, पारा, (पुं०)। काग, बिलाव, सूवा (ई), कुत्ता,
। सूचना करनेवाला, (पुं०)॥१६॥ शम्याक-अमलतास वृक्ष, ताकू, सूतक-जन्म होना ( न०) पारा धृष्ट पुरुष (पुं० )
(पुं० न०) सम्पर्क-मैथुन, संसर्ग, स्पर्श, (पुं०)! सदाकु वनअग्नि, वज्र, वायु, प्रति॥ १६६ ॥
सूर्य ( वर्षाकालमें सूर्यकेपास कदासरक-चलनेवालोंकी अविच्छिन्न चित् दीखनेवाला सूर्य प्रतिबिंबके
पंक्ति, शर, (पुं० ) सीधु (म- सदृश) (पुं०)॥ १६९ ॥ दिरा या आसव ) का पीना, सेचक-सेचनकरनेवाला, भव,(त्रि.) सीधुका पात्र, सीधु (आसव), मेघ, ( पुं०)
(पुं० न०)॥ १६७ ॥ सेवक-बीणाका डेढाकाष्ठ या तूंबा, सस्यक-नारियल आदिका सार, खड्ग, नौकर, (पुं०)॥ १७० ॥
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विश्वलोचनकोश:- [कान्तवर्गेस्यमीका नीलिकायां स्यात्स्यमीको नाकुवृक्षयोः । स्वस्तिको मङ्गलद्रव्ये चतुष्कगृहभेदयोः ॥ १७१ ॥ स्वस्तिकः पिष्ठकस्याऽपि प्रभेदे रततालिके । स्थासको गन्धवज्रायां जलादेरपि बुद्बुदे ॥ १७२ ॥ सेनायां समवेतेऽपि सेनारक्षेऽपि सैनिकः । हारकस्तु शठे चौरे गद्यविज्ञानभेदयोः ॥ १७३ ॥ हुडुको वाद्यभेदे स्यादात्यूहे च मदोत्कटे । हरुको बुद्धभेदेऽपि महाकालगणे तथा ॥ १७४ ॥ क्षारको जालके पक्षिमत्स्यादिपिटकेऽपि च । क्षुरकः कोकिलाक्षे स्याद्गोक्षुरे तिलकद्रुमे ॥ १७५ ॥
कचतुर्थम् । अस्त्री त्वङ्गारकोद्गारे पुंसि भौमे कुरण्टके। अङ्गारिका त्विक्षुकाण्डे तथा किंशुककोरके ॥ १७६ ॥
स्यमीका-नीलीका वृक्ष, (स्त्री०) हेरुक-बुद्धभेद, महाकालका गण, बांबी, वृक्ष, (पुं०)
(पुं० )॥ १७४ ॥ स्वस्तिक-मंगलद्रव्य, चतुष्क (आ-क्षारक-पुष्पकी नवीनकली, पक्षी,
सन ), गृहभेद, ॥ १७१ ॥ पीठी मच्छी आदिके पकड़ने की पिटारी विशेष, रततालिका, (पुं०) (पुं० ) स्थासक-एक प्रकारका आभूषण, क्षुरक-तालमखानाके बीज, गोखरू,
जल आदिका बुदबुदा (पुं०) १७२ तिलक वृक्ष (पुं०) ॥ १७५ ॥ सैनिक-सेना, मिलाहुवा, सेनाकी
कचतुर्थ।। रक्षाकरनेवाला, (पुं० )
अंगारक-आधा जलाहवाकाष्ट आदि, हारक-शठ, चोर, गद्य (काव्य) चिनगारी, (पुं० न०) भौम___ विशेष, विज्ञान विशेष, (पुं०)१७३ / ग्रह, कोरंटा, (पुं०) हडक-वाद्यविशेष, जलकाक, मदो- अंगारिका-ऊस-गन्ना, केसूकी कली, न्मत्त, (पुं० )
( स्त्री० ) ॥ १७६ ॥
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कचतुर्थकम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
पुमान (लि) लमको भेके मधुकेऽम्बुज खरे । पिकेऽप्यलिपकस्तु स्यात्पिकालिरतहिण्डके ।। १७७ ॥ अथाऽश्मन्तकमुद्धाने मल्लिकाच्छदनेऽपि च । आकालिकं क्षणध्वंस्यन्यकालकृतसम्भवे ॥ १७८ ॥ आकल्पकस्तमोमोहग्रन्थावुत्कलिकामुदोः । विशेष्याखनिकस्तु स्याच्चोरमूषकदंष्ट्रिषु ॥ १७९॥ आक्षेपकस्तु पवनव्याधौ व्याधे च निन्दके । भवेदुत्कलिका हेलोत्कण्ठासलिलबीचिषु ॥ १८० ॥ एडमूकस्त्रिषु ख्यातः शठे वाक्श्रुतिवर्जिते । पुनर्नवाकारवेल्लपर्णासेषु कठिल्लकः || १८१ ॥ कनिष्ठाऽङ्गुलिकानेत्रतारयोस्तु कनीनिका | कपर्दकस्तु भूतेश जटाजूटे वराटके || १८२ ॥
कमल केसर, (पुं० ) अलिपक-कोयल-पक्षी, भौंरा, स्त्री
अ (लि) लमक-मेंडक, महुवा वृक्ष, | आक्षेपक-वायु, व्याधि, व्याधा ( हिंसक ), निंदा करनेवाला ॥१७९ ॥ उत्कलिका - क्रीडा, उत्कण्ठा, जलके तरंग, (स्त्री० ) ॥ १८० ॥ एडमूक- शठ, वाणी और कर्णेन्द्रि यसे रहित ( गूँगा ) (पुं०) कठिल्लक-साँठी, करेला, एकशाक या तुलसी (पुं० ) ॥ १८१ ॥
चोर (पुं० ) ।। १७७ ॥ अश्मन्तक- चूल्हा, मल्लिकाका पत्ता,
( न० )
आकालिक - क्षणमात्रमें नष्ट होनेवाला, विनासमय होनेवाला | (पुं० ) ॥ १७८ ॥ आकल्पक - तमोगुण, मोह, ग्रन्थि,
उत्कंठा (उसेर) (पुं० ) आखनिक-मिसा, खोदनेवाला मनुष्य, चोर, मूसा ( चूहा ), सूकर (पुं० )
३१
कानीनिका - कनिष्ठा (सबसे छोटी) उँगली, नेत्रतारा, (स्त्री० ) कपर्दक- शिवका जटाजूट, (पुं० ) ॥ १८२ ॥
कौडी,
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३२
विश्वलोचनकोशः- [ कान्तवर्गकर्कोटकः काद्रवेयप्रभेदे श्रीफलेऽपि च । कलबिङ्को भवेद्रामचटकेऽपि कलिङ्गके ॥ १८३ ॥ काकरूक उलूकेऽश्वे स्त्रीजि तेऽपि दिगम्बरे । दम्मेऽपि काकरूकस्तु त्रिषु भीरुदरिद्रयोः ॥ १८४ ॥ कार्पटिकोऽन्यमर्मज्ञे छात्रे स्यात्कालदेशिनि । कुरबकः पुंसि शोणझिण्टिकाऽम्लानभेदयोः ॥ १८५ ॥ कृकवाकुस्ताम्रचूडे कृकलासे च केकिनि । कोशातकः कचे ज्योत्स्नीपटोल्यां घोषकेऽस्त्रियाम् ।। १८६ ।। कौकुट्टिको दाम्भिके स्याददूरप्रेरितेक्षणे । कौलेयको भवेदिन्द्रे महाकामिकुलीनयोः ॥ १८७ ॥ ग्रामणीभण्डिनाराचोपधाने तु खरालिकः ।
भवेद्गुणनिकाऽभ्यासे शुन्याङ्के पाठनिश्चये ॥ १८८॥ कर्कोटक-नागविकोष, विल्वका | कृकवाकु-मुर्गा, किरलकांट (गिरवृक्ष, (पुं०)
। घट), मीर, (पुं०) कलबिंक-घरमें रहनेवाला चिडा कोशातक-केश, (पुं०)कोशातकी
(चिडिया) इन्द्रजव,(पुं) ॥ १८३ ॥ परवल, झिमनीलता या तोरई, काकरूक-उल्लू-पक्षी, अश्व, स्त्रीसे | (स्त्री०) ॥ १८६ ॥
जीताहुवा मनुष्य,नग्न-मनुष्य, दर्भ, | कौकुट्टिक-नजदीकसे देखनेवाला (पुं०) डरपोरजन दरिद्र-जन (त्रि०) | ___ मनुष्य, दंभी-मनुष्य, (पुं)
। कौलेयक-इन्द्र, महाकामी-पुरुष, कार्पटिक-अन्यके मर्मको जानने- उत्तम कुलमें होनेवाला,(पुं) १८७ वाला, विद्यार्थी, समयको बताने- खरालिक-ग्राममें मुख्य-मनुष्य, वाला, (पुं०)
सिरस-वृक्ष, बाण, तकिया, (पुं०) • कुरबक-भींडी, सोनापाठा,कटसरैया | गुणनिका-अभ्यासकरना,शून्पअंक,
और सेवतीका भेद, (पुं० ) पाठका निश्चय, नृत्यकरना, (स्त्री०) ॥ १८५॥
॥ १८८ ॥
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ऋचतुर्थकम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
नृत्यान्तरे त्वप्यथो गोकण्टको गोक्षुरे पुमान् । गवां गमनसम्भूतशुष्कस्थपुटकेऽपि च ॥ १८९ ।। गोकुणिकः केकरे स्यात्पङ्कस्थगव्युपक्षके । गोमेदकः पीतमणौ काकोले पत्रकेऽपि च ॥ १९० ॥ स्मृता घर्घरिका क्षुद्रघण्टिकावाद्यभेदयोः । भृष्टधान्ये सरिद्भेदे तथा वादित्रदण्डके ॥ १९१ ॥ चांडालिकौषधीभेदे गौरीकिंदिरयोरपि ॥ जटारुको जलानूके नागयष्टिपटीरयोः ॥ १९२ ॥ जटारुकस्तथाशाखाहरिणेऽपि तुलाधरे । जर्जरीकस्त्रिषु भवेद्बहुच्छिद्रे जरातुरे ॥ १९३ ॥ जीवन्तिका तु जीवाख्यशाकबन्दागुडूचिषु ।
जैवातृकः शशिन्यायुष्मति दिव्यौषधे कृशे ॥ १९४ ॥ गोकंटक-गोखरू औषधि, गौवोंके चंडालिका-औषधिविशेष, गौरी,
गमनसे उत्पन्न हुवा और सूखा चंडाल वादित्र (बाजा) (स्त्री.) ऊँचानीचा स्थल, (पुं०) ॥१८९॥ जटास्क-जलके स्वभाववाला, नागके गोकुणिक-काणा-मनुष्य, गौके की |
आकार एक बेल, खैरका वृक्ष चमें धसनेपर नहीं निकालनेवाला, !
॥ १९२ ॥ बन्दर, तराजू धारण
करनेवाला, (पु.) गोमेटक-पीलीमणि, या स्थावरकाला | जर्जरिक-बहुत छिद्रोंवाला, बुढाविष, काकोली, तेजपात, (पुं०) पासे व्याकुल (पुं० ) ॥ १९३ ॥ ॥ १९०॥
| जीवन्तिका-जीयापोता-शाक, अघर्धरिका-छोटीघंटा, वाद्यविशेष, मरबेल, गिलोय, (स्त्री.)
भूनाहुवा धान्य,नदीविशेष (घाघर), जैवातृक-चंद्रमा, वडी आयुवाला वाद्यका दंड ( दाँडा) (स्त्री०) मनुष्य, दिव्य औषध, दुबला॥ १९१॥
मनुष्य, (पुं०)॥ १९४ ॥
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विश्वलोचनकोश:- [ कान्तवर्गततरीकः पारगे स्यात्ततरीकं बहित्रके । तिक्तशाकस्तु वरुणे खदिरे पत्रसुंदरे ॥ १९५ ॥ त्रिवर्णकं त्रिकटुके त्रिफलायां च गोक्षुरे । दन्दशूकस्तु यक्षे स्याद्दन्दशूको भुजङ्गमे ॥ १९६ ॥ दलाढकः वयंजाततिले चाम्पेयकुन्दयोः । शिरीषपृश्निकावात्याखातकेषु महत्तरे ॥ १९७ ॥ गैरिके करिकणे च फेनेऽग्निकणसंहतो। द्रोणे च कार्यकूटे च क्वचिदृष्टो दलाढकः ॥ १९८ ॥ दासेरकस्तु करभे दासीपुत्रेऽपि धीवरे। नियामकः पोतवाहे कर्णधारे नियन्तरि ॥ १९९ ॥ निर्ग्रन्थिकस्तु क्षपणे निष्फलेऽप्यपरिच्छदे ।
निश्चारकोऽनिले खरे पुरीषस्य क्षयेऽपि च ॥ २०० ॥ तर्तरीक-पारपहुंचनेवाला, (पुं०) पक्षी, कार्यमें झूट बोलनेवाला __ जहाज आदि ( न०)
(पुं०)॥ १९८ ॥ तिक्तशाक-बरणा, खर, पत्रसुंदर, दासेरक ऊँट, दासीपत्र, झीमर
(शिमा शाक) (पुं०)॥ १९५॥ जाति, (पुं० ) त्रिवर्णक-सूठ-मिरच-पीपल, हरड
| नियामक-नावसे दुष्टजन्तुओंको बबहेडा-आंवला, गोखरू, ( न० ) दन्दशूक-यक्ष-जाति, सर्प, (पुं० )
चानेवाला मल्लाह, नौका चलाने. ॥ १९६ ॥
| वाला, प्रेरणाकरनेवाला, (पुं० ) दलाढक-स्वयं उत्पन्न हये तिल. ॥१९९ ॥
चंपा, कुन्द, सिरस-वृक्ष, पृष्टिपर्णी, निर्गन्थिक-क्षपणक-मुनिभेद, नि. वायुसमूह, खोदाहुवा, बहुत बडा, फल, वस्त्रादिसे रहित, (पुं० ) ॥ १९७ ॥ गेरू, हाथीका कान, निश्चारक-वायु, यथेच्छ-मनुष्य, झाग, अमिकणोंका समूह, काग- विष्ठा का नष्ट होना, (पुं० ) २००
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कचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः।
पञ्चालिका भवेद्वस्त्रपुत्रिकागीतभेदयोः । पिण्डीतकस्तु तगरे मदनाद्रौ फणिज्जके ॥ २०१ ।। स्तनवृन्ते पिप्पलकः क्लीबं सीवनसूत्रके। पुण्डरीकोऽग्निदीप्ताङ्गे व्याघ्रभेदेक्षुभेदयोः ॥ २०२ ॥ पुण्डरीक सितच्छत्रे सिताम्भोजेऽपि भेषजे । पुष्कलको गन्धमृगे कीलके क्षपणेऽपि च ॥ २०३॥ क्लीबं पूर्णानकं पूर्णपात्रे पटहपात्रयोः । पोतक्यां विचलपोताधाने पोतीनकं मतम् ॥ २०४ ॥ प्रकीर्णक ग्रन्थभेदे प्रशस्ते चामरे ये । प्रवर्तकः शराघाते बहें पुष्पभुजङ्गयोः ॥ २०५ ॥ फर्फरीकश्चपेटे स्यात्फर्फरीकं तु मार्दवे । बकेरुका बकीभेदे वातावर्जितपल्लवे ॥ २०६॥
पंचालिका-वस्त्रकीपुतली, गीतभेद, पूर्णानक-पूर्णपात्र, पटह ( बाजा), (स्त्री०)
। पात्र, (न.) पिंडीतक-तगर-वृक्ष, मैन-वृक्ष, जं- पोतीनक-पोतकी ( शकुनचिडिया),
भीरीभेद, (पुं०)॥ २०१॥ छोटी मछलियोंवाला कुंड आदि, पिप्पलक-स्तनोंका अग्रभाग, (पुं०) (न० ) ॥ २०४ ।।
सोनेके लिये सूत्र, (न०) प्रकीर्णक-ग्रंथविशेष, श्रेष्ठ, चवर, पंडरीक-अग्निसे दीप्त अंगवाला, अश्व, ( न० )
व्याघ्रभेद, इक्षु (गन्ना) भेद, प्रवर्तक-बाणका घाव, मोरपंख, (पुं०)॥ २०२ ॥
पुष्प, सर्प, (पुं० )॥२०५॥ पुण्डरीक-सफेदछत्र, सफेदकमल, फर्फरीक-थप्पड, (पुं०) कोमलता औषधि, (न.)
न०) पुष्कलक-गन्धमृग, कीला, क्षपण बकेरुका-बकीभेद (बटेर-पक्षी), वा
(मुनि) (पुं०)॥ २०३ ॥ । युसे हिलायेहुए पत्र (स्त्री०)२०६॥
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विश्वलोचनकोशः- [कान्तवर्गेकपर्दरज्जुराजीवबीजकोशे वराटकः । वरण्डकस्तु मातङ्गवेद्यां यौवनकण्टके ॥ २०७ ॥ तथा संवर्तुले बर्तरूकस्तु सरिदन्तरे।। जलावटे काकनीडे दण्डवासिन्यपीप्यते ॥ २०८ ॥ बर्बरीको महाकाले केशविन्यासशाकयोः । बलाहको वारिवाहे नागदैत्यान्तरे गिरौ ॥ २०९ ॥ वाणिजिको वणिज्यके मृगाके कामिनीरते । और्वेऽनुरागबाटे च मतो वाणिज्यकः पुमान् ।। २१० ॥ वृन्दारकः सुरे श्रेष्ठे मनोज्ञे यूथघातिनि । अथो बृहतिका कण्टकारीवस्त्रान्तरोरुषु ॥ २११ ॥ भट्टारकः सुरे पुंसि क्ष्मापाले च तपोधने । भयानकस्तु शार्दूले सैंहिकेये विभीषणे ॥ २१२ ॥
बराटक-कौडी, रब्बु, कमलका बीज | बलाहक-मेघ, नागविशेष, दैत्यकोश, (पुं०)
विशेष, पर्वत, (पुं०) ॥ २०९ ॥ बरण्डक-हस्तीकी वेदी ( बैठने का वाणिजिक-वणिक चिह्न, चन्द्रमा,
ऊँचा स्थान ), जवानीसे मुखपर स्त्रीमें आसक्त, जलका अग्नि, प्रीतिसे होनेवाला फोड़ाविशेष, ॥ २०७॥ बहन योग्य (पु० ) ॥ २१० ॥ गोल आकारवाला, (पुं०) वृन्दारक-देवता, श्रेष्ठ, सुंदर, समू
हको मारनेवाला (पुं०) बर्तरूक-नदी विशेष, जलका खड्डा, .
बृहतिका-कटेहली, वस्त्रभेद, ऊरु ___ कागका घूसला, दंडवासी, (पुं०) ॥ २०८॥
(जंघा ) (स्त्री०) ॥ २११ ॥
भट्टारक-देवता, राजा, मुनि, (पुं०) बर्बरीक-बडा काल, केशरचना, भयानक-व्याघ्र, राहु, भयंकर, . शाकविशेष, (पुं०)
} (पुं०)॥ २१२ ॥
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कचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः । भार्याटिको भवेद्भार्यानिर्जिते हरिणान्तरे । भ्रमरकोऽने मधुपे च जाले चूर्णकुन्तले ॥ २१३ ॥ मण्डोदकं चित्ररागे भवेदालिम्पनेऽपि च । मतं मण्डलकं बिम्बे कुष्ठभेदे च दर्पणे ॥ २१४ ॥ मयूरकोऽप्यपामार्गे तुत्थके तु मयूरकम् । मदनद्रौ मरुबकः पुष्पभेदे फणिजके ॥ २१५ ॥ माणवको हारभेदे बाले कुपुरुष वटौ । मृष्टेरुको वदान्ये स्यान्मृष्टाशिन्यतिथिद्विषि ॥ २१६ ॥ रतर्द्धिक सुखस्नानेऽप्यष्टमङ्गलके दिने । राधरङ्कुस्तु ना सीरे शीकरे जलदोपले ॥ २१७ ॥ लतालिकस्तु लाटाने वज्रमुस्तौ च पुंस्ययम् । लालाटिकः स्यात्करणांतरेऽप्यालिङ्गनान्तरे ॥ २१८ ॥
भार्याटिक-स्त्रीसे जीताहुवा-पुरुष, मृष्टेरुक-अतिउदार, शोधित अन्न मृगभेद, (पुं०)
। आदि भोजन करनेवाला, अभ्याभ्रमरक-मेघ, भौंरा, जाल, जुल्फ- गतसे द्वेष करनेवाला, (पुं० ) केश, (पुं० ) ॥ २१३ ॥
॥२१६ ॥ मण्डोदक-विचित्ररंग, लीपनेका द्रव्य । (न.)
रतर्द्धिक-सुखस्नान, अष्टमंगलक मण्डलक-प्रतिबिंब, कुष्ठभेद, दर्पण दिन ( न० )
( शीशा) (न०) ॥ २१४ ॥ राधरकु-आगेचलनेवाला, जलकी मयूरक-ऊँगा या चिरचटा, (पुं०) फॅवार, ओला, (पुं० ) ॥२१७॥ नीलाथोथा, (न.)
- लतालिक-आम्रभेद, हीरा, नागरमरुषक-मैनवृक्ष, या धतूरा, मरुवा पुपभेद, वनतुलसी, (पुं० )॥२१५॥
| मोथा (पुं०) माणवक-हारभेद, बालक, कुपुरुष, लालाटिक-चित्र भेद, आलिंगनभेद, वटी (गोली) (पुं० )
॥२१८ ॥
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विश्वलोचनकोश:
कार्याक्षमे प्रभोर्भावदर्शिन्यपि तु वाच्यवत् । त्रिषु लेखीलको लेखहारे यश्च विलेखयेत् ॥ २१९ ॥ स्वहस्त परहस्तेन लेखे लेखीलकः स च ।
वितुन्नकं तु धान्याके मतं झाटामलेऽपि च ॥ २२० ॥ विदूषकचावटौ परनिन्दाविधायिनि । विनायको जिने बुद्धे तार्क्ष्य हेरम्बविघ्नयोः ॥ २२१ ॥ गुरौ विमानकं तु स्यान्माने शून्येऽभिधेयवत् । विमानकं देवयाने सप्तभूमगृहे स्त्रियाम् ॥ २२२ ॥ विशेषकोsस्त्री तिलके विशेषावाहके द्रुमे । वैतालिको बोधकt खेट्टताले च कीर्तितः ॥ २२३ ॥ वैदेहको वाणिजके शूद्राद्वेश्यासुतेऽपि च । वैनाशिकस्तु क्षणिके परतन्त्रोर्णनाभयोः ॥ २२४ ॥
३८
[ कान्तवर्गे
कार्य करनेमें असमर्थ, (पुं० ) | विमानक- देवयान ( विमान ), सात स्वामीका भाव जाननेवाला (त्रि०) मंजलका मकान, (पुं० न० )
लेखीलक-लेखको
पहुँचानेवाला,
॥ २२२ ॥
भुँई आँवला
(त्रि ० ) अपने तथा दूसरेके हाथसे | विशेषक- तिलक, ( पुं० न० ) वि. लिखाहुवा लेखपर लिखनेवाला शेषता करनेवाला, ( तिलक वृक्ष (पुं० ) ॥ २१९ ॥ ( पुं० ) वितुनक- धनियां, वैतालिक-बोध करानेवाला, क्रीडाकरके तालदेना ( पुं० ) ॥ २२३ ॥ वैदेहक - वाणिजक (बनजी करनेवाला) शूद्रसे उत्पन्न हुवा वेश्यापुत्र ( पुं० ) वैनाशिक- क्षण में उत्पन्न और नष्ट होनेवाला, पराधीन, मकड़ी - जन्तु, ( पुं० ) २२४ ॥
( न० ) ॥ २२० ॥ विदूषक - मीठा बोलनेवाला लडका, दूसरोंकी निंदा करनेवाला - मनुष्य, ( पुं० )
विनायक - जिन- भगवान्, बुद्ध-भगवान्, गरुड, गणेश, विघ्न, गुरु ( पुं० ) ॥ २२१ ॥
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कचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
शतानीको मुनर्भेदे वृद्धे शालावृकः शुनि । शृगाले वानरे वाऽथ बिले चान्द्रे शिलाटकः ॥ २२५ ॥ शृङ्गाटको भवेद्वारिकण्टके च चतुप्पथे । सङ्घाटिका युगे नासाकुट्टिनीजलकण्टके ॥ २२६ ॥ सन्तानिका दधिक्षीरसारे मर्कटजालके । संदंशिका तु मुकुटीलोहयन्त्रप्रभेदयोः ॥ २२७ ॥ न्यात्सुप्रतीक ईशानदिग्गजे दिव्यविग्रहे । शृगालिका शिवायां स्यात्रासादपि पलायने ॥ २२८ ॥ क्लीबे सैकतिकं मातृयात्रामङ्गलसूत्रयोः । त्रिषु संन्यस्तसंदेहजीविक्षपणिकेप्विदम् ॥ २२९ ॥ पुमान् सैकतिको गन्धकुट्यां सिन्धोश्च सैकते । खभा- परहस्तस्थां यो न साधयितुं क्षमः ॥ २३० ॥
शतानीक-एकमुनि, वृद्ध, (पुं०) सुप्रतीक ईशान दिशामें होनेवाला शालावृक-कुत्ता,गीदड,बन्दर,(पुं०) हस्ती, सुंदर अंगवाला मनुष्य शिलाटक-बिल, चन्द्रकान्तमणि, (पुं०) या चंद्रशाला, (पुं० ॥ २२५ ॥
शृगालिका-गीदडी, भयसे भागना, शङ्गाटक-मानू जलका कांटा (सिं- र घाडा), चोराहा अर्थात् चार तर
(स्त्री० ) ॥ २२८ ॥ फका रास्ता, (पुं० )
सैकतिक-मातृयात्रा, मंगलसूत्र, संघाटिका-जोडा, नासिका, कुटिनी- (न०) संन्यासी, संदेहजीवी, मुनि,
स्त्री, सिंघाडा, (स्त्री०) २२६ ॥ (त्रि.) ॥२२९॥ मुरा नाम औषध, सन्तानिका-दधि दुग्धका सार, समुद्रका रेतीला स्थल (पुं० ) दूसबन्दरका जाल, (स्त्री० )
रेके हाथमें गई हुई अपनी स्त्रीको संदंशिका-संडासी, लोहका यंत्र | लेनेमें जो समर्थ न हो वह, भोजनवेशेष, (स्त्री० ) ॥ २२७ ॥
केलिये हुवा संन्यासी ॥ २३ ॥
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विश्वलोचनकोश:
[कान्तवर्गे
तत्र संन्यासमात्रेण क्षुधा च कृतभोजने । सोमवल्कः पुमान् श्वेतखदिरे कट्फलेऽपि च ॥ २३१ ॥ सौगन्धिकं तु कलारे पद्मरागे च कत्तृणे । गन्धके गान्धिके पुंसि त्रिषु सौगन्धिकं. क्रमात् ॥ २३२ ।।
कपञ्चमम् । अनेडमूकः कितवे त्रिषु वाक्श्रुतिवर्जिते । स्यादाच्छुरितकं हासनखाघातविशेषयोः ॥ २३३ ॥ मातोपकारिका राजमन्दिरे पिष्ट कान्तरे । उपकामपीयं स्यादथ स्यात्कटखादकः ॥ २३४ ॥ खादके काचकलशे बलिपुष्टशृगालयोः । स्यात्कक्षावेक्षको धीरे शुद्धान्तोद्यानपालयोः ।। २३५ ॥ अपि षिड्ने कवौ रङ्गाजीविनि द्वारपालके । स्यात्कृमीकण्टकं चित्राविडङ्गोदुम्बरेप्वपि ॥ २३६ ॥ सोमवल्क-सफेद खरै, कायफल | उपकारिका-माता, राजमन्दिर, (पुं०)॥ २३१ ॥
पिष्टका भेद, उपकारकरनेवाली स्त्री, सौगन्धिक-संध्यासमय खिलनेवाला (स्त्री०) कमल, माणिक-रत्न, सौगन्धिक
कटखादक-खानेवाला काचकलश, तृण या गंजाण, (न०) गन्धक,!
यक काग, गीदड, (पुं० ) ॥ २३४ ॥ गांधी, (पुं० ) गंधवाला द्रव्य । (त्रि०) ॥ २३२ ॥
कक्षावेक्षक-धीर, रनवास और ब_ कपंचम।
गीचाकी रक्षा करनेवाला, ॥२३५॥ अनेडमक-छलकरनेवाला, वाणी और धूर्त, कवि, कपडा रंगनेवाला. कर्णेन्द्रियसे रहित, ( त्रि०)
| (रंगरेज), द्वारपाल (पुं०) आच्छुरितक-हँसना, नखोंसे आघात | कृमि(मी)कंटक-चीता, वायविडंग, विशेष, ( न० ) ॥ २३३ ॥ गूलर, (न०) ॥ २३६ ॥
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कपञ्चमम् । भाषाटीकासमेतः ।
गोजागरिकमित्याहुर्मङ्गले कन्दुकारके । कण्ठीविशेषखद्योतविद्युत्सु चिलिमीलिका ॥ २३७ ॥ शृङ्गाटके जलगृहे पृश्न्यां च जलकण्टकः । जलतापिक इल्लीशकाकोलीमत्स्ययोर्मतः ॥ २३८ ॥ भवेजलकरङ्कस्तु नालिकेरफलेऽम्बुदे । कंजे जललतायां च भवेन्नवफलिका पुनः ॥ २३९ ॥ नव्ये भव्ये प्रसूनादौ नवजातरजःस्त्रियाम् । नागवारिकमिच्छन्ति हस्तिपे राजहस्तिनि ॥ २४० ।। ताक्ष्य गणस्थराजेऽपि चित्रमेखलके कचित् । शोधन्यामिंगुदे लोकयात्रायां व्यवहारिका ॥ २४१ ॥ स्याद्रीहिराजिकः पुंसि कामिनीचीनधान्ययोः । शतपर्विका च दूर्वायां वचायां शतपर्विका ॥ २४२ ॥
गोजागरिक-मंगल, कंदुकारक नवफलिका-नवीन और सुंदर पुष्प
(खिन्नूबनानेवाला), (न०) आदि, प्रथमऋतुधर्मवाली स्त्री चिलिमीलिका कंठी विशेष, पटबी-1 (स्त्री० )॥ २४० ॥ जना (जुगनू), बिजली, (स्त्री०) नागवारिक-फीलवान, राजहस्ती,
गरुड गणराज, चित्रमेखलक (मोरजलकंटक-सिंघाड़ा, जलगृह, छोटे पक्षी) (पुं०) अंगवाला, (पुं०)
| व्यवहारिका-नीली-औषध, गोंदजलतापिक-काकोलीभेद, मत्स्य नी, लोकाचार, (स्त्री०) ॥२४१॥ (पुं० ) ॥ २३८ ॥
ब्रीहिराजिक-दारुहलदी, चीनाधाजलकरंक-नारियलकाफल, मेघ, न्य, (पुं० ) ॥ २४२ ॥ कमल, जललता, (पुं०) ॥२३९॥ शतपर्विका-दूब,बच-औषध(स्त्री०)
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४२
विश्वलोचनकोश:- [कान्तवर्गशीतचम्पकशब्दोऽयमातर्पणकदीपयोः।। सुवसन्तकमिच्छन्ति वासन्त्यां मदनोत्सवे ॥ २४३ ॥ स्याद्धेमपुष्पिका यूथ्यां चम्पके हेमपुष्पकः ।
कषष्ठम् 1
ग्राममद्गुरिका शृङ्गयां ग्रामयुद्धे च दृश्यते ॥ २४४ ॥ भवेन्मदनशलाका तु सार्यो कामोदयौषधौ । भवेन्मातुलजे धूर्तफले मातुलपुत्रकः ।। २४५ ॥ लूतामर्कटिका पुत्र्यां नवमालप्लवङ्गयोः । श्लोकच्छायाहरे चौरे भवेद्वर्णविलोडकः !! २४६ ॥ सिन्दूरतिलको नागे सिन्दूरतिलकस्त्रियाम् । चतुर्मासोपवासी यः स स्यात्स्नानचिकित्सकः ॥ २४७ ॥
शीतचंपक-आतर्पण ( तृप्तिकरने-मातुलपुत्रक-मामाकापुत्र, धतूराका
वाली ओषधी), दीप (चंपा) (पुं०)। फल, (पुं० ) ॥ २४५ ॥ सुषसन्तक-कस्तूरमोगरा, मदनउ- लूतामर्कटिका-पुत्री, (स्त्री० )
त्सव, (पुं०) ॥ २४३ ॥ लूतामर्कटक-नवीनमालावाला, बहेमपुष्पिका-जूही, ( स्त्री० ) ..
। न्दर, (पुं०) हेमपुष्पक-चम्पा (पुं० ) वर्णविलोडक-श्लोकछायाको हरने
। वाला, चोर, (पुं० ) ॥ २४६ ॥ कषष्ठ ।
सिन्दूरतिलक-हस्ती, (पुं०)। ग्राममहुरिका-शंगी-मरस्य, ग्राम- सिन्दरतिलका-सिन्दूरतिलकवाली युद्ध, ( स्त्री० ) ॥ २४४ ॥
स्त्री, ( स्त्री० ) मदनशलाका-मैना-पक्षी, कामो- स्नानचिकित्सक-चातुर्मासका उप.
द्दीपकऔषधि, (स्त्री.) । वास करनेवाला, (पुं०) ॥ २४७ ॥
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खैकम् ।। भाषाटीकासमेतः । तपस्विपुष्पयोश्चैव मतं स्नानचिकित्सकम् ॥ २४८ ॥ इति कविपण्डितश्रीश्रीधरसेनविरचिते मुक्तावलीत्यपराभिधाने
विश्वलोचने स्वरकाद्यादिकान्तवर्गः ।
अथ खान्तवर्गः।
खैकम् । खमाकाशे दिवि सुखे बुद्धौ संवेदने पुरे । शुन्यवदिन्द्रियक्षेत्रे कुशाहलफले कचित् ॥ १ ॥
खद्वितीयम् । उखा निरुद्धभार्यायामुखा स्थाल्यामपि स्मृता । नखस्तु करजे शुक्तौ गन्धद्रव्ये नखी नखम् ॥ २ ॥ न्युङ्खः सम्यग्मनोज्ञे च साम्नः षट्प्रणवेष्वपि । प्रेवाः पर्यटने नृत्ये दोलायां वाजिनां गतौ ॥ ३ ॥
स्नानचिकित्सक-तपस्वी, पुष्प, इंद्रिय, क्षेत्र, कुश, हलकी फाल,
( पुं० न० ) (॥ २४८ ॥ (न०) ॥ १ ॥ इस प्रकार कविपंडित श्रीश्रीधरसेन-
खदितीय। विरचित मुक्तावली ऐसा दूसरा
उखा-अनिरुद्धकी स्त्री, स्थाली (तंदुल नामवाला विश्वलोचनकी
__ आदि पकानेका वर्तन) (स्त्री० ) भाषाटीकामें स्वरकाद्यादिकान्त कांतवर्ग
नख-नख ( नाखून ) सौपी, (पुं०) समाप्तहुवा ॥
__ गन्धद्रव्य, नख (स्त्री० न०) ॥२॥
न्युत-बहुत सुन्दर, सामवेदके छः अथ खान्तवर्गः। | ॐकार, (पुं० )
प्रेखा-देशान्तरोंमें जाना, नृत्य, .हिंख-आकाश, वर्ग, सुख, बुद्धि, पीडा, डोला, अश्वोंकी गतिविशेष, (स्त्री.)
पुर, पोल ( शून्य) वाला द्रव्य, ॥३॥
खैक ।
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विश्वलोचनकोशः
[खान्तवर्गचिला गत्यन्तरे नृत्ये शूकशिम्ब्यां च दृश्यते । मुखं वक्रे निःसरणेऽप्युपायाऽऽरम्भयोरपि ॥ ४ ॥ लेखो लेख्ये सुरे लेखा रेखाराजीलिपिष्वपि । शङ्खः कम्बुललाटास्थिनखीनिधिषु न स्त्रियाम् ॥ ५॥ शाखा स्यात्पल्लवे वेदविभागेऽप्यन्तिके भुजे । शाखा पक्षान्तरे चाथ शिखा शाखामरश्मिषु ॥६॥ शिखा शिखायां चूडायां चूडायां च शिखण्डिनः । ज्वालायां लाङ्गलिक्यां च सखा मित्रसहाययोः ॥ ७ ॥ सुखं शर्मण्यपि खर्गे सुखा पुर्या प्रचेतसः ।
खतृतीयम् । गोमुखं कुटिलागारे वाद्यभाण्डोपलेपयोः ॥ ८ ॥
चिङ्खा-गतिविशेष, नृत्य, कौंच, शिखा-शाखा, अप्रभाग, किरण (स्त्री०)
(स्त्री०) ॥ ६ ॥ मुखे-मुख, गृहद्वार, उपाय, आरंभ, शिखा-वृक्ष की जड़, चोटी, मोरकी (न०)॥ ४ ॥
चोटी, अग्निकी ज्वाला, कलिहारीलेख-लिखने योग्य, देवता, (पुं०) वृक्ष, (स्त्री० ) लेखा-रेखा, पंक्ति, लेख, (स्त्री०) सखा-मित्र, सहायक, (पुं० ) ॥७॥ शंख-शंख, ललाटका अस्थि, नखी सुख-कल्याण, वर्ग, (न०)
(गंधद्रव्य), खजाना भेद (पुं० न०) ॥५॥
सुखा वरुणकी पुरी (स्त्री० ) शाखा-टहनी या पल्लव, वेदविभाग,
खतृतीय । समीप, भुजा (बाहु), पक्षवि- गोमुख-टेढाघर, बाजाका भांडा, शेष, (स्त्री)
लेपन, (न०)॥ ८॥
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खचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः। त्रिशिखो रक्षसो भेदे क्लीबं भूषात्रिशूलयोः । दुर्मुखो मुखरे नागराजे शाखामृगाश्वयोः ॥ ९ ॥ प्रमुखः प्रथमे श्रेष्ठे मयूखो ज्वालरुक्करे ।। स्कन्दे तर्के विशाखः स्याद्विशाखा भे कठिल्लके ।। १० ॥ विशिखस्तोमरे बाणे विशिखा खनिरथ्ययोः । नलिकायां च विशिखा वैशाखो राधमन्ययोः ॥ ११ ॥ सुमुखस्तार्क्ष्यतनये पण्डिते भुजगान्तरे ॥ १२ ॥
खचतुर्थम् । भवेदग्निमुखो देवे द्विजे पावकसम्भवे । भल्लातके त्वग्निमुखी कचिदग्निमुखोऽपि च ॥ १३ ॥ लाङ्गलिक्यां त्वग्निशिखा कुङ्कुमेऽग्निशिखं स्मृतम् । इन्दुलेखा शशिकलाऽमृतासोमलतास्वपि ॥ १४ ॥
त्रिशिख-एकराक्षस, (पुं०) आभू- | वैशाख-वैशाख मास, दधि मथनेका, षण, त्रिशूल ( ०न),
दंडा (रई) (पुं०)॥ ११॥ दुर्मुख-बहुत बोलनेवाला (त्रि०) | सुमुख-गरुडका पुत्र, पंडित, सर्पभेद नागराज ( नागभेद) या अनंत, (पुं०)॥ १२॥ वन्दर, घोडा, (पुं० )॥ ९॥
__ खचतुर्थ । प्रमुख-पहला, श्रेष्ठ, (पुं०) अग्निमुख-देवता, ब्राह्मण, कञभा, मयूख-ज्वाला, शोभा, किरण, (पुं०) (पुं० ) विशाख-स्वामिकार्तिक, तर्क, (पुं०) | अग्निमुखी(ख)-भिलावा, (स्त्री० विशाखा विशाखा नामक नक्षत्र, न.) ॥ १३ ॥
करेला-शाक, (स्त्री०) ॥१०॥ अग्निशिखा-कलिहारी, ( स्त्री. ) विशिखा-तोमर (गुर्ज), बाण,(पुं०) केसर, (न०)
खान-चांदी आदिकी, गली, नाली, | इन्दुलेखा-चन्द्रकला, गिलोय, सोम(स्त्री०)
| लता, (स्त्री० ) ॥ १४ ॥
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विश्वलोचनकोश:
पुंसि पञ्चनखः कूर्मे गजे गोधादिषु कचित् । बद्धशिखोच्चटायां स्वाद्वाले बद्धशिखस्त्रिषु ॥ १५ ॥ महाशङ्खो नरास्थि स्यान्निधिसङ्ख्याप्रभेदयोः । शिलीमुखो भवेद्भृङ्गे मार्गणे च शिलीमुखः ॥ १६ ॥
पंचमम् । स्यान्मलिनमुखः प्रेते गोलाङ्गूले खलेऽनले । मतः शीतमयूखोऽपि शशिकर्पूरयोरयम् ॥ १७ ॥ सर्वतोमुखमाख्यातं क्लीवमाकाशपाथसोः । क्षेत्रज्ञविधिरुद्रेषु स पुमान् सर्वतोमुखः ॥ १८ ॥ इति विश्वलोचने खान्तवर्गः ॥
४६
अथ गान्तवर्गः । गैकम् । गो गन्धर्वे गणेशेऽकै गं गीते शास्त्रगातरि । गौः पुमान् वृषभे खर्गे खण्डवज्रहिमांशुषु ॥ १ ॥
पंचनख-कछवा, हस्ती, गोधा (गोह ) | सर्वतोमुख-आकाश, जल, ( न० )
आत्मा, ब्रह्मा, रुद्र, (पुं० ) ॥१८॥ इसप्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें खांतवर्ग समाप्त हुआ ।
आदि, (पुं० [स्त्री० )
यद्धशिखा गुंजा ( चिरमठी) (स्त्री०) बालक, (त्रि० ) ॥ १५ ॥ महाशंख - मनुष्यका अस्थि, खजानाभेद, संख्याभेद, ( पुं० ) शिलीमुख -- भौंरा, बाण, (पुं० ) ॥१६
खपंचम |
[ गान्तवर्गे
अथ गान्तवर्गः #1 जैक
मलिनमुख-प्रेत, गौकी पूंछ, खल-ग- गन्धर्व, गणेश, सूर्य, ( पुं० ) मनुष्य, अग्नि, ( पुं० ) गीत, शास्त्रका गानेवाला, ( न० ) शीतमयूख-चंद्रमा, कपूर (पुं० ) गो-बैल, स्वर्ग, खंड ( टुकडा ), वज्र, चन्द्रमा, (पुं० ) ॥ १ ॥
॥ १७ ॥
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गद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः । स्त्री गवि भूमिदिनेत्रवाग्बाणसलिले स्त्रियः ॥२॥
गद्वितीयम् । अगः स्यान्नगवद्वृक्षे शैले भानुभुजङ्गयोः । अङ्गा नीवृत्प्रभेदे स्युरङ्गो देशेङ्गमन्तिके ॥ ३ ॥ गात्रोपायाप्रधानेषु प्रतीकेप्यङ्गवत्यपि । अङ्ग संबोधनेऽसङ्ख्यं पुनरर्थप्रमोदयोः ॥ ४ ॥ इङ्गः स्यादिङ्गिते ज्ञाने जङ्गमाद्भुतयोरपि ।। खगो विहङ्गे विशिखे खगः सूर्ये सुरे ग्रहे ॥ ५ ॥ खङ्गः खङ्गिनि निस्त्रिंशे खङ्गिशृङ्गे जिनान्तरे । गाङ्गः षडानने भीष्मे गङ्गाभूते तु वाच्यवत् ॥ ६ ॥ चङ्गस्तु शोभने दक्षे टङ्गोऽस्त्री स्यात्खनित्रके । तथैवास्त्रान्तरेऽप्यस्त्री जङ्घायां खड्गभेदके ॥ ७ ॥
गो-गौ, भूमि, दिशा, नेत्र, वाणी, | इंग-चेष्टित, ज्ञान, जंगम, अद्भुत(पुं०) (स्त्री०) जल, (स्त्री० बहुवचनान्त) खग-पक्षी, वाण, सूर्य, देवता, ग्रह,
(पुं० ) ॥ ५ ॥ गद्वितीय।
खग-ौंडा, खड्ग ( तलवार), गैंडाका अग-[ नगकेसमान] वृक्ष, पर्वत, सींग, जिनभेद (बुद्ध) (पुं० ) सूर्य सर्प, (पुं० )
गांग-स्वामिकार्तिक, भीष्म, (पुं०) अंग-देशभेद ( पुं० बहुवचनान्त ) गंगासे उत्पन्नहुए ( त्रि०)॥६॥ देश (पुं० ) समीप, (न०) ॥३॥
चंग-सुन्दर, चतुर, (पुं० ) शरीर, उपाय, अप्रधान, मूर्ति, अंगवाला, (त्रि.)
टंग-खोदनेका औजार, अस्त्रभेद, अंग-संबोधन, 'पुनः' अव्ययका अर्थ, पिंडुली, खड्गभेद, (पुं० न०)
आनंद, ( अव्यय)॥ ४ ॥ ॥७॥
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विश्वलोचनकोशः- [गान्तवर्गेउन्नते वाच्यवत्तुङ्गस्तुङ्गः पुन्नागशैलयोः । बर्बरानिशयोस्तुगी त्यागो दाने च वर्जने ॥ ८॥ दुर्गः स्यादुर्गमे दुर्गा चण्डीनीलिकयोर्मता । नगस्तु पर्वते वृक्षे नगो भानुभुजङ्गयोः ॥ ९ ॥ नागः पन्नगपुन्नागनागकेसरदन्तिषु । नागदन्तकजीमूतमुस्तके क्रूरकर्मणि ॥ १० ॥ देहाऽनिलान्तरे श्रेष्ठे श्रेष्ठ एवोत्तरस्थितः । नागं तु सीसके रङ्गे स्त्रीबन्धकरणान्तरे ॥ ११ ॥ पिङ्गः पिशङ्गे पिङ्गी तु शम्यां पिङ्गं तु बालके । पिङ्गा रामठनील्यां स्यादुमारोचनयोरपि ॥ १२ ॥ पूगस्तु निकुरम्बे स्यात्पूगः क्रमुकपादपे फल्गुमलप्वामाख्याता निष्फले फल्गु वाच्यवत् ॥ १३ ॥
----- -- --- ------- तुङ्ग-ऊँचा, (त्रि.)चंपा, पर्वत, (पुं०)। शब्दके आगे जुडा हुआ श्रेष्ठको ही तुगी-बर्बरी ( तिलवणी ) शाक, कहनेवाला, (पुं० ) सीसा, राँग, _ हलदी, (स्त्री०)
स्त्रियोंके वाँधनेका उपकरण (न०) त्याग-दान वर्जना, (पुं०)॥ ८॥ ॥११॥ दुर्ग-दुर्गमस्थान (किला) (पुं०) दुर्गा-चंडी (देवी), नीलीका वृक्ष,
पिंग-पिंगलवर्ण (पुं०) पिंगी जाँट(स्त्री०)
। वृक्ष, ( स्त्री० ) बालक, (न०) नग-पर्वत, वृक्ष, सूर्य, सर्प, (पुं०)॥९॥ पिगा-हींग, नीला-वृक्ष, उमा (देवी) नाग-सर्प चंपा, नागकेसर, हस्ती,
___ गोरोचन, (स्त्री०) ॥ १२ ॥ हाथी दाँत, मेघ, नागरमोथा, ऋर. पूग-समूह, सुपारीका वृक्ष, (पुं० ) कर्म करनेवाला, ॥ १० ॥ शरीरमें फल्गु-कठूमर वृक्ष, ( स्त्री० ) निष्फल रहनेवाला एक वायु, श्रेष्ठ, किसी 1 (निःसार) (त्रि.) ॥ १३ ॥
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गद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
भगं तु ज्ञानयोनीच्छायशोमाहात्म्यमुक्तिषु । ऐश्वर्यवीर्यवैराग्यधर्मश्रीरलभानुषु ॥ १४ ॥ भङ्गस्तरङ्गरुग्भेदे दम्भे जयविपर्यये । भङ्गा शणाख्यसस्ये स्याद्भागो रूपार्धकांशयोः ॥ १५ ॥ एकदेशे च भाग्ये च विपूर्वस्तु विभञ्जने । भृगुः शुक्रे प्रपाते च जमदग्नौ पिनाकिनि ॥ १६ ॥ भृङ्गः पुष्पत्वपे खिङ्गे तथा धूम्याटपक्षिणि । नपुंसकं तु भृङ्गं स्यात्केशराजभृगूटयोः ॥ १७ ॥ पुंसि भोगः सुखेऽपि स्यादहेश्च फणकाययोः । निवेशे गणिकादीनां भोजने पालने धने ॥ १८ ॥ मार्गोऽग्रहायणे वाटे कस्तूरीविषयोरपि । मृगः कुरङ्गेऽपि पशौ मृगयामृगशीर्षयोः ॥ १९ ॥
भग-ज्ञान, योनि, इच्छा, यश, जगह, जमदग्नि ऋषि, महादेव,
माहात्म्य, मुक्ति, ऐश्वर्य, वीर्य, (पुं० ) ॥ १६ ॥ वैराग्य, धर्म, श्री ( सम्पत्ति ), श्रृंग-भौंरा, कामीपुरुष ( धूर्त ),
रत्न, सूर्य, (पुं० न० ) ॥ १४ ॥ पपीहा-पक्षी, (पुं० ) भैंगरा, भंग-तरंग, रोगभेद, दम्भ, हारना, दालचीनी ( न० ) ॥ १७ ॥ (पुं०)
भोग-सुख, सर्पका फण और शरीर, भङ्गा-भाँग, ( स्त्री०)
वेश्या आदिका भोगना, भोजन, भाग-किसी वस्तुका आधाभाग, बाँटा पालन, धन, (पु० ) ॥ १८ ॥
( हिस्सा ) ॥ १५ ॥ एकदेश, मार्ग-मार्गशिर-मास, मार्ग, कस्तूरी, भाग्य, (पुं० ) और विपूर्वक विष, (पुं० )
अर्थात् 'विभाग' विभंजन (तोड़ना), मग-हरिण, पशु, मृगया (शिकार ), भृगु-शुक्र-ग्रह, पर्वतमें नहीं ठहरनेकी, मृगशिर नक्षत्र ॥ १९ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [गान्तवर्गेहस्तिभेदेऽपि याच्ञायां मृगी स्यान्नायिकान्तरे । प्रशस्तरथसाराङ्गं युग्मेऽपि स्यात्कृतादिषु ॥ २० ॥ युगं हस्तचतुष्केऽपि वृद्धिनामौषधेऽपि च । योगः संनाहसंधानसङ्गतिध्यानकर्मणि ॥ २१ ॥ विष्कम्भादिषु सूत्रे च द्रव्ये विश्वस्तघातिनि । चरे चापूर्वलाभेऽपि भेषजोपाययुक्तिषु ॥ २२ ॥ रागोऽनुरागमात्सर्ये क्लेशादौ लोहितादिषु । गान्धारादौ नृपे नागे रोगः कुष्ठौषधे गदे ॥ २३ ॥ लङ्गः खिङ्गेऽपि सङ्गेऽपि लिङ्ग चिह्नाऽनुमानयोः । मेहने शिवभेदे च साङ्ख्योक्तप्रकृतावपि ॥ २४ ॥ वङ्गो देशान्तरे भण्टातकीकासयोः पुमान् । वङ्गं रङ्गे च नागे च वङ्गा पुंभूम्नि नीवृति ॥ २५॥
हस्तिभेद, याचना, (पुं०) राग-प्रीति, मत्सरता, क्लेशआदि, लोमृगी-स्त्री-भेद, ( स्त्री०)
हितआदिरंग,गान्धार आदि-गानेका युग-श्रेष्ठ, रथ और हलका अंग (जूवा), राग, राजा, नाग, (पुं० )
दो संख्या तथा संख्येय, सत्ययुगा- रोग-कूट नाम औषध, व्याधि (रोग) दिजुग, चारहाथके प्रमाणवाला,! (पुं०)॥ २३ ॥
वृद्धि नामक औषध, (न०) ॥२०॥ लङ्ग-धूर्त, संग, (पुं०) योग-कवच आदिका बाँधना, शर- लिङ्ग-चिह्न, अनुमान, पुरुषकी विषय
आदिका संधान करना, संगति, इंद्रिय, शिवभेद, सांख्यशास्त्र में कहीं ध्यानकर्म, ॥ २१॥ विध्कंभ आदि- हुई प्रकृति ( माया) (न०)॥२४॥ कयोग, सूत्र, द्रव्य, विश्वासघाती, वङ्ग-देशान्तर, बैंगन, कपास (पुं०) फिरनेवाला, अपूर्व लाभ, औषध, रांग, शीशा, (न०) बङ्गदेश, उपाय, युक्ति, (पुं० ) ॥ २२ ॥ । (पुं० बहुवचनान्त ) ॥ २५ ॥
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गतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः। वर्गोऽध्याये च वृन्दे च वर्गः पञ्चाक्षरीभिदि । वल्गुर्ना नकुले छागे मनोज्ञे वल्गु वाच्यवत् ॥ २६ ॥ वेगो जवे प्रवाहे च महाकालफलेऽपि च । व्यङ्गस्तु पुंसि मण्डूके हीनाङ्गे व्यङ्गमन्यवत् ॥ २७ ॥ क्लीबं शरासने शार्ङ्ग शाङ्ग विष्णुशरासने । शृङ्ग विषाणे शिखरे प्रभुत्वोत्कर्षसानुषु ॥ २८ ॥ चिह्ने क्रीडाम्बुयन्त्रे च शृङ्गः स्यात्कूर्चशीर्षके ।। शृङ्गी विषायामृषभे मीनस्वर्गविशेषयोः ॥ २९ ॥ सर्गः खभावनिमोक्षनिश्चयोत्साहसृष्टिषु । मोहेऽध्याये च शुङ्गी तु न्यग्रोधप्लक्षपीतने ॥ ३० ॥
गतृतीयम् । अनङ्गो मन्मथेऽनङ्गमाकाशमनसोर्मतम् । अङ्गहीनेऽप्यनङ्गः स्यादङ्गभूतविपर्यये ॥ ३१ ॥
वर्ग-अध्याय (प्रसंगसमाप्ति ), स.! (न.)॥ २८ ॥ जीवक-औषधि, ___ मूह, पंचाक्षरीभेद, (पुं०) वल्गु-नौला, बकरा, (पुं० ) सुन्दर, श्रृंगी-ऋषभ-औषध, (स्त्री०) मीन. (त्रि.) ॥ २६ ॥
भेद, स्वर्गभेद, ( पुं० ) ॥ २९ ॥ बेग-जल्दीकरना, प्रवाह नदी आ- सर्ग-स्वभाव, सर्पकी कांचली, नि
दिका, महाकालका फल, (पुं०) श्चय, उत्साह, सृष्टि, मोह, अध्याय, व्यङ्ग-मैंडक (पुं०) हीनअंगवाला (पुं०) ( त्रि०)॥ २७ ॥
शुङ्गी-बड़ वृक्ष, पाखर-वृक्ष, अंबाड़ा, शाङ्ग-धनुषमात्र, विष्णुका धनुष (स्त्री०) ॥ ३० ॥ (न.)
गतृतीय। शृङ्ग-सींग, शिखर, प्रभुता, उत्कर्ष | अनंग-कामदेव, (पुं०) आकाश, मन,
(बड़प्पन), पर्वतकी शिखर, (न० ) अङ्गहीन, अंगोंकी विप. चिह्न, क्रीडाकेलिये जलयंत्र, रीतता (पुं० ) ॥ ३१ ॥
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५२
विश्वलोचनकोशः
[ गान्तवर्गेअपाङ्गस्त्वङ्गविकले नेत्रान्ते तिलके पुमान् । अयोगो विधुरे कूटे विश्लेषे कठिनोद्यमे ॥ ३२ ॥ आभोगो वारुणच्छत्रे यत्नपूर्णत्वयोरपि । आयोगो गन्धमाल्यादिव्यसनेऽपि च ढौकने ॥ ३३ ॥ व्यापाररोधयोश्चाऽऽय आशुगो बाणवातयोः । उत्सर्गो वर्जने त्यागे सामान्ये न्यायदानयोः ॥ ३४ ॥ उद्वेग उद्बाहुलके पुमानुद्वेजनेऽपि च । भवेदुद्गमने चायमुद्वेगं क्रमुकीफले ॥ ३५ ॥ कलिङ्गः पूतिकरजे धूम्याटे विषयान्तरे । नीवृद्भेदे कलिङ्गस्तु त्रिषु दग्धविदग्धयोः ॥ ३६ ॥ कलिङ्गं कौटजफले कलिङ्गा योषिति स्त्रियाम् ।
कलिङ्गो भूमिकूष्माण्डे मतङ्गजभुजङ्गयोः ॥ ३७॥ अपांग-अंगविकल पुरुष, नेत्रोंका | उद्वेग-उद्बाहुलक (भुजाउठानेवाला,
अंतभाग, तिलक, (पुं०) उद्वेजन ( डराना ), उद्गमन अयोग-वियोगवाला, नहीं हिलने- (ऊपरको गमन) (पुं० ) सु.
वाला, अलगपना, कठिन, उद्यम, पारी, (न.)॥ ३५ ॥ - (पुं० )॥ ३२ ॥
कलिंग-करंजुवा-वृक्ष, पपीहा-पक्षी, आभोग-वरुणका छत्र, जतन, परि- देशमात्र, मनुष्योंका बसाया देश, पूर्णपना, (पुं०)
(पुं० ) दग्ध, चतुर, (त्रि.) आयोग-गंधमाला आदिका व्यसन, किसीको प्रेरणा, व्यापार, रोकना, कलिंग-इंद्रजव, (न.) लाभ, (पुं० ) ॥ ३३ ॥ कलिंगा-कलिंगदेशमें होनेवाली स्त्री आशुग-बाण, वायु, (पुं० ) (स्त्री.) उत्सर्ग-वर्जना, त्यागकरना, सामा- कलिङ्ग-भूमिकोहला, हस्ती, सर्प, न्यविधि, न्याय, दान, (पुं०)॥३४॥ (पुं० ) ॥ ३७ ॥
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गतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
कालिङ्गी राजकर्कट्यां कालिङ्गस्त्रिषु तद्भवे । चक्राङ्गी कटुरोहिण्यां चक्राङ्गश्चक्रपक्षिणि ॥ ३८ ॥ जिह्मगो भुजगे पुंसि मन्दगे त्रिषु जिह्मगः। तडागः सरसि ख्यातस्तडागो यन्त्रकूट के ॥ ३९ ॥ तातगुः क्षुद्रताते स्याज्जने पितृहितेऽपि च । तुरगी त्वश्वगन्धायां तुरगो हयचित्तयोः ॥ ४० ॥ त्रिवर्गो धर्मकामार्थसंहतौ च कटुत्रिके । त्रिफलायां सत्त्वरजस्तमसामपि संहतौ ॥ ४१ ॥ वृद्धिस्थानक्षयैकोक्तौ धाराङ्गस्त्वसितीर्थयोः । नरङ्गं तु वरण्डे च वृत्तिकीलकशेफसोः ॥ ४२ ॥ नागरङ्गेऽपि नारङ्गो नारङ्गो यमजेऽपि च । विटे जन्तौ च नारङ्गो नारङ्गं पिप्पलीरसे ॥ ४३ ॥
कालिङ्गी-बडी ककड़ी, (स्त्री०) क- त्रिवर्ग-धर्म अर्थ और काम, झूठ
कडी में होनेवाले बीजआदि, (त्रि.)। मिरच और पीपल, हरड बहेडा चक्रांगी-कुटकी, (स्त्री०) । और आंवला, सत्त्व रजस् और चक्रांग-चकवा पक्षी, (पुं०) ॥३८॥
तमस् , ॥ ४१ ॥ वृद्धि स्थान जिह्मग-सर्प, (पुं० ) मंदचलने
और क्षय, (पुं० ) वाला, (त्रि.)
धाराङ्ग-तलवार, तीर्थ, (पुं०) तडाग-सरोवर, यंत्रोंका समुदाय (पुं० ) ॥ ३९ ॥
नरंग-मुखरोग, चारोंतरफका कीला, तातगु-चचा पिताका हितकारी जन, शिश्नइंद्रियचिह्न, (न०) ॥ ४२ ॥ (पुं० )
नारंग-नारंगी-वृक्ष, जोड़ला पुरुष, तुरगी-आसगंध, ( स्त्री०)
कामी पुरुष, प्राणी, पीपलका रस, तुरग-अश्व, चित्त, (पुं०) ॥ ४० ॥ (पुं० न०) ॥ ४३ ॥
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५४ . विश्वलोचनकोशः- [गान्तवर्गे
निषङ्गो बाणधौ सङ्गे निसर्गः शीलसर्गयोः । नीलङ्गः कृमिकीटे स्याद् भंभराल्यामुशीरके ॥ ४४ ॥ पतङ्गः शलभे सूर्ये खगे शाल्यन्तरेऽपि च । रसे पतङ्गे पत्राङ्गं रक्तचन्दनभूर्जयोः ॥ ४५ ॥ पद्मके चाथ सर्पेऽपि पद्मकाष्ठेऽपि पन्नगः। परागः पुष्परजसि स्लानीयादौ रजस्यपि ॥ ४६॥ विख्यातावुपरागेऽपि चन्दने पर्वतान्तरे । पुन्नागः पुरुषश्रेष्ठे वृक्षभेदे सितोत्पले ॥ ४७ ॥ जातीफलेऽपि पुन्नागः पाण्डुनागे च दृश्यते । प्रयागस्तीर्थभेदे स्याद्यज्ञे वाहे विडोजसि ॥ ४८ ॥ प्रयोगः कार्मणे पुंसि प्रयुक्तौ च निदर्शने ।
प्रियङ्गः फलिनीकराजिकापिप्पलीष्वियम् ॥ ४९ ॥ निषंग-तरकस, संग, (पुं०) पुन्नाग-पुरुषोमें श्रेष्ठ, वृक्षभेद, सफेदनिसर्ग-स्वभाव, सर्ग (रचना) (पुं०)! कमल, ॥ ४७ ।। जायफल, पुन्ना. नीलंगु-छोटाकीड़ा, मक्षिका, खस,
गवृक्ष, सफेद हस्ती तथा सर्प (पुं०)॥ ४४ ॥
(पुं०) पतङ्ग-शलभ-टीडी सूर्य, पक्षी, प्रयाग-प्रयाग नाम तीर्थ, यज्ञ, अश्व, शालिभेद, रस, पतंग काष्ट,
इन्द्र, (पुं० ) ॥ ४८ ॥ पत्रांग-रक्तचंदन, भोजपत्र, (न०)।
प्रयोग-औषधियोंके योगसे उच्चाटन ॥ ४५ ॥
आदिकर्म, युक्त करना, दिखाना, पन्नग-कूट औषधि, सर्प, पद्माख,
(पुं०) (पुं०) पराग-पुष्पकी रज, स्नानमें लगानेकी प्रियंगु-प्रियंगु-वृक्ष या वाघांटी, मालरज, ॥ ४६॥ विख्याति, ग्रहण, कांगनी, राई, पीपल, (पुं०) चन्दन, पर्वतभेद, (पुं०)
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गतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः । प्लवगो वानरे भेके तीक्ष्णदीधितिसारथौ । भुजङ्गो भुजगे षिङ्गे मातङ्गः श्वपचे गजे ॥ ५० ॥ मृदङ्गः पटहे घोषे रक्ताङ्गा जीविकौषधौ। रक्ताङ्गो मङ्गले क्लीबं धीरकाम्पिल्यविद्रुमे ॥ ५१ ॥ रथाङ्गमद्वयोश्चक्रे रथाङ्गश्चक्रपक्षिणि । वराङ्गं मस्तके योनौ गुडत्वचि गजे स्त्रियाम् ।। ५२ ॥ वातिगस्तु दशापाके वार्ताकीधातुवादिनोः । विडङ्गोऽस्त्री कृमिघ्ने स्याद् विडङ्गो नागरेऽन्यवत् ॥ ५३ ॥ विहगस्तु विहङ्गे स्यादग्रगे विहगस्त्रिषु । विसर्गस्तु भवे दाने त्यागे च मलनिर्गमे ।। ५४ ॥ विसर्जनीये मुक्तौ च भावतश्चायनान्तरे ।
रते भोगे च सम्भोगः सम्भोगो जिनशासने ॥ ५५ ॥ प्लवग-बन्दर, मेंडक, सूर्यका सारथि तेजपात या दालचीनी, हाथीसूंडा (अरुण), ( पुं०)
__ वृक्ष, (न०) ॥ ५२ ॥ भुजंग-सर्प, धूर्त, (पुं०) वातिग-दशाफल, बैंगन, धातुवादी, मातंग-चाण्डाल, हस्ती, (पुं०)॥५०॥ (पुं०) मृदंग-पटह' ( ढोल ), अहीरोंका विडङ्ग-बायविडङ्ग, (पुं०न०) चतुर, ग्राम, (पुं० )
(त्रि०) ॥ ५३ ॥ रक्तांगा-जीवन्ती या डोडी औषधि विहग-पक्षी, (पुं०) शीघ्र चलने(स्त्री०)
वाला (त्रि.) रक्तांग-मंगल-ग्रह, (केसर या जाफ-विसर्ग-जन्महोना, दान, त्याग,
रान, (न.) कवीला-औषधि, मलका (विष्ठाका) त्यागना,॥५४॥ मूंगा, (न०)॥५१ ॥
विसर्जनीय (वर्णके आगे दो बिंदु), रथांग-गाडी रथ आदिके पहियां, मुक्ति, सूर्यका अयनभेद, (पुं०)
(न०) चकवा-पक्षी (पुं०) सम्भोग-स्त्रीसंग, वस्तुओंका भोवरांग-मस्तक, भग (स्त्रीकी योनि ) गना, जिनशिक्षा (पुं० ) ॥ ५५ ॥
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५६
विश्वलोचनकोश:
सर्वगं सलिले क्लीबं सर्वगः शङ्करे विभौ । सारङ्को मृगमातङ्गचातकेषु खगान्तरे ॥ ५६ ॥ भृङ्गे त्रिषु तु किमीरे हेमाङ्गस्तार्क्ष्यवेधसोः । गचतुर्थम् ।
अनुषङ्गस्तु नाssरब्धे कारुण्येऽपि क्वचिन्मतः ॥ ५७ ॥ त्यागे मोक्षेऽपवर्गः स्यात्साफल्ये कृतकृत्यतः । अभिषङ्गस्तु संसर्गशपथाक्रोशगञ्जने ॥ ५८ ॥ ईहामृगो वृके जन्तौ प्रभेदे चंपकस्य च । अथोपरागः स्वर्भानुग्रस्तयोः पुष्पवन्तयोः ॥ ५९ ॥ दुर्नयग्रहकल्लोले परीवापे तु पुंस्ययम् । उपसर्गः स्मृतो रोगभेदे चोपप्लवेपि च ॥ ६० ॥ कटभङ्गस्तु शस्यानां नखच्छेदे नृपात्यये । छत्रभङ्गस्तु वैधव्येऽखातन्त्र्यन्नृपनाशयोः ॥ ६१ ॥ - जल ( न० ) महादेव, स । ईहामृग-भेडिया, जन्तु, मर्थ, (पुं० ) भेद, (पुं० ) उपराग-राहुसे चंद्रसूर्यका ग्रसना ( ग्रहण ) || ५९ || दुर्नय ( खोटीनीति), ग्रहों का युद्ध, केशमूँडना, ( पुं० )
सर्वग -
सारङ्ग-मृग, हस्ती, पपीहा पक्षी, पक्षीभेद, ॥ ५६ ॥ भौरा, (पुं० ) चितकबरा (त्रि ० )
हेमाङ्ग - गरुड, ब्रह्मा (पुं० )
अनुषङ्ग- आरंभ,
गचतुर्थ | 'एक जगह के पदको दूसरे स्थान में अन्वय में लेना', दयालुपना, (पुं० ) ॥५७॥ अपवर्ग-त्याग, मोक्ष, करेहुए कृ
की सफलता, (पुं० ) अभिषङ्ग-संसर्ग, शपथ ( सौगन ), गाली, तिरस्कार, (पुं० ) ॥५८॥
[ गान्तवर्गे
उपसर्ग - रोगभेद, उल्कापात आदि उपद्रव, (पुं० ) ॥ ६० ॥
छत्रभंग - विधवापना,
चंपाका
कटभंग-छोटे और हरित तृण आदिकोंका नखसे छेदन, राजाका नाश, (पुं० )
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पराधीनता,
राजाका नाश, (पुं० ) ॥ ६१ ॥
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गपञ्चमम् । ] भाषाटीकासमेतः। दीर्घाध्वगस्तु करभे लेखहारे तु वाच्यवत् । मल्लनागोऽभ्रमातङ्गे वात्स्यायनमुनावपि ॥ ६२ ॥ राजशृङ्गास्तु कनकदण्डमुद्रयोः पुमान् । समायोगस्तु संयोगे समवाये प्रयोजने ॥ ६३ ॥ सम्प्रयोगस्तु सुरते कार्मणेप्यन्वयेऽपि च ॥ ६४ ॥
गपञ्चमम् । कथाप्रसङ्गो वातूले विषवैद्ये च वाच्यवत् । नाडीतरङ्गः काकोले हिंडके रतहिण्डके ॥ ६५ ॥
इति विश्वलोचने गान्तवर्गः ॥
अथ घान्तवर्गः।
धैकम् । घो घण्टायां च घा घाते किङ्किण्यां स्त्री ध्वनौ तु घः। दीर्धाध्वग-ऊँट, (पुं० ) परवाना
गपंचम । पहुँचानेवाला, (त्रि.) कथाप्रसङ्ग-बातून या वायुको न मल्लनाग-इंद्रका हस्ती, वात्स्यायन सहनेवाला, विषका वैद्य, (त्रि.)
मुनि, (पुं० ) ॥ ६२ ॥ नाडीतरङ्ग-कंकोल, लग्नका आराजश्रृंग-सुवर्णका दंड ( छड़ी), चार्य, स्त्रीचोर (पुं०) ॥ ६५ ॥ मुद्गर, (पुं०)
_इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषा
टीकामें गान्तवर्ग समाप्त हुवा । समायोग-संयोग, समवाय-संबंध, अभिप्राय, (पुं० ) ॥ ६३ ॥
अथ घान्तवर्गः। सम्प्रयोग-स्त्रीसंग, औषधियोंके यो
घेक । गसे उच्चाटन आदि कर्म, अन्वय घ-घंटा, (पुं०) (श्लोकके पदोंका संबंध) (पुं० ) घा-घात, करधनी (स्त्री०)
घ-शब्द (पुं०)
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विश्वलोचनकोश:
घद्वितीयम् ।
पापेऽर्त्ती व्यसने चाऽघं स्यादर्धोऽचैनमूल्ययोः ॥ १ ॥ अङ्घिः स्याज्जानुचरणे मूले चापि महीरुहाम् । उद्घो हस्तपुटे देहपवने पावके पुमान् ॥ २॥
५८
ओषः परम्परायां स्याद्दुत नृत्योपदेशयोः । ओघः पाथः प्रवाहे च समूहे च पुमानयम् ॥ ३ ॥ मघा दशमनक्षत्रे मघा स्याद्भुतजान्तरे । वारिवाहेऽपि मेघः स्यान्मेघः स्यान्मुस्तकेऽपिच ॥ ४ ॥ मोघस्तु निष्फले दीने मोघा पाटलिपादपे । लघुर्मनोज्ञनिस्सारागुरुलघुषु वाच्यवत् ॥ ५ ॥
पृक्कायां स्त्री लघु क्लीबं कृष्णागुरुणि सत्वरे । श्लाघा तु स्यात्प्रशंसायां परिचर्याऽभिलाषयोः ॥ ६ ॥
[ घान्तवर्गे
घद्वितीय ।
अघ- पाप, पीडा, व्यसन, ( न० ) अर्घ- पूजाविधि, मूल्य ( मोल ) ( पुं० ) ॥ १ ॥
उत्पन्न हुए ग्राम आदि ( स्त्री० ) मेघ-बद्दल, नागरमोथा औषधि, ( पुं० ) ॥ ४ ॥
मोघ - निष्फल, दीन, (पुं० )
अंघ्रि - घोंटू ( गोडा ), चरण (पाँव), मोघा - मोखानाम-वृक्ष, (स्त्री०)
वृक्षोंकी जड़ ( पुं० )
उद्ध- हाथका पुट, शरीरका पवन, अमि, ( पुं० ) ॥२॥
ओघ - परंपरा, शीघ्र नृत्य, शीघ्र उपदेश, जलका प्रवाह, समूह, (पुं० ) ॥ ३॥ मघा - दशवां नक्षत्र ( मघा ), शब्दसे
|
लघु-सुंदर, निस्सार, अगुरू (छोटा), हलका ॥ ५ ॥ ( त्रि० ) असवरग - औषधि (स्त्री० ) लघु-काला अगर, शीघ्रता ( न० ) श्लाघा - प्रशंसा ( बडाई ), शुश्रूषा, अभिलाषा ( इच्छा ), ( स्त्री० ) ॥ ६ ॥
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घतृतीयम् । भाषाटीकासमेतः।
घतृतीयम् । अमोघः सफलेऽमोघा ख्याता पथ्याविडङ्गयोः । उल्लाघो नीरुजे दक्षे शुचौ हर्षयुते त्रिषु ॥ ७ ॥ काचिघः काञ्चने पुंसि मूषके स्वच्छमण्डपे । निदाघ उष्णकाले स्यात्तापेऽपि खेदवारिणि ॥ ८ ॥ परिघो मुद्गरे योगभेदे खकुलघातयोः । पलिघः काचकलशे घटप्राकारगोपुरे ॥ ९ ॥ प्रतिघस्तु भवेत्क्रोधे प्रतिघातेऽप्यथ त्रिषु । महार्यः स्यान्महामूल्याऽनर्घयोर्लावके पुमान् । सवौंघो गुरुवेगार्थसर्वसन्नहनार्थयोः ॥ १० ॥
इति विश्वलोचने घान्तवर्गः ॥
घतृतीय।
पलिघ-काचकलश, घट, किला, अमोघ-सफल, (त्रि.)
पुरका दरवाजा, (पुं० ) ॥ ९ ॥ अमोघा-हरड़, बायविडंग, (स्त्री०) प्रतिघ-क्रोध, प्रतिघात ( बदलेसेउल्लाघ-रोगसे छुटाहुवा,चतुर, पवित्र,
| मारना ) (पु.) आनंदवाला, ( त्रि०)॥७॥ महाघ-बहुतमोलवाली वस्तु, अमूल्य काचिघ-सुवर्ण, ( पुं० ) मँसा (जिसकी कीमत न होसके ), (चूहा), स्वच्छमंडप (पुं०)
(त्रि.) लवा-पक्षी, (पुं०) निदाघ-ग्रीष्म ऋतु, ताप ( गरमी), सवाघ-बहुत बेग, सबतरफसे कवच
पसीनाका पानी, (पुं० )॥ ८॥ धारण, (पुं० ॥ १० ॥ परिघ-लोहेका मदर. विष्कंभ आदि | इसप्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें . योगोंमें एक योग, अपना या कुलका घान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥
नाश, (पुं०)
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[चान्तवर्गे
विश्वलोचनकोशःअथ ङान्तवर्गः।
डैकम् । भैरवे विषये डः स्यात् ।। इति विश्वलोचने डान्तवर्गः ॥
अथ चान्तवर्गः।
चैकम् । चस्तु तस्करचन्द्रयोः ॥
चद्वितीयम् । अर्चा पूजाप्रतिमयोरुच्चो महति चोन्नते । कचः केशेऽपि हीबेरे कचो गीष्पतिनन्दने ॥ १ ॥ कचः शुष्कत्रणे बन्धे करिण्यां तु कचा स्त्रियाम् । काचस्तु स्यान्मणौ शिक्ये नेत्ररोगे मृदन्तरे ॥ २ ॥ काञ्ची तु मेखलादाम्नि नीवृदन्तरगुञ्जयोः । कूर्चमस्त्री भ्रुवोर्मध्ये शोथश्मश्रुविकत्थने ॥ ३ ॥ ___अथ ङान्तवर्ग। कच-केश (बाल ), नेत्रबाला-औ
षधि, बृहस्पतिका पुत्र, ॥१॥ ङ-भैरव, विषय, (भोग) (पुं०) सूखा व्रण (घाव ), बंध, (पुं०) ___ इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटी- कचा-हथनी, ( स्त्री.) कामें डान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥
काच-मणि, छीका, नेत्ररोग, मि
हीका भेद, (पुं० ) ॥ २ ॥ अथ चान्तवर्ग। चैक।
कांची-करधनीकी लड़ी, कांची-पुरी, च-चोर, चन्द्रमा, (पुं०)
गुंजा ( चिरमठी ) ( स्त्री०) चद्वितीय। | कूर्च-भ्रुकुटियोंके बीचका भाग, अर्चा-पूजा, प्रतिमा ( मूर्ति ) (स्त्री०) सोजा, दाढी मूछ, बकवाद, उच्च-बड़ा, ऊँचा, (पुं०)
(न०)॥३॥
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चद्वितीयम् !] भाषाटीकासमेतः ।
क्रौञ्चस्तु पक्षिभेदे स्यान्नगद्वीपप्रभेदयोः । चञ्चो नालादिनिर्माणे चञ्चा तु तृण पूरुषे ॥४॥ चञ्चुः पञ्चाङ्गुले त्रोट्यां गोनाडीचकलिञ्चयोः । चर्चा तु स्थासके तर्के चर्चिकाचिन्तयोस्तले ॥५॥ त्वक् स्त्रियां वल्कलेऽपि स्याञ्चर्ममात्रे गुडत्वचि । नीचस्तु पामरे निम्ने वामनेऽप्यभिधेयवत् ॥ ६ ॥ न्यग् निम्ने पामरे काये पिचुः स्यात्युंसि तूलके । कृष्णे दैत्यान्तरे कर्षे भैरवस्याननान्तरे ॥ ७ ॥ प्राकू प्राच्ये वाच्यवत् काले दिग्देशे त्वव्ययं मतम् । मोचः सौभाञ्जने पुंसि मोचा शाल्मलिरम्भयोः ॥ ८ ॥ रुचिरिच्छा रुचा रुक्ता शोभाभिष्वङ्गयोरपि ।
रुक् शोभायां च किरणे स्त्रियामपि मनोरथे ॥ ९ ॥ क्रौंच-कूँज-पक्षी, एकपर्वत, एक न्य(च)-नीचा-स्थल, पामर-पुरुष, द्वीप, (पुं.)
सम्पूर्णता (त्रि.) चंच-नालआदिका बनाना (सांचामें पिचु-भिगोया हुआ फोया, काला___ ढालना) (पुं० )
वर्णवाला, दैत्यभेद, सोलहमासाचंचा-तृणोंसे बनाया पुरुष (डरावा) प्रमाण, भैरवका मुख, (पुं०) (स्त्री०)॥ ४ ॥
॥ ७ ॥ चंचु-अरंड, छोटी इलायची, शाक- प्राक(च) पहले होनेवाला, (त्रि.) भेद, सूक्ष्मकाष्ट, (पुं० )
पूर्व काल, पूर्व देश, (अ.) चर्चा-शरीरके चंदन आदिका लपे-मोच-सहँजना-वृक्ष, (पुं०)
टना, तर्क, देवीविशेष, चिन्ता, मोचा-शाल्मलि (साल) वृक्ष,
तलभाग, ( स्त्री०) ॥ ५॥ केलावृक्ष, ( स्त्री० ॥ ८ ॥ त्वक( च् ) वृक्षका-वकल, चर्म, दाल-रुचि-रुचा-इच्छा, दीप्ति, शोभा,
चीनी या जावित्री, (स्त्री० ) मिलाप, (स्त्री०) नीच-पामर (नीचपुरुष), नीचा- रुक-शोभा, किरण, मनोरथ,(स्त्री) स्थल, बौना, (त्रि०)॥ ६॥ ॥९॥
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विश्वलोचनकोशः
[चान्तवर्गे
वचः शुके वचा तूपगन्धासारिकयोः स्त्रियाम् । वाग्भारतीगिरोर्वीचिद्वयोः खल्पतरङ्गयोः ॥ १० ॥ अवकाशे सुखे चाथ शचीन्द्राणी शतावरी । शुचिः पुंस्युपधाशुद्धमन्त्रिण्याषाढबर्हिषोः ॥ ११ ॥ शृङ्गारग्रीष्मयोः श्वेतमेध्यानुपहते त्रिषु । सूची कराधभिनये वेधनीशिखयोरपि ॥ १२ ॥ सूची सीमन्तिनीनां च कथिता करणान्तरे ॥ १३ ॥
चतृतीयम् । अवीचिर्नरके घूर्मिविरहे घूर्मिवर्जिते । भवेदुदक् त्रिषूदीच्ये दिग्देशकालतोऽव्ययम् ॥ १४ ॥ कणीचिः पुष्पितलतागुञ्जयोः शकटेऽपि च । कवचो वारबाणे स्यात्पटहे गर्दभाण्डके ॥ १५॥
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वच-सूवा (तोता) पक्षी, (पुं०) योंका करण ( हावभेद ) (स्त्री०) वचा बच-औषधि, मैना-पक्षी,(स्त्री०) ॥ १३ ॥ वाकू(चा)-सरखती, बाणी (वचन)
चतृतीय । (स्त्री०) वीचि-स्वल्प ( थोड़ा) तरङ्ग, ॥१०॥ अवीचि-नरक,तरंगोंका वियोग त. अवकाश, सुख, (पुं० स्त्री.)
| गवर्जित तडाग आदि, (त्रि०) शचि-इंद्राणी, शतावरी, ( स्त्री० ) उदक-उत्तरमें होनेवाला (त्रि० ) शुचि-मंत्रियोंके शीलकी परीक्षा,
। उत्तरदिशा, उत्तरदेश, उत्तरकाशुद्धमंत्री, आषाढ-मास, कुशा, शू
ल ( अ०) ॥ १४ ॥ झार, ग्रीष्म-ऋतु, श्वेत रंग, पवित्र, कणीचि-फूलीहुई बेल, चिरमटी,
अच्छा, (त्रि. ) ॥ ११ ॥ गाडी, ( स्त्री०) सची हाथ आदिसे भाव बताना,सूई, | कवच-कवच, ढोल, बडीहरड. ___ शिखा (चोटी) ॥ १२ ॥ स्त्रि- (पुं०)॥ १५॥
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चतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः । क्रकचः करपत्रेऽपि ग्रन्थिलाख्यमहीरुहे। नमुचिर्मदने दैत्ये नाराचो जलहस्तिनि ॥ १६ ॥ लोहबाणेऽपि नाराचो नाराची स्यात्तुलान्तरे । प्रत्यक् प्रतीच्ये दिग्देशकाले तु मतमव्ययम् ॥ १७ ॥ स्यात्प्रपञ्चस्तु विस्तारे सञ्चये च प्रतारणे । मरीचिर्नाद्ययोर्दीप्तौ मुनौ ना कृपणेऽपि च ।। १८ ॥ मारीचो याजकद्विजे ककोले राक्षसान्तरे।। मरीचो देवताभेदे प्रफुल्ले विकचस्त्रिषु ॥ १९ ॥ केशशून्ये च ह्रीके तु पुंसि केतुग्रहेऽपि च । विपञ्ची वल्लकीकेल्योः सङ्कोचं कुङ्कुमे मतम् ॥ २० ॥ सङ्कोचो मत्स्यभेदेऽपि सङ्कोचो बन्धनेऽपि च । सत्यवत्सत्ययोः सम्यक् सम्यक् सङ्गतदृद्ययोः ॥ २१ ॥
क्रकच-करौंत, कैर-वृक्ष, (पुं० ) मुनि, कृपण, (पुं०) ॥ १८ ॥ नमुचि-कामदेव, एक दैत्य, (पुं०) मारीच-यज्ञकरानेवाला ब्राह्मण, कं. नाराच-जलहस्ती ( हाथीकेखरूपका कोल, एक राक्षस, (पुं०)
जलचर जीव ) ॥ १६ ॥ लोह-मरीच-देवताभेद, (पुं० ) ॥ १९॥ बाण, (पुं०) तोलनेका छोटा विकच-प्रफुल्लित, (त्रि.) केशरकांटा, (स्त्री०)
हित, मुनि, ध्वजा, केतु ग्रह, (पुं०) प्रत्यक-पश्चिममें होनेवाला (त्रि०) विपंची-वीणा, क्रीडा, (स्त्री.)
पश्चिम दिशा पश्चिमदेश, पश्चिम- संकोच-केसर ( न० ) ॥ २० ॥
काल, (अ०)॥ १७ ॥ __ मत्स्यभेद, बन्धन, (पुं०) प्रपंच-विस्तार, सञ्चय (संग्रह), सम्यक-सत्य बोलनेवाला, सत्य, ___ठगना, (पुं)
___ संगत ( यथार्थ ), सुंदर, (त्रि.) मरीचि-दीप्ति किरण (पुं० स्त्री०) ॥२१॥
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विश्वलोचनकोश:
चचतुर्थम् ।
काकचिश्वी तुलाबीजे वारिक्रिमिदिलीरयोः । जलसूचिर्जलौकायां शृङ्गाटे शिशुमारके ॥ २२ ॥ कङ्कत्रोटौ झषे चाथ चोरे वह्नौ मलिम्लुचः । अमावास्याद्वयं यत्र सोऽपि मासो मलिम्लुचः ॥ २३ ॥ चपंचमम् ।
६४
रतनारीच शब्दोऽयं कुक्कुरे रतिवल्लभे । परीरम्भे समुद्भूतशीत्कारे च वरस्त्रियाः ॥ २४ ॥
इति विश्वलोचने चान्तवर्गः ॥
अथ छान्तवर्गः । छैकम् |
छरछेदकार्कयोश्छा च च्छिदि छं लाच्छनाऽच्छयोः ।
चचतुर्थ |
काकचिंची-घुंघुची, जलकी किमि,
स
मत्स्य- मात्र,
भुईफोड, (स्त्री० ) जलसूचि - जोक, सिंघाडा, मच्छभेद ( शिशुमार ) ॥ २२ ॥ फेदचीलकी चोंच, ( पुं० स्त्री० ) भलिम्लुच - चोर, अनि, जिसमासमें दो अमावास्या हों वह मास, ( पुं० ) ॥ २३ ॥
चपंचम | रतनारीच - कुत्ता, कामी
[ छान्तवर्ग
शीत्कार शब्दवाला श्रेष्ठस्त्रीका सम्भोग ( पुं ) ॥ २४ ॥
De
इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें चान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥
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अथ छान्तवर्गः । छैक ।
छ- छेदन करनेवाला, सूर्य, (पुं० ) छा- छेदनकरना, ( स्त्री० ) पुरुष, छ- कलंक, स्वच्छ, ( न० ) ।
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छचतुर्थम् ।। भाषाटीकासभेतः ।
छद्वितीयम् । अच्छाव्ययमाभिमुख्ये अच्छस्फटिकयोः पुमान् । अच्छः खच्छेऽन्यलिङ्गः स्यात्कच्छः शैलादिसीमनि ॥ १॥ नौकाङ्गे तुन्नकेऽनूपे परिधानाञ्चलान्तरे ।। कच्छा तु चीरिकायां स्याद् वाराह्यामपि दृश्यते ॥ २ ॥ गुच्छः स्तबके हारभेदे गुच्छः स्तम्बकलापयोः । स्यात्पिच्छमस्त्रियां पुच्छे पिच्छा शाल्मलिवेष्टके ॥ ३ ॥ पतौ पूगच्छटाकोशेमण्डेप्वश्वपदामये । विजुलेऽप्यथ पुच्छः स्यापिच्छपश्चात्प्रदेशयोः ॥ ४ ॥ म्लेच्छोऽपभाषणे जातिभेदे पापरतेऽपि च ।
छचतुर्थम् । अथ पुसि महाकच्छः सरिन्नाथप्रचेतसि ॥५॥
इति विश्वलोचने छान्तवर्गः ॥
छद्वितीय । : पिच्छ-बैल आदिकी पूंछ, (पुं० न०) अच्छा(च्छ)-सम्मुख करना, (अ०) पिच्छा-शालका गोंद ॥ ३ ॥
रीछ (भालू), स्फटिक मणि,(पुं०) पंक्ति, सुपारी, छबि, कोश, मांड, स्वच्छपदार्थमें उसके लिंगवाला, घोडेके पैरका रोग, दालचीनी, (त्रि.)
(स्त्री० ) कच्छ-पर्वत आदिकी सीमा, ॥ १॥ पुच्छ-मोरकी पुच्छ, पिछलाभाग, नौकाका भाग, तून वृक्ष, बहुत- (पुं० ) ॥ ४ ॥ जलवाला देश, धोती आदि वस्त्रका म्लेच्छ-बुरा बोलना, जातिभेद, एक भाग, (पुं० )
व पापी मनुष्य (पुं०) कच्छा -चीरिका (ची ची शब्दकरने ।
छचतुर्थ । वाला कीट), बाराहीकंद (स्त्री०) महाकच्छ-समुद्र, वरुण, (पुं०)॥५॥
_ इसप्रकार विश्वलोचनकी भाषातुच्छ-पुष्पआदिकोंका गुच्छा, हार-टीकामें छांतवर्ग समाप्त हवा ॥
भेद, झाड, मोरकी पूंछ आदि (पुं०)।
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विश्वलोचनकोश:--
अथ जान्तवर्गः ।
जैकम् ।
जः स्याज्जविनि जोद्भूतौ जयने जिः प्रकीर्तितः । जूराकाशे सरखत्यां पिशाच्यां जविने त्रिषु ॥ १ ॥
६६
जद्वितीयम् । अजः कृष्णे स्मरहरे विधौ छागे रघोः सुते । अब्जो धन्वन्तरौ चन्द्रे निचले क्लीबमम्बुजे ॥ २ ॥ अस्त्री कम्बुन्यथाssजिः स्यात्सङ्ग्रामेऽपि समक्षितौ । उत्साह कार्त्तिके प्यूर्जस्तूर्जा वीर्ये बले द्वयोः ॥ ३ ॥ कञ्जः केशे विरिञ्चेऽपि कञ्जं पीयूषपद्मयोः । कुजस्तु नरकेऽङ्गारे मे कुञ्जं तु न स्त्रियाम् ॥ ४ ॥
अथ जान्तवर्गः । जैक ।
ज - वेगवाला, (पुं० ) जा-उत्पत्ति, ( स्त्री ० ) जि-जीतना ( स्त्री० ) जू-आकाश, सरखती, पिशाची, वाला, ( त्रि० ) ॥ १ ॥
वेग
जद्वितीय । अज-कृष्ण, महादेव, ब्रह्मा, बकरा,
रघुराजाका पुत्र, ( पुं० ) अब्ज-धन्वंतरि, चन्द्रमा, वेतस-वृक्ष, ( पुं० ) कमल, ( न० ) शंख, ( पुं० न० ) ॥ २ ॥
[ जान्तवर्गे
आजि - संग्राम, सम ( बराबर ) पृथ्वी, ( स्त्री० )
ऊर्ज (र्जा) - उत्साह ( हर्ष ), कार्त्तिकमास, (पुं० ) वीर्य, बल, ( पुं० स्त्री० ) ॥ ३ ॥ कंज-केश, ब्रह्मा, ( पुं० ) कञ्ज- अमृत, कमल, ( न० ) कुज - भौमासुर, मंगल-ग्रह, वृक्षमात्र, ( पुं० ) ॥ ४ ॥
कुंज - ठोडी, वत्स ( छाती ), कुंज ( लता आदिका घर ) ( पुं० न० )
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जद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
नौ वत्सेनिकुञ्जेऽपि कुब्जो न्युब्जे द्रुमान्तरे । स्त्रियां तु खर्जूः खर्जूरवृक्षे कण्डूतिकीटयोः ॥ ५ ॥ वनौ सुरागृहे गञ्जा भाण्डागारे तुन स्त्रियाम् । गञ्जने पुंसि खजा तु मन्थे दवप्रहस्तयोः ॥ ६ ॥ गुञ्जा तु काकचिच्यां स्यात्पटहे च कलध्वनौ । द्विजो विप्रेऽण्डजे दन्ते भाङ्गरेणुकयोर्द्विजा ॥ ७ ॥ ध्वजोऽस्त्री लिङ्गखद्वाङ्गपताकाचिह्नशैौण्डिके । निजस्त्रिषु खके नित्ये न्युब्जो दर्भसुचि स्मृतः ॥ ८ ॥ न्युब्जं तु कर्मर स्यात् कुब्जाधोमुखयोस्त्रिषु । पिबपि पिञ्जा तूलहरिद्रयोः ॥ ९ ॥ व्याकुले वाच्यवत्पिञ्जः प्रजा सन्तानलोकयोः । भुजो भुजा च बाहौ स्यात् पाणिमात्रेऽपि तावुभौ ॥ १० ॥
|
कुटज - कूबड़ा, वृक्षभेद, (पुं० ) खर्जू - खजूर-वृक्ष, खुजली, कीटविशेष, ( स्त्री० ) ॥ ५ ॥ गंजा - खान-चांदी आदिकी, मदिराका घर, ( स्त्री० ) भांडागार ( पुं० न० ) तिरस्कार, (पुं० ) बजा - दविआदि मथनेका डाँडा, कड़छी, चपेटा ( स्त्री० ) ॥ ६ ॥ गुंजा - घुघुची, ढोल, सूक्ष्मध्वनि (स्त्री० ) | द्वेज - ब्राह्मणआदिवर्ण, पक्षी, दाँत,
( ध्वजाभेद ), चिह्न, मदिरा बेचनेवाला, (पुं० न० निज - अपना, नित्य, (त्रि०) न्युब्ज - दर्भका ( कुशाका ) स्रुक् (यज्ञपात्र, ( पुं० ) ॥ ८ ॥ कमरख वृक्ष या फल, (पुं० न० ) कूबड़ा, नीचेको मुखवाला, (त्रि०) पिंज- -मारना ( पुं० ) बल, ( न० ) पिंजा - रुई, हलदी (स्त्री० ) ॥ ९ ॥ पिंज-व्याकुल, (त्रि० ) प्रजा - संतान, स्त्रीपुरुषमात्र
( स्त्री० ) भुज-भुजा -- बाहु, हस्तमात्र, (पुं० स्त्री० ) ॥ १० ॥
( पुं० ) द्वेजा-भारंगी - औषधि,
मटर - अन्न ( स्त्री० ) ॥ ७ ॥ ज - लिंग, शिवका अस्त्र, पताका
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० )
जन,
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विश्वलोचनकोशः- [ जान्तवर्गेमर्जुस्तु रजके पुंसि मर्जूः शुद्धावपि स्त्रियाम् । रज्जुर्वेण्या गुणेऽपि स्याद् राजिः स्त्री पङ्गिरेखयोः ॥ ११ ॥ रुजा रोगेऽपि भङ्गेऽपि लञ्जः स्यात्पट्टकच्छयोः । लाजाः स्युर्मुष्टधान्येषु लाजः स्यादातण्डुले ॥ १२ ॥ उशीरे लाजमुद्दिष्टं वाजः पक्षे स्यदेऽपि च ।। मुनिभेदे खने वाजं त्वाज्ये यज्ञान्नपाथसोः ॥ १३ ॥ बीजं हेतावुपादानेप्यकुरेऽपि च रेतसि । बीजमल्पेऽपि तत्त्वेऽपि व्याजः साध्याऽपदेशयोः ॥ १४ ॥ सर्जूर्वणिजि पुंसि स्यात्सर्जूः स्याद्विद्युति स्त्रियाम् । सन्नद्धे संभृते सजः सञ्जः शम्भुविरिञ्चयोः ॥ १५ ॥ स्वजः खेदे स्वजं रक्तेऽपत्ये च स्वजमन्यवत् ।
जतृतीयम् । अङ्गजः केशकन्द पदे पुत्रे गदे खजे ॥ १६ ॥ मर्जु-धोबी, (पुं० )
! बीज-हेतु, उपादानकारण, आधान, मर्जू-शुद्धि, (स्त्री०)
_____ अंकुर, वीर्य, अल्प, तत्त्व, ( न०) रज्जु-वेणी ( गुंथी हुई बालोंकी लटी), व्याज-निशाना, अपदेश, ( बहाना) रस्सी, (स्त्री०)
! (पुं०)॥ १४ ॥ राजि-पंक्ति, रेखा, ( स्त्री. )॥११॥ सर्जू-वणिक, (पुं० ) रुजा-रोग, टूटना, ( स्त्री०) सर्जू-बिजली (स्त्री०) लञ्ज-पट्टा, धोती टांकनेका भाग,(पुं०) सज-कवचधारी पुरुष, भराहुबा, लाज-भूना हुवा धान, (पुं० बहुव- (पुं० )
चनान्त ) गीले तंडुल (पुं० एक-सञ्ज-महादेव, ब्रह्मा, (पुं०) ॥१५॥ वचनांत)॥ १२ ॥
स्वज-पसीना (पुं० ) रक्त, (न.) लाज-खस, (न०) ।
। अपत्य (संतान) (त्रि.) वाज-पंख, वेग, मुनिभेद, शब्द,
जतृतीय। (पु० ) घृत, यज्ञका अन्न, जल, अंगज-केश, कामदेव, चिह्न, पुत्र, (न०)॥ १३ ॥
रोग, पसीना, (पुं० ) ॥ १६ ॥
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जतृतीयम् 1 ]
भाषाटीकासमेतः ।
अङ्गजं रुधिरेऽथ स्यादण्डजः पक्षिमीनयोः । कृकलासे भुजङ्गे च कस्तूर्यामण्डजाऽपि च ॥ १७ ॥ अम्बुजो निचुले पुंसि क्लीबं तु सरसीरुहे । कम्बोजो देशमातङ्गशंखभेदेषु देशितः ॥ १८॥ करजस्तु करओ स्यादपि व्याघ्रनखे नखे । काम्बोजः सोमवल्के स्याच्छङ्खपुन्नागवाजिषु ॥ १९ ॥ माषपर्णीहिङ्गुपर्योः काम्बोजी तद्भवे त्रिषु । कारुजः शिल्पिनां चित्रे स्वयञ्जाततिलेऽपि च ॥ २० ॥ वल्मीके गैरिके फेने कलभे नागकेशरे । कुटजः शाखिनाम्भेदे स्याद्रोणे कुम्भसम्भवे ॥ २१ ॥ गिरिजा शैलतनयामातुलिङ्गचोरुदाहृता । गिरिजं त्वभ्रके लौहे शिलाजतुसुगन्धयोः ॥ २२ ॥
रुधिर, ( न० ) अंडज-पक्षी, मच्छी, गिरगट, सर्प,
( पुं० )
अंडजा - कस्तूरी, (स्त्री० ) ॥ अंबुज - बेतसवृक्ष, (पुं० ) ( न० )
कंबोज - देशभेद, हस्तीभेद, शंखभेद,
(पुं० ) ॥ १८ ॥
करज- करंजुवा वृक्ष, बघेराका नख, नख, (पुं० )
कांबोज - कायफल, शंख, चंपा, अश्व,
१७ ॥ कमल
(पुं० ) ॥ १९ ॥ कांबोजी वनमाष या मशवन,
हींग
६९
पत्री, या वंशपत्री (स्त्री० ) इनसे उत्पन्न होनेवाला ( त्रि० ) कारुज-शिल्पियोंका चित्र, स्वयं उत्पन्नहुवा तिल ॥ २० ॥ बांबी, गेरू, झाग, हाथीका बच्चा, नागकेसर, (पुं० )
कुटज - कूडा-वृक्ष, बनकाक, अगस्त्यमुनि, (पुं० ) ॥ २१ ॥ गिरिजा - पार्वती, बनबीजपूर या बि जोरनींबू, (स्त्री० )
गिरिज - भोडल, लोहा, शिलाजीत, गन्धक, ( न० ) ॥ २२ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [जान्तवर्गजलजं पङ्कजे शके नीरजं पद्मकुष्ठयोः । परञ्जस्तैलयन्त्रासिफेनेषु छुरिकाफले ॥ २३ ॥ वणिक् पुंस्येव वाणिज्यजीवके करणान्तरे। वाणिज्ये तु वणिक् स्त्रीत्वे बलजा बल्गयोषिति ॥ २४ ॥ क्षितौ तु बलजं तु स्यात्क्षेत्रसस्यादिगोपुरे । स्याद्भूमिजा तु जानक्यां भूमिजो नरके कुजे ॥ २५ ॥ वनजा मुद्गपया स्याद् वनजो गजमुस्तयोः । वनजं पङ्कजे क्लोबं वाच्यवद्वनसम्भवे ॥ २६ ॥ बाहुजः क्षत्रिये ख्यातः खयञ्जाततिले शुके । सहजस्तु निसर्गे स्यात्सहजातेऽन्यलिङ्गकः ॥ २७ ॥ सामजः सामसम्भूते वाच्यलिङ्गः पुमान् गजे ।
हिमजा पार्वतीशच्योमैनाके हिमजः पुमान् ॥ २८ ।। जलज-कमल, शंख, (न.) वनजा-बनमुद्ग, ( स्त्री० ) नीरज-कमल, कूट-औषधि, (न०) वनज-हस्ती नागरमोथा, (पुं० ) परंज-तेलनिकालनेका यंत्र, तलवार, कमल (न०) बनमें होनेवाला द्रव्य
झाग, छुरीका अग्रभाग, (पुं०) (त्रि.) ॥ २६ ॥ ॥ २३ ॥
बाहुज-क्षत्रिय, खयं उत्पन्न हुवावणिज(क)-वाणिज्यसे जीनेवाला, तिल, सूवा ( तोता) पक्षी, (पुं०) ___ करणभेद, (पुं०)
सहज-स्वभाव, (पुं० ) साथ उत्पवणिज(क)-वाणिज्य, (स्त्री०) बलजा-श्रेष्ठस्त्री, पृथ्वी, (स्त्री०) ॥२४॥
नहुवा, (त्रि. ) ॥ २७ ॥ बलजा-क्षेत्र, सस्य (खेती) आदि. ! सामज-सामसे उत्पन्नहुवा, (त्रि.) पुरदरवाजा, (न०)
हस्ती, (पुं०) भूमिजा-सीता, ( स्त्री.) हिमजा-पार्वती, इन्द्राणी, (स्त्री०) भूमिज-भौमासुर-दैत्य, मंगलग्रह हिमज-मैनाक नाम पर्वत, (पुं०) (पुं०) ॥ २५ ॥
। ॥२८॥
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भाषाटीकासमेतः ।
जचतुर्थम् ।
अहिभुग् विनतापुत्रे मेघनादानुलासिनि । काश्मीरजा चाऽतिविषाकुष्ठकुङ्कुमपुष्करे ॥ २९ ॥ ग्रहराजः शशिन्यर्केऽनुजे शूद्रे जघन्यजः । द्विजराजो निशानाथे विनतात्मजशेषयोः ॥ ३० ॥ धर्मराज्यमराजौ द्वौ यमे बुद्धे युधिष्ठिरे । भरद्वाजो गुरुसुते व्याघाटाभिख्यपक्षिणि ॥ ३१ ॥ भारद्वाजो मुनौ चोये स्त्रियां कापसिकान्तरे । भृङ्गराजस्तु मधुपे मार्कवे विहगान्तरे || ३२ ॥ यक्षराट्र त्र्यंबकसखे मल्लानां रङ्गचत्वरे । राजराजस्तु धनदे सार्वभौममृगाङ्कयोः ॥ ३३ ॥ क्षीराब्धिजः शशधरे श्रियां क्षीराब्धिजा स्त्रियाम् । क्षीराब्धिजं तु सामुद्रलवणे मौक्तिकेऽपि च ॥ ३४ ॥
चतुर्थम् । ]
चतुर्थ |
कमल,
अहिभुज् (क्) गरुड, मोर (पुं० ) काश्मीरजा अतीस, (स्त्री० ) काश्मीरज-कूट, केसर, ( न० ) ॥ २९ ॥ ग्रहराज - चंद्रमा, सूर्य, (पुं० ) जघन्यज - छोटा भ्राता, शूद्र, (पुं० ) द्विजराज - चंद्रमा, गरुड, शेष नामसर्प
|
( पुं० ) ॥ ३० ॥ धर्मराज् (द) - यमराज-धर्मराज, बुद्ध, युधिष्ठिर, (पुं० )
भरद्वाज - बृहस्पतिका पुत्र, व्याघ्रट क्षीराब्धिज-समुद्रनमक, (कुकुडकोंबा) पक्षी (पुं० ) ॥ ३१ ॥
( न० ) ॥ ३४ ॥
७१
भारद्वाज मुनि, उम्र, (पुं) भारद्वाजी वनकपास ( स्त्री० ) भृंगराज - भौरा, भँगरा - औषधि, पक्षीविशेष (पुं० ) ॥ ३२ ॥ यक्षराट् (ज) कुबेर, मल्लों का अखाडा,
( पुं० )
राजराज - कुबेर, चक्रवर्ती राजा, चंद्रमा, (पुं० ) ॥ ३३ ॥ क्षीराब्धिज - चंद्रमा, (पुं० ) क्षीराब्धिजा-लक्ष्मी (स्त्री० )
मोती,
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७२
विश्वलोचनकोश:
जपञ्चमम् ।
ऋषभध्वजशब्दोऽसौ शङ्करेप्यर्हदन्तरे । अगस्तौ च हरीतक्यां लङ्घने मुनिभेषजम् ॥ ३५ ॥ इति विश्वलोचने जान्तवर्गः ॥
अथ झान्तवर्गः । झैकम् ।
झकारस्त्वारवायौ स्यान्नष्टेऽपि कचिदिप्यते ।
झद्वितीयम् ।
झञ्झा ध्वनिविशेषे स्याज्झञ्झाणुजलवर्षणे ॥ १ ॥
इति विश्वलोचने झान्तवर्गः ।
अथ जान्तवर्गः ।
कम्
ञकारस्तु कचित्ख्यातो गायने घर्घरध्वनौ । ज्ञः पण्डिते बुधे वेधस्यज्ञो मूढे जडे त्रिषु ॥ १ ॥
[ ञान्तवर्गे
जपश्चम ।
झद्वितीय |
ऋषभध्वज - महादेव, प्रथम जिनेन्द्र ! झञ्झा - ध्वनिविशेष, अल्प जलकी ( पुं० ) वर्षा, (स्त्री० ) ॥ १ ॥ मुनिभेषज - हथिया वृक्ष, हरड, लं- इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषा टीका में झान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥ घन, ( न० ) ॥ ३५ ॥ इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीका में
जान्तवर्ग समाप्त हुवा |
अथ झान्तवर्गः ।
झैक |
झ - तीव्रवायु, नष्ट, ( पुं० )
अथ ञान्तवर्गम् । जैक |
ञ -गाना, घर्घर ध्वनि, (पुं०)
ज्ञ - पण्डित, बुध ग्रह, ब्रह्मा, (पुं० ) द्वितीय । अज्ञ - मूढ, जड, ( त्रि० ) ॥ १ ॥
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७३
अतृतीयम् । भाषाटीकासमेतः।
अद्वितीयम् । प्रज्ञा तु बुद्धौ प्राज्ञस्तु पण्डिते वाच्यलिङ्गकः । प्रजुश्चप्रज्ञश्च तथा ख्यातः प्रगतजानुके ॥ २ ॥ सज्ञा नामनि गायत्र्यां चेतनारवियोषितोः । अर्थस्य सूचनायां च हस्तमस्तकलोचनैः ॥ ३ ॥
अतृतीयम् । कृतज्ञः सारमेयेपि वाच्यवत्कृतवेदिनि । स्त्रियामीक्षणिकायां स्यादैवज्ञो गणके पुमान् ॥ ४ ॥ सर्वज्ञः सुगते शम्भौ क्षेत्रज्ञो नागरात्मनोः ।
इति विश्वलोचने आन्तवर्गः ।
अथ टान्तवर्गः।
टैकम् । टा पृथिव्यां ध्वनौ टः स्यात्करके टं नपुंसकम् ॥ १॥ प्रशा-बुद्धि (स्त्री० )
दैवशा-शुभाशुभलक्षण बतानेवाली प्राज्ञ-पण्डित,(त्रि.)
(स्त्री०) प्रच-प्रज्ञ-जिसके घोंटवोंमें बहत दैवज्ञ-ज्योतिषिक, (पुं) ॥ ४ ॥
फासला हो वह, (पुं०) ॥२॥ सर्वश-बुद्ध, महादेव, (पुं०) संज्ञा-नाम, गायत्री, बुद्धि, सूर्यकी
क्षेत्रज्ञ-चतुर, आत्मा, (पुं०) स्त्री, हाथ मस्तक नेत्र आदिकोंसे
| इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें
बान्तवर्ग समाप्त हुवा । अभिप्रायका बताना, (स्त्री०)
अथ टान्तवर्ग। अतृतीय।
टैक। कृतज्ञ-कुत्ता, (पुं० ) कियेहुए उप-टा-पृथ्वी,. (स्त्री०) ट ध्वनि, (पुं) • कारको जाननेवाला, (त्रि.): 'ट-करंक ( अस्थिपंजर ) (न०) ॥१॥
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विश्वलोचनकोश:
द्वितीयम्
अहं गृहान्तरे क्षौमे शुष्के चात्यल्पभक्तयोः । इष्टो ना यागसंस्कारयोगयोः क्रतुकर्म्मणि ॥ २ ॥ क्लीवं त्रिषु प्रियतमे पूज्येप्याशंसितेपि च । इष्टियोगार्चनेच्छासु संग्रहश्लोकसूर्ययोः ॥ ३ ॥ कटुः पुंसि रसे क्लीबं कटु कार्येपि दूषणे । प्रियङ्गुराजिकाऽशोकरोहिणीकटुकासु च ॥ ४ ॥ स्त्रियां कटु त्रिष्वप्रिये ना सुगन्धौ मत्सरेऽपि च । कटः श्रोणौ शवेत्यल्पे किलिञ्जगजगण्डयोः ॥ ५ ॥ श्मशानेऽपि क्रियाकारेऽप्यद्भुतेपि कटाऽव्ययम् । कटी स्यात्कटिमागध्योः कष्टं गहनकृच्छ्रयोः ॥ ६ ॥ कुटो घटे शिलाकुट्टे कुटी वेश्मनि तु द्वयोः । कुटी तु स्यात्पयोदास्यां सुरायां चित्रगुच्छके ॥ ७ ॥
७४
द्वितीय ।
अट्ट -अटारी, रेसमी वस्त्र, सूखाहुवा द्रव्य, अत्यल्प, भात, ( त्रि० ) इष्ट-यज्ञसंस्कार, योग, ( पुं० ) यज्ञकर्म, ( न० ) ॥ २ ॥ अति प्रिय, पूज्य, वांछित, (त्रि ० ) इष्टि यज्ञ, पूजन, इच्छा, संग्रहश्लोक, सूर्य, (स्त्री० पुं० ) ॥ ३ ॥ कटु-कटु-रस, ( पुं० ) दूषित - कार्य, कंगनी धान्य, राई, अशोकवृक्ष, एकप्रकारकी हरड, कुटकी (स्त्री०)॥४ अप्रिय (त्रि० ) सुगन्धवाला द्रव्य, मत्सरीपुरुष (पुं० )
[ टान्तवर्ग
कट-कटिभाग, मुर्दा, अति अल्प, बांसका बोराट, हस्तीका गंडस्थल, ॥ ५ ॥ श्मशान ( जहां मुर्दे फूकते हैं ) क्रियाकरानेवाला, (पुं० ) कटा अद्भुत (अ० > कटी-कटि-भाग, छोटीपीपल, (स्त्री०) कष्ट-वन, कष्ट ( दु:ख ) ( न० ) 11 & 11
कुट - घडा-मिट्टीका, हथौडा, (पुं० ) कुटी- - घर ( मकान ) ( पुं० स्त्री० जललानेवाली
>
दासी,
मदिरा,
चित्रगुच्छा, ( स्त्री० ) ॥
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6 ू
॥
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टद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
कूटोऽस्त्री राशिपूरदम्भमायाऽनृतेष्वपि । तुच्छेऽद्रिशृङ्गेसीराङ्गे यन्त्रायोघननिश्चले ॥ ८ ॥ कृष्टिबुधे ना कषेऽस्त्री कोटिः संङ्ख्यान्तराग्रयोः । अत्युत्कर्षप्रकर्षाधिकार्मुकाग्रेषु च स्त्रियाम् ॥ ९ ॥ क्रुष्टं तु रोदने रावे कृष्टिः स्यात्कृशसेवयोः । खटोऽन्धकूपे टके च खटः श्लेप्मचपेटयोः ॥ १०॥ खाटिः स्त्रियां शवरथे खाटिरेकग्रहे किणे । खेटस्तु निन्दिते ग्रामभेदेऽपि वसुनन्दके ॥ ११ ॥ गृष्टिरेकप्रसवगोवराहक्रान्तयोः स्त्रियाम् । विष्णुकान्तौषधौ घृष्टिोण्टा बदरपूगयोः ॥ १२ ॥ चटुश्वाटौ पिचिण्डे च तिनामासने चटुः ।
चाटश्चाटे च धूर्ते च मूलमांसिकयोर्जटा ॥ १३ ॥ कृट-राशि (डेर ), पुरदरवाजा, दंभ टन ( जोकस्सी आदिके डांडेके ( पाखंड ), माया, असत्य, तुच्छ, रगडनेसे हाथमें होजाताहै) (स्त्री०) पर्वतशिखर, हलका एक अंग,यंत्र, खेट-निंदित, ग्रामभेद, वसुभेद,
लोहमुद्गर, निश्चल, (पुं० )॥ ८॥ विष्णुखड्ग ( पुं० )॥ ११ ॥ कृष्टि-पंडित, (पुं, ) आकर्ष (खें. गृष्टि-एकबार व्याईहुई गौ, वराह चना) (पुं० न०)
क्रान्ता नाम औषधि, ( स्त्री०) कोटि-कोटि-संख्या, अग्र भाग, अति घृष्टि-विष्णुकान्ता औषधि, (स्त्री०) उत्कर्ष, प्रकर्ष (उन्नति ), कोण, घोण्टा-बेर-झाडीफल, सुपारी,
धनुषका अग्रभाग (स्त्री० ) ॥९॥ (स्त्री०)॥ १२ ॥ क्रुष्ट-रोना, शब्द, (न.)
| चटु-प्रियवाक्य, पेट, (उदर), अतिकृष्टि-दुबला, सेवा; ( स्त्री०)
योंका आसन, (पुं० ) खट-अन्धाकूवा, पत्थरफोडनेकी चाट-चाट (विश्वासदेकर धनठगने___टांकी, कफ, चपेटा (थप्पड ) वाला ), धूर्त, (पुं०)
लगाना, (पुं०)॥ १० ॥ जटा-मूल (जड़), जटामांसी, (स्त्री०) खाटि-मुर्देकी तखती, एकग्रह, आं. ॥१३॥
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विश्वलोचनकोशः- [ टान्तवर्गेझाटो निकुञ्ज कान्तारे व्रणसंमार्जने वने । त्रुटिस्त्वपचये लेशे सूक्ष्मैलायां च संशये ॥ १४ ॥ कालमानेऽप्यथ वोटिः स्त्री चञ्चुमीनकट्फले । त्वष्टा वर्द्धकिगीर्वाणशिल्पिनोस्तिम्मधामनि ॥ १५ ॥ दिष्टिर्मुदि परीमाणे दिष्टः कालोपदिष्टयोः । दिष्टं भाग्येथ दृष्टिः स्यान्नेत्रदर्शनबुद्धिषु ॥ १६ ॥ घटः शुद्धितुलायां स्याद् घटी खण्डे च वाससः । नटी हट्टविलासिन्यां नटः शैलूषशोणयोः ॥ १७ ॥ पटः शोभनचेले स्यात्पुरस्कारपियालयोः । पटुर्वाग्मिनि नीरोगे तीक्ष्णे दक्षे स्फुटे त्रिषु ॥ १८ ॥ पटुः पुंसि पटोले स्त्री छत्रायां लवणे पटु । पट्टः पेषणपाषाणे फलकेऽपि चतुष्पथे ॥ १९ ॥
झाट-कुंज (लता आदिकोंकी (कुटी), घट-शुद्धि ( सौगन आदिसे ) वि.
दुर्गमस्थान, व्रण (घाव)का झारना, श्वास, तराजू, (पुं०) वन, (पुं० )
घटी-वस्त्रका खंड, ( स्त्री.) त्रुटि-अपचय (घटना), खल्प, नटी-नखी-गंधद्रव्य, या हलदी,(स्त्री.)
छोटी इलायची, संदेह, ॥ १४ ॥ नट-नाटककरनेवाला, अशोक वृक्ष कालप्रमाण, (स्त्री.)
(पुं० ) ॥ १७ ॥ त्रोटि-पक्षीकी चोंच, मच्छी,कायफल- पट-सुंदरवस्त्र, पुरस्कार ( सँवारना), औषधि, (स्त्री.
। चिरोंजी-वृक्ष, (पुं० ) त्वष्टा-बढई, देवताओंका कारीगर, पटु-बहुतवोलनेवाला, नीरोग, तीक्ष्ण,
सूर्य: (पुं० ) ॥ १५ ॥ । चतुर, स्पष्ट, (त्रि० ) ॥ १८ ॥ दिष्टि-आनंद, परिमाण, ( स्त्री०) पटु-परवल-शाक (पुं०) सोआदिष्ट-काल, उपदेशकियाहुवा, (पुं०) शाक या सोंफ, (स्त्री०) नमक (न.) दिष्ट-भाग्या, (न.)
पट्ट-पीसनेका पत्थर, ढाल, चौराहा, दृष्टि-नेत्र, दर्शन, बुद्धि (स्त्री०) १६ ॥ १९ ॥
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टद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
व्रणादिबन्धराजादिशासनासनभेदयोः : ।
पट्टी भालविभूषायां पट्टी लाक्षाप्रसादने ॥ २० ॥ पट्टिः पटविभेदे स्याद् वल्गुलौ कुम्भिकामे | पुष्टिः स्यात्पोषणे वृद्धौ फटा तु फणदम्भयोः ॥ २१ ॥ तटेऽश्रमकृते फाण्टं वटस्तु स्याद्गुणे त्रिषु । वटो वराटन्यग्रोधे वर्तिकायां वटी मता ॥ २२ ॥ वीरे पामरभेदे ना भटः स्त्री प्रगमे भटिः । भृष्टिस्तु भर्जने शून्यवाटिकायामपि स्त्रियाम् ॥ २३ ॥ मुष्टिर्ब करे पुंसि स्त्रियामपि तथा पले । लिष्टं स्याद्वाच्यवन्म्लाने ग्लिष्टमव्यक्तभाषणे ॥ २४ ॥ यष्टिः शस्त्रान्तरे हारे हारे हारात्परेऽपि च । भाय च मधुपण्य च ध्वजदण्डे तु पुंस्ययम् ॥ २५ ॥
घावके बांधनेका वस्त्र, आदिका हुकुम (पट्टा ), आसनभेद ( तखत या सिंहासन ), ( पु० ) पट्टी- - मस्तकका भूषण, लोध-वृक्ष, ( स्त्री० ) ॥ २० ॥
पट्टि - वस्त्रभेद, वाघुल-पक्षी, पांडरवृक्ष, (स्त्री० ) पुष्टि-पोषण, वृद्धि, ( स्त्री० ) फटा--सर्पका फण, दम्भ ( पाखंड )
( at ) 11 29 11
G
राजा: वटी बत्ती दीपककी (स्त्री० ) ॥२२॥ भट - वीर- नीचभेद ( पुं० ) भटि-वेगसे गमन करना ( स्त्री० > भृष्टि-वान आदिका भूनना, सूनी बाडी, ( स्त्री० ) ॥ २३ ॥
७७
फांट-तट,
( न० > वट - रस्सी आदि, (त्रि०) कौडी, बड-वृक्ष, (पुं० )
मुष्टि- हाथ की मुही, (पुं० ) चारतोला प्रमाण, (स्त्री० )
क्लिष्ट - मलिन, (त्रि ० )
मिलष्ट[-अप्रकट वाणी, ( न० ) ॥२४॥
विनापरिश्रम कियाहुवा, । यष्टि - शस्त्रभेद, हार, 'हारयष्टि' हार, भारंगी, ( ब्रह्मनेटि ), मुलहटी, ( स्त्री० ) ध्वजाका डंडा, (पुं० )
।। २५ ।।
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विश्वलोचनकोशः- [टान्तवर्गेरिष्टं क्षेमे मृत्युचिह्न विनाशे ना तु सायके । रिष्टस्तु रिष्टिवत्खङ्गे समृद्धौ पुस्त्रियोः क्रमात् ।। २६ ॥ लटो दोषेपि वाग्दोषे लाटस्त्वंशुकदेशयोः । वाटस्तु वर्त्मनि वृतौ वाटी स्याद्गृहनिप्कुटे ॥ २७ ॥ विटस्तु खिड्गलवणशङ्खाखुखदिराद्रिषु । विष्टिः कर्मकरे भद्रे वेतने प्रेषणे स्त्रियाम् ॥ २८ ॥ व्युष्टं दिने प्रभाते च फले पर्युषिते त्रिषु । व्युष्टिः समृद्धौ विहिता नियमादिफलेऽपि च ॥ २९ ॥ सटा जटाकेसरयोः सृष्टिर्निर्माणसर्गयोः।। सृष्टं तु निर्मिते त्यक्ते त्रिषु प्राज्येऽपि निश्चिते ॥ ३० ॥ स्फुटो व्यक्ते प्रफुल्ले च व्याप्तवत्रिप्वपि त्रिषु ।
स्फुटिः स्फुटिककर्कट्यां पादस्फोटेऽपि च स्फुटिः।। ३१ ॥ रिष्ठ-कल्याण, मृत्युचिह्न, विनाश, भद्रा, नौकरी, प्रेरणाकरना (स्त्री०) ( न० ) बाण, (पुं०)
॥ २८ ॥ रिष्ट(ष्टि)-खङ्ग, (पुं० ) समृद्धि, व्युष्ट-दिन, प्रभात, फल, बासी भो(स्त्री० ) ॥ २६ ॥
__जन आदि, (त्रि.) लट-दोष, वाणी दोष, (पुं०) व्युष्टि-समृद्धि, नियमआदिकोंका फल, लाट-वस्त्र, देशभेद, (पुं० )
(स्त्री० ) ॥ २९ ॥
सटा-जटा-तपस्सीकी, केसर, (स्त्री०) वाट-मार्ग, वृति ( काटोंवाली लकडि
सृष्टि-रचना-साधारण, रचना-जगयोंसे बाडा (घेर ) करना ) (पुं०) वाटी-घरकेपासका बगीचा, (स्त्री०) सृष्ट-रचाहुवा, दान किया हुवा, प्राज्य - ॥२७॥
(बहुत), निश्चित, (त्रि.)॥३०॥ विट-धूर्त, लवण, शंख, मूसा, ख- स्फट-प्रकट, फूलाहवा, व्याप्त, (त्रि.)
दिर (खैर) वृक्ष, पर्वत, ( पुं० ) स्फुटि-खिलीहुई ककड़ी, पादफोट विष्टि-नौकरीलेकर कामकरनेवाला, (बिबाई ) ( स्त्री० )॥ ३१ ॥
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तृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः t
हृष्टो रोमाञ्चिते जातहर्षे प्रहसिते स्मृते ।
तृतीयम् ।
अवटः कुहके कूपे खिले गर्तेऽप्यथाऽवदुः ॥ ३२ ॥ गर्ने कृपे च घाटायामटोंतर्गले गले | अरिष्टः फेनिले निम्बे लशुने काककङ्कयोः ॥ ३३ ॥ अरिष्टं सूतिकागारे तक्रे चिह्ने शुभेऽशुभे । उत्कटस्तीत्रे मत्ते च करटो निन्द्यजीविते ॥ ३४ ॥ एकादशाह श्राद्धे च काकवाद्यान्तरेऽपि च ! कुब्राह्मणे कुसुम्भेऽपि दुर्दान्तगजगण्डयोः || ३५ ॥ कर्कटः करणे स्त्रीणां राशिभेदकुलीरयोः । खगे तु कर्कटी तु स्याद्वालुकयां शाल्मलीफले ॥ ३६ ॥
हृष्ट-रोमांचवाला, आनंदवाला, हंसा | अरिष्ट - प्रसूतिका ( जच्चाका ) स्थान, हुवा, स्मरण कियाहुवा | छाछ चिह्न - शुभ अशुभ, ( न० ) तृतीय | उत्कट - तीव्र, मदोन्मत्त, ( पुं० ) करट-निंद्य आजीविका करनेवाला ॥ ३४ ॥ मरनेसे ग्यारहवें दिनका श्राद्ध, काग-पक्षी, बाजाका भेद,. निंदितत्राह्मण, कसूंभा, कठिनता से दमन कियाहुवा, हस्ती का गंडस्थल, ( पुं० ) ॥ ३५ ॥
कर्कट - स्त्रियोंका करण ( हावभेद ), राशिभेद, कुलीर-जन्तु, पक्षी, (पुं० ) सेमलका फल,
अवट - कपटी, कूवा, अधूरा, खड्डा, ( पुं० )
अवटु - खड्डा, कुवा, ग्रीवा और शिरकी संधिका पिछला भाग, (पुं०) अर्गट-
- गलका अंतर्भाग, गल, (पुं०)
॥ ३२ ॥
अरिष्ट - रीठा, नीव-वृक्ष, ल्हस्सन, काग-पक्षी, श्वेत चील-पक्षी, (पुं०) कर्कटी - ककड़ी,
॥ ३३ ॥
(स्त्री० ) ॥ ३६ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [ टान्तवर्गेकईटः पङ्कपङ्कारकरहाटेषु कीर्तितः । कर्यटस्त्रिपु कार्यज्ञे पुमाञ्जतुनि कर्यटः ॥ ३७ ।। कीकटो मगधेऽपि स्यान्निःखे चाश्वे मितंपचे । कुक्कुटस्ताम्रचूडे स्यात्कुक्कुभे वाग्निकुक्कुटे ॥ ३८ ।। निषादशूद्रयोश्चैव तनये त्रिषु कुक्कुटः । रसोनभेदोच्चटयोस्तालमध्येपि कुक्कुटी ॥ ३९ ॥ कुक्कुटी ताम्रचूडाख्ययोषिन्मिथ्योपचर्ययोः । कुरुण्टी शालभंज्यां स्यात्कुरुण्टो झिण्टिकान्तरे ॥ ४० ॥ कृपीटमुदरे नीरे केशटस्तु कणे हरौ । चक्राटः पुंसि दीनारे धूर्ते जाङ्गुलिके त्रिषु ॥ ४१ ॥ चर्पटः स्फारविपुले चपेटे चैव चर्पटः।। चर्पटः पर्पटेऽपि स्यापिष्टभेदे तु चर्पटी ॥ ४२ ॥
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कट-कीच, सिवाल (जलकाई), मुर्गी, मिथ्यासत्कार, (स्त्री०) कमलकी जड़, (पुं० )
कुरुंटी-शालभंजी (कठपूतली), कर्यट-कार्यको जाननेवाला, (त्रि.) (स्त्री० )
लाख, (पुं० ) ॥ ३७ ॥ कुरुंट-कटसरैया-झाड़, (पुं०)॥४०॥ कीकट-मगध-देश, दरिद्री, अश्व | कृपीट-उदर (पेट), जल, ( न०)
(घोडा), कंजूस, (पुं० ) केशट-कण ( अल्प ), हरि (पुं०) कुक्कट-मुर्गा, वनमुर्ग, ॥ ३८ ॥ चक्राट-अशरफी, धूर्त, (पुं० )
अग्निकुकट, निषाद (भील)| विषवैद्य ( गारुडी) (त्रि.) ४१
जाति, शूद्र-जाति, पुत्र, (त्रि०)| चर्पट-बहुतजियादह, चपेट (थप्पड), कुक्कटी-लहसुनभेद, भूई आवला, पापड़, (पुं० ) तालवृक्ष ॥ ३९ ॥
चर्पटी-पिष्टभेद, ( स्त्री० ) ॥ ४२ ॥
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टतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
चिपिटश्चिपिटे पुंसि पिच्चिते विस्तृतेऽन्यवत् । चिरण्टी तु सुवासिन्यां स्याद्वितीयवयःस्त्रियाम् ॥ ४३ ॥ वार्ताकु पुष्पे जकुटं जकुटो मलये शुनि । त्रिकूट सिन्धुलवणे त्रिकूटः स्यात्सुवेलके ॥ ४४ ।। त्रिपुटस्तु भवेत्तीरे पुमानपि सतीनके । त्रिपुटा मल्लिकाभेदे सूक्ष्मैलात्रिवृतोरपि ॥ ४५ ॥ व्यङ्गट शिक्यभेदे स्याद्धौताञ्जन्यामपीष्यते । द्रोहाटस्तु मतो गाथाप्रभेदे मृगलुब्धके ॥ ४६॥ बैडालव्रतिकेऽपि स्याद्धाराटश्चातकाश्वयोः । निर्दटो निर्दये न्यायवादरक्ते च निष्फले ॥ ४७॥ निष्कुटस्तु गृहोद्याने स्यात्केदारकपाटयोः ।
पर्पटस्तु द्वयोः पिष्टविकृतौ भेषजान्तरे ॥ ४८ ॥ चिपिट-भिगोयकर भूना हुवा धान्य, व्यंगट-शिक्य (छींका ) भेद, औष
(पुं०) नेत्ररोगी, विस्तारवाला, धीभेद ( न०) (त्रि.)
द्रोहाट-गाथाभेद, मृगका शिकारी, चिरंटी-सुहागिनस्त्री, दूसरी अव- ॥४६ ॥ बैडालवती (व्रतीभेद)
स्थावाली स्त्री (स्त्री० ॥४३॥ (पुं०) जकुट-बैंगनका पुष्प,(न०)
धाराट-पपीहा-पक्षी, अश्व, (पुं० ) जकुट-मलय-पर्वत, कुत्ता, (पुं० )
निर्दट-निर्दय-पुरुष, न्यायवादमें अत्रिकूट-समुद्रनमक, (न०) त्रिकूट-सुवेल नामका पर्वत,(पुं०)४४
। नुरक्त, निष्फल, (पुं०) ॥ ४७ ॥ त्रिपुट-तीर, मटर-धान्य, (पुं० )/ निष्कुट-घरका बगीचा, खेत, त्रिपुटा-मल्लिका ( मोतिया) भेद, किवाड़ (पुं० )
छोटीइलायची, निसोथ, ( स्त्री०) पर्पट-पापड़, औषधिभेद (पित्तपा॥ ४५ ॥
। पड़ा ) (पुं० न० ) ॥ ४८ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [टान्तवर्गे-- परीष्टिः परिचर्यायां प्रांकाश्येऽपि गवेषणे । पर्कटी प्लक्षपाकल्पोः पात्रटः कपरे कृशे ॥ ४९ ॥ पिञ्चटो नेत्ररोगेपि पिच्चटं सीसके पौ। बरटायां सयोषायां गन्धोल्यां बरटो द्वयोः ॥ ५० ॥ बर्बटी गणिकायां स्याद् व्रीहिभेदेऽपि बबेटी। बर्बटो मकरे पोते वारुडेऽपि च बर्बटः ।। ५१ ॥ स्त्रियां पुजेपि भाकूटा भाकूटो मीनशैलयोः । भार्याटः पटहाजीवे लोभात्वस्त्रीसमर्पके ॥ ५२ ॥ भावाटः कामुके साधुनिवेशे भावके नटे। मर्कटः कपिलूतास्त्रीकरणेष्वथ मर्कटी ॥ ५३ ॥ . रानरीशूकशिंब्यां स्याद् चक्राङ्गयां करजान्तरे । बीजे तु राजकर्कट्याः प्राचीनामलकस्य च ॥ ५४॥
परीष्टि-शुश्रूषा (सेवा), प्रकाशक- (भाकूटा-समूह (स्त्री०) रना, ढूंढना, (स्त्री० )
भाकूट-मच्छी, पर्वत, (पुं०) पकेटी-पिलखन-वृक्ष, ककड़ी, (स्त्री०) भार्याट-ढोल बजाकर आजीविकापात्रट-कपाल, दुबला-पुरुष, (पुं०) करनेवाला, लोभसे अपनी स्त्रीको
दूसरेको सोंपनेवाला (पुं०) ५२ पिञ्चट-नवराग, (पु०) शाशा, भावाट-कामी-पुरुष, सुंदरसेनास्थान, रांगा, (न०')
पदार्थको सोचमेवाला, नट, (पुं०) बरट-हंस, छोटोकचूर, (पुं० न०) मर्कट-बन्दर, (पुं० ) बरटा हंसी, (बी.)॥ ५० ॥ मर्कटी-॥ ५३ ॥मकडी-जन्तु, स्त्री. यबेटी-वेझ्या, धान (चावल) भेद, ‘करण ( हावभेद ), कौंचकी फली, (स्त्री.)
_कुटकी, करंजुवाभेद, (स्त्री०)बडीकबर्बट-मगरमच्छ, बालक, नटजाति- कडीके बीज, पुरामे आंवलेके बीज, भेद (पुं०)॥५१॥
॥५४॥
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तृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
गवेधुकाफले चैव मर्कटः पुंसि दृश्यते । मोचाटश्चन्दने कृष्णजीररम्भास्थ्युपस्करे ॥ ५५ ॥ मोरटं विक्षुमूले स्यादङ्कोटकुसुमेऽपि च । सप्तरात्रात्परक्षीरे मूर्तिकायां तु मोरटा ॥ ५६ ॥ रवटो दक्षिणावर्तश जाङ्गुलिकेऽपि च । वराहे मोरटे रेणौ वातूलेऽपि च रेवटः ॥ ५७ ॥ वर्णाटो गायने कामिचित्रकृद्वारजीविनि । विकटो विकराले स्याद्विशाले सुंदरे वरे ॥ ५८ ॥ वेकटः स्याद्वैकटिके मीने च नवयौवने । वरटो मिश्रिते नीचे वेरटं बदरीफले ॥। ५९ ।। शैलाटो देवले सिंहे सितकाचकिरातयोः । संसृष्टं त्रिषु वान्त्यादिसंशुद्धे सङ्गतेऽपि च ॥ ६० ॥ हर्म्मटस्तु पुमान्सूर्ये कच्छपेऽपि च हर्म्मटः ।
૨
गंगेरनका फल, (पुं० ) मोचाट-चंदन, कालाजीरा, केलेका
कार, स्त्रीकी की हुई जीविकावाला (पुं०)
गर्भभाग, उपस्कर, (पुं० ) ५५ मोरट - गन्ना की जड़, ढेरावृक्षका पुष्प,
विकट - भयंकर, बडा, सुंदर, श्रेष्ठ, (पुं०) ॥ ५८ ॥
सातरात्रि से उपरांतका दूध, (पुं० ) | वेकट-मच्छीभेद, मच्छीमात्र, नवीनमोरटा -- मोरबेल तथा मूर, (स्त्री०)
॥ ५६ ॥
यौवन, (पुं० ) वरट-मिलाहुवा, नीच, (पुं० ) रवट-दक्षिणावर्त्त शंख, विषवैद्य (गा- वेरट - झाडीका फल (बेर ), ( न०) ५९ रुडी ) (पुं० ) शैलाट - देवल ( मंदिर ), सिंह, सफेद रेवट - सूकर, काच, किरात जाति, (पुं० ) संसृष्ट-वमन आदिसे शुद्धहुवा, संगत ( योग्य ) ( त्रि० ) ॥ ६० ॥
क्षीरमोरट, पित्तपा. पड़ा, वायुको नहीं सहनेवाला ( पुं० ) ॥ ५७ ॥
वर्णाट-गाना, कामी-पुरुष, चित्र- हर्मट -सूर्य, कछवा, (पुं० )
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विश्वलोचनकोशः
चतुर्थम् ।
पुगानुच्चिङ्गटे मीनभेदे कोपनपूरुषे ॥ ६१ ॥ करहाटोऽब्जकन्देऽपि शल्यद्रौ कुसुमान्तरे । कामकूटस्तु गणिकाविभ्रमे गणिकाप्रिये ॥ ६२ ॥ त्रिषु कार्यपुटो हीके प्रमत्ताऽनर्थकारिणोः । कुटन्नटस्तु कैवर्त्तिमुस्तके शोणके पुमान् ॥ ६३ ॥ कुण्डकीटस्तु चार्वाकवाण्यभिज्ञेपि पुंश्चले । जारजे ब्राह्मणीपुत्रदासीकामुकयोरपि ॥ ६४ ॥ खङ्गरीटस्तु फलकासिधाराव्रतचारिणोः । गाढमुष्टिस्तु कृपणे कृपाणछुरिकादिषु ॥ ६५॥ चक्रवाटः क्रियारोहे पर्यन्ते च शिखातरौ । चतुःषष्टिस्तु संख्यायां बह्वृचेऽपि कलाखपि ॥ ६६ ॥ नारकीटोऽश्मकीटे स्यात्स्वदन्ताशाविहन्तरि । परपुष्टः परभृते परपुष्टाऽपणस्त्रियाम् ॥ ६७ ॥
८४
टचतुर्थ | उचिगढ़-मच्छीभेद, क्रोधी पुरुष, (पुं० ) ॥ ६१ ॥ करहाट्-कमलकन्द्, मैनफलका वृक्ष,
पुष्पभेद, (पुं० )
कामकूट - वेश्याका हावभाव आदि, वेश्यागामी, (पुं० ) ॥ ६२ ॥ कार्यपुट - लज्जावान, प्रमत्त, अनर्थ |
कारी, (पुं० ) कुटन्नट-केबटीमोथा, सोनापाठा-वृक्ष,
(पुं० ) ॥ ६३ ॥ कुण्डकीट - चार्वाकवाणीका जाननेवाला, जार- पुरुष, जारसे उत्पन्न हुवा ब्राह्मणीका पुत्र, दासी के संग र
|
[ टान्तवर्गे
मण करनेवाला ( पुं० ) ॥ ६४ ॥ खङ्गरीट-ढाल और तलवारकी धारका व्रत धारण करनेवाला (पुं० ) गाढमुष्टि- कंजूस, तलवार छुरी आदि (पुं० ) ॥ ६५ ॥ चक्रवाट - क्रियाका प्रारंभ, गोरा, शिखावृक्ष, (पुं० ) चतुःषष्टि- चौसठ संख्या, (बह्वच वेद
ऋचा), चौसठकला (स्त्री०) ॥ ६६ ॥ नारकीट-पत्थरका कीडा, अपनी दईहुई आशाको नष्ट करनेवाला, ( पुं० )
परपुष्ट - कोयल. पक्षी, (पुं०) परपुष्टा - वेश्या ( स्त्री० ) ॥ ६७ ॥
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टपश्चमम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
प्रतिकृष्टं मतं गुह्ये द्विरावृत्त्यवकर्षिते । प्रतिशिष्टः प्रतिहते दन्ते ख्याते च वाच्यवत् ॥ ६८ ॥ प्रतिसृष्टं भवेत्प्रत्याख्यातपोषितयोस्त्रिषु । बर्कराटः कटाक्षेऽपि तरुणादित्यदीधितौ ॥ ६९ ॥ नारीपयोधरोत्सङ्गकान्तदन्तनखक्षते । शिपिविष्टस्तु खलतो दुश्चर्मणि महेश्वरे ॥ ७० ॥ प्राञ्चलोहे श्रुतिकटः प्रायश्चित्ते भुजङ्गमे । सिंहच्छटा तु पुन्नागकेसरे नागकेसरे ॥ ७१ ॥
टपञ्चमम् । अथ स्याद्दशनोच्छिष्टधुंबे निःश्वासितेऽधरे । लोहे कांस्ये मृदङ्गारशकट्यां रत्नकङ्कणे ॥ ७२ ॥ पावके पटहस्यापि बदरे पात्रचर्घटः ॥ ७३ ।।
इति विश्वलोचने टान्तवर्गः ॥
प्रतिकृष्ट-गुह्य ( गुदआदि ), दूसरी- श्रुतिकट-धातुभेद, लगेहुए पापका __ बार बाहाहुवा क्षेत्र, (न०) दूर करना, सर्प, (पुं०) प्रतिशिष्ट-दियाहुवाका फिर लेना, सिंहच्छटा-नागकेसरभेद, नागके
विख्यात, (त्रि.)॥ ६८ ॥ सर, (स्त्री० ) ॥ ७१ ॥ प्रतिसृष्ट-नटाहुवा, प्रोषित (परदेश
टपंचम । गयाहुवा) (त्रि.)
दशनोच्छिष्ट-चुंबन करना, याहबर्कराट-कटाक्ष ( नेत्रकी कोरसे दे- रको श्वास छोडना, होंठ (पु.)
खना),मध्याह्नसूर्यकी किरण,॥६९॥ पात्रचर्घट-लोहा, कांसी, मिट्टीकी स्त्रीके कुच और पेट आदिपर प- सिगड़ी, रत्नकंकण, ॥ ७२ ॥
तिका कियाहुवा नखधाव (पुं० ) अग्नि, ढोलका घेरा, (पुं० )॥७३॥ शिपिविष्ट-गंजा (जिसके केश उ. इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषा
डगयेहों), बुरी चर्मवाला, महादेव, टीकामें टान्तवर्ग समाप्त हुवा । (पुं०)॥ ७० ॥
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विश्वलोचनकोशः- [ ठान्तवर्गेअथ ठान्तवर्गः।
ठेकम् । ठश्चन्द्रे मण्डले शून्ये स्यात् करेणूच्चशब्दिते ।
ठद्वितीयम् । कठो मुनावृचां भेदे तदध्येतरि तद्विदि ॥ १ ॥ खरेऽपि कण्ठस्तु गले पार्थे शल्यद्रुशब्दयोः । काष्ठोत्कर्षे दिशि स्थाने कालमाने च सीमनि ।। २ ।। काष्ठा दारुहरिद्रायां काष्ठं तु क्लीबमिन्धने । कुण्ठो मूर्खेप्यकर्मण्ये कुष्ठं भेषजरोगयोः ॥ ३ ॥ कोष्ठोऽन्तःकुक्षिगृहयोः कुसूलात्मीययोरपि । गोष्ठी सभायां संलापे गोष्ठं गोस्थानके मतम् ॥ ४ ॥ ज्येष्ठो मासेऽग्रजे श्रेष्ठे वृद्धे ज्येष्ठा तु तारके। मुसल्यामङ्गुलीभेदे दुष्ठः स्याद् दुर्बलेऽधमे ॥ ५॥ __ अथ ठान्तवर्ग। काष्ठ-ईधन (न०) छैक।
कुंठ-मूर्ख, अकर्मी, (पुं० ) ठ-चंद्रमा, मंडल, शून्य (पोल ), कुष्ठ-औषधि-कूट, कुष्ठ (कोढ) हथनियोंका ऊंचाशब्द, (पुं० ) रोग ( न०)॥३॥ ठद्वितीय।
कोष्ठ-पेटका भीतरभाग, घर, कुठला, कठ-कठनामका-मुनि, ऋचाओंका
। अपनी वस्तु, (पुं० ) भेद, कठशाखाको पढनेवाला, कठशाखाको जाननेवाला, ॥१॥ स्वर,
| गोष्ठी सभा, वार्तालाप, (स्त्री०) (पुं०)
गोष्ठ-गौवोंका ठान (न० ) ॥ ४ ॥ कण्ठ-गल, समीपता, मैनफलका ज्येष्ठ-ज्येष्ठ-मास, बडा भाई, श्रेष्ठ, वृक्ष, (पुं०)
___वृद्ध, (पुं०) काष्ठा-बडप्पन, दिशा, स्थान, काल- ज्येष्ठा-ज्येष्टा-नक्षत्र, छपकली, अं. प्रमाण, सीम (हद्द) ॥२॥ | गुलीभेद, (स्त्री०) दारुहलदी, (स्त्री०)
दुष्ठ-दुर्बल, अधम, (पुं०)॥५॥
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ठतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
निष्ठा निर्वहनिष्पत्तिनाशान्तोत्कर्षयाचने । क्लेशेऽथ पाठाम्बष्ठायां पाठस्तु पठने पुमान् ॥ ६ ॥ पृष्ठं शरीरावयवान्तरेऽपि चरमेऽपि च । प्रष्ठोऽग्रगामिनि श्रेष्ठे प्रष्ठा चाण्डालिकौषधौ ॥ ७ ॥ वण्ठः स्यादकृतोद्वाहे कुन्तधारकखर्वयोः।। शठस्तु पुंसि धतूरे धूतमध्यस्थयोस्त्रिषु ॥ ८ ॥ शोठोऽलसे च मूर्खे च श्रेष्ठो वरकुबेरयोः। षष्ठी तु षण्णां पूरण्यां त्रिषु स्त्री हरयोषिति ॥९॥ हठस्तु स्याङ्कलात्कारे वारिपयो तु पुस्ययम् ।
ठतृतीयम् । अपष्टुः समये वामेऽम्बष्ठो वैश्यासुते द्विजात् ॥ १० ॥
निष्ठा-नाटकसंधि, सिद्धि, नाश, | शठ-धतूरा, धूर्त, मध्यस्थ, (त्रि०)
अन्त, बडप्पन, याचना, क्लेश(कष्ट)। ॥८॥ (स्त्री०)
शोठ-आलसी, मूर्ख, (पुं०) पाठा-पहाडमूल, (स्त्री०) श्रेष्ठ-उत्तम, कुबेर, (पुं०) पाठ-पढना (पुं०)॥ ६ ॥ षष्ठी-छह संख्याओंको पूरी करने. पृष्ठ-शरीरका पिछला भाग, पिछला वाली (त्रि०) देवी-भेद, (स्त्री.)
(न.) प्रष्ठ-आगे चलनेवाला, श्रेष्ठ, (पुं०) हठ-जबरदस्ती, जलकुंभी, (पुं) प्रष्ठा-चांडाली औषधि, (स्त्री०) ॥७॥
ठतृतीय। बंठ-जिसका बिवाह न हुवा वह, अपष्ठ-काल, (पुं०) वामभाग,(त्रि.)
भाला (हथियार ) धारनेवाला, अम्बष्ठ-ब्राह्मणसे उत्पन्नहुवा बनिटिंगना-पुरुष (पुं०)
यानीका पुत्र, ॥ १० ॥
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विश्वलोचनकोश:
देशेऽष्ठा तु चाङ्गेय पाठयूथिकयोरपि । कनिष्ठोऽल्पेऽनुजे यूनि कनिष्ठा त्वन्तिमाङ्गुलौ ॥ ११ ॥ कमठः कच्छपे पुंसि कमठं भाजनान्तरे । जरठः कठिने पाण्डौ कर्कशेप्यभिधेयवत् ॥ १२ ॥ नर्मधुके पुंसि नर्मठो नागरेऽन्यवत् । प्रकोष्ठो विस्तृतकरे कूर्परादधरेऽपि च ॥ १३ ॥ नृपकक्षान्तरे चाथ प्रतिष्ठा गौरवे मता । या (यो ) गनिष्पादने स्थानचतुरक्षरपद्ययोः ॥ १४ ॥ वरिष्ठः प्रवरे चोरुतरे स्यादभिधेयवत् । वरिष्ठं मरिचे ताम्रे वरिष्ठः पुंसि तित्तिरौ ॥ १५॥ मकुष्ठो मन्थरेऽपि स्याद् व्रीहिभित्सवयोरपि । लघिष्ठो भेलकेऽत्यल्पे वैकुण्ठो विष्णुशक्रयोः ॥ १६ ॥
८८
अम्बष्ठा-अम्ललोनियां औषधि, पाढ,
जूही- पुष्पझाड़, (स्त्री० ) कनिष्ठ - अल्प, छोटा भ्राता, जवान,
पिछली अंगुली,
(पुं०) कनिष्ठा दुबला, ( स्त्री० ) ॥ ११ ॥ कमठ - कछुवा, (पु० ) पात्र विशेष,
( न० ) जरठ-कठोर, पाण्डु ( पीला ), कर्कश ( दुःस्पर्श ) ( त्रि० )
॥ १२ ॥
नर्मठ - कुचका अग्रभाग, धूर्त (पुं० ) प्रकोष्ठ - फैलायाहुवा हाथ, कोंहनीसे
[ ठान्तवर्गे
नीचेका भाग, राजाकी ड्योढी, (पुं०) ॥ १३ ॥ प्रतिष्ठा - बडप्पन, योग या यज्ञकी सिद्धि, स्थान, चार अक्षरका छंद, ( स्त्री० ) ॥ १४ ॥ वरिष्ठ-श्रेष्ठ, बहुत जियादह, (त्रि०) मिरच, ताँबा, (न० ) तीतर - पक्षी, (पुं० ) ॥ १५ ॥ मकुष्ठ - मंद चलनेवाला, मोठ-धान्य, यज्ञभेद, (पुं०)
लघिष्ठ - नदी तरनेकी छोटी नौका, बहुत छोटा, (पुं० ) वैकुंठ - विष्णु, इंद्र (पुं० ) ॥ १६ ॥
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ठचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
श्रीकण्ठः पार्वतीनाथे कुरुजाङ्गलकेऽपि च । भवेदार्येऽपि साधिष्ठः साधिष्ठोऽपि दृढेऽपि च ॥ १७ ॥
ठचतुर्थम् । कलकण्ठः पिके पारावते हंसे कलध्वनौ । कण्ठे मृगान्तरे कालपृष्ठः क्लीबं तु कार्मुके ।। १८ ॥ कर्णबाणेऽप्यथो दन्तशठो जम्भकपित्थयोः । कर्मरङ्गेऽपि नारङ्गे रुक्कियायां स्त्रियामियम् ॥ १९ ॥ नीलकण्ठस्तु दात्यूहे खञ्जने प्रबलाकिनि । कलविंके हरे पीतसारके कालकण्ठवत् ॥ २० ॥ पूतिकाष्ठं तु सरले देवदारुमहीरुहे । सूत्रकण्ठः कपोते स्यात्खञ्जरीटे द्विजन्मनि ॥ २१ ॥ हारिकण्ठः परभृते हारान्वितगले त्रिषु ॥ २२ ॥
___इति विश्वलोचने ठान्तवर्गः ॥
श्रीकंठ-महादेव,कुरुजांगलदेश, (पुं०)। जन-पक्षी, मयूर-पक्षी, चिडीसाधिष्ठ-अतिश्रेष्ठ, अतिदृढ, (पुं०) पक्षी, महादेव, टेरा-वृक्ष, (पुं० ) ॥ १७॥
॥ २० ॥ ठचतुर्थ।
पूतिकाष्ठ-सरल-वृक्ष, देवदारु-वृक्ष, कलकंठ-कोयल-पक्षी, कबूतर, हंस, (न. ) सूक्ष्मशब्द, कंट, मृगभेद, (पुं० )
सूत्रकण्ठ-कबूतर-पक्षी, खंजन-पक्षी, कालपृष्ठ-धनुष, कर्णका बाण,(पुं०) ब्राह्मण आदि, (पुं० ) ॥ २१ ॥ ॥१८॥
हारिकंठ-कोयल-पक्षी, (पुं० ) हादंतशठ-चांगेरी-औषधि, जंबीरी हारक नींबू, कैथ-वृक्ष, कमरख, नारंगी,
रधारीगलवाला, (त्रि.) ॥ २२ ॥ (पुं० )
इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटी. दंतशठ-रोगकी क्रिया,(स्त्री०)॥१९॥
| कामें ठान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥ नीलकंठ-कालकंठ-जलकाक, खं..
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विश्वलोचनकोशः- [ डान्तवर्गेअथ डान्तवर्गः।
डैकम् । डकारः पार्वतीनाथे चासे शब्देऽपि दृश्यते ।
इद्वितीयम् । अण्डं तु खगमीनादिकोशे स्यान्मुष्कवीर्ययोः ॥ १॥ इडा बुधवधूवाचोरिलावद्भगवोरपि । काण्डोऽस्त्री वर्गबाणार्थनालावसरवारिषु ॥ २ ॥ दण्डे प्रकाण्डे रहसि स्तंबे कुत्सितकुत्सयोः । पतिवलीसुते जारात्कुण्डः कुण्डी कमण्डलौ ॥ ३ ॥ कुण्डं देवजलाधारे पिठरे तु मतं न ना । क्रीडा केलाववज्ञायां खेलायामपि सम्मता ॥ ४ ॥ क्रोडः शनौ वराहे च क्रोडं क्रोडा च वक्षसि । खण्डोद्धेऽस्त्री पुमानिक्षुविकारे मणिदूषणे ॥ ५॥
अथ डान्तवर्ग।
एकांत, गुच्छ, निंदित, निंदा (पुं०
डैक ।
ड(कार)-महादेव, चास-पक्षी, शब्द कुंड-पतिके जीतेहुए जारसे उत्पन्न (आवाज) (पुं०) | हुवा, (पुं०) डद्वितीय ।
कुंडी-कुंडी या कमंडल( स्त्री० )॥३॥ अंड-पक्षी और मच्छीआदिकोंका कुंड-वर्षाके जलका रहनेका स्थान,
कोश (अंडा ), अंडकोश, वीर्य, पेट ( स्त्री० न०) (न.) १)
क्रीडा-कीडाप्रकार, तिरस्कार, खे. इडा-इला-बुधग्रहकी स्त्री, वाणी, लना, (स्त्री०)॥ ४॥ पृथ्वी, गौ, ((खी०)
क्रोड-शनि-प्रह, सूकर, (पुं०)कोड कांड-वर्ग (विषयसमाप्ति), बाण, अर्थ, (न०) और कोडा (स्त्री०) छाती, नाल-डंडी, अवसर, जल, ॥ २॥ खंड-टुकडा (पुं० न०) खाँड दण्ड ( डंडा), वृक्षका-स्थूलभाग, (चीनी), मणिदोष, (पुं०)॥५॥
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डद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
गडो मीनेऽन्तराये च कुब्जे पृष्ठगुडे गडुः । गण्डस्तु पिटके योगभेदे खड्डिकपोलयोः ॥ ६ ॥ वरे प्रवीरे चिह्ने च वाजिभूषणबुद्बुदे । गुडः : स्याद्गजसन्नाहे गोलकेक्षुविकारयोः ॥ ७ ॥ गुडा नुहीगुडिकयोः कंदुके चोडनात्परः । गोण्डः पामरभेदे स्याद् वृद्धनाभौ तु वाच्यवत् ॥ ८ ॥ चण्डस्ती दैत्यभेदे यमदासेऽतिकोपने | स्त्रियां चण्डा धनहरीशङ्खपुष्पिकयोर्म्मता ॥ ९ ॥ भवेच्चण्डी तु पार्वत्यां हिंस्रकोपनयोषितोः । चूडा वलयभेदे स्याच्छिखायां वड ( ल ) भावपि ॥ १० ॥ चोडो (लो) देशविशेषे स्याच्चोडः प्रावरणान्तरे । मूर्खे मूके हिमग्रस्ते जडा स्त्री कन्दरौषधौ ॥ ११ ॥
९१
गड-मच्छी, विघ्न, (पुं० ) मड्डु - कुबडा, पीठमें गूमडावाला (पुं०) गंड-छोटी फुन्सी, योगभेद, गैंडा,
चंड- तीक्ष्ण, दैत्यभेद, धर्मराजका किंकर, अति क्रोधी, (पुं) चंडा-चोरनामक गन्धद्रव्य, शंखाहुली, ( स्त्री० ) ॥ ९ ॥ चंडी-पार्वती, हिंसा करनेवाली स्त्री,
गाल ( मुखका एक भाग ) ॥ ६ ॥ श्रेष्ठ, शूरवीर, चिह्न, अश्वका आभूषण, बुद्बुदा, (पुं० ) गुड-हस्तीका कवच, गोला, गुड, ( पुं० ) ॥ ७ ॥
अतिक्रोधवाली स्त्री (स्त्री० ) चूडा-कंकणभेद, चोटी, घरका छज्जा ( अग्रभाग ) ( स्त्री० ) ॥ १० ॥ चोड (ल) - देशभेद, अंगरखा, (पुं०)
गुडा-थोहर, गोली, उडनगुडाखिन्नू, (स्त्री० )
गौंड-नीच जाति, (पुं० ) बडी तूंडी | जङ- मूर्ख, गूँगा, ढंडका सताया, (पुं०) जडा-कौंचकी फली (स्त्री०) ॥ ११ ॥
वाला, ( त्रि० ) ॥ ८ ॥
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_ विश्वलोचनकोशः- [ डान्तवर्गेताडो मुष्टयादिसंमेयतृणादौ ताडने रवे । ताडी ताडीतरौ दण्डश्चण्डांशोः पारिपार्श्विके ।। १२ ॥ दण्डः सैन्यव्यूहभेदे मानभेदे दमे यमे । मंथानेऽश्वेऽभिमाने च कोणदण्डप्रकाण्डयोः ॥ १३ ॥ विग्रहे च ग्रहे यज्ञे लगुडेऽपि मतोऽस्त्रियाम् । नाडी नाड्यां शिरायां स्याद्वार्तायां कुहनस्य च ॥ १४ ॥ नीडं स्थाने कुलायेऽस्त्री समीपे तु सपूर्वकः । पण्डः षण्ढे धियां पण्डा पाण्डुः कुन्तीपतौ सिते ॥१५॥ पिण्डो देहांसयोरस्त्री निवापे सिहके पुमान् । पिण्डो जपाप्रसूनेऽपि पिण्डः स्याद्भोजने त्रिषु ॥ १६ ॥ पिण्डं सांद्रे बले बोले गृहाङ्गे जीविकायसोः । पिण्डी तु पिण्डिकाऽलावूखर्जूरीतगरान्तरे ॥ १७ ॥
ताड-मुट्ठीभरा तृण, ताडन, शब्द | पंड-हिजड़ा, (पुं०) (पुं०)
पंडा-बुद्धि ( स्त्री०) ताडी-ताडका वृक्ष, (स्त्री.) पांडु-कुंतीका पति-राजा, सफेदरंगदंड-सूर्यका अनुचर, ॥ १२ ॥ सेना,. वाला, (पुं० ) ॥ १५ ॥
सेनारचनाभेद, मानभेद, दम (ई. पिड-शरीर, कंधा (पुं० न० ) पिद्रियोंका रोकना), यम नियय, दधि
तरोंको देनेका पिंड, हींग, जपा. मथनेकी रई, अश्व, अभिमान,
पुष्प या जाखंद (पुं०) भोजन
(त्रि.) ॥ १६ ॥ वीणादंड, वृक्षका पेडा, ॥ १३ ॥ |
सघन, बल, स्वनामख्यात गंध द्रव्य विग्रह, ग्रह, यज्ञ, लाठी (पुं० न०) (बोल ), घरका अंग, आजीविका, नाडी-घटी, नस, पाखडसे ध्यान, लोहा, ( न०) (स्त्री.)॥ १४ ॥
पिंडी-घीया या कदू, पिंडखजूर, नीड-स्थान,पक्षीका घूसला, सनीड- पिंडि-का, कोंकणदेशीय तगर, (स्त्री०)
समीप, (पुं० न०)
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डद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः । पिण्डी स्याज्ज्ञानजिज्ञासे जिज्ञासेऽपि सतां मता । पीडाऽपमईकृपयोः सरलद्रुशिरोध्वजे ॥ १८ ॥ बण्डा तु कुलटायां स्याद् बण्डो हस्तादिवजिते । भाण्डं तु भाजने वणिग्मूलविते विभूषणे ॥ १९॥ भूषणे च तुरङ्गाणां नदीपात्रे च कुत्रचित् ।। भवेन्मण्डस्तु कूष्माण्डे कर्कट्यामपि पुंस्ययम् ॥ २० ॥ सारे पिच्छेऽपि मण्डेऽस्त्री पुमानेरण्डभूषयोः । मण्डा धात्र्यामथो मण्डं शाकभेदे च मस्तुनि ॥ २१ ॥ मुण्डो राहुशिरोदैत्यभेदेषु त्रिषु मुण्डिनि । रण्डा मूषिकपाख्यभेषजे विधवास्त्रियाम् ॥ २२ ॥ व्याडस्तु हिंस्रपश्वाद्ये श्वापदेऽपि सरीसृपे ।
शुण्डा सुरायां वेश्यायां नलिनीहस्तिहस्तयोः ॥ २३ ॥ पिंडी-ज्ञानजाननेकी इच्छा, श्रेष्ठपुरु- अरंड-वृक्ष, आभूषण, (पुं०)
षोंके जाननेकी इच्छा (स्त्री०) मंडा-आंवला (स्त्री० ) पीडा-मर्दनकरना, कृपा, सरल-वृक्ष, मंड-शाकभेद, दधिसे उत्पन्न हुवा शिरपै धारण किया हुवा मुकुट मांड, ( न०)॥ २१ ॥ आदि, (स्त्री०)॥ १८॥
मुंड-राहु-ग्रह,कटा हुवा शिर,दैत्यभेद, बंडा-बदचलन स्त्री, (स्त्री० ) हाथसे वर्जित किया हुवा, (त्रि.)
(पुं०) केशमुंडाया हुवा, (त्रि०) भांड-पात्र, बनियांका मूलधन, आभू. रंडा-मूसापर्णी-औषधि, विधवा स्त्री षण, अश्वोंका आभूषण, ॥ १९ ॥ (स्त्री० ) ॥ २२ ॥ नदीके दोनोतटोंके बीचका भाग, व्याड-हिंसा करनेवाले पशु आदि, (न०)
। श्यावज (वनके पशु), सर्प (पुं०) मंड-कोहला या पेठा-शाक, ककडी, शुंडा-मदिरा, वेश्या, कमोदिनी,
(पुं०) ॥ २० ॥ द्रव्यका सार, हस्तीकी सूंड, ॥ २३ ॥ जल हमोरकी पंख, (पुं० न०)
स्तिनी (जल जंतु,) (स्त्री.)
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विश्वलोचनकोशः- [ डान्तवर्गेशुण्डा जलकरिण्यां च शुण्डस्तु मदनिर्भरे। शौण्डी कुशायां चविके शाण्डो मचेऽभिधेयवत् ॥ २४ ॥ षडः पेयान्तरे पुंसि षडो भिद्यपि विद्यते ।। पद्मादिवृन्दे षण्डोऽस्त्री षण्डः स्याद्गोपतौ चये ॥ २५॥ क्ष्वेडस्तु पुंसि गरले ध्वाने कर्णे महेश्वरे । क्ष्वेडस्त्रिषु स्यात्कुटिले क्ष्वेडा तु गजयोषिति ॥ २६ ॥ वीराणां सिंहनादेऽपि वंशशल्येऽपि च स्त्रियाम् । क्ष्वेडस्तु रक्तार्कफले घोषपुष्पे दुरासदे ॥ २७ ॥
डतृतीयम् । कारण्डो मधुकोषाऽसिकारण्डवदलाढके । कूष्माण्डो गणभेदे स्यात्कारुभ्रूणयोरपि ॥ २८ ॥ कूष्माण्डी चण्डिकायां स्यादपि स्यादौषधीभिदि ।
कोदण्डो देशभेदेऽपि कोदण्डः कार्मुके भ्रुवि ॥ २९ ॥ शुंड-मदोन्मत्त, (पुं०)
लताका पुष्प, तेजखी, (पुं०) शौण्डी -कुशा, चव्य, (स्त्री०) । शौण्ड-मदोन्मत्त, (त्रि.) ॥२४॥
डतृतीय। षड-पीनेयोग्य पदार्थभेद, (पुं०) कारंड-शहदका कोश, तलवार बनापंड-कमल आदिकोंका समूह, (पुं० नेवाला, करडुवा-पक्षी, स्वयं उप
न०) इंद्र, सांड आदि, समूह | जा तिल (पुं०) (पुं०)॥ २५ ॥
| कूष्मांड-महादेवके गणोंका भेद, श्वेड-विष, शब्द, कर्ण, महादेव, कोहला, गर्भ, (पुं०) ॥ २८ ॥
(पुं०) कुटिल (त्रि०) कूष्मांडी-चंडिका (देवी),औषधीभेद, श्वेडा-हस्तिनी, ॥ २६ ॥ शूरवीरोंकी (स्त्री०) _गर्जना, बांसका भाला, ( स्त्री०) कोदंड-देशभेद, धनुष, भृकुटी, श्वेड-लाल आक्रका फल, घोष (तोरी) (पुं० ) ॥ २९ ॥
॥२७॥
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तृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
गारुडं स्यान्मरकते विषशास्त्रेऽपि गारुडम् । गारुडं गारुडभवे तरण्डो भेलके पुमान् ॥ ३० ॥
वडिशीसूत्र संबद्धतरद्वस्तुनि नावि च । तित्तिsो दैत्यभेदे स्वात् तित्तिडो यमचेटके ॥ ३१ ॥ वृक्षभेदेऽपि वृक्षाम्लबिंबयोरपि तिन्तिडी । द्राविडो बेधमुख्ये स्यान्नीवृदन्तरसङ्ख्ययोः ॥ ३२ ॥ निर्गुण्डीन्द्राणिकानीलशेफाल्योः करहाटके | पिचण्डः पुंसि जठरे पशोरवयवेपि च ॥ ३३ ॥ पूत्यण्डः श्वाविद्गन्धमृगयोर्गन्धकीटके । प्रकाण्डोत्री तरुस्कन्धे प्रशस्ते विटपेऽपिच ॥ ३४ ॥ प्रचण्ड दुर्वहे श्वेतकरवीरे प्रतापिनि । arusो मुखरोगे स्यादंतरावेदिवृन्दयोः ॥ ३५ ॥
गारुड-मरकत (नीली) मणि, विष- | निर्गुडी - पुष्पभेद, नीलासंभालू, कमशास्त्र, विषशास्त्र विषै होनेवाला ( न० )
लकंद, (स्त्री० )
तरंड - नदी आदिमें तरनेका पूला
आदि ॥ ३० ॥ मच्छी पकडनेका कांटाके सूत्र के संबंध से तिरती हुई वस्तु, नौका, (पुं० ) तिन्तिड- दैत्यभेद, धर्मराजका किंकर
| पिचंड - उदर (पेट), पशुका एक अंग, (पुं० ) ॥ ३३ ॥ पूत्यंड-सेही, गन्धमृग, गन्धकीटक ( गंधकीडा ) (पुं० ) प्रकांड-वृक्षकी जड़से शाखाओंतकका भाग, श्रेष्ठ, वृक्ष, (पुं० न० ) ॥ ३४ ॥
(पुं० ) ॥ ३१ ॥
तिन्तिडी-त्रुक्षभेद, चूका-शाक, इम प्रचंड - जिसके साथ दुःखसे बर्ताव
ली-वृक्ष,
द्राविड- वेधमुख्य, देशभेद में उत्पन्न 1 होनेवाला, संख्याभेद (पुं० ) ॥ ३२ ॥
९५
हो वह, सफेद कनेर, प्रतापी, (पुं०) वरंड - मुखरोग, अन्तरावेदि (भीतरका चतरा) वृन्द (समूह) (पुं०) ॥३५॥
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विश्वलोचनकोशः- [डान्तवर्गेमतो दुष्ठिणि वार्तण्डो वार्तण्डः स्याद्विहङ्गमे । वारुण्डी द्वारपिण्ड्यां स्याद् वारुण्डः कर्णदृड्मले ॥ ३६॥ फणिराजेऽथ वारुण्डः सेकपात्रेऽपि मुद्गरे । भेरुण्डा यक्षिणीदेवीभेदयोस्त्रिषु भीषणे ॥ ३७ ॥ मार्तण्डस्तु मतश्चण्डकिरणक्रोडयोरयम् । मारण्डस्तु भुजङ्गाण्डे पथि गोमयमण्डले ॥ ३८ ॥ वरण्डा सारिकाखड्गधेनुवर्तिषु वर्तते । वितण्डा वादभेदे स्यात् करवीर्या शिलाह्वये ॥ ३९ ॥ कच्छीशाके च सा ज्ञेया शिखण्डो बर्हिचूडयोः । सपिण्डः पुंसि दायादे सपिण्डस्तनयेऽपि च । सरण्डः सरटे धूर्ते सरण्डो भूषणान्तरे ॥ ४० ॥
डचतुर्थ ! आपोगण्डस्तु शिशुके विकलाङ्गेऽतिभीरुके ॥४१॥
वार्तड-दुष्टी, पक्षी, (पुं०) वितंडा-वादभेद, कनेर, शिलाजीत वारुंडी-द्वारपिंडी ( देहली) (स्त्री०) ॥ ३९ ॥ कच्छी-शाक (शाकभेद) वारुंड-कान और नेत्रका मल ॥३६॥ (स्त्री० )
नागराज, सींचनेका पात्र, मुद्गर, शिखंड-मोरपंख, मोरचोटी, (पुं०) (पुं०)
सपिंड-हिस्सेदार, पुत्र, (पुं० ) भेरुंडा-यक्षिणीभेद, देवीभेद, (स्त्री०) भयंकर (त्रि.)॥ ३७॥
सरंड-गिरगट, धूर्त, आभूषणभेद, मार्तड-सूर्य, सूकर, (पुं०)
(पुं० ) ॥ ४० ॥ मारंड-सर्पका अंडा, मार्ग, गोबरका |
डचतुर्थ । __ मंडल, (पुं०)॥ ३८॥ वरंडा-मैना-पक्षी, खड्ग, गौ, बत्ती, आपोगंड-बालक, विकल अंग, . (बी.)
। बहुत डरपोक, (पुं०) ॥४१॥
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ढद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
चक्रवाडोऽद्रिभेदे स्याच्चकवाडं तु मण्डले । जलरुण्डो जलावर्ते जलरेणुभुजङ्गयोः ॥ ४२ ॥ देवताडो वृहद्भानौ खर्भानौ घोषकेऽपि च । द्वयोर्वातगुडः ख्यातो वात्यायां वातशोणिते ॥ ४३ ॥ पिच्छिलास्फोटिकायां च धाममात्रेऽपि दृश्यते ।
इति विश्वलोचने डान्तवर्गः ॥
अथ ढान्तवर्गः।
ढेकम् । स्याड् ढकारस्तु ढक्कायां निर्गुणे विषमध्वनौ ॥ १ ॥
___ढद्वितीयम् । गूढं रहसि गुह्ये च संवृते त्वभिधेयवत् । भवेद्दाढा तु दंष्ट्रायामिच्छायामप्यथ त्रिषु ॥ २ ॥ स्यादृढः स्थूलबलिनोदृढं बाढप्रगाढयोः ।
मादिः पत्रादिभङ्गौ स्याद् बलिनां दैन्यदीपने ॥ ३ ॥ क्रवाड-पर्वतभेद, (पुं० ) मंडल, अथ ढान्तवर्ग । (न० )
लैक । लिरुंड-जलका भंवर, जलकी रेती, ढ(कार)-ढोल-बाजा, निर्गुण-पुरुष, सर्प, (पुं० ) ॥ ४२ ॥
विषमशब्द, (पुं० ) ॥ १ ॥ वताड-अग्नि, राहु, तोरई, (पुं०)
ढद्वितीय। तिगुड-वात (वायु) समूह, वात- गूढ-एकांत, गुप्त, ढकाहुवा, (त्रि.) शोणित ( वातरुधिर ), ॥ ४३ ॥ दाढा-डाढ, इच्छा ( स्त्री०) ॥ २॥ जलझिरतीहुई गूमड़ी, स्थानमात्र, दृढ-मोटा, बली, (त्रि. ) निरंतर, (पुं० स्त्री०)
___ मजबूत (न०) (प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें माढि-स्त्रियोंके मुखआदिका चित्र, डांतवर्ग समाप्त हुवा ॥ ___ बलीके आगे दीनताका दिखाना
(स्त्री० ) ॥ ३ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [ ढान्तवर्गेमूढस्तु तन्द्रिते मूर्खे राढा स्याद्गुह्यशोभयोः । वाढं भृशे प्रतिज्ञायां वोढा भारिकसूतयोः ॥ ४ ॥ व्यूढः पृथुलविन्यस्तसंहतेषु हते त्रिषु । षण्ढो वृषे वर्षवरे क्लीबे स्याद्वन्ध्यपूरुषे ।। ५ ॥ वाच्यवन्मर्षणे सोढा सोढा शक्तेऽपि वाच्यवत् ।
___ढतृतीयम् । अध्यूढ ईश्वरेऽध्यूढा कृतसापल्ययोषिति ॥ ६ ॥ आषाढो तिनां दण्डे मासेऽपि मलयाचले । उदूढ ऊढे स्थूले स्यादुपोढो निकटोढयोः ॥ ७ ॥ प्रगाढस्तु दृढे कृच्छ्रे प्रमीढो मूत्रिते घने । प्ररूढो जाठरे बद्धमूले स्यादभिधेययोः ॥ ८॥
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मूढ-तंद्रावाला, मूर्ख (पुं० ) अध्यूढा-जिसके कई विवाह हुए हों राढा-गुप्त, शोभा, (स्त्री०)
उसकी पहली स्त्री, (स्त्री०) ॥६॥ वाढ-अत्यन्त, प्रतिज्ञा, ( न०) आषाढ-व्रतियोंका दंड, आषाढबोहा-भारले जानेवाला, सारथि, मास, मलयाचल-पर्वत, (पुं० ) (पुं० ) ॥ ४ ॥
| उदृढ-विवाहाहुवा, स्थूल ( मोटा ) व्यूढ-मोटा, स्थापन कियाहुवा, इकट्टा (पु० ) . कियाहुवा, नाशहुवा, ( त्रि०) उपोढ-समीप होनेवाला, विवाहा घंढ-सांडबैल, हिजडा, (पुं०) संतान- हुवा, (पुं० ) ॥ ७ ॥
रहित पुरुष (पुं० ) ॥ ५ ॥ प्रगाढ--दृढ, कष्ट, (पुं०) सोढा-सहनेवाला-पुरुष,समर्थ,(त्रि०) प्रमीढ-पेशाब करना, मेघ (पुं० )
ढतृतीय। | प्ररूढ--पेट, जिसकी जड दृढ है वह, अध्यूढ-ईश्वर या समर्थ, (पुं०) । नाम (पुं० ) ॥ ८ ॥
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णद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
प्रारूढः सम्बले वही वस्त्राञ्चलकपाटयोः । पञ्जरेऽपि विगूढस्तु गुप्तगर्हितयोस्त्रिषु ॥ ९॥ विगूढ स्त्रिषु सञ्जाते वर्द्धिते छुरिते मतः । संमूढस्तु नवे भुग्ने पुंजितेऽप्यनुपप्लुते ॥ १० ॥ संरूढो वाच्यवत्प्रौढे तथैवाङ्कुरितेऽपि च ।
ढचतुर्थम् । अध्यारूढं समारूढोऽत्यधिकेऽपि त्रिलिङ्गकः ॥ ११ ॥
इति विश्वलोचने ढान्तवर्गः ॥
अथ णान्तवर्गः। णकारो निर्णये ज्ञाने ।
णद्वितीयम् ।
सूक्ष्मे ब्रीह्यन्तरेऽप्यणुः ।। अणिराणिवदक्षाग्रकीलसीमाश्रिषु द्वयोः ॥ १ ॥ प्रारूढ-खरची, अग्नि, वस्त्रखंड, अत्यंत अधिक (जियादह ), किंवाड, पींजरा ( पुं०)
(त्रि. ) ॥ ११ ॥ विगूढ-गुप्त, निंदित, (त्रि.) ॥९॥ इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें विगूढ-उत्पन्नहुवा, बढाहुवा, अधि
ढान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥ __ क हास, (पुं० ) संमूढ-नवीन, मुडाहुवा, इकट्ठा
अथ णान्तवर्ग। किया हुवा, नहीं कष्टमें पड़ाहुवा,!
णैक । (पुं० ) ॥ १० ॥
ण(कार)-निर्णय, ज्ञान, (पुं० )
__णद्वितीय। संरूढ--जवान, अंकुरवाला, (त्रि०)
१°अणु-सूक्ष्म, व्रीहिभेद, (पुं० )
. ढचतुर्थ ।
अणि-आणि-धुराका अग्रभाग, अध्यारूढ-अच्छीतरह चढाहुवा, कीला,सीम, कोण, (पुं०स्त्री.)॥१॥
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१००
विश्वलोचनकोश:
{णान्तवर्गेउष्णः स्यादातपे ग्रीप्मे वाच्यवत्तप्तदक्षयोः । ऊर्णा भ्रूमध्यजावतें भवेन्मेष्यादिलोम्नि च ॥ २ ॥ पिप्पलीजीरकुम्भीरमक्षिकासु कणा स्मृता ।। कणोऽतिसूक्ष्मे धान्यांशे कर्णः श्रोत्रे पृथासुते ॥ ३ ॥ सुवर्णालौ च काणस्तु मौदल्याधिकलोचने । किणस्तु व्रणे चिह्न स्यादथ सूक्ष्मव्रणे गुणे ॥ ४ ॥ कीर्ण छन्ने परिक्षिप्ते हिंसितेऽप्यभिधेयवत् । कुणिस्तु कुकरे तुन्ने कृष्णे विष्णौ पिकेऽर्जुने ॥ ५ ॥ व्यासे कृष्णं तु मरिचे लोहे च त्रिषु तद्वति । कृष्णा तु द्रौपदीनीलीहारहूरासु पिप्पलौ ॥ ६ ॥ कोणोऽस्रौ लगुडे वाद्यप्रभेदे चार्कसम्भवे । वीणादिवादनोपायेऽप्येकदेशेऽपि वाच्यवत् ॥ ७॥
उष्ण-धूप, ग्रीष्म-ऋतु, (पुं० ) तपा कीर्ण-ढकाहुवा, तिरस्कार कियाहुवा, हुवा, चतुर, (त्रि.)
माराहुवा, (त्रि.) ऊर्णा-भुकुटीके बीचका चक्र, भेडी | कणि-रोगआदिले दूषित हाथोंचाला
आदिके केश, ( स्त्री० ) ॥ २॥ ( टूटा ), ( त्रि०) तूनवृक्ष, (पुं०) कणा-पीपल औषधि, जीरा, जल
कृष्ण-विष्णु, कोयल, अर्जुन, ॥ ५ ॥ जन्तु, सोनामक्खी, (स्त्री) कण-अतिसूक्ष्म, धान्यका अंश ( कि
व्यास, (पुं० ) स्याहमिरच, लोहा
(न०) स्याहरंगवाला ( त्रि०) ___ तनेकदाने) (पुं० ) कर्ण-कान, कुंतीका पुत्र, सुवर्णालि। कृष्णा द्रौपदी, नीली, दाख, पिप्पली,
(सोनाली-वृक्ष) (पुं० )॥३॥ (स्त्री० )॥ ६ ॥ काण-काग आदिक अर्थात् काणाने कोण-कूना, लाठी, बाजाभेद, शनै__ नेत्रवाला, (पुं०)
श्चर, बीणाबजानेका गज, ( पुं०) किण-व्रण (घाव ), चिह्न, सूक्ष्मव्रण, किसी द्रव्यका एकदेश (त्रि.) गुण, (पुं० )॥ ४ ॥
॥ ७ ॥
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णद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
गणः समूहे प्रमथे संख्यासैन्यप्रभेदयोः । गुणो रूपादिसत्त्वादिबिंबादिहरितादिषु ॥ ८॥ सूदेऽप्रधाने सन्ध्यादौ रजौ मौया वृकोदरे । गेष्णुर्नटे गायने स्याद् घृणा कारुण्यनिन्दयोः ॥ ९॥ घ्राणं प्राणेऽपि नासायां चूर्णी तु स्यात्कपर्दके । चूर्णः क्षोदे क्षारभेदे चूर्णानि गन्धशुक्तिषु ॥ १० ॥ जर्णः कलानिधौ वृक्षे जिष्णुः पार्थेन्द्रवह्निषु । जित्वरे त्रिषु जीर्ण तु पक्के वृद्धे जरान्तरे ॥ ११ ॥ झणिः पूगे दुष्टदैवश्रुतौ स्त्री कठिनेऽन्यवत् ॥ तीक्ष्णं क्षारेऽथ निशिततिग्मात्मत्यागिषु त्रिषु ॥ १२ ॥ निरालस्ये सुबुद्धौ च त्रिषु तीक्ष्णं च मुप्कके । तीक्ष्णं लोहे विषे तिग्मे यवाग्रे लवणे रणे ॥ १३ ॥
गण-समूह, महादेवकेगण, संख्या, जर्ण-चंद्रमा, वृक्ष, (पुं० ) सेनाभेद (पुं० )
जिष्णु-अर्जुन, इन्द्र, अग्नि, (पुं० ) गुण-रूप रस आदि, सत्त्व रज आदि, जीतने के स्वभाववाला, (त्रि.) बिंबआदि, ॥ ८ ॥ हरित पीत | जीर्ण-पक्क, वृद्ध, अतिवृद्ध, (त्रि.)
आदि (रंग), रसोइया, मंत्री, ॥ ११ ॥ सन्ध्याआदि, रस्सी, धनुषकी ज्या, झणि-सुपारी वृक्ष, दुष्टभाग्यका सुभीमसेन, (त्रि.)
नना, (स्त्री) कठिन (करड़ा) गेष्णु-नट, गानेवाला, (पुं०) (त्रि. ) घृणा-दया, निन्दा, (स्त्री० ) ॥९॥ तीक्ष्ण-क्षार, पैना, तीखा, आत्मघ्राण-सूंघाहुवा, नासिका, (न.) ! त्यागी, (त्रि.) ॥ १२॥ आ. चूर्णी--कौडी, (स्त्री० )
लस्यरहित, अच्छीबुद्धिवाला,(त्रि.) चूर्ण-पीसाहुवा ( आटा आदि ), मोखा-वृक्ष, लोहा, विष, तिग्म
क्षारभेद, (पुं० ) गंधवालीशुक्ति ( तीक्ष्ण ), जवाखार, नमक, रण, (सीपी) (न० ) ॥ १०) (न.) ॥ १३ ॥
जी
)
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१०२
विश्वलोचनकोश:
तूणी नील्यां निषङ्गे ना तृष्णा लिप्सापिपासयोः । द्रोणं तु रक्षिते रक्ष्ये रक्षणत्रायमाणयोः ॥ १४ ॥ दीर्ण विदारिते भीते स्फुटितेऽप्यभिधेयवत् । देष्णुद्दतरि दुर्दान्ते गुणो वृश्चिकभृंगयोः ॥ १५॥ गुणी तु कच्छपीद्रोण्योर्गुणं चापकृपाणयोः । द्रोणस्तु द्रोणका स्यादपि द्रोणः कृपीपतौ ॥ १६ ॥ आढकानां चतुष्केपि द्रोणं स्यादाढकेऽस्त्रियाम् । द्रोणी काष्ठाम्बुवाहिन्यां गवां घासभुजिस्थितौ ॥ १७ ॥ काष्ठागारे गिरेः सन्धौ नीवृद्भेदेऽपि दृश्यते । वर्णः स्वर्णेऽपि रूपेऽपि पणो मूल्ये भृतौ ग्लहे ॥ १८ ॥ पणोऽशीतिवराटेऽपि पणः कार्षापणे धने । द्यूते विक्रय्यशाकादेर्बद्धमुष्टावपि स्मृतः ॥ १९ ॥
तूणी - नीली औषधि ( स्त्री०) बागों | दुण - धनुष, तरवार ( खड्ग ) ( न०) का भाथा, (पुं० ) द्रोण - काकभेद, द्रोणाचार्य, (पुं० )
तृष्णा-वांछा, तृषा ( प्यास ) ( स्त्री० )
द्रोण-रक्षा कियाहुवा, रक्षाकरने योग्य, रक्षा, त्रायमान औषधि ( न०
)
1198 11
दीर्ण - फाडाहुवा, डराहुवा, फूटाहुवा, ( त्रि० ) देष्णु - दाता रोकाहुवा ( पुं० )
( देनेवाला ), दुःखसे
दुण - बीहू, भौंरा ( पुं० ) ॥ १५ ॥ दुणी - कछवी, छोटी नौका, (स्त्री०)
[णान्तवर्गे
॥ १६ ॥
द्रोण-
-चार आढक, ( पुं० न० ) द्रोणी- डोंडी, गाँवोंके घास चरनेकी
जगह ॥ १७ ॥ काष्टका स्थान, पर्वतकी संधि, देशभेद, ( स्त्री० ) वर्ण - सुवर्ण, रूप, (पुं० ) पण वस्तुका मोल, नौकरी, जूवामें लगानेका धन, ||१८|| ५० कौडी, पैसा, धन, जूवा, बेचने के शाक आदिकी बाँधीहुई मुट्टी, ॥ १९ ॥
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गद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
१०३ पणो छूतादिधूत्सृष्टे व्यवहारेऽप्ययं पणः। पर्ण पत्रे पतत्रे च पर्णः स्यात्पुंसि किंशुके ॥ २० ॥ पाणिश्चरणमूले ना कुम्भीपाश्चात्त्यभागयोः । सेनापृष्ठेऽपि पाणिः स्यात्पाणिः स्यादुन्मदस्त्रियाम् ॥ २१ ॥ समग्रे पूरिते पूर्णस्त्रिषु शक्ते तु पुंस्ययम् । प्राणा असुष्वथ प्राणे विड्डातेऽप्यनिले बले ॥ २२ ॥ काव्यजीवे च बोले च प्राणं तु त्रिषु पूरिते । फाणिगुंडे करण्डे च वाणी द्यूतौ च वाचि च ॥ २३ ॥ वाणिस्तु हारके मूल्ये भ्रूणः स्त्रीगर्भडिम्भयोः । मणिर्द्वयोर्मेहनाग्रे रत्ने छागीगलस्तने ॥ २४ ॥ अलिञ्जरेऽपि मुक्तादौ मोणस्तु पटमुत्सके । मोणो बाणेपि कुम्भीरे मक्षिकाहिकरण्डयोः ॥ २५॥
पणो-जूवा आदिमें लगायाहुवा, काव्यजीव (रस), बोल (गंधद्रव्य) ___ व्यवहार (पुं० )
(न०) पूराहुवा, (त्रि.) पर्ण-पत्ता, पक्षीकी पर, ( न० ) फाणि-गुड, पिटारा, (पुं०) पर्ण-केसू ( पलाशपुष्प ) (पुं०) वाणी-जूवा, वाणी ( वाक् ) (स्त्री०)
॥ २० ॥ पाणि- एडी-पाँवकी, (पुं० ) वाणी-हार, मोल, (पुं०)
कायफल,पिछलाभाग, सेनाकी पीठ, भ्रूण-स्त्रीका गर्भ, बालक, (पुं०)
मदोन्मत्त स्त्री, (स्त्री० )॥ २१ ॥ मणि-लिंगका अग्रभाग, रत्न, बकरीके पूर्ण-संपूर्ण, पूराहुवा, (त्रि.) __ कंठके स्तन, ॥ २४ ॥ मटका, मो__ समर्थ, (पुं०)
ती आदि, (पुं० स्त्री०) . प्राण-श्वास, (पुं० ब०)
मोण-बाण, नाकू (जलजंतु), हृदयमें रहनेवाला वायु, विटवायु, मक्खी, सर्पकी पिटारी, (पुं०) वायु, बल, ॥ २२॥
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१०४
विश्वलोचनकोश:- [णान्तवर्गेरणः कोणे कणे युद्धे रेणुधूल्यणुपर्पटे । अथ पुंस्येव वर्णः स्यात्स्तुतौ रूपयशोगुणे ।। २६ ।। रागे द्विजादौ मुक्तादौ शोभायां चित्रकम्बले । व्रते गीतकमे देशेऽप्यस्त्री स्याद्वर्णकेऽक्षरे ॥ २७ ॥ बाणो वलिसुते काण्डे काण्डांशे केवले पुमान् । बाणो बाणा च झिंट्यां स्याद् बाणको व्यन्तरे कचित् ॥२८॥ विष्णुः कृष्णे वसौ सूर्ये विष्णुारायणार्कयोः । वसुर्दैवतभेदेऽपि वीणा वल्लकिविद्युतोः ॥ २९ ॥ वृष्णिः स्याद्यादवे मेषे वृष्णिः पाषण्डिचण्डयोः । वेणी नदीनां सङ्गे स्यात् केशबन्धान्तरेऽपि च ॥ ३० ॥ देवताडेऽपि वेणी स्त्री वेणुवैशे नृपान्तरे । शाणोद्धमाषके कर्षे कषणे करपत्रके ॥ ३१ ॥
रण-कोण, शब्द, युद्ध, (पुं०) विष्णु-कृष्ण, वसु, सूर्य, नारायण, रेणु-धूलि, बारीक पापड, (पुं०) सूर्य, देवभेद, (पुं०) वर्ण-स्तुति, रूप, यश, गुण, ॥२६॥ वीणा- बीणा-बाजा, बिजली, (स्त्री०)
रागभेद, ब्राह्मण आदि, मोती ॥ २९ ॥ आदि, शोभा, विचित्र कंबल, व्रत, वष्णि-यादव, मेंढा, पाषंडी, अति गीतक्रम, देशभेद, रंग, अक्षर, क्रोधी, (पुं० )
(पुं० न०) ॥ २७ ॥ वेणी-नदियोंका संग, केशबंधभेद, बाण-बलिका पुत्र, बाण, बाणका मूल, ॥३०॥ देवताड-वृक्ष, ( स्त्री० ) केवल, (पुं०)
वेणु-बाँस-वृक्ष, वेणु-राजा, (पुं०) बाणा-कटसरैया-औषधि, (स्त्री०) शाण-आधामासा, सोलहमासा,कसोबाणक-व्यन्तरदेव (पुं०) ॥ २८॥ टी पत्थर, करोंत (आरा) ॥३१॥
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णतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।।
१०५ शीतत्राणान्तरे शाणी शीर्णमल्पविशीर्णयोः । शोणो नदे कोकनदच्छवौ श्योनाकबर्हिषोः ॥ ३२ ॥ लोहिताश्वेऽप्यथ श्रोणियोः स्यात्कारुसंहतौ । केशपात्रान्तरे श्रोणिः श्रेणिः पावनिः स्त्रियाम् ॥ ३३ ॥ श्राणा यवाग्वां श्राणं तु पके स्यादभिधेयवत् । स्थाणुः कीले हरे पुंसि स्थाणुस्त्वस्त्री ध्रुवेपि च ॥ ३४ ॥ स्थूणा तु स्याद् गृहस्तम्भे लोहप्रतिकृतावपि । क्षणः स्यादुत्सवे कालभेदावसरपर्वसु ॥ ३५ ॥
णतृतीयम् । अभीक्ष्णं तु भृशे नित्येऽप्यरुणोऽनूरुसूर्ययोः । कुष्ठे चाव्यक्तरागे च सन्ध्यारागे च पुंस्ययम् ॥ ३६ ॥ नीरवाऽऽरक्तकपिलव्याकुलेषु च वाच्यवत् । अरुणा तिवृताश्यामामञ्जिष्ठाऽतिविषासु च ।। ३७ ।।
शाणी-ठंढसे रक्षा करनेवाला पहनने- (स्थूणा-घरका स्तंभ, लोहेकी मूर्ति, का वस्त्र ( स्त्री०)
(स्त्री० ) शीर्ण-अल्प, गिराहवा, ( न०) क्षण-उत्सव, कालभेद, अवकाश, शोण-नद, लालकमलकी छवि, सोना- पर्व, (पु० ) ॥ ३५ ॥ पाठा, कुशा ॥ ३२॥ लालअश्व,
णतृतीय । (घोडा) (पुं० )
अभीक्ष्ण-अत्यंत, नित्य, ( अ० ) श्रोणि-कागीगरोंका समूह, (पं-स्त्री.) अरुण-अनूरु (सूर्यका सारथि ), श्राणा-यवागू, ( स्त्री.)
- सूर्य, कुष्ठभेद, थोड़ालाल रंग, सं
ध्यासमय आकाशकी लाली, श्राण-पकाहुवा (त्रि.)
(पुं०) ॥ ३६ ॥ शब्दरहित, स्थाणु-कीला, महादेव, (पुं॰) । __ थोडा लाल कपिल, व्याकुल, (त्रि.) स्थाणु-ध्रुव, द्रव्य, (पुं० न०) अरुणा-निसोथ, सारिवा, मजीठ,
। अतीस, (स्त्री०)॥ ३७॥
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१०६
विश्वलोचनकोश:
अरणिस्तु भवेदग्निमन्थे मन्थानदण्डके । इन्द्राणी तु शचीसिन्दुवारयोः करणे स्त्रियाम् ॥ ३८ ॥ ईरिणं तूषरे शून्येऽपीक्षणं दर्शने दृशि ।
ऊषणा तु कणायां स्यादूषणं मरिचे मतम् ॥ ३९ ॥ एषणी व्रणमार्गानुसारिण्यां तु तुलाभिदि । एषणो लोहाणे स्यादन्वेषे त्वनुपूर्वकम् ॥ ४० ॥ कङ्कणंकरभूषायां हस्तसूत्रेऽपि शेखरे । कत्तृणं तृणभेदेऽपि वारिपय च कतृणम् ॥ ४१ ॥ करणस्तु भवेद्वैश्याच्छुद्रायास्तनु जे पुमान् । करणं साधकतमे कार्यकायस्थकर्मसु ॥ ४२ ॥ क्रियायामिन्द्रिये क्षेत्रे करणं बालवादिषु । गीताङ्गहार संवेशक्रियाभेदेऽपि चेष्यते ॥ ४३ ॥
( स्त्री० )
अरणि-अरÈवृक्ष, मथनेकीं डंडा, | अन्वेषण - ढूँढना, (पुं० ) ॥ ४० ॥ कंकण - हाथका आभूषण ( कंगन ). हाथका सूत्र ( रक्षासूत्र ), शिखामें धारणकी हुई माला, ( न० > कत्तृण - तृणभेद, पिठवन, ( न० )
इंद्राणी-इंद्राणी ( इंद्रकी स्त्री ), सिम्हालू- वृक्ष, स्त्रियोंका करण हावआदि ( स्त्री० ) ॥ ३८ ॥ ईरिण - ऊपर (जहां बीज नहीं उपजे), शून्य ( सूना ) ( न० > ईक्षण - दर्शन (देखना), नेत्र, ( न ० ) ऊषणा - पीपल, ( स्त्री० ) ऊषण - स्याह मिरच, ( न० ) ॥ ३९ ॥ एषणी - व्रणछिद्र में देनेकी सलाई, काँटा - तोलनेका ( स्त्री ० ) एषण - लोहेका बाण,
[ णान्तवर्गे
॥ ४१ ॥
करण- वैश्यसे उत्पन्न हुवा शूद्रीका पुत्र, (पुं० )
करण - क्रियाको सिद्ध करनेवाला (बा
आदि), कार्य, कायस्थ ( शरीरमें स्थित ), कर्म ॥ ४२ ॥ क्रिया, इंद्रिय, क्षेत्र, बालव आदि-करण, गाना, भावबताना, सोना क्रियाका भेद ॥ ४३ ॥
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णतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
१०७ करुणस्तु रसे वृक्षे कृपायां करुणा स्त्रियाम् । करेणुस्तु वसायां स्त्री कर्णिकारेभयोः पुमान् ॥ ४४ ॥ कल्याणमक्षयवर्गे मङ्गले तद्वति त्रिषु । स्यान्मानदण्डपणयोश्चतुर्थाशे हि काकिणी !! ४५॥ गुञ्जायां वाटमात्रेऽपि कुष्ठभेदेऽपि काकणे । कारणं हेतुवधयोः पीडायां करणेऽपि च ॥ ४६॥ कारणा यातनायां स्यात्कार्मणं स्यात्तु कर्मठे। परदेहप्रवेशे च योजने मंत्रतत्रयोः ॥ ४७ ॥ भृत्ये कर्तरि कुर्वाणः कृपणः कुत्सिते कृमौ । खड्ने कृपाणः शस्त्री तु कृपाणी कर्तरावपि ॥ ४८ ॥ कोङ्कणो देशभेदे स्यादस्त्रभेदे तु कोङ्कणम् ।
गोकर्णोऽश्वतरे सर्पमृगभेदे गणान्तरे ॥ ४९ ॥ करुण-रस, वृक्ष, (पुं०) कारणा-तीव्रपीडा, (स्त्री०) । करुणा-कृपा, ( स्त्री०)
कार्मण-कर्मकराने वाला, परशकरणु-वसा (चर्मके नीचे श्वेतभाग), रीरमें प्रवेश, तंत्र मंत्र का योजन (स्त्री०) पुष्पकी कर्णिका, हस्ती, करना, ( न०)॥ ४७ ॥ (पुं० )॥४४॥
कुर्वाण-भृत्य (नौकर ), करनेवाला, कल्याण-अक्षयवर्ग (मोक्ष), मं- (पुं० ) गल, (न०) मंगलवाली वस्तु कृपण-निंदित, (कृमि-कीडा) (पुं०)
कृपाण-खड्ग, (पुं०) काकिणी-मान (प्रमाण )के दंडका कृपाणी-छुरी, कतरनी ( कैंची)
चौथा भाग, पैसाका चौथा भाग, (स्त्री०)॥४८॥ रत्ती-प्रमाण, वाटमात्र, कुष्ठभेद, कोंकण-देशभेद, (पुं० ) अस्त्रभेद,
काकण, ( स्त्री०) ॥ ४५॥ (न० ) कारण-हेतु, वध (मारना,) पीडा, गोकर्ण-खिच्चर, सर्पभेद, मृगभेद, करण ॥ ४६॥
। गणभेद ॥ ४९ ॥
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१०८ विश्वलोचनकोशः- [णान्तवर्गे
अङ्गुष्ठाऽनामिकोन्माने गोकर्णी मूर्विकौषधी । ग्रहणं तूपलब्धौ स्यात्स्वीकारादरयोः करे ॥ ५० ॥ ग्रहोपरागे बन्यां च प्रत्याये ग्रहणीरुजि । ग्रामणी पिते पुंसि श्रेष्ठाऽधिपे च भौगिके ॥ ५१ ॥ त्रिषु स्त्रियां तु गणिका ग्रामिणी नीलिका स्त्रियाम् । चरणोऽस्त्री बढचादौ मूलेऽपि पदगोत्रयोः ।। ५२ ॥ चरणं भ्रमणेझौस्या चरणं भक्षणेऽपि च ।। जरणं जीरणोऽजाजीहिङ्गुसौवर्चले मतम् ।। ५३ ॥ तरणिः सूर्येऽपि तरणे कुमारीनौकयोः स्त्रियाम् । तरुणो यूनि नवके कुजपुष्योरुबूकयोः ॥ ५४ ।। दक्षिणः सरलावामपरच्छन्दानुवर्तिषु । त्रिषु स्याद्वाच्यलिङ्गोऽयमवाची संभवे मतः ॥ ५५ ॥
अंगूठा और अनामिका उंगलीके चरण-बह्वचआदि, मूल, पाँव, गोत्र,
फैलानेसे उन्मान, (पुं०) (पुं. न० ) ॥ ५२ ॥ गोकर्णी-मरोरफली, ( स्त्री० ) चरण-भ्रमण करना, पाँव, भक्षण
___ करना, ( न०) ग्रहण-प्राप्ति, अंगीकार, आदर, हाथ ॥ ५० ॥ ग्रहण-सूर्यचंद्रका,
जरण-(न०) जीरण (पुं०)जीरा, बंदी, प्रत्याय ( निश्चय कराना )।
। हींग, स्याहनमक, ॥ ५३ ॥
। तरणि-सूर्य, जमीकंद, (पुं० ) घी(न०)
। कुँवार-औषधि, नाव, ( स्त्री० ) ग्रहणी-संग्रहणी-रोग (स्त्री.) तरुण-जवान पुरुष, नवीन, कूजाग्रामणी-नाई (पुं० ) श्रेष्ठ, अधिप, क्षका पुष्प, अरंड-वृक्ष (पु.)॥५४॥ ___ भोगनेवाला, (त्रि.) ॥५१॥ दक्षिण-सरल, दहना हाथ आदि, ग्रामिणी-गणिका, नीली-औषधि, दुसरेकी इच्छाके अनुकूल, दक्षिण(स्त्री०)
) दिशामें होनेवाला, (त्रि.)॥५५॥
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१०९
णतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः। यज्ञदानप्रतिष्ठायामवाच्यामपि दक्षिणा । दुर्वर्ण वालुके रूप्ये द्रविणं स्यात्पराक्रमे ॥ ५६ ॥ धरणं धारणे मानभेदेऽपि धरणी क्षितौ । धरुणः सलिले स्वर्गे धरुणः परमेष्ठिनि ।। ५७ ॥ धर्मणः सर्पभेदेपि धर्मणः पादपान्तरे । धर्षणी कुलटायां स्याद् धर्षणं गञ्जिते रते ॥ ५८ ॥ बुद्धोक्तमन्त्रभेदे च नाटिकायां च धारणी । धिषणस्तु सुराचार्ये धिषणा बुद्धिनिद्रयोः ॥ ५९ ।। निर्माणो निर्मितौ सारे रचनायां समञ्जसे । निर्याणं निर्गमे मोक्षे गजापाङ्गे च तद्वयोः ।। ६० ।। निर्वाणं निर्वृतौ मोक्षे स्तम्भने गजमजने । निश्रेणिरधिरोहिण्यां खरीपादपे स्त्रियाम् ॥ ११ ॥
दक्षिणा-यज्ञदानकी प्रतिष्ठामें द्रव्य-! धारणी-बुद्धका कहाहुवा मंत्रभेद,
देना, दक्षिण-दिशा, ( स्त्री० ) एकप्रकारका नाटक, ( स्त्री० ) दुर्वण-एलुबा-औषधि, चाँदी, (न०) धिषण-बृहस्पति (पुं० ) द्रविण-पराक्रम, ( न० ) ॥ ५६ ॥ धिषणा-बुद्धि, निद्रा, (स्त्री०)॥५९॥ धरण-धारण करना, मानभेद, (न.)।
निर्माण-बनाना, सार, रचना, उचि
'! त (मुनासिब ) ( पुं० ) धरणी-पृथ्वी, ( स्त्री०)
निर्याण-निकसना, मोक्ष, हस्तीकेधरुण-जल, स्वर्ग,ब्रह्मा, (पुं०)॥५७॥ नेत्रका कोया, (पुं०न० )॥ ६० ।। धर्मण-सर्पभेद, वृक्षभेद, (पुं०) निर्वाण-आनंद, मोक्ष, थाँभना, धर्षणी-कुलटा स्त्री, ( स्त्री॰) । । हस्तीका मंजन (स्नान ) ( न० ) धर्षण-निरादर, मैथुन (स्त्रीसंग) निश्रेणि-सीढी, खजूरका वृक्ष, ( न०) ॥ ५८॥
(स्त्री० )॥ ६१ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [णान्तवर्गेपत्रोर्ण धौतकौशेये पत्रोर्णः शोणकद्रुमे । पुराणं चिरकालीयद्रव्ये स्यादभिधेयवत् ॥ ६२ ॥ पूरणः पूरके पुंसि पूरणे पिष्टकान्तरे । पूरणी शाल्मलीवस्त्रारम्भसूत्रान्तरेऽपि च ।। ६३ ।। प्रघणस्ताम्रकुण्डे स्यादलिन्दे लोहमुद्गरे । प्रमाणमेकतेयत्ताहेतियन्तृप्रमातृषु ॥ ६४ ॥ सत्यवादिनि नित्ये च मर्यादाहन्तृशास्त्रयोः । प्रवणः प्रगुणे प्रह्वे क्रमनिम्नःक्षितौ कृशे । ॥ ६५ ॥ एतेषु त्रिषु पुंस्येव प्रवणः स्याच्चतुष्पथे । प्रवेणिः स्त्री कुथे वेण्यां प्रोक्षणं वधसेकयोः ।। ६६ ।। वरणस्तिक्तशाकेऽपि प्राकारे वरणं वृतौ ।।
वरुणस्तरुभेदे स्यात् प्रचेतःसूर्यवारिषु ॥ ६७ ॥ पत्रोर्ण-धोयाहुवा रेशमी वस्त्र, (न०): वचनबोलनेवाला, नित्य, मर्यादाका पत्रोर्ण-सोनापाठा-वृक्ष (पुं० ) नष्टकरनेवाला, शास्त्र, ॥ पुराण-बहुतकालका द्रव्य,(त्रि.) ६२ | प्रवण-सीधा, नम्र, कमसेनीची पूरण-पूरण करनेवाला या प्राणाया- पृथ्वी, दुबला, (त्रि० ) ॥ ६५ ॥ मभेद, पूरित करना, पीठीका भेद | | चुरा हा( चौपटरास्ता) (पुं० ) (पुं०)
प्रवेणि-हस्तीकी झूल या कुशा,वेणी पूरणी-सालवृक्ष, वस्त्र बुननेकेलिये ( [थेहुएकेश,) ( स्त्री. )
फैलायाहुवा सूत्र, (स्त्री०) ॥६३॥ प्रोक्षण-मारना, सींचना (न०)॥६६॥ प्रघण-ताँबेका कुंड , द्वारकी चौखट, वरण-पत्रसुंदरशाक, (बंगभाषा- लेहेका मुद्गर (पु०)
गिमा), प्राकार, (किला) (पुं० ) प्रमाण-एकता, इयत्ता (प्रमाण ), वरण-चरणकरना, ( न०)
शस्त्र या अग्निज्वाला, सारथि, वरुण-वृक्षभेद ( बरना), वरुण-देव, प्रमाण करनेवाला ॥ ६४ ॥ सत्य- सूर्य, जल, (पुं० ) ॥६७ ॥
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णतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः । वारणो दन्तिनि ख्यातः प्रतिषेधे तु वारणम् । अथ प्रतीचीमदिरागण्डदूर्वासु वारुणी ॥ ६८॥ ब्राह्मणी फञ्जिकासृक्काद्विजपत्नीष्वथ द्विजे । ब्राह्मणो ब्राह्मणं मन्त्रभेदेऽपि द्विजसंहतौ ॥ ६९ ॥ भरणी शोणके ऋक्षे भरणं वेतने भृतौ । भीषणे दारुणे गाढे भीषणं सल्लकीरसे ॥ ७० ॥ कारुण्ड्यामीश्वरक्रीडाभ्रमणे भ्रमणी स्त्रीयाम् । मार्गणो याचके बाणे क्लीबमन्वेषयाच्नयोः ॥ ७१ ॥ यत्रणं स्यान्नियमने बन्धने रक्षणेऽपि च । पटोलमूले रमणं रमणस्तु प्रिये स्मरे ॥ ७२ ॥ रवणो रासभे शब्दे रोषाणो रोषणे त्रिषु । पारदोषरयोः वर्णघर्षणेऽपि पुमानयम् ।। ७३ ।।
वारण-हस्ती (पुं० )
सेह-प्राणी, सालवृक्षका रस, (पुं०) वारण-निषेध करना (वर्जना) (न.) ॥ ७० ॥ वारुणी-पश्चिमदिशा, मदिरा,गांडर-| भ्रमणी-जलौका (जोक ), ईश्वर___ दूब, (स्त्री०)॥६८ ॥
क्रीडा, भ्रमण, ( स्त्री०) ब्राह्मणी-भारंगी या देवताड-वृक्ष,
मार्गण-याचनाकरनेवाला, वाण, होठोंका जोड़ (गलाफू), ब्राह्मण- .
(पुं०) ढूँढना, याचना, (न०) ॥७१॥ की स्त्री, ( स्त्री०)
। यंत्रण-वशमेंकरना, बाँधना, रक्षा
मंत्र- करना, (०) वाण-ब्राहाण-जाति (
रमण-परवलकी जड, (न० ) भेद, ब्राह्मणोंका समूह,(न०)॥६९॥
रमण-प्रिय (पति), कामदेव, (पुं०) भरणी-सोनापाठा-वृक्ष, भरणी-नक्षत्र, | (स्त्री०)
रवण-गधा, शब्द, (पुं०) भरण-मजूरी, पोषणकरना, ( न०) रोषाण-क्रोधी. (त्रि.) पारा, ऊ. भीषण-भयंकर, कठोर, दृढ, (नि.)। पर-भूमि, कसौटी, (पुं०) ॥ ७३ ॥
॥ ७२ ॥
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विश्वलोचनकोश:
रोहिणी कटुरोहिण्यां लोहितासोमवल्कयोः । गोनागकर्णरुग्भेदे लवणं तु द्विजान्तरे ॥ ७४ ॥ लवण रसरक्षोब्धिभेदेषु लवणा द्युतौ । लक्षणं नाम्नि चिह्ने च रामभ्रातरि लक्षणः ॥ ७५ ॥ लक्ष्मणः पुंसि सौमित्रौ लक्ष्मणं नामलक्ष्मणोः । लक्ष्मणा सारसीज्योतिष्मत्योः श्रीमति वाच्यवत् ॥ ७६ ॥ विपणिस्तु स्त्रियां पण्यवीथ्यामापणपण्ययोः । विषाणं तु पशोः शृङ्गौ विषाणं द्विरददन्तयोः ॥ ७७ ॥ त्रिषु त्रिषु विषाणी तु मेषशृङ्गाख्यभेषजे । शरणं गृहरक्षित्रोः शरणं रक्षणे वघे ॥ ७८ ॥
[णान्तवर्गे
सिङ्घाणं काचपात्रेsपि नासिका लोहकिद्वयोः । श्रावण मास पाण्डे दध्यान्यां श्रावणा स्त्रियाम् ॥ ७९ ॥
एक
रोहिणी - कुटकी, लालसांठी, करंजुवा या रीठा, गौ, लालअरंड, प्रकारका रोग, ( स्त्री० ) लवण-जलपृथ्वीके संयोग से
पैदा
स्त्री ), मालकांगनी, ( स्त्री० ) संपत्तिवाला, ( त्रि० ) ॥ ७६ ॥ विपणि - बाजार, हाट, दूकान, (स्त्री० ) विषाण - पशुके सींग, हाथी के दांत,
(त्रि० ) ॥ ७७ ॥
होनेवाला ॥ ७४ ॥ लवण-रस-भेद, राक्षस भेद, समुद्र) भेद, (पुं० ) लवणा- कांति ( स्त्री० ) लक्षण - नाम, चिह्न, ( न० ) रामभ्राता ( लक्ष्मण ) ( पुं० ) ॥ ७५ ॥ लक्ष्मण - सुमित्राका पुत्र ( लक्ष्मण ) ( पुं० ) नाम, चिह्न, ( न० )
विषाणी - मेढासींगी औषधि (स्त्री०) शरण- घर, रक्षाकरनेवाला, रक्षा, मारना, ( न० ) ॥ ७८ ॥ नासिकाका सिङ्घाण - काका पात्र, मल, लोहेका मल, ( न० ॥ श्रावण - श्रावण मास, पाषंड, (पुं० ) लक्ष्मणा-सारसी-पक्षी ( सारसकी' श्रावणा - दधियू- वृक्ष, (स्त्री० ) ॥ ७९ ॥
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गतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः । ११३
श्रीपर्णी कुम्भिगम्भाया क्लीबं पद्माग्निमन्थयोः । सड्कीर्ण सङ्कटेऽशुद्धे सरणिः श्रेणिवर्त्मनोः ॥ ८० ॥ सारणो रावणाऽमात्येऽप्यतीसारेऽपि सारणः । सारणी खल्पसरिति प्रसारण्यां च सारणी ॥ ८१ ॥ सुपर्णः स्वर्णचूडेऽपि गरुडे कृतमालके । सुपर्णा कमलिन्यां च सुपर्णा तायमातरि ॥ ८२ ॥ सुवर्णस्तु सुवर्णालौ कृष्णाऽगुरुमखान्तरे । सुवर्ण वर्णितं स्वर्णे सुवर्ण कर्षवित्तयोः ॥ ८३ ॥ सुषेणो हरिसुग्रीववैद्ययोः करमर्दके । हरणं यौतकद्रव्येऽप्यङ्गरागे भुजे हृतौ ॥ ८४ ।। हरिणस्तु मृगे पुंसि हरिणः पाण्डुरेऽन्यवत् । हरिणी हरितामृग्योवृत्तस्त्रीभेदयोरपि ॥ ८५ ।।
श्रीपर्ण-गूगल-वृक्ष, कंभारी या| सुवर्ण-हेमपुष्पी या सोनाली-स्याह __ कुंभेर-वृक्ष, ( स्त्री० )
। अगर-वृक्ष, यज्ञभेद, (पुं०) श्रीपर्ण-कमल, अरणी-वृक्ष, ( न० )| सवर्ण-सोना, कर्ष ( सोलहमासा), संकीर्ण-संकट (सकडा-भीडा), __ अशुद्ध, (न०),
द्रव्य, (न० ) ॥ ८३ ॥ सरणि-पंक्ति, मार्ग (स्त्री.)॥४०॥ सुषेण-विष्णु, सुग्रीववैद्य, करौंदा-वृक्ष, सारण-रावणका मंत्री,अतीसार-रोग, (पुं० ) (पुं० )
हरण-वरवधूको देनेका द्रव्य, अंगसारणी-छोटी नदी, पसरनं या छुइ राग, भुज, हरना, (न० )॥८४॥
मुइ, ( स्त्री०) ॥ ८१ ॥ सुपर्ण-वाचूड-पक्षी, गरुड, अमल
हरिण-मृग, (पुं० ) पाण्डुर (श्वेत. तास-वृक्ष, (पुं० ॥
रंग ) (त्रि.) सुपर्णा-कमलिनी (कमोदनी), गरू- हरिणी-हरितरंगवाली, मृगी, छंद
डकी माता, (स्त्री.)॥ ८२ ॥ भेद, स्त्रीभेद, ॥ ८५॥
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११४
विश्वलोचनकोश:
सुवर्णप्रतिमायां च हर्षणस्तु प्रमोद के । अक्षिरोगान्तरे योगान्तरेऽपि श्राद्धदैवते ॥ ८६ ॥ स्त्री कुलस्त्रीरेणुकयोः हरेणुर्ना सतीनके । हिरणं च हरिण्यं च वराटे स्वर्णरेतसोः ॥ ८७ ॥ क्षेपणी च भवेन्नौकादण्डे जालान्तरेऽपि च ।
णचतुर्थम्
[ णान्तवर्गे
अङ्गारिणी हसन्त्यां स्याद् भास्करत्यक्तदिश्यपि ॥ ८८ ॥ आतर्पणं तु सौहित्ये मङ्गलालेपनेऽपि च । आथर्वणस्त्वथर्वज्ञद्विजन्मनि पुरोहिते ॥ ८९ ॥ आरोहणं तु सोपाने समारोहप्ररोहयोः । उत्क्षेपणं तु व्यजने धान्यमर्दनवस्तुनि ॥ ९० ॥
वान्तोन्मूलननिस्तारोन्नयेषूद्धरणं मतम् ।
अथ कामगुणो रागेऽप्याभोगे विषयेऽपि च ॥ ९१ ॥
सुवर्णकी मूर्ति, ( स्त्री० ) हर्षण --आनन्द, नेत्ररोग विशेष, हर्ष-योग, श्राद्धदैवत ( धर्मराज ) (पुं० ) ॥ ८६ ॥ हरेणु-कुलकी स्त्री, रेणुका औषधि, ( स्त्री० ) मटर - अन्न ( पुं० ) हिरण - हिरण्य - कौडी, सुवर्ण, वीर्य,
आतर्पण - तृप्ति, मंगलद्रव्यका लीपना ( न० •)
आथर्वण - अथर्ववेदका जाननेवाला
ब्राह्मण, पुरोहित, ( पुं० ) ॥ ८९ ॥ आरोहण - सीढी, चढना, बीजआदिकी उत्पत्ति, ( न० उत्क्षेपण - पंखा, धान्यको मर्दनकरनेवाली वस्तु, ( न० ) ॥ ९० ॥
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(0)
( न० ) 11 2011 क्षेपणी - नौकादंड, जालभेद, (स्त्री० ) | उद्धरण छर्द, उखाडना, उद्धार, णचतुर्थ |
ऊपरप्राप्तकरना, ( न० > अंगारिणी - सिगडी, सूर्यकी त्यागी - 1 कामगुण-राग ( रति ), आभोग हुई दिशा, ( स्त्री० ) ॥ ८८ ॥ ( परिपूर्णता ), विषय, (पुं) ॥९१॥
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णचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
कार्षापणः पुराणे स्यादस्त्रियामपि कार्षिके । चीर्णपर्णस्तु खजूंरीपादपे पिचुमर्दके ॥ ९२ ॥ चूडामणिः शिरोरत्ने काकचिञ्चाफलेऽपि च । जुहुराणोऽनलेऽध्वर्यो तण्डुरीणस्तु कीटके ॥ ९३ ॥ स्यात्तन्दुलोदके चैव याम्यदेशीयबर्बरे । तैलपर्णी मलयजे सिहश्रीवासयोरपि ॥ ९४ ॥ दाक्षायणी च दुर्गायां रोहिण्यां तारकासु च । देवमणिः शिवे वाजिकण्ठावर्ते च कौस्तुभे ॥ ९५ ॥ नारायणोऽच्युतेऽभीरुगार्योनारायणी स्त्रियाम् । गले निगरणः पुंसि भोजने तु नपुंसकम् ॥ ९६ ॥ निरूपणं विचारे स्यादालोकननिदर्शने ।
निस्तरणं स्यान्निस्तारेऽप्युपाये निर्गमेऽपि च ॥ ९७ ॥ कार्षापण-पुराना, रुपया, (पुं० दाक्षायणी-दुर्गा, रोहिणी, तारा, न० )
(स्त्री.) चीर्णपर्ण-खजूरका वृक्ष, नींबका बृक्ष, देवमणि-महादेव, घोडेके कंठकी (पुं० ) ॥ ९२)
__ भौरी, कौस्तुभ-मणि, (पुं०)॥१५॥ चूडामणि-शिरपरधारनेका रत्न, गु- नारायण-विष्णु, (पुं०)
जा-फल, (धुंघुची) (पुं०) नारायणी-सतावर-औषधि, पार्वती, जुहूराण-अग्नि, अध्वर्यु ( यज्ञकर्ममें (स्त्री.)
वराहुवा एक ब्राह्मण ) (पुं०) निगरण-गल ( कंठ) (पुं०) भो. तण्डुरीण-कीटमात्र, ॥ ९३ ॥ जन, (न०)॥ ९६ ॥
चावलोंका जल, दक्षिण देशका निरूपण-विचार, देखना, दिखाना, बोल (द्रव्य ) (पुं०)
(न०) तैलपर्णी-चंदन, हींग, देवदारकी निस्तरण-उद्धार, उपाय, निकल
धूप, (स्त्री० ) ॥ ९४ ॥ । ना, (न. ) ॥ ९७ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [णान्तवर्गेनिस्सरणं द्वारमुक्तिनिर्याणोपायमृत्युषु । परीरणः स्यात्कमठे दण्डे च पट्टशाटके ॥ ९८ ॥ पर्वरीणस्तु पर्णस्य शिरायां धूतकम्बले ।। पर्णवृन्तरसेऽपि स्यात् सितसौरभपर्वणोः ।। ९९ ॥ परवाणिस्तु कथितो धर्माऽध्यक्षेऽपि वत्सरे । त्रिषु स्यात्तत्परेऽभीष्टेऽप्याश्रये तु परायणम् ॥ १०० ।। पारायणं पारगतौ सम्यगासङ्गकाययोः । पीलुपी तु मूर्वायां बिम्बायामोषधीभिदि ॥ १०१ ॥ पुष्करिणी सरोजिन्यां हस्तिन्यां च जलाशये । स्यात्प्रतिपणः संस्कारेऽप्युपग्रहनिषङ्गयोः ॥ १०२ ॥ प्रवारणं निषेधे स्यात् काम्यदाने प्रवारणम् । वारबाणस्तु कवचे सर्वसन्नहनेऽपि च ॥ १०३ ॥
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निस्सरण-दरवाजा, मुक्ति, निक- पारायण-पारगति (पारगमन ), ___ लना, उपाय, मृत्यु, ( न०) अच्छीतरह संग, संपूर्णता (न०) परीरण-कछुवा, छडी, पाटकी साडी पीलुपर्णी-मूर या मोरबेल, चुरनहार,
या धोती (पुं० ) ॥ ९८ ॥ मरोरफली, औषधीभेद ( स्त्री.) पर्वरीण-पत्तेकी नसे, जूवाका कंबल, ॥१०१ ॥
पत्तोंके नाकुवोंका रस, सफेद बोल पुष्करिणी-कमलिनी (कमोदनी), औषधि, पर्व (पोरी) (पुं० ) हस्तिनी, सरोवर, ( स्त्री०)
प्रतिपण-संस्कार, उपग्रह, बाणोंका परवाणि-धर्मका अध्यक्ष (खामी), तरकस (पुं० ) ॥ १०२॥ संवत्सर (पुं०)
प्रवारण-वर्जना, यथेच्छदान, (न०) परायण-तत्पर, वांछित, आश्रय, वारबाण-कवच, अँगरखा, (पुं०)
(त्रि०)॥ १०.॥
॥ १०३ ॥
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चतुर्थम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
मीनाीणो मतः पुंसि दर्दराग्रेऽपि खञ्जने । रक्तरेणुस्तु सिन्दूरे पलाशकलिकोद्भवे ॥ १०४ ॥ रागचूर्णः स्मरे रक्तवालुके दन्तधावने । रेरिहाणः पशुपतौ रेरिहाणो विहायसि ॥ १०५ ॥ लम्बकर्णो मतरछागे स्यादङ्कोरमहीरुहे । अस्त्री विदारणं युद्धे भेदने च विडम्बने ॥ १०६ ॥
भवेद्वैतरणी प्रेतनद्यां राक्षसमातरि । शरवाणिः शरमुखे पापिष्ठे शरजीविनि ॥ १०७ ॥ स्त्रियां शिखरिणी वृत्तभेदे तक्रप्रभेदयोः । स्त्रीरत्ने मल्लिकायां च रोमावल्यामपि स्मृता ॥ १०८ ॥
समीरणः स्यात्पवने प्रस्थपुष्पकपान्थयोः । संसरणं स्यात्संसारे पुरनिर्गमगोपुरे ॥ १०९ ॥
मीनाम्रीण - दर्दराम्र-वृक्ष,
पक्षी, (पुं० )
खंजन | वैतरणी-प्रेतनदी,
( स्त्री० ) रक्तरेणु-सिंदूर, ढाकके फूलकी कली, | शरवाणि-शर बाणका मुख, पापी, (go) 11 908 11 बाणबनानेवाला, (पुं० ) ॥ १०७ ॥ रागचूर्ण - कामदेव, लालबाल, दां- शिखरिणी-छंदभेद, तक्रभेद, स्त्रीतोंका मंजन (पुं० ) रत्न, मल्लिका ( कुडावृक्ष ), रोमावली, ( स्त्री० ) ॥ १०८ ॥ समीरण- वायु, मरुवा, पांथ (बटेऊ ) ( पुं० ) संसरणं - संसारपुर से निकलना, पुर
रेरिहाण - महादेव, आकाश ( पुं० )
दरवाजा ॥ १०९ ॥
॥ १०५ ॥
लंबकर्ण - बकरा, पिस्ताका वृक्ष, (पुं० ) विदारण - युद्ध, फाडना, निरादरकरना ( न० ) ॥ १०६ ॥
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राक्षसमाता,
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११८
विश्वलोचनकोशः- [णान्तवर्गेघण्टापथे रणारम्भेऽप्यसंबाधचमूगतौ । हस्तिकर्णोऽयमेरण्डे पलाशगणभेदयोः ॥ ११० ॥
णपंचमम् ।। अवग्रहणमाख्यातं प्रतिरोधेऽप्यनादरे । अथाऽवतारणं भूताद्यावेशेप्यम्बरेऽर्चने ॥ १११ ॥ आख्येयभागेऽध्याहारग्रन्थे स्यादवतारणा । निन्दोपालम्भनियमाऽलापेषु परिभाषणम् ॥ ११२ : प्रविदारणमित्येतत्सम्मतं दारणे रणे । मण्डूकपर्णः स्योनाकेऽप्यलके च कपीतने ॥ ११३ ॥ मण्डूकपर्णी मञ्जिष्ठाब्राह्मीगोजिबिकास्वपि । स्यान्मत्तवारणः पुंसि मददुर्दान्तवारणे ॥ ११४ ॥ क्लीबं प्रासादवीथीनां वरण्डे चाप्यपाश्रये । विभीतकतरौ पुंसि रोमाञ्चे रोमहर्षणम् ॥ ११५ ॥
राजमार्ग, रणका आरंभ, नहींरु- ! प्रविदारण-विदीर्णकरना, रण,(न०) __ कनेवाली सेनाकी गति, (न.) मण्डूकपर्ण-सोनापाटा, सफेदआक, हस्तिकर्ण-अरंड, ढाक, गणभेद, पारिसपीपल, (पुं० )॥ ११३ ॥ (पुं०)॥ ११० ॥
मण्डूकपर्णी-मँजीट, ब्राह्मी, गोभी णपंचम ।
(स्त्री० ) अवग्रहण-रोकना, अनादर, (न०)| मत्तवारण-मदसे उन्मत्त हस्ती, अवतारण-भूतआदिका प्रवेश, वस्त्र, (पुं०)॥ ११४ ॥
पूजन, (न० ) ॥ १११ ॥ मत्तवारण-महल की गलियोंमें कुंदअवतारणा-कहनेयोग्य भाग, अध्या- आदिफुलवादकी बाड़, आश्रयरहित,
हारकियाहुवा ग्रंथ, (स्त्री०) (न० ) परिभाषण-निंदासहित उलाहना, रोमहर्षण-बहेडाका वृक्ष, रोमपुलनियम, संभाषण, (न०) ॥११२॥ कावली, (न०)॥ ११५ ॥
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तद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
वातरायण उन्मत्ते मतः कूटे च मार्गणे । शरसंक्रमणे किञ्चित्करेपि करपत्रके ॥ ११६ ॥
णषष्ठम् । वयःसंधौ च गर्भे च भवेदोहदलक्षणम् । पयोधरे च लावण्ये मतं यौवनलक्षणम् ॥ ११७ ॥
इति विश्वलोचने णान्तवर्गः ॥
अथ तान्तवर्गः।
तैकम् । पालने पालके तः स्यात्तुश्चौरक्रोडपुच्छयोः ।
तद्वितीयम् । अन्तं विशुद्धे व्याप्ते स्यादन्तो नाशे मनोहरे ॥ १॥ खरूपेऽन्तं मतं क्लीबं न स्त्री प्रान्तेऽन्तिके त्रिषु ।
अतिः पीडाधनुष्कोट्योरस्तः प्रत्यङ्महीधरे ॥२॥ वातरायण-उन्मत्त, मायावी आदि, अथ तान्तवर्ग। बाण, बाणोंका छाना, निष्प्रयोजन
तैक। मनुष्य, करोंत, (पुं० ) ॥ ११६ ॥ त( कार )-पालनकरना, पालनकरने
| वाला, (पुं) षष्ठम् ।
तु-चोर, छाती, पूँछ, (पुं० ) दोहदलक्षण-अवस्थाकी संधि, गर्भ,
तद्वितीय। (न.)
अन्त--विशुद्ध, व्याप्त, (न० ) गौरतल -कच (पी) संदर- अन्त-नाश, सुंदर, (पुं० )॥ १ ॥ ता, (न०) ॥ ११७ ॥
|अन्त-खरूप, (न०) प्रान्त, (पुं०
_ न०) समीप, (त्रि.) इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें
| अर्ति-पीडा, धनुषकी ज्या, ( स्त्री०) णान्तवर्ग समाप्तहुवा ॥
| अस्त-प्रत्येकका पूजन करनेवाला, पर्व। त, (पुं० ) ॥ २॥
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विश्वलोचनकोशः- [ तान्तवर्गेत्रिषु क्षिप्ते गतेऽप्यस्तमाप्तः सत्यगृहीतयोः । आप्तिः संवरणे प्राप्तौ विज्ञातगतयोर्गतम् ॥ ३ ॥ ईतिः स्यादतिवृष्टयादिषटे डिम्बप्रवासयोः।। उक्तमेकाक्षरच्छन्दस्युक्तस्तु त्रिषु भाषिते ॥ ४ ॥ स्फूर्तिरक्षणयोरूतिर्ऋतमुञ्छशिले जले । मतं त्रिलिङ्गकं सत्ये गतौ दीप्तेऽभिपूजिते ॥ ५ ॥ ऋतिर्गतौ जुगुप्सायां स्पर्द्धायामप्यमङ्गले । ऋतुः स्यादातवे वीरे वसन्तादिषु मासि च ॥ ६ ॥ एतस्तु कर्बुरे वाच्यलिङ्गः स्यादागतेऽपि च । शोभाऽभिलाषयोः कान्तिः कान्तो रम्ये प्रिये त्रिषु ॥ ७ ॥ कान्तोऽश्मनि पुमान्कान्ता प्रियङ्गौ नायिकान्तरे । कीर्तिर्यशसि विस्तारे प्रसादेऽपि च कर्दमे ॥ ८ ॥
अस्त-फेंकाहुवा, गयाहुवा, (त्रि०) गयाहुवा, दीप्त, अभिपूजित, आप्त-सत्य, ग्रहणकियाहुवा, (पुं० ) ((त्रि. ) ॥ ५॥ आप्ति-ढकना, प्राप्ति, ( स्त्री०) ऋति-निंदा, वैर, अमंगल, (स्त्री० ) गत-जानाहुआ, गयाहुवा, (न०) ऋतु-स्त्रीका रज, वीर, वसन्तआदि
ऋतु, कान्ति, (पुं० )॥ ६ ॥ ईति-अतिवृष्टि आदि छह, लूटना एत-चित्रित, आयाहुवा (त्रि.) __ आदिसे पीडा, मुसाफिरी, (स्त्री०) कान्ति-शोभा, अभिलाषा, (स्त्री०) उक्त-एकअक्षरका छंद, ( न०) कान्त-सुंदर, प्रिय, (त्रि. ) ॥७॥ उक्त-कहाहुवा (त्रि०)॥ ४ ॥ कान्त-पत्थरभेद, कंगुनी धान्य, ऊति-स्फूर्ति, रक्षा, (स्त्री०) (पुं०) नायिका, ( स्त्री०) ऋत-उंछशिल (खामीकाछोडाहुवा कीर्ति-यश (जश), विस्तार, प्रसाद,
अनका लेना,) जल, (न०) सत्य, कीच ( स्त्री० ) ॥ ८॥
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तद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः
कुन्तो गवेधुके प्रासे दण्डभावेऽल्पजन्तुषु । कुन्ती स्यात्पाण्डुकान्तायां शल्लक्यां गुग्गुलुढुझे ki k कृतिर्वधेऽपि करणे क्लीबं सत्ययुगे कृतम् । त्रिषु हिंसितपर्याप्तविहिते निष्फलेऽव्ययम् ॥ १० ॥ कृत्तं तु कथितं छिन्ने वेष्ठितेऽप्यभिधेयवत् । कृत्तिस्त्वक्चर्मभूर्जेषु कृत्तिकायां च कीर्तिता ॥ ११ ॥ केतुर्ग्रहान्तरोत्यातद्युतिलक्ष्मध्वजादिषु । क्रतुर्यज्ञे मुनर्भेदे गतं स्याज्जातयादसोः ॥ १२ ॥ गतिर्दशायां गमने ज्ञाने माऽभ्युपाययोः । नाडीव्रणे सरण्यां च गतिर्जन्मान्तरेऽपि च ॥ १३ ॥ गर्तस्त्रिगर्त्तदेशे स्याद् भूश्वभ्रेऽपि कुकुन्दरे । गातुर्गन्धर्वरोलम्बरोषणे कोकिलापतौ ॥ १४ ॥
कुन्तलगेरू, फरसा, दण्ड, भाव, अल्प केतु-केतुग्रह, उत्पात, कान्ति, चिह्न, __ जन्तु, (पुं० )।
। ध्वजआदि, (पुं०) कुन्ती-पांडुराजाकी स्त्री, सलई-वृक्ष, क्रतु-यज्ञ, एकमुनि, (पुं० ) । गूगल-वृक्ष, ( स्त्री० ) ॥ ९॥ गत-उत्पन्नहुवा, जलजन्तु, (न० ) कृति-मारना, करण, ( स्त्री०) ॥ १२ ॥ कृत-सत्ययुग (न०)
गति-दशा, गमन, ज्ञान, मर्म, उपाय, कृत्त-हिंसित, परिपूर्ण, विधानकिया- नाडीछिद्र, मार्ग, जन्मान्तर, हुवा, (त्रि०)
(स्त्री० ) ॥ १३ ॥ कृतं-निष्फल, ( अव्य.) ॥ १०॥ गर्त-त्रिगर्तदेश, पृथ्वीका छिद्र कृत्त-छिन्न, ( कटाहुवा), लपेटाहु- (गड्ढा ), नितम्ब ( चूतड़ ) का वा, (त्रि.)
में गड्डा, (पुं०) कृत्ति-त्वचा, वृक्षका बक्कल, भोजपत्र, गातु-गंधर्व, मर, क्रोधि, कोकिल,
कृत्तिका-नक्षत्र, (स्त्री) ॥ ११॥ ! (पुं०) ॥ १४ ॥
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१२२
विश्वलोचनकोश:- [तान्तवर्गेगीतिश्छन्दोन्तरे ज्ञाने गीतं गाने च शब्दिते । गुप्तस्तु रक्षिते गूढे वृषले चन्द्रपूर्वकः ॥ १५ ॥ गुप्तिः कारागृहे गर्ते गोपाये रक्षणे युगे । ग्रस्तं ग्रासीकृतेऽपि स्याल्लुप्तवर्णपदोदिते ॥ १६॥ घातः प्रहारे काण्डे च घृतं दीप्ताज्यवारिषु । चितिः समूहे चित्यायामुपादुपचये चितिः ॥ १७ ॥ चितः कूटीकृतेऽपि स्याच्चिता संहतिचित्ययोः । चिता छन्ने चुल्लिकायां जातं जन्मौघजन्तुषु ।। १८ ॥ जातिः सामान्यमालत्योश्छन्दोभिद्गोत्रजन्मसु । तातोऽनुकम्प्ये जनके तिक्तो रससुगन्धयोः ॥ १९ ॥ तिक्ता तु कटुरोहिण्यां तिक्तं पर्यटके मतम् ।
त्रेता युगऽग्नित्रितये दत्तं विश्राणितेऽविते ॥ २० ॥ गीति-छन्दका भेद, ज्ञान, ( स्त्री०) चिता-समूह, चिता (मुर्दाजलाने के गीत-गाना,शब्दित (शब्दयुक्त)(न०) लिये चिनाहुवा काष्टढेर), (स्त्री०) गुप्त-रक्षाकियाहुवा, गूढ ( पुं० ) चिता-आच्छादित, सिगडी, (त्रि.) चंद्रगुप्त-शूद, (पुं० ) ॥ १५॥ जात-जन्म, समूह, जन्तु, ( न०) गुप्ति-बंदीखाना, गड्डा, गुप्तकरना, ॥१८॥ __ रक्षाकरना, युग, ( स्त्री. ) जाति-सामान्य, चमेली, छंदोभेद, ग्रस्त-ग्रास कियाहवा. लप्त वर्ण! गोत्र, जन्म, (स्त्रा० ) पद जिसमें ऐसा उच्चारण, (न.)
तात-जिसपर दयाकरीजातीहै वह,
पिता, (पुं०)
तिक्त-कसैलारस, सुगन्ध, (पुं०) १९ घात-प्रहार (मारना), दण्ड, (पुं०) तिक्ता-कुटकी, ( स्त्री० ) घृत-दीप्त, घृत (घी), जल, (न०) तिक्त-पित्तपापडा, (न०) चिति-समूह, चिता,
त्रेता-नेता-युग, तीन अग्नि, (स्त्री०) उपचिति-वृद्धि, ( स्त्री० ) ॥१७॥ दत्त-दानकियाहुवा, रक्षाकियाहुवा चित-ढेरकियाहुवा, ( पुं०)
(न०)॥ २० ॥
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तद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
१२३ दन्तः कुञ्ज रदे सानौ दन्ती स्यादौषधीभिदि । दान्तस्त्रिषु तपःक्लेशसहेऽपि दमितेऽपि च ।। २१ ॥ दितिर्दनौ खण्डने च दीप्तं ज्वलितदग्धयोः । त्रिषु निर्वासितेऽपि स्यादृतिश्चर्मपुटे कषे ।। २२ ॥ दृप्तो निवारिते शक्ते द्युतिर्दीधितिशोभयोः । द्रुतं शीधे च विद्राणे विलीने शीघ्रगे त्रिषु ॥ २३ ॥ धाता तु ब्रह्मणि रवौ त्रिषु स्यात्परिपालके । धातुः क्रियार्थे शुक्रेपि विषयेष्विन्द्रियेषु च ॥ २४ ॥ श्लेष्मादिरसरक्तादिभूतादिवसुधादिषु ।। मनःशिलादिके लोहे विशेषाद्वैरिकेस्थिनि ॥ २५ ॥ धुतं विधूते त्यक्ते च धूतः कम्पितभत्सिते ।
धूर्त तु खण्डलवणे धत्तूरे नाविटे त्रिषु ॥ २६ ॥ दन्त-कुञ्ज (लताआदिकीकुटी), द्रुत-शीघ्र (जल्दी ), पिघलना,
दात, पर्वतका निकलाहुवा भाग, (न०) विलीन (मिलजाना), (पुं०)
शीघ्र गमन करनेवाला, (त्रि.) दन्ती-जमालगोटाकी जड़, (स्त्री०) ॥ २३ ॥ दान्त-तप क्लेशको सहनेवाला, दमन-धाता-ब्रह्मा, सूर्य, (पुं० ) पालना
कियाहुवा, (पुं०) ॥ २१ ॥ करनेवाला, (त्रि.) दिति-दैत्योंकी माता, खंडनकरना, धातु-क्रियार्थ, शुक्र, विषय, इंद्रिय२४ (स्त्री.)
कफ आदि, रसरक्तआदि, पंचमदीप्त-देदीप्यमान, दग्ध, निकासा- हाभूतआदि, पृथ्वीआदि, मनसि___ हुवा, (त्रि.)
लआदि, लोह, गेरू (विशेषकरके), दृति-चर्मकी डोली, कसौटी, (स्त्री०) अस्थि (हड्डी) (पुं०)॥२५॥ ॥ २२ ॥
धुत-कॅपायाहुवा, त्यागाहुवा, (त्रि.) दृप्त-निवारण कियाहुवा, समर्थ, (पुं०) धूत-कपायाहुवा, झिडकाहुवा,(त्रि०) द्युति-किरण-सूर्यआदिकी, शोभा, धूर्त-बिरियासंचर-नोंन (न०), धतूरा, (स्त्री.)
(०) कामी, (त्रि. ) ॥ २६ ॥
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१२४
विश्वलोचनकोशः- [ तान्तवर्गेधृतिर्धारणसंतुष्टिधैर्ये योगान्तरेऽध्वरे । नतस्तगरवृक्षे स्यात् कुटिलानतयोस्त्रिषु ॥ २७ ॥ नीतिये प्रापणे च नृत्तः स्यान्नर्तने क्रिमौ । पक्तिः स्त्री गौरवे पाके पङ्किः श्रेणौ दशवपि ।। २८ ॥ स्वादशाक्षरवृत्तेपि स्त्रिया मूल्ये गतौ पतिः । पत्तिः पदातौ वीरे ना गतौ सेनान्तरे स्त्रियाम् ॥ २९ ॥ पातस्तु पतने त्राते पीतमाचान्तगौरयोः । त्रिषु पीता तु पर्णिन्यां पीतं पाने नपुंसकम् ॥ ३० ॥ पीतिः पाने सपूर्वा तु सहपाने हये पुमान् । पुस्तं तु पुस्तके क्लीबं विज्ञाने लेप्यकर्मणि ॥ ३१ ॥ पूतं पवित्रे शब्दे च त्रिषु स्याबहुलीकृते ।
पूरितच्छन्नयोः पूर्त्त पूर्त खातादिकर्मणि ॥ ३२ ॥ धृति-धारणा, संतोष, धैर्य योगभेद, पीत-आचमन किया हुवा, गौर यज्ञ, (स्त्री०)
(पीला) (त्रि०) नत-तगर-वृक्ष, (पुं० ) कुटिल, नम्र-पीता-मखवन-औषधि, (स्त्री.)
पुरुष, ( त्रि०)॥ २७ ॥ पीत-पीना, (न. ) ॥ ३० ॥ नीति-न्याय, प्राप्तकरना, (स्ना० ) पीति-पीना, नृत्त-नृत्यभेद, क्रिमि, (पुं० )
सपीति-संगमें पीना (स्त्री० ) अश्व, पक्ति-गौरव, पाक, ( स्त्री० ) पंक्ति-श्रेणि (पंक्ति), दश-संख्या,
॥२८॥ दशअक्षरवाला छंद,(स्त्री०) पुस्त-पुस्तक, शिल्प ( कारीगरी), पति-स्त्रीका मूल्य, गति, (स्त्री) लेप्यकर्म, (न० ) ॥ ३१ ॥ पत्ति-पयादा सिपाही, शूरवीर, (पुं०) पूत-पवित्र, शब्दित, (न.) ब ___ गमन, सेनाभेद, (स्त्री०)॥ २९ ॥ ढायाहुवा, ( त्रि०) पात-पड़ना, (पुं० ) रक्षाकियाहुवा, पूर्त-पूरित, आच्छादित, (त्रि.) (त्रि.)
} खोदनाआदिकर्म, (न०) ॥ ३२ ॥
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तद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः । १२५ पोतो बाले बहित्रे च प्रातिः पूर्तिप्रदेशयोः । प्राप्तिमहोदये लाभ प्राप्तं लब्धसमञ्जसे ॥ ३३ ॥ प्रीतिः स्मरसुतायोगभेदयोः प्रेममोदयोः । हर्षिते नर्मणि प्रीतं प्रेतो भूतान्तरे मृते ॥ ३४ ॥ प्रोतं तु ग्रथिते वस्त्रे प्लतस्तु स्यात्रिमातृके । प्लतमश्वस्य गमने प्लतं सप्तवने त्रिषु ॥ ३५॥ भक्तिर्विभागे सेवायां भर्ताखामिनि धारके । भित्तिः कुड्ये च काशे च प्रदेशे भेदभागयोः ॥ ३६ ।। भीतं भयेऽपि सभये भीतिः साध्वसकंपयोः । अथ भृतः पुमान्देवयोनिभेदेऽपि देवले ॥ ३७ ॥ त्रिषु प्राप्ते विवृत्तेच भूतं स्यान्याय्यसत्ययोः । उपमाने पृथिव्यादौ पिशाचादौ समे त्रिषु ॥ ३८ ॥
पोत-बालक, नौका या जिहाज,(पुं०): भक्ति-विभाग, सेवा, ( स्त्री.) प्राति-पूर्ति, प्रदेश, ( स्त्री०) भर्ता-खामी, धारणकरनेवाला, (पुं०) प्राप्ति-महान् उदय ( भाग्योदय ), भित्ति-दीवार, काश, प्रदेश, भेद, __ लाभ, (स्त्री.)
____ भाग, (स्त्री० ) ॥ ३६ ॥ प्राप्त-लब्धहुवा, उचित (न०)॥३३॥ भीत-भय, (न०) डराहुवा, (त्रि.) प्रीति-कामदेवकी पुत्री, योगभेद, भीति-भय, कंप, (स्त्री०) प्रेम, आनंद, (स्त्री०)
भृत-देवयोनिभेद, देवल ( देवसेवाप्रीत-आनंदित, दहा, (न०) से आजीवन करनेवाला ) (पुं०) प्रेत-भूतान्तर, मृतक, (पुं०) ॥३४॥ ॥३७॥ प्रोत-Dथाहुवा, वस्त्र, (न०) भूत-प्राप्तहुवा, बदीतहुवा, न्यायप्लुत-तीनमात्रावालावर्णोच्चारण, (पुं०) युक्त, सत्य, उपमान, पृथिवीआदि, अश्वकी गति, सप्तवन ( त्रि०) पिशाचआदि, सम (तुल्य ) (त्रि.)
} ॥३८ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [ तान्तवर्गेभूतिआतङ्गशृङ्गारे भस्मसम्पत्तिजन्मसु । भृतिस्तु भरणे ख्याता तथा वेतनमूल्ययोः ॥ ३९ ॥ भ्रान्तिः स्याद्भमणेऽपि स्यान्मतौ वाऽप्यनवस्थितौ । मतोऽर्चितेऽप्यनुमते मतिर्बुद्धौ स्मृतीच्छयोः ॥ ४०॥ मन्तुः स्यादपराधेऽपि मानवे परमेष्ठिनि । माता ब्राहयादिगोकादिप्रसूगौरीष्वपि क्षितौ ।। ४१ ॥ त्रिषु स्यान्मापके माता गीताध्यक्षे प्रपूर्वकः । मितिर्मानेऽप्यवच्छेदे मुक्तिर्मोक्षेऽपि मोचने ॥ ४२ ॥ मुक्तो मोक्षगतेऽप्युक्तस्त्रिषु मुक्ता तु मौक्तिके । मूर्त्त मूर्त्यन्विते मूर्छाऽन्विते काठिन्यवत्यपि ॥ ४३ ।। मूर्तिः कायेऽपि काठिन्ये मृत्युयाचितयोर्मतम् । मृतं मृत्युपरिप्राप्ते विज्ञेयमभिधेयवत् ॥ ४४ ॥
भूति-हस्तीका शृङ्गार, भस्म, सम्पत्ति, प्रमाता-प्रमाणकरनेवाला, गीतआदि. जन्म, (बी.)
। का अध्यक्ष, (त्रि.) भति-पोषण, नौकरी, मूल्य, (स्त्री०) मिति-मान ( मापना), अवच्छेद
(विश्राम), (स्त्री.) भ्रान्ति-बुद्धिविषै भ्रम,एकजगह नही- मुक्ति-मोक्ष, छुटना, (स्त्री०) ॥४२॥
मुक्त-मोक्षको प्राप्तहुवा, छुटाहुवा, __ ठहरना (स्त्री०)
(त्रि०) मत-पूजित, संमत, (पुं०)
मुक्ता-मोती (स्त्री०) मति-बुद्धि, स्मृति, इच्छा, (स्त्री०) ४० मत-मूर्तिमान, मूर्छित, काठिन्यवामन्तु-अपराध, मनुष्य, ब्रह्मा, (पुं०) ला (त्रि.)॥ ४३ ॥ माता-ब्राह्मी माहेश्वरीआदि, गौआ- मूर्ति-शरीर, काठिन्य, ( स्त्री. )
दि, जननी (माता), गौरी, पृथ्वी, मृत-मृत्यु, याचित, (न०) मृत्युको (स्त्री०) ॥ ४१ ॥
| प्राप्त, (त्रि.) ॥ ४४ ॥
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तद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
यतिर्यतिनि पुंसि स्त्री पाठभेदनिकारयोः । यन्ता सादिनि सूते च निपूर्वोऽसौ नियामके ॥ ४५ ॥ युक्तं स्यादुचिते युक्तं संयुतेऽप्यभिधेयवत् । युक्तिनियोजने न्याये पृथक्संयुक्तयोर्मतम् ॥ ४६ ॥ युतं हस्तचतुष्केऽपि संख्याभेदे नपूर्वकम् । रक्तोनुरके नील्यादिरञ्जिते लोहितेऽन्यवत् ॥ ४७ ॥ रिक्तं शून्ये वनेऽपि स्यादशरीतिर्गिरां पथि । रीतिः स्यन्दे प्रचारे च लोहकिट्टारकूटयोः ॥ ४८ ॥ लता तु माधवीवल्लीशाखास्पृक्काप्रियङ्गुषु । लता कस्तूरिकाज्योतिष्मतीदूर्वासु च स्मृता ॥ ४९ ॥ लिप्तं विलेपिते भुक्ते विषाक्तविशिषादिषु । लूता पिपीलिकायां स्यादूर्णनाभे गदान्तरे ॥ ५० ॥
यति-संन्यासी अथवा मुनि, (पुं० ) पाठका विश्राम, अनादर, (स्त्री० ) यन्ता - सवार, सारथि,
|
नियन्ता - प्रेरणेवाला, (पुं० ) ॥४५॥ युक्त - उचित, संयुक्त, (त्रि०) युक्ति- :-लगाना, न्याय, अलग कियाहुवा, ( स्त्री० ) ॥ ४६ ॥
युत-चार हाथप्रमाणवाला, अयुत - संख्याभेद ( दशहजार )
( न० )
रक्त- आसक्त, नीलीआदिसे रंगाहुवा, लालरंगवाला ( त्रि० ) ॥ ४७ ॥
१२७
>>
रिक्त-शून्य, वन, ( न० रीति- झिरना, प्रचार, लोहेका मैल, पीतल ( स्त्री० ) ॥ ४८ ॥
लता - माधवीलता, बेल, शाखा वृक्षकी, असवरग, कंगुनीधान्य, कस्तूरी, मालकांगनी, दूब, (स्त्री० ) ॥४९॥ लिप्त-लेपकियाहुवा, भुक्त ( खायाहुवा, विषसे लिप्त किया बाणआदि, ( त्रि० ) लूता - चीटी, ( स्त्री० ) ॥ ५० ॥
मकड़ी, रोगविशेष,
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विश्वलोचनकोशः- [ तान्तवर्गलोप्तं तु चोरिते बाष्पे वक्ता वाग्मिनि पण्डिते । वप्ता पितरि तन्तूनां वापके बीजवापके ॥ ५१ ॥ वर्तित्रानुलेपन्यां वर्तिीपदशासु च । दीपे भेषजनिर्माणे लोचनाञ्जनलेखयोः ॥ ५२ ॥ नीरुग्वृत्तिमतोर्वार्ता वार्त्तमारोग्यफल्गुनोः वार्ता कृष्यादिवृत्तान्तवार्ताकीवृत्तिषु स्थिता ॥ ५३ ॥ वित्तं तु विभवे ज्ञातख्यातलव्धविचारिते । वित्तिर्ज्ञानेपि लाभेऽपि विचारे सम्भवेऽपि च ॥ ५४ ॥ वीतं त्वसारहस्त्यश्वे त्यक्तेप्यङ्कुशकर्मणि । वीतिस्त्यागे गतौ दीप्तौ प्रजने धावनेऽशने ॥ ५५ ॥ वृत्तिः प्रवृत्तौ वृत्तौ च कौशिक्यादिप्रवर्त्तने । वृत्तस्तु वर्तुलेऽतीते मृते ख्याते दृढे वृते ॥ ५६ ॥
लोप्त-चोराहुवा, वाष्प (बाँफ)(त्रि.) वित्त-धन, जानाहुवा, विख्यात, वक्ता-बहुतबोलनेवाला, पंडित,(पुं०)! प्राप्तहुवा, विचाराहुवा (त्रि.) वप्ता-पिता, कपड़ाबुननेवाला, बीज- वित्ति-ज्ञान, लाभ, विचार, सम्भव, ___ बोनेवाला, (पुं०) ॥ ५१ ॥ (स्त्री० ) ॥ ५४ ॥ वर्ति-शरीरपर कुछ लगाकर उतारा- वीत-साररहित हस्ती व अश्व, त्यागाहुवा लेप, दीपककी बत्ती, दीपक, हुवा, अंकुशकर्म,
औषधिकी बत्ती, नेत्र, अंजनकी वीति-त्याग, गति, दीप्ति, गर्भग्रहण, रेख, ( स्त्री०) ॥ ५२ ॥
धोना, भोजन, (स्त्री० )॥ ५५ ॥ वार्त-रोगरहित, वृत्तिवाला, (त्रि०) वृत्ति-प्रवृत्ति, आजीविका, नाटककी आरोग्य, तुच्छ, ( न०)
एकवृत्ति, (स्त्री० ) वार्ता-कृषिआदि, वृत्तान्त, बडीकटे- वृत्त-गोलआकार, बदीतहुवा, मृत,
हली, वृत्ति (वर्तना) (स्त्री.) विख्यात, दृढ, वृत ( वरणकिया) ॥ ५३ ॥
(त्रि.)॥ ५६ ॥
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द्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
१२९ त्रिषु वृत्तं तु चरिते वृत्तं छन्दसि वर्तते । वृतिर्विवरणे वाटे वेष्टिते वरणे वृतम् ॥ ५७ ॥ वृन्तं प्रसवबन्धेऽपि कुचाग्रे घटधारयोः । शस्तं क्षेमे प्रशस्ते च शातः शकुनिशातयोः ।। ५८ ॥ शातं शर्मणि शान्तस्तु रसे दान्तेऽपि मुक्तके । शान्तिः शमेऽपि कल्याणे शास्ता शासकबुद्धयोः ॥ ५९ ॥ शितः कृष्णे सिते भूर्जे शितं शकुनिशान्तयोः । वानीरबहुवारे च शीतः शीतं तु चन्दने ॥ ६०॥ हिमसम्भूतजाड्येऽपि शीतलालसयोस्त्रिषु ।
शुक्तिः शङ्खनखे शके मुक्तास्फोटेऽपि कम्बुनि ॥ ६१ ।। .--..- .. --...... .. ........ - वृत्त-चरित, छंद, ( न० ) शान्ति-मनका जीतना, कल्याण, वृति-विवरण (व्याख्या), वाट (बाड़)। (स्त्री० ) (स्त्री०)
शास्ता-शिक्षाकरनेवाला, बुद्ध-देव वत-लपेटाहवा, आच्छादित किया- (पु० ) ॥ ५९ ॥ __ हुवा, (न० ) ॥ ५७ ॥ शित-काला, सफेद, (नि० ) भोवृन्त-पुष्पआदिका नाकू, कुचाका
___ जपत्र (पुं०) अग्रभाग, घटकी धारा ( न०)
| शित-पक्षी, दुर्बल, (पुं०) शस्त-कुशल, ( न० ) श्रेष्ठ, (त्रि.) शात-बत, बहुतबार, (पु.)
शीत-चंदन, (न०) ॥ ६ ॥ शात-पक्षी, शान्त-मनुष्य, (पुं० )
___बरफ ठंढा (न०) आलस्यवाला, ॥५८॥
(त्रि.) शात-कल्याण, (न०)
शुक्ति-सँखला, शंख, (पुं० ) शान्त-शान्त-रस, इंद्रियोंका जीतने- कपालकी हड़ी, सीपी, शंख, वाला, मुक्त, (पुं० ) । (स्त्री०)॥६१ ॥
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१३० विश्वलोचनकोशः
तान्तवर्गेदीर्घकोशीहयावर्ते कपालशकले स्त्रियाम् । शुक्तोऽम्ले कर्कशे पूते शास्त्रावधृतयोः श्रुतम् ॥ ६२ ॥ श्रुतिः श्रोत्रे च वेदे च वार्तायां श्रौतकर्मणि । श्वेतं रूप्यं त्रिषु सिते श्वेतो द्वीपाद्रिभेदयोः ॥ ६३ ॥ श्वेता वराटिकायां स्याच्छडिन्यां काष्ठपाटलौ । सत्साधौ विद्यमानेऽपि प्रशस्ते पूजिते त्रिषु ॥ ६४ ॥ सती साध्वीचण्डिकयोः सत्तु सत्येऽभिधेयवत् । सातिर्दानेवसानेऽपि सितं श्वेतसमाप्तयोः ।। ६५ ।। त्रिषु ज्ञातेऽपि बद्धेऽपि शर्करायां सिता मता । सीता तु जानकीव्योमगङ्गालाङ्गलवम॑सु ॥ ६६ ॥ सुतस्तु पार्थिवे पुत्रे सुप्तिर्विश्वासघातिनि । खापे स्पर्शाज्ञतायां च सुखखापे सुपूर्विका ॥ ६७ ॥ जलजन्तु, घोडेकी भौरी, कपालका सती-श्रेष्ठ स्त्री, चण्डिका, (स्त्री० ) खंड, (स्त्री)
सत्-सच्चा पुरुषआदि (त्रि.) शुक्त-खट्टा, कठोर, पवित्र, (पुं० ) श्रुत-शास्त्र, श्रवणकियाहुवा, (न०)
साति-दान, अन्त, ( स्त्री० )॥६५॥ ॥६२ ॥
सित-सफैद, समाप्त, जानाहुवा, श्रुति-कान, वेद, वार्ता, श्रौतकर्म बँधाहुवा, (त्रि.)
(वेदविहित कर्म ), (स्त्री०) । सिता-मिसरी (स्त्री०) श्वेत-चांदी, ( न० ) सफेद (त्रि०)! श्वेत-श्वेतद्वीप, पर्वतभेद, (पुं० )
सीता-जानकी, आकाशगंगा, हलसे
1 कीहुई पृथ्वीमें लकीर,(स्त्री०)॥६६॥ श्वेता-कौडी, चोरपुष्पी (चोरड्ली), सुत-राजा, पुत्र, (पुं०)
अगर, पाढर-पुष्पवृक्ष, ( स्त्री०) सुप्ति-विश्वासघाती, (पुं० ) सोना, सत्-साधु विद्यमान, श्रेष्ठ, पूजित स्पर्शका अज्ञान, सुषुप्ति-सुखपूर्वक (त्रि.)॥६४ ॥
। सोना ( स्त्री० ) ॥ ६ ॥
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तद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
सूतस्तु पारदे तक्ष्णि सूतः सारथिबन्दिनोः । प्रसूते प्रेरिते सूतः क्षत्रियाद् ब्राह्मणीसुते ॥ ६८ ॥ सृतिः स्त्री गमने मार्गे कुपूर्वा निकृतौ सृतिः । सेतु लौ च वरुणे स्थितमूद्धेऽपि संस्थिते ॥ ६९ ॥ निश्चिते सप्रतिज्ञेऽपि गत्यभावे तु न द्वयोः । मर्यादायामवस्थाने स्थाने सीमनि च स्थितिः ॥ ७० ॥ स्मृतिस्तु धर्मशास्त्रे स्यात् स्मरणे धीच्छयोरपि । संततौ सीवने स्यूतिः स्यूतः क्षतप्रसेवयोः ॥ ७१ ॥ स्वान्तं नपुंसकं वित्ते स्वान्तं स्यादपि गह्वरे । द्वयोस्तु हस्तो नक्षत्रे हस्तः करिकरे करे ॥ ७२ ॥ सप्रकोष्ठाततकरे हस्तः केशात्परश्चये । हितं गते धृते पथ्ये हेतिवालाकैतेजसोः ॥ ७३ ।।
सूत-पारा, बढई, सारथि, बन्दीजन, स्मृति-धर्मशास्त्र, स्मरण, बुद्धि,
(पुं० ) उत्पन्न ( जन्मा) हुवा, इच्छा, (स्त्री०) प्रेराहुवा, (त्रि.) क्षत्रियसे ब्राह्म- स्यूति-संतति निरंतरता कपडाकाणीका पुत्र, (पुं० ) ॥ ६८ ॥ सीना, (स्त्री०) सृति-गमन, मार्ग कुसृति-कपट,
स्यूत-घाव, थैली (पुं० ) ॥ ७१ ॥
पट, स्वान्त-चित्त, सधन, (न०) (स्त्री०)
हस्त-नक्षत्र, हाथीकी सूड, हाथ,(पुं. सेतु-पुल, वरुण, ( पुं० ) ॥ ६९ ॥ न० ) ॥ ७२ ॥ प्रकोष्ठसमेतविस्थित-ऊपर, स्थित, निश्चित, प्रति- स्तारकिया हाथ (एकहाथप्रमाण), ज्ञावाला, (पुं० ) गतिअभाव
केशशब्दसेपरे हस्तशब्द केशसमूह,
जैसे कुंतलहस्त (पुं०) अर्थात् स्थिति (न०)
हित-गयाहुवा, धारण कियाहुवा, पथ्य स्थिति-मर्यादा, अवस्थान (स्थिति), (सुखदाता) (न०)
स्थान, सीमा, (स्त्री०)॥ ७० ॥ हेति-अग्निज्वाला, सूर्यतेज, ॥ ७३॥
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१३२
विश्वलोचनकोश:
स्त्रियां शस्त्रेप्यथ क्षत्ता सारथिद्वाःस्थधातृषु । भुजिष्यजे नियुक्ते च शूद्राच्च क्षत्रियासुते ॥ ७४ ॥ क्षमायां तु मता क्षान्तिः क्षान्तिः स्यान्नियमेऽपि च । क्षितिः पृथिव्यां वासे च स्थानमात्रे क्षये क्षितिः ॥ ७५ ॥ ततृतीयम् । अगस्तिर्वङ्गसेनद्रौ स्यादगस्त्येऽप्यथाङ्कतिः । अग्निब्रह्माऽग्निहोत्रेषु स्थिरे दामोदरेऽच्युतः ॥ ७६ ॥ अजितोऽनिर्जिते विष्णावदितिर्देवसूभुवोः । अनृतं स्याद् मृषाकृप्योरनन्तो विष्णुशेषयोः ॥ ७७ ॥ अनन्तं गगनेऽनन्तं भवेदनवधौ त्रिषु । अनन्ता पृथिवीदूर्वापार्वतीलाङ्गलीप्वपि ॥ ७८ ॥ सारिवायां गुडूच्यां च समुद्रान्ताविशल्ययोः । अमृतं मोक्षपीयूषसलिले हृद्यवस्तुनि ॥ ७९ ॥ शस्त्र ( स्त्रि० )
[ तान्तवर्गे
क्षत्ता-सारथि, द्वारपाल, ब्रह्मा, दास- ॥ ७६ ॥
पुत्र, दियाहुवा, शूद्रसे क्षत्रियाका | अजित नहीं जीताहुवा, विष्णु, पुत्र, (पुं० ) ॥ ७४ ॥
क्षान्ति- क्षमा, नियम, (स्त्री० ) क्षिति - पृथ्वी, वास (निवास), स्थानमात्र, क्षय ( नाश ) ( स्त्री० )
॥ ७५ ॥
अच्युत - स्थिर, दामोदर (भगवान् )
( पुं० ) अदिति-देवताओंकी माता, पृथ्वी,
( स्त्री० )
अनृत-असत्य, कृषि, ( न० ) अनंत-विष्णु, शेष नाग, (पुं० ) ॥७७॥
आकाश ( न० ) निस्सीम (त्रि०) अनन्ता- पृथिवी, दूर्वा, सिंहलीपीपल, कलिहारी ॥ ७८ ॥ सरिवन, गिलोय, जवाँसा, अजमोद, ( स्त्री० ) ब्रह्मा, अग्निहोत्र, अमृत - मोक्ष, पीयूष (अमृत), जल, मनोहर वस्तु ॥ ७९ ॥
ततृतीय ।
अगस्ति-वक ( हथिया ) वृक्ष, अग
स्त्यमुनि (पुं० ) अङ्कति- अनि, ( पुं० )
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ततृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
अयाचिते यज्ञशेषे घृते दुग्धेऽतिसुन्दरे । अमृतस्तु मतः पुंसि धन्वंतरि सुपर्वणोः ॥ ८० ॥ गुडूच्यामलकीपथ्यामागधीष्वमृता मता । अमतिर्भाविकाले स्यादर्हस्तु जिनपूज्ययोः ॥ ८१ ॥ अर्दितः पवनव्याधौ याचिताऽहतयोस्त्रिषु । अर्वती चेटिकावाम्योरश्वेऽर्वन् कुत्सितेऽन्यवत् ॥ ८२ ॥ अव्यक्तस्तु हरौ हीरे मूर्खे वाच्यवदस्फुटे | वाच्यवत्क्षतहीने स्यादाकृतिः कायरूपयोः ॥ ८३ ॥ सामान्येऽपि तथाख्यातमाख्यातं कथिते तिङि । अथ वाच्यवदाख्यातं प्राणिते हिंसितेऽपि च ॥ ८४ ॥ आचितस्तु चिते छन्ने संगृहीते त्रिलिङ्गकः । आचितः शकटोन्मेये पलानामयुतद्वये ॥ ८५ ॥
अयाचित, यज्ञशेष, घृत, दुग्ध, | अर्वत्- घोडा ( पुं० ) कुत्सित ( निंअतिसुन्दर ( न० ) दित ) ( त्रि० ) ॥ ८२ ॥ अव्यक्त - विष्णु, हीरा ( पुं० ) मूर्ख, अस्फुट, नाशहीन ( त्रि० ) आकृति - घावरहित, (त्रि०) शरीर, रूप, (स्त्री० ) ॥ ८३ ॥ आख्यात - सामान्य, (त्रि०) कहा
अमृत - धन्वंतरि देवता, (पुं० )
॥ ८० ॥
अमृता- गिलोय, आंवला, हरड़, पल, (स्त्री० )
पी
अमति - आनेवाला काल, अर्हन्- (तू) जिनदेव, पूजा करनेयोग्य (पुं० ) ॥ ८१ ॥
अर्दित - वातरोग, (पुं० ) याचना कियाहुवा, माराहुवा, (त्रि०) अर्वती - दासी, घोड़ी (स्त्री० )
१३३
हुवा, तिङ् ( तिङतक्रिया ( न० ) आख्यात - सूँघा हुवा, माराहुवा, ( त्रि० ) ॥ ८४ ॥ आचित-चिनाहुवा, आच्छादन कि
याहुवा, संग्रह कियाहुवा (त्रि०) आचित -गाडाभरा भार, ८००० तोला ( पुं० ) ॥ ८५ ॥
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विश्वलोचनकोश:
अतः सादरेऽपि स्यात् पूजितेऽप्यभिधेयवत् । आध्मातः पवनव्याधौ दग्धशब्दितयोस्त्रिषु ॥ ८६ ॥ आनर्त्तो नर्त्तनस्थाने देशभेदे रणे जले | पाते तदात्वेऽप्यापात आपतिः प्राप्तिदोषयोः ॥ ८७ ॥ आप्लुतः स्नातके पुंसि स्नाते स्यादभिधेयवत् । आयत्तिः स्नेहमर्यादावशिताबलवासरे ॥ ८८ ॥ आयतिस्तु यमे दैर्म्ये प्रभावोत्तरकालयोः । आयस्तस्तेजिते क्षिप्ते कुपिते क्लेशिते हते ॥ ८९ ॥ आवर्त्तश्चिन्तने चाssवर्तने वाप्यम्भसां श्रमे । आस्फोतस्त्वर्कपर्णे स्यादास्फोतः कोविदारके ॥ ९० ॥ आस्फोता गिरिकय च वनमहयामपि स्त्रियाम् । आसत्तिः सङ्गमे लाभे आहतं तु मृषार्थ ॥ ९१ ॥
१३४
[ तान्तवर्गे
आहत-आदरकियाहुवा, पूजाकिया - | आयति-यम, लंबापना, प्रभाव आगे हुवा, (त्रि० ) आनेवाला काल, ( स्त्री० ) आध्मात - वातरोग, दग्ध, शब्दित, आयस्त - तीक्ष्णकियाहुवा, फेंकाहुवा, ( त्रि० ) ॥ ८६ ॥ कुपित, क्लेशित, हत, ( पुं० ) आवर्त - नृत्यकरनेका स्थान, देशभेद, ॥ ८९ ॥
रण, जल, ( पुं० )
आपात - पड़ना, तत्काल, (पुं० ) आपत्ति - प्राप्ति,
॥ ८७ ॥
आवर्त - चिंतन करना, आवर्तन ( आवृत्ति) करना, जलोंका भँवर (पुं०) दोष, ( स्त्री० ) | आस्फोत- आकका पत्ता, कचनारवृक्ष, (पुं० ) ॥ ९० ॥ आप्लुत- वेदव्रतवाला, (पुं०) स्ना- आस्फोता- कोयल-औषधि, नकियाहुवा ( त्रि० ) मल्लिका, (स्त्री० ) आसत्ति-संगम, लाभ, ( स्त्री० ) आहत - असत्य अर्थवाला ( न० ) ॥ ९१ ॥
आयत्ति स्नेह, मर्यादा, वशित्व, बल, वासर ( दिन ) ( स्त्री० ) ॥ ८८ ॥
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वन
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ततृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
१३५ स्यात्पुरातनवस्त्रेऽपि नववस्त्रेऽपि वाहतम् । आहतं चानकेऽपि स्यात्तांडिते ग्रसिते त्रिषु ॥ ९२ ।। इङ्गितं चेष्टिते गत्यामुचितं तु समञ्जसे । अनुमत्यां मिताऽभ्यस्तज्ञातेषु त्रिषु च त्रिषु ॥ ९३ ॥ उच्छ्रितं तु प्रवृद्धे स्यात् सञ्जातेऽप्युन्नतेऽन्यवत् । उत्तप्तं शुष्केऽपिशिते संतप्ते च परिप्लुते ॥ ९४ ।। वृद्धिमत्युन्मनस्केऽपि प्रोद्यते मतमुत्थितम् । उच्छ्रितं तु त्रिघूत्पन्ने प्रोद्यते वृद्धिमत्यपि ॥ ९५ ।। उदितं सूदिते प्राप्तेऽप्युद्गतप्रोक्तयोस्त्रिषु । उद्धातो मुद्रे वायुयोगार्थ कुम्भकादिषु ॥ ९६ ॥ उद्रङ्गे स्खलनेऽप्यर्थाऽऽधानेऽपि समुपक्रमे । स्यादुदन्तस्तु वार्तायामुदन्तः सजनेऽपि च ।। ९७ !!
पुराना वस्त्र, नवीन वस्त्र, ढोल, ता- उत्थित-वृद्धिवाला, उन्मना, अति डनाकियाहुवा, असाहुवा (त्रि.) उद्यमयुक्त, (त्रि०) ॥१२॥
उच्छित-उत्पन्नहुवा, अतिउद्यमयुक्त, इंगित-चेष्टित, गमन, ( न० ) वृद्धिवाला, (त्रि. ) ॥ ९५॥ उचित-युक्त, अनुमति, (न०)
उदित-उदयहुवा, प्राप्तहुवा, उगला
दत प्रमित, अभ्यस्त, ज्ञात, (त्रि.)। हुवा, कहाहुवा (त्रि०)
उद्धात-मुद्गर, वायुके अभ्यासकेलिये ॥ ९३ ॥
कुंभकआदि तीन प्राणायाम ॥९६॥ उच्छित-प्रवृद्ध, संजात, उन्नत (ऊँ. लोटना, पावसे आखलना, धनइकचा) (त्रि.)
द्वाकरना, आरंभकरना, उत्तप्त-सूखामांस,(न०)संतप्त,परिप्लुत उदन्त-वार्ता (वृत्तान्त ), सज्जन, (भिगोयाहुवा ) (त्रि०) ॥ ९४ ॥ (०) ॥ ९७ ॥
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विश्वलोचनकोश:- [तान्तवर्गेविद्वान्तः समुद्गीणे पुमान्निर्मददन्तिषु । उदात्तः स्वरभेदे स्यात् काव्यालङ्करणेऽपि च ॥ ९८ ॥ उदात्तो दातृमहतोर्मतो हृद्येऽपि वाच्यवत् । उद्वृत्तं तु सिते भुक्तोज्झितेऽप्यातोलिते मृते ॥ ९९ ।। उन्नतिस्तूदये वृद्धावुद्गतौ ताक्ष्ययोषिति । उन्मत्त उन्मादवति धत्तूरमुचकुन्दयोः ॥ १०० ॥ उषितं व्युषिते दग्धेऽप्यूम्मितं क्षिप्तदग्धयोः । एधतुः पुरुषे वहावंहतिस्त्यागरोगयोः ॥ १०१ ॥ कपोतः स्यात्कलरवे कवकाख्ये विहङ्गमे । कलितं विदितेप्याप्ते वीकृतेऽप्यभिधेयवत् ॥ १०२ ॥ कापोतं तद्गुणे स्रोतोऽञ्जनखञ्जिकयोरपि ।। किरातः पुंसि भूनिम्बे म्लेच्छखल्पशरीरयोः ॥ १०३ ॥
उद्वान्त-उगलाहुवा, ( वमनकिया) ऊर्मित-फेंकाहुवा, दग्धहुवा, (न०)
(त्रि.) मदरहित हस्ती, (पुं०) एधतु-पुरुष, अग्नि, (पुं० ) उदात्त-स्वरभेद, काव्यका अलंकार, अंहति-त्याग (दान), रोग (स्त्री०)
॥ ९८ ॥ दातार, बडा, मनोहर, (त्रि.)
॥ १.१॥ उद्वत्त-बँधाहुवा, खायाहुवा, त्यागा-कपोत-सूक्ष्मशब्द, कवक ( कबूतर) हुवा, तोलाहुवा, मराहुवा, (त्रि०) नाम पक्षी, (पुं०)
कलित-जानाहुवा, प्राप्तहुवा, अंगीउन्नति-उदय, वृद्धि, ऊपरको गमन, कारकियाहुवा, (त्रि.)॥१०२॥
गरुडकी स्त्री (त्रि.) उन्मत्त-उन्मादवाला, धतूरा, पुष्प-कापात कपाता
कापोत-कपोतों (कबूतरों)का समूह, वृक्ष विशेष, (पुं०)॥ १०० ॥ | कालासुरमा, करछी ( न०) उषित-रातका रक्खाहुवा, दग्ध, किरात-चिरायता, म्लेच्छ, छोटाश(त्रि.)
रीरवाला, (पुं० ) १०३ ॥ :
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ततृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
वालव्यजनधारिण्यां कुट्टिनीसुरगङ्गयोः । स्यात्किरातीति कुर्वस्तु भृत्ये कर्मकरे त्रिषु ॥ १०४ ॥ कृतान्तो यमसिद्धान्तदैवेऽप्यशुभकर्मणि । कन्दितं रोदितेऽपि स्यादाह्वाने कृतरोदने ॥ १०५ ।। गभस्तिः किरणे सूर्ये पुंसि स्त्री वहियोषिति । गर्मुत् कार्तवरे क्लीबं गर्मुच्छाखाभिधायिनि ॥ १०६ ॥ गर्जितो मत्तमातङ्गे गर्जितं जलदध्वनौ । गोदन्तो हरिताले स्यादंशिते वमिते त्रिषु ॥ १०७ ॥ गोपतिः पार्थिवे षण्डे रविपण्डितशूलिधु । ग्रंथितं गुम्फिताक्रान्तहिंसितेयु त्रिषु स्मृतम् ॥ १०८ ॥ चिन्तातो मोचने गाङ्गचित्ते च चिरजीविनि । जगन्वाते पुमान्क्लीबं भुवने जङ्गमे त्रिषु ।। १०९ ॥
किराती-चँवरढोरनेवाली, कुट्टिनी, गर्जित-मदोन्मत्त हस्ती, (पुं० ) आकाशगंगा, (स्त्री०)
मेघकी ध्वनि (न.) कुर्वत् (न्)-दास, नौकर ( त्रि०) गोदन्त-हरताल, कंचुक आदिधारण॥ १०४॥
किये, कवच धारणकिये (त्रि.) कृतांत-धर्मराज, सिद्धान्त, भाग्य,
॥१०७ ॥ अशुभकर्म (पुं०)
गोपति-राजा, हीजड़ा, सूर्य, पण्डित,
। महादेव, (पुं०) कंदित-रोना, बुलाना, रुदनकरने
ग्रंथित-गूंथाहुवा, दवायाहुवा, मारावाला, (त्रि.)॥ १०५॥
हुवा, ॥ १०८ ॥ चिंतासे छुडाना, गभस्ति-किरण, सूर्य, (पुं०) अ- गंगाको चिंतनकरनेवाला, चिरग्निकी स्त्री (स्त्री०)
___ जीवी (त्रि.) गर्मुत्-सुवर्ण, (न०)
जगत्(न्)-वायु, (पुं०) भुवन, शाखाओंका बखानकरनेवाला (पुं०) जंगम (चलनेवाला) (त्रि.) ॥ १०६ ॥
॥ १०९॥
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१३८ विश्वलोचनकोशः
[तान्तवर्गेजगती जगति क्ष्मायां छन्दोभेदे जनेऽपि च । जयन्ती त्वथ गौरीन्द्रपुत्री जरा द्रुमान्तरे ॥ ११० ।। वैजयन्त्यां जयन्तस्तु पाकशासनिहीरयोः । जामाता दयिते सूर्यावर्ते तु दुहितुः पतौ ॥ १११ ॥ जीमूतो जलदे शके घोषेपि वृद्धिजीविनि । देवताडेऽपि जीमूतो जीमूतः पर्वतेऽपि च ॥ ११२ ।। जीवातुरस्त्रियां भक्ते जीविते जीवनौषधौ । जीवन्ती जीवनीवृक्षे शमीवन्दाऽमृतासु च ॥ ११३ ॥ जृम्भितं करणे स्त्रीणां वेष्टिते स्फुटिते त्रिषु । ज्वलितो भास्करे दग्धे वानितं तनितांशुके ।। ११४ ॥ वाद्यभाण्डे गुणे विस्तारे तेषु त्रिषु तानितम् । तृणता तु तृणत्वे स्यात् तृणता कार्मुकेऽपि च ॥ ११५ ॥
जगती-जगत्. पृथ्वी, छन्दोभेद, जन जीवातु-भक्त, (भात), जीवित, जी( मनुष्यआदि) (स्त्री०) । नेकी औषधि, (पुं० न०)
जीवन्ती-काकोली-वृक्ष, जांट वृक्ष, जयन्ती-गौरी (पार्वती), इन्द्रपुत्री, वृक्षमें उपजा वृक्ष, गिलोय (स्त्री०) वृद्धाऽवस्था, वृक्षभेद (बी०) ॥११३ ॥
॥ ११० ॥ पताका, (स्त्री० ) जंभित-स्त्रियोंका करण (चेष्टा ), ल. जयन्त-इंद्रका पुत्र, हीरा-रत्न, (पं.)। पेटाहुवा, फूटाहुवा, (त्रि.)
ज्वलित-सूर्य, दग्ध, (पु.) जामा(तृता-प्रिय, सूर्यावर्तमणि, वानित-तनाहुवा वस्त्र, (न०)
पुत्रीका पति, (पुं० ) ॥ १११॥ ॥११४ ॥ जीमूत-मेघ, इंद्र, शब्द, वृद्धिजीवी
तानित-बाजाका पात्र, तार, विस्तार,
(त्रि.) ( व्याज लेनेवाला), देवताड-वृक्ष, तणता-तृणभाव, धनुष, (स्त्री० ) पर्वत, (पुं०) ॥ ११२ ॥ ॥ ११५॥
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ततृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
त्रिगतः स्याज्जनपदे त्रिगतॊ गणितान्तरे । विषयेऽपि त्रिगर्ता तु घुर्धरीकामुकस्त्रियोः ॥ ११६ ॥ त्वरितं प्रजवे शीघ्र दुर्गतिर्निरये स्त्रियाम् । दारिद्येऽप्यथ दुर्जातं कुजाते व्यसने तथा ॥ ११७ ।। दृष्टान्तस्तु पुमाशास्त्रे स्यादुदाहरणेपि च । दंशितं वम्मिते दष्टे द्रवन्ती सरिदन्तरे ॥ ११८ ॥ मधौ चैव द्विजातिस्तु द्विजन्मनि विहङ्गमे । धीमान्वाचस्पतौ पुंसि धीरे बुद्धिमति त्रिषु ॥ ११९ ।। निकृतं विप्रलम्भेऽपि नीचे विप्रकृतेऽपि च । निकृतिर्भर्त्सने क्षेपे निकृतिः शठशाठ्ययोः ॥ १२० ।। निमित्तं लक्षणे हेतौ निमित्तं पर्वणि स्मृतम् । आगन्तुर्देवादेशे च नियतिर्नियमे विधौ ॥ १२१ ॥
त्रिगर्त-त्रिगर्तदेश, मनुष्य, गणित- द्रवन्ती-नदी, (स्त्री० ) ॥ ११८॥ भेद, देश, (पुं०)
। मुलहटी-बेल, ( स्त्री० ) त्रिगर्ता-धुपुरिया-क्रीडा, संभोग इ- द्विजाति-ब्राह्मणआदि, पक्षी, (पुं०) च्छावाली स्त्री (स्त्री०)॥ ११६ ॥ धीमान्(तू)-बृहस्पति, (पुं०) धीर,
| बुद्धिमान् , ( त्रि०) ॥ ११९ ॥ स्वरित-वेग, शीघ्रता, (न०) निक्रत-ठगना, नीच, विगाडाहुवा, दुर्गति-नरक, दारिद्र्य, (स्त्री०) | (न०) दुर्जात-कुत्सितजन्मवाला, व्यसन. निकृति-झिड़कना, फेंकना, शट, (न०) ॥ ११७ ॥
शठता, (स्त्री०)॥ १२० ॥
निमित्त-लक्षण, हेतु, पर्व, (न.) दृष्टान्त-शास्त्र, उदाहरण, (पुं० )
आगन्तु-देवआज्ञा, (पुं०) दंशित-कवचधारणकियाहुवा, का- नियति-नियम, भाग्य, (स्त्री० ) टाहुवा (त्रि.)
॥१२१ ॥
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१४०
विश्वलोचनकोशः- [तान्तवर्गेनिरस्तः प्रेषितशरे संत्यक्ते त्वरितोदिते । निष्ठचूतेऽपि प्रतिहते निम्मितस्त्वनुपद्रुते ॥ १२२ ॥ दिक्पाल कालपर्णी तु पुस्त्रियोः स्यादनुक्रमात् । निर्वृत्तिः सुस्थितासौख्यनिर्वाणाऽस्तङ्गमाध्वसु ॥ १२३ ॥ निर्मुक्तस्त्यक्तसङ्गे स्यात् त्यक्तकञ्चकपन्नगे। निर्वातो वातविगते व्याश्रये दृढवर्मणि ॥ १२४ ॥ निशान्तस्त्रिषु शान्ते स्यान्निशान्तो भवनोषसोः । पञ्चता मृत्युमात्रेऽपि पञ्चभावेऽपि पञ्चता ॥ १२५ ॥ पण्डितः सिलके धीरे पतत्पातुकपक्षिणोः । पद्धतिः पथि पतौ च परतो वाच्यवन्मृते ॥ १२६ ॥ भूतभेदेऽप्यथ गिरौ सुरवपि पर्वतः। पर्याप्तं वारणतुष्टियथेष्टेष्वाप्तशक्तयोः ।। १२७ ॥
निरस्त-फेंकाहुवा बाण, त्यागाहुवा, निशान्त-शान्त, (त्रि. )निशान्त
शीघ्रकहाहुवा, थूकाहुवा, मारा- घर, प्रभात-काल (पुं० ) हुवा, (पुं० )
पंचता-मत्यु, पाँचोंका भाव (पंचनिर्मित-उपद्रवरहित, (पुं०)॥१२२॥ पना) (स्त्री०)॥ १२५ ॥ ___ दिक्पाल, (पुं०) तगर-वृक्ष, (स्त्री०) पंडित-हींग, विद्वान् , (पुं०) निर्वति-सुस्थिता, सौख्य, मृत्यु होना, पद्धति-मार्ग, पंक्ति, (स्त्री.)
पतत्-पडनेवाला, पक्षी, (त्रि.) अस्त होना, मार्ग, (स्त्री०) ॥१२३॥ " मा
११३ परेत-मृतक ॥ १२६ ॥ भूतभेद, निर्मक्त-त्यागा है संग जिसने वह, (पुं०)
कँचुलीसे मुक्तहुवा सर्प (पुं० ) पर्वत-पहाड़, एक सुरर्षि, (पुं०) निर्वात-वायुरहित होना, आश्रय, पर्याप्त-मनह करना, तुष्टि, यथेष्ट
दृढ कवच (पुं०) ॥ १२४ ॥ (न०)मान्य, समर्थ, (पुं०)॥१२७॥
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ततृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
विनाशदोष कृच्छ्रेषु दण्डे तु मतमव्ययम् । पर्याप्तस्तु प्रकामे स्यात्प्राप्तौ च परिरक्षणे ॥ १२८ ॥ पर्यस्तः पतितक्षिप्त निहतेषु त्रिषु त्रिषु ।
पलितं केशपांडुत्वे पङ्के तापेऽपि शैलजे ॥ १२९ ॥ पक्षतिः पक्षमूले स्यात्प्रतिपद्यपि पक्षतिः । पार्वती द्रौपदी दुर्गा जीवन्ती शल्लकीद्रुमे ॥ १३० ॥ पिण्डितो गणिते सान्द्रे पित्सन् पातेऽपि पक्षिणि । पिशिता मासिकायां स्यात्पिशितं पलले मतम् ॥ १३१ ॥ पीडितं करणे स्त्रीणां यन्त्रिते बाधितेऽपि च । पुटितं स्यात्करपुटे प्रखतिस्स्यूतपोटिते ॥ १३२ ॥ पृषतोऽपि पृषद्विन्दौ मृगे तु पृषतः पृषन् । स्याहु:र खरेऽहितेऽप्येवं श्वेतबिन्दुयुतेऽन्यवत् ॥ १३३ ॥
पर्याप्तं विनाश, दोष, कुच्छ्र, (कष्ट)
दंड, (अव्यय) पर्याप्ति - प्रकाम (अति इच्छा), प्राप्ति,
अच्छी रक्षा, (स्त्री० ) ॥ १२८ ॥ पर्यस्त - पड़ाहुवा, फेंकाहुवा, माराहुवा, (त्रि०)
पलित - केशों की सफेदी, कींच, ताप, शिलाजीत ( न ० ) ॥ १२९ ॥ पक्षति - पक्षीकी मूल प्रतिपदा तिथि,
( स्त्री० ) पार्वती - द्रौपदी, दुर्गा, हरड वृक्ष, शालई - वृक्ष, ( स्त्री० ) ॥ १३० ॥ पिंडित-गणित कियाहुवा, इकट्ठा कियाहुवा, (पुं० )
१४१
पित्स (स् ) न् - पडना, पक्षी, ( न० पुं० ) पिशिता- जटामांसी- औषधि, (स्त्री०) पिशित - मांस, ( न० ) ॥ १३१ ॥ पीडित स्त्रियोंका आभूषण, वशमें
कियाहुवा, पीडा कियाहुवा (त्रि ० ) पुटित - हाथका पुट (न० ) प्रसृति - आधी अंजलि, थैली, पुट
कियाहुवा, (स्त्री० ) ॥ १३२ ॥ पृषत - (पुं० ) पृषत् - ( न० ) जल आदिकी बूँद, पृषत - पृषत्, हिरण, (पुं० ) बुरे शब्दवाला, शत्रु, सफेद बुंदकीवाला (त्रि०) ॥१३३॥
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१४२
विश्वलोचनकोशः- [तान्तवर्गेप्रकृतिस्तु सत्त्वरजस्तमसां साम्यमात्रके । खभावाऽमात्यपौरेषु लिङ्गे योनौ तथाऽऽत्मनि ॥ १३४ ॥ प्रकृतं प्रस्तुतेऽपि स्यात्प्रकृतः प्रकृतिस्थिते । प्रवितः शकटोन्मेये पलानामयुतद्वये ॥ १३५ ॥ प्रणीतः संस्कृतामौ स्याद्वाच्यलिङ्गः प्रवेशिते । संस्कृते चोपपन्ने निक्षिप्ते विहितेऽपि च ॥ १३६ ॥ प्रतीतः सादरे ख्याते हृष्टे दृष्टे विरक्षणे । प्रतीत एते ज्ञाते च प्रततिततौ ततौ ॥ १३७ ॥ प्रपातो निझरे कृच्छ्रे पतनावटयोरपि ।। प्रभूतमुद्गते प्राज्ये प्रमीतः प्रोक्षिते मृते ॥ १३८ ॥ प्रवृत्तिवृत्तिवार्तान्तप्रवाहेषु प्रवर्त्तने । प्रसूतिः प्रसवोत्पत्तिपुत्रेषु दुहितर्यपि ॥ १३९ ।।
प्रकृति-सत्त्व, रजसू , तमस् , इनकी प्रतीत-आदरयुक्त, विख्यात, प्रसन्न
सम अवस्था; स्वभाव, मंत्री, प्रजा, हुवा, देखाहुवा, रक्षाकियाहुवा, लिंग, योनि, आत्मा, (स्त्री.) गयाहुवा, जानाहुवा (त्रि.) ॥ १३४ ॥
प्रतति-बेल, पंक्ति, (स्त्री०) ॥१३७॥ प्रकृत-प्रस्तुत (प्रसंग) ( न० ) प्रपात-झिरना, कट, पड़ना, गड्डा, ___ स्वभावमें स्थित, (त्रि.)
(पुं० ) प्रवित-गाडाभर, ८०००० तोला प्रभूत-उद्गत, बहुत, (न०)
प्रमाण, (पुं०)॥ १३५ ॥ प्रमीत-प्रोक्षित (सेचन कियाहुवा ), प्रणीत-संस्कार कियाहुवा अग्नि, मराहुवा, (पुं०)॥ १३८ ॥
(पुं०) प्रवेश कियाहुवा, (त्रि०) प्रवृत्ति-वृत्ति (जीविका ), वृत्तान्त, संस्कार कियाहुवा, पास रक्खा- प्रवाह, प्रवर्तन (स्त्री०) हुवा, स्थापन कियाहुवा, रचाहुवा, प्रसूति-जन्म, उत्पत्ति, पुत्र, पुत्री, (त्रि.)॥ १३६ ॥
(स्त्री०)॥ १३९ ॥
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ततृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
प्रसूतं कुसुमे क्लीबं वाच्यवल्लब्धजन्मनि ।
प्रसृता तु प्रजातायां जंघायां प्रसृता मता ॥ १४० ॥ प्रसृतोऽर्घाञ्जलौ सम्प्रसारे वेगिविनीतयोः । प्रवृतं वितते क्षुण्णे प्रोक्षितं सिक्त आहते ॥ १४१ ॥ प्रार्थितं याचिते शत्रुरुद्धेऽप्यभिहते त्रिषु । वर्द्धितं पूरिते छिन्ने वर्द्धितं वृद्धिशालिनि ॥ १४२ ॥
बृहती महतीकण्टकारिकाकलशीषु च । वाचि च क्षुद्रवाक्यां छन्दोभेदोत्तरीययोः ॥ १४३ ॥ भरतस्तु नटे नाट्यशास्त्रे रामानुजे पुमान् । दौप्यन्तौ शबरे तन्तुवायेऽपि भरतः स्मृतः ॥ १४४ ॥ भवती वाणभेदे स्यात्रिषु युष्मत्सदर्थयोः । व्यासर्पिभाषिते ग्रन्थे जम्बूद्वीपेऽपि भारतः ॥ १४५ ॥
प्रसूत-पुष्प, ( न० ) उत्पन्नहुवा | वर्द्धित-पूराहुवा, छेदन कियाहुवा, ( त्रि० ) वृद्धिवाला, (त्रि ० ) ॥ १४२ ॥
प्रसृता-उत्पन्न हुई-कन्या ( स्त्री० ) | बृहती-बडी - स्त्रीआदि, प्रसृता - जंघा ( स्त्री० ) ॥ १४० ॥ प्रसृत - आधी अंजलि, अच्छी तरह फैलाहुवा, वेगवाला, नम्रतावाला, (foto)
प्रवृत - विस्तारवाला, कटा हुवा, (त्रि०) प्रोक्षित - सींचाहुवा, अच्छी तरह माराहुवा (त्रि० ) ॥ १४१ ॥ प्रार्थित - याचना कियाहुवा, शत्रुका रोकाहुवा, माराहुवा ( त्रि०)
१४३
कटेहली, कलशी, वाणी, छोटा बैंगन, छंदोभेद, डुपट्टा, ( स्त्री० ) ॥ १४३ ॥ भरत - नट, नाट्यशास्त्र, रामका छोटा
भ्राता, दुष्यन्तराजाका पुत्र, शबरजाति, जुलाहा, (पुं० ) ॥ १४४ ॥ भवती-वाणभेद, युष्मद्-अर्थ, सत्अर्थ, (त्रि० )
भारत - भारत - इतिहास, जंबूद्वीप, ( पुं० ) ॥ १४५ ॥
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१४४
विश्वलोचनकोश:
[तान्तवर्गवाग्वाणीपक्षिणीभेदवृत्तिभेदेषु भारती। भावितं वासिते लब्धे ध्यातेऽप्युत्पादिते त्रिषु ॥ १४६ ॥ भासन्तो भासविहगे सुन्दरेऽप्यभिधेयवत् । भास्वानाभाखरे सूर्ये भूभृद्भूपालशैलयोः ॥ १४७ ।। मथितं निर्जलोदश्चित्यनववृष्टलोडिते । मरुत्पुंसि सुरे वाते महद्राज्ये नपुंसकम् ॥ १४८ ॥ नारदस्य तु वीणायां महती स्यात्पृथौ त्रिषु । मालती जातियुवतिज्योत्स्नानिक्षु सरिद्भिदि ॥ १४९ ॥ काकमाच्यग्निशिखयोर्मुषितं खण्डिते हृते । मूञ्छितं मोहसंप्राप्ते सोच्छ्येऽपि दृढेऽपि च ॥ १५० ॥ रजतं रूप्यहारेभदन्तेषु विशदे त्रिषु । रमतिर्नायके खर्गे रसितं खनिते रुते ॥ १५१ ॥
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भारती-वचन, सरस्वती, पक्षिणी) महती-नारदमुनिकी वीणा, (स्त्री० ) भेद, वृत्तिभेद, ( स्त्री०)
पृथु ( स्थूल ) (त्रि.) भावित-भिगोयाहुवा, लब्धहुवा, मालती-चमेली, जवान स्त्री,सफेदफू
ध्यानकियाहुवा, उत्पादन कियाहुवा लकी तोरई, रात्रि, एकनदी,मकोय, (त्रि. ) ॥ १४६ ॥
॥ १४९ ॥ चौलाई शाक, (स्त्री०) भासन्त-भास-पक्षी, (पुं० ) सुन्दर, मुपित-खंडित, हृत (हडाहुवा ) (त्रि.)
(त्रि.) भास्वान्-तेजस्वी, सूर्य, (पुं०) मूर्छित-मोहको प्राप्त, बढाहुवा, दृढ, भूभृत्-राजा, पर्वत, (पुं०)॥१४७॥ (त्रि. ) ॥ १५० ॥ मथित-निर्जलछाछ, घोलाहुवा, मथा- रजत-चाँदी, हार, हस्तिदन्त, शुक्ल हुवा (न.)
(सफेद ) ( त्रि०) मरुत्-देवता, वायु, ( पुं०) रमति-खामी, वर्ग, (पुं० ) महत्-राज्य, (न०)॥ १४८॥ रसित-शब्दयुक्त, शब्द, ॥ १५१॥
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ततृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
१४५ वर्णादिखचिते तु स्यात्रिष्वेव रसितं मतम् । रेवती हलिकान्तायां ताराभेदेऽपि मातृषु ॥ १५२ ॥ रैवतः शैलभेदे स्यात्सुवर्णालौ हरेश्वरे । सरलेऽन्द्रायुधे वीरे रुधिरेऽपि च रोहितम् ॥ १५३ ॥ रोहितो लोहिते मीने मृगभेदेऽपि रोहिणि । रोहिदर्के पुमानेव मता रोहिल्लतान्तरे ।। १५४ ॥ ललितं हारभेदे स्यात्रिष्वेव ललितेष्टयोः । लोहितं कुङ्कुमे रक्ते गोशीर्षे रक्तचन्दने ॥ १५५ ॥ पुंस्येव मङ्गले रक्ते नदे नागे व लोहितः । वनिता जनिताऽत्यर्थरागयोषिति योषिति ॥ १५६ ॥ वनितं याचित क्लीबं शोधिते वनितं त्रिषु । वसतिः स्यान्निशावेश्मावस्थानेष्वर्हदाश्रमे ॥ १५७ ।।
स्वर्णादिसे जडाहुवा, (त्रि.) ललित-हारभेद, सुंदर, प्रिय, (त्रि.) रेवती-बलदेवजीकी स्त्री, रेवती- लोहित-केसर, काभाआदि, हरि
नक्षत्र, मातृभेद (स्त्री०) ॥१५२॥ चंदन-वृक्ष, रक्तचंदन, (न०) रैवत-एकपर्वत, सोनाली-वृक्ष, शिव,
॥ १५५॥
लोहित-मंगल ग्रह, रक्त-वर्ण, एकईश्वर, (पुं०)
नद, हस्ती (पुं० ) रोहित-सीधा, इंद्रका धनुष, वीर, वनिता-जिसमें अतिप्रीति है वह स्त्री.
रुधिर, ( न० ) ॥ १५३ ॥ स्त्रीमात्र, (स्त्री० ॥ १५६ ॥ रोहित-लोहित ( लालवर्ण ), मच्छी, वनित-याचना कियाहुवा (न०) __ मृगभेद, रोहेड़ा-वृक्ष (पुं०) शोधाहुवा, (त्रि.) रोहित-सूर्य या आक (पुं० ) ल. वसति-रात्रि, मकान, स्थिति, अर्हताभेद, ( स्त्री० ) ॥ १५४ ॥ तदेवका आश्रम (स्त्री.) ॥१५॥
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१४६
विश्वलोचनकोश:- [तान्तवर्गवहतुवृषभे पान्थे वहतिः सचिवे गवि । वापितं वाच्यवबीजाकृतमुण्डितयोर्मतम् ॥ १५८ ॥ वासन्तः कोकिले मुद्दे करभेऽवहिते विटे। वासन्ती माधवीयूथ्योर्वासन्ती पाटलाबपि ॥ १५९ ॥ वासिता करिणीनार्योर्वासितं विहगारवे । ज्ञाने त्रिध्वेव वसनवेष्टिते सुरभीकृते ॥ १६० ॥ विकृतस्त्रिघु बीभत्से रोगिते स्यादसंस्कृते । डिम्बे रोगे च विकृतिविंगतो निष्प्रभे गते ।। १६१ ॥ विच्छित्तिरङ्गरागे स्यादपि विच्छेदहावयोः । विजाता तु प्रसूतायां विकृते जनिते त्रिषु ॥ १६२ ।। विततं तु मतं व्याप्ते विस्तृतेऽप्यभिधेयवत् ।। विद्युत्तडिति सन्ध्यायां स्त्रियां त्रिष्वेव निष्प्रभे ॥ १६३ ।। वहतु-वृषभ, वटाऊ, (पुं०) विकृत-ऋर, रोगी, नहीं संस्कारकियावहात-मंत्री, गौ, (पुं० स्त्री. ) हुवा, ( पुं० )
विकृति-लूटनाआदिपीडा, रोग, वापित-बीजबोयाहुवा खेत, मुँडा- (स्त्री.)
हुवा ( त्रि० ॥ १५८ ॥ विगत-कांतिहीन, गयाहुवा, (पुं०) वासन्त-कोयल, मूंग, उष्ट्र, साव- ॥१६१ ॥ धान, कामी, (पुं० )
विच्छित्ति-अंगराग, वियोग, हाव, वासन्ती-माधवीलता. जही. लाल- (त्रियोकी चेष्टा ) ( स्त्री० ) लोध (स्त्री० ) ॥ १५९ ॥
विजाता-प्रसूतिका स्त्री, (स्त्री०)
बिगड़ाहुवा, उत्पन्नहुवा, (त्रि.) वासिता-हथिनी, स्त्री, (स्त्री० ) वासित-पक्षीका शब्द, ज्ञान, (न.) वितत-व्याप्त, विस्तारवाला, (त्रि.) वस्त्रसे लपेटाहुवा, सुगंधित किया- विद्युत्-बिजली, सन्ध्या, (स्त्री०) हुवा, (त्रि.)॥ १६०॥ प्रभारहित, (त्रि.) ॥ १६३ ॥
॥ १६२॥
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ततृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः । विदितं स्वीकृते ज्ञाते विधाता वेधसि स्मरे । विनतः प्रणते भुग्ने शिक्षितेऽप्यभिधेयवत् ॥ १६४ ॥ विनता वैनतेयस्य जनन्यां पिडिकान्तरे । विनीतः सुवहाश्वे स्याद्विनयाब्ये जितेन्द्रिये ॥ १६५ ॥ उपनीतेऽपनीतेऽपि निभृते वणिजि त्रिषु । विनेताऽऽदेशके राज्ञि विपत्तिर्याचनापदोः ॥ १६६ ॥ विवृता क्षुद्ररोगे स्याद्विवृतं तु त्रिषु त्रिषु । विवर्त्त समुदाये स्यादप्रवर्तननृत्ययोः ॥ १६७ ।। विविक्तं विजने यूतेऽप्यसंपृक्तविवेकिनि । विश्रुतं ज्ञातसंहृष्टप्रतीतेषु त्रिषु त्रिधु ॥ १६८ ॥ विश्वस्तस्त्रिषु विश्रब्धे विश्वस्ता विधवा स्त्रियाम् । विहस्तो हस्तरहिते विह्वले पण्ढकेऽपि च ॥ १६९ ॥
विवते-समूह, नहींढकाल (रेती),
विदित-खीकार कियाहुवा, जानाहुवा, विपत्ति-याचना, आपत् (दिन (त्रि०)
| (स्त्री० ) ॥ १६६ ।। विधात(ता)-ब्रह्मा, कामदेव, (पुं०), विवृता-शुद्र-रोग, (स्त्री.) विनत-नम्र, मुड़ाहुवा, शिक्षाकिया- 'विवर्त-समूह, नहींढक'
। हुवा, (त्रि०) युक्त यश, । हुवा ( त्रि०) ॥ १६४ ॥
(न० ) ॥ १६७ ॥ ( स्त्री०) विनता-गरुडकी माता, फुन्सीभेद, विविक्त-विजन ( एक न (स्त्रि०)
- नहीं मिलाहुवा, विडवा, (त्रि.) विनीत-अच्छा चलनेवाला अश्व, वि- | ग्वश्रुत
विश्रुत-जानाहुवा प्रवकी मात
। ख्यातहुवा, ( .ति, ध्रुवकी मात यज्ञोपवीतदियाहुवा, दूरकियाहुवा, त्रिक) खस नम्र, वणिक, (त्रि०) विश्वस्ता-
विर श्रेषत्रत, (पुं०) विनेतृ(ता) आज्ञाकरनेवाला, राजा, विहस्त-हरू
(पुं०)
नयसे युक्त, जितेन्द्रिय, ॥ १६५ ॥ विश्वस्त-जिसको दोहीजाय वह गौ,
(पुं०
॥
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१४८
विश्वलोचनकोशः- तान्तवर्ग: वृत्तान्तो भावकारल्ये स्यादपि वार्ताप्रकारयोः । प्रक्रियायां प्रकरणेऽप्येकान्तेऽपि कचिन्मतः ॥ १७० ॥ वेल्लितं कम्पिते वक्रे प्लुते स्याद्वेल्लितं गतौ । वेष्टितं करणे स्त्रीणां लसके चावृते त्रिषु ।। १७१ ॥ व्याघातस्त्वन्तराये स्याद्योगभेदप्रहारयोः । व्यायतं तु दृढे दीर्घे व्यापृतेऽतिशयेऽन्यवत् ॥ १७२ ।। शकुन्तो विहगे पक्षिभेदे भासाख्यपक्षिणि । शुद्धान्तोन्तःपुरे कक्षान्तरे रहसि च स्मृतः ॥ १७३ ॥ राजयोषिति शुद्धान्ता श्रीपतिः नृपकृष्णयोः । श्रीमांस्तिलकवृक्षे स्यादीश्वरेऽपि मनोहरे ।। १७४ ।। सङ्घातः संहते पुंसि प्रहारे नरकान्तरे । सङ्गतिः सङ्गते ज्ञाने सन्नतिर्नुतिशब्दयोः ॥ १७५ ॥
वृत्तान्त- भावसंपूर्णता, वार्ता, प्रकार, शकुन्त-पक्षिमात्र, पक्षिभेद, भार प्रक्रिया, प्रकरण, एकान्त, (पुं०)। पक्षी (पुं० ) ॥ १७० ॥
शुद्धान्त-रनवास, ड्योढी, एकान वेल्लित-कँपाहुवा, टेढा, उछलाहुवा,। (पुं० ) ॥ १७३ ॥ (त्रि०) गमन ( न०)
शुद्धान्ता-राज्ञी, (रानी) (स्त्री० वेष्टित-स्त्रियोंको करण ( हावादि), श्र
श्रीपति-राजा, श्रीकृष्ण (पुं०) शोभित, घिराहुवा, (त्रि०)॥१७१॥
श्रीमान्-तिलकपुष्प-वृक्ष, ईश्वर,सुंदर
(पुं०)॥ १७४) व्याघात-विघ्न, विष्कंभआदिकोंमें ए• संघात-समूह,प्रहार, नरकभेद,(पुं०
क योग, प्रहार (बोट ) (पुं०) संगति-संग, ज्ञान, (स्त्री०) व्यायत-दृढ, लंबा, व्यापारयुक्त, अ-सन्नति-नमस्कार, शब्द, (स्त्री०
तिशय, (त्रि.)॥ १७२॥ ॥१७५ ॥
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ततृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
सन्ततिस्तनयापुत्रगोत्रविस्तारपचिषु । परम्पराभावेऽपि स्यात्समाप्तिस्तु समर्थने ॥ १७६ ॥ विनाशे संमतिस्तु स्यादनुमत्यभिलाषयोः ।
समितिः सङ्गरे साम्ये सभायां सङ्गमेऽपि च ॥ १७७ ॥ संविदाजी प्रतिज्ञायामाचारज्ञानयोः स्त्रियाम् । संवित्तिः प्रतिपत्तौ स्यादविवादे जनस्य च ॥ १७८ ॥ संवर्त्तः पुंसि कल्पान्ते हायने च कलिद्रुमे । सिकता सिकतायुक्तदेशे स्यादामयान्तरे ॥ १७९ ॥ सिकता वालुकायां स्युः शर्करायामपीष्यते । सुकृतं तु शुभे पुण्ये क्लीबं सुविहिते त्रिषु ॥ १८० ॥ सुनीतिः शोभननये सुनीतिर्भुवमातरि । सुत्रता सुखसन्दोह्यगवर्हत्सद्रतेषु च ॥ १८१ ॥
सन्तति-पुत्री, पुत्र, गोत्र, विस्तार, पङ्क्ति, पारम्पर्य ( परंपरापना ) ( स्त्री० )
समाप्ति समर्थन ॥ १७६ ॥ विनाश या अंत, (स्त्री० ) संमति - अनुमति, अभिलाषा, (स्त्री०) समिति-युद्ध, समता, सभा, संगम, ( स्त्री० ) ॥ १७७॥ संवित्- युद्धभूमि, प्रतिज्ञा, आचार, ज्ञान, (स्त्री० )
संवित्ति - सिद्धि, (ato) 11 906 11
संवर्त - कल्पका अंत ( प्रलय ), वर्ष, बहेडा-वृक्ष, (पुं० ) सिकता - सिकता ( बालू ) युक्त देश, रोगभेद, ॥ १७९ ॥ बालू (रेती), ( स्त्री० न० ० ) डली, (स्त्री० ) सुकृत-शुभ, पुण्य, ( न० ) अच्छीतरह विधान कियाहुवा, (त्रि० )
॥ १८० ॥
१४९
सुनीति - अच्छीनीति, ( स्त्री० )
ध्रुवकी मात
सुव्रता- जो सुखसे दोहीजाय वह गौ, ( स्त्री० ) जनका अविवाद, सुव्रत - अर्हन्तदेव, श्रेष्ठव्रत ( पुं० )
।। १८१ ।।
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१५०
विश्वलोचनकोश:
सुरतं स्यान्निधुवने सुरत्वे सुरता मता । सुहितस्त्रिषु तृप्ते स्यादुक्ते सुष्ठुहितेऽपि च ॥ १८२ ॥ सूनृतं मङ्गले सत्यप्रियवाचि न वाच्यवत् । संस्कृतं लक्षणोपेते कृत्रिम त्रिषु संस्कृतः ॥ १८३॥ भूषितेऽपि प्रशस्तेऽपि संहतं सङ्गते हढे ।
स्खलितं तूचिताशे स्खलितं चलिते त्रिषु ॥ १८४ ॥ स्तमितं वीतचाञ्चल्येप्यार्द्रीभूतेऽपि वाच्यवत् । स्थपतिः शल्यभेदे स्यादपि कञ्चुकिसूतयोः ॥ १८५ ॥ जीवेष्टियाजके चाऽथ स्थापितं न्यस्तनिश्चिते । सुवर्णा तु मता नद्यां सरिदौषधिभेदयोः ॥ १८६ ॥ हरिता मण्डलायां स्याद् हरिद्वर्णयुते त्रिषु । हरिद्वाहे च पुंस्येव हरितः ककुभि स्त्रियाम् ॥ १८७ ॥
)
सुरत- स्त्रीसंग, (मैथुन ) ( न० ) सुरता - सुरभाव ( देवपना ) ( स्त्री० सुहित तृप्तहुवा, (त्रि ० ) कहाहुवा, अच्छा हित, ( न० ) ॥ १८२ ॥ सुनृत-मंगल, सत्य और प्रिय वचन ( न० )
संस्कृत-लक्षणसे युक्त, कृत्रिम (न
कली ) ॥ १८३ ॥
भूषित, प्रशस्त ( श्रेष्ठ ) ( त्रि० ) संहत-संगत, दृढ, ( त्रि० > स्खलित - उचितसे गिरना, ( न० चलित (त्रि० ) ॥ १८४॥
•)
-
[ तान्तवर्गे
स्तमित- चंचलतारहित, गीलाहुवा, (foto)
स्थपति - शल्यभेद, चोल ( अंगरखा ) धारण किये, सारथि, ॥ १८५ ॥ जीवेष्टि यजन करनेवाला, (पुं० ) स्थापित-स्थापन कियाहुवा, निथित क्रियाहुवा, (त्रि० ) सुवर्णा नदी, नदीभेद, औषधिभेद, ( स्त्री० ) ॥ १८६॥ हरिता- दूर्वा, (स्त्री० ) हरितवर्ण
युक्त, (त्रि०)
हरित - अश्र, (पुं० ) हरित् - दिशा,
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( स्त्री० ) ॥ १८७ ॥ हरित् - तृण, (न० )
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तचतुर्थम् ।। भाषाटीकासमेतः ।
क्लीबं तृणप्रभेदेऽथ हम्मितं क्षिप्तदग्धयोः । हसन्त्याङ्गारधान्यां स्यान्मल्लिकाशाकिनीभिदोः ॥ १८८ ॥ हारीतः कैतवेऽपि स्यान्मुनिपक्षिप्रभेदयोः।। हृषितं विस्मृते प्रीते नते रोमाञ्चिते हृते ॥ १८९ ॥ क्षारितं स्रावित क्षारेऽभिशस्तेऽपि च वाच्यवत् ।
तचतुर्थम् । अङ्गारितं तु दग्धे स्यात्पलाशकलिकोद्गमे ।। १९० ॥ अतिमुक्तस्तु वासन्त्यां तिनिशे निष्कले त्रिषु । अत्याहितं तु जीवनापेक्षकृत्ये महाभये ॥ १९१ ॥ अधिक्षिप्तः पराभूते त्रिषु प्रणिहितेऽपि च । स्यात्पुरातनवस्त्रेऽपि नववस्त्रेप्यनाहतम् ॥ १९२ ।। अनुमतिस्त्वपूर्णे तु पूर्णिमानुज्ञयोः स्त्रियाम् ।
मतमन्तर्गतं मध्ये त्रिपु प्राप्ते च विस्मृते ।। १९३ ॥ हर्मित-क्षिप्त (फेंकाहुवा),दग्ध,(त्रि०) अतिमुक्त-जूहीलता या वासन्ती, हसंती-अँगीठी, मल्लिका (मोतिया)। तिरिच्छ वृक्ष, संगरहित, (त्रि.)
भेद ), शाकिनी-भेद, (स्त्री० ) अत्याहित-जीनेकी इच्छासे कर्म, ॥ १८८॥
| महाभय, (न. ) ॥ १९१ ॥ हारीत-कपट, मुनिभेद, पक्षिभेद, अधिक्षिप्त-तिरस्कार कियाहुवा, (पुं० )
। स्थापन कियाहुवा, (त्री० ) हृषित-भूलाहुवा, प्रसन्नहुवा, नम्र- अनाहत-पुराना वस्त्र, नवीन वस्त्र,
हुवा, रोमांचितहुवा, हड़ाहुवा, (न० ) ॥ १९२ ॥ (त्रि.) ॥ १८९ ॥
अनुमति-अपूर्ण, ( त्रि०) कलाहीन क्षारित-झिराहुवा, क्षार, श्रेष्ठ, (त्रि.) चंद्रमावाली पूर्णिमा, संमति, (सलातचतुर्थ ।
हमें सलाह मिलाना ) ( स्त्री. )। अङ्गारित-दग्ध, टेसूकी कलीका उ- अन्तर्गत-मध्य प्राप्तहुवा, विस्मृत त्पन्न होना, (न०) ॥ १९० ॥ ! (भूला) हुवा, (त्रि.)॥१९३॥
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१५२
विश्वलोचनकोशः- [तान्तवर्गभवेदपचितो न्यूने पूजितेप्यभिधेयवत् । स्त्रियामपचितिः पूजानिष्कृतिक्षयहानिषु ॥ १९४ ॥ अपावृतस्तु पिहिते खतन्ने स्यादपावृतः। अभिजातस्त्रिषु न्याय्ये कुलीनप्राप्तरूपयोः ॥ १९५ ॥ अभियुक्तस्त्रिषु द्वेषिसंरुद्धेऽप्यतितत्परे । अभिनीतो भवेन्याय्यसंस्कृतामर्षिषु त्रिषु ॥ १९६ ॥ अभिशस्तिस्तु लोकापवादेयाच्याभिशापयोः । उदितेऽभ्युदितो यस्मिन्सुप्तेऽर्कः समुदेति च ॥ १९७ ॥ पुमानर्थपतिर्भूपे ईश्वरे किन्नरे त्रिषु । ज्ञाते मूढोऽप्यवसितं क्लीबं गत्यवसानयोः ॥ १९८ ॥ क्लीबमाच्छुरितं हास्ये शब्दान्वितनखार्पणे । आयुष्मान् योगभेदे ना चिरजीविनि वाच्यवत् ।। १९९ ।।
अपचित-घटा हुआ वस्तु, पूजित, अभिशस्ति-लोकापवाद, याचना, (पु.)
झूठा कलंक, (स्त्री०) अपचिति-पूजा, बदला, नाश, हानि, अभ्युदित-उदयहुवा, जिसके सोते(स्त्री०)॥ १९४॥
हुए सूर्य उदय होजाय वह मनुष्य, अपावृत-ढकाहुवा, स्वतंत्र (बै अ- (पुं० )॥ १९७ ॥ ख्तयार ) (त्रि.)
अर्थपति-राजा, ईश्वर, किनर, (पुं०) अभिजात-न्याय्य ( योग्य ),कुलीन, अवसित-जानाहुवा, मोहितहुवा,
रूपवान, (त्रि०) ॥ १९५॥ (त्रि.) गमन, अंत, (न०) ॥१९८॥ अभियुक्त-शत्रुसे रुकाहुवा, अतित. आच्छरित-हँसना, शब्दसेयुक्त __ त्पर, (पुं०)
नख डालना (खाज करना) (न०) अभिनीत-न्याय्य (योग्य ), संस्कार आयुष्मान्-विष्कम्भ आदिकोंमेंसे कियाहुवा, कोधयुक्त, (त्रि.) एक योग, (पुं०) बहुतकाल जी
नेवाला (त्रि.)॥ १९९ ।।
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तचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
उज्जृम्भितं तु चेष्टायामुत्फुल्ले त्रभिधेयवत् । उदास्थितश्चरेध्यक्षे प्रणिधौ द्वारपालके ॥ २०० ।। उदाहितमुपन्यस्ते बद्धग्राहितयोरपि । उपाकृतो यज्ञहते पशावुपहते त्रिषु ॥ २०१॥ भवेदुपचितं दिग्धे समृद्धे च समाहिते । उपाहितोऽनलोत्पाते पुमानारोपिते त्रिषु ॥ २०२ ॥ राहौ सोपप्लवे चोपरक्तः स्याद्वयसनान्तरे। उपसत्तिस्तु सेवायां सङ्गेऽपि प्रतिपादने ॥ २०३ ॥ मतमुल्लिखितं तु स्यात्रिषूत्कीर्णे तनूकृते । ऋष्यप्रोक्ता शतावर्या शूकशिव्यां बलामिदि । २०४ ॥ ऐरावतोऽभ्रमातङ्गे नारङ्गे लकुचद्रुमे ।
ऐरावतं मतं दीर्घसरलेन्द्रशरासने ॥ २०५॥ उजम्भित-चेष्टा, (न०) फूलाहुवा, उपरक्त-राहुसे, उपद्रव (ग्रहण) युक्त (त्रि.)
। चंद्रसूर्य, दुःखभेद, (पुं० ) उदास्थित-चर (चंचल), अध्यक्ष, गु- उपसत्ति-सेवा, सङ्ग, प्रतिपादन, प्तबात कहनेवाला, द्वारपाल (पुं०)। (स्त्री०) ॥ २०३ ॥ ॥२०॥
_ उल्लिखित-खोदाहुवा, सूक्ष्म कियाउद्घाहित-उपन्यास कियाहुवा, बँधा
__हुवा, (त्रि०) हुवा, ग्रहण करायाहुवा (त्रि.) ! उपाकृत-यज्ञमें वध कियाहुवा पशु,
ऋष्यप्रोक्ता-शतावरी, कौंच, बला माराहुवा (त्रि.)॥ २०१॥
(खरहटी ) भेद, ( स्त्री०) २०४ उपचित-लिपाहवा, समृद्ध ( बढ़ा- ऐरावत-इंद्र हस्ती, नारंगी, बडहर
हुवा), समाधान कियाहवा,(त्री.), वृक्ष, (पु०) उपाहित-अग्निसे उत्पात, (पुं० ) ऐरावत-दीर्घ लंबा और सीधा इं..
आरोपण कियाहुवा, (त्रि०)२०२ द्रका धनुष (न०)॥ २०५ ॥
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१५४ विश्वलोचनकोशः
[तान्तवर्गेस्त्रियामैरावती सौदामनीसौदामनीभिदोः । अंशुमान्भास्करे शालपमिंशुमती स्त्रियाम् ॥ २०६ ॥ कलधौतं कलारावे क्लीबं कनकरूप्ययोः । कुमुद्धती कुमुदिन्यां कुशपल्यां कुमुद्धती ॥ २०७ ॥ कुमुद्वान्कुमुदप्रायदेशे स्यादभिधेयवत् । क्लीबं कुहरितं ध्वाने पिकालापे रतस्वने ॥ २०८ ।। कृष्णवृन्ता पाटलायां माषपामपि स्मृता ।। २०९ ।। मता गन्धवती मद्ये मेदिन्यां च पुरीभिदि । अपि योजनगन्धायां गरुत्मांस्ता_पक्षिणोः ।। २१० ॥ गृहस्थसत्रिणोरर्थाऽऽधाने गृहपतिः पुमान् । चक्राहुतिर्दीर्घबाहुभ्रमे पूर्णाहुतावपि ॥ २११ ।। चन्द्रकान्तो मणे दे चन्द्रकान्तं तु कैरवे ।
चर्मण्वती नदीभेदे कदलीचारवृक्षयोः ॥ २१२ ॥ ऐरावती-बिजली, विजलीभेद, गन्धवती-मदिरा, पृथ्वी, वरुणकी ( स्त्री.)
। नगरी, व्यासकी माता, ( स्त्री०) अंशुमान्-सूर्य, (पुं० ) अंशुमती- गरुत्मान्-गरुड, पक्षिमात्र, (पुं०)
शालपर्णी ( स्त्री०)॥ २०६ ॥ ॥ २१० ॥ कलधौत-सूक्ष्मशब्द, सुवर्ण, चाँदी, ग्रहपति-गृहस्थ, यज्ञ, द्रव्यका रखना, (न.)
(पुं०) कुमुद्वती-कमोदनी, औषधिभेद, या|
कुशराजाकी स्त्री, ( स्त्री०) २०७ चाहुति-लंबी भुजाकरके भ्रमणा, कुमुद्वान्-बहुतकमोदनीवाला स्थल,
__ पूर्णाहुति (स्त्री०)॥ २११॥ (त्रि०)
चन्द्रकान्त-मणिभेद, ( पुं० ) कुहरित-शब्द, कोयलका बोलना, चन्द्रकान्त-कैरव, ( कमल) (न.)
मैथुनसमयका शब्द, (न०)२०८ चर्मण्यती-नदीभेद, केलावृक्ष, चाकृष्णवृन्ता-पाडल, माषपर्णी-औ- वृक्ष, (चरोंजी) (स्त्री) षधि, (स्त्री०) ॥ २०९ ॥
॥२१२ ॥
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तचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
आषाढपर्वतस्यान्तः कारुती नाम निम्नगा। तस्यां मासोपवासिन्यामपि चारुव्रता स्मृता ॥ २१३ ॥ चित्रगुप्तो मतो दण्डधारे तस्य च लेखके । दिवाकीर्तिस्तु चाण्डाले नापिते काकवैरिणि ॥ २१४ ॥ दिवाभीत उलूके स्यात्कुत्सिते कुमुदाकरे । द्वीपवानब्धिनदयोद्वीपवत्यापगाभुवोः ॥ २१५ ॥ धूमकेतुव॒हद्भानावुत्पातग्रहभेदयोः । नदीकान्तो जलनिधौ सिन्धुवारेऽपि हिजले ॥ २१६ ॥ नदीकान्ता लताजम्बूकाकजङ्घासु विश्रुता। नन्द्यावतः पुमान्वेश्मप्रभेदे तगरद्रुमे ॥ २१७ ॥ नागदन्तो गजरदे गृहान्निर्गतदारुणि । नागदन्ती तु कुम्भायां श्रीहस्तिन्यां च दृश्यते ॥ २१८ ॥
चारुवता-आषाढ पर्वतके भीतर का- धूमकेतु-अग्नि, उत्पात, ग्रहभेद, रुती नाम जो नदी है वहां एक- (पुं० ) मासका व्रत करनेवाली स्त्री, (स्त्री०) नदीकान्त-समुद्र, सिम्हालू.वृक्ष, ज॥ २१३ ॥
लबेत (पुं० ) ॥ २१६ ॥ चित्रगुप्त-धर्मराज, धर्मराजका ले- नदीकान्ता-माधवीलता या श्यामा__ खक, (पुं०)
लता, जामुन, काकजंघा या घुदिवाकीर्ति-चांडाल, नाई, काकवैरी धुची, (स्त्री० ) (स्त्री० ) ॥ २१४ ॥
नन्द्यावर्त-मकानभेद, तगर-वृक्ष, दिवाभीत-उल्लू-पक्षी, कुत्सित (नि- (पुं० ) ॥ २१७ ॥
दित ), तालाब, (पुं०) 'नागदन्त-हाथीदाँत, धरसे बाहिर द्वीपवान् (वत्)-समुद्र, नद, (पुं०) निकला हुवा काष्ठ, (पुं० ) द्वीपवती-नदी, पृथ्वी, (स्त्री०) नागदन्ती-जलकुंभी, हाथीसूंडा, ॥ २१५॥
(स्त्री०)॥ २१८ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [तान्तवर्गेअस्वाध्याये प्रतिक्षेपे निराकारे निराकृतिः। त्रिषु निस्तुषितं त्यक्ते त्वचाशून्ये लघुकृते ॥ २१९ ॥ निष्काशितो निर्गमिते धिक्कतेप्युज्झिते त्रिषु । पञ्चगुप्तस्तु चार्वाकदर्शने कमठेऽपि च ॥ २२० ॥ गताप्तचेष्टिते ज्ञाते लाभे परिगतं मतम् । परिघातः समाघाताऽऽयुधयोरथ हायने ॥ २२१ ॥ परिवर्तो विनिमये कूर्मराजे पलायने । दन्ते सप्रसवे लाक्षारक्ते पल्लवितं त्रिषु ॥ २२२ ॥ पारावतः कलरवे शैले मर्कटतिन्दुके ।। पारावती तु गोपालगीतेऽपि लवलीफले ॥ २२३ ।। पारिजातः पारिभद्रे मन्दारेऽपि च पादपे।
पाशुपतः पशुपतिदैवते बकपुष्पके ॥ २२४ ॥ निराकृति-पाटका नहीं पढना, व-परिवर्त्त-बदला, कूर्मराज, भागना,
र्जना, निकालना ( स्त्री०) (पुं० ) निस्तुषित-त्यागाहुवा, त्वचाशून्य, पल्लवित-दियाहुवा, उत्पत्तिवाला,
छोटा कियाहुवा, (त्रि०) ॥२१९॥ लाखसे रंगाहुवा, (त्रि.) ॥२२२॥ निष्काशित--निकालाहुवा, धिक्कार पारावत-कबूतर, पर्वत, मकरतें।
कियाहुवा, त्यागाहुवा, (त्रि.) दुवा, (पुं० ) पंचगुप्त-चार्वाकोंका शास्त्र, कमठ पारावती-गोपालका गीत, हरपारेव
(कछुवा ) (पुं० ) ॥ २२०॥ डीका फल, (स्त्री०) ॥२२३ ॥ परिगत-गयाहुवा के प्राप्त होनेसे | पारिजात-नींब-वृक्ष, आक-वृक्ष,
चेष्टित, जानाहुवा, लाभ, (त्रि०) कल्प वृक्ष, (पुं० ) परिघात-बहुत आघात (चोट), ह-पाशुपत-महादेव देवता है जिसका थियार, वर्ष, (पुं०)॥ २२१ ॥ वह, अगस्तका पुष्प, (पुं०)२२४
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तचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः।
१५७ पुरस्कृतं भवेदमकृताभ्यर्चितयोस्त्रिषु । शस्ते शिक्ते रिपुप्रस्ते स्वीकृतेऽपि त्रिषु स्मृतम् ॥ २२५ ॥ पुष्पदन्तस्तु दिग्नागनागविद्याधरान्तरे । प्रजापतिः क्षितिपतौ विरिंच्ये च प्रजापतिः ॥ २२६ ॥ त्रिषु प्रणिहितं ख्यातं न्यस्ते लब्धे समाहिते। भवेत्प्रतिहतो द्विष्टे प्रतिस्खलितरुद्धयोः ॥ २२७ ।। प्रतिपच्चेतनायां स्यात्प्रतिपत्तावपि स्मृता । प्रतिपत्तिः पदप्राप्तिः प्रतिप्राप्तिश्च गौरवे ।। २२८ ।। प्रतिपत्तिः प्रबोधेऽपि संवित्प्रागल्भयोरपि । प्रतिकृतिः प्रतीकारे प्रतिबिम्बे च पूजने ॥ २२९॥ प्रतिक्षिप्तं प्रतिहते प्रेषिते च निराकृते । प्रधूपितस्त्रिषु क्लिष्टे सूर्यगम्यदिशि स्त्रियाम् ।। २३० ।। पुरस्कृत-आगेकियाहुआ, पूजाकिया ; प्रतिपत्-बुद्धि, प्रतिपत्ति (प्रगल्भ
हुवा, (त्रि.) श्रेष्ठ, सींचाहुवा, ताआदि ) (स्त्री.) शत्रका प्रसाहुवा, अंगीकार कियाहवा, प्रतिपत्ति-पदप्राप्ति, प्रतिप्राप्ति, गौ(त्रि०) ॥ २२५ ॥
रव ( बडप्पन) (स्त्री० ॥२२८॥ पुष्पदंत-दिग्हस्ती, एक नाग, एक |
प्रतिपत्ति-ज्ञान, बुद्धि,प्रगल्भता (निः
शंकपना) (स्त्री०) विद्याधर, (पुं०)
प्रतिकृति-दूरकरना या इलाज, मूर्ति, प्रजापति-राजा, ब्रह्मा, (पुं०)
* पूजन, ( स्त्री. ) ॥ २२९ ॥ ॥ २२६ ॥
प्रतिक्षिप्त-रोकाहुवाआदि, प्रेराहुवा प्रणिहित-स्थापन कियाहुवा, प्राप्त (भेजाहुवा ), निकालाहुवा,(त्रि.)
हुवा, सावधानहुवा, (त्रि.) प्रधूपित-क्लेशदियाहुवा, (त्रि०) सूप्रतिहत-द्वेषकियाहुवा, आखलाहुवा, यकेजानेवाली दिशा, (बी०) रुकाहुवा, (त्रि.)॥ २२७ ॥ ॥ २३० ॥
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विश्वलोचनकोशः- [तान्तवर्गप्रव्रजिता तु मुण्डीरीमांस्योस्त्रिषु तपखिनि । भगवान्सुगते पूज्ये त्रिषु गौर्या तु योषिति ॥ २३१ ॥ भोगवान्नाट्यगानयो गवानहिभोगिनोः । मता भोगवती नागपुरि नागसरित्यपि ॥ २३२ ॥ रङ्गमाता तु लाक्षायां कुट्टिन्यामपि दृश्यते । लक्ष्मीपतिनृपे विष्णौ पूगीफललवङ्गयोः ॥ २३३ ॥ वनस्पतिर्विना पुष्पं फलिवृक्षेऽपि पादपे । विजृम्भितं विकसितेऽप्युद्गते वेष्टिते त्रिषु ॥ २३४ ॥ विनिपातस्तु देवादिव्यसने पतनेऽपि च । विवस्वांस्तु पुमान्वासरेश्वरे त्रिदिवेश्वरे ॥ २३५ ॥ विवक्षितं वक्तमिष्टे शोभनेऽपि विवक्षितम् । वैजयन्तो ध्वजे शक्रप्रासादे शरजन्मनि ॥ २३६॥
---------- -- -- .. प्रव्रजिता-गोरखमुंडी, जटामांसी, वनस्पति-पुष्योंके बिना फलनेवाला (स्त्री०) तपस्वी (पुं०)
वृक्ष, वृक्षमात्र, (पुं०) भगवा (न्)त्-बुद्धदेव, (पुं०) विजंभित-खिलाहुबा, उछलाहुवा, __ पूज्य (त्रि.)
लपेटाहुवा, (त्रि.)॥ २३४ ॥ . भगवती-गौरी, (स्त्री०) ॥२३१॥ विनिपात-देवआदिसे दुःख, पड़ना, भोगवान्-नाट्य, गाना, सर्प,
भोगी-पुरुष ( पुं०) भोगवती-नागपुरी, नागनदी,(स्त्री०)
विवस्वान्-सूर्य, इंद्र, (पुं०)॥२३५॥
पर ॥ २३२ ॥
विवक्षित-कहनेको इच्छित, सुंदर, रंगमाता-लाख, कुटिनी, (स्त्री०) (त्रि.) लक्ष्मीपति-राजा, विष्णु, सुपारी, वैजयन्त-ध्वजा, इंद्रका महल, खा. लौंग, (पुं०) ॥ २३३ ॥ । मिकार्तिक, (पुं०) ॥ २३६ ॥
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तचतुर्थम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
वैजयन्ती पताकायां जयन्ती वह्निमन्थयोः । व्यतीपातो योगभेदे महोत्पातेऽपमानने ॥ २३७ ॥ मतः शतधृतिः पाकशासने कमलासने । शुभ्रदन्ती मरुद्दन्ती दन्तिनी सुंदर स्त्रियोः ॥ २३८ ॥ संख्यावान्पण्डिते पुंसि त्रिषु सङ्ख्यायुते मृते । सदागतिर्गन्धवाहे निर्वाणेऽपि सदीश्वरे ॥ २३९॥ समुद्रान्ता त्वनन्तायां कार्पासीपृक्कयोरपि । समुद्धतः समुत्कीर्णेऽप्यविनीते समुद्धतः ॥ २४० ॥ समाघातो वधे युद्धे समाधिस्थे समाहितः । त्रिषु न्यस्तप्रतिज्ञातसंसिद्धे यम आत्मनि ॥ २४१ ॥ समाहितं समाधाने व्यसनेऽपि समाहितम् । सरस्वान्रसिके सिन्धौ नदेऽप्यथ सरस्वती ॥ २४२ ॥
वैजयन्ती - इंद्रके महलकी पताका, जैतपुष्पवृक्ष, अरडों-वृक्ष (स्त्री० ) व्यतीपात-विष्कंभआदियोगों में से ए-: कयोग, महाउत्पात, अपमान (पुं०) ॥ २३७ ॥
शतधृति-- इंद्र, ब्रह्मा, (पुं० ) शुभ्रदन्ती-वायव्यकोणके हस्तीकी हस्तिनी, सुंदर दाँतोवाली स्त्री, ( स्त्री० ) ॥ २३८ ॥
संख्यावान् (वत्) - पंडित, (पुं० ) संख्यावाला, मृतक, (त्रि० ) सदागति - वायु, मुनि या अभि श्रेष्ठ, ईश्वर, ( पुं० ) ॥ २३९ ॥
समुद्रान्ता - जवाँसा, कपास वृक्ष, शाक विशेष ( असवरग ) ( स्त्री० ) समुद्धत-पिछोड़ाहुवा, उद्धत (अनाडी ) पुरुष, ( पुं० ) ॥ २४० ॥ समाघात-मारना, बुद्ध, (पुं०) समाहित-समाधि में स्थित, स्थापनकियाहुवा, प्रतिज्ञाकियाहुवा, अच्छेप्रकार से सिद्ध, धर्मराज, आत्मा, ( त्रि०) २४१ समाहित- समाधान, स्थापनकरना,
१५९
(न०) सरस्वान् (वत्) - रसिक, समुद्र, नद:
( पुं० ) सरस्वती - ॥ २४२ ॥
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विश्वलोचनकोश:
नदीभेदे नदीदिव्यस्त्रीगोवाग्देवतागिरि । सुधासूतिः पुमान्यज्ञे कुरङ्गतिलकेऽपि च ॥ २४३ ॥ सूर्यभक्तो मतो बन्धुजीवे भास्करदैवते । सेनापतिरनीकाधिकृते हैमवतीसुते ॥ २४४ ॥ हिमारातिः खले सूर्येऽनले हैमवती तु या । गौ हरीतकीर्णक्षीरीश्वेतवचासु सा ॥ २४५॥ पंचमम् ।
स्यादध्यवसितं ज्ञाते गते क्रुद्धेऽपि वेष्टिते । पुंसि श्रीकण्ठवैकुण्ठयज्ञभेदेऽ पराजितः ॥ २४६ ॥ जयन्ती पार्वतीविष्णुक्रान्तासु त्वपराजिता । वाच्यलिङ्गः पिपतिषन्पतनेच्छौ खगे पुमान् ॥ २४७ ॥ टेवलोकितं ख्यातं लोकनाथेऽवलोकितः । उपधूपित आसन्नमरणे परिधूपिते ॥ २४८ ॥
तपंचम |
सरस्वती नाम नदी, दिव्यस्त्री, गौ, वाणीकी अधिष्ठात्री देवता, वाणी (ato) सुधासूति-यज्ञ, मृगका तिलक, (पुं०)
॥ २४३ ॥
सूर्यका
सूर्यभक्त - दुपहरिया का शाद, उपासक, (पुं० ) सेनापति - सेनाका स्वामी, स्वामिका
र्त्तिक, (पुं० ) ॥ २४४ ॥ हिमाराति - ख -खल ( खोटा ), सूर्य, अमि, (पुं० ) हैमवती - पार्वती, हरड़, एकप्रकारकी कटेहली, सफेद बच ( स्त्री० )
॥ २४५ ॥
[ तान्तवर्गे
अध्यवसित - जानाहुवा, गयाहुवा, क्रुद्धहुवा, लपेटा हुवा ( त्रि० ) अपराजित - महादेव, विष्णु, यज्ञभेद, (पुं० ) ॥ २४६ ॥ अपराजिता - देवीभेद,
पार्वती, कोयल या विष्णुकान्ता, ( स्त्री० ) पिपतिष (तृ) नू - पड़नेकी इच्छावाला, (त्रि०) पक्षी, (पुं०) ॥२४७॥ अवलोकित-देखाहुवा, (त्रि०) लोकनाथ ( खामी ) ( पुं० ) उपधूपित - नजदीक मृत्युबाला, धूप दियाहुवा ( पुं० ) ॥ २४८ ॥
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तषष्ठम् । ]
भाषाटीकासमेतः । गणाधिपतिरित्येष पिनाकिनि विनायके । श्वेतायामप्यसौ वाच्यलिङ्गस्तु स्यादनिर्जिते ॥ २४९ ॥ सर्वमुक्तेऽभिनिर्मुक्तः सुप्ते यत्रास्तगो रविः । पृथिवीपतिरित्युक्तो भूपाले ऋषभौषधे ॥ २५० ॥ मूर्धाभिषिक्तः क्षमापाले मन्त्रिणि क्षत्रियेऽपि च । यादसांपतिरम्भोधौ वरुणे यादसांपतिः ॥ २५१ ॥ वसन्तदूतश्तेऽसौ पिकपञ्चमरागयोः । वसन्तदूतीशब्दस्तु पाटलावतिमुक्तके ॥ २५२ ॥
तषष्टम् । अर्द्धपारावतश्चित्रकण्ठे च तित्तिरावपि । समुद्रनवनीतं स्यादमृते च सुधानिधौ ॥ २५३ ।।
इति विश्वलोचने तान्तवर्गः ॥
गणाधिपति-महादेव, गणेश, कटे- : वसन्तदूत-आम्र, कोयल, पंचम
हली (पुं० ) नहीं जीताहुवा, राग, (पुं०) (त्रि. ) ॥ २४९ ॥
वसन्तदूती-पाढलपुष्य, माधवी-पुअभिनिर्मुक्त-सर्वसे छुटा, जिसके ष्पलता, (स्त्री० ) ॥ २५२ ॥ सूतेहुए सूर्य अस्त होजाय वह,
तषष्ट । (पुं०)
अर्धपारावत-चित्रकंठ (आधा कथिवीपति-राजा, ऋषभनाम औ- बूतरके समान-पक्षी) तीतर-पक्षीषधि, (पुं० ) ॥ २५० ॥ समुद्रनवनीत-अमृत, चंद्रमा, र्धाभिषिक्त-राजा, मंत्री, क्षत्रिय, (न.)॥ २५३ ॥ (पुं०)
इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें दिसांपति-समुद्र, वरुण, (पुं०) तान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥ ॥२५१ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [ थान्तवर्गेअथ थान्तवर्गः।
थैकम् । थः स्याच्छिलोच्चये भीतत्राणे थं मङ्गलेऽपि थम् ।
थद्वितीयम् । अर्थः प्रयोजने चित्ते हेत्वभिप्रायवस्तुषु ॥ १॥ शब्दाभिधेये विषये स्यान्निवृत्तिप्रकारयोः ॥ २ ॥ आस्था त्वालम्बनापेक्षायनास्थानेषु दृश्यते । कन्था तु मृत्तिकाभित्तौ कन्था प्रावरणान्तरे ॥ ३ ॥ कुथः स्त्रीपुंसयोर्वर्णकम्बले पुंसि बर्हिषु । कोथस्तु नेत्ररुग्भेदे मथने शटितेऽपि च ॥ ४ ॥ क्वाथः स्याद्व्यसने पुंसि द्रवनिप्पाकदुःखयोः । गाथा वृत्तेऽपि वाग्भेदे ग्रन्थस्तु धनशास्त्रयोः ॥ ५॥ ग्रन्थः स्याद्रन्थनायां च द्वात्रिंशद्वर्णनिर्मितौ । ग्रन्धिर्ना पर्वणि ग्रन्थिपणेरुग्भिदि च स्त्रियाम् ॥ ६ ॥ अथ थान्तवर्ग । कुथ-वर्ण (रंग), कम्बल (स्त्री-पुं०) थैक ।
| मयूर (पुं० ) थ-पर्वत (पु.) भयसे रक्षा, मंगल, कोथ-नेत्ररोगका भेद, मथना, दुःख (न०)
(पुं०) ॥४॥ थद्वितीय।
क्वाथ-व्यसन, पतली निष्पाव, दुःख, अर्थ-प्रयोजन (मतलब),चित्त, कारण,
(पुं०) अभिप्राय, वस्तु, ॥ १॥ शब्दोंका अर्थ, विषय, निवृत्ति, प्रकार (पुं०)
| गाथा-छंद-भेद, वाणीभेद, (स्त्री०)
ग्रन्थ-धन, शास्त्र, ॥५॥ ग्रंथना आस्था-आलम्वन (आश्रय ), अ- (गूंथना ), बत्तीस ३२ वर्गों की
पेक्षा, यत्न, स्थान, ( स्त्री.) रचना, (पुं० ) कन्था-मृत्तिकाकी भीत, ओढनेका ग्रंथि-पोरी, (पुं० ) गठिवन-वृक्ष, वस्त्र (स्त्री.)॥३॥ } रोगभेद, ( स्त्री.)॥६॥
॥
२
॥
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थद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
कौटिल्ये बन्धभेदे च तीर्थ शास्त्रावतारयोः । पुण्यक्षेत्रमहापात्रोपायोपाध्यायदर्शने ॥ ७ ॥ ऋषिजुष्टे जले यज्ञे जातौ च वनितार्त्तवे । नीलीसूक्ष्मैलयोस्तुत्था तुत्थोनौ तुत्थमञ्जने ॥ ८ ॥ दुःस्थस्तु दुर्गते मूर्खे पार्थः स्यात्ककुभेऽर्जुने । पाथो दिवाकरे पुंसि पाथः पयसि न द्वयोः ॥ ९ ॥ पृथुनृपे कृष्णजीरे वाप्यां स्त्री महति त्रिषु । सानो मानेऽस्त्रियां प्रस्थः स्यादप्युन्मितवस्तुनि ॥ १० ॥ प्रोथः पान्थेऽश्वघोणायामस्त्री ना कटिगर्भयोः । वीथी गृहतटीपती नाट्यरूपकवर्मनोः ॥ ११ ॥ मन्थो मन्थानदण्डे स्यावादशात्मनि साक्तवे ।
मन्थो नयनरोगेऽपि यूथं तिर्यकये चये ॥ १२ ॥ तीर्थ-कुटिलता, बन्धभेद, शास्त्र, अ- प्रस्थ-पर्वतकी समभूमि, ६४ तोला
वतार, पुण्यक्षेत्र, बडा पात्र, उपाय, प्रमाण, (पुं० न०) उन्मान क. पढानेवाला, दर्शन, ॥ ७ ॥ रीहुई वस्तु (त्रि.)॥१०॥ ऋषियोंका सेवित जल, यज्ञ,जाति,
ल, प्रोथ-बटाऊ (पुं० ) अश्वकी नास्त्रीका रज, (न०) तुत्था-नीली-औषधि, छोटी इला- सिका, (पुं० न०) कटि, गर्भ,
यची, (स्त्री०) तुत्थ-अग्नि (पुं०): (पुं० ) तुत्थ-अंजन (न०) ॥ ८ ॥ वीथी-घरका अंग, पंक्ति, नाट्यका दुःस्थ-दुःखसे गयाहुवा, मूर्ख, (पुं०) रूपक, मार्ग, (स्त्री० ) ॥ ११ ॥ पार्थ-कोह-वृक्ष, अर्जुन-पांडुपुत्र, मन्थ-दधिआदि मथनका दंड (रई), (पुं० )
। सूर्य, सक्त विकार या समूह, नेत्रपाथ-सूर्य, (पुं० ) पाथस्-जल,
रोग, (पुं०) (न०)॥९॥ पृथु-पृथु-राजा, कालाजीरा, (पुं०) यूथ-सजातीय तिर्यक् जातियोंका वावडी ( स्त्री०) महान् ( बडा) समूह, समूहमात्र (पुं० न०) (त्रि.)
॥ १२ ॥
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विश्वलोचनकोशः-- [ थान्तवर्गअस्त्री यूथी तु मागध्यां पुष्पभेदे कुरण्टके।। रथस्तु स्यन्दने काये वेतसे चरणेऽपि च ॥ १३ ॥ सार्थः स्याद्वणिजां वृन्दे वृन्दमात्रेऽपि दृश्यते । सिक्थं नील्यां मधूच्छिष्टे सिक्थो नौदनसम्भवे ॥ १४ ॥ संस्था नाशे व्यवस्थायां व्यक्तिसादृश्ययोः स्थितौ। संस्था ऋतौ समाप्तौ च चरे च निजराष्ट्रगे ॥ १५ ॥
थतृतीयम् ।। अतिथिः स्यात्प्राघुणके कोपेपि कुशपुत्रके। त्रिष्वव्यथो व्यथाहीने पथ्यायां पन्नगेऽव्यथः॥ १६ ॥ अश्वत्थः पूर्णिमायां च गर्दभाण्डे च पिप्पले । उद्रथस्ताम्रचूडेऽपि महेन्द्रे महकामुके ॥ १७ ॥ उन्माथः कूटयन्त्रे स्यादपि मारणघातयोः ।
उपस्थस्तु भगे लिङ्गेऽप्युत्सङ्गेऽपि गुदे पुमान् ॥ १८ ॥ यूथी-पीपल, जूही-पुष्पवृक्ष, पीली
थतृतीय । कटसरैया (स्त्री०)
अतिथि-अभ्यागत, क्रोध, कुशका रथ-रथ, शरीर, बेतस-वृक्ष, पांव
पुत्र (पुं०) (पुं० ) ॥ १३ ॥
अव्यथ-व्यथाहीन, हरद, सर्प (त्रि.)
॥ १६ ॥ सार्थ-वणिकोंका समूह, समूहमात्र, अश्वत्थ-पूर्णिमातिथि, (स्त्री० ) (पुं० )
( अश्वत्थ ) पारस पीपल, पीपल, सिक्थ-लीलका पेड, मोम, ( न०) (पुं० ) ॥ १७ ॥ ॥ १४ ॥
उद्रथ-ताम्रचूड ( मुरगा), उरलूसंस्था-नाश, व्यवस्था, व्यक्ति (पृथ- पक्षी, श्वान (पुं० )
शरीर ), सादृश्य ( तुल्यता ), उन्माथ-कूटयंत्र, मारना, घात कस्थिति, यज्ञभेद, समाप्ति, अपने रना, (पुं०) राज्यमें प्राप्तहुवा जासूस (स्त्री० )| उपस्थ-भग (स्त्रीकी योनि ), लिंग,
___गोद, गुद, (पुं०) ॥ १८ ॥
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थतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।।
कायस्थस्तु नृणां जातिप्रभेदे परमात्मनि । कायस्था स्याद्वयस्थायां पथ्यायां कायगे त्रिषु ॥ १९ ॥ गोग्रन्थिस्तु करीषे स्याद्गोष्ठे गोजिबिकौषधौ । दमथस्तु दमे दण्डे निर्ग्रन्थः क्षपणेऽधने ॥ २० ॥ बालिशेऽपि निशीथस्तु निशामात्रार्द्धरात्रयोः। प्रमथः शङ्करगणे पथ्यायां प्रमथा तथा ॥ २१ ॥ वयःस्था शाल्मलीपथ्याकाकोल्यामलकीषु च । ब्राह्मीत्रुटिगुडूचीषु वयस्थस्तरुणे त्रिषु ॥ २२ ॥ मन्मथः कामचिन्तायां कामदेवकपित्थयोः । वमथुः पुंसि वमने मातङ्गकरशीकरे ॥ २३॥ वरूथो रथगुप्तौ ना वरूथं चर्मवेश्मनि । विदथो योगिकृतिनोः शमथः शान्त्यमात्ययोः ॥ २४ ॥ --- --- --------- कायस्थ-मनुष्योंकी जातिका भेद वयःस्था-सेमलका-वृक्ष, हरड़, का
( कायथ ), परमात्मा, (पुं) कोली, आँवला, ब्राह्मी, छोटी इलाकायस्था-जवान उम्रमें स्थित स्त्री, यची, गिलोय, ( स्त्री०) वयःस्थ.
हरड, (स्त्री० ) शरीरमें स्थित ! जवान, (त्रि० ) ॥ २२ ॥ (त्रि.)॥ १९ ॥
मन्मथ-कामचिन्ता, कामदेव, कैगोग्रन्थि-आरना, गौवोंका ठान, थका-वृक्ष, (पुं०) गोभी या गावजवी-औषधि, (पुं० स्त्री.)
वमथु-वमन, हस्तीकी सूंडके जलदमथ-इंद्रियांका रोकना, दण्ड, (पुं०)
! कण, (पुं० ), ॥ २३ ॥ निर्ग्रन्थ-मुनि, निर्धन, ॥२०॥ वरूथ-रथकी रक्षाके लिये लोहादिमूर्ख, (पुं०)
___ मयपरदा, (पुं०) चर्मका डेरा निशीथ-रात्रिमात्र, अर्द्धरात्र, (पुं०)!
(तंबू ) ( न०)
१ प्रमथ-महादेवके गण, (पुं०) प्र. विदथ-योगी, पंडित, (पुं०)
मथा, (हरड) स्त्री०) ॥ २१ ॥ शमथ-शान्ति, मंत्री, (पुं०) ॥२४॥
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विश्वलोचनकोशः- [ थान्तवर्गेषड्ग्रन्था तु वचाशट्योः षड्ग्रन्थः करजान्तरे । समर्थस्तूद्भटे शक्ते सम्बद्धार्थे हिते त्रिषु ॥ २५ ॥ सर्वार्थसिद्धे सिद्धार्थः सिद्धार्था सितसर्षपे । क्षवथुः पुंसि कासे स्याच्छिक्कायामपि सम्मतः ॥ २६ ॥
थचतुर्थम् । अनीकस्थो रणखले चिह्वेषु भटमर्दने । राजरक्षिषु मातङ्गशिक्षणातिविचक्षणे ॥ २७ ॥ भवेदितिकथा ग्राम्यकथाप्रनष्टधर्मयोः । वाच्यवद्दशमीस्थः स्यात्स्थविरक्षीणरागयोः ॥ २८ ॥ वानप्रस्थो मधुष्ठीले तृतीयाश्रमिकिंशुके ।
थपंचमम् । भटे पुंस्यप्रतिरथं यात्रायां साम्नि मङ्गले ॥ २९ ॥
इति विश्वलोचने थान्तवर्गः ॥
षड्ग्रन्था-बच, कचूर,(स्त्री०)षड्- इतिकथा-व्यर्थभाषण, नष्टधर्म,
ग्रन्थ, करंजुवाभेद, (पुं०) (स्त्री० ) समर्थ-उद्भट, शक्तिमान् , सम्बद्ध | दशमीस्थ-बुडा, राग ( स्नेह ) रहित,
अर्थ, हितकारी, (त्रि. ) ॥ २५॥ (पुं० ) ॥ २८ ॥ सिद्धार्थ-बुद्धदेव, (पुं०)सिद्धार्था- वानप्रस्थ-महुवा, तीसरा आश्रम, के सफेद-सिरसों, (स्त्री०)
(टे) सू, (पुं०) क्षवथु-खाँसी, छींक, (पुं०) ॥२६॥
थपंचम । थचतुर्थ ।
अप्रतिरथ-योद्धा, (पुं०) यात्रा, अनीकस्थ-रणभूमि, चिह्न, योद्धाका सामवेद, मंगल, ( न० ) ॥२९॥
मर्दन, राजाकी रक्षा करनेवाला, इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटी. हस्तीकी शिक्षामें निपुण, (पुं०) कामें थान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥
॥ २७ ॥
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दद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः। अथ दान्तवर्गः।
दः शुद्धौ देवने दास्तु दातरि च्छेददानयोः ॥ १ ॥
दद्वितीयम् । अन्दुः स्त्रियामलङ्कारे वेदबंधनवस्तुनोः । अब्दः संवत्सरे मेघे मुस्तके पर्वतान्तरे ॥ २॥ कन्दोऽस्त्री शूरणे वृक्षमूले पुंसि पयोधरे । कुन्दो माध्ये पुमांश्चक्रे भ्रमौ निधिसुरद्विषोः ॥ ३ ॥ विष्णुभ्रातरि रोगे च मतः शस्त्रान्तरे गदा । छदः पत्रे पतत्रे च ग्रन्थिपर्णतमालयोः ॥ ४ ॥ छन्दोऽभिप्रायवशयोध/दा कन्यामनीषयोः । नदी सरित्यपि नदः सिन्धौ शोणाविनादयोः ॥ ५॥
अथ दान्तवर्ग। । कुन्द-कुन्द-पुष्पवृक्ष, चक्र, भ्रमणा, दैक ।
निधिभेद, एक राक्षस, (पुं०) द-शुद्धि, क्रीडा, (पुं० )
गद-विष्णुका भ्राता, रोग, (पुं०) दा-दाता, छेदन, दान, (पुं० )॥१॥
10 गदा-शास्त्रभेद, (स्त्री० ) दद्वितीय।
छद-पत्ता, पक्षीकी पर, गठिवन औअंदु-आभूषण, वेद, बेड़ी (स्त्री०) षधि, तमाल-वृक्ष (पुं० ) ॥ ४ ॥ अब्द-संवत्सर, मेघ, नागरमोथा, प- छंद-अभिप्राय, वश, (पुं०)
वैतभेद, (पुं० ) ॥२॥ धीदा-कन्या, बुद्धि, (स्त्री०) ॥५॥ कन्द-जमीकंद, वृक्षकी जड, (पुं० नदी-नदी, ( स्त्री०) नद-सिंधु,
न०) नागरमोथा या मेघ (पुं०) शोण-नद, भेडीका शब्द (पुं०)
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१६८
विश्वलोचनकोश:
नन्दः शिवप्रतीहारे द्यूतभाण्डमिदोर्मुदि । नन्दा मणिकसम्पत्त्योर्निन्दा कुत्साऽपवादयोः ॥ ६ ॥ पदं वाक्ये प्रतिष्ठायां व्यवसायाऽपदेशयोः । पादातच्चियोः शब्दे स्थानत्राणानिवस्तुषु ॥ ७ ॥ पादोsस्त्री चरणे मूले तुरीयांशेऽपि दीधितौ । शैलप्रत्यन्तरौले ना बिदा ज्ञाने मतावपि ॥ ८ ॥ बिन्दुः स्याद्दन्तदशने शुक्रे वेदितृविपुषोः । बेदिरङ्गुलिमुद्रायां बुधे संस्कृतभूतले ॥ ९ ॥ भन्द (द्र) शर्मणि कल्याणे भेदो द्वैधविशेषयोः । विदारणे चोपजापे संपूर्वः सिन्धुसङ्गमे ॥ १० ॥ मदो मृगमदे मधे दानमुद्गर्वरेतसि । महापूर्वी मतङ्गे स्यान्मदी कृषकवस्तुनि ॥ ११ ॥
नन्दि - शिवका पौलिया, जूवा, भांड
( पात्र ) भेद, आनंद, ( ( पुं०न० ) | नन्दा - बडा घड़ा, सम्पत्ति, (स्त्री०) निन्दा - कुत्सा ( निंदा ), अपवाद
( बुरा कहना ) ( स्त्री० ) ॥ ६ ॥ पद - वाक्य प्रतिष्ठा, व्यवसाय ( उ द्यम ), मिस, पाँव, पैड, शब्द, स्थान, रक्षा, वस्त्र, न० ) ||७|| पाद - चरण ( पाँव ), वृक्षकी जड़, चौथा हिस्सा, किरण, पर्वत, पर्वत
के समीप छोटा पर्वत, (पुं० ) बिदा - ज्ञान, बुद्धि, (स्त्री० ) ॥ ८ ॥ बिन्दु - दाँतसे कियाहुवा घाव, वीर्य,
[ दान्तवर्गे
जाननेवाला, (त्रि० ) जल आ. दिकी बूँद (पुं० ) बेदि-अँगूठी, पंडित, संस्कार कीहुई
पृथ्वी, (पुं० स्त्री० ) ॥ ९ ॥ भन्द (द्र ) - सुख, कल्याण, ( न० ) भेद-द्विधाभाव, विशेष, फाड़ना, पु
रुषोंके मेलको फोड़ना, ( पु० ) संभेद - समुद्र या नदियोंका मिलना, ( पुं० ) ॥ १० ॥
मद - कस्तूरी, मदिरा, हस्तीके मदसे
झिरनेका जल, हर्ष, गर्व, वीर्य, (पुं०) महामद - हस्ती, (पुं० ) मदी-खेती करनेवालेकी वस्तु (स्त्री० ) ॥११॥
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दतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
मन्दः खैरे खले मन्दरते मूर्खाल्परोगिषु । अभाग्येऽपि त्रिषु पुमान् गजजात्यन्तरे शनौ ॥ १२ ॥ मृद्वतीक्ष्णे त्रिषु लक्ष्णे रदो दन्ते विलेखने । शादस्तु कर्दमे शष्पे सूदः स्याध्यञ्जने गुणे ॥ १३ ॥ स्वादुर्मिष्ठे मनोज्ञे च स्वेदः खेदनघर्मयोः । हृच्चित्तबुक्कयोः क्लीबं क्षोदश्चूर्णेऽपि पेषणे ॥ १४ ॥
___ दतृतीयम् । अङ्गदो वालिपुत्रे स्यात्केयूरे त्वङ्गदं मतम् । भवेद्दक्षिणदिग्दन्तीदन्तिन्यां तु मताऽङ्गदा ॥ १५ ॥ अस्त्री सङ्ख्यान्तरे मांसकीले शैलेऽपि नाऽर्बुदः । अद्धेन्दुरर्द्धचन्द्रे स्याद्गलहस्तनखाङ्कयोः ॥ १६ ॥
मंद-यथेच्छ, खोटा, मंद स्त्रीसंग, क्षोद-चूर्ण, पीसना, (पुं० ) ॥१४॥ मूर्ख, अल्प, रोगी, भाग्यहीन
दतृतीय । (त्रि०) हस्ती-भेद, शनैश्चर ( पुं०)
घर ( पु०) अंगद-वालिका पुत्र, (पुं० ) बाजूमृदु-कोमल, सुंदर, (त्रि.)
___बंद, (न०) दक्षिण दिशाका हस्ती,
(पुं०) रद-दाँत, काटना, (पुं० ) शाद-कींच, छोटी घास आदि. (पं) अंगदा-दक्षिणदिक्हस्तीकी हस्तिनी सद-व्यंजन ( तरकारी), रसोइया.। (स्त्री०) ॥ १५॥ (पुं०)॥ १३ ॥
अर्बुद-संख्या (अरब ), मांसकील, खादु-रुचिकारी भोजन, सुंदर,(त्रि.) (पुं० न० ) एक पर्वत, (पुं०) खेद-पसीना, धूप, (पुं०) अर्द्धन्दु-आधाचंद्रमा, गलहस्त (प्रीहृत्-चित्त, हृदयमें कमलाकार मांस, वापर हाथ देकर निकालना), नखों (न.)
करके शरीरपर चिह्न (पुं). ॥१६॥
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१७०
विश्वलोचनकोश:
अर्द्धेन्दुः स्यादतिप्रौढस्त्रीगुह्याङ्गुलियोजने । आक्रन्दो दारुणरणे मित्रे तातारिरोदने ॥ १७ ॥ पाणिग्राहात्परो राजा यस्तस्मिन्नारदेऽपि च । सुगन्धिमुदि वामोद आस्पदं पदकृत्ययोः ॥ १८ ॥ स्त्री ककुत् ककुदोऽप्यस्त्री वृषाने राजलक्ष्मणि । शृङ्गे श्रेष्ठे कपर्दस्तु वटे शम्भुजटाटयोः ॥ १९ ॥ कर्कन्दुः साक्षरे शाके वारिजाले गुदामये । उत्क्षिप्तिकायां कर्णान्दुः कर्णपाल्यामपि स्त्रियाम् ॥ २० ॥ कामदा धेनुकायां स्याद्वाच्यवत्कामदोग्धरि | कुमुदो नागदमा गदैत्यान्तरवनौकसि ॥ २१ ॥ कुमुदं कैरवे क्लीबं कृपणे कुमुदन्यवत् । कुसीदिके कुसीदः स्यात्कुसीदं वृद्धिजीवने ॥ २२ ॥
[दान्तवर्गे
अति जवान स्त्रीकी योनिमें अंगुलि | कर्कन्दु- साक्षर, शाकभेद, कमल, डालना, (पुं० ) आक्रन्द-भयंकर रण, मित्र, भ्राता, शत्रुका रोना ॥ १७ ॥ अपने पासके राजदवानेवाले राजासे अन्य । राजा, नारद, ( पुं० ) आमोद-सुगन्धि, हर्ष, (पुं० ) आस्पद-पद, कृत्य, ( न० ) ॥ १८ ॥ ककुत् ककुद - ( स्त्री ० ) कृषकी थूह, राजचिह्न ( ध्वजाआदि ), श्रेष्ठ, (पुं० न० ) कपर्द - वट-वृक्ष, महादेवकी जटा,
गुदरोग, (पुं० ) कर्णान्दु-उत्क्षिप्तिका ( कर्णभूषणमात्र ), कर्णपाली ( कानकी बाली ) ( स्त्री० ) ॥ २० ॥ कामदा - गौ, (स्त्री० ) यथेच्छ देनेवाला, ( त्रि०)
शृंग,
कुमुद - नाग, दिगुहस्ती, दैत्यभेद, वनमें रहनेवाला, ( पुं० ) ॥२१॥ कुमुद - कमोदनी, ( न० ) कुमुत्- कृपण, (त्रि ० ) कुसीद व्याज लेनेवाला ( पुं० ) वृद्धिजीवन ( व्याज ) ( न० ) ॥२२॥
( पुं० ) ॥ १९ ॥
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दतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
१७१ कौमुदः कार्तिके ज्योत्स्नापर्वणोरपि कौमुदी। क्रव्यात्क्रव्यादवत्पुंसि मांसभक्षकरक्षसोः ॥ २३ ॥ गोविन्द इन्द्रावरजे गवाध्यक्षे च गीप्पतौ । गोष्पदं गोपदश्वभ्रे गवां च गतिगोचरे ॥ २४ ॥ बलाहकोऽपि जलदो जलदो मुस्तकेऽपि च । जीवदो द्विषि वैद्ये च तरत्कारण्डवे प्लवे ॥ २५॥ तोयदो मुस्तके मेघे तोयदं तु घृतं मतम् । दरद्भये प्रपातेऽद्रौ दायादो ज्ञातिपुत्रयोः ॥ २६ ॥ दारदः पारदे सिन्धौ हिङ्गुले गरलान्तरे । दृषत्पेषणपाषाणपट्टपाषाणयोः स्त्रियाम् ॥ २७॥ धनदो दातरि श्रीदे क्रीडामात्ये तु नर्मदः ।
नर्मदा नर्मदायिन्यां रेवायामपि नर्मदा ॥ २८॥ कौमुद-कार्तिक-मास, (पुं० ) तोयद-नागरमोथा, मेघ, (पुं०) कौमदी-चाँदका चाँदना, पर्व.(स्त्री.) घृत, (न०) । क्रव्यात्-क्रव्याद-मांसभक्षी, रा
दरद्-भय, पर्वतमें गिरनेका स्थान,
। पर्वत, (पुं० ) क्षस, (पुं० ) ॥ २३ ॥
दायाद-अपनी सातवीं पीढी भीतगोविन्द-श्रीकृष्ण, गौवोंका स्वामी, रका-मनुष्य, पुत्र (पुं०) ॥२६॥ बृहस्पति (पुं०)
दारद-पारा, समुद्र, हींगलू, विषभेद, गोष्पद-गौकी पैड़, गौवोंकी गति (पुं० )
आदि (न०) ॥ २४ ॥ | दृषद-पीसने के लिये पत्थरका पट्टा, जलद-मेघ, नागरमोथा, (पुं० ) !
पत्थर, (स्त्री० ) ॥ २७ ॥
| धनद-दातार, कुबेर, (पुं० ) जीवद-शत्रु, वैद्य, (पुं० )
नर्मद-क्रीडाका मंत्री, (पुं० ) तरद्-करडुवा पक्षी, पुंडेरी-पक्षी नर्मदा-क्रीडा करानेवाली स्त्री, रेवा(पुं० )॥ २५ ॥
! नदी (स्त्री० ) ॥ २८ ॥
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विश्वलोचनकोशः-- [दान्तवर्गनलदं मकरन्दे स्यान्मांसिकोशीरयोरपि । निर्वादस्तु परीवादपरनिन्दितवादयोः ॥ २९ ॥ निषादः खरभेदेऽपि निषादः पचपचेऽपि च । प्रणादोऽत्युच्चशब्दे स्यात्प्रणादः कर्णरुग्भिदि ॥ ३० ॥ प्रमदा मत्तकाशिन्यां प्रमदो गर्वितामुदि । प्रसादस्तु प्रसन्नत्वे काव्यालङ्करणान्तरे ॥ ३१ ॥ खास्थ्ये चानुग्रहे चाथ प्रह्लादः प्रणदेऽसुरे । प्रासादः पुंसि देवस्य नरदेवस्य वाऽऽलये ॥ ३२ ॥ कन्यायां वरदा शान्ते प्रसन्ने वरदस्त्रिषु । भसत्पुंस्येव काले स्याद्भसन्मांसे प्रभासुरे ॥ ३३ ॥ मर्यादा तु स्थितौ सीम्नि कूले कूले च वारिधेः । माकन्दस्तु रसाले स्यान्माकन्द्यामलकीफले ॥ ३४ ॥
नलद-पुष्परस, जटामांसी-औषधि, ॥ ३१ ॥ स्वस्थता, अनुग्रह (कृपा) खस, (न०)
(पुं० ) निर्वाद-अपवाद, दूसरोंसे निंदित
प्रह्लाद-ऊँचा शब्द, असुर, (पुं०)
| प्रासाद-देवताका मंदिर, राजाका वाद, (पुं०)॥ २९ ॥
___ महल, (पुं०)॥ ३२ ॥ निषाद-गानेका स्वरभेद, चांडाल वरदा-कन्या, ( स्त्री० ) वरद-शां. भील आदि नीच, (पुं०)
तचित्त, प्रसन्न, (त्रि.) प्रणाद-अति ऊँचा शब्द, कानरो- भसद्-काल, (पुं० ) मांस, (न०) ___गका भेद (पुं०)॥३०॥ प्रकाशवान (त्रि.)॥ ३३ ॥ प्रमदा--गुणवती स्त्री, (स्त्री.)
मर्यादा-स्थिति, सीम, तीर, समुद्र
का तीर, (स्त्री० ) प्रमद-गर्वितास्त्रीका, आनंद, (पुं०) माकन्द-आम्र, (पुं० ) माकंदीप्रसाद-प्रसन्नत्व, काव्य-अलंकार, आँवलेका फल (स्त्री.)॥ ३४॥
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दचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
१७३ मेनादश्छागमार्जारमेघनादानुलासिषु । वातर्विल्कले काष्ठलोहीवेदेकयोः स्त्रियाम् ॥ ३५ ॥ विशदः पाण्डरे व्यक्ते शरत्स्त्री शरदब्दयोः । शारदा जलपिप्पल्यां सप्तपर्णेऽथ शारदः ॥ ३६॥ नवाऽप्रतिमशालीनपीतमुद्देन्दुवर्षयोः । स्त्रियां सम्पद्गुणोत्कर्षे भूतिहारप्रभेदयोः ॥ ३७ ॥ संवित्प्रतिज्ञासङ्केतज्ञानाचारेषु नामनि । स्त्रियां तोषे क्रियाकारे रणे सम्भाषणेऽपि च ॥ ३८ ॥ सम्भेदस्तु विकाशे स्यात्सम्भेदः सिन्धुसङ्गमे । सुनन्दा रोचनानार्योः क्षणदो गणके पुमान् ॥ ३९ ॥ त्रिषूत्सवप्रदे वारि क्षणदं क्षणदा निशि ।
दचतुर्थम् । अपवादस्तु निद्रायामाज्ञाविश्वासयोरपि ॥ ४० ॥ मेनाद-बकरा, बिलाव, मोर, (पुं०) करनेवाला, रण, संभाषण, (स्त्री) वातर्दि-वृक्षका बकला, काष्ठआदि, ॥ ३८ ॥ (स्त्री०) ॥ ३५ ॥
| सम्भेद-प्रकाश, समुद्र या नदियोंका विशद-सफेद, प्रकट, (पुं० )
मिलाप, (पुं०) शरद-शरदऋतु, वर्ष, (स्त्री०) सुनन्दा-रोचना (गोलोचन ), स्त्री, शारदा-जलपीपल, सप्तपर्णी या सा- (स्त्री० ) तवण, ( स्त्री०) शारद् ॥३६॥ क्षणद-ज्यौतिषी, (पुं० ) ॥ ३९ ॥ नवीन जिसके समान दूसरा न हो.
क्षणद-उत्सवदेनेवाला, ( त्रि० ) वह, लज्जावान, पीलामूग, चन्द्रमा, वर्ष (पुं०)
। जल, (न०) सम्पद-गुणोंकरके उत्कर्ष (वडप्पन), क्षणदा-रात्रि, (स्त्री० ) संपत्ति, हारभेद, ( स्त्री०)॥३७॥
दचतुर्थे । संविद्-प्रतिज्ञा, संकेत, ज्ञान, आ- अपवाद-निन्दा, आज्ञा, विश्वास, चार, नाम, संतोष, किसी कार्यका। (पुं० ) ॥ ४०॥
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१७४ विश्वलोचनकोशः
[ दान्तवर्गेअभिष्यन्दो विवृद्धौ स्यादास्तावे लोचनामये । अभिमस्तु पुंस्येव रणमन्थानदण्डयोः ॥ ४१ ॥ अष्टापदं शारिफले क्लीबमस्त्री तु काञ्चने ।। शरभे मर्कटे पुंसि चन्द्रमयां स्त्रियामपि ॥ ४२ ॥ एकपदं स्यात्तत्काले क्लीवमेकपदी पथि । कटुकन्दः पुमान् शृङ्गवेरे शिग्रुरसोनयोः ॥ ४३ ॥ कुरुविन्दस्तु मुस्तायां कुल्माषत्रीहिभेदयोः ।। कुरुविन्दं तु मुकुरे पद्मरागे च हिङ्गुले ॥ ४४ ॥ क्लीबं कोकनदं रक्तकैरवे रक्तपङ्कजे । चक्रबुन्दस्तु भाकूटे पृष्ठशृङ्गे मृषान्तरे ॥ ४५ ॥ चतुष्पदो गवाश्वादिपशौ स्त्रीकरणान्तरे ।। पुमाञ्जनपदो देशे तथा जनपदो जने ॥ ४६ ॥
अभिष्यन्द-अतिवृद्धि, चारोंतरफसे- कटुकन्द- अदरक, सहजना, हस्सन, झिरना, नेत्ररोग (पुं०)
(पुं० ) ॥ ४३ ॥ अभिमर्द-रण, मथनेका डाँडा (पुं०),
धान्य, ब्रीहिभेद (पुं० ) ॥ ४१ ॥
कुरुबिन्द-शीशा, पुक्खराज, हींगलू, अष्टापद-चौपड़, (न०) सुवर्ण (न०)॥ ४४ ॥ (पुं० न०) शरभ ( मृगभेद ), कोकनद-लाल कमोदनी, लालकवन्दर, (पु.)
___ मल (न.) अष्टापदी-चंद्रमल्ली (मल्लिकाभेद ) चक्रबुन्द-तेजसमूह, पृष्ठङ्ग, अस. (स्त्री०) ॥ ४२ ॥
___ त्यभेद (पुं० ) ॥ ४५ ॥
चतुष्पद-गौ अश्व आदि पशु, स्त्रिएकपद-तत्काल, (न)
। योंका करणभेद, (पु.) एकपदी- मार्ग (स्त्री०) | जनपद-देश, जन, (पुं०) ॥४६॥
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दपंचमम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
तमोनुदस्तमोनुच्च चन्द्रसूर्यकृशानुषु । परीवादोऽपवादे स्याद्वीणावादनवस्तुनि ॥ ४७ ॥ पृष्ठमर्दोऽतिधृष्टे स्यान्नाट्योक्तया नायकप्रिये । पुटभेदो नदीवक्रे नगरातोद्ययोरपि ॥ ४८ ॥ प्रतिपत्तु स्त्रियामाद्यतिथौ संविदि सा स्मृता । प्रियंवदः खेचरे स्यात्प्रियवाचि तु वाच्यवत् ॥ ४९॥ महानादो महाशब्दे वर्षकाब्दे शयानके । गजे च मुचुकुन्दस्तु मुनिदैत्यद्रुमान्तरे ॥ ५० ॥ मेघनादो दशग्रीवसुते पश्चिमदिक्पतौ । विशारदः पण्डिते स्यात्रिषु धृष्टे विशारदः ॥ ५१ ॥ पृत्वाकूटे प्रपञ्चे च मृगे शूके पदे मतम् । समर्यादं समीपे स्यान्मर्यादिन्यपि वाच्यत् ।। ५२ ।।
तमोनुद-तमोनुद्-चंद्रमा, सूर्य, महानाद-महाशब्द, वर्षनेवालामेघ, अग्नि, (पुं०)
। सोनेवाला, हस्ती, (पुं०) परीवाद-अपवाद (निंदा आदि ), मचकुन्द-एकमुनि, एक दैत्य, मुचु
वीणाबजानेकी वस्तु (पुं० )॥४७॥ कुंद-पुष्पवृक्ष, (पुं० ) ॥ ५० ॥ पृष्ठमर्दै अतिधृष्ट ( ढीठा ), नाट्यकी | मेघनाद-रावणका पुत्र, वरुण, (पुं०)
उक्तिमें नायकका प्रिय, (पु० ) विशारद-पण्डित, धृष्ट, (त्रि.) पुटभेद-नदीका बंक, नगर, बाजाभेद, (पुं० )॥४८॥
॥५१॥ प्रतिपत्-पड़वातिथि, बुद्धि, ( स्त्री०) प्रपंच ( जगत् ), मृग, स्यालू, प्रियंवद-खेचर (आकाशमें विचर- चरण (पुं०)
नेवाला), प्रियवचन कहनेवाला समर्याद-समीप (नजदीक), (न.) (त्रि.)॥ ४९ ॥
! मर्यादावाला (त्रि०) ॥ ५२ ॥
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१७६
विश्वलोचनकोशः- [धान्तवर्गे
दपंचमम् । धर्मे रहस्युपनिषद्वेदान्ते पाचवेश्मनि । सहस्रपादो मार्तण्डे कारण्डेपि च यज्वनि ।। ५३ ॥
इति विश्वलोचने दान्तवर्गः ॥
अथ धान्तवर्गः।
धैकम् । धो धने च धनेशे च धास्तु धातरि धी मतौ ।
धद्वितीयम् । अन्धं स्यात्तिमिरे दृष्टिहीने त्वन्धोऽभिधेयवत् ॥ १ ॥ अब्धिर्वारांनिधौ पुंसि पुंस्येवाऽब्धिः सरोवरे । अर्द्ध समांशके क्लीबमर्द्धः खण्डे पुमानपि ॥ २ ॥ पुंस्याधिश्चित्तपीडायां प्रत्याशायां च बन्धके । व्यसने चाप्यधिष्ठाने स्यादिद्धस्त्वातपे पुमान् ॥ ३ ॥
पंचम ।
धा-ब्रह्मा, (पुं० ) उपनिषद्-धर्म, एकान्त, वेदान्त, धी-बुद्धि ( स्त्री० ) पसवाड़ाका मकान (स्त्री०)
धद्वितीय । सहस्रपाद-सूर्य, कारंड (हंसभेद), अन्ध-अंधकार, (न० ) अंधा-मनुयज्ञ, (पुं० ) ॥ ५३ ॥
__ष्य, (त्रि०)॥१॥ इस प्रकार विश्वलोचन कोशकी टीकामें अब्धि-समुद्र, सरोवर, (पुं० ) दान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥
अर्ध-बरावर अर्धभाग, (न०) अर्ध
(टुकड़ा), (पुं०) ॥ २ ॥ अथ धान्तवर्ग ॥
आधि-चित्तपीडा, प्रत्याशा, गिरवीधैक ।
रखना, दुःख या शोक, अधिष्ठान ध-धन, (न०) कुबेर, (पुं०) (पुं) धूप, (पुं० ) ॥ ३ ॥
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धद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
१७७ प्रदीप्ते त्रिषु ऋद्धं तु सम्पन्नान्नसमृद्धयोः । ऋद्धिः स्यादोषधीभेदे योगशक्तौ च बन्धने ॥ ४ ॥ गन्धो गन्धकसम्बन्धलेशेष्वामोदगर्वयोः ।। गाधः स्थानेऽपि लिप्सायां गोधा तलनिहाकयोः ॥ ५॥ दग्धा स्थितार्ककाष्ठायां दग्धं प्लुष्टेऽन्यलिङ्गकः । दधि स्याच्छ्रीधने क्लीबं दधि श्रीवासवासयोः ॥ ६ ॥ विषाक्तविशिखे दिग्धो दिग्धं लिप्तार्थकेऽन्यवत् । त्रिषु प्रपूरिते दुग्धं दुग्धं क्षीरेऽपि न द्वयोः ॥ ७॥ वत्से गोपे कवौ दोग्धा दोग्धाऽप्यर्थोपजीविनि । सज्जे संपूर्वकं नद्धं नद्धं तद्वृत्तबद्धयोः ॥ ८ ॥ आधिबन्धनयोर्वेधो बन्धः संपूर्वकोऽन्वये । बन्धूकपादपे बन्धुर्वधूभ्रातरि बान्धवे ॥ ९ ॥
ऋद्ध-सिद्धहुवा अन्न, (न. ) समृद्ध दिग्ध-विषलगायाहुवा-बाण, (पुं०)
(संपत्तिवाला,) (त्रि.) किसीवस्तुमें लिप्तहुवा पदार्थ (त्रि०) ऋद्धि-ओषधीभेद, योगशक्ति, बं- दुग्ध-प्रपूरितकिया हुवा, (त्रि.) __ धन, (स्त्री०)॥४॥
दूध, (न.)॥ ७ ॥ गन्ध-गन्धक, संबंध, लेश ( सूक्ष्म-दोग्धा-बछड़ा, गोपालक, कवि, ___ अंश), सुगंध, अभिमान, (पुं०) पदार्थोसे जीविकावाला, (पुं०) गाध-स्थान ( स्थितहोना), लेनेकी संनद्ध-कवचधारी, (त्रि०) इच्छा, (पुं०)
नद्ध-निकलाहुवा, बँधाहुवा, (त्रि.) गोधा-धनुषकी ज्याको निवारण कर ॥८॥
नेका, जलगोह (स्त्री०)॥ ५॥ वेध-चित्तपीडा, बंधन, (पुं० ) दग्धा-स्थितहै सूर्य जिसमें वह दिशा, संबंध-अन्वय, जहांतहांका इकट्ठा
(स्त्री०) जलाहुवा, ( त्रि०) होना, (पुं०) दधि-दही, सरलवृक्षका गोंद, तेजपा-| बंधु-दुपहरिया-पुष्पवृक्ष, वधूका भ्राता त, (न.)॥६॥
बांधव, (पुं०)॥९॥ १२
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१७८
विश्वलोचनकोशः- [धान्तवर्गेबाधा दुःखे निषेधे च विपूर्वा तु विहेठने । बुधस्तु सुगते धीरे सौम्ये च बुधिते त्रिषु ॥ १० ॥ बुधः स्यात्पण्डिते सौम्ये बुधः कापि तथागते । ऋद्धिस्तु वर्द्धने ऋद्ध्योषधे मुदि कलान्तरे ॥ ११ ॥ वृद्धिः कुरुण्डरोगे च वृद्धिोंगेऽपि दृश्यते । वृद्धो रूढे कवौ जीर्णे त्रिषु वृद्धं तु शैलजे ॥ १२ ॥ बोधिः समाधिभेदे स्याद्बोधिर्बोधिमहीरुहे । मधु पुष्परसे क्षौद्रे मद्यक्षीराऽप्सु न द्वयोः ॥ १३ ॥ मधुर्मधूके सुरभौ चैत्रे दैत्यान्तरे पुमान् । जीवाशाके स्त्रियामेवं मधु-शब्दः प्रयुज्यते ॥ १४ ॥ . सिद्धं चित्ताभिसंक्षेपे सिद्धमालस्यनिद्रयोः । सुन्दरे वाच्यवन्मुग्धो मुग्धो मूढेऽपि वाच्यवत् ॥ १५ ॥ मेधः क्रतो मतो मेधा मेधिस्तु खलदारुणि ।
राधा तु वल्लवीभेदे चित्रभेदे च धन्विनाम् ॥ १६ ॥ बाधा-दुःख, निषेध, ( स्त्री०) मधु-पुष्परस, शहद, मदिरा, दुग्ध, विवाधा-विशेषकरके पीडा, (स्त्री०)। जल, (न. ) ॥ १३ ॥ बुध-बुद्धदेव, धीर, सौम्य, (पुं०) मधु-महुवा-वृक्ष, वसंत-ऋतु, चैत्र
। मास, एक दैत्य, (पुं०) जीवशाक, ___ जानाहुवा, (त्रि०) ॥ १० ॥
| (स्त्री०) ॥ १४ ॥ बुध-पंडित, बुध-ग्रह, बुद्धदेव (पुं०) सिद्ध-चित्तव्याकुलता, आलस्य, निऋद्धि -बढना, ऋद्धि औषधी, हर्ष, द्रा, (न० ) कलाभेद, (स्त्री० ) ॥ ११॥ मुग्ध-सुंदर, मूढ, (त्रि.) ॥ १५॥
मेध-यज्ञ, (पुं० ) । वृद्धि-कुरुण्डरोग, वृद्धि-योग (पुं०)
मेधा-बुद्धि, ( स्त्री०) वृद्ध-बढाहुवा, कवि, पुराना, वृद्ध मेधि-खोटा काष्ठ, ( पुं० )
पर्वतमें होनेवाला (त्रि.) ॥१२॥ राधा-गोपी-श्रीकृष्णपत्नी, धनुषधाबोधि-समाधिभेद, पीपल-वृक्ष,(पुं०)। रियोंका चित्रभेद, ॥ १६ ॥
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भाषाटीकासमेतः ।
स्याद्विशाखातडिद्विष्णुक्रान्तातिष्यफलासु च । राधस्तु पुंसि वैशाखे लुब्धो मृगयुकांक्षिणोः ॥ १७ ॥ वधूः स्रुषायां भार्यायां वधूर्योषिन्नवोढयोः । शट्यां च सारिवायां च स्पृक्कायां च मता वधूः ॥ १८ ॥ भवेद्विधं तु सादृश्ये वेधितक्षिप्तयोस्त्रिषु । विधिसि काले ना विधाने नियतौ स्त्रियाम् ॥ १९ ॥ विधा प्रकारे ऋद्धौ च गजान्ने वेतने विधौ । विधुः शशाङ्के विष्णैौ च कर्पूरे राक्षसान्तरे ॥ २० ॥ व्याधिः स्यादामये व्याप्ये व्याधो मृगयुदुष्ठयोः । शुद्धं तु केवले पूते श्रद्धा श्राद्धोर्ध्वकाङ्क्षयोः ॥ २१ ॥ श्राद्धं निवापे श्राद्धस्तु त्रिषु श्रद्धासमन्विते । सन्धा स्थितौ प्रतिज्ञायामवधानेऽपि सा स्मृता ॥ २२ ॥
धद्वितीयम् । ]
विशाखा नक्षत्र, बिजली, कोयल- | या विष्णुकान्ता, आँवला ( स्त्री० ) राध - वैशाख - मास, (पुं० ) लुब्ध- शिकारी, वनादिलोभवाला,
(पुं० ) ॥ १७ ॥
विधा - प्रकार, ऋद्धि, हस्तीका अन्न, नौकरी, विधान, (स्त्री० ) विधु -चंद्रमा, विष्णु, कपूर, राक्षसभेद, (पुं० ) ॥ २० ॥ व्याधि-रोग, कुष्टरोग, (पुं० ) व्याध - शिकारी, दुष्ट, (पुं० ) शुद्ध - केवल ( एकला ), पवित्र, ( न० ) श्रद्धा-आस्तिकता, ऊँची इच्छा, ( स्त्री० ) ॥ २१ ॥ श्राद्ध - पितरोंको पिंडआदिदान, (न० ) श्राद्ध-श्रद्धायुक्त, ( त्रि० ) भाग्य, सन्धा-स्थिति, प्रतिज्ञा, स्थिरचित्त
ता, ( स्त्री० ) ॥ २२ ॥
वधू-पुत्रवधू, अपनी स्त्री, नवीनविवाहिता स्त्री, कचूर, सरिवन, असवरग औषधि ( स्त्री० ) ॥ १८ ॥ विध- - सदृशता ( तुल्यता ), हुवा, फेंकाहुवा (त्रि० ) विधि - त्रह्मा, काल, विधान, ( पुं० ) ॥ १९ ॥
बींधा
१७९
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विश्वलोचनकोश:
सन्धिः पुंसि सुरङ्गायां रन्धसंघट्टने भगे । सन्धिर्भागेऽवकाशेऽपि वाटसंज्ञेऽपि पुंस्ययम् ॥ २३ ॥ साधुर्वार्द्धषिके पुंसि चारुसज्जनयोस्त्रिषु । सिद्धस्तु नित्ये निष्पन्ने प्रसिद्धे देवयोनिषु ॥ २४ ॥ योगेऽप्यादिप्रभेदे च सिद्धिर्निष्पत्तियोगयोः । सद्वयाख्याभेषजे सिद्धिः सिद्धिवृद्ध्याख्यभेषजे ॥ २५ ॥ सिन्धुरब्धौ नदे देशीभेदे ना सरिति स्त्रियाम् । सुधामृते सुधा मूर्वा स्नुहीगाङ्गेष्टिकासु च ॥ २६ ॥ सृधर्बुद्धौ गुदेऽपि स्यात्स्कन्धः कायप्रकाण्डयोः । बाहूमूले समूहे च समीहायां समीहतौ ॥ २७ ॥ स्कन्धो नराश्वमातङ्गवृन्दे भद्रादिकृत्यके । स्निग्धो वात्सल्यसंपन्ने चिक्कणेऽप्यभिधेयवत् ॥ २८ ॥
१८०
सन्धि-सुरंग, छिद्रकाजोड़ना, योनि, । सिन्धु -समुद्र, नद, देशभेद, (पुं० ) ( पुं० ) सिन्धु - नदी (स्त्री० ) सन्धि-भाग, अवकाश, मार्गभेद सुधा - अमृत, मूर्वा चुरनहार या मरोरफली, थोहर, कटशर्करालता (एक(पुं) ॥ २३ ॥ प्रकारकी वनस्पति ) ॥ २६ ॥ सृधू - वृद्धि, गुद, ( स्त्री० ) स्कन्ध-शरीर, वृक्षकी मोटी शाखा, भुजाका मूल (कंधा ), समूह, चेष्टा, चेष्टित ॥ २७ ॥
मनुष्य अश्व और हस्तियों का समूह, मंगल आदि कृत्य, (पुं०) स्निग्ध-वत्सलतासे पूर्ण, चिकना (FTO) 11 26 11
साधु- वृद्ध, (पुं० ) सुंदर, सज्जन, ( त्रि० )
सिद्ध-नित्य, निष्पन्न ( पूर्णहुवा ), प्रसिद्ध, देवयोनि ॥ २४ ॥ योग, आडि- पक्षीभेद, ( पुं० ) सिद्धि - निष्पत्ति, योग, अच्छीव्याख्या, औषधि-मात्र, वृद्धि औषध, ( स्त्री० ) ॥ २५ ॥
[ धान्तवर्गे
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धतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः । स्पर्धा संहर्षणे साम्ये स्पर्धा क्रमसमुन्नतौ ।
धतृतीयम्। अगाधमतलस्पर्शे त्रिषु श्वभ्रे नपुंसकम् ॥ २९ ॥ अवधिर्नाऽवधौ न स्यात्सीम्नि काले बिलेऽवटे । आनद्धं त्रिषु बद्धे स्यादानद्धं मुरजादिके ॥ ३० ॥ आबन्धः प्रेम्ण्यलङ्कारे दृढबन्धेऽपि कीर्तितः । आविद्धः प्रहते वक्रेऽप्युत्सेधः काय उच्छ्रये ॥ ३१ ॥ व्याजेऽपि चक्रेऽप्युपधिरुपाधिर्ना विशेषणे । कैतवे धर्मचिन्तायां कुटुम्बव्यापृतेऽपि च ।। ३२ ॥ कबन्धस्तु हरे राहौ रक्षोभेदे मतः पुमान् । कबन्धं वारि न स्त्री तु गतमूर्द्धकलेवरे ॥ ३३ ॥ दुर्विधो दुःखिखलयोनिरोधो रोधनाशयोः । निषधः पर्वते देशे तद्राजे कठिनेपि च ॥ ३४ ॥ स्पर्धा-अति हर्ष, समता, क्रमसे ऊं-उत्सेध-शरीर, ऊँचाई (पुं०) ॥३१॥ चापन, (स्त्री०)
उपधि-बहाना या मिस,रथका पहिया धतृतीयम् ।
(चक्र) (पुं०) अगाध-जिसकी थाह न लगे ऐसा | उपाधि-विशेषण, छल, धर्मचिंता, __इंघा, (त्रि०) खड्डा, (न.)॥२९॥ कुटुम्बमें आसक्त (पुं०) ॥३२॥ अवधि-मीआद, सीम, काल,
ल, कबन्ध-महादेव, राहु, राक्षसभेद, बिल, खड्डा, (पुं०)
(पुं०) आनद्ध-बँधाहुवा, (त्रि.) आनद्ध-मृदंगआदिक, ( न० )
कबन्ध-जल, ( न० ) मस्तकरहित
। शरीर (पुं० न०) ॥३३॥ . ॥३०॥ आबन्ध-प्रेम, आभूषण, दृढबन्धन, दुर्विध-दुःखित-जन,खल-जन, (पुं०) (पुं० )
निरोध-रोकना, नाश, (पुं०) आविद्ध-प्रेराहुवा, कुटिल ( ठेढा), निषध-पर्वत, निषध-देश, निषधका (पुं०)
। राजा, कठिन, (पुं०) ॥ ३४ ॥
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विश्वलोचनकोश:- [धान्तवर्गेन्यग्रोधस्तु वटे शम्यां न्यग्रोधो व्याममात्रके । न्यग्रोधी विषपयो च मोहनाख्यौषधावपि ॥ ३५ ॥ परिधिर्यज्ञियतरोः शाखायामुपसूर्यके । प्रणिधिर्याच्आचरयोः प्रसिद्धः ख्यातभूषिते ॥ ३६॥ मागधो मगधोद्भूते क्षत्रियावैश्यजे त्रिषु । बन्दिजीरकयोः पुंसि कणायूथ्योस्तु मागधी ॥ ३७॥ पर्याहाराध्वभारेषु पण्ये विवधवीवधौ। विबुधः पण्डिते देवे विश्रब्धं तु भृशार्थकम् ॥ ३८ ॥ विश्रब्धः स्यात्तु विश्वस्ताऽनुद्भटेषु त्रिषु त्रिषु । लतायां विटपे वीरुत्सन्नद्धो व्यूढवमिते ॥ ३९ ॥ सन्निधिः सन्निधाने स्त्री पुमानिन्द्रियगोचरे ।
समाधिाननीवाकनियमेषु समर्थने ॥ ४०॥ न्यग्रोध-बड़-वृक्ष, शमी ( जाँट )| विवध-वीवध-पूर्तआहार, मार्ग,
वृक्ष, तिरछी फैलाई हुई दोनों भु- भार, दूकान, (पुं०) जाओंका प्रमाण (पुरस) (पुं०) विबुध-पंडित, देवता, (पुं०) न्यग्रोधी-विषपर्णी-औषधि, मोहन- विश्रब्ध-अतिशय, (अत्यंत) (न०)
नाम औषधि, (स्त्री.)॥ ३५॥ ॥३८॥ परिधि-यज्ञयोग्यवृक्षकी शाखा, सू. विश्रब्ध-विश्वासपात्र, अनुद्भट (नम्र) __ र्यके चारों ओर गोलचक्र (पुं०) (त्रि.) प्रणिधि-याचना, चर, (पुं०) वीरुत् (ध)-बेल, वृक्षशाखा (स्त्री०) प्रसिद्ध-विख्यात, भूषित (त्रि०) सन्नद्ध-रक्खाहुवा या इकट्ठा किया
। हुवा, कवचधारी, (पुं०) ॥ ३९ ॥ मागध-मगधदेशमें होनेवाला, क्षत्रि-सन्निधि-समीप, (स्त्री.) इंद्रियोंका
या और वैश्यसे उत्पन्नहुवा, (त्रि.) विषय (पुं० ) मागध-बन्दीजन, जीरा, (पुं०) समाधि-ध्यान, धनधान्यसे मनुष्यका मागधी-पीपल, जूही-पुष्पपेड, अतिशय आदर, नियम, समर्थन, (स्त्री०)॥३७॥
(पुं०)॥ ४० ॥
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धचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः। सम्बाधः सङ्कटे योनौ सङ्गरेपि सुगन्धि तु । शैलेयेऽभीष्टगन्धे च संरोधः क्षेपरोधयोः ॥ ४१ ॥ संसिद्धिस्तु मता श्रीमत्तिनीप्रकृतिसिद्धिषु ।
धचतुर्थम् । अनिरुद्धः स्मरसुते पुंसि चानर्गले त्रिषु ॥ ४२ ॥ अनुबन्धः प्रकृत्यादेर्नश्वरेऽप्यनुयायिनि । दोषोत्पादे शिशौ च स्यात्प्रवृत्तस्यानुवर्तने ॥ ४३ ॥ अनुबन्धी तु हिक्कायां तृष्णायामपि दृश्यते । अवरोधस्तु शुद्धान्तेऽप्यन्तौं राजसद्मनि ॥ १४ ॥ स्यादवष्टब्ध आक्रान्तेऽप्यदूरेऽप्यविलम्बिते । आशाबन्धः समाश्वासे मर्कटस्य च वासके ॥ ४५ ॥ इक्षुगन्धा कोकिलाक्षे काशे क्रोष्टयां च गोक्षुरे । उग्रगन्धा वचायां स्याद्यवान्यां छिकिकौषधौ ॥ ४६॥
सम्बाध-संकट, योनि ( भग), लक, प्रवृत्तके पश्चात् वर्तना, (पुं०) युद्ध, (पुं० )
॥ ४३ ॥ सगन्धि-शिलाजीत, श्रेष्ठगंध, (न) अनुबन्धी-हिचकी, तृष्णा, (स्त्री.) संरोध-फेंकना, रोकना, (पुं०) अवरोध-रनवास, अंतर्धान (छुपना) ॥ ४१ ॥
। राजाका महल, (पुं०)॥ ४४ ।
अवष्टब्ध-दबायाहुवा, समीप, नहीं संसिद्धि-लक्ष्मीमदवाली स्त्री, स्व. जल्दी किया (पुं० ) भाव, सिद्धि, (स्त्री०)
आशाबन्ध-समाश्वास (दिलासादेधचतुर्थ ।
। ना), वानरपकड़नेका जाल, (पुं०) अनिरुद्ध-कामदेवका पुत्र, (पुं० ॥ ४५ ॥ अनर्गल(नहीं रुकनेवाला), (त्रि.) इक्षुगन्धा-तालमखाना, काश, गी॥४२॥
दड़ी, गोखरू (स्त्री०) अनुबन्ध-प्रकृति आदिका नश्वरभाग, उग्रगन्धा-बच, अजवायन, नकछी.
अनुयायी, दोषोंका उत्पादन, बा- कनी-औषधि (स्त्री० ) ॥ ४६ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [धान्तवर्गउपलब्धिः स्त्रियां प्राप्तिमतिज्ञानेषु लक्षणे । कालस्कन्धस्तमालेऽपि तिन्दुके जीवकद्रुमे ॥ १७ ॥ तीक्ष्णगन्धो मतः शिनौ वचाराजिकयोः स्त्रियाम् । तृणगोधा भवेचित्रकोलके कृकलासके ॥ १८ ॥ परिव्याधः पुमान्नीरवानीरेऽपि द्रुमोत्पले। ब्रह्मबन्धुरधिक्षिप्ते निर्देशेऽब्राह्मणस्य च ॥ ४९॥ महौषधं विषाशुण्ठी शृङ्गवेरे रसोनके । समुन्नद्धः समुद्भूते पण्डितम्मन्यगर्विते ॥ ५० ॥
धपंचमम् । योजनगन्धा तु कस्तूर्या व्याससूसीतयोरपि ॥ ५१ ।।
___इति विश्वलोचने धान्तवर्गः ॥
उपलब्धि -प्राप्ति, बुद्धि, ज्ञान, लक्ष- महौषध-अतीस, सोंठ, अदरक, ण, (स्त्री०)
हस्सन, (न०) कालस्कन्ध-तमालवृक्ष, तेंदूका पेड समुन्नद्ध-अच्छी तरह उत्पन्नहुवा,
जीवक-वृक्ष, (पुं०)॥ ४७ ॥ नहीं पंडित होनेपर निजको पंडित तीक्ष्णगंध-सहजना, (पुं०) तीक्ष्ण- माननेवाला गर्वित (पुं०)॥ ५० ॥ __ गंधा, बच, राई, (स्त्री.)
धपंचम। तृणगोधा-चित्रकंकोल, गिरगट, (स्त्री०) ॥ ४८ ॥
" योजनगंधा-कस्तूरी, व्यासकी माता, परिव्याध-जलवेत, कर्णिकार या सीता, (स्त्री०) ॥५१॥ पांगारा-वृक्ष, (पुं०.)
इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें ब्रह्मबन्धु-झिडकाहुवा, ब्राह्मण का- धान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥
भेद (अधम ), (पुं० ) ॥ ४९ ॥!
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नद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
अथ नान्तवर्गः।
नकम् । नास्तु नेतरि नावि स्त्री नकारो जिनपूज्ययोः । नुः स्तोतरि नुतौ स्त्री च-स्यादन्नं भक्तमुक्तयोः ॥ १ ॥
नद्वितीयम् । इनः पत्यौ नृपे सूर्येऽप्युन्नं क्लिन्ने रतान्तरे । रणोद्योगे भवेदूनमूने न्यूनाऽभिधेयवत् ॥ २ ॥ निश्शेषे त्रिषु कृत्स्नं स्याकृत्स्नं स्यादुदरे जले। गानं गीतेऽपि शब्देऽपि गर्हणे तु विपूर्वकम् ॥ ३ ॥ घनं स्यात्कांस्यतालादिवाघे मध्यमताण्डवे । घनस्तु मेघे मुस्तायां विस्तारे लोहमुद्गरे ॥ ४ ॥ काठिन्ये चाथ कठिने सान्द्रेऽपि च घनस्त्रिषु । चिह्नम> पताकायां ध्वजमात्रेऽपि न द्वयोः ॥ ५ ॥
अथ नान्तवर्ग। ऊन-कमती, न्यूनकेसमान (त्रि. )
नैक । ना-प्राप्तकरनेवाला, (पुं० ) कृत्स्न-संपूर्ण (त्रि०) ना-नौका, (स्त्री.)
कृत्स्न-उदर (पेट), जल, (न०) न( कार )-जिनदेव, पूज्य (पुं०) गान-गाना, शब्द, ( न० ) नु-स्तुतिकरनेवाला (पुं०) स्तुति, विगान-निंदा, (न०) ॥ ३ ॥ (स्त्री०)
घन-मंजीरा घंटा आदिवाजा, मध्यनद्वितीय।
मनृत्य, (न०) अन्न-अन्न,खायाहुवा अन आदि,(न०) घन मेघ, नागरमोथा, विस्तार, लो.
। हेका मुद्गर, (पुं०) ॥४॥करइन-पति, राजा, सूर्य, (पुं०) डापन, कठिन, गहरा, (त्रि.) उन्न-गीला, मैथुन भेद, रणका उद्योग, चिह्न-लांछन, पताका, ध्वजमात्र, (न०)
(न० ) ॥५॥
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विश्वलोचनकोश:
चीनो देशांशुकव्रीहितन्तुभेदे मृगान्तरे । रहसि च्छादिते छन्नमुत्पूर्वं छन्नमुज्वले ॥ ६ ॥ छिन्नाऽमृतायां पुंश्चल्यां छिन्नं भिन्नेऽभिधेयवत् । जनो लोके महर्लोकात्परे लोके च पामरे ॥ ७ ॥ जनी सीमन्तिनीयध्वोः स्त्रियां तु जनिरुद्भवे । जिनस्त्वर्हति बुद्धेऽतिवृद्ध जित्वरयोस्त्रिषु ॥ ८ ॥ ज्योस्ना तु चन्द्रिकायां स्यात्स्याल्लतायां विभावरौ । ज्योत्स्त्री पटोलिकायां च चन्द्रकान्वितनिश्यपि ॥ ९ ॥ ज्यानिर्हानौ तटिन्यां च तनुर्देहत्वचोः स्त्रियाम् । तनुः केशेऽपि विरले खल्पमात्रेऽपि वाच्यवत् ॥ १० ॥ दानं त्यागे गजमदे छेदे शुद्धौ च रक्षपौ । विक्रान्ते वाच्यवद्दानुर्दानदातरि वाच्यवत् ॥ ११ ॥
[ नान्तवर्गे
चीन -चीन- देश, वस्त्र, चीना-धान्य, तन्तुभेद, मृगभेद, (पुं० )
छन्न- एकांत, ढकाहुवा, (त्रि ० ) उच्छन्न- उज्ज्वल, ( त्रि० ) ॥ ६ ॥ छिन्ना-गिलोय, व्यभिचारिणी स्त्री, ( श्री० )
तिवृद्ध, जीतने के स्वभाववाला, ( त्रि० ) ॥ ८ ॥ ज्योत्स्ना चंद्रप्रभा, सोमलता, रात्रि ( चाँदनी रात्रि ) ( स्त्री० ) ज्योत्स्त्री--परवल -शाक, चाँदनीरात्रि, ( स्त्री० ) ॥ ९ ॥ ज्यानि - हानि, नदी (स्त्री० ) तनु - शरीर, त्वचा, ( स्त्री० ) तनु - केश, विरला ( कोई ), स्वल्पमात्र, (त्रि ० ) ॥ १० ॥ दान - त्याग ( दानदेना ), हस्तीका
!
छिन्न- कटाहुवा, (त्रि० ) जन-महर्लोक से ऊपर लोक, जन (मनुष्यमात्र ), नीच, (पुं० ) ॥ ७ ॥ जनी - स्त्री मात्र, पुत्रवधू, ( स्त्री० ) जनि- उत्पत्ति ( स्त्री० ) जिन-जिनदेव, बुद्धदेव, ( पुं० ) अ
मद, काटना, शुद्धि, रक्षा, ( न० ) दानु-वीर, दानका देनेवाला, (त्रि०)
॥११॥
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नद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
कातरे दुर्गते दीनो दीना मूषिकयोषिति । नं पराक्रमे वित्ते प्रपूर्वे पुंसि मन्मथे ॥ १२ ॥ धनुः पुंसि प्रियालद्रौ राशिभेदेऽपि कामुके । धनं तु गोधने वित्ते धाना भृष्टयवे स्त्रियाम् ॥ १३ ॥ धान्याकेऽप्यङ्करेऽब्धौ तु धेनो धेनी सरित्यपि । नग्नस्त्रिषु विवस्त्रे स्यात्पुंसि क्षपणबन्दिनोः ॥ १४ ॥ न्यूनमूनेऽपि गर्थेऽपि पानं पीतौ च रक्षणे । वनं तु कानने नीरेऽप्युत्से वासप्रवासयोः ॥ १५ ॥ वस्त्रं तु वसने मूल्ये वेतनद्रव्ययोरपि । बुनः शिफायामीशाने भानुः सूर्येऽपि दीधितौ ॥ १६ ॥ भिन्नं वाच्यवदन्यार्थे दारिते सङ्गते स्फुटम् । मानं प्रमाणे प्रस्थादौ मानश्चित्तोन्नतौ ग्रहे ॥ १७ ॥
दीन- कायर, दरिद्र, (पुं० ) दीना - मूसेकी स्त्री अर्थात् मूसी, (स्त्री०) घुम्न - पराक्रम, द्रव्य, ( न० > प्रद्युम्न - कामदेव, (पुं० ) ॥ १२ ॥ धनु - चिरोंजी-वृक्ष, धन-राशि, कामीपुरुष, (पुं० )
१८७
न्यून - कमती, निंद्य, ( त्रि० ) पान - जल आदिका पीना, रक्षा, (न०) वन-वन ( कानन ), जल, झिरना, घर, प्रवास, ( न० ) ॥ १५ ॥ वस्न-वस्त्र, मूल्य, नौकरी, द्रव्य, ( न ० ) बुध-वृक्षकी जड़, महादेव, (पुं० ) भानु - सूर्य, (पुं० ) किरण, (स्त्री०)
॥ १६ ॥
धन- गोधन, द्रव्य, ( न० •) धाना - भूनाहुवा जौ ( स्त्री० ) ॥१३॥ धनियां, वृक्षका अंकुर, (पुं० ) धेन - समुद्र, (पुं० ) धेनी-नदी (स्त्री० )
भिन्न- अन्य, फाडाहुवा, संगत (युक्तः) ( त्रि० )
मान -- प्रस्थ ( ६४ तोले ) आदिप्रमाण, ( न० >
नग्न-वस्त्ररहित, (त्रि ० ) मुनि, बंदी- मान-चित्तकी उन्नति, ग्रह ( ग्रहणकरना ) ॥ १७ ॥ पूजा, (पुं० )
जन, (पुं० ) ॥ १४॥
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१८८ विश्वलोचनकोशः
[नान्तवर्गेमानः स्यादपि पूजायां मीनो राश्यन्तरे झषे ।। मुनिर्वाचंयमे बुद्धे प्रियालाऽगस्तिकिंशुके ॥ १८ ॥ इङ्गुद्यामपि मृत्स्ना तु तुवरीमृत्लयोर्मता ।। यानं बाह्यगतौ योनिर्द्वयोः स्यादाकरे भगे ॥ १९ ॥ रत्नं मणावपि श्रेष्ठे रत्नश्चक्षकचण्डयोः । रास्ना तु स्याद्भुजङ्गाक्ष्यामेलापामपि स्मृता ॥ २० ॥ राशीनामुदये लग्नं लग्नं सक्तेऽपि लज्जिते । वानं शुष्कफले शुष्कस्यूतयोस्त्रिष्वथ द्वयोः ॥ २१ ॥ वन्यासुरङ्गावातोर्मिसौरभेषु कटे गतौ । विन्नं ज्ञाते स्थिते लब्धे शीनोऽजगरमूर्खयोः ॥ २२॥ पुस्येव पत्रिणि श्येनः श्येनः श्वेतेऽभिधेयवत् ।
सानुः शृङ्गे बुधेऽरण्ये वात्यायां पल्लवे पथि ॥ २३ ॥ मीन-मीन-राशि, मच्छी, (पुं०) लग्न-आसक्त, लज्जित (त्रि.) मुनि-मुनि(साधु), बुद्धदेव, चिरोंजी- वान-सूखाफल, सूखा, सीना, (त्रि.)
का वृक्ष, हथिया-वृक्ष, गोंदी-वृक्ष वनसमूह, सुरंग, मृगभेद, अच्छा(पुं० )॥ १८॥
। गंध, चटाई, गति, (पुं० स्त्री०) मृत्स्ना-अरहर या तूर, श्रेष्ठ मृत्तिका, विन्न-जानाहुवा, स्थित, लब्धहुवा, (स्त्री.)
(न०) यान-बाहरको गमन, (न०) शीन-अजगर-सर्प, मूर्ख, (पुं०) योनि-खान, भग, (पुं०न०)॥१९॥ ॥ २१ ॥ २२ ॥ रत्न-मणि, श्रेष्ठ, (न०) श्येन-सिकरा-पक्षी, (पुं०) सफेद रन-(पुं० )
रंगवाला, (त्रि.) रात्रा-सरहटी या मंडनी, रायसन, सानु-पर्वतका शृंग, बुध, वन, वायु. (स्त्री०) ॥ २० ॥
___ का समूह, पत्ता, मार्ग, (पुं०) लग्न-राशियोंका उदय, (न०) ॥ २३ ॥
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नतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
सूनुः पुत्रेऽनुजे सूर्ये सूनुर्दुहितरि स्त्रियाम् । सूनं प्रसूने प्रसवे सूनमुच्छ्रसिते त्रिषु ॥ २४ ॥ सूना पुत्र्यां वधस्थाने गलशुण्ड्यामपीष्यते । स्त्यानं लोन्नि प्रतिश्रुत्यां मता स्निग्धे तु वाच्यवत् ॥ २५ ॥ स्थानं स्थितौ च सादृश्ये संनिवेशाऽवकाशयोः । स्थाने स्यादव्ययं ख्यातं युक्तार्थकरणार्थयोः ॥ २६ ॥ स्यूनोऽर्के किरणे स्वप्नः सुप्तधीखापदर्शने । हनुः कपोलावयवे मृत्यौ प्रहरणेऽस्त्रियाम् ॥ २७ ॥ गदे हट्टविलासिन्यां हीनं गोनयोस्त्रिषु ।
नतृतीयम् । अङ्गनं प्राङ्गणे यानेप्यङ्गना नायिकान्तरे ॥ २८ ॥ अङ्गना वामनेभस्य हस्तिन्यामपि दृश्यते । अञ्जनो दिकरीन्द्रे स्यादञ्जनं तु रसाञ्जने ॥ २९॥
सूनु-पुत्र, छोटाभाई, सूर्य, (पुं०) स्यून-सूर्य, किरण, (पुं०) सून-पुष्प, जन्म (उत्पत्ति ) (न०) स्वप्न-सोना, स्वप्नका देखना, (पुं०) सून-ऊर्द्धश्वास, (त्रि०) ॥ २४ ॥ हनु-ठोडी, मृत्यु, हथियार,॥ २७ ॥ सूना-पुत्री, जीवमारनेका स्थान, ता. रोगविशेष, नख-गंधद्रव्य, (पुं०न०)
लुके ऊपर एक छोटी जीभ (स्त्री०) हीन-निंदित, न्यून (कमती) (त्रि०) स्त्यान-लोम, (न. ) प्रतिध्वनि,
नतृतीय । (स्त्री०) स्निग्ध (स्नेहवाला,) (त्रि०)॥ २५॥
अङ्गन-आँगन, सवारी (न.) स्थान-स्थिति, सादृश्य, प्रवेश, अव-! अंगना-स्त्री, ॥ २८ ॥ वामननामदिकाश, (न०)
__गहस्तीकी हस्तिनी, (स्त्री.) स्थाने युक्त अर्थ, करण अर्थ, (अव्य- अंजन-एक दिगृहस्ती, (पुं०) य) ॥ २६ ॥
। रसौत ( न० ) ॥ २९ ॥
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विश्वलोचनकोश:
अक्षिकज्जलसौवीरे गिरिभेदेऽप्यथाञ्जने । ज्येष्ठीभेदेमरुत्पत्ल्यामञ्जनी लेप्ययोषिति ॥ ३० ॥ अध्वा वर्त्मनि संक्शे स्कन्दे संस्थानकालयोः । अपानो गुदवाते स्यादपानं तु गुदे मतम् ॥ ३१ ॥ आब्जिनी विसिनीत्यादिपदान्यब्ज सरोवरे । महासहायामाम्लानः पुंस्येव त्रिषु निर्मले || ३२ ॥ अयनं पथि भानोश्च दक्षिणोत्तरतोगतौ । नाsरत्निः कफणौ हस्ते प्रकोष्ठवितताङ्गुलौ ॥ ३३ ॥ अर्जुनः पार्थककुभ कार्त्तवीर्यशिखण्डिषु । मातुरेकसुतेऽपि स्यादर्जुनो धवलेऽन्यवत् ॥ ३४ ॥ अर्जुनी गव्युषायांच कुट्टिनीकरतोययोः । अर्जुनं तु तृणे नेत्ररोगेऽपि क्लीबमर्जुनम् ॥ ३५॥
१९०
[नान्तवर्गे
नेत्रोंका, कज्जल, कालासुरमा, प- । अयन-मार्ग, दक्षिण और उत्तरसे र्वतभेद, ज्येष्ठीमधु, वायुकी स्त्री, सूर्यगति, ( न० ) ( त्रि० ) अंजनी, स्त्रीका चित्र, अरत्नि - कोंहनी, अँगुलियोंसमेत फैस्त्री० ) ॥ ३० ॥ लावा हाथ (पुं० ) ॥ ३३ ॥ अर्जुन - अर्जुन-पांडुराजाका पुत्र, एकक्ष, सहस्रबाहु, शिखंडी, माताकाएकपुत्र, (पुं० ) श्वेतवर्ण, (त्रि०)
अ ( ध्वन् ) ध्वा - मार्ग, संक्लेश, झिरना, मृत्यु, काल, ( पुं० ) अपान- गुदाका वायु, (पुं० ) अपान - गुद, (न० ) ॥ ३१ ॥ अब्जिनी - विसिनी - कमल, वर, (स्त्री० ) अम्लान- मखवन (त्रि० ) ॥ ३२ ॥
सरो
॥ ३४ ॥
(पुं० ) निर्मल,
अर्जुनी-गौ, उषा बाणासुरकी पुत्री, कुट्टनी, करतोया नदी, (स्त्री० ) अर्जुन - तृण, नेत्ररोग, (न० ) ॥ ३५ ॥
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नतृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
तु
अर्थी स्याद्याचके यक्षे सेवके च विवादिनि । अर्वा हये मानव कुत्सितेऽप्यभिधेयवत् ॥ ३६॥ अर्शोघ्नी तालपय स्यादर्शोघ्नः शूरणे पुमान् । अली वृश्चिके भृङ्गेऽप्यवनं रक्षणे मुदि ॥ ३७ ॥ अशनिस्तु द्वयोर्वज्रे तडित्यपि मताऽशनिः । असनं क्षेपणे क्लीवमसनः पीतसारके ॥ ३८ ॥ असिक्नी सरिति प्रेष्याशुद्धान्ताऽवृद्धयोषिति । आत्मा ब्रह्ममनोदेहखभावधृतिबुद्धिषु ॥ ३९ ॥ आत्मायत्तेऽप्यथाऽऽदानं ग्रहणे वाजिभूषणे । आपन्नस्तु विपत्प्राप्ते प्राप्ते चाप्यभिधेयवत् ॥ ४० ॥ आसनं द्विरदस्कन्धपीठे पीठस्थितावपि । आसनी पण्यवीथ्यां स्यादासनो जीवकद्रुमे । ॥ ४१ ॥
अर्थिन् - याचक, यक्ष, सेवक, विवा- | असिक्की - नदीभेद, रनवास में जानेदी, (पुं० ) वाली जवानदासी, ( स्त्री० ) अर्वन् - अश्व, (पुं०) कुत्सित, (त्रि०) आत्म (न्) - ब्रह्म, मन, शरीर, खभा॥ ३६ ॥ व, धृति, बुद्धि, अपने अधीन (पुं० ) ॥ ३९ ॥ आपन - विपत्को प्राप्तहुआ, प्राप्तहुचा,
अर्शोघ्नी- कपूरकचरी, ( स्त्री० ) अर्शोघ्न - जमीकंद, (पुं० ) अलिन् - बीए, भौरा, (पुं० ) अवन-रक्षा, आनंद, ( न० ) ||३७|| | अशनि-वज्र, (पुं० स्त्री० ) बिजली,
( स्त्री० ) असन - फेंकना, ( न० ) असन - विजयसार, ) पुं० ) ॥ ३८ ॥
१९१
(Fato) 11 80 11
आसन - हस्तियोंका कंधा, हस्तियोंकी
पीठ, पट्टाआदि, स्थिति, ( न० > आसनी - दुकानोंकी पंक्ति, (स्त्री० ) आसन - जीयापोता वृक्ष, (पुं० ) ॥ ४१ ॥
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१९२
विश्वलोचनकोशः- [नान्तवर्गेउत्तानमुन्मुखे सुप्तेऽप्यगम्भीरेऽपि वाच्यवत् । उत्थानमुद्गमे तत्रेऽप्युद्यमे हर्षणे रणे ।। ४२ ॥ प्राङ्गणे पौरुषे चैव मलवेगे च पुस्तके । उदानस्तूदरावर्ते कण्ठवाताहिभेदयोः ॥ ४३ ॥ उद्धानं चुल्लिकायां स्यान्मतमुद्गमनेऽपि च। उद्यानं क्लीवमाक्रीडे निःसृतौ च प्रयोजने ।। ४४ ॥ कठिना तु मता स्थाल्यां शर्करायां गुडस्य च । खटिकायां तु कठिनी कठिनं निष्ठुरे त्रिषु ॥ ४५ ॥ कदनं युधाचे कामे कम्पनं कम्प्रकम्पयोः। कमनः कामुके चाभिरूपे चाशोककामयोः ॥ ४६ ॥ कर्म व्याप्ये क्रियायां च परे स्यादनसंस्कृतौ ।
कर्तनं छेदने तूलतन्तुकर्मणि योषिताम् ॥ ४७ ॥ उत्तान-ऊपरको मुखकरके सोयाहुवा, कठिनी-खडिया-(मिट्टी ) (स्त्री०) __ नहींगंभीर अर्थात् ऊँचा, (त्रि०) कठिन-निष्ठुर ( कठोर ) (त्रि०) उत्थान-उद्गम, तन्त्र, उद्यम, आनंद, ॥ ४५ ॥ रण, ॥ ४२ ॥ आँगन, पौरुष,
१, कदन-युद्धआदि, कामदेव, (न०) मलवेग, पुस्तक, (न०)
कम्पन-कम्पनेके खभाववाला,काँपना उदान उदरका चक्र, कंठमें रहनेवाला
। (न० ) वायु, सर्पभेद, (पुं० ) ॥ ४३ ॥
कमन-कामीपुरुष, सुंदर-पुरुष, शोउद्धान-चूल्हा, (न० ) उद्गत (प्र
- __ कटहुवा ) (त्रि.)
करहित, काम, (पुं०) ॥ ४६ ॥ उद्यान-बगीचा-घरका, निकसना, कर्मन्-व्याप्य, क्रिया, पर, अंगका
प्रयोजन, ( न० ) ॥ ४४ ॥ संस्कार, ( न०) कठिना-स्थाली ( चावलआदिपकाने- कर्तन-कतरना, सूतकातना, (न०)
का पात्र ) गुड़की डली, (स्त्री०)! ॥ ४७ ॥
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नतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
१९३ कलग्लायान्तु कलनं कलनं बन्धनेऽपि च । कल्पनं छेदने क्लप्ती कल्पना गजसज्जने ॥ ४८ ॥ पणस्य मानदण्डस्य चतुर्थांशेऽपि काकिनी । काञ्चनो धूर्तपुन्नागनागकेसरचम्पके ॥ ४९ ॥ उदुम्बरे काञ्चनारे हरिद्रायां च काश्चनी। क्लीबं तु काञ्चने हेम्नि केशरेऽपि च काञ्चनम् ॥ ५० ॥ काननं विपिनेऽपि स्याच्चतुर्मुखमुखे गृहे । व्यांसे कर्णेपि कानीनः कानीनः कन्यकासुते ॥ ५१ ।। कामिनी नायिकाभेदे वन्दायामपि कामिनी । कामी तु कामुके कोके कामी पारावतेऽपि च ॥ ५२ ।। कुन्नानं तु ह्यलङ्कारे भाजने गोलकान्तरे । कुहना दम्भचर्यायामीालौ दाम्भिके त्रिषु ॥ ५३ ॥
कलन-बंधन ( न०)
कानन-वन, ब्रह्माका मुख, घर, कल्पन छेदन, रचना, (न०) । (न. ) कल्पना-हस्तीसिंगारना, (स्त्री०) कानीन-व्यास, कर्ण, कन्याका पुत्र, ॥४८ ॥
(पुं० ) ॥ ५१ ॥ काकिनी-पैसाका चौथाहिस्सा, मान कामिनी-स्त्रीभेद, वृक्षकी लता
दंडका चौथाहिस्सा (स्त्री०) (स्त्री०) कांचन-धतूरा,पुन्नाग-वृक्ष,नागकेसर, कामिन-कामी-पुरुष, चकवा, कबूतर
चंपा, ॥ ४९ ॥ गूलर-वृक्ष, (पुं० ) ॥ ५२॥
कचनार-वृक्ष, (पुं०) कुन्नान-आभूषण, पात्र, गोलाभेद, कांचनी-हलदी, (स्त्री.)
(न०) कांचन-सुवर्ण, कमल केसर, (न०) कुहना-दंभचर्या, ईर्षाकरनेवाला, ॥ ५० ॥
__दंभकरनेवाला, (त्रि.) ॥ ५३ ॥
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१९४
विश्वलोचनकोशः- [नान्तवर्गकृती तु पण्डिते योग्ये केतनं लाञ्छने गृहे । केतनं स्यात्पताकायां कार्ये चोपनिमन्त्रणे ॥ ५४ ॥ चीनकदेशे कौपीनं स्यानुह्याकार्ययोरपि । कौलीनं तु परीवादे कुलीनत्वे कुकर्मणि ॥ ५५ ॥ गुह्येऽपि सङ्गरेपि श्वभुजङ्गपशुपक्षिणाम् । भवेत्क्रन्दनमाह्वाने मतमश्रुविमोचने ॥ ५६ ॥ खड्गी तु गण्डके पुंसि खड्नी खड्गायुधेऽपि च । गन्धनं सूचने हिंसासमुत्साहप्रकाशने ॥ ५७ ।। गर्जनं तु मतं कोपे निखने मेघनिखने । गहनं कानने दुःखे गहरे कलिलेऽपि च ॥ ५८ ।। गायनं स्वप्ने क्लीबं च गीतजीविनि गायने । विषदिग्धपशोम्मासे गृञ्जनं लशुने पुमान् ॥ ५९ ॥
कृतिन्-पंडित, योग्य, (पुं०) खगिन् गैंडा, (पुं० ) खगहथियाकेतन-लांछन, घर, (न०)
रवाला, (त्रि.) केतन-पताका, कार्य, निमंत्रण,(न०) गंधन-सूचनकरना, हिंसा, उत्साह.
___ का प्रकाश, ( न०)॥५७ ॥ कौपीन-वस्त्रका खंड, गुह्य-देश, अगर्जन-क्रोध, शब्द, मेघशब्द (न०)
कार्य, (न.) कौलीन-निंदा, कुलीनत्व, कुकर्म, गहन-वन, दुःख, सकड़ा, सघन,
(न०) ॥ ५८ ॥ गुह्यदेश, कुत्ता सर्प-पशु-पक्षियोंका गायन-वप्न (न० ) गानेकी जीवि. युद्ध, (न०)
___कावाला, (त्रि.) गाना, (न.) क्रंदन-बुलाना, आँसूडालना, (न०) गुंजन-विषमिला पशुका मांस, (न.)
हस्सन, (पुं०)॥ ५९ ॥
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तृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः । गोमी गवीश्वरे हरौ स्यान्महेष्वासकेऽपि च । गोस्तनी हारहरायां हारभेदे तु गोस्तनः ॥ ६०॥ ग्रावा तु पुंसि पाषाणे गिरिवारिदयोरपि । घट्टना चलनायां स्यादावृत्त्यामपि घट्टिनी ।। ६१ ॥ चक्री हरिकुलालाऽहिकोकेषु ग्रामजालिने । चन्दना कालिभेदे स्याञ्चन्दनं मलयोद्भवे ।। ६२ ॥ चन्दनी तु नदीभेदे चर्म स्यात्फलकत्वयोः । चमी फलकपाणौ स्याङ्ग्रङ्गरीटे मृदुत्वचि ॥ ६३ ॥ चलनं भ्रमणे कम्पे वाच्यवत्कम्पशालिनि । चलनी वस्त्रघर्घर्या वारीभेदेऽपि दृश्यते ॥ ६४ ॥ चेतनश्चेतनायुक्ते त्रिषु संविदि चेतना । पत्रे पतत्रे छदनं छद्म शापकिलासयोः ॥ ६५ ।।
गोमिन्-गोवोंका खामी, विष्णु, ब- चर्मन्-ढाल, त्वचा, (न० ) ___ हाधनुष, (पुं० )
चर्मिन्-ढालधारी, भुंगरीट (शिवगोस्तनी-दाख, (स्त्री०)
गण ) भोजपत्र, (पुं०)॥ ६३ ॥ गोत्तन-हारभेद, (पुं०) ॥ ६० ॥ चलन-भ्रमण, कंप, (न०) काँपने के ग्रावन्-पत्थर, पर्वत, मेघ, (पुं०) स्वभाववाला (त्रि०) घट्टना-चलना, घट्टिनी-आवृत्ति,जलनी-वस्त्रकी घघरी, हस्तीके पैरबा(स्त्री०)॥ ६१ ॥
धनेकी रस्सी, (स्त्री० ) ॥ ६४ ॥ चक्रिन्-विष्णु, कुम्हार, सर्प, चकवा, ___ ग्राममें होनेवाली तोरई, (पुं० ) चेतन-चेतना (बुद्धि) सेयुक्त,(त्रि.) चन्दना-कालीभेद, (स्त्री०)
चेतना-बुद्धि, ( स्त्री०) चन्दन-मलयाचलमें होनेवाला काष्ठ, छदन-पत्ता, पक्षीकी पर, (न०) (न०)॥ ६२ ॥
छद्मन्-शाप, सीपरोग, (न०) चन्दनी-नदीभेद, (स्त्री)
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१९६
विश्वलोचनकोश:
लक्ष्येऽपि छर्दनस्तु स्यान्निम्बालम्बुषवन्तिषु | छेदनं भेदने छेदे जगस्तुर्जन्तुशुष्मणोः ॥ ६६ ॥ जघनं वनिताश्रोणी पुरोभागे कटावपि । जयनं तु जये वाजिगजप्रभृतिकञ्चुके ॥ ६७ ॥ यवनो यवमात्रेऽपि यवाधिकतुरङ्गमे । देशभेदे तुरुष्केsपि जवनः प्रजवे त्रिषु ॥ ६८ ॥ तपनो रविसन्तापे भलके नरकान्तरे । तमोघ्नश्चन्द्रसूर्याऽमिबुद्ध श्रीकण्ठविष्णुषु ॥ ६९ ॥ तलिनं विरले स्तोके स्वच्छ गम्भीरयोरपि । तलुनः पवने यूनि वाच्यवत्तलुनी स्त्रियाम् ॥ ७० ॥ तेमनं व्यञ्जने दे चुल्लिकाभिदि तेमनी । तोदनं व्यथने तोत्रे त्यागी सूरेऽपि दातरि ॥ ७१ ॥
[ नान्तवर्गे
छर्दन - निशाना, नींब, लजालूभेद, | तपन - सूर्य से गरम ( धूप ), भिलावा, नरकभेद, (पुं० )
छर्दि (त्रि०)
छेदन-भेदनकरना, (770)
गम्भीर, (त्रि०)
छेदनकरना, तमोघ्न- चंद्रमा, सूर्य, अग्नि, बुद्धदेव, महादेव, विष्णु, (पुं० ) ॥ ६९ ॥ जगन्-जन्तु, अग्नि, ( पुं० ) ॥ ६६ ॥ तलिन - विरल (कोई ), थोड़ा, स्वच्छ, जघन - स्त्रीकी श्रोणियोंका अग्रभाग ( जाँघ ), और कटि, ( न० 。) जयन-जय, अश्व (घोडे) हाथी आदि का कवच ( न० ) ॥ ६७ ॥ यवन - जवमात्र, जवभरजादा अश्व, देशभेद, यवन ( मुसल्मान ) जा. ति, ( पुं० )
तलुन - वायु, (पुं० ) जवान, (त्रि०) तलुनी- (- जवान स्त्री, (स्त्री० ) ॥ ७० ॥ तेमन - व्यंजन ( शाक ), गीला, ( न० ) तेमनी - चूल्हाभेद ( स्त्री० ) तोदन - पीड़ा, बैलआदि हाँकने की पैनी, ( न० )
जवन बहुत वेगवाला (त्रि० ॥६८॥ त्यागिन् शूर, दाता, (पुं० ॥७१॥
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नतृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
पुष्पे वीरेsपि दमनो दर्शनं दृशि दर्पणे । स्वप्ने वर्त्मनि बुद्धौ च शास्त्रधर्मोपलब्धिषु ॥ ७२ ॥ दशनः शिशिरे पुंसि दंशनं कवचे रदे | दहने दुष्टचरिते भल्लाते चित्रकेऽनले ॥ ७३ ॥ दृशानस्तु गृहपती दृशानं ज्योतिषि स्मृतम् । देवनः पाशके पुंसि धन्व चापे स्थलेऽपि च ॥ ७४ ॥ धन्वी धनुर्द्धरे खिङ्गेऽप्यर्जुने चार्जुनद्रुमे । धमनस्त्वनले भस्त्राध्मापकक्रूरयोस्त्रिषु ।। ७५ || धमनी कंघरायां च हरिद्राशिरयोरपि । धाम रश्म गृहे देहे प्रभावस्थानजन्मसु ॥ ७६ ॥ धावनं धाविते शुद्धौ पृष्टिपर्ण्य तु धावनी । स्याद्धावनी रजन्यां च धौतांजन्यां च तत्र्त्तरे ॥ ७७ ॥
दमन-दना- पुष्प, वीर, (पुं० ) दर्शन - दृष्टि (नेत्र ), दर्पण (शीशा), स्वप्न, मार्ग, बुद्धि, शास्त्र, धर्म, उपलब्धि ( प्राप्ति ) ( न० ) ॥ ७२ ॥ दंशन - शिशिर ऋतु, (पुं० ) दंशन - कवच, दाँत, ( न० ) दहन- दुष्टचरितवाला, भिलावा,
ची
ता, अग्नि, (पुं० ) ॥ ७३ ॥ दृशान - घरका स्वामी, (पुं० ) दृशान - ज्योति, ( न० ) देवन-चौपड़खेलनेका पासा, (पुं०) धन्वन्–धनुष, स्थल, ( २० ) ॥७४॥
|
१९७
धन्विन्- धनुषधारी, चतुर मनुष्य, अर्जुन, अर्जुनवृक्ष, ( पुं० ) धमन - अग्नि, धमनीसे अग्निधमनेवाला, क्रूर, (पुं० ) ॥ ७५ ॥ धमनी - ग्रीवा, हलदी, नाडी, (स्त्री०) धाम-किरण, घर, शरीर, प्रभाव, स्थान, जन्म, ( न० ) ॥ ७६ ॥ धावन - धोवना, शुद्धि, ( न० ) धावनी - पिठवन ( स्त्री० ) धावनी -रात्रि, धोया है अंजनजिसने ऐसी स्त्री - ( स्त्री० ) ॥ ७७ ॥
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१९८
विश्वलोचनकोश:
ध्वजी द्विजे रथे शैले तुरङ्गे च भुजङ्गमे । नन्दनो हर्ष पुत्रे नन्दनं मिश्रकावने ॥ ७८ ॥ नन्दनी तु मता देवधुनीधे नुननान्दृषु । नन्दी नन्दीश्वरे गर्दभाण्डन्यग्रोधवृक्षयोः ॥ ७९ ॥ नलिनी तु सरोजिन्यां सरोजे च सरोवरे । व्योमगङ्गामलिकयोः नलिनं तु जलाब्जयोः ॥ ८० ॥ निदानं रोगनियमेऽप्यादिहेत्ववमानयोः । वत्सदाम्नि निदानं स्यान्निधनं कुलनाशयोः ॥ ८१ ॥ पत्री काण्डखगश्येननगर थिके रथे । पद्मिनी पद्मनलिनीसरस्सु वनितान्तरे ॥ ८२ ॥ पर्व स्यादुत्सवे ग्रन्थौ दर्शप्रतिपदोरपि । तत्सन्धौ विषुवादौ च प्रस्तावे लक्षणान्तरे ॥ ८३ ॥
ध्वजिन्- ब्राह्मण, रथ, पर्वत, सर्प, ( पुं० )
नंदन - हर्षकरनेवाला, पुत्र, नन्दन - इंद्रका बगीचा, ( न० ) ॥ ७८ ॥ नंदनी - गंगा, धेनु-भेद, ननद, (स्त्री०) नन्दिन्- नंदीश्वर - रुद्रगण, पारसपीपल,
बड़ - वृक्ष, (पुं० ) ॥ ७९ ॥ नलिनी - कमलिनी, कमल, सरोवर, आकाशगंगा, आँवला, (स्त्री० ) नलिन-जल, कमल, ( न० )
आदिका -
॥ ८० ॥
निदान - रोगोंका दूरकरना,
[ नान्तव
बछड़ाकी रस्सी,
रण, अपमान,
( न० )
निधन -कुल, नाश, ( न० ) ॥८१॥ पत्रिन् - बाण - पक्षी, शिकरा, पर्वत, वृक्ष, रथरवान, रथ, (पुं० ) पद्मिनी - कमल, कमलिनी, सरोवर, स्त्रीभेद, (स्त्री० ) ॥ ८२ ॥ पर्वन् उत्सव, ग्रंथि, अमावस्या, प्रतिपदा, अमावस्या प्रतिपदाकी संधि, समानदिनरात्रिवाला काल आदि, प्रस्ताव, लक्षणभेद, ( न० ) ॥ ८३ ॥
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नतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः। १९९
पवनोऽस्त्री कुलालस्य पाकस्थानेऽनिले पुमान् । निर्विकल्पेऽपि पवनः पक्ष्म लोचनलोमनि ॥ ८४ ॥ पक्ष्म सूत्रादिसूक्ष्मांशे पक्ष्म स्यात्केशरेऽपि च । पावनं तु जले कृच्छ्रे पावकाध्यासयोः पुमान् ॥ ८५॥ पाठीनस्तु वदाले स्यादपि चित्रवदालके । पाठके गुग्गुलुद्रौ च प्रायश्चित्ते तु पाचनम् ॥ ८६ ।। पाचनी तु हरीतक्यां पाचनो वह्निसिहयोः । पावनं पावयितरि त्रिषु पूतेऽपि पावनम् ॥ ८७ ॥ वरुणे पुंसि स्यात्पाशी पाशी पाशधरेऽन्यवत् । पिशुनो नारदे पुंसि खलसूचकयोस्त्रिषु ॥ ८८ ।। पिशुनं कुङ्कुमे क्लीवं पृक्कायां पिशुना मता। पीतनः कपिचूते स्यात्पीतनं पीतदारुणि ॥ ८९ ॥
पवन-कुम्हारका पाकस्थान, वायु, । पाचनी-हरड़, (स्त्री०) ___ निर्विकल्प, (पुं०)
पाचन-अमि, हींग, (पुं०) पक्ष्म-नेत्रोंके लोम, ॥ ८४ ॥ सूत्र पावन-पवित्र करनेवाला, पवित्र,
आदिका सूक्ष्म अंश, केशर, (न०)। (त्रि०) ॥ ८७ ॥ पावन-जल, कृच्छ-व्रत आदि, अग्नि. पाशिन्-वरुण, (पुं०) फाँसीधार
अध्यास, (जैसे रज्जुमें सर्प) (पुं०) णकरनेवाला, (त्रि.) ॥ ८५॥
पिशुन-नारदमुनि, (पुं० ) खल, पाठीन-मत्स्यभेद, चितकबरामत्स्य- चुगलखोर, (त्रि०) ॥ ८८ ॥
भेद, पढानेवाला, गूगल-वृक्ष,(पुं०) पिशुन-कुंकुम ( केसर ) (न०) पाचन-प्रायश्चित्त ( दोषदूरकरनेके- पिशुना-असवरग-शाक,
लिये पुण्यकर्म ) (न.)॥ ८६ ॥ | पीतन-अंबाड़ा, पीतवृक्ष ॥ ८९ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [ नान्तवर्गेकुङ्कुमे हरिताले च पूतना राक्षसीभिदि । पथ्यायां चाथ पृतनाऽनीकिनीसैन्यभेदयोः ॥ ९० ॥ स्याच्चमूसेनयोश्चाथ प्रज्ञानं लाञ्छने धियि । प्रधनं दारुणे सङ्खये प्रधानं परमात्मनि ॥ ९१ ।। क्षेत्रज्ञधीमहामात्रेऽप्येकत्वे तूत्तमे सदा । प्रसूनो वाच्यवजाते प्रसूनं फलपुष्पयोः ॥ ९२ ॥ प्रसन्ना मदिरायां स्यात्प्रसादसहिते त्रिषु । प्रेत्वा तु सारसे वाते प्रेम तु स्नेहनर्मणोः ॥ ९३ ।। फाल्गुनस्तु तपस्ये स्यादर्जुने चार्जुनद्रुमे । फाल्गुनः स्थानदीजेऽपि फाल्गुनी पूर्णिमान्तरे ।। ९४ ।। वन्धनं तु शतंबन्धे बन्धमात्रेऽपि बन्धनम् । वर्द्धनं छेदने वृद्धौ वारिधान्यां तु वर्द्धिनी ॥ ९५ ।।
केसर, हरिताल, (पुं०) प्रेत्वन्-सारस-पक्षी, वायु, (पुं०) पृतना-राक्षसीभेद, हरड़, (स्त्री०) प्रेमन-स्नेह ( प्रीति), टट्ठा, (न.) पतना-सेना-मात्र, सेनाभेद, चमू ॥ १॥ (सेनाभेद), (स्त्री) ॥९०)
अर्जुन, प्रज्ञानं-लांछन (चिह्न), बुद्धि, (न) फाल्गुन-फाल्गुनमास, प्रधन-कठोर युद्ध, (न.)
। कोह-वृक्ष, भीष्म, (पुं०) प्रधान-परमात्मा, (न०)॥ ९१॥ फाल्गुनी-फाल्गुनमासकी पूर्णिमा,
क्षेत्रज्ञ, बुद्धि, मंत्री, एकत्व, सदा (स्त्री० ) ॥ ९४ ॥ उत्तम, (न०)
बन्धन-शतबंध, बन्धमात्र, (न० ) प्रसून-उत्पन्नहुवा, (त्रि.) प्रसून-फल, पुष्प, (न. ) ॥ ९२॥ वद्धन-छेदन, वृद्धि, (न.) प्रसन्ना-मदिरा, (स्त्री० ) प्रसादयु- वर्द्धिनी-जलकी, मटकी (स्त्री०)
स्क्त, (त्रि.)
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नतृतीयम् । भाषाटीकासमेतः। संपूर्वाद्वर्द्धनं पोषे वसनं छादनांशुके । वाणिनी तु मत्तानर्तक्योर्विदग्धायां स्त्रियामथ ॥ ९६ ॥ वासना वसने वारासनज्ञाने च धूपने ॥ वाहिनी स्यादनीकिन्यां सैन्यभेदे सरित्यपि ॥ ९७ ॥ गुरौ पुंसि बुधानः स्यादुधानः पण्डितेऽपि च । बोधनी बोधिपिप्पल्योर्बोधनं गन्धदीपने ॥ ९८ ॥ सुरवर्त्मनि च व्योम व्योमचारिणि च स्मृतम् । ब्रह्मा विरिश्चे विप्रेऽपि ऋत्विक्चन्द्रार्कयोगयोः ॥ ९९ ॥ ब्रह्म क्लीवं श्रुतिज्ञानेऽप्यध्यात्मतपसोरपि । ब्रह्माण्यां भट्टिनी नाट्ये राजयोषिति भट्टिनी ॥ १०॥ भण्डनं तु खलीकारे युद्धसन्नायोरपि । भर्म वर्णे भृतौ सारे भवनं भावसद्मनोः ॥ १०१॥
संवर्द्धन-पोषण, (न०) बोधन-गन्धदीपन (गूगल ) (न०) वसन-आच्छादन, वस्त्र, (न०) ॥ ९८ ॥ . वाणिनी-मदोन्मत्ता स्त्री.नाचनेवाली व्योमन्-आकाश, अकाशचारी,(न.) चतुरास्त्री, (स्त्री.)॥ ९६ ॥ ब्रह्मन्-ब्रह्मा, ब्राह्मण, यज्ञकरानेवाला,
चंद्रसूर्यका योग, (पुं०)॥९९ ॥ वासना-वस्त्र, शतबंधआदि, धूपदे
, धूपद ब्रह्मन्-श्रुतिज्ञान, ब्रह्मविद्या, तप,(न०) ना, (स्त्री०)
भट्टिनी-ब्राह्मणी, नाट्यमें राजाकी वाहिनी-सेना, सेनाभेद, नदी, |
नदा, रानी ( स्त्री० ) ॥ १०॥ (स्त्री० ) ॥ ९७ ॥
|भण्डन-नहींबुराको बुरा कहना, युद्ध, बुधान-बृहस्पति, पंडित, (पुं०) | कवच, ( न० ) बोधनी-पीपल-वृक्ष, पिप्पली (औ-भर्मन्-सुवर्ण, नौकरी, सार, (न०) षधि (स्त्री.)
भवन-भाव, स्थान, (न०) ॥१०१॥
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२०२
विश्वलोचनकोश:
भाजनं पात्रे योग्येऽपि भावना ध्यानलेपयोः । भुवनं तु जगल्लोकसलिलेषु विहायसि ॥ १०२ ॥ भोगी भोगान्विते सर्पे ग्रामण्यां राज्ञि नापिते । संगृहीतस्त्रियां राजभार्याभेदेऽपि भोगिनी ॥ १०३ ॥ मंजनं भोजने क्लीबमलंकर्त्तरि वाच्यवत् । मदनः स्मरधत्तूरवसन्तद्रुमसिक्थके ॥ १०४ ॥ मलनः पठवासेऽपि स्यान्मलनं कर्द्दमे मतम् । पुष्पवत्यां तु मलिनी मलिनं दूषितेऽसिते ॥ १०५ ॥ मार्जनं तु मतं मार्छौ मार्जनो लोध्रपादपे । मालिनी वृत्तभेदे स्याद्गङ्गामालिकयोषितोः ॥ १०६ ॥ गौर्या चम्पानगर्यो च राशौ तु मिथुनः पुमान् । मिथुनं दम्पतीयुग्मे सम्बन्धग्राम्यधर्म्मयोः ॥ १०७ ॥
भाजन - पात्र, योग्य, ( न० >) भावना - ध्यान, लेप, ( स्त्री० ) भुवन-जगत्, लोक-स्वर्ग आदि,
जल, आकाश, ( न० ) ॥ १०२ ॥ भोगिन् - भोगोंसे युक्त, सर्प, ग्राम में
प्रधान, राजा, नाई, (पुं० ) भोगिनी - विवाह के विना संग्रहकरी हुई स्त्री, पारानीके विना राजाकी अन्य रानी, ( स्त्री० ) ॥ १०३ ॥ मंजन - भोजन, ( न० ) भूषित करनेवाला ( त्रि० ) । मदन- कामदेव, धतूरा, वसन्तवृक्ष ( आमका पेड ), मोम, (पुं० )
॥ १०४ ॥
[ नान्तवर्गे
मलन - पढनेका स्थान, (पुं०) कीच, ( न० )
मलिनी - रजखला स्त्री, ( स्त्री० ) मलिन - दूषित, काला ( न० ) ॥ १०५ ॥ मार्जन - माजना, ( न० ) मार्जनलोधका वृक्ष, (पुं० ) मालिनी - छंदभेद, गंगा, मालीकी स्त्री ( मालिन ) ॥ १०६॥ गौरी, चंपानगरी, ( स्त्री० )
मिथुन - मिथुन राशि, (पुं० ) स्त्रीपुरुषका जोड़ा, संबंध, स्त्रीसंग, (न० ) ॥ १०७ ॥
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नतृतीयम् । भाषाटीकासमेतः।
मुण्डनं वपने त्राणे मेहनं शिश्नमूत्रयोः । मैथुनं स्यान्निधुवने मैथुनं सङ्गतावपि ॥ १०८ ॥ यमनं स्यादुपरमे बन्धने च यमे तथा । यापनं वर्त्तने कालक्षेपे निरसनेऽपि च ॥ १०९ ॥ प्रजानो ब्राह्मणेऽपि स्यात्प्रजानः सारथावपि । युवा तु तरुणे श्रेष्ठे निसर्गबलशालिनि ॥ ११० ॥ योजनं तु चतुःक्रोश्यां योगे च परमात्मनि । रजनी तु हरिद्रायां लाक्षायां नीलिकारसे ॥ १११ ॥ रञ्जनो रागजनके रञ्जनं रक्तचन्दने । रञ्जनी नीलिकाशुण्डामञ्जिष्ठारोचनीष्वपि ॥ ११२ ॥ जिहाकांचीरसज्ञेषु रसना रसने खने । खेदने मूर्छने भस्त्रावाते नासामरुत्पथे ।। ११३ ॥
मुण्डन-संपूर्ण केशोंका क्षौर, रक्षा, [ योजन-चारकोश, योग, परमात्मा, (न०)
| (न०) मेहनं-लिंग, मूत्र, (न०) रजनी-हलदी, लाख, नीलिका रस, मैथुन-स्त्रीसंग, संगति, (न०)। ( स्त्री०) ॥ १११ ॥ ॥ १०८ ॥
रंजन-प्रसन्नकरनेवाला, ( पुं० ) यमन-उपराम, बन्धन, यम ( अष्टां- रंजन-रक्त चंदन (न०)
गयोगका एक अंग ), (न०) रजनी-नीली, मदिरा, मँजीठ, गोरोयापन-वर्तना, कालक्षेपकरना, निका- चन, (स्त्री.)॥ ११२॥ सना, (न०)॥ १०९ ॥
रसना-जिह्वा, करधनी, रसका जानप्रजान-ब्राह्मण, सारथि, (पुं०) नेवाला, खाना, शब्द, पसीनादियुवन्-जवान, श्रेष्ठ, स्वाभाविक बल- वाना, मूर्छा, धमनीका वायु, नासिवान्, (पुं०)॥ ११०॥
कावायुका मार्ग (स्त्री०) ॥ ११३ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [नान्तवर्गेरागी तु कोपने रक्ते रागयुक्तेऽपि कामिनि । राजा चन्द्रे नृपे शके क्षत्रिये प्रभुयक्षयोः ॥ ११४ ॥ राधनं साधने प्राप्तौ तोषणेऽपि च राधनम् । रेचनी त्रिवृता शुण्डा रोचनी दन्तिकार्थिका ।। ११५ ॥ रोचनो रक्तकहारे कूटशाल्मलिशाखिनि । अपि गोपित्तमङ्गलरचितस्त्रीषु रोचना ।। ११६ ॥ रोदनं क्रन्दनेऽपि स्यादश्रुमात्रेऽपि रोदनम् । रोही रोहितके बोधिद्रुमे न्यग्रोधपादपे ॥ ११७ ॥ लङ्घनं क्रमणे पीडाकृतोपवसने प्लुतौ । ललना तु नितम्बिन्यां जिह्वायां नाडिकान्तरे ॥ ११८ ॥ लक्ष्म चिह्ने प्रधानेऽपि लाञ्छनं नामलक्ष्मणोः । लेखनं तु लिपिन्यासे छर्दै भूर्जेऽपि लेखनम् ॥ ११९ ॥
रागिन्-क्रोधी, अनुरक्त, राग (प्रीति) रोदन-आवाजसे रोना, आँसूडाल
वाला, कामी, (पुं०) ना, ( न०) राजन्-चन्द्रमा, राजा, इंद्र, क्षत्रिय, रोहिन्-हरीड़ावृक्ष, पीपल-वृक्ष, बड़प्रभु ( समर्थ) यक्ष, (पुं०), वृक्ष, (पुं०)॥ ११७ ॥ ॥ ११४॥
लंघन-चलना, पीडामें किया उपवास, राधन-साधन, प्राप्ति, तुष्टि, (न.) रेचनी-निसोथ, मदिरा, (स्त्री.)
| कूदना, ( न०) रोचनी-जमालगोटाकी जड़, वेश्या,
ललना-स्त्री, जिह्वा, नाडीभेद,(स्त्री०) (स्त्री.)॥ ११५॥
॥ ११८॥ रोचन-लालकमल, कालासेमर-वृक्ष लक्ष्मन्-चिह्न, प्रधान, (न.) (पुं०)
लांछन-नाम, चिह्न, (न०) रोचना-गोरोचन, मंगलरचित (चौ- लेखन-लिपिन्यास (लिखना), छर्द क) स्त्री, (स्त्री.) ॥ ११६ ॥ । (कअ), भोजपत्र,(न०)॥११९॥
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नतृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
वचनु
विप्रे वशी सुगतशकयोः । वपनं मुण्डने वापे वमनं छर्दनेऽर्द्दने ॥ १२० ॥ आहतावप्यथ क्लीवं वर्जनं त्यागहिंसयोः । वर्त्तनं जीवने जीव्ये तूलनाले च वर्त्तनम् ॥ १२१ ॥ वर्त्तनी तर्कपिण्डेऽपि मलिने पथि वर्त्तनी । वर्णी चित्रकरे ब्रह्मचारिलेखकयोरपि ॥ १२२ ॥ आकारे शोभने वर्ष्म वर्ष्म देहप्रमाणयोः । वर्त्म नेत्रच्छदे मार्गे वाग्मी वाचस्पतौ पटौ ॥ १२३ ॥ वाजी वाहे खगे बाणे खर्वेषु त्रिषु वामनः । वामनो विष्णुभेदे स्यादधे याम्यादिदिग्गजे ॥ १२४ ॥ विक्किन्नस्तिमिते जीर्णे जराजीर्णेपि वाच्यवत् । विच्छिन्नस्तु समालब्धे विभक्ते कुटिलेऽन्यवत् ॥ १२५ ॥
वचक्कु - बहुतबोलनेवाला, ( त्रि० ) | वर्ष्म - आकार, सुंदर, शरीर, प्रमाण,
ब्राह्मण, (पुं० )
( न० )
वशिन- बुद्धदेव, इंद्र, (पुं० ) बोना-बीजआदिका
वपन -मुण्डन, ( न० )
वमन - छर्दन, अर्दन (पीडन ) ॥ १२० ॥ जान से मारना, ( न० ) वर्जन - दान, हिंसा, ( न० ) वर्त्तन-जीना, आजीविका, रूईकी -
नाली, ( न० ) ॥ १२१ ॥
२०५
वर्त्मन् - पलक, मार्ग, ( न० ) वाग्मिन् - बृहस्पति, चतुर, (पुं० )
॥ १२३ ॥ वाजिन-अश्व, पक्षी, बाण, (पुं० ) वामन - बौना, (त्रि ० ) विष्णु अवतार ( वामन ), अश्वभेद, दक्षिण दिशाका हस्ती, (पुं० ) ॥ १२४ ॥ विक्लिन्न-गलाहुवा, जीर्ण, (पुं० ) वृद्धअवस्था से जीर्ण (वृद्ध) (त्रि०)
वर्त्तनी - कुकड़ी, मलिन, मार्ग, (स्त्री० ) | विच्छिन्न-अच्छे प्रकार से लब्ध, विवर्णिन्- चित्रकार, ब्रह्मचारी, लेखक
भाग किया हुवा, कुटिल, ( त्रि० )
( पुं० ) ॥ १२२ ॥
॥ १२५ ॥
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विश्वलोचनकोश:
विज्ञानं काणे ज्ञाने वितानं रिक्तमन्दयोः । त्रिषु न स्त्री वितानं स्याद्विस्ता रोल्लोचयोर्मखे ॥ १२६ ॥ वस्त्रवेश्मन्यवसरे वृत्ते च क्रतुकर्म्मणि । विपन्नो भुजगे पुंसि त्रिषु नष्टे विपद्धते ॥ १२७ ॥ विमानो व्योमयानेऽस्त्री सप्तभूमौ गृहेऽपि च । विनस्त्वंगमध्ये स्यात्रिष्वेव चाङ्गलग्नयोः ॥ १२८ ॥ विषन्नस्तु शिरीषे स्याद्गुडूचीत्रिवृतोः स्त्रियाम् । वृजिनं कलुषे क्लीवं केशे ना कुटिले त्रिषु ॥ १२९ ॥ वृषा सुरेश्वरे कर्णे वेदना ज्ञानपीडयोः । वेष्टनं कर्णशष्कुल्यामुष्णीषे मुकुटे वृतौ ॥ १३० ॥ व्यञ्जनं तेमने श्मश्रुचिह्नावयवकादिषु । स्वातंत्र्यकृत्ये व्युत्थानं विरोधाचरणेऽपि वा ॥ १३१ ॥
विज्ञान-औषधियोंके योगसे उच्चाटन |
आदिकर्म, ज्ञान, ( न० ) वितान - रीता, मंद, (त्रि० ) वि स्तार, चंदोवा, यज्ञ, ॥ १२६ ॥ तंबूडेरा, अवसर, वृत्तांत, यज्ञकर्म ( पुं० न० )
विपन्न - सर्प, (पुं०) नष्ट, विपत्को प्राप्त (त्रि ० ) ॥ १२७ ॥ विमान आकाशमें चलनेवाला रथ, सातखना घर, (पुं०न० ) विलग्न अंगका मध्यभाग ( कटि ), लग्नमात्र ( मेषादि )
जन्मलग्न, ( त्रि० ) ॥ १२८ ॥
[ नान्तवर्गे
विषघ्न - सिरस वृक्ष, ( पुं० ) गिलोय, निसोथ (स्त्री० )
वृजिन - पाप, ( न० ) केश, (पुं०) कुटिल, (त्री ० ) ॥ १२९ ॥ वृषन् - इंद्र, कर्ण, (पुं० ) वेदना - ज्ञान पीवा, ( स्त्री० ) वेष्टन - कानकी शष्कुली, पगडी, मुकुट, चारोंतरफका घेरा ( न० ) ॥ १३० ॥ व्यंजन-शाक व कढी आदि, मूँछडाढी' चिह्न, अवयव आदि, ( न० > व्युत्थान- स्वतंत्रता से कृत्य, विरोधका आचरण, ( न० ) ।। १३१॥
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नतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः । व्यसनं त्वशुभे सक्तौ पानस्त्रीमृगयादिषु । दैवानिष्टफले पाके विपत्तौ विफलोद्यमे ॥ १३२ ॥ सक्तिमात्रे सुचरिताझंशे कोपजदूषणे । शकुन मङ्गलाशंसिनिमित्ते शकुनः खगे ॥ १३३ ।। शकुनिः पुंसि विहगे सौवश्वे करणान्तरे । शङ्खिनी शङ्खयूधे स्याद्भुजङ्गस्त्रीप्रभेदयोः ॥ १३४ ॥ शङ्खिनी वेतपुन्नागे चोरपुष्प्यां च शजिनी । शतघ्नी शस्त्रभेदेऽपि वृश्चिकालीकरजयोः ॥ १३५ ॥ शमनस्तु यमे शान्तिवधयोः शमनं मतम् । शयनं तल्पमात्रेऽपि निद्रासुरतयोरपि ।। १३६ ॥ शाखी महीरुहे वेदे तुरुष्काख्यजनेऽपि च । शास्त्राज्ञाराजदत्तोर्वीराजलेखेषु शासनम् ॥ १३७ ॥
व्यसन-अशुभ, आसक्ति, पान, स्त्री, वृक्ष, चोरहुली, (स्त्री.)। शिकार, भाग्यवशसे अनिष्टफल, शतघ्नी-शस्त्रभेद, वृश्चिकाली, करंकर्मफल, विपत्ति, विफलउ- जुवा, (स्त्री० ) ॥ १३५ ॥ द्यम, ॥ १३२ ॥ आसक्तिमात्र, शमन-धर्मराज, ( पुं० ) शांति, अच्छे चरितसे गिरना, कोपसे उत्प- हिंसा, (न०)। नहुवा दोष, ( न.)
शयन-शय्यामात्र, निद्रा, स्त्रीसंग, शकुन-मंगलको कहनेवाला निमित्त, (न०)॥ १३६ ॥
(न० ) पक्षी, (पुं०) ॥ १३३ ॥ शाखिन्-वृक्ष, वेद, तुरुष्कजातिशकुनि-पक्षी, कौरवोंका मामा, कर- जन, (पुं०) णभेद, (पुं०)
शासन-शास्त्र, आज्ञा, राजाकी शंखिनी-शंखसमूह, सर्पभेद, स्त्री- __ दीहुई पृथ्वी, राजाका लेख, (न.)
भेद, ॥ १३४ ॥ सफेद-पुन्नाग | ॥१३७ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [नान्तवर्गेशिखी केतुग्रहे वह्रौ मयूरे कुक्कुटे शरे । बलीवर्दै बके वृक्षे त्रतिभेदसचूडयोः ॥ १३८ ॥ शिल्पी तु वाच्यवत्कारौ नासिकायां तु शिल्पिनी। शृङ्गी नागेऽपि वृषभे पर्वतेऽपि महीरुहे ॥ १३९ ॥ शोभनो योगभेदे ना शोभनः सुन्दरे त्रिषु । श्रीघनः सुगते भिक्षौ श्रीघनं दधि न द्वयोः ॥ १४० ॥ श्लेष्मनी मल्लिकायां स्यात्कम्पिल्लकफणिज्जयोः । श्वसनः पवने श्वासे श्वसनो मदनद्रुमे ॥ १४१ ।। सन्धानं स्यादभिषवे क्लीबं सङ्घट्टनेऽपि च । सन्धिनी तु वृषाक्रान्ताऽकालदुग्धगवोः स्मृता ॥ १४२ ॥ समानो नाभिपवने सदेकसदृशे त्रिषु । सम्पन्नं त्रिषु सम्पत्तिसहिते साधितेऽपि च ॥ १४३ ॥
शिखिन्-केतु-ग्रह, अग्नि, मोर, श्लेष्मनी-मोतियाभेद कवीला, छोटेमुर्गा, शर, बैल,वगला, वृक्ष, वति- पत्तोंकी तुलसी, (स्त्री.) भेद, (पुं० ) चोटीवाला, (त्रि.) श्वसन-वायु, श्वास, अकोट-वृक्ष, ॥ १३८ ॥
(पुं० ) ॥ १४१ ॥ शिल्पिन-कारीगर, (त्रि०) संधान-जोडना, घड़ना, ( न०) शिल्पिनी-नासिका, अडूसा-औषध,
, संधिनी-बैल ( सांड ) की दवाईहुई (स्त्री०)
गौ, विनासमय दुग्धदेनेवाली गौ, शृंगिन्-नाग, बैल, पर्वत, वृक्ष,
(स्त्री० ) ॥ १४२ ॥ (पुं०)॥ १३९ ॥ शोभन योगभेद, (पुं०) समान-नाभिका वायु, श्रेष्ठ, एक, तुशोभन-सुंदर, (त्रि.) ___ ल्य, (त्रि.) श्रीधन-बुद्ध भगवान्, भिक्षु, (पुं०) संपन्न-संपत्तिसहित, साधित, (त्रि.) दही, (न०)॥ १४०॥
॥१४३ ॥
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नतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः। संव्यानमुत्तरासङ्गे संव्यानं छादने तथा । सवनं यजने माने सोमनिर्दमने मतम् ॥ १४४ ॥ सादी तु सारथौ वाहवाहके हस्तिवाहके । साधनं मेहने सैन्ये निवृत्तिगतिसिद्धिषु ॥ १४५ ।। करणे चोपकरणे मृतसंस्करणे वधे । द्रवणे चानुव्रज्यायामुपाये दापने धने ॥ १४६ ॥ साधनो यज्ञकर्मान्ते यजमानप्रचेतसोः । मर्यादायां स्त्रियां सीमा क्षेत्रे घाटे स्थितावपि ॥ १४७ ॥ सूचनाऽभिनये दृष्टा गन्धने व्यधनेऽपि च । सेचनं सेकपात्रे स्यात्सेकरक्षणयोरपि ।।। १४८ ॥ सेनापतौ तु सेनानीः सेनानीः शरजन्मनि । सेवनं सीवने क्लीबं सेवायामपि सेवनम् ।। १४९ ॥
संव्यान-दुपट्टा, ढकना, (न०) साधन-यज्ञकर्मका अंत, यजमान, सवन-पूजन, स्नान, सोमवल्लीका नि- वरुण, (पुं०) ।
चोडना (न०)॥ १४४ ॥ सीमन्-मर्यादा, क्षेत्र, घाट, स्थिति, सादिन-रथका सारथि, अश्वका, च- (स्त्री० ) ॥ १४७ ॥
लानेवाला (सवार ), फीलवान | सूचना-जनाना, दृष्टि, गन्धन, वी( पु०)
| धना, ( स्त्री.) साधन-लिंग, सेना, निवृत्ति, गति, सेचन-सींचनेका पात्र, सींचना, रक्षा सिद्धि, ॥ १४५ ॥ करण, उपक- करनी, (न०) ॥ १४८ ॥ रण, मृतका संस्कार, वध (मा- सेनानी-सेनापति, स्वामिकार्तिक, रना ), झिरना, उपासना करना, (पुं० ) उपाय, दिवाना, धन, (न०) सेवन-सीना वस्त्रआदिका, सेवा,(न०) ॥ १४६ ॥
। ॥१४९ ॥
१४
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२१०
विश्वलोचनकोश:
संस्थानमाकृतौ सन्निवेशे मृत्यौ चतुष्पथे । स्तननं जलदध्वाने ध्वनिमात्रेऽपि कुञ्चने ॥ १५० ॥ स्थापनं स्यात्पुंसवने समाधावर्पणेऽपि च । स्पर्शनः पवने पुंसि स्पर्शनं स्पर्शदानयोः ॥ १५१ ॥ स्यन्दनं प्रसवे नीरे स्यन्दनस्तिनिशे रथे । स्रंसनं रेचने पाते पृथग्भावातिसारयोः ॥ १५२ ॥ स्वामी प्रभौ विशाखे च हली स्यात्कर्षके बले । अङ्गारधान्यां हसनी हसनं हसिते मतम् ॥ १५३ ॥ हस्तिनी नायिकाभेदे हस्तिनी हस्तियोषिति । हायनो वत्सरे न स्त्री व्रीहिभेदाविषोः पुमान् ॥ १५४ ॥ हिण्डनं सुरते केली हादिनी वज्रविद्युतोः ।
[ नान्तवगें
नचतुर्थम् । अथर्वा द्विभेदे स्याद्वेदेऽथर्व नपुंसकम् ॥ १५५ ॥
संस्थान - आकृति अच्छी तरह बनाहुवा | स्वामिन् - प्रभु ( खामी ), स्वामिका - वासस्थान, मृत्यु, चुराहा, ( न० ) र्त्तिक, (पुं० )
स्तनन - मेघका शब्द, ध्वनिमात्र, सु- । हलिन - किसान, बलदेव, (पुं० ) कड़ना, ( न० ) 11 940 11 हसनी-सिगड़ी ( स्त्री० ) स्थापन - पुंसवन, समाधि, अर्पणकरना हसन - हँसना ( न० ) ॥ १५३ ॥ हस्तिनी - त्रीभेद, हथिनी, ( स्त्री० ) हायन - वर्ष, ( पुं०न० ) ब्रीहिभेद,
दीपआदिकी ज्वाला, (पुं०) १५४ हिण्डन - स्त्रीसंग, कीडा, (न० > हादिनी-वज्र, बिजली, (स्त्री० ) नचतुर्थ |
( न० )
स्पर्शन - वायु, (पुं० ) स्पर्शन, स्प
शकरना, दानकरना, ॥ १५१ ॥ स्पन्दन - झिरना, जल, ( न० ) स्यन्दन - तिनिश-वृक्ष, रथ, ( पुं० ) संसन - जुलाब, पड़ना, पृथग्भाव, अतिसार ( बहुत दस्त लगना ) | अथर्वन् द्विजभेद, (पुं० ) ( न० ) ॥ १५२ ॥
अथर्व वेदभेद, ( न० ) ॥ १५५ ॥
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नचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः।
अधिष्ठानं प्रभावेऽपि पुरेऽन्यासनचक्रयोः । अनूचानो विनीतेऽपि साङ्गवेदविचक्षणे ॥ १५६ ॥ नयनाग्रेऽप्यनूचानः पुमानेव कचिन्मतः । अन्वासनं तु सेवायां स्नेहवस्तावुपासने ॥ १५७ ॥ अपाचीनं त्रिषु विपर्यस्ते दक्षिणसम्भवे । जन्मभूम्यामभिजनः कुले ख्यातौ कुलध्वजे ॥ १५८ ॥ अभिपन्नोऽपराद्धेऽभिद्रुते ग्रस्ते विपद्गते । दक्षिणे खीकृतेऽपि स्यादभिपन्नोऽभिधेयवत् ॥ १५९ ॥ अभिमानः पुमान्गर्वेऽज्ञानेऽप्रणयहिंसयोः । अर्यमा मिहिरे सूर्यमुक्तायां पितृदैवते ॥ १६० ॥ अवदानं मतमिति वृत्तकर्मणि खण्डने । तनुमध्येऽवलग्नः स्यात्संलग्ने त्वभिधेयवत् ॥ १६१ ॥
अधिष्ठान-प्रभाव, पुर, स्थितहोना, ग्रस्तहुवा, विपत्को प्राप्तहुवा, (पुं०) चक्र, (न.)
। चतुर, अंगीकार कियाहुवा (त्रि.) अनूचान-विनीत, अंगसहित वेदप- ॥१५९ ॥
ढनेवाला, (पुं० )॥ १५६ ॥ अभिमान- गर्व, अज्ञान, अप्रणय अनचान-अच्छा नीतिजाननेवाला, (अम्रता ), हिंसा, (पुं० )
(पुं० ) अन्वासन-सेवा, स्नेहवस्ति ( वस्ति- अप
। अर्यमन्-सूर्य (पुं० ) सूर्यकी त्यागी__ कर्म ), उपासना ( न०)॥१५७॥
__ हुई दिशा (स्त्री० ) पितरोंका देवअपाचीन-विपर्यस्त ( उलटा ), द. ता, ( पु० ) ॥ १६० ॥
क्षिणदिशामें होनेवाला, (त्रि०) | अवदान-वदीतहुवा, कर्म, खण्डन, अभिजन-जन्मभूमि, कुल, विख्याति, टुकड़ाकरना, (न.)
कुलध्वज, (पुं०)॥ १५८ ॥ अवलग्न-शरीरका बीच, अच्छीतरह, अभिपन्न-अपराधयुक्त, भगाहुवा, लगाहुवा, (त्रि०)॥ १६१ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [नान्तवर्गेस्यादाकलनमाकाङ्क्षापरिसङ्ख्याविबन्धने । आच्छादनं पिधाने स्याद्वसनेनापवारणे ।। १६२ ॥ आतश्चनं प्रतीवापजवनाप्यायने मतम् । आत्मयोनिर्विरिश्चे स्यादात्मयोनिर्मनोभवे ॥ १६३ आवेशनं शिल्पिगृहे भूतावेशे प्रवेशने । आयोधनं भवेयुद्धे वधेप्यायोधनं मतम् ॥ १६४ ॥ आराधनं तु पूजायां पाकप्रापणयोरपि । आस्कन्दनं तिरस्कार तथा संशोषणे रणे ॥ १६५ ॥ उत्पतनं समुत्पत्तौ भवेदूर्द्धगतावपि । उत्सादनं समुल्लेखोद्वर्त्तनोद्वासनार्धकम् ॥ १६६ ॥ भवेदुदयनो वत्सराजे कलशसम्भवे ।
उद्वर्तनमुत्पतनाऽपावर्त्तनविलेपने ।। १६७ ॥ ----------------- आकलन-आकाङ्क्षा, गिन्तीकरना, आराधन-पूजा, पाक ( रसोईक
विशेष करके बंधन, (न०) रना), प्राप्त कराना, ( न०) आच्छादन-छिपाना, वस्त्रसे टका, आस्कंदन-तिरस्कार, शोषणकरना, (न०)॥ १६२ ॥
। रण, (व.)१६५ ॥ आतंचन-प्रतीवाप (सींचना), वेग, उत्पतन-उत्पत्ति, ऊर्द्धगति, (न०) _तृप्ति, (न. )
उत्सादन-उल्लेख ( लिखना), उबटआत्मयोनि-ब्रह्मा, कामदेव, (पुं०)! नलगाना, उजाडना, ( न० )
॥१६३ ॥ आवेशन-शिल्पीका घर, भूतका | उदयन-वत्सराज ( चंद्रवंशका एक
आवेश ( प्रवेश), प्रवेश, ( न०)। राजा) अगस्त्यमुनि, (पुं०)। आयोधन-युद्ध, वध (मारना )| उद्वर्तन-ऊपरको उछलना, निका(न. )॥ १६४ ॥
। लना, विलेपन, (न०)॥१६॥
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नचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः। २१३
उद्वाहनं द्विसीत्ये स्याद्रज्वावुद्वाहिनी मता। अंशुके रूपधानं स्याद्विशेषप्रणयेपि च ॥ १६८ ॥ उपासनं शराभ्यासे शुश्रूषाहिंसयोरपि । कञ्चकी सौविदल्लेपि सर्प खिङ्गेऽपि जोङ्गके ॥ १६९ ॥ शिरीषाभ्रातकाश्वत्थगर्दभाण्डे कपीतनः। कलध्वनिः कलरवे कपीतपिकबर्हिषु ॥ १७० ॥ कलापी प्लक्षवृक्षे स्यान्मेघनादानुलासिनि । कात्यायनो वररुचौ गौर्या कात्यायनी स्त्रियाम् ॥ १७१ ।। काषायवस्त्रार्द्धवृद्धविधवायामपि स्मृता । रक्तचन्दनपत्राङ्गद्रुमभेदे कुचन्दनम् ॥ १७२ ॥ कुण्डली वरुणे केकिमृगाहिषु सकुण्डले । कुम्भयोनिरगस्त्ये स्यादर्जुनस्य गुरावपि ॥ १७३ ॥
उद्वाहन-दोबार बाहाहुवा क्षेत्र,(न०)। कलापिन्-पिलखन-वृक्ष, मोर,(पुं०)
उद्वाहिनी-रज्जु (रस्सी) (स्त्री०) कात्यायन-वररुचि, (पुं०) ॥ १६८ ॥
कात्यायनी-गौरी, ॥१७१॥ गेरूके. उपासन-बाणछोडनेका अभ्यास, रंगे वस्त्रधारनेवाली अधबूढी विधशुश्रूषा, हिंसा, (न०)
वा. ( स्त्री.) कंचुकिन्-ड्योढीपर रहनेवाला, सर्प, चतुरनर, अगर-वृक्ष, ( पुं० )|
कुचंदन-रक्तचंदन, पतंग-वृक्ष या
. भोजपत्र-वृक्ष, ( न०)॥ १७२ ॥ कपीतन-सिरस, अंबाड़ा, पीपल. कुंडलिन्-वरुण, मोर, मृग, सर्प, कुं. बड़ीहरड़, (पुं०)
में डलवाला, (पुं०) कलध्वनि-मधुरशब्द, कबूतर, प. कुंभयोनि-अगस्त्यमुनि, अर्जुनका
पीहा, मोर (पुं०) ॥ १७० ॥ गुरु, (पुं०)॥ १७३ ॥
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विश्वलोचनकोश:- [ नान्तवर्गेकेशरी सिंहपुन्नागनागकेशरवाजिषु । क्रौञ्चादनस्तु पिप्पल्या चिञ्चोटकमृणालयोः ॥ १७४ ॥ स्वकामिनी तु निर्दिष्टा चर्चिकाचिल्लयोषितोः । खड्गधेनुः स्त्रियां खड्गपुत्रिकागण्डकस्त्रियोः ॥ १७५ ॥ गदयित्नुस्तु जल्पाके कामकामुकयोरपि । गवादनीन्द्रवारुण्यां गवां घासादपाश्रये ॥ १७६ ॥ घनाघनो वर्षकाब्दे शके मत्तद्विपे घने । अन्योन्याद् घट्टके चैव घातुके तु घनाघनः ॥ १७७ ॥ घोषयित्नुः पिके विप्रे चित्रभानुरिनेऽनले । चोलकी नागरङ्गे स्यात्करीरे किष्कुपर्वणि ।। १७८ ॥ वर्त्तते ककक....बुधाराटेषु जलाटनः। जनाटनं जलभ्रान्तौ जलौकायां जलाटनी ॥ १७९ ॥
केशरिन्-सिंह, चंपा, नागकेसर, गवादनी-गहूंभा, गौवोंके घास चरअश्व, (बु.)
। नेका स्थल, (स्त्री०) ॥ १७६ ॥ क्रौंचादन-पिप्पली, चिंचोटक-तृण, घनाघन-बर्षनेवाला मेघ, इंद्र, मत्तकमल, (पुं० ) ॥ १७४ ॥
" हस्ती, मेघमात्र, आपसमें घडने.
वाला, मारनेवाला, (पुं० )॥१७७ खकामिनी-रोगभेद, चील्हपक्षीकी घोषयित्न-कोयल, ब्राह्मण, (पुं०) स्त्री (स्त्री०)
| चित्रभानु-सूर्य, अग्नि (पुं०) खङ्गधेनु-छुरी, गैंडाकी स्त्री, (स्त्री) चोलकिन्-नारंगी, कैर, ईख या ॥ १७५॥
बांस, (पुं० ) ॥ १७८ ॥ गयिनु-बहुत बोलनेवाला, काम- जलाटन-...जलमें चलना (न०)
देव, कामी-पुरुष (पुं०) जलाटनी-जोक, (स्त्री० ) ॥१७९॥
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नचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः । २१५
जलमीनश्चिलिचिमे इच्चाकशिशुमारयोः । तपोधना तु मुण्डीर्या तपखिनि तपोधनः ॥ १८० ।। तपस्वी तापसे चानुकम्प्ये चाथ तपस्विनी । मांसिकाकटुरोहिण्योस्तरस्वी वेगिशूरयोः ॥ १८१ ॥ दुर्नामा पङ्कशुक्तौ दुर्नाम क्लीबमर्शसि । देवसेना तु गीर्वाणसेना देवेन्द्रकन्ययोः ॥ १८२ ॥ द्विजन्मा ब्राह्मणेऽपि स्याद् द्विजन्मा दशने खगे। करिमुद्गरिकानागयष्टयोनांगाञ्जना स्त्रियाम् ॥ १८३. ॥ मतं भवेन्निधुवनं सुरते कम्पनेऽपि च । स्यान्निरासे निरसनं वधे निष्ठीवने तथा ॥ १८४ ॥ निर्वासनं तु निर्वासहिंसयोर्गतवासरे । निर्भत्सनं तु निर्दिष्टं खलीकारेऽप्यलक्तके ॥ १८५॥
जलमीन-जलका तृण (सिवाल) चर- देवसेना-देवताओंकी सेना, इंद्रकी
नेवाली मच्छी,... शिशुमार मच्छ कन्या, (स्त्री० ) ॥ १८२ ॥ (पुं०)
द्विजन्मन्-ब्राह्मण, दाँत, पक्षी, (पुं०) तपोधना-गोरखमुंडी, ( स्त्री० ) नागाञ्जना-हस्तियोंका मुद्गर, नागतपोधन-तपस्खी, ॥ १८० ॥ रबेल, (स्त्री० ) ॥ १८३ ॥ तपस्विन-तपस्वी, दयाकरने योग्य, निधवन-मैथुन, कंपन, (न०) (पुं० )
निरसन-निकालना, मारना, थूकना, तपस्विनी-जटामांसी,कुटकी,(स्त्री.) तरस्विन-वेगवाला, शूरवीर. (पं.)! (न० ) ॥ १८४ ॥ ॥ १८१ ॥
निर्वासन-उजाड़ना, हिंसा, गयादुर्नामन्-जोकके समान कीचका हुवा दिन, (न०)
जन्तु, (स्त्री०) दुर्नामन्-बवा- निर्भर्त्सन-झिडकना, जावक, (न०) सीर (न.)
॥ १८५ ॥
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विश्वलोचनकोश:- [ नान्तवर्गदाने न्यासार्पणे वैरशुद्धौ निर्यातनं मतम् । श्रुतौ दृष्टौ निशमनं दृष्टयालोचे निशामनम् ॥ १८६ ।। तपस्विनी पुनर्मासी कटुरोहिणिकाऽपि च । परिज्वा तु पुमानिंदौ याज्ञिके परिचारके ॥ १८७ ॥ पलाशी राक्षसे वृक्षेऽप्यथ पुण्यजनः पुमान् । रक्षःसज्जनयज्ञेषु मूर्खे नीचे पृथग्जनः ॥ १८८ ॥ भवेत्प्रजननं योनौ जन्मप्रजनयोरपि । प्रणिधानं प्रयत्ने स्यात्समाधौ च प्रवेशने ॥ १८९ ॥ प्रतिमानं प्रतिकृतौ गजदन्तान्तरालके । प्रतिपन्नः प्रतिज्ञाते विज्ञातेऽप्यभिधेयवत् ।। १९० ॥ प्रतिपन्नस्तु संस्कारे लिप्सायामप्युपग्रहे ।
प्रत्यर्थी वाच्यलिङ्गः स्याद्विद्वेषिप्रतिवादिनोः ॥ १९१ ॥ निर्यातनं-दान, धरोहड रखना, प्रजनन-योनि, जन्म, गर्भग्रहण वैरका त्यागना, (न.)
करना, (न.) निशमन-सुनना, देखना, ( न०) प्रणिधान-प्रयत्न, समाधि, प्रवेशन, निशामन-दृष्टिसे देखना, (न०) (न. )॥ १८९ ॥ ॥ १८६ ॥
प्रतिमान-मूर्ति, हस्तिदंत, बीच, तपस्विनी-जटामांसी, कुटकी, (व.) (त्रि.)
प्रतिपन्न-प्रतिज्ञाकिया हुवा, जानापरिज्वान्-चंद्रमा, यज्ञकरानेवाला, हुवा, (त्रि.) ॥ १९ ॥ ___ शुश्रूषा करनेवाला, (पुं०) ॥१८७॥ प्रतिपन्न-संस्कार, लाभ करनेकी पलाशिन्-राक्षस, वृक्ष, (पुं० ) इच्छा , उपग्रह, (पुं०) पुण्यजन-राक्षस, सज्जन, यज्ञ, (पुं०) प्रत्यार्थिन्-विद्वेषी, प्रतिवादी, (त्रि.) पृथग्जन-मूर्ख, नीच, (पुं०)॥१८८॥ ॥१९१ ॥
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नचतुर्थम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
प्रयोजनं मतं कार्ये हेतौ च स्यात्प्रयोजनम् । भवेत्प्रवचनं वेदे प्रकृष्टवचनेऽपि च ॥ १९२॥
प्रस्फोटनं तु सूर्पे स्यात्ताडनेऽपि प्रकाशने । प्रसाधनी कंकतिकासिच्योर्वेशे प्रसाधनम् ॥ १९३ ॥ क्लीबं प्रहसनं भङ्गे प्रहासाक्षेपयोरपि । फलकी राजसफरे तथा फलकपाणिके ॥ १९४ ॥ वर्द्धमानः शरावैरण्डयोः प्रश्नान्तरेऽच्युते । दृश्यते वर्द्धमानस्तु वृद्धिमत्यपि वाच्यवत् ॥ १९५ ॥ वारकी द्विषि पाथोधौ पर्णाजीवे हयान्तरे । वारासनं वाः सदने शूलापद्वारपालयोः ॥ १९६ ॥ परमेष्ठिनि भूतात्मा भूतात्मा पिङ्गलेऽपि च । मदयितुर्मतो मेघे मदयित्नुस्तु शीधुनि ॥ १९७॥
प्रयोजन - कार्य, कारण, ( न० ) प्रवचन - वेद, श्रेष्ठ वचन, ( न० )
प्रसाधनी - कंघी, सिद्धि, (स्त्री० ) प्रसाधन-वेश (शृंगार ) ( न० )
॥ १९२ ॥
प्रस्फोटन - सूर्य, (छाज ), ताडना, वारकिन् - शत्रु, समुद्र, पत्तोंसे आजी
प्रकाशन, (न० )
विका करनेवाला, अश्वभेद, (पुं० ) वारासन - जलस्थान ( न० ) त्रिशूल,
अपद्वारपाल ( मकानकी पिछाडीकी रक्षावाला ) ( पुं० ) ॥ १९६ ॥ भूतात्मन् - ब्रह्मा, पिंगलवर्ण, (पुं० ) ढालधारी, मदयिनु- मेघ, मदिरा ( पुं० )
॥ १९७ ॥
॥ १९३ ॥
प्रहसन- एकप्रकारका काव्य, हँसना,
आक्षेप, (न० ) फलकिन मच्छी- मेद, ( पुं० ) ॥ १९४ ॥
२१७
वर्द्धमान - मिट्टीका शराव, अरंड, प्रश्नभेद, विष्णु ( पुं० ) वृद्धिवाला, ( नि० ) ॥ १९५ ॥
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२१८
विश्वलोचनकोशः- [ नान्तवर्ग: महाधनं महामूल्ये चारुवस्त्रेऽपि सिहके।। महामुनिरगस्त्ये स्याद्धान्याकागस्त्ययोरपि ।। १९८ ।। महासेनो विशाखेऽपि महासेनापतावपि । मातुलानी तु भङ्गायां कलाये मातुलस्त्रियाम् ॥ १९९ ॥ मालुधानश्चित्रसचे महापझे लतान्तरे । मालुधान्यथ मेधावी वाच्यवन्मेधयान्विते ॥ २०० ॥ ब्रायां मेधाविनी ख्याता गरुडेपि रसायनः। रसायनं जराव्याधिहरे विषविडङ्गयोः ॥ २०१॥ राजादनं प्रियालद्रौ क्षीरिकायां च किंशुके । ललामवल्ललामं च चिह्ने रम्ये विभूषणे ॥ २०२ ॥ शृङ्गे प्रधाने लाले प्रभावध्वजवाजिषु ।
पुण्ड्रेऽपि लागली तु स्यान्नालिकेरे हलायुधे ॥ २०३ ॥ महाधन-वडामूल्यवाला, सुंदरवस्त्र, मेधाविनी-ब्राह्मी, ( स्त्री०) हींग, (न.)
रसायन-गरुड, (पुं० ) वृद्धता और महामुनि-अगस्त्य-मुनि, धनियों, रोगको हरनेवाला औषध, बच्छ___ हथिया-वृक्ष, (पुं० ) ॥ १९८॥ नाग, वायविडंग, (न०) ॥२०१॥ महासेन-स्वामिकार्तिक, महासेनाका | राजादन-चिरोंजी-वृक्ष, खिरनी, पति, (पुं०)
केसू (न०) मातुलानी-भंग, मटरअन्न, मामाकी ललामन्-ललाम-चिह्न, सुंदर, __स्त्री ( मामी) (स्त्री० ) ॥१९९॥ विभूषण, ॥ २०२ ॥ सींग, प्रधान, मालुधान-चित्रसर्प,बडाकमल (पुं०) पूँछ, प्रभाव, ध्वजा, अश्व, पौंडा, मालुधानी-लताभेद, (स्त्री०) (न० ) मेधाविन्-अच्छी बुद्धिवाला, (त्रि.)। लांगलिन्-नारियल, बलदेव, (पुं०)
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चतुर्थम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
वनश्वा जम्बुके व्याघ्रे गन्धमार्जारकेऽपि च । विरोचनोऽर्के दहने चन्द्रे प्रहादनन्दने ॥ २०४ ॥
तरलायां लसद्वेश्याङ्गनायां च विलेपनी | विलासी भोगिनि व्याले विश्वप्सा वह्निचन्द्रयोः || २०५ ॥ विषयि त्विन्द्रिये क्लीबं वाच्यवद्विषयान्विते । विषयी स्यान्मनसिजे लब्धे वैषयिके नृपे ॥ २०६ ॥ अनधीते भुजिष्ये च विषाणी शृङ्गिनागयोः । विष्वक्सेनोऽच्युते विष्वक्सेना तु फलिनीद्रुमे ॥ २०७ ॥ विसर्जनं परित्यागे दाने सम्प्रेषणे वधे । विस्मापनो हरिश्चन्द्रपुरे ना कुहके रंमरे ॥ २०८ ॥ मतं विहननं घाते पिञ्जने तूलधूनने । नानाविडम्बे हिंसायां मर्दनेऽपि विहेठनम् ॥ २०९ ॥
२१९
वनश्वन्- गीदड़, बघेरा, गंधबिलाव, । विष्वक्सेन - विष्णु, (पुं० ) ( पुं० ) विष्वक्सेना - कलिहारी - वृक्ष, (स्त्री०)
॥ २०७ ॥
विरोचन - सूर्य, अग्नि, चंद्रमा, प्रहादका पुत्र, (पुं० ) ॥ २०४ ॥ विलेपनी - यवागू, सुंदरवेश्या, (स्त्री०) विलासिन - भोगी - पुरुष, सर्प, (पुं०) विश्वप्सन्- अभि, चंद्रमा, (पुं०)
॥ २०५ ॥
विषय - इंद्रिय, ( न० ) विषययुक्त, ( त्रि०) कामदेव, लब्धहुवा, विषय में होनेवाला, राजा ॥ २०६॥ विनापढा, नौकर, (पुं० ) विषाणिन - सींगवाला, नाग, (पुं०) |
विसर्जन- परित्याग, दान, ( प्रेरण ), वध, ( न० > विस्मापन - हरिश्चन्द्रराजाका
पुर, कपटी, कामदेव, (पुं० ) ॥ २०८ ॥ विहनन - घात ( मारना ), पीनना, कईका धुनना, ( न० ) विहेठन-अनेक प्रकारका विडंबन ( नकल ), हिंसा, मलना, (न० )
॥ २०९ ॥
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संप्रेषण
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२२०
विश्वलोचनकोश:
वृक्षादनी वृक्षरुहाविदारीकन्दयोर्मता । वृक्षादनं मधुच्छत्रे कुठाराश्वत्थयोः पुमान् ॥ २१० ॥ वैरोचनस्तु बल्यर्कपुत्रयोः सुगतान्तरे । व्यवायी द्रव्यभेदे स्वात्कामुकेऽप्यभिधेवत् ॥ २११ ॥ शिखरी स्यादपामार्गे गिरौ कोट्टेऽपि शाखिनि । शिखण्डी शरभिद्भीष्मद्विषोः केकिकलापयोः ॥ २१२ ॥ शिखण्डिनी तु गुञ्जायां यूथिकायां शिखण्डिनी । शृङ्गारी चारुवेशेऽपि कामुके क्रमुके गजे ॥ २१३ ॥ मता श्लेष्मघना मत्यां केतकीभक्तसज्जयोः । सदादानोऽभ्रमात हेरम्बे गन्धहस्तिनि ॥ २१४ ॥ सनातनो हरे विष्णौ पितॄणामतिथौ स्थिरे । नित्येऽप्यथ समापन्नं प्राप्ते क्लिष्टसमाप्तयोः ॥ २१५ ॥
वृक्षादनी - अमरबेल, ( स्त्री० )
विदारीकंद, | शृंगारिन - सुंदर वेशवाला, कामीपुरुष, सुपारी वृक्ष, हस्ती, (पुं० ) ॥ २१३ ॥
श्लेष्मघना - मालती या मोतिया, केतकी ( स्त्री० ) भात, कवच ( न० )
सदादान - इंद्रहस्ती, गणेश, गंधहस्ती, (पुं० ) ॥ २१४॥ सनातन - महादेव, विष्णु, पितरोका अतिथि, स्थिर, नित्य होनेवाला, ( पुं० )
पुत्र,
वृक्षादन - मधुच्छत्र ( न० ) कुहाड़ा, पीपल - वृक्ष, (पुं० ) ॥ २१० ॥ | वैरोचन - बलिका पुत्र, सूर्यका बुद्ध - भगवान्, (पुं० ) व्यवायिन् द्रव्यभेद, कामी आदि (त्रि ० ) ॥ २११ ॥ शिखरिन् -चिरचिटा, पर्वत, कोट,
पुरुष
[ नान्तवर्गे
वृक्ष, (पुं० )
शिखंडिन - शरभेद, भीष्मका शत्रु, मोर, मोरपंख, (पुं० ) ॥ २१२ ॥ शिखंडिनी - चोंटली ( चिरमठी ), जूही- पुष्पपेड, (स्त्री० )
समापन्न - प्राप्तहुवा, क्लिट (क्लेशयुक्त), समाप्त, ॥ २१५ ॥ ( त्रि०) वध, ( न० )
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नचतुर्थम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
समापन्नं वधे क्लीबं समाप्तौ तु समापनम् ।
समापनं परिच्छेदे समाधाने च मारणे ॥ २१६ ॥ समादानं समीचीनग्रहणे नित्यकर्म्मणि । समुत्थानं मतं रोगनिर्णयेऽपि समुद्यमे ॥ २१७ ॥ संमूर्छनमभिव्याप्तौ संमूर्छायां च मोहने । संवाहनं तु भारादेर्वाहनेऽप्यङ्गमर्दने ॥ २१८ ॥ स्यात्संवदनमालोचे संवादे च वशीकृता । सरोजिनी तु पद्मिन्यां सरोजे च सरोवरे ॥ २१९ ॥ सामयोनिस्तु सामोत्थे मातशे परमेष्ठिनि ।
सामिधेनी ऋचि प्रोक्ता सामिधेनी समिध्यपि ॥ २२० ॥ मतं सारसनं काच्यामुरस्त्रे च तनुत्रिणाम् । सुकर्मा योगभेदेऽपि सुकर्मा देवशिल्पिनि ॥ २२१ ॥
समापन समाप्ति, परिच्छेद ( ग्रंथ- | संवदन- देखना, संवादकरना, वश में
विभाग ), समाधान, मारना, ( न० ) ॥ २१६ ॥
करना, (न० ) सरोजिनी - कमलिनी, कमल, सरोवर, ( स्त्री० ) ॥ २१९ ॥ सामयोनि-सामसे उत्पन्न हुवा, हस्ती,
समादान - अच्छीतरह ग्रहणकरना,
नित्यकर्म ( न० )
समुत्थान- रोगका निर्णय, अच्छेप्र• कारसे उद्यम, ( न० · ) ॥ २१७ ॥ संमूर्छन- अभिव्याप्ति, संमूर्छा, मोहन, (न० •) संवाहन - भारआदिका वहना, अंगका मर्दन करना, ( न० )॥२१८॥
२२१
ब्रह्मा, (पुं० ) सामिधेनी-वेद ऋचा, समिधू ( पलाशी ) ( स्त्री० ) ॥ २२० ॥ सारसन - तगड़ी, शरीरकी रक्षाकरने
वालोंका उरत्र, ( न० ) सुकर्मन् - एकयोग, देवनाओंका शिल्पी ( कारीगर ) ( पुं० ) ॥२२१॥
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विश्वलोचनकोश:
सुदर्शनं सुरपुरे हरेश्चक्रे सुदर्शनः । सुदर्शना मेरुजम्ब्वामाज्ञायामोषधीभिदि ॥ २२२ ॥ त्रिषु नेत्रानन्दकरे सुदामा त्वम्बुदे गिरौ । सुधन्वा धीरधानुष्के सुधन्वा विश्वकर्मणि ॥ २२३ ॥ सुपर्वा त्रिदशे वंशे शरे धूमे प्रपर्वणि । सुयामुनो वत्सराजे सौधेऽप्यभ्रान्तरे हरौ ॥ २२४ ॥ सौदामिनी तडिद्भेदविद्युतोरप्सरोन्तरे । यमपुर्यां संयमनी व्रते संयमनं मतम् ॥ २२५ ॥ स्तनयित्नुर्धने मेघस्तने मृत्यौ गदेऽपि च । हर्षयितुः सुते पुंसि कनके तु नपुंसकम् ॥ २२६ ॥
२२२
-
नपञ्चमम् ।
अग्रजन्मा विधौ विप्रे ज्येष्ठभ्रातरि च स्मृतः । अतिसर्जन मिच्छन्ति बधे दानेऽपि न द्वयोः ॥ २२७ ॥
[ नान्तवर्गे
सुदर्शन - स्वर्ग, ( न० ) विष्णुका | सौदामिनी-बिजली-भेद, बिजली, चक्र, ( पुं० ) अप्सरा-भेद, (स्त्री० ) सुदर्शना - सुमेरुके जामनका वृक्ष, ! आज्ञा, औषधिभेद, ( स्त्री० ) ॥ २२२ ॥ नेत्रोंको आनंदकरनेवाला, ( त्रि० ) सुदामन् - मेघ, पर्वत, (पुं० ) सुधन्वन्- धीरवान, धनुषधारी, विश्वकर्मा ( देवशिल्पी ( पुं० ) ॥२२३॥ सुपर्वन् - देवता, वंश, शर, धूवाँ,
संयमनी - धर्मराजकी पुरी, (स्त्री० ) संयमन - व्रत ( न० ) ॥ २२५ ॥ स्तनयित्नु - मेघ, मेघशब्द, मृत्यु, रोग, (पुं० ) हर्षयितु-पुत्र, (पुं०) सुवर्ण, (न० )
॥ २२६ ॥
श्रेष्ठपर्व, (पुं० ) सुयामुन- चंद्रवंशका
एक राजा,
महल, मेघभेद, विष्णु, (पुं० ) अतिसर्जन - मारना, दान, ( न० >>
॥ २२४ ॥
॥ २२७ ॥
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अग्रजन्मन् - चंद्रमा, भ्राता, (पुं० )
नपंचम |
ब्राह्मण, बडा
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नपंचमम् । भाषाटीकासमेतः।
२२३ अनुवासनमाख्यातं स्नेहकर्मणि धूपने । अन्तेवासी तु चण्डाले शिष्यप्रान्तगयोरपि ॥ २२८ ।। अपवर्जनमित्येतद् दानेऽपि परिवर्जनम् । अथ स्यादभिनिष्ठानः पुंसि चन्द्रविसर्गयोः ॥ २२९ ॥ स्यादुपस्पर्शनं स्पर्शे लाने चाचमनेऽपि च । त्रिलिंग्यामुपसंपन्नं निहितेऽपि सुसंस्कृते ॥ २३० ॥ कपिशायनमित्येतन्मये देशान्तरे पुमान् । कामचारी तु चटके कामिखच्छन्दयोस्त्रिषु ।। २३१ ॥ धातुवादरते कांस्यकारे कारन्धमी मतः । किष्कुपवो तु वंशे स्यात्कोषकारे नडे(ले)ऽपि च ॥ २३२ ॥ कृष्णवर्मा हुतवहे दुराचारे विधुन्तुदे । कोपने खरसोल्ले च वर्तते खरभाञ्जनम् ॥ २३३ ॥
अनुवासन-स्नेहकर्म (स्नेहबस्ति कपिशायन-मद्य, देशान्तर (पुं०) ___ आदि), धूपन(धूपसे सुगंधि करना) कामचारिन्-चिड़ा-पक्षी, कामी, (न०)
स्वच्छंद, (त्रि.)॥ २३१ ॥ अन्तवासिन्-चण्डाल, शिष्य, पासमें कारंधमिन-धातुवादमें, (धातुके रहनेवाला, (पुं० ) ॥ २२८ ॥
कहनेमें) तत्पर, कांसीका घड़नेअपवर्जन-दान, परित्याग, (न०)
2 वाला, (पुं०) अभिनिष्ठान-चंद्रमा, विसर्ग, (पुं०) ॥ २२९ ॥
किष्कुपर्वन्-बाँस, कोषकार (इक्षुउपस्पर्शन-स्पर्श, स्नान, आचमन, भद या कांस ( पु० ) ॥ २३२ ॥ (न०)
कृष्णवर्मन्-अग्नि, दुराचारी, राहुउपसंपन्न-स्थापित कियाहवा, अच्छी। ग्रह, (पु.) तरह संस्कार कियाहुवा (त्रि.) खरभाजन-क्रोधी, लोहपात्र,(न०) ॥ २३०॥
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२२४
विश्वलोचनकोशः- [नान्तवर्गेस्याद्गन्धमादनः शैलभेदे भृङ्गेऽपि गन्धके । लतामृगप्रभेदे च सुरायां गन्धमादनी ॥ २३४ ॥ चक्रचारी मतः पोताधानके ग्रामजालिनि । चिरजीवी चिरायुष्के स्यादजेऽपि सकृत्प्रजे ॥ २३५ ।। तिक्तपर्वा हिलमोचीगुडूचीमधुयष्टिषु । धूमकेतनशब्दोयं ग्रहभेदे हुताशने ॥ २३६ ॥ लोकेश्वरे विधौ सूर्ये धनदे पद्मलाञ्छनः । तारायां च सरखत्यां पद्मायां पद्मलाञ्छना ॥ २३७ ॥ पीतचन्दनमित्येतत्कालीयकहरिद्रयोः । पृष्ठशृङ्गी तु षण्ढे स्याहंशभीरौ वृकोदरे ।। २३८ ।। प्रबलाकी भुजङ्गेऽपि मेघनादानुलासिनि ।
बोधने प्रतिपत्तौ च दानेऽपि प्रतिपादनम् ॥ २३९ ।। गन्धमादन-पर्वतभेद, भौंरा, गन्धक, पद्मलांछन-लोकोंका ईश्वर (स्वामी), लताभेद, मृगभेद, (पुं०)
ब्रह्मा, सूर्य, कुबेर, (पुं०) गन्धमादनी-मदिरा (स्त्री०) ॥२३४ पद्मलांछना-तारा-देवी, सरखती, चक्रकारिन्-छोटी २ मछली, ग्राम, लक्ष्मी, (स्त्री० ) ॥ २३७ ॥ जाली (पुं०)
पीतचंदन-दारुहलदी, हलदी (स्त्री०) चिरजीविन्-दीर्घ आयुवाला, ब्रह्मा, पृष्ठगिन्-नपुंसक, मच्छरोंसे डर__ काग, (पुं० ) ॥ २३५ ॥
नेवाला, भीमसेन, (पुं० ) तिक्तपर्वन्-हुलहुल-शाक, गिलोय, ॥ २३८ ॥ मुलहटी, (स्त्री.)
प्रबलाकिन्-सर्प मोर, (पुं०) धूमकेतन-ग्रहभेद (केतुतारा), अ- प्रतिपादन-बोधन ( जनाना), प्रनि, (पुं० )॥ २३६ ॥ | सिद्धि, दान, ( न०)॥ २३९ ॥
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नपंचमम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
२२५ वनमाली हृषीकेशे वाराह्यां वनमालिनि । स्त्रीरत्ने च फलिन्यां च लाक्षायां वरवर्णिनी ॥ २४० ॥ रोचनायां हरिद्रायामपि स्याद्वरवर्णिनी । देवदारुणि कालीये दृश्यते वरचन्दनम् ॥ २४१ ॥ व्योमचारी विहङ्गेऽपि सुरे विद्याधरेऽपि च । वनमालिनि रोलम्बे विज्ञेयो मधुसूदनः ॥ २४२ ।। शातकुम्भे कुसुम्भेऽपि महारजनमद्वयोः । कृत्तिवाससि काकोले श्रीफले मृत्युवञ्चनः ।। २४३ ॥ विघ्नकारी मतो भीमदर्शनेऽपि विघातिनि । विश्वकर्मा तु मार्तण्डे मुनिभिद्देवशिल्पिनोः ।। २४४ ॥ वृषपर्वा हरे दैत्ये शृङ्गारिणि कसेरुणि । मांसिकाजलपिप्पल्योदृश्यते शकुलादनी ॥ २४५ ॥
वनमालिन्-गोविंद-भगवान्, वारा- मृत्युवंचन-महादेव, कागभेद, बेल.
हीकंद, वनमाली ( वनमाला था- का पेड या खिरनीका पेड (पुं० ) रणकरनेवाला,) (पुं० )
॥ २४३ ॥ वरवर्णिनी-रत्नरूप नी, फूलप्रियंगू, विघ्नकारिन्-भयंकरदर्शनवाला,मालाख, ॥ २४० ॥ गोरोचन, हल- रनेवाला, (पुं०)
दी, ( स्त्री०) वरचंदन-देवदार, कालाचंदन (न०)।
विश्वकर्मन्-सूर्य, मुनिभेद, देवता. ॥ २४१ ॥
| ओंका शिल्पी, (पुं०) ॥ २४४ ॥ व्योमचारिन्-पक्षी, देवता, विद्या- वृषपर्वन्-महादेव, एक दैत्य, सुपाधर, (पुं० )
रीवृक्ष, कसेरूकंद, (पुं० ) मधुसूदन-विष्णु-भगवान्, भौरा, शकुलादनी-जटामांसी, जलपीपली, (पुं०)॥ २४२ ॥
॥२४५॥ रूई पीननेकी ताँत, महारजन-सुवर्ण, क भा ( न०) | कुटकी (स्त्री०)
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२२६ विश्वलोचनकोशः
[नान्तवर्गेपिञ्जन्यां कटुकायां च सम्मता शकुलादनी। शालङ्कायनशब्दः स्यादृषिभेदेऽपि नन्दिनि ।। २४६ ॥ शिवकीर्तनशब्दोऽयं भृङ्गरीटेऽपि माधवे। स्यादर्जुनेऽपि पीयूषधामनि श्वेतवाहनः ॥ २४७ ॥ श्वेतधामा सुधाधाम्नि घनसाराब्धिफेनयोः । सिन्धुरे धान्यभेदे च वर्तते षष्टिहायनः ॥ २४८ ॥ संप्रयोगी कलाकेलौ कामुके सुप्रयोगिनि । गोशीर्षे दैवततरौ हरिचन्दनमस्त्रियाम् ॥ २४९ ॥ ज्योत्स्नायां कुङ्कुमे पद्मपारगे हरिचन्दनम् । पुमानहस्करे मेघवाहने करिवाहनः ॥ २५० ।।
नषष्ठम् । अन्तावसायी श्वपचे नापिते च मुनर्भिदि । कलानुनादी रोलम्बे कलविक्के कपिञ्जले ॥ २५१ ।।
शालंकायन-ऋषिभेद, नन्दी-गण, कामी, अच्छाप्रयोगकरनेवाला, (पुं० ) ॥ २४६ ॥
(पुं० ) शिवकीर्तन-शिवका एक गण, वि- हरिचंदन-गोरोचन, देववृक्ष, (पुं० ष्णुभगवान्, (पुं०)
न०) ॥ २४९ ॥ चाँदकी किरण, श्वेतवाहन-अर्जुन, चंद्रमा, (पुं०)।
केसर, कमलकेसर, (न.) ॥ २४७ ॥
करिवाहन-सूर्य, इंद्र, (पुं० )
॥ २५०॥ श्वेतधामन्-चंद्रमा, कपूर, समुद्र
नषष्ठ । __ झाग, (पुं०)
| अन्तावसायिन्-चंडाल, नाई, मु. पष्टिहायन-हस्ती, धान्यभेद, ( सां- निभेद, (पुं० )
ठीचावल ) (पुं०) ॥ २४८ ॥ कलानुनादिन-भौरा, चिड़ा, कपि. संप्रयोगिन्-कलाकेली (कलाक्रीडा), जल-पक्षी, (पुं० ) ॥ २५१ ॥
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पद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
जायानुजीवी भरते दुर्गताखिलयोर्बके ।
मतः सहस्रवेधी तु रामठे चाम्लवेतसे ॥ २५२ ॥
इति विश्वलोचने नान्तवर्गः ॥
अथ पान्तवर्गः । पैकम् ।
पो वाते पा तु पाने स्यात्पास्तु पातरि वाच्यवत् ॥ १ ॥ पद्वितीयम् ।
कल्पो ब्राह्मदिने न्याये प्रलये विधिशान्तयोः । कूपोऽन्धुगर्त्तमृन्मानकूपके गुणवृक्षके ॥ २ ॥ कृपा दयायां व्यासे तु कृपो भारतपूरुषे । खष्पः क्रोधे बलात्कारे गोपो गोपालभूपयोः ॥ ३॥
जायानुजीविन्-नट, दुर्गत ( दरिद्र ),
बगला- पक्षी, (पुं० ) सहस्रवेधिन्- हींग, अम्लवेत, (पुं०)
॥ २५२ ॥
इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें नांतवर्ग समाप्त हुवा ॥
अथ पान्तवर्ग | पैक 1
प - वायु (पुं० )
पा-पीना ( स्त्री० )
पा - रक्षाकरनेवाला (त्रि० ) ॥ १ ॥
२२७
पद्वितीय ।
कल्प - ब्रह्माका दिन, न्याय, प्रलय, fafa, ma, ( j• ) कूप - कुवाँ, खड्डा, मिट्टीका प्रमाण, निister खड्डा, नौकाका स्तंभ, (पुं०)
॥ २ ॥
कृपा-दया, ( स्त्री० > कृप - व्यास, कृपाचार्य, (पुं० ) खष्प- क्रोध, बलात्कार, (पुं० ) गोप-गोपाल, राजा, ॥ ३ ॥ ग्रामोंके
समूहका अधिकारी, गोष्ठ ( गोस्थाa) का अधिकारी, कुछकरनेवाला, ( पुं० )
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२२८ विश्वलोचनकोशः
[पान्तवर्गेगोपो ग्रामौघगोष्ठाधिकारिणोश्च कचित्करौ।। छुपः क्षुपे स्पर्शनेऽपि सन्ताने मारुते जुपः ॥ ४ ॥ तल्पं कलत्रे शय्यायां तल्पमद्देऽपि न द्वयोः सन्तापे दवथौ तापस्तापी तु सरिदन्तरे ॥ ५ ॥ त्रपा लज्जाकुलटयोस्त्रपु सीसकरङ्गयोः।। दो भवेदहङ्कारे दो मृगमदेऽपि च ॥ ६ ॥ नीपो वलिकदंबे स्यान्नीलबञ्जलबन्धने । पुष्पं रजसि नारीणां विकासे कुसुमेऽपि च ॥ ७ ॥ रूपमाकारसौन्दर्यखभावश्लोकनाणके ।। नाटकादौ मृगे ग्रन्थावृत्तौ च पशुशब्दयोः ॥ ८ ॥ रेपः स्यानिन्दिते क्रूरे रोपो बाणेऽपि रोपणे । लेपस्तु लेपने ख्यातः सुधाजेमनयोरपि ॥ ९ ॥
छुप-पौधा, स्पर्शकरना, (पुं०) पुष्प-स्त्रियोंका रज, खिलना, पुष्प जुप-कल्पवृक्ष, वायु, (पुं० )॥४॥ (फूल) (न. ) ॥ ७ ॥ तल्प-स्त्री, शय्या, अटारी, (न०) रूप-आकार, सुंदरता, खभाव, ताप-संताप, कष्ट, (पुं०)
__ श्लोक, पैसा रुपया आदि, नाटक तापी-नदी, (स्त्री० ) ॥५॥
आदि, मृग, ग्रंथकी आवृत्ति, त्रपा-लज्जा, कुलटा स्त्री, ( स्त्री०) ।
पशु, शब्द, ( न० ) ॥ ८ ॥ अपु-शीशा, राँग, (न०)
रेप-निंदित, क्रूर, (पुं०) दर्प-अहंकार, कस्तूरी, (पुं० ) ॥६॥ रोप-बाण, रोपणकरना, (पुं० ) नीप-कुंद-वृक्ष, कदंब-वृक्ष, नीला लेप-लेपनकरना, सुधा (कली आदि),
अशोक-वृक्षका नाकू, (पुं०) । भोजनकरना (पुं० ) ॥ ९ ॥
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र
पतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
वपा तु विवरे भेदे बाष्पो नेत्रजलोष्मणोः । शष्पं बालतृणं क्लीबं शष्पस्तु प्रतिभाक्षये ॥ १० ॥ शपथाक्रोशयोः शापः शिष्पं कृत्योचिते श्रुवे । सूपो व्यञ्जनभेदेऽपि सूपकारेऽपि च स्मृतः ॥ ११ ॥ स्वापस्तु शयनाऽज्ञाननिद्रास्पर्शाज्ञतार्थकः । क्षेपो विलम्बे हेलायां गर्हाप्रेरणलेपने ॥ १२ ॥
पतृतीयम् । पुंस्यनूपस्तु महिषे वाच्यवञ्जलसङ्कुले । आकल्पो वेशमात्रे स्यादाकल्पः कल्पनेऽपि च ॥ १३ ॥ आवापो भाण्डे वपने परिक्षेपालवालयोः । आक्षेपो भर्त्सनत्यागाकर्षणे काव्यभूषणे ॥ १४ ॥ उडुपः पुंसि चन्द्रे स्यादुडुपे भेलकेऽस्त्रियाम् ।
उलपस्तृणभेदे स्याद्गुल्मिन्यामुलपं मतम् ।। १५॥ वपा-छिद्र, मेद, (स्त्री.)
पतृतीय। बाष्प-नेत्रजल, बाफ, (पुं०)
अनूप-भैंसा, (पुं०) जलप्रायदेश शप-छोटातृण, (न०) शष्प
___ आदि (त्रि.) तीक्ष्णबुद्धिकी हानि, (पुं०) ॥१०॥
| आकल्प-वेशमात्र, कल्पन (विचार)
(पुं० ) ॥ १३ ॥ शाप-सौगन, दुराशिष, (पुं०) आवाप-भाण्ड ( बरतन या अश्वशिष्प-कृत्यमें उचित, श्रुव, (न०) भूषण), क्षौर, परिक्षेप, वृक्षकी सूप-व्यंजनभेद, रसोई करनेवाला, क्यारी, (पु०) । (पुं०)॥ ११॥
आक्षेप-झिड़कना, त्यागना, खेंचना, खाप-सोना, अज्ञान, निद्रा, स्पर्श,
काव्यभूषण ( अलंकार ) (पुं० ) अज्ञता ( मूर्खता ) (पुं०) उडुप-चंद्रमा, (पुं०) उडुषक्षेप-बिलंब (देर), स्त्रियोंका 'क- नौका, (पुं० न०) रण, निंदा, प्रेरणकरना, लेपन, उलप-तृणभेद (पुं० ) फैली हुई (पुं०) ॥ १२ ॥
बेल, (न. ) ॥ १५ ॥
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२३० विश्वलोचनकोश:
[पान्तवर्गेकच्छपः कमठे काष्ठे मल्लभेदेऽपि कच्छपः। कच्छपी तु डुलौ क्षुद्ररुग्भेदे वल्लकीभिदि ॥ १६ ॥ कलापः संहते बर्हे काव्यादौ तूणवृन्दयोः । भक्ते वस्त्रे च कशिपुरेकोक्त्या तूभयोरपि ॥ १७ ॥ काश्यपी तु क्षितौ मीनमुनिभेदे तु कश्यपः। कुटपोऽस्त्री मानभेदे कुटपो निष्कुटे मुनौ ॥ १८ ।। विदारिकायां कुणपी पूतिगन्धौ शवे पुमान् । कुतपो भागिनये स्यादष्टमांशे दिनस्य च ॥ १९ ॥ कुतपस्तपने छागकम्बले कुशवाद्ययोः । जिह्वापः शुनि माजोरे व्याघ्रपादपयोरपि ॥ २० ॥ पादपः पादपीठेऽद्रौ पादगण्डे च पादपः। पादपा पादुकायां स्यात्प्रतापः खेदतेजसोः ॥ २१ ॥
कच्छप-कछुवा, काष्ठ, मल्लभेद, कुणपी-विदारीकंद, (स्त्री) (पुं०)
कुणप-दुर्गंधवाला मुर्दा, (पुं० ) कच्छपी-कछवी, क्षुद्ररुग्भेद, वीणा
- कुतप-भानजा, दिनका आठवां भेद, (स्त्री.)॥१६॥
__ भाग, ॥ १९ ॥ कलाप-इकट्ठाहुवा, मोरपंख, कांची (करथनी )आदि, बाणोंका माथा,
सूर्य, बकरेके ऊनका कंबल, कुशा, वृन्द, (पुं०)
बाजा (पुं०) कशिपु-अन्न, वस्त्र, अनवस्त्र, (पं.) जिह्वाप-कुत्ता, बिलाव, बघेरा, वृक्ष, ॥ १७ ॥
(पुं० ) ॥ २० ॥ काश्यपी-पृथ्वी, (स्त्री.) पादप-पादपीठ (पैरोंकीचौकी ), कश्यप-मीनभेद, मुनिभेद, (पु.) पर्वत, गंडशैल (पर्वतसे गिरा कुटप-मानभेद, घरके समीप ल- बड़ा पत्थर ) (पुं.)
गाया हुवा बाग, मुनि, (पुं०) पादपा-खडाऊं, (स्त्री०) ॥ १८॥
प्रताप-पसीना, तेज, (पुं०)॥२१॥
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पचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः।
रक्तपा स्याज्जलौकायां रक्तपस्तु क्षपाचरे । विकल्पो विचिकित्सायां विकल्पो भ्रान्तिपक्षयोः ॥ २२ ॥ विटपोस्त्री लतास्तम्बखिगविस्तारपल्लवे ।
पचतुर्थम् । अपलापोऽपलपने प्रेमापहवयोरपि ॥ २३ ॥ अभिरूपो बुधे रम्ये प्राप्तरूपसुरूपवत् । अवलेपस्तु दोषे स्याद्र्वे लेपे च सङ्गमे ॥ २४ ॥ उपतापो मतः पुंसि गदोत्तापत्वरार्थकः । उपयापो विक्षेपे स्यात्तथा भेदेऽवदारणे ॥ २५॥ जलकूपी पुष्करिण्यां कूपगर्भेऽपि सा स्मृता । नागपुष्पस्तु पुन्नागे चम्पके नागकेसरे ॥ २६ ॥ परिकम्पे मतो भीती परिकम्पः प्रकम्पने ।
परीवापो जलस्थाने पर्युप्तौ च परिच्छदे ॥ २७ ॥ रक्तपा-जोक, (स्त्री०) अवलेप-दोष, अभिमान, लेपन, रक्तप-राक्षस, (पुं०) ___ संगम (मिलाप) (पुं० ) ॥२४॥
उपताप-रोग, उत्ताप (बहुतखेद ), विकल्प-संदेह, श्रांति, पक्ष, (क
शीघ्रता (पुं०) ल्पना) (पुं० ) ॥ २२ ॥
उपयाप-विशेष (भेद), विदीर्ण विटप-बेल, गुच्छा, कामिशिरोमणि, करना, फोटना, (पु.)॥ २५ ॥ विस्तार, पल्लव ( पत्ते ) (पुं० ) जलकूपी-नदी, कूवाका गर्भ (बीच) पचतुर्थे ।
(स्त्री० )
नागपुष्प-पुन्नाग-वृक्ष, चंपा, नागअपलाप-खोटाबोलना, प्रेम, छुपाना, केसर, (पुं० ) ॥ २६ ॥ (पुं०) ॥ २३ ॥
परिकंप-भय, कॉपना (पुं०) अभिरूप-प्राप्तरूप-सुरूप-पंडित, परीवाप-जलस्थान, अच्छी तरह मुंदर, (पुं०)
बीजबोना, परिवार, (पुं०) ॥२७॥
--...
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________________ 232 विश्वलोचनकोशः [पान्तवर्गेपिण्डपुष्पमशोके स्याज्जवापुष्पेऽपि पंकजे / बहुरूपः स्मरहरे स्वभूसरटधूनके // 28 // मेघपुष्पं तु पिण्डाभे जलनादेययोरपि / विप्रलापो विरोधोक्तावपार्थवचनेऽपि च // 29 // बीजपुष्पं मरुबके मतं दमनकद्रुमे / वृकधूपस्तु सरलद्रवकृत्रिमधूपयोः // 30 // वृषाकपिमहादेवे कृष्णपावकयोरपि / हेमपुष्पमशोके स्याज्जवापुष्पेऽपि चम्पके // 31 // पपञ्चमम् / भवेच्चामरपुष्पं तु काशे चूते च केतके / / 32 / / इति विश्वलोचने पान्तवर्गः // पिंडपुष्प-अशोक-वृक्ष, जवापुष्प,। वृषाकपि-महादेव, कृष्ण, अग्नि कमल, ( न०) (पुं०) बहुरूप-कामदेव, महादेव, विष्णु, हेमपुष्प-अशोक 7 वृक्ष, जबापुष्य, गिरगट, राल-वृक्ष, (पुं०) // 28 // चंपा, (न. ) // 31 // मेघपुष्प-मेघ, जल, नदीमें होने पपंचम / वाला (न.) विप्रलाप-विरोधसे वचन, निरर्थक अमरपुष्प-काश, आँब, केतकीवचन, (पुं०)॥ 29 // पुष्प, ( न० // 32 // बीजपुष्प-मरुवा, दौना, ( न. ) ! इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें वृकधूप-सरलवृक्षका गोंद, बनाई पान्तवर्ग समाप्त हुवा // हुई धूप, (पुं० ) // 30 // - "Aho Shrutgyanam"
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बैकम् ।] भाषाटीकासमेतः।
२३३ अथ फान्तवर्गः।
फैकम् । फु मन्ने फे रुते सङ्खये स्फा वृद्धौ फेरवे पुमान् । फः स्याज्झञ्झानिले पुंसि स्फूः स्फुटे फुल्लभाषयोः ॥ १ ॥
फद्वितीयम् । गुम्फो बाहोरलंकारे गिरातन्तोश्च गुम्फने । रफेो रवणे पुंस्येव कुत्सिते त्वभिधेयवत् ॥ २ ॥ शर्फ खुरे गवादीनां तरूणां चरणेऽपि च । शिफा जटायां नद्यां च मांसिकायां च मातरि ॥ ३॥
इति विश्वलोचने फान्तवर्गः ॥
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अथ वान्तवर्गः।
वैकम् । वं प्रचेतसि पुंसि स्यादुपमाने तदव्ययम् ॥ १ ॥ अथ फान्तवर्ग। रेफ-र-वर्ण, (पुं०) कुत्सित, (त्रि.) फैक।
॥ २ ॥
शफ-गौआदिकोंका खुर, वृक्षोंकी जड़, फ-तंत्र (उच्चारण करके फूकदेना), (न०) शब्द, युद्ध, (पुं०)
शिफा-वृक्षकी जड़, नदी, जटामांसी, स्फा-वृद्धि, ( स्त्री०) गीदड़, (पुं०) माता, ( स्त्री. ) ॥ ३ ॥ फ-वृष्टिसहित वायु, (पुं० ) इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें स्फू-स्फुट (प्रक्रट), फूलाहुवा,
फान्तवर्ग समाप्तहुवा ॥ (पुं०)॥१॥
अथ वान्तवर्ग। फद्वितीय।
वैक। गुम्फ-भुजाओंका आभूषण, वाणी व-वरुण, (पुं० ) उपमान (अव्यय)
और तंतुओंका गुम्फन (गूंथना),। ॥१॥
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विश्वलोचनकोशः- [बान्तवर्गे
वद्वितीयम् । स्त्री वंशांशे खजाकायां कंबिः कंबुः पुमान् गजे । वलये शङ्खशम्बूक कन्धरामलके स्त्रियाम् ॥ २ ॥ हखे सङ्ख्यान्तरे खर्वश्चा: स्याच्छोभनाधियोः । जम्बूः स्त्री मेरुसरिति द्वीपपादपभेदयोः ॥ ३ ॥ डिम्बस्तु विप्लवप्लीहफुप्फुसैरण्डभीतिषु । डिम्बः कलकलेऽपि स्याही फणखजाकयोः ॥ ४ ॥ दार्वी दारुहरिद्रायां हरिद्रादेवदारुणोः । पुभूग्नि पूर्वजेषु स्यात्पूर्वः प्रागाधयोस्त्रिषु ॥५॥ तिक्ततुम्बीश्रियोर्लम्बा बिम्बं स्याद्विम्बिकाफले । मण्डले प्रतिबिम्बे च बिम्बः पुंसि नपुंसकम् ॥ ६ ॥ शंबः शुभान्विते वजे मुसलामस्थमण्डले । शुम्बो मतः पुमानेव भृशगुल्माप्रकाण्डयोः ॥ ७॥
वद्वितीय। दार्वी-दारुहलदी, हलदी, देवदारकंबि-वंशविभाग, कडछी, (स्त्री०) वृक्ष, (स्त्री०) कंबु-हस्ती (पुं०) कंकण, शंख, पूर्व-पहलेजन्मनेवाले (पुं०) बहु
संखला, प्रीबा, आँवला ( स्त्री.) वचनांत ) पूर्व (पहल ) आदिमें॥ २ ॥
होनेवाला (त्रि.)॥५॥ खर्व-बौना,, संख्याभेद, (पुं० ) या-कडवी तूंबी, लक्ष्मी, (स्त्री० ) चार्वी-सुंदरी, बुद्धि, (स्त्री.) बि-बिंबिका (गोहल) फल, (न०) जंब-सुमेरुकी नदी, (स्त्री.) जंबू- ल प्रतिबि (पं.)॥ ॥
द्वीप, जामन-वृक्ष, (पुं०) ॥३॥ डिब-हलचल या नाश,तिल्ली, फुप्फुस, शब-शु
तिला शंब-शुभयुक्त, (त्रि. ) वज्र, मूसअरंड, भय, कोलाहल (पुं०)। लके आगेका लोहमंडल, (पुं०) द:-सर्पकी फणा, कडछी, (स्त्री०) शुंब-सघनगुच्छा, वृक्षस्कन्ध (वृक्ष॥४ ॥
की शाख ) ॥ ७ ॥
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बचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः।
२३५ वतृतीयम् । कदम्ब निकुरुम्बे स्यान्नीपसिद्धार्थयोः पुमान् । गजाह्वा गजपिप्पल्यां गजाआँ हस्तिनापुरे ॥ ८ ॥ गन्धर्वो मृगभेदे स्याद्गायने खेचरे हये । अन्तराभवसिद्धे च रससिद्धे च कोकिले ॥९॥ गोडुम्बः शीर्णवृक्षेऽपि गवादिन्याः फलेपि च । द्विजिह्वः पन्नगे पुंसि द्विजिह्वः पिशुने त्रिषु ॥ १० ॥ कटीचक्रे नितम्बः स्याच्छिखरिस्कंधरोधसोः । प्रलम्बो लम्बने दैत्ये तालाङ्कुरकशाखयोः ॥ ११ ॥ प्रालम्बो हारभेदेऽपि त्रपुषेपि पयोधरे । भूजम्बूरपि गोडुम्बे विकतफले स्त्रियाम् ॥ १२ ॥ हेरम्बो महिषे लम्बोदरशूरत्वगर्विते ।
बचतुर्थम् । राजजम्बूस्तु जम्बूभित्पिण्डखजूरयोर्मता ॥ १३ ॥ बतृतीय।
नितंब-चूनड़ या कटी, पर्वतकी कदंब-समूह, कदंब-वृक्ष, सिरसों ऊँची चोटी, किनारा (पुं० ) (पुं०)
प्रलंब-लंबन (लटकना), प्रलंब गजाह्वा-गजपीपल, (बी.)
दैत्य, तालका अंकुर और शाखा, गजाह-हस्तिनापुर (न०) ॥ ८ ॥ (पुं० ) ॥ ११ ॥ गंधर्व-मृगभेद, गवैया, खेचर (गं.प्रालंब-हारभेद, रांग, कुच, (पुं०)
धर्व ), अश्व, अंतराभवमें होने- भूजंबू-गभा, खटाईका फल,(स्त्री०) वाला सिद्ध, रससिद्ध, कोकिल ॥१२॥
(नर-कोयल) (पुं० )॥ ९॥ हेरंब-भैंसा, गणेश, शूरतासे गर्वित, गोडंब-गिराहुवा-वृक्ष, गहूँभा (कटु- (पुं०)। तुंबी) (पुं०)
बचतुर्थ। द्विजिद-सर्प, (पुं०) चुगलखोर, राजजंबू-जामनभेद, मैनफल-वृक्ष, (त्रि०) ॥ १० ॥
, खजूर, ( स्त्री०)॥ १३ ॥
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विश्वलोचनकोश:
ललज्जिह्वः प्रमानुष्ट्रे शुनि हिंस्रेऽभिधेयवत् । शतपर्वा तु दूर्वायां भार्गवस्य च योषिति ॥ १४ ॥
२३६
बपश्चमम् ।
गोरक्षजम्बूर्गोधूमे तथा गोरक्षतंडुले । धूलीकदम्बस्तिनिशे कदम्बे वरुणद्रुमे ॥ १५ ॥ शृगालजम्बूर्गोडुम्बे कचित्तु बदरीकले ॥ १६ ॥
इति विश्वलोचने बान्तवर्गः ॥
[ भान्तवर्गे -.
अथ भान्तवर्गः । भैकम् ।
भा स्यान्मयूषे शुक्रेऽपि पुंसि पुष्पंधये तु भः । दीप्तौ च स्थानमात्रे भा भं नक्षत्रे भये तु भी ॥ १ ॥ भूर्भुवि स्थानमात्रेऽपि स्त्रियां भवितरि त्रिषु । सम्बुद्धावव्ययं भो स्यात्
अथ भान्तवर्ग | भैक 1
भा-किरण (स्त्री० ) भ-शुक्र, भौंरा, ( पुं० ) भा दीप्ति, स्थानमात्र, ( स्त्री० ) नक्षत्र, ( न० ) '
ललजिड़-ऊँट, कुत्ता, (पुं० ) हिं
साकरनेवाला, ( त्रि० ) ।
शतपर्वा - दूब (घास ), शुक्रकी स्त्री, ( स्त्री० ) ॥ १४ ॥ गोरक्षजंबू- गेहूं, गुलसकरी, (पुं० ) धूलीकदंब - तिरिच्छ वृक्ष, कदंब, बरना - वृक्ष, (पुं० ) ॥ १५ ॥ शृगालजंबू - गहूंभा (कटुतुंबी ), बेर, | भी - भय ( स्त्री० ) ॥ १ ॥
( पुं० ) ॥ १६ ॥
इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीका बान्तवर्ग समाप्त हुवा ||
भू-पृथ्वी, स्थानमात्र, ( स्त्री० ) होनेवाला ( त्रि० ) ।
भो - संबोधनकरना ( अव्यय )
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भद्वितीयम् । भाषाटीकासमेतः।
२३७ भद्वितीयम् ।
-कुम्भो राश्यन्तरे घटे ॥ २ ॥ . समाधौ गजमूर्तीशे कुम्भकर्णसुते विटे । कुम्भी स्यात्पाटला वारिपर्णी पिठरकटफले ॥ ३ ॥ कुम्भं गुग्गुलुवृक्षे स्यात्रिवृतायां च न द्वयोः । गर्भो भ्रूणेऽर्भके कुक्षौ सन्धौ पनसकण्टके ॥ ४ ॥ जम्भो दन्तेऽपि जम्बीरे दैत्यभेदेऽपि भक्षणे । जुम्भो विकासे पुंस्येव जृम्भस्तु त्रिषु जम्भणे ॥ ५ ॥ डिम्भस्तु बालिशे पोते दम्भः कैतवकल्कयोः । इन्भूः सूर्ये पवौ नाभिर्ना क्षत्रे चक्रवर्तिनि ॥ ६ ॥ द्वयोः प्रधानचक्रान्तःप्राण्यङ्गेषु मदे स्त्रियाम् । निभस्तु सदृशे व्याजे संपूर्वः स्तुल्य एव सः ॥ ७॥
भद्वितीय।
मुंभ-खिलना-पुष्प आदिका, (पुं०) कुंभ-कुंभ-राशि, घट, ॥ २ ॥ स- जॅभाई, (त्रि.) ॥ ५ ॥
साधि, हस्तीका मस्तक-भाग, कुंभ- डिम्भ-मूर्ख, बालक, (पुं० )
कर्णका पुत्र, कामी, (पुं०) दम्भ छल, कल्क ( तिलपीठी आदि) कुंभी-पाढरका-पुष्प, जलकुंभी, ना- (पुं० )
गरमोथा, कायफल, (स्त्री०)॥३॥ इन्भू-सूर्य, वज्र, (पुं०) कुंभ-गूगल-वृक्ष, निसोत, (न०) नाभि-चक्रवर्ती क्षत्रिय, नाभिराजा, गर्भ-गर्भ ( भ्रूण), बालक, कुक्षि, ॥ ६ ॥ प्रधान, चक्रका मध्य
सन्धि, फनसका कांटा, (पुं०)। भाग, प्राणियोंका अंग ( Vडी ), ॥४॥
कस्तूरीमद, (स्त्री.) जम्भ-दांत, जम्बीरी नीबू, एक निभ-संनिभ-सदृश, व्याज (बदैत्य, भक्षण, (पुं० )
हाना) (पुं० ) ॥ ७॥
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२३८ विश्वलोचनकोशः- [भान्तवर्ग
रम्भा कदल्यप्सरसो रम्भो वैणवदण्डके। परिपूर्वस्तु संश्लेषे विभुर्नित्ये शिवे प्रभौ ॥ ८ ॥ शुम्भः स्याद्ब्रह्मशिवयोरर्हत्यपि च केशवे । योगे शुभः शुभं क्षेमे शोभा कान्तीच्छयोर्मता ॥९॥ सभा सामाजिके गोष्ठयां धूनमन्दिरयोः सभा । स्तम्भो जडत्वे स्थूणाया स्वभूर्गोविन्दवेधसोः ॥ १० ॥
भतृतीयम् । पापेऽप्यरिष्टेऽप्यशुभमात्मभूः स्मरवेधसोः ।
आरम्भ उद्यमे दप्पे त्वरायां च वधेऽपि च ॥ ११ ॥ ऋषभः श्रेष्ठवृषयोरष्टवर्गौषधान्तरे ।
खराद्रिभेदे वराहपुच्छे रन्ध्रे च कर्णयोः ॥ १२॥ रम्भा केला, अप्सरा, (स्त्री०) स्तंभ-जडता, स्थूणा (थून ) (पुं०) रम्भ-बांसका दंड, परिरम्भ- स्वभू-विष्णु, ब्रह्मा, (पुं० )॥ १०॥ ___अच्छीतरह मिलना, (पुं०) विभु-नित्य, शिव, प्रभु, ( पुं० ) ८
भतृतीय ।
मा शुम्भ-ब्रह्मा, शिव, अहंत देव, अशुभ-पाप, खेद, (न.)
केशव (विष्णु) (पुं०) आत्मभू-कामदेव, ब्रह्मा, (पुं० ) शुभ-योग, (पुं० ) क्षेम (कुशल) आरम्भ-उद्यम, अभिमान, शीघ्रता, (न०)
___वध, ( मारना ) (पुं०) ॥११॥ शोभा-कान्ति, इच्छा, ( स्त्री० ) ९ ऋषभ-श्रेष्ठ, बैंल, अष्टवर्गकी एक सभा-सामाजिक (सहधर्मियोंकी औषधि, एक गानेका खर, एक
सभा), गोष्ठी, जूवा, मंदिर, पर्वत, सूकरकी पूँछ, कानका (स्त्री.)
छिद्र (पुं० ) ॥ १२ ॥
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भतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
२३९ ऋषभी तु नराकारनारीविधवयोषितोः । शूकशिंब्यां शिरालायां श्रेष्ठे स्यादुत्तरस्थितः ॥ १३ ॥ ककुभोऽर्जुनवृक्षेऽपि रागभेदे प्रसेवके । ककुबू दिक्शोभयोः शास्त्रे कम्बले चम्पकसजि ॥ १४ ॥ करभो मणिबन्धादिकनिष्ठान्ते क्रमेलके । अष्टापदेऽपि करभः शरभे च मृगान्तरे ॥ १५ ॥ कुसुम्भं हेमनि महारजने ना कमण्डलौ । गईभी रासभे गन्धभेदे क्लीबं तु कैरवे ॥१६॥ गईभी खल्परुग्जन्तुभेदयोरथ पुंस्ययम् । दुन्दुभिदैत्यभेोः स्त्री त्वक्षबिन्दुत्रिके द्वये ॥ १७ ॥ दुष्प्रापे वल्लभे कच्छरोगिणि त्रिषु वल्लभः । निकुम्भः कुम्भकर्णस्य पुत्रे दन्त्यामपि स्मृतः ॥ १८ ॥ ऋषभी-नराकार ( दाढीमूछवाली) चौपड़ या सुवर्ण, शरभ (साबर), स्त्री, विधवा स्त्री, कौंछ, कमरख मृगभेद (पुं० )॥ १५ ॥ (स्त्री)
कुसुंभ-सुवर्ण, कमंडलु (जलपात्र) ऋषभ-शब्द किसीके आगे जोड़ा- (पुं० ) हुवा श्रेष्ठवाचक है (पुं० ) गर्दभ-गधा, गंधभेद, (पुं० ) श्वेत
___ कमल (न०)॥ १६ ॥ ककुभ-अर्जुन (कोह) वृक्ष, राग- गदे भी-क्षुद्ररोग, जन्तुभेद (स्त्री० ) भेद, बीणाकी तूंबी, (पुं०)
| दुन्दुभि-एक दैत्य, भेरी (पुं०) चौपड
खेलनेके तीन पासे (पुं० स्त्री.) ककुभ-दिशा-पूर्व आदि, शोभा, ॥१७॥
शास्त्र, कंबल, चंपाकी माला, वलभ-जो दुःखसे प्राप्त हो वह, प्रिय, (स्त्री० ) ॥ १४ ॥
कच्छरोगवाला, (त्रि.) करभ-मणिबंध ( पहुँचा )से लेकर निकुंभ-कुंभकर्णका पुत्र, जमालगो
कनिष्ठाके अंततक भाग, ऊँट, टाकी जड, (पुं० ) ॥ १८ ॥
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२४०
विश्वलोचनकोश:- [ भान्तवर्गेवल्लभो ना कुलीनाश्वे दयिताध्यक्षयोस्त्रिषु । पुनर्नवायां वर्षाभूः स्त्री ना किंचुलके प्लवे ॥ १९ ॥ विष्कम्भो योगभेदेऽपि बन्धभेदेऽपि योगिनाम् । रूपकाङ्गे परिष्टम्भे विस्तारप्रतियत्नयोः ॥ २० ॥ विष्कम्भः प्रतिबन्धेऽपि वैदर्भे विस्मृतावपि । विश्रम्भः केलिकलहे विश्वासे प्रणये वधे ॥ २१ ॥ वृषभस्तु वृषे शुक्रे वृषभः पुङ्गवेऽपि च । . वैदर्भ वाक्यवक्रत्वे वैदर्भः स्यान्नृपान्तरे ।। २२ ॥ सनाभिः पूजने पुंसि सनाभिः सदृशे त्रिषु । सुरभिश्चम्पके चैत्रे वसन्ते गन्धके कवौ ॥ २३ ॥ खणे जातीफले चाले त्रिषु मद्यसुगन्धयोः।। ख्याते च स्त्री तु शल्लक्यां सुरभी मातृभेदयोः ॥ २४ ॥
बल्लभ-कुलीन अश्व, (पुं०) प्रिय, वृषभ-बैल, शुक्र, श्रेष्ठ, (पुं० ) अध्यक्ष, (त्रि०)
वैदर्भ-वाक्यकी वक्रता, (न०) वर्षाभू-साँठी, ( स्त्री० ) कैंचुवा, वैदर्भ-एक राजा, (पुं० ) ॥ २२ ॥ मेंडक, (पुं० ) ॥ १९ ॥
सनाभि-पूजन, (पुं०) सदृश (तुल्य)
( मटा (तल्य विष्कंभ-योगभेद, योगियोंका बंध- (त्रि.) भेद, रूपकका अंग, परिष्टंभ (अरली),
सुरभि-चंपा, चैत्र-मास, वसंतविस्तार, प्रतियत्न, ॥ २० ॥ प्रति
ऋतु, गंधक, कवि (पुं०) ॥ २३ ॥ बंध, वैदर्भ (एक राजा), विस्मृति
सुवर्ण, जायफल, (पुं० ) मद्य, (भूलना) (पुं०)
सुगंध, विख्यात, (त्रि.) शल्लकी विश्रंभ-क्रीडाकलह, विश्वास, नम्रता, (सेह), गौ, मातृभेद, (स्त्री.)
वध ( मारना) (पुं०) ॥ २१ ॥ ॥ २४ ॥
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२४१
मद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
भचतुर्थम् । वाण्यां छन्दःप्रभेदेऽपि स्यादनुष्टुबिति स्मृतः । अवष्टम्भः सुवर्णेऽपि प्रारम्भस्तम्भयोरपि ॥ २५ ॥ शातकुम्भं तु कनके शातकुम्भोऽश्वमारके ॥ २६ ॥
इति विश्वलोचने भान्तवर्गः ॥
अथ मान्तवर्गः।
मः शिवे पुंसि मश्चन्द्रे मो विधौ मां तु मातरि । स्त्रियां स्यान्मा रमायां च माक्षेपे मानबन्धयोः ॥ १ ॥ मा निषेधेऽव्ययं मे च ममेत्यर्थे ममाव्ययम् ।
मद्वितीयम् । अमो रोगेऽपि तद्भेदे स्यादपक्के तु वाच्यवत् ॥ २ ॥ इध्मः पुंसि वसन्ते स्यादिध्मः स्यान्मीनकेतने । उमा गौर्यामतस्यां च हरिद्राकान्तिकीर्तिषु ॥ ३ ॥ भचतुर्थ ।
मा-माता, लक्ष्मी, (स्त्री०) अनुष्टुभू-सरखती, छन्दोभेद, (स्त्री.) मा-आक्षेप, माप, बंधन, ॥१॥ अवष्टम्भ-सुवर्ण, प्रारंभ, स्तम्भ (स्त्री०)
(थंभ) (पुं०)॥२५॥ मा-निषेध, (अव्यय) शातकुंभ-सुवर्ण, (न०) कनेरका मे-मम-मम ( मेरा ) शब्दका अर्थ पेड, (पुं०) ॥ २६ ॥
(अव्यय) इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषा
मद्वितीय । टीकामें भान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥ अम-रोग, रोगभेद, (पु.) अपक्क,
(त्रि०)॥२॥ अथ मान्तवर्ग। .. इध्म-वसंत-ऋतु, कामदेव, (पुं०) ..मैक।
उमा-पार्वती देवी, अलसी, हलदी, म-शिव, चंद्रमा, ब्रह्मा, (पुं०) | कान्ति, कीर्ति, (बी०) ॥३॥
१६
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२४२
विश्वलोचनकोश:- [ मान्तवर्गेउमस्तु स्यात्पुमानेव मतो नगरघट्टयोः । ऊमियोस्तरङ्गे स्याद्भङ्गे वेगप्रकाशयोः ॥ ४ ॥ वस्त्रसंकोचरेखायामुत्कण्ठापीडयोरपि । कामः स्मरेच्छयोः काम्ये कामं रेतोनिकामयोः ॥ ५॥ सम्मते स्यादनुमतौ काममित्येतदव्ययम् । कामिः स्त्री कामकान्तायां कामिः स्यात्कामुके पुमान् ॥६॥ सर्वनाम्नि किमित्येतद्विज्ञेयमभिधेयवत् । किं वितर्केऽव्ययं प्रश्ने क्षेपे निन्दाप्रकारयोः ॥ ७ ॥ किमिः स्त्री वर्णपुश्यां स्यादपि मालापलाशयोः। कृमिर्ना क्रिमिवत्कीटे लाक्षायां कृमिले खरे ॥ ८ ॥ क्रमः शक्तिपरीपाटीचलने कम्पनेऽपि च । खर्मः क्षौमप्रभेदेऽपि खर्म स्यादपि पौरुषे ॥ ९ ॥
स्त्री०)
उम-नगर, घाट, (पुं०)
निंदा, प्रकार, ( सर्वनाम होनेपर ऊर्मि-तरंग, भंग (टूटना ), वेग, त्रिलिंग और अव्यय होनेपर अलिंग) प्रकाश ॥ ४ ॥वस्त्रसंकोचकी रेखा, ॥७॥ उत्कंठा ( उसेर ), पीडा, (पुं० किर्मि-सनाय, असवरग-वृक्ष, ढाक
__ वृक्ष ( स्त्री०) काम-कामदेव, इच्छा, इच्छित,(पुं०) कृमि-क्रिमि-कीट, लाख, जिसके वीर्य, निकाम (यथेच्छित), (न०) क्रिमि पड़ीहैं ऐसा गर्दभ, (पुं० )
॥ ८ ॥ कामम्-सम्मति, अनुमति, (अव्यय) क्रम-शक्ति, परिपाटी, चलना, काँपना कामि-कामदेवकी स्त्री (रति) (स्त्री०) (पुं..)
कामी पुरुष, (पुं० ) ॥ ६ ॥ खर्म-रेशमी वस्त्रका भेद, पुरुषार्थ, किम्-वितर्क, प्रश्न, क्षेप (आक्षेप ), (न०)॥९॥
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मद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
गमो घृतान्तरे मार्गेऽप्यपर्यालोचितेऽपि च । गुल्मः स्तम्बे चनूरक्षासैन्ययोः लीहघट्टयोः ॥ १० ॥ गुल्मी स्थादामलक्येलावनिकावस्त्रवेश्मसु । ग्रामः खरे संवसथे वृन्दे शब्दादिपूर्वकः ॥ ११ ॥ धर्मः स्यादातपे ग्रीष्मे ऊष्मखेदजलेऽपि च । जाल्मः स्यात्पामरे क्रूरे जाल्मोऽसमीक्ष्यकारिणि ॥ १२ ॥ जिह्मं तु तगरे जिह्मस्त्रिषु स्यान्मन्दवक्रयोः । हरिद्यवेऽपि हरिते तोक्मस्तोक्मं श्रुतेले ॥ १३ ॥ दमस्तु दमने दण्डे दमथे कर्द्दमेऽपि च । दस्मो वैश्वानरे चौरे यजमानेऽपि च स्मृतः ॥ १४ ॥
२४३
द्रुमस्तु पादपे पारिजाते किंपुरुषेश्वरे ।
धर्मः स्यादस्त्रियां पुण्ये धर्म्मो न्यायस्वभावयोः ॥ १५ ॥
गुल्म- गुच्छा, सेनाकी रक्षा, सेनाभेद, तिल्ली, घाट, (पुं० ) ॥ १० ॥ गुल्मी -आँवला, इलायची, वनी
गम- जूवा, मार्ग, अच्छी तरह नहीं | जिह्न - तगरका वृक्ष, ( न० ) मंद, देखा हुवा, (पुं० ) कुटिल, (त्रि० ) तोक्म-हरा जव, हरा ( सबजा ), ( पुं० ) कानका मैल, ( न० )
॥ १३ ॥
( छोटावन ), तंबू - डेरा, (स्त्री० ) ग्राम- खरभेद, ग्राम (गाँव), ग्रामके पूर्व शब्द आदि लगानेसे समूह, ( जैसे - शब्दग्राम ) (पुं० ) ॥११॥ धर्म - धूप, ग्रीष्म ऋतु, गरमी, नाका जल, ( पुं० ) द्रुम-वृक्ष, कल्पवृक्ष, कुबेर ( पुं० ) जाल्म-नीच, क्रूर, बिनाविचारे कर | धर्म-पुण्य, (पुं० न०) नेवाला ( पुं० ) ॥ १२ ॥
पसी
धर्म -- न्याय,
स्वभाव, (पुं० ) ॥
१५ ॥
दम-दमनकरना ( इंद्रियोंको शांत क. रना) दंड देना, रोकना, कीचड़ (पुं० ) दस्म - अनि, चोर, यजमान, (पुं० )
॥ १४ ॥
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२४४
विश्वलोचनकोश:- [ मान्तवर्गेउपमायां यमाचारवेदान्तेऽपि धनुष्यपि । यागे योगेऽप्यहिंसायां सोमपेऽपि कचिन्मतः ॥ १६ ॥ ध्यामो गन्धतृणे पुंसि ध्यामो दमनकेऽपि च । श्यामवणे त्रिषु ध्यामो नुमा नाम्नि परद्युतौ ॥ १७ ॥ नेमिः कूपत्रिकायां स्याच्चक्रान्ते तिनिशद्रुमे । नेमोऽर्द्धकीलसीमासु गर्तप्राकारकैतवे ॥ १८ ॥ पद्मोऽस्त्री पद्मनालेऽब्जे व्यूहसंख्यान्तरे निधौ । पद्मके नागभेदे ना पद्मा भाङ्गीश्रियोः स्त्रियाम् ॥ १९॥ ब्राह्मी तु भारतीपङ्कगतिकाब्रह्मशक्तिषु । फञ्जिकायां तथा सोमवल्लरीशाकयोरपि ॥ २० ॥ भामः क्रोधे रचौ भासि भीमः शम्भौ वृकोदरे। स्यादम्लवेतसे भीमस्त्रिषु घोरे भयानके ॥ २१ ॥
उपमा, धर्मराज, आचार, वेदान्त, पद्म-कमलनाल, कमल, सेनारचना, धनुष, याग, योग, अहिंसा, अमृ- संख्याभेद, निधि, पद्माक, नाग.
त पान करनेवाला, (पुं० )॥१६॥ भेद, (पु.) ध्याम-सुगंधि तृण-विशेष, दौना ! पद्मा-भारंगी, लक्ष्मी, (स्त्री० ) १९
( पुष्पपेड ) (पुं० ) श्यामवर्ण, ब्राह्मी-सरस्वती, मत्स्यभेद (कीच(त्रि.)
___ डकी मच्छी), ब्रह्मशक्ति, धमासा, नमा-नाम, परमकांति, (स्त्री० ) सोमवेल, शाकभेद, (स्त्री० ) २० . ॥१७॥ नेमि-कूएकी त्रिका (चौखटा), भाम-क्रोध, सूर्य, प्रभा, (पुं०)
चक्रकी पुटी, तिरिच्छ वृक्ष, (पुं०) भीम-महादेव, भीमसेन, अम्लवेत, नेम-आधा, कीला, सीमा, खड्डा, (पुं० ) घोर, भयानक (पुं०) किला, कपट, (पुं०)॥१८॥ ॥२१॥
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मद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
भीष्मस्तु हरगाङ्गेयरक्षसि त्रिषु भीषणे । स्थानमात्रे क्षितौ भूमिभमस्तु नरके कुजे ॥ २२ ॥ भ्रमो भ्रान्तौ च कुन्दाख्ययन्त्रे च जलनिर्गमे । संयमे यमजे धर्मराजे ध्वाङ्गे युगे यमः ॥ २३ ॥ नित्यकर्मप्रभेदे च यमुनायां यमी स्त्रियाम् । हरे संयमे यामो यामिः स्वसृकुलस्त्रियोः ॥ २४ ॥ प्रध्मश्चापेपि संग्रामे राममाधवयोषिति । रमस्तु मन्मथे कान्ते रमोऽशोकमहीरुहे ॥ २५॥ रश्मिरंशुप्रग्रयो रश्मिलोचनलोमनि । रामस्तु राघवे जामदम्ये हलधरेऽपि च ॥ २६ ॥ पशुभेदे सितश्याममनोज्ञेषु तु वाच्यवत् । रामाङ्गनाहिङ्गुलिन्यो रामं वास्तुककुष्ठयोः ॥ २७ ॥
२४५
भीष्म- महादेव, भीष्मपितामह, रा- | यामि वहन, कुलकी स्त्री, (स्त्री० )
॥ २४ ॥
क्षस, (पुं० ) भीषण, ( त्रि० ) भूमि - स्थानमात्र, पृथ्वी, ( स्त्री० ) भौम-भौमासुर ( नरकासुर ), मंगलग्रह, ( पुं० ) ॥ २२ ॥ भ्रम-भ्रान्ति, कुंदनामक यंत्र, जलनिर्गम ( चक्राकार होकर जलोंका | नीचेको जाना ) ( पुं० ) यम-संयम ( इंद्रियादिकों का रोकना), शनि ग्रह, धर्मराज, काग, जोडा ॥ २३ ॥ नित्यकर्मभेद, (पुं० ) यमी - यमुना, ( स्त्री० ) याम - प्रहर ( पहर ), संयम,
प्रथम-धनुष, संग्राम, ( पुं० ) प्रध्मा - बलदेव कृष्णकी श्री (स्त्री० ) रम - कामदेव, सुंदर, अशोक वृक्ष,
( पुं० ) ॥ २५ ॥ रश्मि - किरण, घोडा आदिकोंकी रस्सी, नेत्र, लोम, (पलख ) (पुं० ) राम - रामचंद्र, परशुराम, बलदेव, ॥ २६ ॥ पशुभेद, ( पुं० ) श्वेत, श्याम, सुंदर, ( त्रि० ) रामा - स्त्री, कटेहली, (स्त्री) (पुं०) राम - बधुवा, कूठ ( न० ) ॥ २७ ॥
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२४६
विश्वलोचनकोशः- [मान्तवगेंमनोरमेऽभिपूर्वायां रुक्मं तु स्वर्णलोहयोः । रुमा सुग्रीवकान्तायां रुमा तु लवणाकरे ॥ २८ ॥ लक्ष्मीः श्रीरिव संपत्तौ पद्माशोभाप्रियङ्गुषु । लक्ष्मीः स्यादौषधीभेदे नञः पूर्वा तु निर्ऋतौ ॥ २९ ॥ वमिः स्यात्पावके पुंसि वमिस्तु वमने स्त्रियाम् । वामः सव्ये हरे कामे धने वित्ते तु न द्वयोः ॥ ३० ॥ वल्गु प्रतीपयो,मस्त्रिषु वामा तु योषिति । वामी शृगाल्यां वडवारासमीकरभीष्वपि ॥ ३१ ॥ शमी शक्तुफलायां स्याच्छिवायां वल्गुलावपि । शुष्मः पुमान्दिनपतौ मतं शुष्मं तु तेजसि ॥ ३२ ॥ श्यामस्तु हरिते कृष्णे प्रयागस्य वद्रुमे । पिके पयोधरे वृद्धदारकेऽपि पुमानयम् ॥ ३३ ॥
अभिराम-सुंदर, ( त्रि०)
देव, कामदेव, मेघ, (पुं० ) धन, रुक्म-सुवर्ण, लोह, (न०)
( न० ) ॥ ३० ॥ रुमा-सुग्रीवकी स्त्री, नमककी खान, वाम-सुंदर, प्रतिकूल, (पुं० ) (स्त्री० ) ॥ २८॥
| वामा-स्त्री, ( स्त्री. ) लक्ष्मी-(श्री) संपत्ति, लक्ष्मी, शोभा,
वामी-गीदड़ी, घोड़ी, गर्दभी, ऊँटनी फूलप्रियंगु, औषधी-भेद (ऋद्धि
(स्त्री० ) ॥ ३१ ॥ वृद्धि-आदि (स्त्री०)
शमी-जाँट-वृक्ष, कौंछ, बाघल-पक्षी, शमा
(स्त्री०) अलक्ष्मी-नरककी अशोभा (स्त्री०) शुष्म-सूर्य, ( पुं० ) शुष्म-तेज, ॥ २९ ॥
(न०) ॥ ३२॥ वमि-अग्नि, (पुं० ) वमि-वमन श्याम-हरित, कृष्ण, प्रयागका वड़, (स्त्री० )
___ कोयल-पक्षी, मेघ, भिदारा (पुं०) वाम-सव्य (बायां अंग ), महा-! ॥ ३३ ॥
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मद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
२४७ श्यामवर्णे हरिद्वणे त्रिषु श्यामा तु वल्गुलौ । अप्रसूताङ्गनायां च श्यामा सोमलतोषधौ ॥ ३४ ॥ त्रिवृताशारिवागुन्द्रानिशानीलीप्रियङ्गुषु । श्यामं लवणभेदेऽपि श्यामं स्यान्मरिचेऽपि च ॥ ३५ ॥ श्रामस्तु मण्डपे काले विपूर्वः श्रमवञ्चने । समा वर्षे सक्सर्वमान्येषु च समं त्रिषु ॥ ३६ ।। सीमाऽवधौ च वेलायां क्षेत्रे घाटे स्थितावपि । सूक्ष्मं तु नभसि क्षीरे सूक्ष्ममल्पेऽभिधेयवत् ॥ ३७ ।। कतकाऽध्यात्मयोः सूक्ष्मं सूक्ष्मः पुंस्यणुमात्रके । सोमः सुधांशुकर्पूरकुबेरपितृदैवते ॥ ३८ ॥ दिव्यौषधीश्यामलतावसुभिद्वातवानरे । तुषारे चन्दने शीते हिमं त्रिषु तु शीतले ॥ ३९ ॥
श्यामवर्णवाला,हरितवर्णवाला (त्रि.)/ सीमा-अवधि, वेला ( नदीआदिका श्यामा-बाघल-पक्षी, नहीं प्रसूति तीर), क्षेत्र, घाट, स्थिति, (स्त्री.)
हुई स्त्री, सोमलता औषधि ॥३४॥ सूक्ष्म-आकाश, दुग्ध, (न०) अल्प निसोथ, अनंतमूल, भद्रमोथा,हलदी, (त्रि.) ॥ ३७ ॥ सूक्ष्म-कतक
लीलका पेड, फूलप्रियंगु, (स्त्री.) (निर्मली), अध्यात्म (आत्म. श्याम-लवणभेद, स्याह . मिरच, विचार ) (न०) सूक्ष्म-अणु (न० ) ॥ ३५ ॥
(सूक्ष्ममात्र,) (पुं०) श्राम-मंडप, काल, (पुं०) सोम-चंद्रमा, कपूर, कुबेर, पितृदेवता, विश्राम-श्रम ( खेद ) का दूर करना, ॥३८॥ दिव्य औषधि, सोमलता, (पुं० )
____ वसुभेद, वायु, बंदर, (पुं०) समा-वर्ष, (स्त्री० )
हिम-बर्फ, चंदन, ठंढा, (पुं० ) सम-तुल्य, संपूर्ण, श्रेष्ठ, (त्रि०)॥३६॥ हिम-ठंढा, (त्रि.) ॥ ३९ ॥
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२४८
विश्वलोचनकोशः- [ मान्तवर्गेहोमिरनौ घृते चाथ क्षितौ क्षान्तावपि क्षमा । क्षम युक्ते क्षमः शक्ते हिते क्षान्त्यन्वितेऽन्यवत् ॥ ४० ॥ क्षुमाऽतसीनीलिकयोः क्षेमं स्याल्लब्धरक्षणे । मङ्गले चोरके वा स्त्री क्षेमा चण्डाहरस्त्रियोः ॥ ४१ ॥ क्षौमं स्यादतसीवस्त्रे क्षौममट्टदुकूलयोः ।
मतृतीयम् । अधमः कुत्सिते न्यूनेऽप्यागमः शास्त्र आगतौ ॥ ४२ ॥ आश्रमो ब्रह्मचर्यादौ मुनिस्थाने मठे स्त्रियाम् । उत्तमा दुग्धिकायां स्यादुत्कृष्टे तु त्रिषूत्तमम् ॥ ४३ ॥ कलमः शालिलेखन्योश्चौरे लाक्षारसेऽपि च । कुसुमं पुष्पफलयोरातवे लोचनामये ॥ ४४ ।। कृत्रिमं लवणे पुंसि सिहके कृतके त्रिषु ।
गुडामः स्याद्गुडक्षोदे क्षीरदारुणि च स्मृतः ॥ ४५ ॥ होमि-अग्नि, घृत, (पुं०) आगम-शास्त्र, आना, (पुं०) ॥४२॥ क्षमा-पृथ्वी, शान्ति, (स्त्री०) | आश्रम-ब्रह्मचर्य आदि, मुनिका क्षम-युक्त, (न०) समर्थ, हित (पुं०) स्थान, मठ (विद्यार्थियोंका स्थान )
क्षान्तियुक्त, (त्रि. ) ॥ ४०॥ | (पुं० न०) झुमा-अलसी, नीली (लील)(स्त्री०) उत्तमा-दूधी-औषधि, (स्त्री.) क्षेम-लब्धकी रक्षा, मंगल, चोरक | अत्तम-उत्कृष्ट ( श्रेष्ठ ) (त्रि०)
गंधद्रव्य, (भटेउर) (न० स्त्री० ॥ ४३ ॥ क्षेमा-चंडा-औषधी, पार्वती (स्त्री०)/
कलम-साँठी-चावल, कलम, चोर,
1 लाखका रंग, (पु.) ॥४१॥ क्षौम-अलसीवस्त्र, अ (अटारी ),
कुसुम-पुष्प, फल, स्त्रीका रज,
नेत्रका रोग, ( न०)॥ ४४ ॥ रेशमीवस्त्र ( न०)
कृत्रिम-लवण, हींग, (पुं०) नकली मतृतीय।
वस्तु, (त्रि.) अधम-निंदित, न्यून (कमती), गुडार्म-गुडका चूर्ण, दूधवाला वृक्ष, (पुं०)
(पुं०)॥ ४५ ॥
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२४९
मतृतीयम् । भाषाटीकासमेतः। गोधूमो व्रीहिभेदे स्यान्नारङ्गे भेषजान्तरे । गोलोमी श्वेतदूर्वायां वारस्त्रीवचयोरपि ॥ ४६ ॥ गौतमः शाक्यसिंहेऽपि मुनिभेदेऽपि गौतमः गौतमी चण्डिकायां च रोचन्यामपि गौतमी ॥ ४७ ॥ तलिमं कुट्टिमे तल्पे विताने यावकेऽपि च । दाडिमः पुंसि दाडिम्ब एलायामपि दाडिमः ॥ ४८ ॥ निगमो हट्टपूर्वेदकटलुण्डीषु वाणिजे । नियमो निश्चये बन्धे यन्त्रणे संविदि व्रते ॥ ४२ ॥ निष्क्रमो निर्गमे बुद्धिसम्पत्तौ दुष्कुलेऽपि च । नैगमः क्षुरिवेदान्तवणिग्वाणिज्यनागरे ॥ ५० ॥ पञ्चमो रागभेदे स्यात्पञ्चानां पूरणे त्रिषु । त्रिषु दक्षिणमेघेऽपि पञ्चमी पाण्डवस्त्रियाम् ।। ५१ ॥
गोधूम-गेहूँ, नारंजी, औषधिभेद नियम-निश्चय, बन्ध, प्रेरणा, बुद्धि, (पुं०)
| व्रत, (पुं०) ॥ ४९ ॥ गोलोमी-सफेद-दूब, वेश्या, बच- निष्क्रम-निकसना, बुद्धिसंपत्ति, ___ औषधि, ( स्त्री०)॥४६॥ दुष्कुल ( नेष्टकुल) (पुं० ) गौतम-बुद्धदेव, एकमुनि, ( पुं० ) गौतमी-चंडिका, गोरोचन, (
तीनैगम-नाई, वेदान्त, बणियां, ॥ ४७ ॥
वाणिज्य, नागर (नगरमें होनेतलिम-कुटिम (रचितभूमि), शय्या,
वाला पुरुष) (पुं० ) ॥ ५० ॥ चंदोवा, यावक (कुल्माष) (न०) पचम-रागमद,
किमान पंचम-रागभेद, (पुं०) पांचोंकोदाडिम-अनार, इलायची, (पुं० )। पूर्ण करनेवाला ( पांचवां ) (त्रि.) ॥ ४८ ॥
___ दक्षिण दिशाका मेघ, (त्रि.) निगम-हाट, पुर, वेद, कट (मुर्दा), पंचमी-पांडवोंकी स्त्री(द्रौपदी)(स्त्री०)
न्यायसारिणी, वाणिज, (पुं०) ॥५१ ॥
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विश्वलोचनकोश:
परमस्तु त्रिषूत्कृष्टे प्रधानाद्योश्च पुंसि तु । ओंकारे परमं तु स्यादनुज्ञायामसंज्ञकम् ॥ ५२ ॥ प्रक्रमोऽवसरे चानुक्रमे चापक्रमे क्रमे । प्रतिमाऽनुकृतौ दन्तबन्धनेऽपि च दन्तिनाम् ॥ ५३ ॥ आदावपि प्रधानेऽपि प्रथमं वाच्यलिङ्गकम् । प्रहर्मः सौधकूटस्थकलशाद्विनितम्बयोः ॥ ५४ ॥ मध्यमो मध्यदेशे स्यात्स्वरे मध्येऽथ मध्यमा । त्रिषु दृष्टरजोनारीराकयोर्मध्यमा स्त्रियाम् ॥ ५५ ॥ कर्णिकात्र्यक्षरच्छन्दकरमध्याङ्गुलीषु च । विक्रमस्तूद्यमक्रान्तौ क्षमायां शक्तिसंपदि ॥ ५६ ॥ विद्रुमो रत्नवृक्षेऽपि प्रवाले नवपल्लवे । विभ्रमस्तु विलासेस्याद् विभ्रमो भ्रान्तिहावयोः ॥ ५७ ॥
२५०
परम श्रेष्ठ, ( त्रि० ) प्रधान (मुख्य) । मध्यमा - रजखला स्त्री, पूर्णचंद्रवाली आदि, (पुं० ) पूर्णिमा, ( स्त्री० ) ॥ ५५ ॥ कर्णिका ( पुष्पकी केसर ), तीन अक्षरोंका छंद, हाथकी मध्यम अंगुली, (स्त्री० )
परम - ॐकार, ( न० ) आज्ञा ( अव्यय ) ।। ५२ ।।
प्रक्रम - अवसर, अनुक्रम, अपक्रम ( उलटा क्रम ) क्रम, (पुं० ) प्रतिमा-अनुकृति ( अनुकरण ),
हस्तियों का दंतबंधन, (स्त्री० ) ५३ प्रथम-आदि, प्रधान, (त्रि० ) प्रहर्म्म- महलकी शिखरका कलश, पर्वतका नितंब, (पुं० ) ॥ ५४ ॥ मध्यम- मध्यदेश, मध्यम-खर, (पुं०)
[ मान्तवर्गे
विक्रम-उद्यम, क्रान्ति, क्षमा, शक्ति, संपत्, (पुं० ) ॥ ५६ ॥ विद्रुम - रत्नवृक्ष, मूंगा, नवीन पत्ता, ( पुं० )
विभ्रम-विलास, भ्रान्ति, हाव (स्त्रीकरणभेद ) ( पुं० ) ॥ ५७ ॥
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मचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
२५१ विलोमो विपरीतेऽपि भुजङ्गेङ्गुलिरोमनि । विलोमी तु व्यवस्थायां विलोममरघट्टके ।। ५८ ॥ व्यायामो दुर्गसंचारे वियामे पौरुषे श्रमे ।। सङ्कमः सङ्क्रमणेऽस्त्री तु वारिसंचारयन्त्रके ॥ ५९ ॥ त्रिघूत्तमे पूज्यतमे साधीयसि च सत्तमः । सम्भ्रमस्त्वादरे पुंसि संवेगे साध्वसेऽपि च ॥ ६० ॥ सुषमं चारुसमयोस्त्रिषु स्यात्सुषमा द्युतौ । अतिद्युतौ च सुषमा सुषीमः पन्नगान्तरे ।। ६१ ॥ सुषीमं शिशिरे क्लीबं चारुशीतलयोस्त्रिषु ।
मचतुर्थम् । सुन्दरेऽप्युपमाशून्ये भवेदनुपमोऽन्यवत् ॥ ६२ ॥ गौरीनायकदिङ्नागयोषित्यनुपमा मता । अभ्यागमोऽन्तिके घाते विरोधेऽप्युद्गमे युधि ॥ ६३ ॥
विलोम-विपरीत, सर्प, अंगुलियोंके | सुषम-सुंदर, सम (तुल्य ), (त्रि.) रोम, (पुं०)
सुषमा-कान्ति, अतिकान्ति, (स्त्री०) विलोमी-व्यवस्था, (स्त्री०) सुषीम-सर्पभेद, (पुं०) शिशिर, विलोम-अरहट (न० ) ॥ ५८ ॥ (न० ) सुंदर, शीतल, (त्रि.) व्यायाम-दुर्गसंचार, संयम, पौरुष, ॥६१ ॥ परिश्रम, (पुं०)
मचतुर्थ। संक्रम-संक्रमण, ( पुं० ) जलमें अनुपम सुंदर, उपमाशून्य, (त्रि.)
संचारका यंत्र, (पुं० न०)॥५९॥ ॥६२ ॥ सत्तम-उत्तम, पूज्यतम, अतिश्रेष्ठ, अनुपमा-ईशान कोणके हाथीकी (पुं०)
हथिनी, (स्त्री. ) सम्भ्रम-आदर, संवेग, भय, (पुं०) अभ्यागम-समीप, घात, विरोध, ॥ ६ ॥
! उद्गम, युद्ध, (पुं०)॥ ६३ ॥
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२५२ विश्वलोचनकोश:
[ मान्तवर्गेउपक्रमश्चिकित्सायामुपधाने च विक्रमे । भवेदुपगमः पार्श्वगमनेऽङ्गीकृतावपि ॥ ६४ ॥ जलगुल्मो जलावर्तजलचत्वरकच्छपे । दण्डयामस्तु दिवसे कीनाशे कुम्भसम्भवे ।। ६५ ।। पराक्रमस्तु सामर्थ्य विक्रमोद्योगयोरपि । प्लवङ्गमः कपो भेके महापद्मं तु मानके ॥ ६६ ।। महापद्मः पुमान्सङ्ख्यानिधिनागान्तरे मतः । यातयामो मतो जीर्णे परिभुक्तोज्झिते त्रिषु ।। ६७ ।। सार्वभौमस्तु दिग्नागभेदे सर्वमहीपतौ । अभ्युपगमः स्वीकारे समीपागमनेऽपि च ॥ ६८ ॥
इति विश्वलोचने मान्तवर्गः ॥
उपक्रम-चिकित्सा ( इलाज ), उ-महापद्म-संख्याभेद, निधिभेद, नापधा, विक्रम, (पुं०)
गभेद, (पुं० ) उपगम-समीपजाना, अंगीकार, यातयाम-जीर्ण, अच्छीतरह भोगा. (पुं० ) ॥ ६४ ॥
। हुवा, त्यागाहुवा, ( त्रि०)॥६७॥ जलगुल्म-जलका भँवर, जलचौक, सार्वभौम-दिगृहस्तीभेद, संपूर्णपृ. कछुवा ( पुं० )।
थ्वीका राजा, (पुं०) दण्डयाम-दिन, धर्मराज, अगस्त्य
अभ्युपगम-अंगीकार, समीपमें मुनि, (पुं० ) ॥ ६५ ॥
आना, (पुं०)॥ ६८ ॥ पराक्रम-सामर्थ्य, विक्रम, उद्योग, (पुं० )।
इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषामें प्लवंगम-बन्दर, मेंडक, (पुं० ) । मान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥ महापद्म-प्रमाण, (न०)॥६६ ॥'
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यद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
२५३ अथ यान्तवर्गः।
यैकम् । यो वातयशसोः पुंसि या यानत्यागयातृषु ।
यद्वितीयम् । अन्योऽसमाने भिन्ने च स्यादन्त्योऽन्तभवेऽधमे ॥ १ ॥ अर्यो बुधे त्रिषु न्याय्ये शिलाजतुनि न द्वयोः । अर्घार्थ यत्तदर्घ्य स्यात्रिषु यश्चार्घमर्हति ॥ २॥ अर्घ्यः स्याद्योग्यमात्रेऽपि स्यादर्यः स्वामिवैश्ययोः । पुंस्यायः सौविदल्ले स्यादार्यस्त्वभ्यर्हिते त्रिषु ॥ ३ ॥ आस्या स्थितौ मुखे चास्यं मुखमध्ये मुखोद्भवे । इज्यो गुरौ पुमानिज्या दानार्चासङ्गमेष्टिषु ॥ ४ ॥
अथ यान्तवर्ग। अर्घ्य-जो अर्घके लिये द्रव्य है वह, यैक ।
__ जिसको अर्घ दियाजाय वह
(त्रि.)॥२॥ य-वायु, यश, (पुं०)
अर्ध्य-योग्यमात्र, (पुं०) या-यान ( सवारी ), त्याग, गमन अर्य-खामी, वैश्य, (पुं० ) करनेवाला, (पुं०)
आर्य-कंचुकी, (रनवासका पहरे यद्वितीय । ___ दार) (पुं० ) पूज्य, (त्रि.) अन्य-असमान, भिन्न (त्रि.)
आस्था-स्थिति, ( स्त्री० ) अन्त्य-अन्तमें होनेवाला, अधम, आस्य-मुख, मुखमध्य, मुखसे उ. (त्रि.)॥१॥
त्पन्न, (त्रि.) अर्थ्य-पंडित, ( पुं० ) न्याय्य इज्य-गुरु (बृहस्पति) (पुं०)
(न्याययुक्त) (त्रि.) शिलाजीत इज्या-दान, अर्चा (पूजा), संगम, (न०)
। इष्टि (यज्ञ) (स्त्री०)॥ ४॥
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२५४
विश्वलोचनकोश:
[ यान्तवर्गे
इभ्य आढ्यं भवेदिभ्या करेण्वामपि शल्लकौ । कन्या कुमारिकानायें राशिभेदौषधीभिदोः ॥ ५ ॥ प्रातह्यदिनयोः कल्यं कल्यो नीरोगदक्षयोः । सज्जेऽपि त्रिषु कल्या तु मधे कल्या च वाचि च ॥ ६ ॥ कश्यं मद्ये कशा च कश्यं मध्ये च वाजिनाम् । कक्ष्या बृहतिकाकाञ्चोर्मध्यबन्धे च दन्तिनाम् ॥ ७ ॥ हर्म्यादीनां प्रकोष्ठे तु कांस्यं स्यात्पानभाजने । तैजसद्रव्यभेदेपि वाद्यभेदेऽपि न द्वयोः ॥ ८ ॥ कायो व स्वभावे च सजे लक्ष्ये कदैवते । कायं मनुष्यतीर्थे स्यात्कार्य हेतौ प्रयोजने ॥ ९ ॥ काव्यः शुक्रग्रहे पुंसि काव्या स्यात्पूतनाधियोः । काव्यं ग्रन्थान्तरे क्लीबं कुडचं भित्तौ विलेपने ॥ १० ॥
शल्लकी ( सालई )
तैजस
इभ्य - धनी (पुं० ) इभ्या - हथिनी, वृक्ष (स्त्री० ) कन्या - कुमारी, स्त्रीमात्र, राशिभेद, औषधिभेद, ( स्त्री० ) ॥ ५ ॥ कल्य-प्रातःकाल, कलका दिन, (न०) कल्य- नीरोग, चतुर, सज्ज (कवच )
हर्म्य ( महल ) आदिकों का प्रकोष्ठ ( कोटा ) ( स्त्री० ) कांस्य - जलआदि पीनेका पात्र, द्रव्यभेद, वाद्य बाजा ) भेद, ( न० ) ॥ ८ ॥ काय-शरीर, स्वभाव, समूह, निशाना क ( प्रजापति ) देवतावाला, (पुं०) कार्य - हेतु, प्रयोजन ( न० ) ॥ ९ ॥
O
आदिसे सजाहुवा (त्रि० ) कल्या-मदिरा, वाणी, ( स्त्री० ) ६ | कार्य - मनुष्यतीर्थ, ( न० ) कश्य - मद्य ( मदिरा ), चाबुक लगाने | काव्य-शुक्र-ग्रह, (पुं० ) योग्य, (त्रि०) घोड़ोंका मध्यभाग काव्या-पूतना, बुद्धि, ( स्त्री० ) ( न० ) काव्य-ग्रंथ, (न०) कक्ष्या- कटेहली, करधनी, हस्तियोंका कुड्य - दीवार, विलेपन ( लीपना ) मध्यबंध, ( नाडी ) ॥ ७ ॥ ( न० ) ॥ १० ॥
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यद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
२५५ कुल्यो मान्ये कुलोद्भूतकुलातिहितयोस्त्रिषु । कुल्यं स्यादामिषे शूर्पेप्यष्टद्रोण्यां च कीकसे ॥ ११ ॥ कुल्याऽल्पकृत्रिमनदीनदीजीवासु निर्झरे । कृत्या क्रियादेवतयोस्त्रिषु भेये धनादिभिः ॥ १२ ॥ विद्विष्टकार्ययोश्चायं कृत्यास्तव्यादिषु स्मृताः । क्रिया कर्मणि चेष्टायां करणे संप्रधारणे ॥ १३ ॥ उपायारम्भशिक्षा_चिकित्सानिष्कृतिष्वपि । गव्यं नपुंसकं ज्यायां गवां क्षीरादिकेऽपि च ॥ १४ ॥ रागद्रव्येऽपि गव्या तु गोकुले गोहिते त्रिषु । गुह्यं रहस्युपस्थे च गुह्यो दम्भेपि कच्छपे ॥ १५ ॥ गृह्या शाखापुरे गृह्यस्त्वसक्तमृगपक्षिणोः । गुह्यं पुरीषमार्गेऽपि गृह्यमखैरिपक्षयोः ॥ १६ ॥
कुल्य-मान्य-पुरुष (पुं०) कुलमें। उपाय, आरंभ, शिक्षा, पूजा,
उत्पन्नहुवा,कुलका अतिहित,(त्रि.)। चिकित्सा, निकालना, (स्त्री० ) कल्य-मांस, छाज, अष्ट द्रोणी.अस्थि गव्य-धनुषकी ज्या, गौवोंका दूध दधि (हाड ) ( न०)॥ ११॥
आदि ॥१४॥ रंगनेका द्रव्य, (न.)
गव्या-गोकुल, गोहित, (त्रि०) कुल्या-छोटी कृत्रिमनदी, नदी, जीवन्ती-औषधि, झिरना, (स्त्री.),
गुह्य-रहस्य ( गुप्तसलाह ), स्त्रीपुरुष
का योनि और शिश्न, (न०) दंभ, कृत्या-क्रिया, देवता, ( स्त्री० ) धन
कछुवा, (पुं० ) ॥ १५ ॥ आदिकरके भेद्य, ॥ १२ ॥
गृह्या-शाखानगर (एकपुरमाहँसे बशत्रु, कार्य, (त्रि.)
- साहुवा दूसरा नगर), (स्त्री.) कृत्य-तव्य आदि प्रत्यय, (पुं०) गृह्य-घर में हिलाहुवा मृग और पक्षी, क्रिया-कर्म, चेष्टा, करण, संप्रधारण (पुं० ) गुद, ( न०) रोकाहुवा,
(अच्छेप्रकार धारण) ॥ १३ ॥ पक्षकरने योग्य, (त्रि.) ॥१६॥
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२५६
विश्वलोचनकोशः
[ यान्तवर्गगेयस्तु त्रिषु गातव्ये गेयः स्याद्गायने पुमान् । गोप्यो दास्या अपत्ये स्याद्रक्षणीयेऽपि वाच्यवत् ॥ १७ ॥ ग्राम्यो जने त्रिषु ग्राम्यं वश्लीलरतबन्धयोः । चयस्त्वाहरणे वृन्दे प्राकारे मूलबन्धने ॥ १८ ॥ चव्यं तु चविके यच्च चव्या दूर्वाग्रगन्धयोः । चित्या मृतचितायां स्याच्चित्यं मृतकचैत्यके ॥ १९ ॥
चैत्यमायतने क्लीबं स्याच्चिताचूडकेऽपि च । बुद्धबिम्बे पुमांश्चैत्यश्चैत्य उद्देश्यपादपे ॥ २० ॥ चोद्यं प्रश्नेऽद्भुते चोद्यं वाच्यवच्चोदनोचिते। छाया स्यादातपाभावे सत्कान्त्युत्कोचकान्तिषु ॥ २१ ।। प्रतिबिम्बेऽर्ककान्तायां तथा पतौ च पालने । जन्यस्ताते वरवधूज्ञातिभृत्यप्रियेहिते ॥ २२ ॥
गेय-गाने के योग्य, (त्रि.) गायन | चैत्य-यज्ञस्थान, चिताका चिह्न, (न०) (पुं० )
बुद्धदेवकी मूर्ति, उद्देश्य(प्रसिद्ध)वृक्ष गोप्य-दासीकी संतान, रक्षाकरने (जिन-सभाका वृक्ष) (पुं०) ॥२०॥ __योग्य, (त्रि. ) ॥ १७॥ ग्राम्य-ग्राममें होनेवाला जन, (त्रि.) चोद्य-प्रश्न, अद्भुत ( न०) प्रेरणाके __ अश्लील, रतबंध, ( न० )
योग्य, (त्रि.) चय-इकट्ठाकरना, समूह, किला, छाया-धूपका अभाव, अच्छी कान्ति, जड़का बांधना, (पुं० )॥ १८॥
खिलना, शोभा, ॥ २१ ॥ प्रति. चव्य-चव्य, (न०)
बिंब, सूर्यकी स्त्री, पंक्ति, पालचव्या-दूब, अजमोद, (स्त्री० )
नकरना, (स्त्री) चित्या-मृतककी चिता, (स्त्री०), चित्य-मृतकका चौंतरा, ( न०) जन्य-पिता, वरवधू, ज्ञाति, भृत्य,
प्रिय, हित ( हितू ) ॥ २२ ॥
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यद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
जन्यस्तु जननीये स्यात्रिषु जन्यं तु संयुगे । परीवादेऽपि हट्टेऽपि जन्या मातृसखीमुदोः ॥ २३ ॥ जन्युः प्राणिनि वहाँ च जन्युः स्यात्परमेष्ठिनि । जयो जयन्ते विजये जया तिथ्यन्तरोमयोः ॥ २४ ॥ उमासखीजयन्त्योश्च पथ्यायामग्निमन्थके । जात्यं कुलीने श्रेष्ठेऽपि तार्क्ष्योऽनूरुसुपर्णयोः ॥ २५ ॥ रथेऽश्वे चाश्वकर्णद्रौ मतं तार्क्ष्य रसाञ्जने ।
तिष्यः पुष्ये कलौ तिष्या घात्र्यां तिष्यैव पुष्यवत् ॥ २६ ॥ त्रयी त्रिवेद्यां त्रितये पुरन्ध्यां सुमतावपि । दस्युर्विद्विपि चौरे च दायः सोल्लुण्ठभाषिते ॥ २७ ॥ यौतकादिधने दाने भागार्हपितृवस्तुनि |
दिव्यं तु शपथे वाले लवङ्गकुसुमेऽपि च ॥ २८ ॥
जननेके योग्य, (त्रि० ) जन्य- युद्ध, परिवाद, हाट, ( न० ) जन्या - माताकी सखी, आनंद (स्त्री० ) ॥ २३ ॥
जया - तिथिभेद, पार्वती ॥ २४ ॥ पार्वतीकी सखी, जयंती या अगेथु पुष्पवृक्ष, हरड, अरहूँ, ( स्त्री० ) जात्य - कुलीन, श्रेष्ठ, ( त्रि० ) तार्क्ष्य-अरुण, गरुड, ॥ २५ ॥ रथ, अश्व, साल-वृक्षभेद, (पुं०)
१७
२५७
तार्क्ष्य - रसोत- औषधि ( न० ) तिष्य - पुष्य-पुष्य नक्षत्र, कलि युग, ( पुं० )
तिष्या-आँवला, ( स्त्री० ) ॥ २६ ॥ त्रयी-त्रिवेदी ( तीनवेद ), तीन अव
जन्यु - प्राणी, अनि, ब्रह्मा, (पुं० ) जय-जयन्त ( इंद्रपुत्र ), विजय | यवोंवाला, पतिपुत्रवाली स्त्री, श्रेष्ठ
( जीतना ) ( पुं० )
बुद्धि, ( स्त्री० )
दस्यु - शत्रु, चोर, (पुं० ) दाय- हास्य सहित भाषण ॥ २७ ॥
वरवधूको देनेका द्रव्य, दान, भागकरने योग्य पिताकी वस्तु, (पुं० ) दिव्य-सौगन, बालक, लौंग, पुष्प, ( न० ) ॥ २८ ॥
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२५८
विश्वलोचनकोशः- [ यान्तवर्गेदिव्याऽऽमलक्यां दिव्यं तु वल्गौ दिविभवेऽन्यवत् । दुष्यं वस्त्रगृहे वस्त्रे दूषणीये तु वाच्यवत् ।। २९ ॥ दैत्या सुरामुराचण्डौषधीषु दितिजे पुमान् । द्रव्यं तु पित्तले वित्ते द्रुविकारे जतुन्यपि ॥ ३० ॥ भेषजे च पृथिव्यादौ त्रिषु भव्यविलेपयोः। धन्या धात्र्यामलक्योः स्याद्धन्यः पुण्यवति त्रिषु ॥ ३१ ॥ धान्यं त्रीहिषु धान्याके धिष्ण्यः स्यादनले पुमान् । धिष्ण्यं सद्मनि नक्षत्रे स्थाने शक्तौ च न द्वयोः ॥ ३२ ॥ नयो द्यूतान्तरे नीतौ व्यञ्जके त्वभिपूर्वकः ।। नाट्यं तौर्यत्रिके लास्ये नित्यं तु सतते ध्रुवे ।। ३३ ।। हरीतक्यां मता पथ्या मतं पथ्यं हिते त्रिषु ।
पद्यः शूद्रे पुमान्पद्यं श्लोके पद्या तु वर्मनि ॥ ३४ ॥ दिव्या-आँवला, (स्त्री०) धान्य-व्रीहि (धान), धनियाँ, (न०) दिव्य-सुंदर, आकाश या खर्गमें धिष्ण्य-अग्नि, (पुं०) मकान, होनेवाला, (त्रि.)
। नक्षत्र, स्थान, शक्ति, (न. ) दृष्य-वस्त्रका घर ( तंवूडेरा ), वस्त्र, ॥३२॥ (न०) दूषणीय (निंदनीय) (त्रि०) नय-यूतभेद, नीति, (पुं०)
अभिनय-हाथ आदिके इशारेसे वादैत्या-मदिरा, कपूरकचरी, चोर तका समझाना, (पुं० )
नामक गंध-द्रव्य, (स्त्री०) नाट्य-नाचना-गाना-बजाना, नाचना, दैत्य-दितिके पुत्र, ( असुर ) (पु.)! (न०) द्रव्य-पीतल, धन, वृक्षविकार, लाख, नित्य-निरंतर, ध्रुव (स्थिर) (न०)
॥ ३० ॥ औषधि, पृथिवी आदि, ॥ ३३ ॥
कल्याण, विलेप, (त्रि.) पथ्या -हरड, ( स्त्री०)। धन्या-धाय ( बच्चोंको दूध पिलाने- पथ्य-हित भोजनादि, (त्रि.)
वाली), आँवला, ( स्त्री०) पद्य-शूद्र, (पुं०) श्लोक (न.) धन्य-पुण्यवान, (त्रि.) ॥ ३१ ॥ पद्या-मार्ग (स्त्री० ) ॥ ३४ ॥
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यद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
२५९ नपुंसकं तु पाक्यं स्याद्यवक्षारे बिडाह्वये । पाद्यं पयसि निन्ये च पीयुः कालार्कपेचके ॥ ३५॥ पुण्यं तु सुकृते धर्मे त्रिषु मध्यमनोज्ञयोः । श्वशुरे पुंसि पूज्यः स्यात्पूज्यो वन्द्योऽभिधेयवत् ॥ ३६॥ पेयं पातव्यपयसोः पेया श्राणाच्छमण्डयोः । प्रायः पुमाननशने मृत्युबाहुल्ययोस्तथा ।। ३७ ॥ प्रियस्तु त्रिषु हृद्ये स्याद्धवे वृद्ध्यौषधे पुमान् । वन्यं त्रिषु वनोद्भूते वन्या वृन्दे वनाम्भसोः ॥ ३८ ॥ अप्रजातस्त्रियां वन्ध्या वन्ध्यस्त्रिषु हलिद्रुमे । वल्यं प्रधानधातौ स्याद्वल्यं बलकरे त्रिषु ॥ ३९ ॥ वरेण्ये वाच्यवद्वयों वर्यः पञ्चशरे पुमान् । विन्ध्या त्रुटौ लवल्यां च विन्ध्यो व्याधाद्रिभेदयोः ॥ ४० ॥ पाक्य-जवाखार, विड-नमक, (न०) प्रिय-मनोरम, (त्रि०) पति, वृद्धिपाद्य-जल, निंद्य, (न. )
नामक औषधि, (पुं० ) पीयु-काल, सूर्य, उल्लू, (पुं०)॥३५॥ वन्य-वनमें उत्पन्न होनेवाला, (त्रि.) पुण्य-सुकृत (अच्छा कर्म करना ),
वन्या-वनका और जलका समूह __धर्म, ( न०) मध्य, सुंदर, (त्रि.) (स्त्री०) ॥ ३८ ॥
बन्ध्या -अप्रसूता स्त्री, ( स्त्री. ) पूज्य-ससुर ( पुं० ) वंदनाके योग्य, (त्रि.)॥३६॥
बन्ध्य कलिहारी-वृक्ष ( पुं० )
बल्य-प्रधान-धातु (वीर्य) (न.) पेय-पीनेके योग्य, दुग्ध, ( न०) बल करनेवाला ( त्रि. ) ॥३९॥ पेया-पकायाहुवा पतला अन्न, स्वच्छ- वर्य-श्रेष्ठ, (त्रि० ) कामदेव, (पुं०) माँड, (स्त्री.)
विन्ध्या-छोटी-इलायची, हरफा प्रायः-अनजलका त्यागना, मृत्यु, रेवडी, (स्त्री०)
बाहुल्य (जियादहपना ) (पुं०) विन्ध्य-व्याध, पर्वत-भेद, (पुं०)
॥ ४० ॥
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२६०
विश्वलोचनकोश:
वीर्य प्रभाव शुक्रे च तेजः सामर्थ्ययोरपि । वेश्या तु गणिकायां स्याद् वेश्यं वेश्यानिकेतने ॥ ४१ ॥ भयं घोरे प्रतिभये प्रसूने कुब्जवीरुधः ।
कर्म्मरङ्गतरौ भव्यो भव्या करिकणोमयोः ॥ ४२ ॥ भाग्यं शुभात्मकविधौ स्याच्छुभाशुभकर्म्मणि । भृत्यो दासे भृतौ भृत्या मत्स्यो मीने जनान्तरे ॥ ४३ ॥ विष्णोर्मूर्त्यन्तरे मत्स्यो विराटाख्ये च यादवे । मध्यं न्याय्येऽवकाशे च मध्यं मध्यस्थिते त्रिषु ॥ ४४ ॥ लग्नकेster मे मध्यम स्त्रियामवलग्न के | मन्युदैन्ये ऋतौ क्रोधे वासवे तु शतात्परः ४५ ॥ मयः शिल्पिनि दैत्यानां करभेऽश्वतरे मयः । मयुर्मृगे किंपुरुषे मायः पीताम्बरेऽसुरे ॥ ४६॥
[ यान्तवर्गे
वीर्य - प्रभाव, शुक्र ( वीर्य ), तेज, | मत्स्य - मछली, जनभेद, ॥ ४३ ॥ सामर्थ्य, ( न० ) विष्णुका अवतार, विराट- देश, वेश्या-गणिका ( स्त्री० ) यादव, (पुं० ) वेश्य - वेश्याका घर, ( न० ) ॥४१॥ मध्य-न्याय्य ( युक्त ), अवकाश, भय-भयानक, (त्रि०) भय, कूजा ( न० ) मध्य में स्थित ॥ ४४ ॥ बेलका पुष्प, ( न० ') जामिन, अधम, ( त्रि० ) शरीभव्य - कमरख - वृक्ष, ( पुं० ) भव्या- गजपीपल, पार्वती, (स्त्री० )
॥ ४२ ॥
भाग्य- शुभात्मक विधि ( भाग्य ), शुभअशुभ कर्म, ( न० ) भृत्य - दास ( नौकर ) ( पुं० ) भृत्या - नौकरी, ( स्त्री० )
रका मध्यभाग, ( पुं० न० ) मन्यु- दीनता, यज्ञ, क्रोध, शतमन्युइंद्र, (पुं० ) ॥ ४५ ॥
मय- दैलोंका कारीगर, ऊँट, खिच्चर,
( पुं० )
मयु- मृग, किन्नर, ( पुं० ) माय-पीतांबर, असुर, (पुं० ) ॥४६॥
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यद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
२६१ माया दम्भे कृपायां च स्यान्माया शाम्बरीधियोः । माल्यं पुष्पेऽपि मालायां मूल्यं वेतनवस्त्रयोः ।। ४७ ।। मृत्युः स्यान्मरणे दैवे मेध्यं पूतेऽपि मेदुरे । मेध्या रक्तवचायां च रोचनायामपि स्त्रियाम् ।। ४८ ॥ क्लीबं स्यादाश्रमे मेध्यं ययुः क्रतुहये हये । याम्याऽपाच्यां भरण्यां च याम्योऽगस्त्येऽपि चन्दने ॥ ४९॥ योग्यः प्रवीणयोगार्हशक्तोपायिषु वाच्यवत् । योग्याऽभ्यासेऽर्क कान्तायां योग्यमृद्धयाख्यभेषजे ॥ ५० ॥ रथ्या तु विशिखायां स्याद्रथौधे पथि चत्वरे । मतो रथोद्वहे रथ्यो रथ्यं त्रिषु मनोरमे ॥ ५१ ॥ रम्या विभावरी रम्यः पुंसि चम्पकपादपे ।
रूप्यं स्यादाहतस्वर्णरजते रजते तथा ।। ५२ ॥ माया-दंभ, कृपा, बाजीगरकी विद्या, योग्य-प्रवीण (चतुर), योगके योग्य, बुद्धि, (स्त्री.)
समर्थ, उपायवाला (त्रि.) माल्य-पुष्प, पुष्पमाला, ( न०) योग्या-अभ्यास, सूर्यकी स्त्री, (स्त्री०) मूल्य-नौकरी, वस्तुका मोल (कीमत) योग्य ऋद्धि-औषध (न०) ॥ ५० ॥
(न. ) ॥ ४७ ॥ मत्य-मरना, धर्मराज. (पं.) रथ्या-गली, रथोंका समूह, मार्ग, मेध्य-पवित्र, सघन सचिकण, (त्रि.) घरका आँगन, (स्त्री० ) मेध्या-रक्तबच, गोरोचन, ( स्त्री० ) रथ्य-रथको बहनेवाला अश्व आदि ॥ ४८ ॥
(पुं०) मेध्य-आश्रम (न.)
रम्य-सुंदर, (त्रि.) ॥ ५१ ॥ ययु-यज्ञके लिये अश्व, अश्व-मात्र, रम्या-रात्रि, ( स्त्री० )
(पुं० ) याम्या-दक्षिण दिशा, भरणी-नक्षत्र, रम्य-चंपाका वृक्ष, (पुं० ) (स्त्री०)
रूप्य-घड़ाहुवा ( सिका) सुवर्ण या याम्य-अगस्त्य-मुनि, चन्दन (पुं०) रजत ( चाँदी) का, चांदी-मात्र, ॥ ४९ ॥
( न० ) ॥ ५२ ॥
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२६२
विश्वलोचनकोश:- [यान्तवर्गेत्रिषु प्रशस्तरूपेऽपि लभ्यं लब्धव्यमुक्तयोः । लयो नृत्यादिसाम्ये स्याद्विनाशाश्लेषयोर्लयः ॥ ५३ ॥ सङ्ख्याशरव्ययोर्लक्ष्यं लक्ष्यं स्याच्छद्मनि स्मृतः । अथ तौर्यत्रिके लास्यं लास्यं स्त्रीनृत्यनृत्ययोः ॥ ५४ ॥ वाच्यं दोषेऽपि वक्तव्ये वचोहे कुत्सितेऽन्यवत् । वीक्ष्योऽविलासके वीक्ष्यो द्रष्टव्याद्भुतयोस्त्रिषु ॥ ५५ ॥ वर्गप्रस्थानयोव्रज्या व्रज्या पर्यटनेऽपि च । शयः शय्याहिहस्तेषु शय्या तु शयनीयके ॥ ५६ ।। शब्दगुम्फेऽपि शल्यस्तु श्वाविन्मदनवृक्षयोः । शल्यं शकौ शरे वंशकर्णिकायां च तोमरे ॥ ५७ ॥ शुन्या तु नलिकायां स्याच्छून्यं तु त्रिषु निर्जने । मतं शौर्य तु शूरत्वे चारभट्यां च तन्मतम् ॥ ५८ ॥
श्रेष्टरूपवाला, (त्रि.)
ज्या-वर्ग, प्रस्थान, धूमना, (स्त्री०) लभ्य-लब्ध होने के योग्य, युक्त, शय-शय्या, सर्प, हाथ, (पुं० )
(त्रि.) लय-नृत्य आदिकी समता. विनाश शय्या-पलंग, शब्द-गुंफ (रचना)
मिलना, (पुं० ) ॥ ५३ ॥ (स्त्री० ) ॥ ५६ ॥ लक्ष्य-संख्याभेद, निशाना, मिस शल्य-सेह, मैनफल-वृक्ष, ( पुं०) ( बहाना ) (न०)
| शल्य-शंकु ( कीला ), शर, वंशकलास्य-नाचना-गाना-बजाना, ये मिले र्णिका, तोमर-शस्त्र, ( न०) हुए तीनों, स्त्री-नृत्य, नृत्य, (न०)। ॥५७ ॥ ॥ ५४ ॥
शून्या-बाँस आदिकी नली, (स्त्री०) वाच्य-दोष, कहनेयोग्य, वचनके | योग्य, कुत्सित, (त्रि.)
शून्य-निर्जनस्थानादि, (त्रि.) वीक्ष्य-अश्व, नाचनेवाला, ( पुं० ) शौर्य-शूरता, निडरपना, (न०)
देखने योग्य, अद्भुत, (त्रि०) ॥५५॥ ॥५८ ।
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यद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
२६३ सङ्खयं तु सङ्गरे क्लीबं सङ्घयैकत्वादिचर्चयोः । तपोलोकात्परे सत्यं सत्यं सत्यप्रगतयोः ॥ ५९ ॥ दिव्येपि सत्या पामायां सत्यं तु त्रिषु तद्वति । सन्ध्या साये सरिद्भेदे सन्धाने कुसुमान्तरे ।। ६० ॥ प्रतिज्ञायां च चिंतायां मर्यादायामपि स्त्रियाम् । वामदक्षिणयोः सव्यं सह्यं शस्त्रकले गुणे ॥ ६१ ।। सह्यः शैलेऽपि सोढव्ये नैरुज्ये सह्यमद्वयोः । साध्यस्तु योगभेदे स्यात्साध्योऽपि गणदैवते ॥ ६२ ॥ वाच्यवत्साधनीयेऽपि सायः काण्डाऽपरालयोः । सूर्योऽर्के तत्प्रियायां तु सूर्या स्यादोषधीभिदि ।। ६३ ।। सेव्यं त्रिलिङ्गं सेवाहे सेव्यं तु नलदे द्वयोः । सेनायां समवेते तु सैन्यः सैन्यं बले मतम् ॥ ६४ ॥
संख्य-युद्ध, ( न०)
। एक पर्वत, (पुं०) सहनेके योग्य, संख्या-एक आदि-गिन्ती, विचार, (त्रि०) नीरोगता ( न०) (स्त्री० )
| साध्य-योगभेद, गणदेवता, (पुं० ) सत्य-तप लोकसे ऊपर लोक, सत्य, ॥ ६२ ॥ साधनेके योग्य (त्रि.) प्रगत (गहरा खड्डा ) ( न०) साय-बाण, अपराह्न काल (दिनका ॥ ५९ ॥ सौगन, (न०) पाम तृतीय प्रहर) (पुं० ) (स्त्री० ) सत्यवाला ( त्रि०) सूर्य-सूर्य, (पुं० ) सन्ध्या -सायंकाल, नदीभेद, स्मरण,
"' सूर्या-सूर्यकी स्त्री, औषधिभेद, पुष्पभेद, ॥ ६ ॥ प्रतिज्ञा, चिंता, मर्यादा, ( स्त्री० ).
र (स्त्री० ) ॥ ६३ ॥ सव्य-वाम ( बामा) अंग, दक्षिण सेव्य-सेवाके योग्य, (त्रि.)
(दहना) अंग, (न.) सेव्य-खस, (पुं० स्त्री०) सा-शस्त्रकी कलावाली रज्जु (रस्सी) सैन्य-सेना, सैनिक, (पुं० ) (न० ) ॥ ६१ ॥
सैन्य-बल ( न०) ॥ ६४ ॥
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विश्वलोचनकोश:
इल्वलासु स्त्रियः सौम्या बुधे सौम्योऽथ वाच्यवत् । बौद्धे मनोरमेऽनुग्रे पामरे सोमदैवते ॥ ६५ ॥ विवादपक्षनिर्णेतर्यपि स्थेयः पुरोहिते ।
स्थेयं स्याद्द्रव्यमात्रेऽपि पुंसि गर्वेऽद्भुते स्मयः ॥ ६६ ॥ हार्यो बिभीतकीवृक्षे हर्त्तव्ये हार्यमन्यवत् । हृद्यस्तु वशद्वेदमन्त्रे वृद्धयाख्यभेषजे ॥ ६७ ॥ स्याच्छ्रेतजीरके हृद्यं हृत्प्रिये हृद्भवे त्रिषु । क्षयोऽपचयकल्पान्तनिवासेषु रुगन्तरे ॥ ६८ ॥ यतृतीयम् । अत्ययो दूषणे कृच्छ्रेऽतिक्रमे नाशदण्डयोः । अधृष्यस्तु प्रगल्भे स्यादधृष्या सरिदन्तरे ॥ ६९ ॥ अनयो व्यसनानीतिदैवाशुभविपत्तिषु ।
अपत्यं पुत्रयोः क्लीबमभयो निर्भये त्रिषु ॥ ७० ॥
२६४
सौम्या - इल्वला ( मृगशिरके ऊप | हृद्य-सफेद जीरा, ( न० ) हृदयको प्रिय, हृदयमें प्राप्त ( त्रि० ) क्षय-कमहोना, कल्पका अन्त, निवास, रोगभेद ( पुं० ) ॥ ६८ ॥
रकी पांच तारा ) ( स्त्री० ) सौम्य - बुध, ( पुं० ) बौद्ध ( बुद्धशास्त्र ) सुंदर, नाम्र, पामर, सोम है। देवता जिसका वह (त्रि ० ) ॥६५॥ स्थेय - विवादपक्षका निर्णेता, पुरोहित, ( पुं० ) द्रव्यमात्र, (त्रि० ) स्मय - गर्व, अद्भुत, (पुं० ) ॥ ६६ ॥ हार्य - बहेडाका - वृक्ष, ( पुं० ) हडने
योग्य, (त्रि ० )
हृद्य -वश में करनेवाला वेदमंत्र, (पुं०) हृद्या - वृद्धिनामक औषधि, ( स्त्री० ) ॥ ६७ ॥
[ यान्तवर्गे
यतृतीय ।
अत्यय-दूषण, कृच्छ्र (कष्ट), उल्लंघन, नाश, दंड (पुं० ) अधृष्य-प्रगल्भ ( धृष्ट) ( भि० ) अधृष्या - नदीभेद, (स्त्री० ) ॥ ६९ ॥ अनय - व्यसन ( फिराक ), अनीति, दैव, अशुभ, विपत्ति, (पुं० ) अपत्य-पुत्री, पुत्र, ( न० To ) अभय - निर्भय, ( त्रि० ) ॥ ७० ॥
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यतृतीयम् ।
भाषाटीकासमेतः। २६५ मताऽभया तु पथ्यायामभयं स्यादुशीरके । अभिख्या तु यशःकीर्तिशोभाविख्यातिनामसु ॥ ७१ ॥ त्रिप्ववध्यं वधानहें क्लीबेऽनर्थकभाषिते । स्यादवन्ध्यं तु सफले त्रिषु त्रिष्वफलेग्रहौ ॥ ७२ ॥ अश्वीयमश्वसङ्घातेऽश्वीयमश्वहिते त्रिषु । अहल्याप्सरसोभेदे तथा गौतमयोषिति !! ७३ ॥ अहार्यः पर्वते पुंसि स्यादहार्यः स्थिरे त्रिषु । आतिथ्यमातिथेयेस्यादातिथ्यस्त्वतिथौ पुमान् ॥ ७४ । आत्रेयी पुष्पवत्यां स्यादात्रेयी निम्नगान्तरे । आत्रेयस्तु मुने दे स्यादादित्यः सुरे रवौ ॥ ७५ ॥ आम्नाय उपदेशेपि स्यादाम्नायः श्रुतावपि । आशयः स्यादभिप्रायेऽप्याधारे पनसे धने ॥ ७६ ॥
अभया-हरड, ( स्त्री०) | अहार्य-पर्वत, ( पुं० ) स्थिर,(त्रि०) अभय-खस, ( न०)
आतिथ्य-जो वस्तु अतिथिके लिये अभिख्या-यश, कीर्ति, शोभा, |
___ हो वह, (त्रि. ) अतिथि (पुं०) __विख्याति, नाम, ( स्त्री०)॥७१॥ |
॥ ७४ ॥ अवध्य-वधके अयोग्य, (त्रि.)
अनर्थक भाषण, ( न०) आत्रेयी-रजस्खला, नदीभेद, (स्त्री०) अवन्ध्य-सफल, (त्रि०) कालके आत्रेय-मुनिभेद ( पुं० ) __ अनुकूल फलोंको धारण करनेवाला |
वृक्ष, (त्रि.) ॥ ७२ ॥ आदित्य-देवता, सूर्य, (पुं०)॥७५॥ अश्वीय-अश्वोंका समूह, (न० )'आवाय-उपदेश, वेद, (पु० )
अश्वोंका हितू, ( त्रि.) अहल्या-अप्सराभेद, गौतमऋषिकी आशय-अभिप्राय, आधार, पनसस्त्री, (स्त्री०) ॥ ७३ ॥
वृक्ष, धन ॥ ७६ ॥
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२६६
विश्वलोचनकोशः- [ यान्तवर्गेकोष्ठागारेऽप्यजीर्णेऽपि किंपचानेऽपि चाशयः । इन्द्रियं रेतसि क्लीबमिन्द्रियं विषयीन्द्रिये ॥ ७७ ।। पुंसि स्यादुदयः पूर्वपर्वतेऽपि समुन्नतौ । उपायः सामभेदादावुपायः स्यादुपागतौ ॥ ७८ ॥ ऊर्णायुरेडके मेषकम्बलक्षणभङ्गयोः।। एणेयमेण्याश्चाद्ये रतबन्धान्तरे स्त्रियाः ॥ ७९ ॥ औचित्यमुचितत्वे स्यादौचित्यं सत्ययोग्ययोः । अस्त्री कषायो निर्यासे रसे रक्ते विलेपने ॥ ८० ॥ अङ्गरागे सुगन्धे तु त्रिषु स्याल्लोहितेऽपि च । कालेयो दैत्यभेदे स्यात्कालेयं कालखण्डकम् ।। ८१ ॥ कुलायो नीडवत्पक्षिनिलयस्थानयोः पुमान् । कौकृत्यमनुतापे स्यादयुक्तकरणेऽपि च ॥ ८२ ॥
कोष्टागार (शरीरके भीतरकी पोल, औचित्य-उचितपना, सत्य, योग्य,
अजीर्ण, धनलोभी, (पुं०) (न०) इंद्रिय-वीर्य, विषयि (चक्षुआदि ) कषाय-काढा, रस, रक्त, विलेपन, __ इंदिय, (न०) ॥ ७७ ॥
(पुं० ) ॥ ८० अंगराग, सुगंध, उदय-पूर्वपर्वत, समुन्नति (ऊँचापना) लोहित. ( त्रि.) (पुं० )
कालेय-दैत्यभेद, (पुं० ) कालखंड, उपाय-साम भेद आदि, समीपमें
" (न०)॥ ८१ ॥ ___ आना, (पुं० )॥ ७८ ॥ ऊर्णायु-भेड, भेडीके ऊनका कंबल, कुलाय (नीड )-पक्षीका बूंसला,
क्षणभंग ( मकड़ी) (पुं० ) स्थान, (पुं० ) एणेय-मृगीका चर्म आदि, स्त्रीका कौकृत्य-पश्चात्ताप, अयुक्त करना, रतबंध, ( न.)॥ ७९ ॥
(न० ) ॥ ८२ ॥
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यंतृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
गाङ्गेयस्तु महासेने भीष्मे गङ्गाभवे त्रिषु । चक्षुष्यः केतके पुण्डरीकवृक्षे रसाञ्जने ॥ ८३ ॥ अस्त्री स्त्री तु कुलथ्यां स्यादयुक्तकरणेऽपि च । गाङ्गेयं मुस्तकस्वर्णकसेरुषु नपुंसकम् ॥ ८४ ॥ गाङ्गेयस्तु महासेने भीष्मे गङ्गोद्भवे त्रिषु । चक्षुष्यः केतके पुंसि शुभगेऽक्षिहिते त्रिषु ॥ ८५ ॥ चाम्पेयश्चम्पके नागकेसरे पुष्पकेसरे ।
स्वर्णे क्लीबं जघन्यं तु निन्द्ये चरमशिश्नयोः ॥ ८६ ॥ जटायुः पक्षिभेदे स्यात्पुंसि गुग्गुलपादपे । तपस्या व्रतचर्यायां तपस्यः फाल्गुने पुमान् ॥ ८७ ॥ देवयुर्द्धार्मिक देवयात्रिकेऽप्यभिधेयवत् । द्वितीया तिथिभित्पल्योः पूरणेऽपि द्वयोस्त्रिषु ॥ ८८ ॥
गांगेय - स्वामिकार्त्तिक, भीष्म, (पुं० ) गंगासे होनेवाला, ( त्रि० )
अच्छे भाग्यवाला, नेत्रोंका हितकारी ( त्रि० ) ॥ ८५ ॥ चांपेय-चंपा, नागकेर, पुष्पकेसर, ( पुं० ) सुवर्ण, ( न० ) जघन्य - निंद्य, पिछला, शिश्न (लिंग) ( न० ) ॥ ८६ ॥ जटायु-पक्षिभेद, गूगल - वृक्ष, (पुं०) कसेरु | तपस्या - व्रतचर्या, ( स्त्री० )
चक्षुष्य - केतकी ( पुष्पवृक्ष ), दौना पुष्पवृक्ष, कमल-वृक्ष, रसोत, ॥ ८३ ॥ ( पुं० न० ) कुलथी (स्त्री० ) अलग करना ( न० ) गांगेय - नागरमोथा, सुवर्ण, कंद, ( न० ) ॥ ८४ ॥ गांगेय-स्वामिकार्त्तिक, भीष्म, (पुं०) गंगा में होनेवाला ( त्रि० ) चक्षुष्य- केतक ( केतक ) ( पुं० )
२६७
तपस्य - फाल्गुन- मास, (पुं० ) ॥८७॥ देवयु-धर्मात्मा, देवयात्रिक, (त्रि०) द्वितीया तिथिभेद, पत्नी ( स्त्री० ) दोयोंको पूरण करनेवाला, (त्रि०)
॥ ८८ ॥
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२६८
विश्वलोचनकोश:
नादेयी नीरवानीरे भूजम्बूनागरङ्गयोः । जपाजयन्त्योर्व्यङ्गुष्ठे निकायस्त्वात्मवेश्मनोः ॥ ८९ ॥ सधर्मिनिवहे लक्ष्ये संहतानां च मेलके । रङ्गभूमौ तु नेपथ्यं नेपथ्यं च प्रसाधने ॥ ९० ॥ पयस्या क्षीरकाकोल्यां स्वर्णक्षीर्यामपि स्मृता । पयस्या दुग्धिकायां च पयोहितभवेऽन्यवत् ॥ ९१ ॥ पर्जन्यो वासवे मेघध्वनौ च ध्वनदम्बुदे । पर्यायः क्रमनिर्वाणप्रकारावसरे पुमान् ॥ ९२ ॥ पेयवारिणि पानीयं पारुष्यस्तु बृहस्पतौ । पारुष्यं परुषत्वे स्यादपि शक्रस्य कानने ॥ ९३ ॥ पौलस्त्यः किन्नराधीशे पौलस्त्यो दशकन्धरे । प्रकीर्यः पूतिकरजे विनिकीर्णे तु वाच्यवत् ॥ ९४ ॥
[ यान्तवर्गे
पयस्या - क्षीरकाकोली, एक प्रकारकी कटेहरी, दूधी, दुग्धका हित, दूधसे उत्पन्न हुवा, (त्रि० ) ॥ ९१ ॥
पर्जन्य- इंद्र, मेघध्वनि, गर्जताहुवा मेघ, (पुं० )
नादेयी - जलबेत, भूईजामन, नारंगी, जपा ( अलसी ), जैत- पुष्पवृक्ष, व्यंगुष्ट ( अंगूठाहीन ) ( स्त्री० ) निकाय - परमात्मा, स्थान ॥ ८९ ॥ सधर्मियोंका समूह, लक्ष्य, संहतोंका मिलाप, (पुं० ) नेपथ्य- रंगभूमि, अलंकृतकी शोभा पारुष्य - वृहस्पति, (पुं० ) पारुष्य( न० ) ॥ ९० ॥
पर्याय-क्रम, निर्वाण (मोक्ष), प्रकार, अवसर, ( पुं० ) ॥ ९२ ॥ पानीय-पीने के योग्य ( त्रि०), जल, ( न० • )
कठोरता, इंद्रका वन, ( न० ) ॥ ९३ ॥ पौलस्त्य - कुबेर, रावण, ( पुं० ) प्रकीर्य - काँटाकरंज (करंजुवा), (पुं०) बिखराहुवा, (त्रि० ) ॥ ९४ ॥
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यतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
प्रणयः प्रेमविश्रम्भप्रश्रयप्रसरेऽर्थने । प्रणाय्योऽसंमते तृष्णावर्जितेऽप्यभिधेयवत् ॥ ९५ ॥ प्रत्ययः शपथे हेतौ ज्ञानविश्वासनिश्चये । सन्नाद्यधीनरन्ध्रेषु ख्यातत्वाचारयोरपि ॥ ९६ ॥ प्रलयो मृत्युकल्पान्तमूर्छासु विदितः पुमान् । प्रसव्यमन्यलिङ्गं स्यात्प्रतिकूलानुकूलयोः ॥ ९७ ॥ वलयः कङ्कणे न स्त्री बलाकण्ठरुजोरपि । बालेयः फञ्जिकायां स्यात्खरे बालहिते मृदौ ॥ ९८ ॥ ब्रह्मण्यस्तु शनौ यूषे ब्रह्मसाधौ तु वाच्यवत् । ब्राह्मण्यं ब्राह्मणत्वे स्याद्राह्मणानां च संहतौ ॥ ९९ ॥ भुजिष्यस्तु सहायेऽपि हस्तसूत्रेऽप्यथ त्रिषु । अनधीते भुजिष्या तु वेश्याचेटिकयोर्मता ॥ १०० ॥
प्रणय-प्रेम, विश्वास, नम्रता, प्रसर बालेय-भारंगी, गर्दभ, बालहित,
(फैलना ), याचना (पुं०) कोमल, (पुं० ) ॥ ९८ ॥ प्रणाय्य-असंमत ( नहीं मानाहुवा), .
ब्रह्मण्य-शनैश्चर, यूष, ( पुं० ) ब्रह्म में तृष्णासे रहित, (त्रि.)॥ ९५॥ प्रत्यय-सौगन, हेतु ( कारण ),
- साधु ( श्रेष्ठ) (त्रि.) ज्ञान, विश्वास, निश्चय, सन् आदि- ब्राह्मण्य-ब्राह्मणपना, ब्राह्मणोंका प्रत्यय, अधीन, छिद्र, विख्यात, समूह, (न०)॥ ९९ ॥ आचार, (पुं० ) ॥ ९६ ॥
भुजिष्य-दास ( नौकर ), हस्तसूत्र प्रलय-मृत्यु, कल्पान्त, मूर्छा, (पुं०) प्रसव्य-प्रतिकूल, अनुकूल, (त्रि.)
। (मंगलसूत्र) (पुं०) विनापढा
१० (त्रि.) वलय-कंगन, खरैटी, कंठरोग, भुजिष्या-वेश्या, दासी, (स्त्री.) (पुं० न०)
॥१०० ॥
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२७०
विश्वलोचनकोशः
[यान्तवर्गे
भुवयुः स्यादृहद्भानुभानुशीतलभानुषु । भ्रातृव्यो भ्रातृतनये त्रिषु पुंसि तु विद्विषि ॥ १०१ ॥ मङ्गल्यं दनि मङ्गल्यं तत्रसाधौ मनोहरे। मङ्गल्यः श्रीफले स्वच्छे मसूरत्रायमाणयोः ॥ १०२ ॥ मङ्गल्या रोचनायां स्यात्प्रियङ्गुशतपुप्पयोः । मल्लिगन्धि च यत्कृष्णागुरु तत्रापि सा स्मृता ॥ १०३ ॥ अधःपुष्पीशमीखण्डपुप्पीश्वेतवचासु च । मलयः पुंसि देशाद्रिभेदयोः पर्वतांशके ।। १०४ ॥ आरामे चन्दने चाथ मलया तृवृतौषधौ । मृगयुर्ब्रह्मणि प्रोक्तो गोमायुव्याधयोरपि ॥ १०५ ।। रहस्यं वाच्यवद्गोप्ये रहस्या तु नदीभिदि । लौहित्यं रक्ततायां स्यात्पुंसि ब्रीहौ नदान्तरे ।। १०६ ॥ वक्तव्यः कुत्सिते हीनेऽप्यधीने वाच्यवत्रिषु ।
वदान्यस्तु सुवाग्दात्रोविजयो जयपार्थयोः॥ १०७ ।। भुवन्यु-अग्नि, सूर्य, चंद्रमा, (पुं०)। भाग, (पुं०) ॥१०४॥ बाग, चंदन, भ्रातृव्य-भाईका पुत्रआदि (त्रि.)। निसोत, ( स्त्री०) ___ शत्रु, (पुं० ) ॥ १०१॥ मृगयु-ब्रह्म, गीदड़, व्याधा (शिकारी) मंगल्य-दही (न०) मंगलकरने- (पुं० ) ॥ १०५ ॥
वाला, सुंदर, (त्रि.) | रहस्य-गोप्य, (त्रि.) मंगल्य-बेलका-वृक्ष, निर्मल, मसूर, रहस्या-नदीभेद, (स्त्री०)
त्रायमाणा, (पुं०)॥ १०२॥ लौहित्य-रक्तता, ( न० ) धान, मंगल्या -गोरोचन, फूलप्रियंगु, सौंफ, नदभेद, (पुं०) ॥ १०६ ॥
मल्लिका ( मोगरा ) सरीखी गंध-वक्तव्य-निंदित, हीन, अधीन, वाला काला अगर, (स्त्री०)॥१०३॥ (त्रि०) गोभी, जांट, खंडपुष्पी (शाखा- वदान्य-अच्छी वाणीवाला, दान
हुली), सफेद बच, (स्त्री.) शील ( बहुत देनेवाला) (पुं०) मलय-देशभेद, पर्वतभेद, पर्वतका विजय-जय, अर्जुन, (पुं०)॥१०७
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यतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः । विजया तु मता गौर्या तत्सखीतिथिभेदयोः । विनयस्तु नतो नीतौ शिक्षायां विनयो द्वयोः ॥ १०८ ॥ विशल्याऽमिशिखादन्तीगुडूचीतृवृति स्त्रियाम् । वाच्यवद्गतशल्ये स्याद्विस्मयोऽद्भुतगर्वयोः ॥ १०९ ॥ विषयो गोचरे देशे इन्द्रियार्थेऽपि नीवृति । प्रबन्धाद्यस्य यो ज्ञातः स तस्य विषयः स्मृतः ॥ ११० ॥ व्यवायः सुरतेन्तौ व्यवायं तेजसि स्मृतम् । शाण्डिल्यो मुनिभेदेऽपि श्रीफले पावकान्तरे ।। १११ ॥ शालेयः शतपुप्पायां त्रिषु शाल्युद्भवोचिते । शीर्षण्यः पुंसि विशदे कचे क्लीबं तु शीर्षके ॥ ११२॥ शैलेयं सिन्धुलवणे तालपणं च शैलजे । भृङ्गे पुंसि श्वशुर्यस्तु देवरे श्यालकेऽपि च ॥ ११३ ॥
विजया-गौरी, गौरीकी सखी, | व्यवाय-स्त्रीसंग, व्यवधान, (पुं० ) तिथिभेद, (स्त्री०)
व्यवाय-तेज, (न.) विनय-नति, नीति, शिक्षा, (पुं० | शांडिल्य-एकमुनि, बिल्व वृक्ष, अस्त्री० ) ॥ १०८ ॥
! निभेद, (पुं० )॥ १११॥ विशल्या-कलिहारी, जमालगोटाकी शालेय-सौंप, (पुं० ) शालि ( चा
जड, गिलोय, निसोत, (स्त्री०)। वल) की उत्पत्तिवाला क्षेत्र
शल्यरहित (त्रि.) | (त्रि.) विस्मय-अद्भुत, गर्व, (पुं० )॥१०९ / शीर्षण्य-श्वेत, केश, (पुं०) शिविषय-गोचर ( समक्ष ), देश, रकी रक्षाकरनेवाला, (न०) ११२
शब्द स्पर्श आदि, जनपद, (मनु- शैलेय-समुद्रलवण, तालपर्णी (मुध्यके नामसे विख्यात देश), जिसके सली), पत्थरका फूल, ( न०) प्रबंधसे जो जाना है वह उसका भौंरा, (पुं०) विषय कहा है (पुं० ) ॥ ११०॥' श्वशुर्य-देवर, साला, (पुं०) ११३
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विश्वलोचनकोश:- [यान्तवर्गेपृष्ठस्थायिबले नीतौ समवायेऽपि सन्नयः। समयः पुंसि सिद्धान्तशपथाचारसंविदि ॥ ११४ ॥ कालसिद्धान्तनिर्देशक्रियाकारेषु सङ्गमे । मेलके योगियोगिन्योः समयः क्वापि दृश्यते ॥ ११५ ॥ सरण्युरिदे वाते सामर्थ्य योग्यताबले । सौकर्य स्यादनायासे क्रियायां सूकरस्य च ॥ ११६ ॥ सौभाग्यं सुभगत्वे स्याद्योगभेदे पुमानयम् । सौरभ्यं तु सुगन्धत्वे गुरुत्वे गुणगौरवे ॥ ११७ ॥ संस्त्यायः सन्निवेशेऽपि संस्थाने विस्मृतौ गणे। हरिण्यमक्षये द्रव्ये वराटे स्वर्णरेतसि ॥ ११८ ॥ घटिताऽघटितवर्णरूप्ययोर्मानभिद्यपि । बुक्कायां हृदयं ज्ञेयं हृदयं हृदि वक्षसि ॥ ११९ ॥
सन्नय-पिछाड़ी स्थितहुई सेना, सौभाग्य-सुभगपना ( न०) योगनीति, समूह, (पुं० )
भेद, (पुं० )
सौरभ्य-सुगंधपना, गुरुपना, गुणोंसे समय-सद्धान्त, सायन, आचार, बडप्पन, ( न० ) ॥ ११७ ।।
बद्धि ॥ ११४ ॥ काल, सिद्धान्त, संस्त्याय-अच्छोतरह बना हुवा वासनिर्देश, क्रियाकार, संगम, कहीं। स्थान, अच्छीतरह स्थिति, विस्तार, योगी और योगिनीके मिलाप में ( पुं० ) भी समय देखा है (पुं० ) हिरण्य-अक्षय, द्रव्य, कौडी, सुवर्ण, ॥ ११५॥
वीर्य, ॥ ११८ ॥ घड़ाहुवा नहीं सरण्यु-मेघ, वायु, (पुं०) घड़ाहुवा सुवर्ण और चाँदी, मान
भेद, (न०) सामर्थ्य-योग्यता, बल, ( न०) ।
बल 10 हृदय-हृदयके अंदर कमलाकार सौर्य-विनापरिश्रम, सूकरकी क्रिया। मांसभेद, हृदय, छाती, (न०) ( न०) ॥ ११६ ॥
॥ ११९ ॥
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यचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः।
२७३ तनौ स्त्रियां क्षिपण्युः स्यात्क्षिपण्युः सुरभौ नरि । परदाररताऽसाध्यरोगयोः क्षेत्रियः पुमान् ॥ १२० ॥ अन्यदेहे चिकित्साहे क्लीबं क्षेत्रतृणेपि च ।।
यचतुर्थम् ।। दीर्घद्वेषानुतापानुबन्धष्वनुशयः पुमान् ॥ १२१ ॥ अन्तशय्या तु मरणे भूमिशय्याश्मशानयोः । अपसव्यमवामे स्यात्प्रतिकूले तु वाच्यवत् ॥ १२२ ॥ गर्वेऽपि तुहिनेपि स्यादवश्यायः पुमानयम् । उपकार्या नृपावासेऽप्युपकारोचितेऽन्यवत् ॥ १२३ ॥ उपक्रयश्चिकित्सायामारम्भवधयोरपि । काद्रवेयः पुमान्नागे तथा सीसकरङ्गयोः ॥ १२४ ॥ चन्द्रोदयो विताने स्यास्त्रियामेवोषधीभिदि ।
जलाशयो जलाधारे जलदे तु जलाशयम् ॥ १२५ ॥ क्षिपण्यु-शरीर ( स्त्री० )क्षिपण्यु- अवश्याय-अभिमान, पाला या बर्फ _सुगंधि द्रव्य (त्रि.)
(पुं० ) क्षेत्रिय-परस्त्रीमें रत, असाध्य रोग, उपकार्या-राजभवन, ( स्त्री० ) ( पुं० ) ॥ १२० ॥ दूसराका उपकारके योग्य, (त्रि०)॥१२३॥ शरीर, चिकित्साके योग्य, क्षेत्रका | नृण, ( न०)
उपक्रय-चिकित्सा, आरंभ, वध _यचतुर्थ।
(मारना ) (पुं० ) अनुशय-बहुतदिनोंका चेर, पिछ- कादवेय-नाग ( सर्प ), शीशा, ताना, प्रकृति-प्रत्यय-आगम-आ- रांग, ( पुं० ) ॥ १२४ ॥ देशमें विनश्वर, (पुं० ) ॥१२१॥ अन्तशय्या-मरना, भूमिशय्या, इम- चन्द्रोदय-चंदोवा, (पुं० ) औषधी
शान ( मरघट ) ( स्त्री० ) भेद (स्त्री० ) अपसव्य-दहना-हाथ आदि, प्रति. जलाशय-तालाब आदि, (पुं० ) कूल, (त्रि०) ॥ १२२ ॥ । खस, (न०) ॥ १२५ ॥
१८
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२७४
विश्वलोचनकोश:
तण्डुलीयो विडङ्गद्रावल्पमारिषताप्ययोः । तृणशून्यं तु केतक्याः फले मध्यां च निस्तृणे ॥ १२६ ॥ धनजयोsh ककुभे नागदेहानिलेऽर्जुने |
निरामयं हुडुक्के स्यात्कल्पे त्रिषु निरामयः ॥ १२७ ॥ परिधायो जलस्थाने नितम्बे च परिच्छदे | पाञ्चजन्यो हरेः शङ्खे शङ्खपोटगलेऽनले ॥ १२८ ॥ पौरुषेयस्तु पुरुषविकारेऽपि पदान्तरे ।
पुंसः समूहवधयोः पुरुषेण कृते त्रिषु ॥ १२९ ॥ क्लीबं प्रतिभयं भीतौ वाच्यवत्तु भयानके । प्रतिश्रयः सभायां स्यादाश्रयेऽपि प्रतिश्रयः ॥ १३० ॥
फलानामुदये लाभे त्रिदिवेऽपि फलोदयः । मतो विलेशयः पुंसि मूषिकेऽपि भुजङ्गमे ॥ १३१ ॥
तंडुलीय-बायबिडंग-वृक्ष, चौलाई
शाक, सोनामाखी, ( ( पुं० ) तृणशून्य - केतकीका फल,
मल्लिका ( मोतिया ) ( न० ) तृणरहित ( त्रि० ) ॥ १२६ ॥
श
धनंजय- अग्नि, कोह-वृक्ष, सर्प, रीरका वायु, अर्जुन, (पुं० ) निरामय - वाद्यभेद (एक बाजा), (न० )
समर्थ (नीरोग) ( त्रि० ) ॥ १२७ ॥ | परिधाय - जलस्थान, नितंब, परि
[ यान्तवर्गे
कर, (पुं० ) पांचजन्य - विष्णुका शंख, शंख - मात्र,
काश या देवनल, अग्नि (पुं० )
।। १२८ ।।
पौरुषेय - पुरुषविकार,
पदान्तर, ( त्रि० ) समूह, वध, ( पुं० ) पुरुषका कियाहुवा ( त्रि० ) ॥ १२९ ॥ प्रतिभय-भय, ( न० ) भयानक, ( त्रि० ) प्रतिश्रय सभा, आश्रय, (पुं० )
॥ १३० ॥
फलोदय-फलोंका उदय,
स्वर्ग, (पुं० ) विलेशय-मूसा,
॥ १३१ ॥
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लाभ,
सर्प, (पुं० )
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यचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
भागधेयं स्मृतं भाग्ये पुंसि स्यात्करभागयोः । भूतेन्द्रियं तु करणशब्दगोचरसंहतौ ॥ १३२ ॥ महोदयः समुदये कान्यकुब्जापवर्गयोः । महालयो विहारेऽपि तीर्थेऽपि परमात्मनि ॥ १३३ ।। महामूल्यं पद्मरागे महाघे त्वभिधेयवत् । मार्जारीयस्तु शूद्रे स्याद्विडाले कायशोधने ।। १३४ ॥ रोहिणेयः प्रलम्बन्ने बुधे वत्से तु वाच्यवत् । वैनतेयस्तु कथितो गरुडे गरुडाग्रजे ।। १३५ ॥ उत्सेधेऽपि विरोधेपि पुमानेव समुच्छ्रयः। मतः समुदयो वृन्दे संयुगे समुपक्रमे ।। १३६ ॥ समुदायः समूहे स्यात्समुद्भूतौ रणेऽपि च । संपरायस्तु सङ्ग्रामे विपदुत्तरकालयोः ॥ १३७ ॥ समाह्वयो रणे नाम्नि क्रीडायां पशुपक्षिभिः ।
स्थूलोञ्चयस्त्वसाकल्ये गण्डोपलबरण्डयोः ॥ १३८ ॥ भागधेय-भाग्य, (न०) कर (दंड), रोहिणेय-शूद, बुध-ग्रह, (पुं० ) विभाग, (पुं०)
प्रिय, (त्रि.) भूतेंद्रिय-करण ( इंद्रिय), शब्द वैनतेय-गरुड, अरुण, (पुं०)॥१३५॥
आदि गोचर, समूह (न०), समुच्छ्रय-ऊँचापन, विरोध, (पुं०) ॥ १३२ ॥
समुदाय-समूह, युद्ध, प्रारंभ या महोदय-अच्छे प्रकारसे उदय, उद्गम (पुं०)॥ १३६ ॥
कान्यकुब्ज, मोक्ष, (पुं० ) समुदाय-समूह, उद्भव, रण, (पुं०) महालय-विहार ( क्रीडा), तीर्थ, संपराय-संग्राम, विपत् , उत्तर
परमात्मा, (पुं० )॥१३३ ॥ काल, (पुं० )॥ १३७ ॥ महामूल्य-पुक्खराज, ( न०) बहु- समाह्वय-रण, नाम, पशुपक्षियों त कीमतवाला, (त्रि.)
करके क्रीडा, (पुं०) मार्जारीय-शूद्र, बिलाव, शरीरशो. स्थूलोच्चय-असंपूर्णता, पर्वतसे गिरा धन, (पुं०)॥ १३४ ॥
शृंग, मुखरोग, ॥ १३८ ॥
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२७६
विश्वलोचनकोशः- [ यान्तवर्गेस्थूलोच्चयो मतङ्गानां स्थान्मध्यमगतेऽपि च । हिरण्मयः स्वर्णमये लोकधात्रन्तरे पुमान् ॥ १३९ ।।
यपञ्चमम् । कालानुसायं कालेये शैलेये शिंशपाद्रुमे । मतं तु दुग्धतालीयं दुग्धाने दुग्धफेनके ।। १४० ॥ स्यादुग्धचमसेऽप्येतत्खण्डकीटे पुमानयम् ।। त्रिषु प्रवचनीयं स्यात्मवाच्येऽपि प्रवक्तरि ॥ १४१ ॥ वृषाकपायी श्रीगौरीजीवन्तीपु शतावरौ ।
यषष्ठम् । प्रत्युद्गमनीयमुपस्थेये धौतांशुकद्वये । विष्वक्सेनप्रिया तु स्यात्कमलात्रायमाणयोः ।। १४२ ॥
इति विश्वलोचने यान्तवर्गः ॥
हस्तियोंका मध्यम गमन, (पुं० ): वृषाकपायी-लक्ष्मी, गौरी, जीवंती, हिरण्मय-सुवर्णमय, लोकधातृ शतावरी, ( स्त्री. ) ( ब्रह्मा ) ( पुं० ) ॥ १३९॥
यषष्ठ । यपंचम। कालानुसार्य-काल में होनेवाला प्रत्युद्गमनीय-आगेसे उठनेके योग्य शिलाजीत, सीसम-वृक्ष, ( न०)
___ या धौतवस्त्रजोड़ा (न.) दुग्धतालीय-दुग्ध-आम्र, दुग्धका विष्वक्सेनप्रिया-लक्ष्मी,त्रायमाणफेन ( झाग) ॥ १४० ॥ दुग्ध- औषधि, ( स्त्री० ) ॥ १४२ ।। पीनेका पात्र, (न०) शक्करका
इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें कीट (पुं० ) प्रवचनीय-कहनेके योग्य, कहने
यान्तवर्ग समाप्त हुआ ॥ वाला, (त्रि.) ॥ १४१॥
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रद्वितीयम् ।]
२७७
भाषाटीकासमेतः। अथ रान्तवर्गः।
रैकम् ।
रस्तु कामाऽनले वह्नौ तीक्ष्णे रास्त्वर्थरुक्मयोः । रुर्ना शब्दे भये भागे रीः श्रोतरि भुवि स्त्रियाम् ॥ १ ॥ क्रेतरि क्रीः क्रये तु स्त्री घ्रा घ्राणे घ्रातरि स्मृतः । दुर्वृक्षेऽपि दुमेऽपि स्याहः स्वर्णे कामरूपिणि ॥ २॥ श्रीलक्ष्मीभारतीशोभाप्रभासु सरलद्रुमे । वेशत्रिवर्गसम्पत्तौ शेषापकरणे मतौ ॥ ३ ॥ शुः स्रवे निर्झरे चाथ ही/डे लज्जिते त्रिषु ।
रद्वितीयम् । अग्रं त्रिषु प्रधाने स्यादग्रं मूर्धाधिकादिपु ॥ ४ ॥ पुरस्तात्पलमाने च बातेप्यालम्बनान्तयोः । अतिः पुंस्येव चरणे मूलेऽपि च महीरुहे ॥ ५ ॥ अथ रान्तवर्गः । श्री-लक्ष्मी, सरखती, शोभा, प्रभा, रैक।
(स्त्री०) सरल-वृक्ष, वेश (शृंगार), र-कामाग्नि, अग्नि, तीक्षण, (पुं०) । त्रिवर्गसंपत्ति, शेषका नहीं करना, रा-द्रव्य, सुवर्ण, (पुं० )
बुद्धि, ( स्त्री०) ॥ ३ ॥ रु-शब्द, भय, भाग, (पुं०) स्नु-स्रव (झिरना), निझर (कुँवारा), री-श्रोता (पुं०) पृथ्वी, (स्त्री.)॥१॥ ही-लज्जा, ( स्त्री०) लज्जावान,(त्रि०) क्री-खरीदनेवाला, (पुं० ) खरी
रद्वितीय । दना, ( स्त्री.)
अग्र-आदि, (त्रि. ) मस्तक, अधिक ध्रा-नासिका, ( स्त्री०) सूंघनेवाला, आदि, ॥४॥ अगाड़ी, पल (पुं० )
(४ तोला प्रमाण) समूह, आलद्रु-वृक्ष, कल्पवृक्ष, सुवर्ण, यथेच्छरूप म्बन, अन्त, ( न० )
धारण करनेवाला, (पुं० ) ॥ २ ॥ अंघ्रि-पाँव, जड़, वृक्ष, (पुं० )॥५॥
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विश्वलोचनकोश:
अद्रिः शैले मे सूर्येऽप्यभ्रं खे गिरिजेऽम्बुदे | स्वर्गेप्यथाऽरं शीघ्रे स्याच्चक्राने शीघ्रगे त्रिषु ॥ ६ ॥ अस्त्रं तु शोणिते लोभेऽप्यस्रः स्यात्कोणकेशयोः । अस्त्रं प्रहरणे चापेऽप्यार्द्रा मे स्तिमिते त्रिषु ॥ ७ ॥ आरा तु चर्मवेधन्यामारो भौमे शनैश्चरे । आरुर्ना द्रुमभेदे स्यादपि कर्कटदंष्ट्रिणोः ॥ ८ ॥ इन्द्रः शक्रात्मसूर्येषु योगेऽपीन्द्रा फणिज्जके । इरा तु मदिरावारिभाव्यसनभूमिषु ॥ ९॥ उग्रस्तीत्रे त्रिषु क्षात्राच्छूद्रापुत्रे हरे पुमान् । उग्रा वचाछिक्किकयोरुष्ट्रस्तु स्यात्क्रमेलके ॥ १० ॥ उष्ट्र गोलकिकायां स्यादुष्ट्री करभयोषिति । उस्रा व्युपचित्रायामुत्रस्तु किरणे पुमान् ॥ ११ ॥
२७८
अद्रि पर्वत, वृक्ष, सूर्य, (पुं० ) अभ्र आकाश, धातुभेद, मेघ, स्वर्ग, ( न० )
)
अर - शीघ्र, चक्रका अंग (अरा) (न० शीघ्रचलनेवाला, (त्रि ० ) ॥ ६ ॥
अस्र - रुधिर, लोभ, ( न० ) अस्र - कोण, केश ( बाल ) ( पुं० ) अस्त्र- फेंककर मारनेका हथियार, धनुष, ( न० >
आर्द्रा - एक नक्षत्र, (स्त्री०) ( त्रि० ) ॥ ७ ॥
[ रान्तवर्गे
आरु - वृक्षभेद, कर्कट ( केकड़ा) प्राणी,
डाढवाला प्राणी, ( पुं० ) ॥ ८ ॥ इन्द्र-इन्द्र, आत्मा, सूर्य, योग, (पुं०) इन्द्रा - छोटेपत्तों की तुलसी ( स्त्री० ) इरा - मदिरा, जल, भार, व्यसनभूमि, ( स्त्री० ) ॥ ९ ॥
उग्र - तीत्र, (नि० ) क्षत्रिय से शूद्राका पुत्र, महादेव, (पुं० ) उग्रा- बच, नकछीकनी, (स्त्री० ) उष्ट्र- ऊँट ( पुं० ) ॥ १० ॥ गीला, उष्टी-चावल आदिके धोनेका उपयोगी
पात्र, ऊँटनी, ( स्त्री० )
आरा - चर्मवेधनी ( आर ) ( स्त्री० ) उस्रा - गौ, चीता - औषधि, (स्त्री० ) आर- भौम, शनैश्वर, (पुं० ) उस्र- किरण, (पुं० ) ॥ ११ ॥
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रद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
ऐन्द्रिः काके जयन्ते स्यादोड़ा जनपदान्तरे । ओडो जने जवावृक्षे देशे पुप्पे तु न द्वयोः ॥ १२ ॥ अंङ्गिः पादे च बुध्ने च कद्दुः कनकपिङ्गले ।
२७९
तद्वति त्रिषु कद्रुः स्यात्कदुः स्त्री नागमातरि ॥ १३ ॥ करस्तु पाणिप्रत्यायशुण्डारश्मिघनोपले | कारो बधे तुपारादौ निश्चये यतियत्नयोः ॥ १४ ॥ वलावप्यथ कारा स्याद्बन्धनागारबन्धयोः । सुबन्ते कारिकापीडादूतिकासु प्रसेवके ॥ १५ ॥ कारुः शिल्पिनि शिल्पे च कारके विश्वकर्मणि । कारिः क्रियानापिताद्योः कीरो जनपदे शुके ॥ १६ ॥ कुरुर्नृपान्तरे भक्ते कुरुः श्रीकण्ठजाङ्गले | कृच्छ्रं तु कष्टे पापे च तथासान्तपनादिके ॥ १७ ॥
चाल, (पुं० )
ऐन्द्रि-काग, ( पुं० )
जयंत ( इंद्रपुत्र ) ओडू - जनपद ( देशविशेष ) ( पुं०
कारा बंधनका स्थान, बंधन, सुबन्त, कारिका, पीडा, दूती, वीणाकी तूंबी, (स्त्री० ) ॥ १५ ॥
बहुवचनांत )
ओड़-जन, जया वृक्ष, देश, ( पुं० ) कारु-शिल्पी, शिल्प, करनेवाला,
विश्वकर्मा, (पुं० )
कारि - क्रिया, ( स्त्री० ) नाई आदि, ( त्रि० )
पुष्प, ( न० ) ॥१२॥
(पुं०)
अंत्रि- चरण, वृक्ष की जड, ( पुं० ) कदु सुवर्ण, कुछेक पीला रंग, कुछपीलारंगवाला (त्रि०) माता ( स्त्री० ) ॥ १३ ॥ कर - हस्त, निश्चय, हस्तीकी सूँड, कुरु- नृपभेद, अन्न, महादेव, जांगलदेश, (पुं० )
नाग,
कीर - देशविशेष, ( पुं० बहुवचनांत ) सूवा- पक्षी, (पुं० ) ॥ १६ ॥
किरण, ओला, (पुं० ) कार - मारना, हिमाद्रि (पर्वत), निश्चय, ! कृच्छ्र-कष्ट, पाप, सान्तपन आदियति, यत्न, ॥ १४॥ व्रत, ( न० ) ॥ १७ ॥
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२८० विश्वलोचनकोशः
[रान्तवर्गेक्रूरस्त्रिषु नृशंसे स्यादपि निर्दयघोरयोः । क्रोष्ट्री शृगालिकाक्षीरविदारीलाङ्गलीष्वथ ॥ १८ ॥ देवताडे द्वये तीक्ष्णे त्रिषु ना गर्दभे खरः। खरुर्दशन ईशेऽश्वे दपै पुंसि सिते त्रिषु ॥ १९ ॥ खुरः शफे कोलदले खड्गादेश्वरणेऽपि च । गरो विषे चोपविषे गरं करणरोगयोः ॥ २० ॥ गात्रं गजाग्रजङ्घादिविभागेऽप्यङ्गदेहयोः । गिरिगीी गिरियकग्रावनेत्रगदेषु ना ॥ २१ ॥ गिरिः पूज्येऽन्यलिङ्गः स्याद्भारत्यां भाषणे च गीः। गुरुनिषेकादिकरे पित्रादिसुरमत्रिणोः २२ ।। गुरुस्त्रिषु स्यान्महति दुर्जरे वाऽलघुन्यपि । गुन्द्रस्तेजनके गुन्द्रा मुस्तके भद्रमुस्तके ॥ २३ ॥
कर-हिंसाकरनेवाला, निर्दय, भयंकर। गर-करण, रोग, ( न० ) ॥ २० ॥ (पुं० )
गात्र-जका अग्रभाग, जंघा आदिक्रोष्टी-गीदड़ी, क्षीरविदारीकंद, कलि- विभाग, अंग, शरीर, ( न० )
हारी, ( स्त्री.)॥ १८ ॥ गिरि-निगलना, खिन्न, पर्वत, नेत्ररोग खर-देवताड़, (पुं० स्त्री०) तीक्ष्ण, : (पुं० ) ॥ २१ ॥
(त्रि. ) गर्दभ, (पुं०) गिरि-पूज्य, (त्रि.) खरु-दांत, महादेव, अश्व, अभिमान, गिर-सरस्वती, भाषण, ( स्त्री० ) (पुं०) सफेदरंगवाला, (त्रि.) गुरु-निषेक (गर्भाधान ) आदि ॥ १९ ॥
___ संस्कार करानेवाला, पिता आदि, खुर-पशुका खुर,नख नामका गंधद्रव्य, देवताओंका मंत्री, (पुं० ॥२२॥ ___गैंडा आदिका चरण, ( पुं०) गुरु-महान् , दुर्जर, भारी, (त्रि.) गर-विष, उपविष (धतूरा आदि ) गुन्द्र-सरकंडा, (पुं० ) (पुं०)
गुंद्रा-मोथा, भद्रमोथा, ॥ २३ ॥
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रद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
कुटनटे प्रियङ्गौ च गृध्रो लुब्धे खगान्तरे। गोत्रः क्षोणीधरे गोत्रं कुले क्षेत्रे च नाम्नि च ॥ २४ ॥ सम्भावनीयबोधेऽपि वित्ते वर्त्मनि कानने । गोत्रा भुवि गवां वृन्दे गौरः पुंसि निशाकरे ॥ २५ ॥ गौरः पीतारुणश्वेतविशुद्धेष्वभिधेयवत् । गौरी तु पार्वतीनमकन्ययोर्वरुणस्त्रियाम् ॥ २६ ॥ नदीभिद्यामिनीपिङ्गारोचनीक्ष्माप्रियङ्गुषु । गौरं तु विशदे श्वेतसर्पपे पद्मकेसरे ॥ २७ ॥ घस्रोऽह्नि हिंस्रे घोरस्तु हरे भीमेऽभिधेयवत् । अथ पुंस्येव चक्रः स्याच्चक्रवाकसमूहयोः ।। २८ ॥ चक्रं सैन्ये रथाङ्गेऽपि आम्रजालेऽम्भसाम्भ्रमे । कुलालकृत्यनिष्पत्तिभाण्डे राष्ट्रास्त्रभेदयोः ॥ २९ ॥ अरलू या टॅटू-वृक्ष, फूलप्रियंगू,। नदीभेद, रात्रि, पीलारंगवाली, गो(स्त्री० )
1 रोचन, पृथ्वी, फूलप्रियंगु, (स्त्री०) गृध्र-व्याध, पक्षिभेद, ( पुं० ) गौर-स्वच्छ (सफेद ) ( त्रि.) गोत्र-पर्वत, (पुं०)
। सफेद सरसों, कमलकेसर, (न०) गोत्र-कुल, क्षेत्र, नाम, ॥ २४ ॥ ॥ २७ ॥ __ संभावनीय बोध, धन, माग, वन, प्रय-दिन, हिंसाकरनेवाला, (पुं० ) गोत्रा-पृथ्वी, गौवों का समूह, (स्त्री.) घोर-महादेव, (पुं० ) भयंकर, गौर-चंद्रमा, (पुं० )॥२५॥ गौर-पीला, लाल, सफेद, खच्छ, चक्र--चकवा-पक्षी, समूह, (पुं०)२८ (त्रि.)
चक्र-सेना, रथका पहियाँ, आम्रजाल, गौरी-पार्वती, नहीं उत्पन्न हुवा है। जलोंका श्रमण, कुम्हारके कृत्यके.
रजस् जिसके ऐसी कन्या, वरुणको लिये पात्र, देशभेद, अस्त्रभेद, (न०) स्त्री, ॥ २६ ॥
॥ २९ ॥
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२८२
विश्वलोचनकोशः- [रान्तवर्गेचन्द्रः सुधांशुकर्पूरवर्णकम्पिल्लवारिषु । चरश्वारे चले द्यूतप्रभेदे जङ्गमेऽपि च ॥ ३० ॥ चरुर्भाण्डेपि हव्यान्ने चारश्चरपियालयोः। गतौ बन्धेऽपि चित्रं तु कर्बुराद्भुतयोस्त्रिषु ॥ ३१ ॥ चित्रमालेख्यतिलकव्योमसु स्यान्नपुंसकम् । चित्राऽस्रवन्तीनक्षत्रभुजङ्गाऽप्सरसाम्भिदि ३२॥ चित्राऽखुपर्णीगोडंबासुभद्रादन्तिकासु च । चीरं तु वस्त्रे चूडायां त्रपुण्यालेखरेखयोः ॥ ३३ ॥ चीरी कच्छाटिकाझिल्योश्चक्रम्त्वम्लेऽम्लबेतसे । चुक्री चाङ्गेरिकायां स्याचुकं वृक्षाम्लके मतम् ३४ ॥ मासाद्रिभेदयोश्चैत्रश्चैत्रं मृतकचैत्यके ।
चौरश्चौरे सुगन्धे च छत्रमातपवारणे ॥ ३५ ॥ चन्द्र-चंद्रमा, कपूर, सुवर्ण, कबीला- चित्रा-मूसाकनी, गइँभा, सरिवन, औषधि, जल, (पुं०)
जमालगोटाकी जड़ ( स्त्री० ) चर-चार ( फिरताहुवा ) पुरुष, हि- चीर-वस्त्र, चोटी, सीसा, लेखभेद, लताहुवा, जूवाभेद, जंगम, (पुं०)। रेखा, ( न० ) ॥ ३३ ॥
चीरी-धोतीकी कच्छ, मैंभीरी (वर्षाचरु-भांड ( पात्र ), हव्यअन्न |
| ऋतुमें झी झीं बोलनेवाला प्राणी) (देवान) (पुं० )
(स्त्री०) चार-राजाका गुप्त पुरुष, चरोंजी, चुक्र-खट्टा-द्रव्य, अम्लवेत, (पुं० ) गमन, बंधन, (पुं० )
चुकी-अम्ललोना ( स्त्री० ) चित्र-कबरा, अद्भुत, (त्रि.)॥३१॥ चुक्र-चूका-वृक्ष, ( न० )॥ ३४ ॥ चित्र-आलेख्य ( चित्रनिकालना), चैत्र-चैत्र-मास, पर्वतभेद, (पुं०)
तिलक, आकाश, (न. ) चैत्र-मृतकका चौंतरा, (न. ) चित्रा-नदी, नक्षत्र, सर्प, और अप्सरा चोर-चोर, सुगंध-द्रव्य, (पुं०)
ओंका भेद, (स्त्री० ) ॥ ३२ ॥ छत्र-छत्र, (न०) ॥ ३५ ॥
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रद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
छत्रा मधुरिकायां स्यात्कुस्तुम्बुरुशिलीन्ध्रयोः । जारस्तूपपतौ जारी मता वश्यौषधीभिदि ॥ ३६ ॥ जीरस्तू जीरे खङ्गे च टारो लिङ्गतुरङ्गयोः । तत्रं प्रधाने सिद्धान्ते श्रुतिशाखान्तरेऽपि च ॥ ३७ ॥ कुटुम्बधारणे शास्त्रे कारणे च परिच्छदे । इतिकर्तव्यतायां च सूत्रवायेऽगदोत्तमे ॥ ३८ ॥ तत्रं द्विसाधके पात्रे तत्री स्याद्वल्लकी गुणे । शिरायां च गुडूच्यां च तन्द्री निद्राप्रमीलयोः ॥ ३९ ॥ वस्त्रादिपेटके नावि दशायां च तरिः स्त्रियाम् ।। ताम्र शुल्बे त्रिवरुणे तारोऽत्युच्चध्वनौ त्रिषु ॥ ४० ॥ तारो मुक्तादिसंशुद्धौ तरुणे शुद्धमौक्तिके । तारं तु रजते तारा सुग्रीवगुरुयोषितोः ॥ ४१ ॥
छत्रा-सौंफ, धनियाँ, छत्राक (भौं- तंत्री-बीणाका तार, नाडी, गिलोय, फोड) ( स्त्री. )
(स्त्री.) जार-उपपति, (पुं०)
तन्द्री-निद्रा, आलस्य, (स्त्री०)॥३९॥ जारी-वशीभूत करनेवाली औषधीभेद तरि-वस्त्रआदिकी पेटी, नौका, वस्त्रका (स्त्री० ) ॥ ३६ ॥
पल्ला, ( स्त्री० ) जीर-जीरा, खड्ग, (पुं० ) ताम्र-तांबा, (न० ) रक्तवर्णवाला, टार-लिंग, अश्व, (पुं०)
(त्रि.) तन्त्र-प्रधान, सिद्धान्त, वेदशाखाभेद, तार-अति उच्चध्वनि, (त्रि०)॥४०॥
॥३७॥ कुटुंबधारण, शास्त्र, कारण, | तार-मोती आदिकी संशुद्धि, जवान, सामग्री, निश्चित करना, सूत्रबुनने- स्वच्छमोती, (पुं० ) वाला, उत्तम औषधी, (न० ) तार-चाँदी, ( न०) ॥ ३८ ॥
तारा-सुग्रीवकी स्त्री, वृहस्पतिकी तंत्र-दोयोंका साधक, पात्र, (न०)। स्त्री (सी.)॥ ४१ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [रान्तवर्गे-- बुद्धदर्शनदेव्यां च दृग्मध्यतारके न ना। तीरस्त्रपौ नटे तीरं तटे प्रादुत्तरं च तत् ॥ ४२ ॥ तीव्रमत्यन्तकटुके नितान्ते तद्वतोस्त्रिषु । तीबा तु कटुरोहिण्यामासुरीगण्डदूर्वयोः ॥ ४३ ॥ वेणुके प्राजने तोत्रं दरोऽस्त्री भीतिगर्तयोः । दरी स्यात्कन्दरे स्त्री तदीषदर्थे दराऽव्ययम् ॥ ४४ ॥ दस्रः खरेऽप्याश्विनेये दारु स्याद्देवदारुणि । अस्त्री स्वारेऽप्यथ क्लीबं द्वारं द्वाराऽभ्युपाययोः ॥ ४५ ॥ धरः कच्छपनाथे स्याद्विरौ कोसतूलके । धरा धरण्यां स्त्रीणां च गर्भाधारेऽपि मेदसि ॥ ४६ ॥ धात्री त्वामलकीक्षित्योरुपमातरि मातरि । धारस्तु धारासम्पातवर्षणे स्यादृणेऽपि च ॥ ४७ ॥ बुद्धधर्मकी देवी, (स्त्री०) नेत्रका | दस्र-गर्दभ, अश्विनीकुमार, (पुं०) तारा (स्त्री० न० )
दारु-देवदार-वृक्ष (न०) पीतल तीर-रांग, नट, (पुं० ) तीर
(पुं० न० ) तीर-प्रतीर-तट-नदी आदि का, द्वार-दरवाजा, अभ्युपाय ( अंगीकार (न. ) ॥ ४२ ॥
। या उपाय ) ( न० ) ॥ ४५ ॥ तीव्र--अत्यंत चर्चरा, अत्यर्थ, (न०) ___ कटुरसवाला, अत्यर्थवाला (त्रि.)।
धर-कूर्माधिप ( बड़ा कछुवा), पर्वत,
। कपासकी रूई, (पुं०) तीवा-कुटकी, राई, गाँडर दूब,(स्त्री.)
धरा-पृथ्वी, स्त्रियोंका गर्भाशय, मेद, तोत्र-चावुक, पैनी, ( न. )
(स्त्री०)॥ ४६ ॥ दर-भय, खड्डा, ( पुं० न० ) धात्री-आँवला, पृथ्वी, धाय ( स्तन दरी-गुफा, (स्त्री०)
___प्यानेवाली), माता (स्त्री०) दर-ईषत्का अर्थ ( थोड़ा) (अ-धार-धारापूर्वक बरसना, ऋण, व्यय ) ॥ ४४ ॥
} (पुं० ) ॥ ४७ ॥
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रद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः । धारा पसौ द्रवद्रव्यस्रवेऽश्वगतिपञ्चके । खड्गादीनां मुखे सेनाग्रिमस्कन्धपुरान्तरे ॥ ४८ ॥ भृङ्गारादेश्च नालायां धाराभ्यासे नुतावपि । हरिद्रानिशयोश्चाथ धीरः स्यात्पुंसि पण्डिते ॥ ४९ ॥ धैर्यशालिनि मन्दे च त्रिषु धीरं तु कुङ्कुमे । नक्रस्तु पुंसि कुम्भीरे ननं घ्राणेऽपदारुणि ।। ५० ॥ नरः पार्थाजयोमर्ये रामकर्पूरके नरम् । नारस्तु तन्दुके नीरे नीध्रः पुंसि निशापतौ ॥ ५१ ॥ नीधं वलीके नेमौ च रेवतीतारके बने । नेत्रं विलोचने वृक्षमूले वस्त्रे गुणे मथि ।। ५२ ।। नेत्रं रथेऽपि नद्यां च नेत्रो नेतरि वाच्यवत् । पत्रं पणे च पक्ष्मे च नृत्योद्यतनटेपि च ।। ५३ ।।
धारा-पंक्ति, पतला द्रव्य (जलआदि)। तृणविशेष ( रोहिससोधिया )
का झिरना, अश्वकी पाँच गति, (न० ) खड्गआदिकी धार, सेनाका अग- नार-सिरसों, जल, (पुं०) लाभाग, पुरभेद, ॥ ४८ ॥ झारी- नीध्र-चंद्रमा, (पुं० ) ॥५१॥छप्पआदिकी, नालीमें धारा निरंतरता, रका अंत ( औलाती ), कूएकी स्तुति, हलदी, रात्रि, ( स्त्री०) रस्सीआदि रखनेका यंत्र, रेवती धीर-पंडित, ॥४९।। धैर्यवान, (पुं०)। नक्षत्र, वन, (न.)
मन्द (त्रि.) केसर (न.) नेत्र-नेत्र, वृक्षकी जड़, वस्त्रभेद, दधि नक्र-ग्राहविशेष (नाका), नासिका, आदिमथनेकी रस्सी,॥ ५२ ॥ रथ, थंभोंके ऊपरका काष्ट (न०) नदी, (न० ) लेजानेवाला (त्रि.)
पत्र-पत्ता, नेत्रकी पलक, नृत्यमें उद्यत नर-अर्जुन, विष्णु, मनुष्य, (पुं०)। नट ( पुं० ) ॥ ५३ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [ रान्तवर्गेऋत्विगादौ पात्रं स्यात्पारः ? एरंजयन्तमाः। कर्करीपूरयोः पारी पारी पूरपरागयोः ।। ५४ ॥ हस्तिनः पादरज्यां च पुण्ड्राः स्युनींवृदन्तरे । पुण्ड्रो वासन्तिकायां च दिक्षु दैत्यप्रभेदयोः ॥ ५५ ॥ पुण्ड्रस्तिलकभेदेपि पुण्डरीके कृमावपि । पुरं पाटलिपुत्रे स्यादृहोपरिगृहे गृहे ॥ ५६ ॥ पुरं देहे गुग्गुलौ तु पुरः पुरि पुरं न ना । दशपूर्वस्तु वालेये पूर्वकाले पुराऽव्ययम् ॥ ५७ ॥ पुरुः खर्गे परागे च पुरुः प्राज्यनृपान्तरे । पूरो वारिप्रवाहे स्यात्पूरः स्यास्पिष्ट कान्तरे ॥ ५८ ॥ पोत्रं वजे मुखाने च सूकरस्य हलस्य च । पौरः पुरभवे वाच्यलिङ्गं पोरं तु कत्तृणे ॥ ५९ ॥
पात्र-ऋत्विक् आदि, ( न०) । दशपुर-गर्दभ, ( पुं०) पार-......(पुं०)
पुरा-पूर्वकाल, ( अव्यय) ॥ ५७ ॥ पारी-झारी, जलकी वृद्धि, व्रणशुद्धि,
पुरु-स्वर्ग,पुखराज, बहुत, एक राजा, पुष्पकी रज, ॥ ५४ ॥ हस्तीके पाँ-13 वकी रस्सी, ( स्त्री० )
(पुं० ) पुण्ड-देशविशेष (पुं० वहुवचनांत )/पूर-जलप्रवाह, पिष्टभेद, (पुं० )
जूही-पुष्पबेल, इक्षुभेद, दैत्यभेद, ॥५८ ॥ ॥ ५५ ॥ तिलकभेद, कमल, कृमि पोत्र-बन, सूकरके मुखका अग्रभाग, (कीड़ा) पुं० )
___ हलका अग्रभाग, ( न०) पुर-पटना शहर, घरके ऊपर घर, पौर-पुरमें होनेवाला मनुष्यआदि,
घर, ॥ ५६ ॥ शरीर, ( न०) (त्रि०) सुगंधिक तृण, ( रोहिस) पुर-गूगल, (पुं०)
। ( न०)॥ ५९॥
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रद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
२८७ वक्रः शनैश्चरे वक्रं पुटभेदेऽथ वाच्यवत् । वक्रः स्यात्कुटिले क्रूरे वधं त्रपुवरत्रयोः ।। ६० ॥ बभ्रर्मेनौ कृशानौ च नकुले च हरीशयोः । पिङ्गलेऽपि विशालेऽपि वधुः स्यादभिधेयवत् ॥ ६१ ॥ त्रिफलायां वरा प्रोक्ता शतावर्या मता वरी। वारः सूर्यादिदिवसे द्वारेऽप्यवसरे हरे ॥ ६२ ।। कुजवृक्षे च गन्धे च वारं स्यान्मद्यभाजने । वारी तु गजबन्धन्यां घटिकायामपि स्मृता ।। ६३ ।। वारिः सरस्वतीदेव्यां वारि ह्रीबेरनीरयोः । वास्रः पुंसि दिने वास्रं मन्दिरेऽपि चतुप्पथे ॥ ६४ ।। वीरस्तु सुभटे श्रेष्ठे वीरं शृङ्गयां नते त्रिपु । वीरा तु रम्भागम्भारीतामलक्यैलबालुघु ॥ ६५॥
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वक्र-शनैश्चर-ग्रह, (पुं० ) पुट (पत्र- चिरचिरा-वृक्ष, गन्ध, (पुं०) मदिपात्र ) भेद, (न० )
रापात्र, (न.) वक्र-कुटिल, कूर, (त्रि.) वारी-गजबंधनी, हाथीको बाँधनेकी वध्र-सीसा, बाधी ( चर्मरज्जु) (न.) जगह, कलशी, ( स्त्री. )॥ ६३ ॥ ॥ ६० ॥
वारि-सरस्वती देवी, ( स्त्री०) बभु-मुनिभेद, अग्नि, नौला, (पुं०)
वारि-नेत्रबाला, जल, (न०) विष्णु, महादेव, ( पुं०) बभ्र-पिंगलवर्णवाला, विशाल (बडा) वास्त्र-दिन, (पुं०) मन्दिर, चौपट(त्रि. ) ॥ ६१ ॥
रास्ता, ( न० ) ॥ ६४ ॥ वरा-त्रिफला, (स्त्री० )
वीर-योधा, श्रेष्ठ (पुं०), काकड़ासींगी, वरी-सतावर, ( स्त्री० )
(न०) तगर (त्रि.) वार-सूर्य आदिका दिन, द्वार, अवसर, वीरा-केला, कंभारी, भुईआँवला,
महादेव, ॥ ६२ ॥ __ एलवा, ( स्त्री०)॥ ६५॥
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विश्वलोचनकोश:- [रान्तवर्गेस्त्री सुराक्षीरकाकोलीपतिपुत्रवतीष्वपि । गोष्ठोदुम्बरिकाक्षीरविदार्योरपि सा स्मृता ॥ ६६ ॥ वृत्रो दानवशक्रादिध्वान्तवारिदवैरिषु । भद्रो हरे रामबले वृषे मेरुकदम्बके ॥ ६७ ॥ लक्ष्मणाद्योऽवशः शीघ्रं यः प्रकुप्यति कोपितः । गजे तत्राऽपि भद्रः स्याद्वाच्यवच्छ्रेष्ठसाधुनोः ॥ ६८ ॥ भद्रं तु करणप्रीतिमुस्तकक्षेमहेमसु । भद्रा तु जाह्नवीराना कृष्णानन्तासु कट्फले ।। ६९ ।। भद्रा भद्रालिकायां च गम्भार्या हेमदुग्धके । भरस्त्वतिशये भारे भरुभर्तरि काञ्चने ॥ ७० ॥ भारस्तु वीवधे स्वर्णपलानामयुतद्वये । वाच्यवत्कातरे भीरु भीरुरिन्द्रीवरीस्त्रियोः ॥ ७१ ।।
मदिरा, क्षीरकाकोली, पतिपुत्रवाली । भद्रा-आकाशगंगा, रायसल, पीपल, स्त्री, गोमा, दूधविदारी कंद अनंतमूल, कायफल, ॥६९ ॥ (स्त्री०)॥६६॥
। गंधाली या पसरन, कंभारी, गूलरवृत्र-एक दानव, इंद्रादि, अंधकार,मेघ,
वृक्ष, ( स्त्री०) __शत्रु, (पुं० ) भट-महादेव, रामचंद्र, बलदेव, बैल, भर-अलत भार, ( पु० ) मुमेहका कदंव वृक्ष, ॥६७ ॥ भरु-भर्ता, सुवर्ण, (पुं० ) ॥ ७० ॥ जो लक्ष्मणसे कुपित कियाहुवा शीघ्र
भार-धानआदिका संग्रह या मार्ग, अवशहुवा प्रकोपको प्राप्त हुवा वह
सुवर्ण पलोंका २० सहस्र पल अर्थात् परशुराम, (पुं० ) श्रेष्ठ,
(८००० तोला सुवर्ण) (पुं०) साधु (अच्छा) (त्रि०) ॥ ६८ ॥ भद्र-करण, प्रीति, नागरमोथा, मंगल, भीरु-डरपोर, शतावर या कटेहली, सुवर्ण, (न०)
स्त्री, (स्त्री० ) ॥ ७१ ॥
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रद्वितीयम् । भाषाटीकासमेतः।
भूरि प्राज्ये सुवर्णे च भूरिब्रह्मेशशौरिषु । मनो वेदान्तरे गुप्तवादे देवादिसाधने ॥ ७२ ॥ मरुर्धन्वनि शैले च मात्रं कात्येऽवधारणे । मात्रा परिच्छदे वित्ते मानेऽल्पे कर्णभूषणे ॥ ७३ ॥ अक्षिभागेऽप्यथो मारो विन्ने मृत्यौ स्मरे वृषे । मारी जनक्षये चण्ड्यां मित्रं सख्यौ रवौ पुमान् ॥ ७४ ।। मीरोब्धिशैलनीरेषु मुरो दैत्ये मुरौषधे । यात्राऽनुवृत्तौ गमने यापने देवतोत्सवे ।। ७५ ॥ विषयोत्पातयो राष्ट्रमस्त्री दैत्ये मृगे रुरुः । रेत्रं रेतसि पीयूषे पारदे पटवासके ॥ ७६ ॥ रोध्रः साबरके लोध्रो रोधं पापापराधयोः । रौद्री तु चण्ड्यां रौद्रस्तु त्रिषु तीने भयानके ।। ७७ ।।
-----... -------------- भूरि-बहुत ( त्रि० ) सुवर्ण, ( न०) मीर-समुद्र, पर्वत, जल, (पुं० ) भूरि-ब्रह्मा, महादेव, कृष्ण, (पुं०) मुर-दैत्य, (पुं० ) मन्त्र-वेदभेद, गुप्तसलाह, देवआ-मुरा-कपूरकचरी, ( स्त्री.)
दिकोंका साधन, (पुं०)॥ ७२ ॥ यात्रा-अनुवर्तन, गमन, भेजना, देवमरु-मारवाड देश, पर्वत, ( पुं०) ताका उत्सव ( स्त्री० ) ॥ ७५ ॥ मात्र-संपूर्णता, निश्चय (न. ) राष्ट-देश, उत्पात, (पुं०न०) मात्रा-उपकरण (सामान ), द्रव्य, कल-दैत्यविशेष, मृगविशेष, (पुं० )
परिमाण, अल्प, कर्णभूषण, नेत्रत्र-वीर्य, अमृत, पारा, बकुचा, भाग, (स्त्री.)॥ ७३)
(न०) ॥ ७६ ॥ मार-विघ्न, मृत्यु, कामदेव, बैल,(पुं०)
रोध-लोध्र-लोध, (पुं०) मारी-जनोंका नाश, चंडी (देवी)
रोध्र-पाप, अपराध, ( न०) (स्त्री० ) मित्र-सखा, (न०) सूर्य, (पुं०) रौद्री-चंडी (देवी) (स्त्री.)
रौद्र-तीव्र, भयानक, (त्रि.)[७७॥
१९
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विश्वलोचनकोशः- [रान्तवर्गेरौद्रं स्यादातपे क्लीबं रौद्रो नाट्यरसान्तरे । छन्दोभेदे मुखे वकं स्याद्वज्रा तंत्रिकौषधौ ।। ७८ ॥ वनोऽस्त्री हीरके शम्बे वज्रो योगान्तरे पुमान् । क्लीबं स्यादारनालेऽपि वक्रं वामेऽलकेपि च ॥ ७९ ॥ वप्रस्तातेऽस्त्रियां तीरे तु क्षेत्रचयरेणुषु । वेरं शरीरकाश्मीरवार्ताकीषु नपुंसकम् ॥ ८० ।। व्याकुलाशक्तयोर्व्यग्रो व्याघ्रो द्वीपिकरञ्जयोः । शरस्तेजनके काण्डे शरं नीरे नपुंसकम् ॥ ८१ ॥ छुरिकायां मता शस्त्री शस्त्रमायुधलोहयोः । शारस्तु शबले वाते शारिः शाकुनिकान्तरे ॥ ८२ ॥ युद्धार्थगजपर्याणे नाऽक्षोपकरणे पणे । आज्ञायामागमे शास्त्रं शिग्रुः काक्षीवशाकयोः ।। ८३ ॥
.
..---
रौद्र-धूप, (न०)
व्यग्र-व्याकुल, अशक्त, (पुं० ) रौद्र-नाट्यभेद, रसभेद, (पुं० ) । व्यात्र-बघेरा, करंजुवा (पुं० ) वक्र-छन्दभेद, मुख ( न०) शर-सरकंडा, बाण, ( पुं० ) जल वज्रा-गिलोय, (स्त्री० ) ॥ ७८ ॥
(न०)॥ ८१॥
शस्त्री-छुरी, ( स्त्री०) वज्र-हीरा, वज्र-आयुध, (पुं०न०)
| शस्त्र-आयुध ( हथियार ), लोह वज्र-एक योग ( पुं०) कांजी, (न०) (न.) वक-टेढा, जुलफ, (न० ) ॥ ७९ ॥ शार-कबरा (त्रि. ) वायु (पुं०) वप्र-तात, तीर, क्षेत्र, चय ( ढेर ), शारि-पक्षीभेद, ( स्त्री. ) ॥ ८२ ॥ रेणु, (पुं० न० )
युद्धके लिये हस्तीका साजना, चौवेर-शरीर, कंभारी, बैंगन, (न०) पटकी सार, जूवा (पुं०) ॥ ८० ॥
| शिग्रु-सहँजना, शाकमात्र ॥ ८३ ॥
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रद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
२९१ चक्राङ्गोशीरयोः शीघं तूर्णेपि त्रिषु तद्वति । शुक्रः काव्येऽनले ज्येष्ठे शुक्रं रेतोऽक्षिरोगयोः ॥ ८४ ॥ शुक्लेऽपि शुभ्रं त्वभ्रे स्यात्प्रदीप्तश्वेतयोस्त्रिषु । शुरः शूरे भटे ख्यातः शूरः सूर्येपि दृश्यते ॥ ८५ ॥ सत्रं यज्ञे सदादाने कैतवे वसने वने । शरो हारे शरे पुंसि दध्यग्रेऽपि शरः पुमान् ।। ८६ ॥ क्लीवं तु कानने सान्द्रं सान्द्रं त्रिषु घने मृदौ । सारः स्यान्मज्जनि बले स्थिरांशेऽपि पुमानयम् ।। ८७ ॥ सारं न्याय्ये जले वित्ते सारं स्याद्वाच्यवद्वरे । निदाघसलिले सिपः सिप्रा तु सरिदन्तरे ॥ ८८ ॥ सीरस्तु लागले पुंसि सीरो दिनपतावपि । सुरो देवे सुरा तु स्यान्मदिरापानपात्रयोः ॥ ८९ ॥
शीघ्र-चक्रका अंग, खस, जल्दी, सान्द्र-वन, ( न०)
( न०) शीघ्रतावाला, (त्रि.) | सान्द्र-सधन, कोमल ( त्रि०) शुक्र-भार्गव, अग्नि, ज्येष्ठ-मास,(पुं०) सार-मज्जा, बल, स्थिरभाग, (पुं०) शुक्र-वीर्य, नेत्ररोग ( न० ) ॥८४॥ ॥ ८७ ॥ न्याय्य (युक्त ), जल, शुक्लवर्ण, (पुं० )
द्रव्य (न०) श्रेष्ठ (त्रि.) शुभ्र-भोडर, (न०) उद्दीप्त, स- सिप्र-ग्रीष्मऋतुका जल ( पसीना) फेदरंगवाला, (त्रि.)
(पुं० ) शूर-एक यादव, योधा, सूर्य, (पुं०),
सिप्रा-एक नदी, (स्त्री०) ॥ ८८ ॥ सत्र-यज्ञ, सदादान, कपट, वस्त्र, सीर-हल, सूर्य, (पुं० ) __ वन, (न०)
सुर-देवता (पुं०) शर-हार, बाण, ( पुं०)
सुरा-मदिरा, जलआदिपीनेका पात्र, शर-दधिकी मलाई, (पुं०)॥८६॥ (स्त्री०) ॥ ८९ ॥
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२९२
विश्वलोचनकोश:- [ रान्तवर्गसूत्रं तु सूचनाग्रन्थे सूत्रं तंतुव्यवस्थयोः । स्थिरस्तु निश्चले मोक्षे शालपर्णीभुवोः स्थिरा ॥ ९० ॥ स्फारः स्याद्विकटे स्फारः करटादेश्च बुद्बुदे । स्वरोऽकाराद्युदात्तादिमध्यमादिषु निखने ॥ ९१ ॥ स्वरो नासासमीरेऽपि स्वैरं स्वच्छन्दमन्दयोः। स्वरुर्वब्रे शरे यज्ञे यूपखण्डेऽपि च स्वरुः ॥ ९२ ॥ हरिगोविन्दवारीन्द्रचन्द्रवातेन्द्रभानुषु । यमाऽहिकपिभेकाश्वशुके शोकान्तरे त्विषि ॥ ९३ ॥ त्रिषु पिङ्गेऽपि हरिते हारो मुक्तावलौ युधि । हिंस्रा काकादनीमांस्योर्हिस्रः स्याद्धातकेऽन्यवत् ।। ९४ ।। रक्तैरण्डेऽप्यथ व्याघी स्पृश्या श्रेष्ठे परस्थितः ।
शक्रः पुलोमजाकान्ते कुटजेऽर्जुनपादपे ॥ ९५ ॥ सूत्र-सूचनाग्रंथ, तंतु ( सूत), व्यव- सूर्य, ॥ ९३ ॥ धर्मराज, सर्प, व___ स्था ( नं०)
न्दर, मेंडक, अश्व, सूबा (तोता), स्थिर-निश्चल, मोक्ष, ( पुं०)
शोकभेद, कान्ति, (पुं०)पिंगल वर्ण. स्थिरा-शालपणी-औषधि, पृथ्वी, वाला, हरितवर्णवाला (त्रि.)
(स्त्री० ) ॥ ९० ॥ .. । हार-मोतियोंकी लड़ी, युद्ध, (पुं०) स्फार-विकट (सकड़ा),ओलाआदिका ॥ ९४ ॥ बुद्बुदा, (पुं०)
हिंस्रा-काकादनी-वृक्ष या कौआस्वर-अकार आदि, उदात्तआदि, ठोडी, जटामांसी, ( स्त्री० )
मध्यम षड्ज आदि, शब्द (ध्वनि)| हिंस्त्र-घातक ( जीव मारनेवाला) (पुं०)॥ ९१ ॥
(त्रि०) रक्तअरंड, (पुं० ) स्वर-नासिकाका वायु (पुं०) व्याघ्री-कटेहली, ( स्त्री०) व्याघ्र. खैर--स्वच्छन्द, मन्द, (त्रि.) शब्द अन्यशब्दके आगे जुड़ाहुवा स्वरु-वज्र, बाण, यज्ञ, यज्ञस्तंभका श्रेष्ठवाचक कहा है, (पु.)
टुकड़ा (पुं० ) ॥ ९२॥ शक्र-इंद्र, कुडा-वृक्ष, अर्जुन-वृक्ष, हरि-विष्णु, वरुण, चंद्रमा, वायु, इंद्र, (पुं० ) ॥ ९५ ॥
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रद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
२९३
२९३ शद्रिः शचीपती मेघे स्वरुः कुलिशकोपयोः । हीरा पिपीलिकालक्ष्म्योहीरो बजेऽपि शङ्करे ॥ ९६ ॥ होरा रेखान्तरे शास्त्रभेदे राश्यर्द्धलग्नयोः । क्षरो मेघे क्षरं नीरे क्षारः स्याद्भस्मकाचयोः ॥ ९७ ॥ चूर्णादौ धूर्तलवणे रसभेदेऽपि दृश्यते । क्षीरं नीरेऽपि दुग्धेऽपि वटादीनां पयस्यपि ॥ ९८ ॥ क्षुद्रः स्वल्पाऽधमक्रूरकृपणेष्वभिधेयवत् । क्षुद्रा वेश्यानटीव्यङ्गासरघाइतीप्वपि ॥ ९९ ॥ चाङ्गेयाँ कण्टकार्या च हिंस्रामक्षिकयोरपि । नापितस्योपकरणे गोक्षुरे च क्षुरे क्षुरः॥ १० ॥ क्षेत्रं शरीरे दारेषु केदारे सिद्धसंश्रये । क्षौद्रं तु माक्षिके क्लीबं मतं क्षौद्रं पयस्यपि ॥ १०१ ॥ शद्रि-इंद्र, मेघ, (पुं०) क्षीर-जल, दूध, बड़आदिकोंका दूध, स्वरु-वज्र, कोप, (पुं० )
(न० ) ॥ ९८ ॥ हीरा-चीटी, लक्ष्मी, ( स्त्री०)
क्षुद्र-स्वल्प, अधम, क्रूर, कृपण, हीर-वत्र, महादेव, (पुं० ) ॥९६॥ शुद्रा-वेश्या, नटी, अंगहीना, मधुहीरा-रेखाभेद, शास्त्रभेद, राशिका मक्खी, बड़ी कटेहली, ( स्त्री० ) अर्दभाग, लग्न ( स्त्री० )
॥ ९९॥ चूका, कटेहली, जटामांसी, क्षर-मेध, ( पुं०)
मक्षिकामात्र, ( स्त्री. )
शुर-नाईका उस्तरा, गोखरू, तालक्षर-जल, (न.)
मखाना, (पुं०) क्षार-भस्म, काच, ॥ ९७ ॥ चूर्ण क्षेत्र-शरीर, कुटुंबिनी स्त्री, खेत,
आदि, विरियासंचर नौन, रसभेद सिद्धोंकी पृथ्वी, (न०) ॥ १०० ॥ (पुं० )
क्षौद्र-शहद, जल, ( न. ) ॥१०॥
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विश्वलोचनकोश:
तृतीयम् ।
अगुरु स्याच्छिशपायां जोके लघुनि त्रिषु । अङ्कुरः स्यादभिनवोद्भिदि रोम्ण्यप्सु शोणिते ॥ १०२ ॥ अङ्गारस्तुल्मुके न स्त्री पुंस्यङ्गारो महीसुते । वातेऽजिरः प्राङ्गणाङ्गविषये दर्दुरेऽजिरः ॥ १०३ ॥ अन्तरं तु विशेषे स्यादुत्तरीयावकाशयोः । आत्मात्मीयविनांऽतर्द्धिबहिर्म्मध्यावधिष्वपि ॥ १०४ ॥ तादर्थेऽवसरे रन्ध्रेऽप्यन्यार्थेऽपि तथान्तरम् । अपरा तु जरायो स्यादर्वाचीनेऽपरं त्रिषु ॥ १०५ ॥ अपरं त्वधुनार्थेऽपि पश्चाद्गात्रेऽपि दन्तिनाम् । अवरा हिमवत्पुत्र्यां चरमे त्ववरं त्रिषु ॥ १०६ ॥ अवीरा निष्पतिसुता स्त्रियां शौर्योज्झिते त्रिषु । अमरस्तु सुरेऽप्यस्थिसंहारे कुलिशद्रुमे ॥ १०७ ॥
२९४
मेंडक ( पुं० ) ॥ १०३ ॥
अन्तर - विशेष (भेद ), डुपट्टा, अव
काश, आत्मा, आत्मीय, विना, आच्छादन ( ढकना ), बाहिर,
तृतीय ।
अगुरु-शिंशपा (सीसम - वृक्ष ), अ
) लघु ( छोटा )
गर, ( न० (foto) अङ्कुर-वृक्षआदिका नया अंकुर, रोम, जल, रुधिर, ( पुं० ) ॥ १०२ ॥ अङ्गार - मुराड़ ( पुं० न० 1 ) मंगलग्रह, (पुं० )
अवरा - पार्वती, ( स्त्री० )
अजिर - वायु, आँगन, अंग, देश, अवर - उरे होनेवाला, ( त्रि० ) १०६ अवीरा - पतिपुत्ररहिता स्त्री, (स्त्री० ) वीरता से रहित, ( त्रि० ) अमर- देवता,
हडशंकरी - औषधि,
1
[ रान्तवर्गे
मध्य, अवधि, तादर्थ्य, अवसर, छिद्र, अन्यार्थ ( न० ) ॥ १०४ ॥ अपरा - जरायु ( जेर ) ( स्त्री० ) अपर- अर्वाचीन ( उरे होनेवाला ) ( त्रि० ) 11 90's 11 अधुना (अब) का अर्थ, हस्तियों के शरीरका पिछला भाग, ( न० )
थूहर ( पुं० ) ॥ १०७ ॥
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रतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
२९५ अमरा विन्द्रनगरीदुर्वास्थूणागुडूचिषु । अम्बरं रसकपासव्योमरागसुगन्धके ॥ १०८ ॥ गृहे कपाटेऽप्यररमशिरोऽर्काग्मिराक्षसे । असुरो दानवे सूर्ये निशाराश्योर्मताऽसुरा ॥ १०९ ।। अक्षरं न द्वयोर्मोक्षे ब्रह्मणि व्योमवर्णयोः । उत्पत्तिस्थाननिवहश्रेष्ठेषु ख्यात आकरः ॥ ११० ॥ आकार इङ्गितेऽपि स्यात्स्यात्स्थानाह्वानयोरपि । स्यादाधारोऽधिकरणेऽप्यालबालेऽम्बुधारणे ॥ १११ ॥ आसारस्तु प्रसरणे धारावृष्टौ सुहृवले । आह्वरं तिमिरे युद्धे स्वाबलायां वसाध्वसे ॥ ११२ ।। आहारो भोजने पुंसि स्यादाहरणहारयोः ।। इतरः पामरेऽन्यस्मिन्नित्वरो गत्वरेऽन्यवत् ॥ ११३ ॥
अमरा-इंद्रनगरी, दूब, लोहेकी मूत्ति आकार-चेष्टित, स्थान, बुलाना,
या खंभा, गिलोय, ( स्त्री०) (पुं० ) अम्बर-रस, कपास, आकाश, राग, आधार-अधिकरण, वृक्षकी क्यारी,
सुगंधद्रव्य, ( न०)॥ १०८ ॥ जेलका धारणकरना, (पुं०) १११ अरर-घर, किवाड़, (न०) आसार-फेलना, बेगसे वर्षा, मित्र. अशिर-सूर्य, अग्नि, राक्षस, ( पुं०) बल ( पुं० ) असुर-दानव, सूर्य, (पुं० ) आह्वर-अंधकार, युद्ध, अपनी स्त्री, असुरा-रात्रि, राशि, ( स्त्री०)२०९ अपना भय, ( न०) ॥ ११२ ॥ अक्षर-मोक्ष, ब्रह्म, आकाश, वर्ण, आहार-भोजन, हरना, हार, (न०)
(पुं० ) आकर-उत्पत्तिस्थान, समूह, श्रेष्ठ, इतर-नीच, अन्य ( दूसरा ) (त्रि०) ( पुं० ) ॥ ११० ॥
इत्वर-गमनशीलवाला, ॥ ११३ ।।
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२९६
विश्वलोचनकोशः- [रान्तवर्गेइत्वरो दुर्विधे नीचे पथिके क्रूरकर्मणि । ईश्वरो धनसम्पन्ने शिवे व्याधिनि मन्मथे ।। ११४ ॥ ईश्वरी स्वामिनीगौर्योरीश्वरा स्कन्दमातरि । उत्तरं प्रतिवाक्ये स्याद्विराटतनये पुमान् ॥ ११५॥ उत्तरा तु मतोदीच्यामूद्धोदीच्योत्तमे त्रिषु । उदरो जठरे युद्धेऽप्युद्धारस्तूद्धृतौ रणे ॥ ११६ ॥ उदारो दातृमहतोदक्षिणस्थूलयोस्त्रिषु । सर्वशस्याढ्यमेदिन्यां मेदिन्यामपि चोर्वरा ॥ ११७ ॥ ऋक्षरं वारिधारायां पुंसि ऋत्विजि ऋक्षरः । एकाग्रमन्यलिङ्गं स्यादेकतानेऽप्यनाकुले ॥ ११८ ॥ औशीरं चामरे दण्डेऽप्यकोक्त्या शयनाशने । कबुंरं पामरेऽपि स्यात्पुंश्चलेऽप्यथ कर्बुरा ॥ ११९ ॥
दरिद्र, नीच, पथिक (बटाऊ), क्रूर- उद्धार-उद्धार ( उबारना), रण, कर्मवाला, (त्रि.)
(पुं०)॥ ११६ ॥ ईश्वर-धनसम्पन्न, महादेव, व्याधि
| उदार-दाता, महान् (बडा ), चतुर,
स्थूल (मोटा) (त्रि.) वाला, कामदेव, (पुं० ) ॥११४॥
" उर्वरा-संपूर्ण शस्य ( कृषि ) संयुक्त ईश्वरी-स्वामिनी, गौरी, (स्त्री०) भूमि, भूमि-मात्र, (स्त्री० ) ११७ ईश्वरा-पार्वती (स्त्री०) ऋक्षर-जलकी धारा, ( न०) उत्तर-प्रतिवाक्य ( जवाब) (न०) ऋक्षर-ऋत्विज् ( यज्ञकरानेवाला) विराटका पुत्र ( पुं० )! ११५॥ (पुं० )
एकाग्र-अनन्यवृत्ति, अनाकुल (व्याउत्तरा-उत्तर दिशा, ( स्त्री० )
| कुलतारहित (त्रि. ) ॥ ११८ ॥ उत्तर-ऊर्य ( ऊपर ) होनेवाला,
वाला, औशीर-चंवर, डंडा, सोना और उत्तर दिशामें होनेवाला, उत्तम, भोजनकरना, ( न० ) (त्रि.)
कर्बुर-नीच, व्यभिचारी, (पुं०) उदर-जठर ( पेट ), बुद्ध, (पुं० ) कर्बुरा--॥११९॥
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२७
रतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
दुरालभायां दुःस्पर्शाशूकशिंबीशटीषु च ।। कुञ्जरो वारणे सूर्ये विरञ्चिमुनिकुक्षिषु ॥ १२० ॥ कङ्करं तु मतं तके कङ्करं कुत्सिते त्रिषु । कटपू रक्षसीशेऽक्षदेवने सत्ययौवने ॥ १२१ ॥ कटिनं कटिवस्त्रे स्यात्काञ्चीचाङ्गयोरपि । कडारः पिङ्गले दासे पिङ्गवर्णे तु वाच्यवत् ॥ १२२ ॥ कणेरुः करिणीवेश्याकर्णिकारे गणेरुवत् । कदरः श्वेतखदिरे रुग्भेदे क्रकचे सृणौ ॥ १२३ ॥ वा स्त्री तु कन्दरो दर्यामङ्कुशे पुंसि कन्दरः। कन्धरः पुंसि जलदे ग्रीवायां कन्धरा स्त्रियाम् ॥ १२४ ॥ कबरं लवणेऽम्ले च शाककेशभिदोः स्त्रियाम् । नपुंसकं तु क—रं शटीकाञ्चनयोर्मतम् ।। १२५ ॥
असवरग, जवाँसा, कौंच, कचूर ! कणेरु-गणेरु-हथिनी, वेश्या, क(स्त्री)
र्णिकार-वृक्ष या पांगारा (स्त्री०) कुंजर-हस्ती, सूर्य, ब्रह्मा, एक मुनि, कदर-सफेद-खैर, रोगभेद, करोंत, कुक्षि, (पुं० )॥ १२ ॥
अंकुश, (पुं०)॥ १२३ ॥ कङ्कर-छाछ, कुत्सित, (त्रि.) कन्दर-गुफा-(पुं० स्त्री० ) कटपू-राक्षस, महादेव, पासोंसे खेल- कन्दर-अंकुश ( पुं० ) नेवाला, सत्य बोलना, यौवन (पुं०) कन्धर-मेघ ( पुं० )
कन्धरा-ग्रीवा ( गरदन ) ( स्त्री० ) कटित्र-कटिवस्त्र, करधनी, चर्मभेद, ॥ १२४ ॥ (न.)
! कबर-नमक, खट्टा, ( न०) कडार-पिंगल वर्णवाला, दास ,(पुं०) कबरी-शाकभेद, केशविन्यास,(स्त्री०) पिंगल वर्ण, (त्रि०) ॥ १२२ ॥ कबूंर-कचूर, सुवर्ण, (न०) १२५
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२९८ विश्वलोचनकोशः
[रान्तवर्गेकर्परस्तु कपाले स्यादस्त्रभेदकटायोः । कररः खगभित्तिश्च करीरः क्रकचार्थकः ।। १२६ ।। वंशाङ्कुरे करीरोऽस्त्री पुंसि वृक्षान्तरे घटे। करीरी चीरिकायां च दन्तमूले च दन्तिनाम् ॥ १२७ ॥ कर्करी तु गलन्त्यां स्यात्कर्करो दर्पणे दृढे । कबुरो राक्षसे पापे जले हेम्नि च कबुरम् ।। १२८ ॥ कर्बुरा कृष्णवृन्तायां कर्बुरं शबलेऽन्यवत् । कबरी तु शिवायां स्याद्वयाः पुंस्येव कव॒रः ।। १२९ ॥ कलत्रं भूभुजां दुर्गास्थानेऽपि श्रोणिर्भाययोः । कान्तार उपसर्गादौ कोशकारान्तरे पुमान् ॥ १३० ॥ कान्तारं दुर्गमार्गेऽपि महारण्येऽपि न स्त्रियाम् । कावेरी तु नदीभेदे हरिद्रापण्ययोषितोः ।। १३१ ॥
कर्पर-कपाल, अस्त्रभेद, कड़ाह, (पुं०) कर्बुरा-पाडर-वृक्ष या मघवन, (स्त्री०) करर-पक्षीभेद, (पुं०)
कर्बुर-कबरारंगवाला (त्रि.) करीर-करोंत, ॥१२६॥ वंशका अंकुर, कर्वरी-गीदड़ी, ( स्त्री० )
(पुं० न०) कैर-वृक्ष, घट, (पुं०) कर्बुर-बधेरा ( पुं० ) ॥ १२९ ॥ करीरी-ची, ची, बोलनेवाला पंखों- कलत्र-राजाओंका दुर्ग (किलाआदि)
वाला कोट, हस्तियोंके दाँतोंका स्थान, कमर, स्त्री, ( न०) ___ मूल, (स्त्री०)॥ १२७ ॥ कान्तार-उत्पातआदि, कोशकारभेद, कर्करी-चावलआदिको धोनेका पात्र, (पुं० ) ॥ १३० ॥ (स्त्री० )
कान्तार-कठिनमार्ग, बड़ा वन, कर्कर-दर्पण ( शीशा ), दृढ, (पुं०) (पुं० न०) कर्बुर-राक्षस, पापी, (पुं०) कावेरी-नदीभेद, हलदी, वेश्या कर्बुर-जल, सुवर्ण ( न० ) ॥१२८॥ (स्त्री० ) ॥ १३१ ॥
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रतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
२९९ काश्मीरं कुङ्कुमेऽपि स्यादृकपुष्करमूलयोः । किंशारुर्विशिखे सस्यशूके कङ्काख्यपक्षिणि ॥ १३२ ॥ किमीरो दैत्यक्रव्यादभेदयोः कबुरे त्रिषु । वर्णमात्रेऽपि किमीरः किशोरो वाजिबालके ॥ १३३ ॥ सूर्येऽपि तरुणावस्थे तैलपामपि स्मृतः। कुक्कुरः सारमेये स्यादन्थिपणे तु कुक्कुरम् ॥ १३४ ॥ कुञ्जरो हस्तिकरयोर्धातक्यां पाटलौ स्त्रियाम् । कुठरं मैथिले क्लीव कुठरं कवलेऽपि च ॥ १३५॥ कुठारुः पादपेऽपि स्यात्कर्मठेऽपि पुमानयम् । कुमारो बालके स्कन्दे युवराजेऽश्ववारके ॥ १३६ ॥ कीरे च वरुणद्रौ च कुमारं जात्यकाञ्चने ।
कुमारी कन्यकागौोर्नवमल्लयां नदीभिदि ॥ १३७ ॥ काश्मीर-केसर, राजआमवृक्ष, पो. कुंजर-हस्ती, कर (हाथीकी सैंड) ___ हकरमूल, (न०)
। (पुं०) किशारु-बाण, सस्यका तीखाभाग, कंजरा-धायके फूल, पाडर-पुष्पवृक्ष, __ कंक ( सफेद चील ) पक्षी, (पुं०) (स्त्री०)
॥ १३२ ॥ किर्मीर-दैत्यभेद, राक्षसभेद. (पं. कुठर-मैथिल, ग्रास ( न०)॥१३५॥
कबरावर्णवाला (त्रि०) वर्णमात्र. कुठारु-वृक्ष, कर्मकरानेवाला ( पुं०) (पुं० )
कुमार-बालक, खामिकार्तिक, युवकिशोर-घोडाका बच्चा ॥ १३३ ॥ राज, घोड़ा फेरनेवाला, ॥ १३६ ॥
तरुण अवस्थावाला, सूर्य, सरलका सूवा ( तोता ) पक्षी, वरणा-वृक्ष, गौंद या शिलारस, (पुं० )
(पुं० )। कुकुर-कुत्ता, (पुं०)
कुमार-अच्छा सुवर्ण, (न० ) कुकुर-गठिवन या धनहर नामका सु. कुमारी-कन्या, गौरी, नेवारी-पुष्प
गंधद्रव्य (न० ) ॥ १३४ ॥ वृक्ष, नदीभेद ॥ १३७ ॥
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३००
विश्वलोचनकोशः- [ रान्तवर्गेसहायराजिताजम्बूद्वीपेषु च मता स्त्रियाम् । कूर्परो जानुमात्रेऽपि कफोणावपि कूर्परः ॥ १३८ ॥ कुबेरख्यंबकसखे नदीवृक्षे कुविग्रहे ॥ १३९ ।। कुहरः कोटरे छिद्रे नागराजविशेषयोः । कूबरः कुब्जके चारौ त्रिषु पुंसि युगन्धरे ॥ १४० ॥ केदार आलवालेऽद्रौ क्षेत्रभूभेदशम्भुषु । केनारः कुम्भिनरके शिरःकपालसन्धिषु ॥ १४१ ॥ केसरो बकुले सिंहच्छटायां नागकेसरे । पुन्नागेऽस्त्री तु किंजल्के स्यात्तु हिङ्गुनि केसरम् ।। १४२ ॥ कौटिरुनकुले शके शक्रगोपेऽपि दृश्यते । कोटरो नागरे कूपे पुष्करिण्याश्च पाटके ॥ १४३ ॥ खण्डानं योषितां हस्तक्षतभेदेऽभ्रलेशके।। खदिरी शाकभेदे स्यात्खदिरो बालपुत्रके ॥ १४४ ॥ घीकुँवार,हारसिंगार,जम्बूद्वीप(स्त्री.) केसर-बौलश्री, सिंहका स्कंधके केश, कूर्पर-घुटना, कोहनी (पुं० ) १३८ नागकेसर, पुन्नाग-वृक्ष, (पुं०) कुबेर-यक्षराजा, नदीवृक्ष, कुत्सित- पुष्परज, (पुं० न०) हींग (न०) __ शरीरवाला (पुं०)॥ १३९ ॥ ॥ १४२ ॥ कुहर-वृक्षथोथ, छिद्र, नागभेद, राज- कौटिरु-नौला, इंद्र, वर्षामें होनेवाला भेद, (पुं० )
लाल कीट (पुं० ) कबर-कूबड़ा, सुंदर, (त्रि.) जूवाको, कोटर-नगर में होनेवाला जन, कूवा,
धारनेवाला काष्ठ (पुं० ) ॥१४०॥ नदीका पाट ॥ १४३ ॥ केदार-वृक्षकी क्यारी, पर्वत, क्षेत्र- खंडाभ्र-स्त्रियोंके हाथका व्रणभेद,
भेद, पृथ्वीभेद, महादेव, (पुं०) मेघका लेश (न.) केनार-कुंभीपाक नामका नरक, शिर, खदिरी-शाकभेद ( स्त्री.) कपाल, संधि (जोड़) (पुं०)॥१४१॥ खदिर-खैर-वृक्ष (पुं०) ॥ १४४ ॥
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रतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
३०१ खपुरः क्रमुके भद्रमुस्तके लसके पुमान् । खपुरं तूद्वसपुरे खजूरस्तु द्वयो मे ॥ १४५ ।। द्रुणे धूर्तेऽपि खजूरः खजूरं रजते मतम् । पिण्डपूर्वस्तु खजूरो मतः मापालकाम्बके ॥ १४६ ॥ खपरस्तस्करे भिक्षापात्रे धूर्त्तकपालयोः । खिजिराश्च स्त्रियां भूम्नि खिटिरा च शिवान्तरे ॥ १४७ ॥ भिक्षाभाण्डेऽपि भिक्षाणां खटाङ्गे वारिबालके । गर्गरो मीनभेदे स्यान्मन्थन्यां गर्गरी स्त्रियाम् ॥ १४८ ।। गह्वरस्तु गुहायां स्याद्गहने कुञ्जदम्भयोः । गान्धारस्तु खरे देशे गान्धारं रक्तवालुके ।। १४९ ॥ वनेऽपि स्यात्तु गान्धारी धृतराष्ट्रस्य योषिति । गायत्री खदिरे स्त्री स्याच्छन्दोवेदप्रभेदयोः ॥ १५० ॥
खपुर-सुपारी-वृक्ष, भद्रमोथा, (पुं०); गर्गर-मीन ( मच्छी ) भेद, (पुं०)
उजड़ा हुवा पुर, (न०) गर्गरी-मंथनी ( दधिमथनेका पात्र) खर्जर-खजूरका वृक्ष (पुं० स्त्री०) (स्त्री० ) ॥ १४८ ॥
॥ १४५ ॥ खजूर-बीलू, धूर्त, (पुं० ) गह्वर-गुफा, वन, कुंज ( लताओंकी खर्जूर-चाँदी ( न०)
। कुटी ) दंभ (पुं० ) पिंडखजूर-पिंडखजूर (पुं० )१४६ | गान्धार-गानेका एक स्वर. एक देश, खर्पर-चोर, भिक्षापात्र, धूर्त, कपाल (पुं० ) (पुं०)
गांधार-सिंदूर, वन, (न०) ॥१४९॥ खिखिरा (स्त्री० बहुवचन) खिखिरा-गीदड़ी, ॥१४७ ॥ भिक्षा- गान्धारी-धृतराष्ट्रकी स्त्री (स्त्री० )
भाँडा, भिक्षाओंका पात्र, सुगंध- गायत्री-खैर-वृक्ष, छंदोभेद, वेद. बाला, (बी.)
| भेद (गायत्रीमंत्र) (स्त्री.) ॥१५०३
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३०२ विश्वलोचनकोशः
[ रान्तवर्गेकैवर्तीमुस्तके द्वारि पुरद्वारे तु गोपुरम् । घर्घरस्तु चलद्वारिशब्दे घूके नदान्तरे ।। १५१ ।। चमरं चामरे वलयां चमरी मञ्जरौ मृगे। चातुरश्चातुरकवचक्रगण्डौ नियन्तरि ॥ १५२ ॥ दृग्गोचरे चाटुकारे चिकुरश्चञ्चले कचे । गृहे बभ्रौ भुजङ्गे च शैले पक्षिद्रुमान्तरे ॥ १५३ ॥ छित्वरं छेदनद्रव्ये छित्वरो धूर्तविद्विषोः । छिदिरस्तु बृहद्भानुखगरज्जुपरश्वधे ॥ १५४ ॥ जठरं कठिने वृद्धे त्रिषु स्यादुदरेऽस्त्रियाम् । जम्बीरः पुंसि जम्बीरपादपप्रस्थपुष्पयोः ॥ १५५ ॥ जर्जरं वाच्यवज्जीर्णे जर्जरं वासवध्वजे ।
जलेन्द्रो वरुणे सिन्धौ जलेन्द्रो जम्भले मतः ॥ १५६ ॥ गोपुर-केवटीमोथा, दरवाजा, पुरदर- छित्वर-छेदनद्रव्य ( न०) वाजा, ( न.)
छित्वर-धूर्त, शत्रु, (पुं० ) घर्घर-चलताहुवा जलका शब्द,
उल्लू--पक्षी, नदभेद ( घाघर नदी) छिदिर-अग्नि, खग, रस्सी, फरसा (पुं० ) ॥ १५१ ॥
! (पुं० ) ॥ १५४ ॥ चमर-चवँर, बेल ( न०) जठर-कठिन, वृद्ध ( त्रि०) चमरी-मंजरी, मृगभेद ( स्त्री०) जठर-उदर (पेट) (पुं० न०) चातुर-चातुरक-चक्रगंड (कपोलपर )चक्रवाला,प्रेरणेवाला,॥१५२॥
जम्बीर-जंभीरी नींबूवृक्ष, मरुवा,
॥१५५ ॥ नेत्रगोचर, चाटुकार ( खुशामद ) (पुं०)
जर्जर-वृद्ध ( त्रि०) चिकुर-चंचल, केश, घर, नौला, जर्जर-इंद्रध्वज, ( न०)
सर्प, पर्वत, पक्षिभेद, वृक्षभेद, जलेन्द्र-वरुण, समुद्र, जंभीरी नींबू (पुं० ) ॥ १५३ ॥
. (पुं० )॥ १५६ ॥
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रतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
३०३ जमुरिः पुंसि वजे स्याजमुरिः पावके पुमान् । झर्झरः स्यात्कलियुगे वाद्यभेदे नदान्तरे ॥ १५७ ॥ झल्लरी झलरी च द्वे हुडुक्के बालचक्रके । टगरष्टङ्कणे टैरे हेलाविभ्रमगोचरे ॥ १५८ ॥ टङ्कारः शिञ्जिनीध्वाने प्रसिद्धा विस्मयेऽपि च । डिगरो वाच्यवत्क्षेपे डिङ्गरो डङ्गरे पुमान् ॥ १५९ ॥ तिमिरं दृग्गदे ध्वान्ते तीवरो लुब्धकेम्बुधौ । तुम्बरी तु मता शुन्यामाधान्याकयोरपि ॥ १६० ॥ तुषारो हिमतद्भेदशीकरे तद्वति त्रिषु । कषायशृङ्गवृषयोः श्मश्रुपुंसि तु तूवरः ॥ १६१ ।। स्यात्त्वक्पत्री तु कारव्यां त्वक्पत्रं तु वराङ्गके । दण्डारः कुम्भकृच्चके वहने मत्तवारणे ॥ १६२ ।।
जमुरि-वज्र (पुं०)
तीवर-व्याधा, समुद्र, ( पुं० ) जमुरि-अग्नि ( पुं०)
तुंबरी-कुत्ती, अदरक, धनियां झर्झर-कलियुग, वाद्यभाण्ड, एक नद, (स्त्री० ) ॥ १६० ॥ (पुं०) ॥ १५७ ॥
तुषार-हिम ( पाला ), हिमभेद, झल्लरी-झलरी-हुडुक-बाजा, बा- शीकर ( जलकण) ( पुं० ) इन __ लोंका चक्र, ( स्त्री०)
वाला (त्रि.) टगर-सुहागा, काणा, हेला (लीला)
तूवर-कसैला रस, बड़े सींगोवाला
... विभ्रम ( स्त्रीकरण ) विषय, (पुं०)!"
____ बैल, बडी मूछडाढ़ीवाला पुरुष ॥ १५८ ॥ टंकार-धनुषकी ज्याका शब्द,प्रसिद्धि,
र (पुं० ) ॥ १६१ ॥ आश्चर्य, (पुं० )
" त्वक्पत्री-हींगपत्री, ( स्त्री०) डिंगर-क्षेप (फेंकनेकी वस्तु) (त्रि.) त्वक्पत्र-स्त्रीकी योनि ( न०) डिङ्गर-डंगर (पुं० ) ॥ १५९ ॥ दंडार-कुम्हारका चाक, सवारी, तिमिर-नेत्ररोग, अंधकार, ( न०) उन्मत्तहस्ती, ॥ १६२ ॥ ..
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३०४
विश्वलोचनकोशः- इरान्तवर्गेशरयन्त्रे दन्तुरस्तु विषमोन्नतदन्तयोः । दहरो मूषिकायां स्यात्स्वल्पभ्रातरि बालके ॥ १६३ ।। दईरः शैलभेदे स्यात्किञ्चिद्भमे तु वाच्यवत् । दर्दुरो भेकघनयोर्वाद्यभाण्डाद्रिभेदयोः ।। १६४ ॥ दर्दुरा हरकान्तायां ग्रामजाले तु द१रम् । दासेरो दासिकापत्ये त्रिषु पुंसि क्रमेलके ॥ १६५ ॥ दीनारो नाणके स्वर्णमानभेदेऽपि दृश्यते । दुर्द्धरं त्रिषु दुर्भार्ये पुमांस्तु ऋषभौषधौ ॥ १६६ ॥ दैत्यारिस्त्रिदिवे विष्णो द्वापरः संशये युगे । धूसरस्तु खरे खल्पपाण्डुरे तद्वति त्रिषु ॥ १६७ ॥ नरेन्द्रः पृथिवीनाथे विषवैद्येऽपि वार्तिके । गजादौ सरलादयोर्निष्कलायां च नर्मरा ॥ १६८ ॥ शरयंत्र, (पुं० )
| दीनार-नाणा ( द्रव्यमात्र), वर्णमादन्तुर-उँचानीचा, उँचे दाँतोंवाला नभेद, (पुं० ) (पुं० )
दुर्द्धर-दुःखसे धारने के योग्य,(त्रि.) दहर-छोटा मूसा, छोटा भ्राता, बालक ऋषभ-औषधि ( पुं० ) ॥१६६॥ (पुं० ) ॥ १६३ ॥
दैत्यारि-देवता, विष्णु, (पुं० ) दर्दर-पर्वतभेद (पुं० ) कुछेक फूटा- द्वापर-संदेह, द्वापर युग (पुं० )
हुवा पात्र आदि (त्रि.) | धूसर-गर्दभ, थोड़ापीला रंग, (पुं०) दर्दुर-मेंडक, मेघ, वाद्यभेद, पर्वत- थोड़ापीलारंगवाला ( त्रि.) १६७
भेद, (पुं० ) ॥ १६४ ॥ नरेन्द्र-राजा, विषवैद्य, वृत्ति (आ. दर्दुरा-पार्वती, (स्त्री०) । जीविका ) देनेवाला, हस्तीआदि, दर्दुर-ग्रामजाल, (न० )
(पुं० ) दासेर-दासीकी संतान (त्रि. )ऊँट नर्मरा-त्रिधारा, गुफा, कलारहिता (पुं०)॥ १६५ ॥
(स्त्री.) ॥ १६८॥
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रतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
३०५ नागरो नगरोद्भूते विदग्धेऽप्यभिधेयवत् । नागरं मस्तके शुण्ठ्यां रतभेदेऽपि नागरम् ॥ १६९ ।। निकरो निवहे सारे न्यायदेयधनान्तरे । निकारः स्यात्परिभवे धानस्योत्क्षेपणेऽपि च ॥ १७० ॥ सूर्याश्वे फेनकर्पासतुषवह्निः निर्झरः। निर्जरस्त्रिदशे त्यक्तजराके त्वभिधेयवत् ।। १७१ ॥ निर्जरा तु गुडूच्यां स्यात्तालपत्र्यां च दृश्यते । निर्वरं निस्त्रपे सारे निर्भये कठिनेऽपि च !! १७२ ॥ निष्ठुरः कठिनेऽपि स्यात्रपाशून्येऽपि निष्ठुरः। स्यान्नीवरो वाणिजके वास्तव्ये त्रिषु नीवरः ॥ १७३ ॥ पङ्कारः सेतुसोपानशैवले जलकुब्जके । पञ्जरस्तु शरीरे स्यात्पक्षिपाशे तु पञ्जरम् ॥ १७४ ॥
नागर-नगरमें होनेवाला, चतुर, निर्जर-देवता, (पुं० ) वृद्धावस्थार. (त्रि.)
हित (त्रि.) ॥ १७१ ॥ नागर-नागरमोथा, सोंठ, मैथुनभेद निर्जरा-गिलोय, तालपर्णी, (स्त्री.) (न०) ॥ १६९ ॥
निर्वर-निर्लज, सार, निर्भय, कठिन निकर-समूह, सार, न्यायसे देनेयोः |
र (त्रि.)॥ १७२ ॥ ग्य धन, (पुं०)
निष्ठुर-कठिन, लज्जारहित, (त्रि.)
नीवर-वणिजकरनेवाला ( पुं०) निकार-तिरस्कार, धान्यका पिछो- | बसनेवाला, (त्रि.) ॥ १७३ ॥
इना, (पुं० ) ॥ १७० ॥ पंकार-पुल, पैड़ी, सिवाल, काई(पुं०) निर्झर-सूर्यका घोड़ा, झाग, कपास, पंजर-शरीर (पु.)
तुषोंकी अमि, (पुं०) पंजर-पक्षीका पिंजरा (न०) १७४
२०
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विश्वलोचनकोश:
पादालिन्दे पदारः स्यात्पदारः पादधूलिषु । पवित्रमुपवीतांबुताम्रे दर्भेऽपि धर्मणि ॥ १७५ ॥ मेध्ये त्रिप्वथ पाटीरः केदारे तितउन्यपि । मूलके वार्तिके व वेणुसारेऽपि बारिदे ॥ १७६ ॥
३०६
पाण्डुरं स्यान्मरुचके वर्णे ना तद्वति त्रिषु | पामरो वाच्यवन्नीचे मूर्खे स्वस्थेऽपि पामरः ॥ १७७ ॥
राजयक्ष्मणि कीनाशे भक्तशिक्थेपि पार्परः । पापरो भस्ममात्रेऽपि जठरे नीपकेसरे ॥ १७८ ॥
पिञ्जरं कनके पीते त्रिषु पुंसि हयान्तरे । पिठरस्तु मतः स्थाल्यां पिठरं मन्थमुस्तयोः ॥ १७९ ॥ पिण्डारो महिषीपाले क्षेपक्षपणशाखिषु । पीवरः कच्छपे पुंसि पीनेषु त्रिषु पीवरः ॥ १८० ॥
पदार- पादालिन्द, पावोंकी धूलि ( पुं० )
पवित्र - यज्ञोपवीत, जल, ताँबा, कुशा, धर्म ( न० ) पवित्र (त्रि०) ॥१७५॥ पाटीर-खेत, चलनी, मूली, वार्त्तिक ( वृत्तिकरनेवाला ), राँगा, सरलका गोंद, मेघ, (पुं० ) ॥ १७६ ॥ पांडुर - मरुवा ( न० ) श्वेतरंग (पुं०) श्वेतरंगवालां (त्रि ० )
[ रान्तवर्गे
पामर - नीच, मूर्ख, स्वस्थ ( प्रकृति में स्थित ) ( त्रि० ) ॥ १७७ ॥ पार्पर-राजयक्ष्मा रोग, धर्मराज
या मृत्यु, जटार ( जटावाला ), कदंबकेसर, (पुं० ॥ १७८ ॥ पिंजर - सुवर्ण ( न० ) पोलारंगवाला (त्रि ० ) अश्वभेद ( पुं० ) पिठर-
- चावल आदि पकानेका वर्तन, ( पुं० ) दधिआदिमथनेका दंड, नागरमोथा, ( न० ) ॥ १७९ ॥ पिंडार भैंसों का पालनेवाला, क्षेप
( फेंकनेका द्रव्य ), भिक्षुक, वृक्ष, ( पुं० )
पीवर- कछुवा, (घुं० ) मोटा ( स्थूल) ( त्रि० ) ॥ १८० ॥
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रतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
पुष्कर व्योम्नि पानीये हस्तिहस्ताग्रपद्मयोः । रोगोरगौषधिद्वीपतीर्थभेदेऽपि सारसे ॥ १८१ ॥ काण्डे खड्गफले वाद्यभाण्डवक्रे च पुष्करम् । प्रकरो निकुरुम्बे स्यात्प्रकीर्णकुसुमादिषु ॥ १८२ ।। प्रकरं जोङ्गके ज्ञेयं प्रकरी चत्वरावनौ । प्रकारः सदृशे भेदे प्रखरोऽतिखरे त्रिषु ॥ १८३ ॥ प्रखरः स्यात्तुरङ्गादिसन्नाहेऽश्वतरे शुनि । प्रदरः स्त्रीरुजो भेदे प्रदरः शरभङ्गयोः ।। १८४ ॥ प्रान्तरं दूरशून्याऽध्ववनयोरपि कोटरे । प्रवीरः सुभटेऽपि स्यात्प्रवीरः कचिदुत्तरे ॥ १८५ ॥ प्रवरं सन्ततौ गोत्रे प्रवरस्तु वनेऽन्यवत् । प्रकारः सङ्गरे वेशे प्रसरः प्रणयेऽपि च ॥ १८६ ॥
पुष्कर-आकाश, जल, हस्तीकी सूं- अश्वआदिका कवच, खिच्चर, कुत्ता
डका अग्रभाग, कमल, रोगभेद, (पुं०) सर्पभेद, औषधिभेद ( कूट ), प्रदर स्त्रीका रोगभेद (पैरा ), वाण, पुष्करनामक द्वीप, पुष्करतीर्थ, सार- भंग, (पुं० )॥१८४ ॥ स-पक्षी, (त्रि०) ॥ १८१॥ प्रान्तर-लंबा और जलआदिसे बाण, खड्गकी मूठ, वाद्यभांडका मुख शून्यमार्ग, वनवृक्षके भीतरकी थोथ, (पुं० न०)
( न० ) प्रकर-समूह, बिखरेहुए पुष्पआदि, प्रवीर-अच्छा योद्धा, उत्तर (पुं० ) (पुं०)॥ १८२ ॥
॥१८५॥ प्रकर-अगर ( न० ) प्रकरी- प्रवर-सन्तति, गोत्र, (न.)
आँगनकी भूमि ( स्त्री०) . प्रवर-श्रेष्ठ ( त्रि०) प्रकार-सदृश ( तुल्य ), भेद (पुं०) प्रकार-संग्राम, वेश, (पुं०) प्रखर-अतितीक्ष्ण (त्रि०) ॥ १८३ ॥ प्रसर-नम्रता, (पुं०.)॥ १८६ ॥
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विश्वलोचनकोश:- [रान्तवर्गेप्रस्तरः पुंसि पाषाणे मणौ च प्रस्तरः पुमान् । वण्ठरस्तु करीरस्य कोषे स्यात्तालपल्लवे ॥ १८७ ।। वकोटे स्थगिकारज्जौ लाङ्गले कुक्कुरस्य च ।। बदरी कोलिकास्योबदरं तु फले तयोः।। १८८ ।। एलापा तु बदरा विष्णुक्रान्तौषधावपि । बन्धूरबन्धुरौ रम्ये नम्र त्रिष्वथ बन्धुरः ।। १८९ ॥ बन्धूके विहगे हंसे बन्धुरं तून्नतानते ।। वन्धुरा पण्ययोषायां वरत्रा बधिकान्ययोः ॥ १९० ॥ बर्बरः केशविन्यासे पारसीकेऽपि पामरे । वर्वरा फञ्जिकायां च बर्बरा शाकपुष्पयोः ॥ १९१ ॥ बागरो निर्नरे शाणे वारके वारवेष्टयोः।।
बागरो विगतात? मुमुक्षौ च विशारदे ॥ १९२ ॥ प्रस्तर-पत्थर, मणि, (पुं०) बन्धुर-ऊंचानीचा ( न०) वण्ठर-कैरका कोश, ताडके पल्लव बन्धुरा-वेश्या, (स्त्री)
(पत्ते ) (पुं०) ॥ १८७ ॥ कुत्तेकी वरत्रा-चर्मरज्जु, अन्यरज्जु, (स्त्री०) पूंछ (पुं०)
॥ १९ ॥ बदरी-बेरी-वृक्ष, कपास (स्त्री०) बर्बर-केशोंकी रचना, पारसीक-देश, बदर-बेर या कपासका फल (न.) नीच, (पुं०) ॥ १८८ ॥
बर्बरा-भारंगी, शाकभेद, पुष्पभेद, बदरा-रायसन-औषधि, विष्णुकान्ता (स्त्री० ) ॥ १९१ ॥ औषधि ( स्त्री०)
बागर-मनुष्यरहित स्थल, कसौटी, बन्धू(न्धु)र-रमणीक, नम्र, (त्रि.) आसवार,............ बन्धुर- ॥ १८९ ॥
आतंक ( रोगादि) रहित, मुमुक्षु, विजयसार, या दुपहरिया-वृक्ष, विशारद (बुद्धिमान् ) (पुं०) पक्षी, हंस, (पुं०)
॥ १९२॥
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रतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
वासरो दिवसे पुंसि नागभेदेऽपि वासरः। वासुरा वासितायां स्यान्निशाभूम्योश्च वासुरा ॥ १९३ ॥ भार्यारुः क्रीडया यस्य पुत्रोऽभूत्परयोषिति । तस्मिन्मृगाद्रिभेदे च भास्करो वह्निसूर्ययोः ॥ १९४ ॥ भृङ्गारी झिल्लिकायां स्यामृङ्गारः कनकालुके । भ्रमरः कामुके भृङ्गे भ्रामरं माक्षिकाश्मयोः ॥ १९५ ॥ मकरस्तु मराले स्यान्निधिराशिप्रभेदयोः । मकुरो मुकुरश्चैव दर्पणे बकुलद्रुमे ॥ १९६ ॥ मत्सरोऽन्यशुभद्वेषे मात्सर्ये क्रधि मत्सरः । त्रिषु तद्वत्कृपणयोर्मक्षिकायां तु मत्सरा ।। १९७ ॥ मन्दारः सिन्धुरे धूर्ते मधुद्रौ भृङ्गकामिनोः।। मधुरस्तु रसे पुंसि मधुरं तु विषान्तरे ॥ १९८ ॥
वासर-दिन (पुं० ) नागभेद, ! भ्रामर-शहद, पत्थर ( न० )
(पुं० ) वासुरा-हथिनी, रात्रि, पृथ्वी, | मकर-हंस-पक्षी, निधिभेद,राशिभेद, (स्त्री० ) ॥ १९३ ॥
(पुं०) भार्यारु-क्रीडाकरते जिसके परस्त्रीमें मकुर-मुकुर-दर्पण, बौलश्रीका-वृक्ष,
पुत्र हुवा है वह, मृगभेद, पर्वतभेद, (पुं० ) ॥ १९६ ॥ (पुं०)
मत्सर-दूसरेके शुभका द्वेष, मत्सरता, भास्कर-अग्नि, सूर्य, (पुं०)॥१९४॥ क्रोध (पुं० ) गरी-सिलिका भिी भी बोलनेवाला मत्सरता वाला, कृपण (त्रि.)
कीटविशेष) ( स्त्री०) मत्सरा-मक्खी (स्त्री०) ॥ १९७॥ शृंगार-झारी (पुं० )
मन्दार-हस्ती, धूर्त, महुवा-वृक्ष, भ्रमर-कामी-पुरुष, भौंरा, (पुं० ). भौंरा, कामीपुरुष, (पुं०)॥ १९८ ॥
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३१०
विश्वलोचनकोश:
मधुरो रसवत्त्वादुप्रियेषु त्रिषु वाच्यवत् । मधुरा मधुकुक्कुट्यां शतपुष्पाऽपुरीभिदोः ॥ १९९ ॥
[ रान्तवर्गे
मिश्रेयाशुक्रयोर्मेदामधुलीयष्टिकासु च । मन्थरः सूचके कोशे मन्थानेऽप्यथ मन्थरम् ॥ २०० ॥ कुसुंभ्यां मन्धरस्तु स्यान्मन्दे वक्रे पृथौ त्रिषु । मन्दारः स्वर्गमन्दारमन्थशैलेषु पुंस्ययम् ॥ २०१ ॥ मन्दरस्तु मतो मन्दे बहलेऽप्यभिधेयवत् । मन्दिरं नगरेऽगारे मन्दिरो मकरालये ॥ २०२ ॥ मंदारो देववृक्षे स्यात्पारिभद्रार्कपर्णयोः । मन्दुरा वाजिशालायां शयनीयार्थवस्तुनि ॥ २०३ ॥ मयूरः शिख्यपामार्गशिखिचूडासु दृश्यते । मर्मरो वस्त्रभेदेऽपि पत्रभेदेऽपि मर्मरः ॥ २०४ ॥
मधुर-मधुर रसवाला, (पुं० ) विष |
मन्थपर्वत, (पुं० ) ॥ २०१ ॥ मन्दर - मन्द, बहुत ( त्रि० ) मन्दिर - नगर, घर, (न०) मन्दिर -
भेद (न० ) स्वादिष्ट, प्रिय, (त्रि०) मधुरा - एकप्रकारका नीबू, सौंफ, पुरीभेद ( मथुरा ) ॥ १९९ ॥ मगरका स्थान, (पुं० ) ॥ २०२ ॥ सोआ, चीता-वृक्ष, महामेदा, राई, मन्दार-देव-वृक्ष, निंब वृक्ष, आकका जेठीमध (स्त्री० ) पत्ता, ( पुं० ) मन्थर-सूचना करनेवाला, कोश मन्दुरा- अश्वशाला, शय्याकी उप( खजाना ) ( पुं० ) योगी वस्तु ( स्त्री० ) ॥ २०३ ॥ मयूर - मोर, चिरचिटा, मोरशिखा, ( पुं० ) मर्मर - वस्त्रभेद, पत्रभेद, वस्त्र व पत्रका शब्द, (पुं० )
मन्थर-दधिमथनेका डंडा, ( न० )
अर्थात्
॥ २०४ ॥
॥ २०० ॥
) मन्द,
मन्थर - कुसुंभी, ( टेढा, स्थूल (त्रि ० ) मन्दार - स्वर्ग, मन्दार-वृक्ष ( देवतरु),
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रतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
मर्मरी दारुवर्णिन्यां पीतदारौ च मर्मरी। मसुरो मसुरश्चैव ब्रीहिभित्पण्ययोषितोः ॥ २०५ ॥ मसूरा मसुरा चात्र मसूरी पापरुग्भिदि । मिहिरस्तपने बुद्धे महेन्द्रे वासवे गिरौ ॥ २०६ ॥ स्यात्पारिपाश्चिके भानोजिभेदेऽपि माठरः। मायूरं चापि मार्जार क्रीडाबन्धे च तद्गणे ॥ २०७ ।। मार्जार ओतौ खट्टाशे मुदिरः कामुकेऽम्बुदे । लोष्टादिभेदनोपाये मल्लीभेदेऽपि मुद्गरम् ॥ ॥ २०८॥ मुसुरः सूर्यतुरगे तुषवह्नौ च मन्मथे । मुहिरः पुंसि मदने मूर्खे तु मुहिरस्त्रिषु ।। २०९ ॥ रुधिरं कुङ्कुमे रक्ते रुधिरो भूमिनन्दने ।
वठरः कमठेऽपि स्याद्वठरः शठवस्त्रयोः ॥ २१० ॥ मर्मरी-दारुवर्णिनी (......) देव | मार्जार-बिलाव ( मार्जार ), खटाश दारु ( स्त्री. )
(वनमार्जार ) (पुं० ) मसूर-मसुर-व्रीहिभेद, (पुं० ) मुदिर-कामीपुरुष, मेघ, (पुं० ) मसूरा-मसुरा-वेश्या (स्त्री० ) मदर-डला आदिके फोडनेका अस्त्र, ॥ २०५ ॥
____ मल्लिका (मोतिया) भेद (न०)२०८ मसूरी-पाप और रोगभेद, ( स्त्री० ) मिहिर-सूर्य, बुद्ध भगवान् (पुं०) मु
मुर्मुर-सूर्यका अश्व, तुषकी अग्नि, महेन्द्र-इंद्र, पर्वत, (पुं० )॥२०६॥
म
कामद
कामदेव (पुं०) माठर-सूर्य के समीप होनेवाला एक मुहिर-कामदेव, ( पुं० ) मूर्ख
ग्रह, द्विज ( ब्राह्मण ) भेद (पुं०) (त्रि० ) ॥ २०९ ॥ मायूर-मार्जार-क्रीडाबन्ध, (...) रुधिर-केसर, लोही, (न०)रुधिर
और क्रमसे मयूर व मार्जारों मंगल-ग्रह ( पुं० ) ( बिलाओं) का समूह ( न०) वठर-कछुवा, शठ, वन (पुं० ) ॥ २० ॥
॥२१० ॥
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विश्वलोचनकोशः
[रान्तवर्गबर्करस्तरुणे वाच्यलिङ्गो मेषे तु वर्करः। वल्लूरं त्रिषु संशुष्कमांसे मांसे च दंष्ट्रिणः ॥ २११ ॥ वल्लूरस्तूपरे क्लीव वनक्षेत्रेऽपि वाहने । वल्लरी वल्लरं चैव मञ्जर्यामथ वल्लरः ॥ २१२ ॥ शाद्वले निर्झरस्थाने बिल्वक्षेत्रनिकुञ्जयोः । वशिरः सिन्धुलवणकिणिहीभकणार्थकः ॥ २१३ ॥ वारं दक्षिणावर्त्तशर्के वारि च वार्दरम् । वादेरं रक्तगुञ्जायां बीजेपि कृमिजेऽपि च ॥ २१४ ॥ धूपेऽपि पक्षिवासाय गृहकुम्भेऽपि वासतुः। विकारो विकृतौ रोगे विदारो दारणे रणे ॥ २१५ ॥ विदुरः पण्डिते खिङ्गे कौरवाणां च मत्रिणि ।
विधुरं तु प्रविश्लेषे प्रत्यवायेऽपि तन्मतम् ॥ २१६ ॥ व(ब)र्कर-जवान (त्रि०) मेंढा (पुं०) वादर-दक्षिणावर्त्त शंख, जल, लाल वल्लूर-सूखा मांस, सूकरका मांस, धुंधुचीके बीज, बायबिडंग ॥२१४॥ (न० ) ॥ २११॥
वासतु-धूप, कबूतरआदिपक्षियों के वल्लर-ऊपर-भूमि, वनक्षेत्र, वाहन, निवासके लिये घरमें गाडाहुवा कुंभ (न.)
(पुं० ) वल्लरी-वल्लर-मंजरी, (स्त्री० न०) विकार-विकृति, रोग ( वीमारी) ॥ २१२ ॥
(पुं० ) वल्लर-हरिततृणवाली भूमि, झिरना, विदार-फाडना, रण, (पुं० ) बिल्वक्षेत्र ( एक क्षेत्र), निकुंज ॥२१५॥ (लताकुटी)
| विदुर--पंडित, विदग्ध, कौरवोंका वशिर-समुद्र नोंन, चिरचिरा ( अपा मंत्री, (पुं०) मार्ग ), गजपीपल, ( पुं० ) विधुर-अत्यंत वियोग, दोष, (न.) ॥ २१३ ॥
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रतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः । विधुरा तु रसालायां विधुरं विकलेन्यवत् । विवरं वर्त्तते गर्ते दोषेऽपि छिद्ररन्ध्रवत् ॥ २१७ ॥ विसरः प्रसरे पुंसि विसरो निकुरम्बके । विस्तरः पुंसि विस्तारे प्रपञ्चे प्रणयेऽपि च ॥ २१८ ।। विस्तारः पुंसि विटपे विस्तारो विस्तृतावपि । विष्टरः कुशमुष्टौ स्यादासनेऽपि महीरुहे ॥ २१९ ॥ विहारो भ्रमणे स्कन्धे सुगतालयलीलयोः । छन्दोभेदे नदीभेदे मेखलायां च शक्करी ॥ २२० ॥ शङ्करः पार्वतीनाथे त्रिषु कल्याणकारिणि । शणीरं शोणमध्यस्थपुलिने दर्दरीतटे ॥ २२१ ॥ शर्करा शर्करायुक्तदेशे स्यात्कर्षरांशके। शकले खण्डविकृतावुपलायां च तद्भिदि ॥ २२२ ।।
विधुरा-दाख, या सिखरन, (सी.)। नका मंदिर, लीला (पुं० ) विधुर-विकल, ( त्रि.)
शक्करी-छंदोभेद, नदीभेद, मेखला विवर-खड्डा, दोष, (न. ) ( ऐसे (तागडी) (स्त्री०)॥ २२० ॥
ही छिद्र-रंध्र-जानना ॥ २१७॥ शंकर-महादेव ( पुं० ) कल्याण विसर-फैलना, समूह (पुं०) करनेवाला (त्रि.) विस्तर-विस्तार, प्रपंच, नम्रता शणीर-शोणनदके मध्यका टीला,
(पुं० )॥ २१८ ॥ । ( नदीभेद) का किनारा ( न० ) विस्तार-वृक्षकी टहनी आदि, ॥२२१ ॥ विस्तार (पुं०)
शर्करा-शर्करा ( डली) युक्त स्थल, विष्टर-कुशमुष्टि, आसन, वृक्ष (पुं०) स्वप्परका टुकडा, टुकडामात्र, ॥२१९॥
खाँडका विकार (शकर), पत्थरभेद, विहार-भ्रमणा, स्कन्ध, बुद्धभगवा- (स्त्री० ) ॥ २२२ ॥
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३१४
विश्वलोचनकोश:
शर्वरी तु त्रियामायां हरिद्रायोषितोरपि । श ( ब ) वरो म्लेच्छ भेदेऽपि शवरः शङ्करे जले ॥ २२३ ॥ शक्करस्तु बलीवर्दे छन्दोभेदे तु शाक्करम् । शाङ्करिर्विघ्नपे स्कन्दे शारीरो देहजे वृषे ॥ २२४ ॥ शार्क दुग्धफेने स्याद्वाच्यवच्छ करावति । शावरं त्वन्तमसे घातुके त्रिषु शार्वरम् ॥ २२५ ॥ शालारं स्याद्धस्तिनखे सोपाने पक्षिपञ्जरे । शावरो लोध्रवृक्षे स्यात्तथा पापाऽपराधयोः ॥ २२६ ॥ शावरी शूकशिम्ब्यां च तद्भवे त्रिषु शावरम् । शिखरं शैलवृक्षाग्रे कक्षापुलककोटिषु ॥ २२७ ॥ पक्कदाडिमबीजाभमाणिक्यशकलेऽपि च । शिलीन्ध्रस्तु पुमान्मीनभेदे वृक्षप्रभेदयोः ॥ २२८ ॥
खडंजा,
शर्वरी-रात्रि, हलदी, स्त्री ( स्त्री० ) | शालार-पुरदरवाजाका शव (ब) र - म्लेच्छभेद, महादेव, जल पैडी, पक्षीका पिंजरा ( न० )
( पुं० ) ॥ २२३ ॥ शक्कर - बैल (पुं० ) शाक्कर- छन्दोभेद ( न० शांकरि-गणेश,
( पुं० )
शारीर-शरीरसे उत्पन्न होनेवाला (त्रि ० ) बैल ( पुं० ) ॥ २२४ ॥ शार्कर - दूध के झाग ( पुं० ) शर्करा
•)
स्वामिकार्त्तिक,
( डलियों ) वाला देश ( त्रि० ) शार्वर - अंधकार, ( न० :) शार्वर - जीवोंको मारनेवाला (त्रि०)
॥ २२५ ॥
[ रान्तवर्ग
शावर - लोध-वृक्ष, पाप, अपराध, ( पुं० ) ॥ २२६ ॥ शावरी-कौंछ, ( स्त्री० ) शावर - कौंछकी फली आदि ( त्रि० ) शिखर पर्वत या वृक्षकी चोटी, घुंघुची, मुरदासंग या हरताल कोटि (असवरग ) ( न० ) ॥ २२७॥ पके हुए अनारके बीजोंके तुल्य माणिक्यका टुकडा ( न० •) शिलीन्ध्र - मीन ( मच्छी ) भेद, वृक्षभेद (पुं० ) ॥ २२८ ॥
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तृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
शिलीन्धं कवके रम्भापुष्पत्रिपुटयोरपि ।
शिलीन्ध्री विहगीभेदे तथा गण्डूपदीमृदि ॥ २२९ ॥ शिशिरस्तु ऋतौ पुंसि तुषारे शीतलेऽन्यवत् । शीकरः शरले वाते निःसृताम्बुकणेषु च ॥ २३० ॥ शुषिरं विवरे वाद्ये नानौ रन्ध्रवति त्रिषु । शृङ्गारः सुरते नाट्यरसे द्विरदभूषणे २३१ ॥ शृङ्गारं चूर्णसिन्दूरे लवङ्गकुसुमे मतम् । सङ्कारोऽग्निचटत्कारे सम्मार्जन्यपमार्जिते ॥ २३२ ॥ नरदूषितकन्यायां सङ्करी कचिदिष्यते । सङ्गरस्तु प्रतिज्ञाजिक्रियाकारे विषापदोः ॥ २३३ ॥ सङ्गरं स्यात्फले शम्याः सम्भारः सम्भृतौ गणे । संबरस्तु मृगक्ष्माभृद्दैत्यमत्स्यजिनान्तरे ॥ २३४ ॥
३१५
शिलीन्ध्र - कवक (मत्स्यभेद) केलाका | संकार - अमिका चटत्कार ( शब्द ), पुष्प, मटर, ( न० ) झासे इकट्ठा किया कूडा, ( पुं० ) शिलीन्ध्र-पक्षिभेद-मादीन, गिडो ॥ २३२ ॥
( पुं० )
एकी मिट्टी ( स्त्री० ) ॥ २२९ ॥ शिशिर - शिशिर ऋतु पाला, ठंढा ( त्रि० ) शीकर-सरल-वृक्ष, वायु, वायुके प्रेरेहुए जलकण ( पुं० ) ॥ २३० ॥ शुषिर - भूमिछिद्र,
बाजा, अग्नि | संगर- जांटकी ( पुं० ) छिद्रवाला ( त्रि० ) ( न० ) शृंगार- मैथुन, शृंगार रस, हस्तीका आभूषण ( पुं० ) ॥ २३१ ॥ शृंगार - चूर्ण ( पिसा हुवा ) सिंदूर, लौंगका पुष्प ( न० )
संकरी - मनुष्यसे दूषितहुई कन्या ( स्त्री० )
संगर- प्रतिज्ञा, युद्ध, क्रियाकरनेवाला विष, विपत् (पुं० ) ॥ २३३ ॥ फली ( साँगर )
|
संभार - सामग्री, समूह ( पुं० ) संबर- मृग, पर्वत, एक दैत्य, मच्छी, जिन भगवान् (पुं० ) ॥ २३४ ॥
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३१६
विश्वलोचनकोशः- [रान्तवर्गेसंबरं सलिले बौद्धव्रतभेदे घनेऽपि च । संबरी त्वौषधीभेदे सामुद्रं त्वङ्गलक्षणे ॥ २३५ ॥ सामुद्रं स्यात्समुद्रीयलवणादिषु वाच्यवत् । सावित्री देवताभेदे सावित्रः पार्वतीपतौ ॥ २३६ ।। सिन्दूरस्तरुभेदे ना सिन्दूरं रक्तवालुके। सिन्दूरमपि सिन्दूरयुक्तलेखे महीभृताम् ॥ २३७ ॥ सिन्दूरी धातकीरक्तचेलिकारोचनीष्वपि ।। सुन्दरी नायिकाभेदे तरुभेदेऽपि सुन्दरी ॥ २३८ ॥ सुनारस्तु शुनीस्तन्ये सर्पाण्डकलविङ्कयोः। सैरिन्ध्री परवेश्मस्थशिल्पकृत्स्ववशस्त्रियाम् ॥ २३९ ।। वर्णसङ्करजायादौ वधाद्यां च महल्लके । सौवीरं काञ्जिके स्रोतोञ्जने बदरदेशयोः ॥ २४० ।। संस्कारः पुंस्यनुभवे सङ्कल्पप्रतियत्नयोः ।
संस्तरः प्रस्तरे पुंसि पुंसि यज्ञेपि संस्तरः ।। २४१ ॥ संबर-जल, बौद्धव्रतभेद, घन (न०) सिंदूरी-धायके पुष्प, रक्तचोलीवाली संबरी-औषधीभेद (स्त्री०)
स्त्री, गोरोचन (स्त्री०) समुद्र-अंगोंका शुभाशुभ लक्षण | सुंदरी-नायिकाभेद, वृक्षभेद, (स्त्री०) (न०) ॥ २३५ ॥
| ॥ २३८ ॥ सामुद्र-समुद्रमें होनेवाला लवण सुनार-कुत्तीका दूध, सर्पिणीका अंडा,
चिडा-पक्षी (पुं०) (नमक) आदि ( त्रि०)
सैरिन्ध्री-दूसरेके घर में स्थितहई सावित्री-देवताभेद, (स्त्री० )
भी स्त्री अपने वश रहकर शिल्पसावित्र-पार्वतीपति ( महादेव )| करनेवाली ( स्त्री० )॥ २३९ ॥ (पुं० ) ॥ २३६ ॥
सौवीर-कॉजी, सीसा, बेर, सौवीरसिन्दूर-वृक्षभेद (पुं०)
देश ( न० पुं०) ॥ २४० ॥ सिंदूर-रक्तवालुक (सिंदूर ), राजा- संस्कार-अनुभव,संकल्प,जतन(पुं०)
ओंका सिंदूरयुक्त लेख (न०) २३७ । संस्तर-पत्थर, यज्ञ (पुं०) ॥२४१॥
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रचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः। हिण्डीरस्तु पुमान्फेने तथा वातिङ्गने नरि ।
रचतुर्थम् । अकूपारः स्रवन्तीनां नाथे कर्मठनायके ।। २४२॥ अग्निहोत्रो मतो वह्नौ वह्निहोत्रे हविष्यपि । अनुत्तरं त्रिषु श्रेष्ठे प्रतिवाक्यविवर्जिते ॥ २४३ ॥ उपर्युदीच्यश्रेष्ठानां विपर्यासे त्वनुत्तरः। वधे युद्धेऽप्यभिमरः खबलादपि साध्वसे ॥ २४४ ॥ अभिहारोऽभियोगे स्याच्चौर्ये सन्नहनेऽपि च । अरुष्करस्तु भल्लाते व्रणकारिणि वाच्यवत् ॥ २४५ ॥ अर्द्धचन्द्रस्तु खण्डेन्दौ गलहस्ते शरान्तरे । चन्द्रकेऽप्यर्द्धचन्द्रः स्यादर्द्धचन्द्रा त्रिवृद्भिदि ॥ २४६ ॥ अलङ्कारस्तु भूषायामुपमादिगुणेषु च ।
भवेदवसरः पुंसि मतः प्रस्ताववर्षयोः ।। २४७॥ हिंडीर-समुद्रझाग, बैंगन, (पुं०) [ कवच धारण करना (पुं०) रचतुर्थ।
| अरुष्कर-भिलावा ( पुं० ) व्रण अकूपार-समुद्र, कर्मठोंका अधिपति (घाव ) करनेवाला ( त्रि. ) (पुं०) ॥ २४२ ॥
॥२४५॥ अग्निहोत्र-अमि, अग्निहोत्र, हवि अर्द्धचंद्र-आधाबिंबवाला चंद्रमा, ग
(होमकरनेका द्रव्य ) (पुं०) लहस्त (तर्जनी अंगूठा फैलाया हुवा अनुत्तर-श्रेष्ठ ( त्रि.) उत्तर नहीं हाथसे प्रीवाके धक्का देकर निकादेना (न.)॥ २४३ ॥
लना),बाणभेद, मोरकी पंख, (पुं०) अनुत्तर-नहीं ऊपर ( आगे ), नहीं अर्धचंद्रा-निसोतभेद ( स्त्री० )
उदीची (उत्तर), नहीं अश्रेष्ठ (त्रि.) ॥ २४६ ॥ अभिमर-वध, युद्ध, अपनीसेनासे अलंकार-आभूषण, उपमाआदि भय (पुं०) ॥ २४४ ॥
गुण (पुं.) अभिहार-लडाईमें पुकारना, चोरी, अवसर-प्रस्ताव, वर्षा, (पुं० )२४७
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३१८
विश्वलोचनकोशः- [रान्तवर्गेअवतारोऽवतरणे तीर्थ खातादिकेपि च । अवहारः पुमान्ग्रामे युद्धद्यूतादिविभ्रमे ॥ २४८ ॥ निमन्त्रणोपनेतव्ये द्रव्ये चौरे च सम्मतः । अवस्करः पुमान्गूथे गुह्येऽपि स्यादवस्करः ॥ २४९ ॥ भवेदश्वतरो वेगसरे नागाधिपान्तरे । असिपत्रः पुमान्कोषकारेऽपि नरकान्तरे ॥ २५० ॥ आडम्बरः करीन्द्राणां गर्जिते तूर्यनिस्वने । समारम्भे प्रपञ्चे च रचनायां च दृश्यते ॥ २५१ ॥ आत्मवीरो महाप्राणे श्यालपुत्रे विदूषके । इन्दीवरं कुवलये वयमिन्दीवरी स्त्रियाम् ॥ २५२ ।। उदुम्बरो जन्तुफले देहल्यां लघुमेढ़के । उदुम्बरं कुष्ठभेदे तामेऽपि स्यादुदुम्बरम् ॥ २५३ ।।
अवतार-अवतरण, तीर्थ, खात आडम्बर-हस्तियोंका गर्जना, तूर्यका
( खोदाहुवा ) आदिक (०) शब्द, समारंभ, प्रपंच ( फैलाव ), अवहार-ग्रामभेद, युद्धजूवाआदिसे! रचना (पुं० ) ॥ २५१ ॥ विभ्रम, ॥ २४८ ॥ शर्कराआदिसे आत्मवीर-बहुतपराक्रमवाला, सास्वादिष्ट किया द्रव्य, चोर (पुं० )।
लाका पुत्र, विदूषक ( नाटकका
। अँडुवा ) (पुं० ) अवस्कर-विष्ठा, गुह्य ( गुद ) इन्दीवर-नीलाकमल ( न० ) . (पुं० ) ॥ २४९ ॥
| इन्दीवरी शतावर ( औषधि ), अश्वतर-वेगसर (खचरा), नागोंका ( स्त्री० ) ॥ २५२ ॥ स्वामी, (पुं०)
| उदुम्बर-गूलर-वृक्ष, देहली, नपुंसक असिपत्र-कोशकार ( कीट), नरक. (पुं० ) भेद, (पुं० ) ॥ २५० ॥ उदुंबर-कुष्ठभेद, ताँबा (न०) २५३
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रचतुर्थम् ।। भाषाटीकासमेतः।
उद्दन्तुरः स्यादुत्तुङ्गे करालोत्कटदन्तयोः । उपकारो मतः कीर्णकुसुमायुधकृत्ययोः ॥ ५२४ ॥ उपह्वरं समीपे स्याद्रहोमात्रेऽप्युपह्वरम् । औदुम्बरः श्राद्धदेवे रोगभेदे नपुंसकम् ।। २५५ ।। कटम्भरा प्रसारिण्यां रोहिणीकरियोषितोः। कलम्बिकायां गोलायां वर्षाभूमूर्वयोरपि ॥ २५६ ॥ करवीरोऽश्वमारे स्यादैत्यभेदकृपाणयोः । सपुत्रादेवसूश्रेष्ठगवीषु करवीर्यपि ॥ २५७ ॥ मल्लिकाप्रतिहार्योस्तु करवीरी कचिन्मता । कर्णिकारो मतः पुंसि शम्याके च द्रुमोत्पले ॥ २५८ ।। कर्णपूरं कुवलयेऽप्यवतंसशिरीषयोः । त्रिषु कर्मकरो भृत्ये भृतिजीविनि कर्षके ॥ २५९ ।।
उद्दन्तुर-ऊँचा, भयंकर, भयंकर | करवीरी-पुत्रवाली स्त्री, देवमाता दाँतोंवाला (त्रि.)
(अदिति), श्रेष्ठ गौ, ॥ २५७ ।। उपकार-बिखराहुवा पुष्पआदि, मल्लिका (मोतियाभेद ), द्वारपा
हथियारसे कृत्य (पुं० ) ॥२५४॥ लिनी (स्त्री०) उपह्वर-समीप, एकान्तमात्र (न०)। कर्णिकार-अमलतास, छोटा संदल, औदुंबर-धर्मराज (पुं० ) रोग- (पुं० ) ॥ २५८ ॥
भेद, ( न०)॥ २५५ ॥ कटंभरा-पसरन, कुटकी, हथिनी | कर्णपूर-कमल, कर्णआभूषण या शिर
कलबी-शाक, मनसिल, साँठी, आभूषण, सिरस-वृक्ष (न०) मरोरफली, (स्त्री० ) ॥ २५६ ॥ कर्मकर-नौकर, नौकरीकी आजीविकरवीर-कनेर, दैत्यभेद, तलवार कावाला, किसान (खेतीकरनेवाला) (पुं०)
| (त्रि.)॥ २५९ ॥
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३२०
विश्वलोचनकोश:- [रान्तवर्गेमूर्वायां बिम्बिकायां च स्त्रियां कर्मकरी कचित् । कलिकारस्तु धूम्याटे पीतमुण्डे करञ्जके ॥ २६० ॥ कादम्बरस्तु दध्यने मद्यभेदेऽपि न द्वयोः । कादम्बरी परभृतासीधुगीःसारिकास्वपि ॥ २६१ ॥ कालंजरो योगिचक्रमेलके भैरवे गिरौ । देशभेदेऽपि पार्वत्यां भवेत्कालञ्जरी मता ॥ २६२ ॥ कुम्भकारः कुलाले स्यात्कुलथ्यां तु स्त्रियामपि । कृष्णसारो मृगे पुंसि त्रुहीशिंशपयोः स्त्रियाम् ।। २६३ ॥ गङ्गाधरो गिरिसुतानाथे नाथे च पाथसाम् । गिरिसारस्तु लौहे स्यान्मलयाचललिङ्गयोः ॥ २६४ ।। कम्बलच्छन्नदोलायां कुन्थाङ्गेऽपि गृहाम्बरः । घनसारोऽप्सु कर्पूरे दक्षिणावर्तपारदे ॥ २६५॥
- ----- ---
कर्मकरी-चुरनहार या मरोरफली, कुंभकार-कुम्हार,(पुं०)कुंभकारी___ कन्दूरी, ( स्त्री०)
कुलथी (स्त्री०) कलिकार-खुटकबलैया-पक्षी, गुर- कृष्णसार-मृग (पुं०)
सल-पक्षी, करंजुवा (पुं० ) २६० कृष्णसारा-थोहर, शिंशपा-वृक्ष कादंबर-दहीकी मलाई (पुं०) (स्त्री० ) ॥ २६३ ॥ मद्यभेद (न.)
| गंगाधर महादेव, समुद्र (पुं०) कादंबरी-कोयल, सीधु ( वारुणी), गिरिसार-लोहा, मलयाचल-पर्वत,
वाणी, मैना-पक्षी (स्त्री० ) लिङ्ग (पुं०) ॥ २६४ ॥ ॥ २६१ ॥
गृहांबर-कंबलसे ढकीहुई डोली, कालंजर-योगिचक्रका मिलाप, भैरव, गुदड़ीवाला मनुष्य, (पुं०)
एकपर्वत, देशभेद, (पुं०) घनसार-जल, कपूर, दक्षिणावर्त कालंजरी-पार्वती (स्त्री०) २६२/ पारा (पुं०) ॥ २६५॥
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रचतुर्थम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
भवेच्चक्रधरो विष्णौ भुजङ्गे ग्रामजालिनि । चराचरं तु भुवने स्यादि जङ्गमे त्रिषु ॥ २६६ ॥
चर्मकारः पुमान्पादृकृति चर्मकषौषधौ । चर्मकारी स्त्रियां चित्राटीरस्तु रजनीपतौ ॥ २६७ ॥
घण्टाकर्णवलिहत च्छागास्रतिलकेऽपि च । जटाटीरो जटायां स्यादोकणे पार्वतीपतौ ॥ २६८ ॥
वरोहे पादपानां च समावेदोक्तवैजवे ।
रण्डायां तालपत्री स्यात्तालपत्रं तु कुण्डले ॥ २६९ ॥ तुङ्गभद्रा नदीभेदे तुङ्गभद्रो मदोत्कटे । तुण्डिकेरी तु कर्पास्यां चित्रिकायामपि स्त्रियाम् ॥ २७० ॥ तुलाधारस्तुलाराशौ तुलाधारो वणिक्ष्वपि । भवेत्तोयधरो मेघे मुस्तके सुनिषण्णके ॥ २७१ ॥
चक्रधर - विष्णु, सर्प, ... ( पुं० ) चराचर जगत्, अभिप्रायके अनु रूप चेष्टा, जंगम ( चलनेवाला ), ( त्रि० ) ॥ २६६ ॥
)
चर्मकार - चमार जाति ( पुं० चर्मकारी - थोहरका भेद (स्त्री० ) चित्राटीर - चंद्रमा, घंटाकर्णयक्षकी
बलिके लिये माराहुवा बकराके रुधिरका जिसने तिलक किया है। वह, ( पुं० ) ॥ २६७ ॥ जटाटीर-जटा, महादेव, (पुं० )
२१
३२१
॥ २६८ ॥ वृक्षकी जडसे चलकर आगेतक गई हुई शाखा ( पुं० ) तालपत्री - रंडा स्त्री, (स्त्री० ) तालपत्र - कुंडल ( न० ) ॥ २६९ ॥ तुंगभद्रा नदीभेद (स्त्री० ) तुंगभद्र - मदोन्मत्त (पुं० ) तुंडिकेरी - कपास, कन्दूरी, (स्त्री० )
॥ २७० ॥
तुलाधार - तुला राशि, बणियां, (पुं०) तोयधर - मेघ, नागरमोथा, चौप
तिया या सिरिआरी शाक, (पुं० )
॥ २७१ ॥
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३२२
विश्वलोचनकोशः- [रान्तवर्गयमे नृपे दण्डधरो दण्डधारो यमे नृपे । दण्डयात्रा दिग्विजये संयानवरयात्रयोः ॥ २७२ ॥ क्लीवं दशपुरं देशे पुरगोनर्दयोरपि । दिगम्बरस्तु क्षपणे नग्ने ध्वान्ते च शूलिनि ।। २७३ ॥ दरोदरं पणे द्यूते द्यूतकारे दुरोदरः। देहयात्रा मता मृत्यौ देहयात्राऽपि भोजने ॥ २७४ ।। द्वैमातुरो जरासन्धे द्वैमातुर इभानने । धराधरश्चक्रधरे क्ष्माधरे च धराधरः ॥ २७५ ॥ भवेद्धाराधरो वारिवाहिनिस्त्रिंशयोः पुमान् । धाराङ्करस्तु ना सीरे करकायां च शीकरे ॥ २७६ ॥ धार्तराष्ट्रोऽसितैश्चञ्चुपदैर्हसेऽपि कौरवे । सर्पऽप्यथो धवतरौ धूर्वहे च धुरन्धरः ।। २७७ ॥
दंडधर-धर्मराज, राजा, (पुं०) देहयात्रा-मृत्यु, भोजन, ( स्त्री० दंडधार-धर्मराज, राजा, (पुं० ) ॥ २७४ ॥ दंडयात्रा-दिग्विजय, अच्छीतरह-द्वमातुर-जरासन्ध, गणश, (पु०
धराधर-विष्णु, पर्वत, (पुं०)२५ यात्रा, श्रेष्ठ यात्रा, ( स्त्री० )२७२ !
१७२ धाराधर-मेघ, खड्ग, ( पुं०) दशपुर-देश, पुर, केवटीमोथा, धारांकुर-हल, ओला, वायुप्रेरि (न०)।
जलबिन्दु, ( पुं० )॥ २७६ ॥ दिगम्बर-मुनि, नम, अन्धकार, धार्तराष्ट-श्यामचोंच चरणोंवार
महादेव, (पुं० ) ॥ २७३ ॥ हंस, कौरव, सर्पभेद, (पुं०) दुरोदर-पण, जुवा, (न०) जूवाकर- धुरंधर-धव-वृक्ष, धुरको वहनेवार नेवाला, (पुं०)
| बैलआदि, (पुं० ) ॥ २७७ ॥
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रचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः । ३२३
धुन्धुमारः शक्रगोपे गृहधूमे पदालिके । धृतराष्ट्रस्त्वांबिकेये पक्षिभेदे सुराज्ञि च ॥ २७८ ॥ धृतराष्ट्री मता हंसपदीनामौषधान्तरे । नभश्चरो घने विद्याधरे वाते विहङ्गमे ॥ २७९ ॥ निशाचरः फेरवभूतरक्षोभुजङ्गघूकेषु निशाचरी तु । भवेदसत्यां हि निषद्वरः स्यात्पक्के निशायां तु निषाद्वरी स्यात् परम्परः प्रपौत्रादौ मृगभेदे परम्परः। परम्परा तु सन्ताने खगकोशे परिच्छदे ॥ २८१ ॥ भवेत्परिसरो दैवोपात्ते मृत्युप्रदेशयोः । यूथभ्रष्टपृथक्कारिगजे पक्षचरो विधौ. ।। २८२ ॥ पात्रटीरो जरत्पात्रे मुक्तव्यापारमन्त्रिणि । सिवाणे लौहकांस्ये च जतुपात्रे च पाठके ।। २८३ ॥
धुन्धुमार-बीरबहूटी, गृहधूम ( घर- | परम्पर-प्रपौत्र आदि, मृगभेद,
का धुवां), (पुं०) धृतराष्ट्र-अंबिकाका पुत्र (धृतराष्ट्र- परम्परा-सन्तान (वंश), तलवारका
राजा), पक्षिभेद,श्रेष्ठराजा, (पुं०)। म्यान, ढकनेवाला, (स्त्री०) ॥२८१॥ ॥ २७८ ॥
परिसर-भाग्यवशसे प्राप्त, मृत्यु, धृतराष्ट्री-लालरंगका लज्जालू (स्त्री०) प्रदेश, (प्रान्त ) (पुं० ) नभश्चर-मेघ, विद्याधर, वायु, पक्षी, पक्षचर-समूहसे बिछड़कर अलग (पुं० )॥ २७९ ॥
_ विचरनेवाला हस्ती, चंद्रमा, (पुं०) निशाचर-गीदड़, भूत, राक्षस, ॥२८२॥
सर्प, उल्लू-पक्षी, (पुं० ) पात्रटीर-व्यापाररहित मंत्री, नासिनिशाचरी-कुलटा स्त्री (स्त्री०) । काका मल, लोहेका पात्र, काँसीकानिषद्वर-कींच, (पुं० ) निषद्वरी- पात्र, लाखका पात्र, अग्नि, (पुं० ) रानि (स्त्री० ) ॥ २८०॥
॥२८३ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [रान्तवर्गपारावारः सरिन्नाथे पारावारं तटद्वये । पारिभद्रः पुमान्निम्बतरौ मन्दारपादपे ।। २८४ ।। मतः पीताम्बरश्चक्रपाणौ पीताम्बरो नटे । पीतसारस्तु गोमेदे मणौ मलयसम्भवे ॥ २८५ ॥ पूर्णपात्रं तु सम्पूर्णपात्रे वर्धापकेऽपि च । यात्रायां पटहे चैव पूर्णपात्रमिति स्मृतम् ॥ २८६ ।। द्वारि द्वाःस्थे प्रतीहारः प्रतीहारी त्वनन्तरा । पुंसि प्रतिसरो माल्ये चमूपृष्ठेऽपि कङ्कणे ॥ २८७ ॥ भूषायां व्रणशुद्धौ च नियोज्याऽऽरक्षयोरपि । मन्त्रभेदे स्त्रियां पुंसि हस्तसूत्रेऽपि न स्त्रियाम् ।। २८८ ।। समे प्रतिक्रियायां च प्रतीकारो भटेऽपि च । प्रभाकरो। दहने वक्रनकः शुके खले ॥ २८९ ।।
पारावार-समुद्र (पुं० ) पारावार- प्रतीहारी-द्वारपालनी (स्त्री०) दोनों तट ( न०)
प्रतिसर-माला, सेनापीट, कंकण, पारिभद्र-नींब-वृक्ष, कल्पवृक्षभेद ॥२८७ ॥ आभूषण, व्रणशुद्धि,
( देवतरु), (पुं० )॥ २८४ ॥ प्रेरणेके योग्य, हस्तिके ललाटका पीतांबर-विष्णु, नट, (पुं० ) मर्म, मंत्रभेद, ( स्त्री० पुं० ) पीतसार-गोमेद-मणि, मलयज
हस्तसूत्र (पुं० न०) ( चंदन ), (पुं० ) ॥ २८५॥ प्रतीकार-सम ( तुल्य ), प्रतिक्रिया पूर्णपात्र-पूर्णहुवा पात्र, वृद्धिकरने- ( वदला ), भट ( योद्धा ), २८८
वाला,यात्रा, पहट (बाजा), (न०) प्रभाकर-सूर्य, अग्नि, (पुं०) . ॥ २८६ ॥
वक्रनक्र-सूवा, खल-पुरुष, (पुं०) प्रतीहार-द्वार, द्वारपाल, (पुं० )। ॥२८९ ३५
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रचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः।।
बलभद्रा कुमायौं स्यात्रायमाणे बले पुमान् । वार्वटीरस्त्रपौ चूतास्थ्यङ्कुरे गणिकासुते ॥ २९० ॥ उकणे वारकीरः स्यान्नीराजितहयेऽपि च । वीरभद्रोऽश्वमेधाश्वे महावीरेऽपि वीरणे ॥ २९१ ।। क्लीबं वीरतरं वीरश्रेष्ठे वीरणगुन्द्रयोः । मणिच्छिद्रा तु मेदायामृषभाख्यौषधावपि ॥ २९२ ॥ महावीरस्तु गरुडे शूरे कण्ठीरवे पवौ । महावीरः पिके चाश्वमखाग्नौ च जराटके ।। २९३ ॥ महामात्रो हस्तिपके समूहामात्ययोरपि । रथकारस्तु माहिष्यात्करणीजेऽपि तक्षणि ॥ २९४ ।। रागसूत्रं तुलासूत्रे पट्टसूत्रेऽपि न द्वयोः । वसन्तकङ्कणाभिख्यशङ्ख नोगण्डिपट्टके ॥ २९५ ।।
बलभद्रा-धीकुमार,त्रायमान,(स्त्री०) मणिच्छिद्रा-मेदा-औषधि, ऋषबलभद्र-बलदेव (पुं०)॥ २९० ॥ भाख्य औषधि, (स्त्री.) ॥२९३॥ बार्बटीर-सीसा, या राँगा, आमकी | महावीर-गरुड, शूर, सिंह, वज्र, गुठली और अंकुर, वेश्याका पुत्र,
कोयल-पक्षी, अश्वमेधयज्ञका अग्नि, (पुं०) ॥ २९१ ॥
(पुं०) ॥ २९३ ॥ बारकीर--...आरती कियाहुवा अश्व,
| महामात्र-फीलवान, समूह, मंत्री,
(पुं०) (पुं०)
(रथकार-वैश्याके क्षत्रियसे उपजे वीरभद्र-अश्वमेध यज्ञका अश्व, महा
| अश्व, महा- पुरुषसे शूद्रीके वैश्यसे उपजी स्त्रीमें वीर, (पुं०) बीरनमूल (न०)। उत्पन्नहुवा, (बढई) (पुं०) ॥२९४॥ ॥ २९२ ॥
| रागसूत्र-तराजूका सूत्र, पाटका सूत्र, वीरतर-वीरश्रेष्ठ, वीरनमूल, शर, (न०) वसंतकंकण नाम शंख, (पुं०)
। हस्तीका पट्टा, (पुं०)॥ २९५ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [रान्तवर्गेदग्धदीपदशाष्वेष मतो लङ्गंश्चतुः पुमान् । लम्बोदरः स्यादुध्माने हेरम्बे लम्बकुक्षिके ॥ २९६ ।। लक्ष्मीपुत्रस्तु कन्दर्प लक्ष्मीपुत्रस्तुरङ्गमे । वातपुत्रो महाधूतॆ हनूमद्भीमयोरपि ॥ २९७ ॥ बिन्दुतरः पुमाञ्शारिफलके चतुरङ्गके । विभाकरो बृहद्भानौ चित्रभानौ विभाकरः ।। २९८ ॥ विभावरी तमखिन्यां हरिद्रायां विभावरी । विवाहवस्त्रगुण्ठ्याञ्च कुट्टिन्यां वक्रयोषिति ॥ २९९ ॥ विश्वम्भरो हरौ शक्रे स्त्रियां विश्वम्भरा भुवि । विश्वकदुः खले ध्वाने स्यादाखेटिककुक्कुरे ॥ ३०० ॥ वीतिहोत्रो बृहद्भानौ वीतिहोत्रो दिवाकरे। भवेद्व्यतिकरः पुंसि व्यसनव्यतिषङ्गयोः ॥ १ ॥ व्यवहारो व्यवहृतौ वृक्षभेदे स्थितावपि ।
शतपत्रो राजकीरे दाघाटे शिखण्डिनि ॥ २ ॥ लम्बोदर-जलंधर रोगवाला, गणेश, विश्वंभर-विष्णु, इंद्र, ( पुं०) __लंबापेटवाला, (पुं० ) ॥ २९६ ॥ विश्वंभरा-पृथ्वी, ( स्त्री० ) लक्ष्मीपुत्र-कामदेव, अश्व (पुं०) विश्वकद्रु-खल-पुरुष,शब्द, शिकारी वातपुत्र-महाधूर्त, हनूमान, भीम- कुत्ता, (पुं० ) ॥ ३०० ॥ __ सेन, (पुं० ) ॥ २९७ ॥ वीतिहोत्र-अग्नि, सूर्य, (पुं०) बिन्दुतंत्र-चौपटखेलनेका पट, चतु-व्यतिकर-शौक (मदिरापानआदि), रंग-खेल, (पुं०)
उलटा, (पुं० ) ॥ १ ॥ विभाकर-अग्नि, सूर्य, (पुं०) व्यवहार-व्यवहार, वृक्षभेद, स्थिति ॥ २९८ ॥
} (ठहरना), (पुं० ) विभावरी-रात्रि,हलदी,कुट्टिनी-स्त्री, शतपत्र-राजकीर ( बडा-सूवा ), मु.
वक स्त्री (स्त्री० ) ॥ २९९ ॥ रगा, मोर, (पुं० ) ॥२॥
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रपञ्चमम् । ]
भाषाटीकासमेतः। शतपत्रं तु राजीवे वरीशुण्ठ्योः शतावरी । शिशुमारो जलकपौ तारात्मकहरावपि ॥ ३ ॥ समुद्रारुर्मतः सेतुबन्धे ग्राहे तिमिङ्गिले । संप्रहारो मृतौ युद्धे झिण्ट्यां सहचरी द्वयोः ॥ ४ ॥ स्याद्वयस्ये सहचरस्त्रिषु प्रतिकृतौ पुमान् । सालसारो मतो हिङ्गौ सालसारो महीरुहे ॥ ५ ॥ सुकुमारस्तु पुण्ड्रेक्षौ कोमले त्वभिधेयवत् । सूत्रधारो मतः शिल्पिप्रभेदेऽपि पुरन्दरे ॥ ६ ॥ नान्द्यनन्तरसञ्चारिपात्रभेदेऽपि स स्मृतः ।। स्थिरदंष्ट्रो भुजङ्गे स्याद्वराहाकृतिकेशवे ॥ ७ ॥
रपञ्चमम् । उत्पलपत्रं तूत्पलच्छदे योषिन्नखक्षते । खर्गनद्यां तु कपिलधारा तीर्थान्तरे पुमान् ॥ ८ ॥
रपञ्चमम् ।
शतपत्र-कमल (न.)
सुकुमार-पौंडा (ऊस ) (पुं० ) शतावरी-शतावर, सौंठ, ( स्त्री०) कोमल (त्रि.) शिशुमार-जलजंतु (मकरभेद), सूत्रधार-शिल्पिभेद, इंद्र, ॥ ६ ॥
तारात्मक विष्णु, ( पुं० )॥ ३ ॥ नांदीके पीछे आनेवाला नाटकका समुदारु-सेतुबंध, ग्राह, तिभिंगिल पात्रभेद, (पुं० )
( मकरभेद ), (पुं०) स्थिरदंष्ट्र-सर्प, वराह अवतार, (पुं०) संप्रहार-मृत्यु, युद्ध, (पुं०) ॥ ७ ॥ सहचरी-कटसरैया वृक्ष (पुं० स्त्री.)
रपंचम । ॥ ४ ॥
उत्पलपत्र-कमलपत्र, स्त्रीके नखसे सहचर-समानउमरवाला, (नि.)। हुवा घाव, (न०) मूर्ति (पुं० )
कपिलधारा-खर्गनदी (स्त्री.) सालसार-हींग, वृक्ष, (पुं० )॥५॥ कपिलधार-तीर्थभेद (पुं० )॥८॥
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३२८ विश्वलोचनकोशः
[ रान्तवर्गेतमालपत्रं तिलके तापिच्छे पत्रकेऽपि च । तालीशपत्रं तालीशे तामलक्यां च न द्वयोः ॥ ९॥ सैकते करके छागे पिप्पले पादचत्वरः । परदीपप्रकाशैकतत्परेऽपि मतो नरे ॥ ३१०॥ क्लीवं तु पीतकाबेरं पित्तले कुङ्कुमेऽपि च । स्यात्पांशुचामरो धूलीगुच्छकेऽपि प्रशंसने ॥ ११ ॥ वर्द्धापके पुरोटौ च दूर्वाञ्चिततटीभुवि । बकुले वेधके नागकुसुमे नागकेसरः ॥ १२ ॥ स्याद्राजबदरं रक्तामलके लवलीफले । रोमगुच्छे च मन्तौ च रोमकेसर इष्यते ॥ १३ ॥ वस्वौकसारा श्रीदस्य नलिन्यामलकापुरि । विप्रतीसारः कौकृत्ये रोषेऽप्यनुशयऽपि च ॥ १४ ॥
तमालपत्र-तिलक-पुष्पवृक्ष, तमा- (.........) दूब जमे हुये तट. ल-वृक्ष, तेजपात, (न०)
वाली पृथ्वी, (पुं०) तालीशपत्र-तालीशपत्र, भुंई आँव- नागकेसर-बौलश्री, अम्लबेत, नागला (न०)॥ ९ ॥
__केसर (पुं० ) ॥ १२ ॥ पादचत्वर-रेतीवाला-स्थल, ओला राजबदर-लालआँवला, हरपारेवड़ी
( वर्षाका पत्थर ),बकरा, पीपल का फल, (न०) वृक्ष, दूसरेके दोष प्रकाशितकरना- रोमकेसर-रोमोंका गुच्छा,अपराध, एक इसी काममें तत्पर मनुष्य, (पुं० )॥ १३ ॥ (पुं० )॥३१० ॥
वस्वौकसारा--कुबेरकी अलका पीतकाबेर-पीतल, केसर, (न०) नामकी पुरी, कमलिनी, (स्त्री) पांशुचामर-धूलिगुच्छ, प्रशंसा ११ विप्रतीसार-क्रोध, पछताना, (पुं०)
वर्धापक ( .........), पुरोटि! ॥ १४ ॥
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लद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
३२९ मतः समभिहारस्तु पौनःपुन्ये भृशार्थके। पुस्येव सर्वतोभद्रः काव्यचित्रे गृहान्तरे ॥ १५॥ निम्बेऽथ सर्वतोभद्रा गम्भार्या नटयोषिति ॥ ३१६ ॥ इति विश्वलोचनेऽपराभिधानायां मुक्तावल्या रेफान्तवर्गःसमाप्तः।।
अथ लान्तवर्गः।
ल इन्द्रे ला तु दाने स्यादाश्लेषेऽपि लयेऽपि च । अपि लूश्छेदके पुंसि लवणे लूरपि स्मृता ॥ १ ॥
लद्वितीयम् । अम्लो रसप्रभेदे स्यादम्ली चाङ्गेरिकौषधौ । अलिभृङ्गे सुरायां स्त्री स्यादालिः पिण्डले स्त्रियाम् ॥ २॥ सख्यां पङ्क्तावपि ख्याता वाच्यवद्विशदाशये ।
आलुर्गलन्तिकायां स्त्री क्लीबे भेलककन्दयोः ॥ ३॥ समभिहार-बारबार, अत्यंत (पुं०)| लू-काटनेवाला, (पुं०) लू-नमक सर्वतोभद्र-काव्य-चित्रबंध, गृह (स्त्री०)॥ १ ॥ (घर) भेद ॥१५॥ नींब वृक्ष (पुं०)
लद्वितीय । सवेतोभद्रा-कंभारी, नटकी स्त्री, (स्त्री०) ॥ ३१६ ॥
| अम्ल-रसभेद (पुं०) ॥ इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषा अम्ली -चूका-औषधि (स्त्री.) टीकामें रान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥ अलि-भौंरा (पुं०) मदिरा (स्त्री.)
आलि-पुल, ॥ २ ॥ सखी, पंक्ति, अथ लान्तवर्गः।
(स्त्री०) स्वच्छहृदयवाला (त्रि.) लैक।
आलु-झारी ( स्त्री० ) भेलक ल-इन्द्र (पुं०)
( नदीतैरनेको पूलाआदि ), कन्द, ला दान, मिलना, प्रलय, (पुं०) (न.)॥ ३ ॥
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३३०
विश्वलोचनशकोश:
इला गोभूमिपीयूषे भारत्यां सौम्ययोषिति । ओलस्तु सूरणे पुंसि स्यादार्द्रे त्वभिधेयवत् ॥ ४ ॥ कलस्तु मधुराव्यक्तशब्देऽजीर्णे कलं सिते । कला तु षोडशांशे स्यादिन्दोरप्यंशमात्रके ॥ ५ ॥ मूलार्थवृद्ध शिल्पादौ कलनाकालभेदयोः । कलिरन्त्ययुगे कन्दे कन्दले सुभटे पुमान् ॥ ६॥ कालस्तु समये मृत्यौ महाकाले यमे शितौ ॥ कृष्णे त्रिष्वथ काली स्यात्कालिकामातृभेदयोः ॥ ७ ॥ गौर्या नवाम्बुदानी क्षीरकीटापवादयोः | काला तु कृष्णत्रिवृत्ति नीलीमञ्जिष्ठयोरपि ॥ ८ ॥ कीला कफोणिघाते स्यात्कीले शङ्कौ च कीलवत् । कुलं सजातीयगणे गोत्राङ्गगृहनीवृति ॥ ९ ॥
इला - गौ,
भूमि, अमृत, वाणी | काल - समय, मत्यु, महाकाल, धर्म
बुधग्रहकी स्त्री,
( स्त्री० )
राज, नीला रंग, ( पुं० ) काला रंगवाला (त्रि०) ओल-जमीकंद ( पुं० ) गीला (त्रि०) काली - काला रंगवाली, मातृभेद ( (देवी भेद ), ( स्त्री० ) ॥ ७ ॥ गौरी, नवीन मेघकी घटा, दुग्धका कीट, निंदा, (स्त्री० )
॥ ४ ॥
( सरखती ),
कल- मधुर और अप्रकट
भाग,
( पुं० ) अजीर्ण ( त्रि० ) कल - वीर्य ( न० ) कला - सोलहवाँ चंद्रमा की कला, ॥ ५ ॥ मूलद्रव्यकी वृद्धि, शिल्पआदि, कलना ( संख्याजोडना ), कालभेद, (स्त्री० ) कलि-कलियुग, कन्द, कंदल (नवीन अंकुर ), योद्धा, (पुं० ) ॥ ६ ॥
[ लान्तवर्गे
शब्द,
काला - काली निसोथ, नीली, मँजीठ, ( स्त्री० ) ॥ ८ ॥ कीला - कील-कोंहनीसे
मारना, अग्नितेज, शंकु (कीला), (स्त्री० पुं०) कुल - सजातीयसमूह, गोत्र, शरीर, घर, देश, ( न० ) ॥ ९ ॥
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लद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
३३१ कूलं प्रतीरे सैन्यस्य पृष्ठे स्तूपतडागयोः ।। कोलोङ्कपालावुत्सङ्गे कोडे भेलकचित्रयोः ॥ १० ॥ खने कोलं तु कुवले कोला पिप्पलिचव्ययोः ।। खलः शठेऽधमे नीचे त्रिषु स्यात्तु खलं भुवि ॥ ११ ॥ खलं स्थानेऽपि कल्केऽपि सस्यस्थानेऽपि न द्वयोः । खल्ला चर्मणि निम्नेऽपि वस्त्रभेदेऽपि चातके ॥ १२ ॥ खल्ली तु हस्तपादावमर्दनाख्यरुजि स्त्रियाम् । खिलं भवेदप्रहते सारसङ्क्षिप्तवेधसोः ॥ १३ ।। गलः कण्ठे सर्जरसे गलः स्कन्धे महीरहे । गोला गोदावरीसख्योर्गोला पत्राञ्जने मता ॥ १४ ॥ कुनट्यामपि गोलं तु मणिके मण्डलेऽपि च । चलश्चलाचले कम्पे कमलाविद्युतोश्चला ॥ १५ ॥
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कूल-तीर-नदीआदिका, सेनाकी | खल्ली-हाथपैरोंमें अवमर्दन नामका
पीठ, बड़ाआदि, तालाब, (न०) रोग, (स्त्री० ) कोल-गोदका सिरा या धाय, गोद, खिल-नवीन, सारसंक्षिप्त, (त्रि० )
सूकर, नदीतरनेका पूलाआदि, ब्रह्मा (पुं० ) ॥ १३ ॥ चीता औषधि ॥ १० ॥ लँगडा, गल-कंठ, रालवृक्ष, कंधा, वृक्ष, (पुं०) (पुं०)
| गोला-गोदावरी नदी, सखी, तेजकोल-वेर (न०)
पात, मनसिल, ( स्त्री. ) कोला-पीपल, चव्य, ( स्त्री० ) गोल-बडाकुंभ, गोल आकारवाला खल-मूर्ख, अधम, नीच, ( त्रि.)। मंडल, ( न० ) ॥ १४ ॥ खल-पृथ्वी, ॥ ११ ॥ स्थान, तिल-चल-चलनेके स्वभाववाला, काँपना,
आदिकी खली, तृणस्थान, (न०) (त्रि०) खल्ला-चर्म, खड्डा, वस्त्रभेद, पपीहा चला-लक्ष्मी, बिजली, (स्त्री०) (स्त्री०)॥ १२ ॥
॥ १५ ॥
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विश्वलोचनकोशः
[ लान्तवर्गेचालश्छदिषि पुंस्येव चालः स्यात्कम्पनेऽपि च । क्लिन्नाक्षितायिनोश्चिल्लश्चिल्ली स्यात्क्षुद्रवास्तुके ॥ १६ ॥ क्लिन्ननेत्रयुते तु स्याञ्चिल्लः खुलश्च वाच्यवत् । चुल्लः क्लिन्नेऽक्षिण चुल्ली तु चितावुद्धानवाद्ययोः ॥ १७ ॥ चेलं स्यादंशुके नीचे गर्हितेप्यभिधेयवत् । छल्ली तु वल्कले पुष्पभेदे सन्नतिवीरुधोः ॥ १८ ॥ छलं तु स्खलितेऽपि स्याध्याजेऽपि छलमद्वयोः । जलं शोकरवे नीरे हीवेरेऽपि जडे त्रिषु ॥ १९ ॥ जालस्तु क्षारकानायगवाक्षे दम्भवृक्षयोः । जाली पटोलिकायां स्याज्जालो नीपमहीरुहे ॥ २० ॥ झला स्यादातपस्योर्मों तथा पुत्रीसुलुक्कयोः । झिल्ली त्वातपरुग्वन्द्यां झीरुकोद्वर्तनांशयोः ॥ २१ ॥
चाल-छप्पर, काँपना (पुं०) छल-छलना, बहना, (न.) चिल्ल-चिड़पड़ानेत्रवाला, चील्ह-पक्षी जल-शोक का शब्द, पत्नी,नेत्रबाला, (पुं०)
(न.) जड (त्रि०)॥ १९ ॥ चिल्ली-छोटा बथुवा (स्त्री.)॥ १६ ॥ जाल-जवाखार, जाल, जाली चिल्ल-खुल्लु-चिड़पड़ानेत्रवाला (त्रि०) झरोखा, दम्भ, वृक्ष, (पुं०) चुल्ल-चिड़पड़ानेत्र (पुं० ) जाली-परवल-शाक (स्त्री.) चुल्ली-चिता, चूल्हा, बाजा (स्त्री०) जाल-कदंब-वृक्ष ॥ २० ॥
झला-धूपकी लहरी, पुत्री, (स्त्री०) चेल-वस्त्र (न०) नीच, निंदित, झिल्ली-आतपकांति, बन्दी, चीरी(त्रि.)
कीट, (स्त्री.) छल्ली-वृक्षका बकला, पुष्पभेद, संतति झीरुका-उबटना, विभाग, (पुं०)
(संतान), बेल, (स्त्री० ) ॥१८॥। ॥२१॥
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OM
लद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
तलस्ताले तलं खड्गमुष्टौ ज्याघातवारणे । वने चपेटे न स्त्री तु स्वरूपाऽऽधारयोस्तलम् ॥ २२ ॥ तल्ली तरुण्यां तल्लस्तु विल्ले पुंसि नपुंसके । तालो दुमान्तरेङ्गुष्ठमध्यमाभ्यां च सम्मिते ॥ २३ ॥ गीतकालक्रियाभावे तालः खङ्गादिमुष्टिषु । तालः स्यात्कांस्यरचितवाद्यभाण्डान्तरे तथा ॥ २४ ॥ करास्फारे करतले तालं तु हरितालके । तुला राशौ पलशते तुल्यतामानभेदयोः ॥ २५॥ बन्धाय गृहदारूणां पीठिकायां सभाजने । तूलः पिचौ पुमांस्तूलमाकाशे ब्रह्मदारुणि ॥ २६ ॥ अपद्रव्ये छदोच्छ्रायखण्डे शस्त्रीछदे दलम् । डुलिः पुंसि मुने दे कमठ्यां तु स्त्रियां डुलिः ॥ २७ ॥
तल-ताड-वृक्ष ( पुं० ) तल-तुला-तुला-राशि, सौ (१००)
खङ्गकी मूठ, धनुषके ज्याघातको तोले, तुल्यता, तोलभेद, ॥ २५ ॥ रोकनेवाला, वन, थप्पड, (पुं० घरका काठ बाँधनेके लिये पीन०) वरूप, आधार, (न०) ठिका ( चौकीरूप काष्ठ ), सत्कार, ॥ २२ ॥
(स्त्री०) तल्ली-जवान स्त्री (स्त्री० ) तल्ल-तिल-रूईका गीला फोया, (पुं० ) हींग (पुं० न०)
तूल-आकाश, ब्रह्मदारु, (न) ताल-अंगूठा और मध्यमा अंगुलीका ॥२६॥
प्रमाण, ॥ २३ ॥ गानेकी कालक्रियाका मान, खड्न आदिकी
दल-अपद्रव्य (खराब वस्तु), पत्ता, Dठ, काँसीका बजानेका पात्र
" ऊँचा, टुकडा, छुरीको निवारण ॥ २४ ॥ दोनों हाथ फैलाकर |
२॥ दोनों ना फैला करनेवाला द्रव्य, (न०) प्रमाण, ( पुरस ) हथेली, (पुं०) डुलि-मुनिभेद (पुं० ) डुलिहरिताल (न०)
। कछवी (स्त्री०)॥ २७ ॥
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विश्वलोचनकोश:
दोला यानान्तरे नील्यां धूलिः शङ्खयान्तरे रजे । नलः पोटगले राज्ञि कपीशे पितृदेवते ॥ २८ ॥ नली मनः शिलायां स्यान्नलं तु सरसीरुहे । पद्मदण्डे न ना नाला नाली शाककदम्बके ॥ २९ ॥ नाला पानकरङ्कादिरन्ध्रे नालस्तु पञ्जरे । नीलस्तु कृष्णवर्णे स्यात्रिषु नीलः कपीश्वरे ॥ ३० ॥ नीलो नगान्तरे कृष्णे नीलं वृक्षाङ्कभेदयोः । पल्ली तु कुट्यां कुग्रामे पलः स्थूलकुसूलयोः ॥ ३१ ॥ पलं मांसे तथोन्माने पालिः पङ्किप्रदेशयोः । प्रस्थे कर्णलताशे यूकासश्मश्रुयोषितोः ॥ ३२ ॥ इन्द्रादेर्देयभागे च विश्राम्य चागतज्वरे ।
अश्रौ चिह्न च पिलस्तु क्लिन्नेऽक्षिण त्रिषु तद्वति ॥ ३३ ॥
दोला - सवारीभेद ( डोली ), नीली, | नील- पर्वतभेद, काला द्रव्य, (पुं० ) ( स्त्री० ) नील-वृक्ष, अंकभेद, ( न० ) धूलि - संख्याभेद, रज (धूल), (स्त्री०) पल्ली - कुटिया, कुग्राम, ( स्त्री० ) नल- कास या देवल, नल - राजा, पल - बडा, कुठला, (पुं० ) ॥ ३१॥ वानरोंका राजा, पितृदेव, (पुं०) २८ पल- मांस, उन्मान ( तोल ), चार नली - मनसिल ( स्त्री०) नल - कमल तोला, ( न० ) पालि-पंक्ति, प्रदेश ( स्थल ), ६४ तोला, कर्णलताका अग्रभाग, विभाग, जूं, डाढीमूछोंवाली स्त्री ॥ ३२ ॥ इंद्रआदिको देनेयोग्य भाग, विश्राम करके आयाहुवा ज्वर, कोण चिह्न, (त्रि० )
( न० ) नाला-कमलकी डंडी ( स्त्री० न० ) | नाली - शाकका समूह ( स्त्री० )
॥ २९ ॥
नाला-पीना, हड्डी आदिका छिद्र,
( स्त्री० ) नाल - पिंजरा ( पुं० ) नील- काला रंग (त्रि० ) नीलकपीश्वर ( पुं० ) ॥ ३० ॥
[ लान्तवर्गे
1
पिल्ल - चिड़पडा नेत्र, चिडपडानेत्रवाला, (त्रि ० ) ॥ ३३ ॥
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३३५
३
लद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः । पीलुद्रुमे गजे पुष्पे काण्डतालास्थिखण्डयोः । अणुमात्रेऽप्यथ पुलः पुलके विपुले त्रिषु ॥ ३४ ॥ फलं तु सस्ये हेतूत्थे फलके व्युष्टिलाभयोः । जातीफलेऽपि कङ्कोले मार्गणाग्रेऽपि न द्वयोः ॥ ३५ ॥ स्यात्फलं त्रिफलायां च फलिन्यां तु फली स्त्रियाम् । फालं सीरस्य लौहे स्यात्कर्षासादेश्च वाससि ॥ ३६ ॥ बलो हलिनि दैत्येङ्गे काके बलिनि वाच्यवत् । बलं गन्धरसे सैन्ये स्थामनि स्थौल्यरूपयोः ॥ ३७॥ बला वाट्यालके प्रोक्ता बलिः पुंस्यसुरान्तरे । बलिश्चामरदण्डेपि करपूजोपहारयोः ॥ ३८ ॥ सैन्धवेपि बलिः स्त्री तु जरसा श्लथचर्मणि । कुक्षिभागविशेषे च गृहकाष्ठान्तरे द्वयोः ॥ ३९ ॥
पील-पीलु ( जाल ) वृक्ष, हस्ती, आदिका वस्त्र, (न. ) ॥३६॥
पुष्प, दंड या बाण, ताडकी गुठ- बल-बलदेव, एक दैत्य, अंग, काग,
लीका टुकडा, अणुमात्र, (पुं० ) (पुं०) बलवान (त्रि०) पुल-फूलना, विपुल (वहुत ), बल-गोपरस, सेना, स्थिरभाव, मोटा(त्रि०) ॥ ३४ ॥
पन, रूप, (न०)॥ ३७॥ फल-वृक्षआदिका फल, किसीकार-! जला-खडीसी)
णसे उत्पन्नहुवा, ढाल, फल या समृद्धि, लाभ, जायफल, कंकोल,
बलि-असुरभेद ( बलि ), चैवरकी बाणका अग्रभाग, (पुं० न०)।
। डाँडी, राजाका कर, पूजामें भेट
॥ ३८ ॥ सेंधा नमक, (पुं० ) फल-त्रिफला, ( न० ) फली- बलि-वृद्धता करके शिथिलहुवा शरी
प्रियंगु-वृक्ष, (स्त्री) _रचर्म (स्त्री०) उदरका एक भाग, फाल-हलका लोहा (कुस ), कपास घरका काष्ठभेद, (न.) ॥ ३९ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [लान्तवर्गेबल्ली स्यादजमोदायां लतायां कुसुमान्तरे । बालः पुंसि शिशौ केशे वाजिवारणबालधौ ।। ४० ॥ मूर्खेऽपि बालो बालं तु हीबेरे पुनपुंसकम् । बिलं गुहायां रन्ध्रे च विलस्त्विन्द्रये पुमान् ॥ ४१ ।। वेला कालेऽपि सीमायामीश्वराणां च भोजने । दत्तमांसेऽधिवेला स्यात्पयोनाशेऽपि नीरधेः ॥ ४२ ॥ तन्नीरेऽक्लिष्टमरणे राशौ वाचि बुधस्त्रियाम् । भल्लो वाणेऽपि भल्लूके भल्ली भल्लातबाणयोः ॥ ४३ ॥ भालं तु न द्वयोरेव ललाटमहसोर्मतम् । ऋषिभेदे प्लवे भेलो भेलं भीरुहृदि त्रिषु ॥ ४४ ॥ मलस्त्रिप्वेव कृपणे न स्त्री विकिट्टकिल्बिषे । मल्लः पात्रे कपाले च मत्स्यभेदे कपालिनि ॥ ४५ ॥
बल्ली-अजमोद, बेल, पुष्पभेद (स्त्री०) राशि ( समूह ), वाणी, बुधकी बाल-शिशु (छोटा लडका), (त्रि.) स्त्री, ( स्त्री.)॥ ४२ ॥
केश ( बाल ), घोडे और हस्तीका | भल्ल-बाण ( भाला ), रीछ, (पुं०) केशसमूहयुक्त पूँछ, (पुं०) ॥४०॥ भल्ली-भिलावा, बाण (भाला), मूर्ख (त्रि०)
(स्त्री०)॥ ४३ ॥ वाल-नेत्रवाला (पुं० न०) भाल-मस्तक, (ललाट), तेज, (न.) बिल-गुफा, छिद्र, ( न० ) बिल- भेल-ऋषिभेद, छोटी नौका, (पुं०)
इंद्रका अश्व ( उच्चैःश्रवा ) (पुं०) भेल-डरपोकहृदय (त्रि.) ॥ ४४ ॥ ॥४१॥
मल-कृपण (कंजूस ) (त्रि.) वेला-काल, सीमा, राजाआदिकोंका मल-विष्टा, कानआदिका मल, पाप,
भोजन, दत्तमांस (दियाहुवा मांस), (पुं० न०) अधिवेला-समुद्रके जलका नाश, मल्ल-पात्र, कपाल, मत्स्यभेद, कपा
समुद्रका जल, एकांतका मरण, लवाला, (पुं०)॥ ४५ ॥
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लद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
मल्लो बलाढ्ये सुभगे मल्ली तु कुसुमान्तरे । मालुः पत्रलतायां स्याद्वनितायामपि स्त्रियाम् ॥ ४६॥ मालं क्षेत्रे जने मालो माला पुष्पादिदामनि । मूलमाद्यशिफापार्श्वकुञ्जे मूलेऽपि तारके ॥ ४७ ॥ मसिमेलकयोर्मेला मौलिर्धम्मिल्लचूडयोः । किरीटेऽपि द्वयोरेव पुंसि वञ्जुलपादपे ॥ ४८ ।। लीला हावान्तरे स्त्रीणां केलौ खेलाविलासयोः । लोला जिह्वाश्रियोलोलः सतृष्णचलयोस्त्रिषु ।। ४९ ।। व्यालः शठे भुजङ्गे च श्वापदे दुष्टदन्तिनि । शलं तु शल्लकीलोम्नि शलो भृङ्गिगणे विधौ ॥ ५० ॥ शालो मत्स्यान्तरे वृक्षसामान्ये हालभूभुजि ।
शाला वेश्मनि वेश्मैकप्रदेशे स्कन्धशाखयोः ॥ ५१ ।। मल्ल-पहलवान, अच्छे ऐश्वर्यवाला, लीला-स्त्रियोंका हावभेद, क्रीडा, (पुं० )
। खेलना कूदना, विलास, (स्त्री० ) मल्ली-पुष्पभेद, ( मोतिया-भेद ) लोला-जीभ, लक्ष्मी, (स्त्री० ) (स्त्री० )
लोल-तृष्णावाला, चंचल (त्रि.) मालु-पान-बेल, स्त्री, (स्त्री०)॥४६॥ माल-क्षेत्र, (न०)
व्याल-शठ (मूर्ख ), सर्प, वनजीव, माल-जन (पुं०)
___ खोटाहस्ती (पुं० ) माला-पुष्पआदिकी लडी, ( स्त्री० ) मल-आदिमें होनेवाला, वृक्षकी जड, शल-सेहकी शूल (न.) भंगिनामका
समीप, कुंज (लताकुटी ), मूल- गण, चंद्रमा (पुं० ) ॥ ५० ॥
नक्षत्र ( न.)॥४७॥ शाल-मत्स्यभेद, वृक्षमात्र, हाल मेला-स्याही (अंजन ), मिलना नामका राजा, (पुं० ) (स्त्री०)
शाला-मकान, मक्कानका एक हिस्सा, मौलि-केशवेश, चोटी, मुकुट ( पुं० डाहला, शाखा (टहनी )(स्त्री० )
बी०) अशोक-वृक्ष (पुं०) ॥४८॥ ॥५१॥
२२
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३३८
विश्वलोचनकोशः- [लान्तवर्गेशालुः कषायद्रव्येपि शालुश्चोराख्यभेषजे । मतः शालिः पुमान् गन्धमार्जारे कलमादिषु ॥ ५२ ॥ शिला कुनट्यां द्वाराधोदारुणि ग्रावणि स्त्रियाम् ।। शिलमुञ्छशिले क्लीबं गण्डूपद्यां शिली मता ॥ ५३ ॥ शीलं स्वभावे सद्वृत्ते शुक्ले धवलयोगयोः । शुक्लं तु रूप्यके शुक्लां त्रिषु शुक्लगुणान्विते ॥ ५४ ॥ शूलं मृत्यौ ध्वजे ना तु योगे न स्त्री रुगस्त्रयोः । शूला तु पण्ययोषायां दुष्टनाशाय कीलकः ॥ ५५ ॥ शैलः क्षमाभृति शैलं तु शैलेये तार्थ्यशैलके । शालः स्याद्धरणे हाले पादपे सर्जपादपे ॥ स्थालं भाजनभेदे स्यात्स्थाली स्यात्पाटलोखयोः ।। ५६ ॥
शालु-कसैला द्रव्य, असवरग या शुल-चाँदी ( न०) भटेउर औषधि (पुं०)
शुक्ल-सफेदरंगवाला ( त्रि० ॥५४॥ शालि-गंधमार्जार, (गंधविलाव ) शल-मृत्यु, ( न० ) ध्वजा, योग कलम ( साँठी चावल) (पुं० ), (पुं० ) रोग, अस्त्र ( पुं० न०)
झूला-वेश्या, दुष्टोंके मारनेकेलिये शिला-मनशिल, द्वारके नीचेका कीला ( शूली) (स्त्री० )
काष्ठ, पत्थर ( शिला) (स्त्री० ) ॥ ५५ ॥ शिल-उंछ (दुकानआदिसे पड़ा) शैल-पर्वत, (पुं० )
अन्नका इकट्ठाकरना, खेतमें से अन्न शैल-शिलाजीत, रसोत ( न०) __ लेना, ( न०)
साल-सखुवा वृक्ष, साल वृक्ष, शिली-गिडोवा, ( स्त्री० ) ॥ ५३॥ रालका वृक्ष ( पुं० )। शील-स्वभाव, श्रेष्ठवृत्तांत, ( न०) । स्थाल-पात्रभेद (थाल), स्थालीशुक्ल-वेत ( सफेद ), योग (पुं० )। पाठरि, बटलोई ( स्त्री०)॥५६॥
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३
लतृतीयम् । भाषाटीकासमेतः ।
३३९ स्थूलस्तु वाच्यवत्पीने कूटनिष्प्रज्ञयोरपि । हाला मद्ये नृपे हालो हेलाऽवज्ञाविलासयोः ॥ ५७ ॥
___ लतृतीयम् । स्यादङ्गली तु मातङ्गकर्णिकाकरशाखयोः अचलः पर्वते कीले निश्चलेऽप्यचला भुवि ॥ ५८ ॥ अञ्जलिः पुंसि कुडवे करसंपुटकेऽञ्जलिः । अनलो वसुभेदेऽग्नावनिलो वसुवातयोः ।। ५९ ।। अवेलः पूगरागेऽपि रवतोयचशालयोः । अपलापेऽप्यवेलं स्यादवेला पूगचूर्णयोः ॥ ६० ॥ अमला कमलायां स्यादमलं विशदेऽभ्रके। स्यादरालः पुमान्सर्जे मत्तेभे कुटिलेऽन्यवत् ।। ६१ ॥
स्थूल-मोटा (त्रि०) ढेर, बुद्धिहीन, अंजलि-कुडव (१६ तोला), (पुं०)
| हाथों का संपुट ( अंजलि) (पु.) हाला-मदिरा, (स्त्री०) अनल-वसुभेद, अग्नि, (पुं० ) हाल-एकराजा (पुं० )
अनिल-वसु, वायु (पुं० )॥ ५९ ॥ हेला-तिरस्कार, स्त्रियोंका विलास अवेल-सुपारीका रंग,..... ( पुं०) (स्त्री० ) ॥ ५७ ॥
अवेल-गोप्य (न०) लतृतीय ।
अवेला-सुपारी, चूना ( स्त्री० ) अंगुली-हस्तीकी कर्णिका ( सूंड ),
का (सूड), अमला-लक्ष्मी, ( स्त्री० ) हाथकी शाखा ( अंगुली ) (स्त्री०) अमल निर्मल ( त्रि. ) भोडल अचल-पर्वत, कीला, निश्चल ( नहीं (न०) चलनेवाला) (पुं०)
अराल-राल-वृक्ष, उन्मत्त हस्ती अचला-पृथ्वी (स्त्री०) ॥ ५८ ॥ (पुं० ) कुटिल (त्रि.) ॥६१॥.
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३४०
विश्वलोचनकोशः- [ लान्तवर्गेअन्तःकपाटयोर्दण्डे कल्लोलेऽप्यर्गलं त्रिषु । आभीलं न द्वयोः कष्टे त्रिप्वाभीलं भयानके ।। ६२॥ मृगशीर्षशिरस्तारास्विल्वलाः स्युरथेल्वलः। मीने दैत्यप्रभेदे च शृङ्गार उज्वलः पुमान् ।। ६३ ॥ उज्वलो वाच्यवद्दीते परिव्यक्तविकाशिषु । उत्तालो मर्कटे श्रेष्ठे विकरालोत्कटे त्रिषु ॥ ६४ ॥ उत्पलं कुवले कुष्ठे निम्मीसे तु त्रिषूत्पलम् । उत्फुल्लः करणे स्त्रीणामुत्ताने विकचेऽन्यवत् ।। ६५ ।। उत्ताल उद्गते श्रेष्ठेप्यूर्ध्वनालेऽपि वाच्यवत् । उपला शर्करायां स्यादुपलो ग्रावरत्नयोः ॥ ६६ ॥ कदलीभपताकायां पताकायां मृगान्तरे । रम्भायां चाथ कदली पृश्न्यां डिम्ब्यां च शाल्मलौ ॥ ६७ ॥
अर्गल-भीतरका किवाडोंका डंडा उत्पल-कमल या बदरीफल (बेर )
( अरली ), तरंग (त्रि०) (न० ) मांसरहित ( त्रि०) आभील-कष्ट (न. ) भयानक उत्फुल्ल-स्त्रियों का कारण ( हाव) (त्रि.)। ६२ ॥
भावादि (पुं०) सीधा, खिलाइल्वला-मृगशिरनक्षत्रके शिरऊप- हुवा (त्रि.) ॥ ६५ ॥ रकी तारा, ( स्त्री०)
उत्ताल-ऊपरको प्राप्त, श्रेष्ठ, ऊपइल्वल-मच्छी, दैत्यभेद, (पुं० ) रकी नालवाला (त्रि.) उज्वल-शृंगार (पुं० ) ॥ ६३॥ उपला-शर्करा ( शक्कर ) ( स्त्री.) उज्वल-दीप्त, प्रकट, प्रकाशवाला उपल-पत्थर, रत्न (पुं० ) ॥६६॥ (त्रि.)
कदली-हस्तीकी ध्वजा, ध्वजामात्र, उत्ताल बन्दर, श्रेष्ठ, विकराल मृगभेद, केला, पृश्नि ( एडी),
( भयंकर ), उत्कट ( तेज ) मारी, साल-वृक्ष, ( स्त्री. ) (त्रि०)॥ ६४ ॥
॥ ६७ ॥
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लतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
कन्दलं कलहे युद्धे नवाङ्कुरकपालयोः । कलध्वनौ चाथ तरौ मृगभेदेऽपि कन्दली ॥ ६८ ॥ कपिलो मुनिभेदेऽग्नौ शुनि पिङ्गे तु वाच्यवत् । कपिला शिंशपागोत्रभिद्वह्निदिग्दन्तयोषिति ॥ ६९ ।। रेणुकायां च कपिला कपालोऽस्त्री शिरोस्थनि । घटादिशकले कुष्ठरोगभेदे बजेऽपि च ॥ ७० ॥ कमलं जलजे नीरे क्लोन्नि तोषे च भेषजे । कमलो मृगभेदे स्यात्कमला श्रीवरस्त्रियाम् ॥ ७१ ॥ कम्बलो नागराजे ना सानायां च कुथे कृमौ । अपि स्यादुत्तरासङ्गे क्लीबं पयसि कम्बलम् ॥ ७२ ॥ करालो दन्तुरे तुङ्गे भीषणेऽप्यभिधेयवत् । करालो धूनतैले स्यात्करालं तु कुठेरके ।। ७३ ।।
- .. .. ..
.
... -
कंदल-कलह, युद्ध, नवीन अंकुर, कमल-कँवल, जल, फेफडा, संतोष, कपाल, मधुरध्वनि ( न०)
औषधि ( न०) कन्दली-केला, भृगभेद ( स्त्री० ) कमल-मृगभेद, (पुं० ) ॥ ६८ ॥
| कमला-लक्ष्मी, श्रेष्ठ स्त्री, ( स्त्री. ) कपिल-कपिल-मुनि, अग्नि, कुत्ता, ! बल-नागराज, गौके गलकी चर्म, . (पुं० ) कपिलवर्णवाला ( त्रि०)
हस्तीकी पीठपर बिछानेका कपडा, कपिला-सीसम-वृक्ष, पर्वतभेद,
कृमि, डुपट्टा, (पुं०) अग्निकोणके हाथीकी हथनी (स्त्री०)
कंबल-जल ( न० ) ॥ ७२ ॥ ॥ ६९ ॥
कराल-बड़ेदाँतोंवाला, ऊँचा, कपिला-रेणुका, (स्त्री.)
भयंकर (त्रि.) कपाल-शिरकी खोपरी, घडाआ- कराल-रालका तेल, (पुं० )
दिका डुकडा, कुष्ठरोग-भेद, समूह | कराल-सफेदवनतुलसी ( न० ) (पुं० न० ) ॥ ७० ॥
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३४२
विश्वलोचनकोशः- [ लान्तवर्गेकल्लोलः ख्यात उल्लोलः प्रमोदपरिपन्थिषु ।। काकोलो द्रोणकाके स्याद्विषभेदकुलालयोः ॥ ७४ ॥ अपि काकोलकाकोल्यौ स्यातामोषधिभेदयोः ।। काकीलस्तु कलाजीवे कामकेलिप्रणालयोः ।। ७५ ॥ अपाश्रयमनोहारितरुच्छायार्थकोप्ययम् । कामलः कामुके रोगभेदे मरुवसन्तयोः ॥ ७६ ॥ काहली तु तरुण्यां स्यात्काहलं भृशशुष्कयोः । काहला वाद्यभाण्डस्य विशेष काहलः खले ॥ ७७ ॥ किट्टालस्ताम्रकलशे लोहगूथेऽप्ययं पुमान् । कीलालं रुधिरेऽपि स्यात्पानीयेऽपि नपुंसकम् ॥ ७८ ॥ कुकूलं शङ्कुसङ्कीर्णश्वभ्रे पुंसि तुषानले । कुचेला विद्धका स्यात्कुचेलो मलिनांशुके ॥ ७९ ॥
कल्लोल-भारीतरंग, आनंद, शत्रु, ( काहला-अत्यंत, सूखा ( न० ) (पुं०)
काहला-वाद्यभांडभेद ( स्त्री०) काकोल-कागभेद, विषभेद कुम्हार काहल-खल-पुरुष (पुं० ) ।।७७॥ (पुं० ) ॥ ७४ ॥
किट्टाल-ताम्रकलश, लोहेका मल, काकोल-काकोली-औषधिभेद।
(पुं०) ( क्रमसे पुं० स्त्री० ) काकील-कलासे आजीविका करने कीलाल-रुधिर, जल ( न० )
वाला, कामकेलि, प्रणालि (जलनिर्गमस्थान ) ( पुं० )॥ ७५ ॥ कुकूल-शंकु ( कीलाआदि) सेआश्रयरहित, सुंदर वस्तु, वृक्षछाया| कियाहुवा खड्डा, तुषका अग्नि (पुं० )
(पुं० ) कामल-कामी पुरुष, रोगभेद, मरु- कुचेला-सोनापाठा ( स्त्री.)
स्थल, वसंत-ऋतु (पुं० ) ७६ ॥ कुचेल-मलिनवस्त्रोंवाला (त्रि०) काहली-जवान स्त्री, (स्त्री.) ॥ ७९ ॥
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लतृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
कुटिलं वाच्यवद्दर्गे कुटिला निम्नगान्तरे । कुण्डलं कर्णभूषायां तथा वलयपाशयोः ॥ ८० ॥ काञ्चनद्रौ गुडूच्यां च कुण्डली वर्तते स्त्रियाम् । कुद्दालो युगपत्रे स्यात्कुद्दालो भूमिदारणे ॥ ८१ ॥ कुन्तलाः स्युर्जनपदे देशे केशे च कुन्तलः कुन्तलो लाङ्गलेऽपि स्याद्यवे भालेऽपि दृश्यते ॥ ८२ ॥ लोकच्छायाहरे चौरे झ्याले मीने च कुम्भिलः । कुरलः पक्षिभेदे स्यात्कुरलचूर्णकुन्तले ॥ ८३ ॥ कुलालः कुम्भकारेऽपि कुक्कुभे कौशिकेपि च । कुवलं तूत्पले मुक्ताफलेऽपि बदरीफले ॥ ८४ ॥ कुशलं धर्मपर्याप्तिक्षेमेषु त्रिषु शिक्षिते । वाच्यवत्केवलस्त्वेककृत्स्नयोः कुहनेऽपि च ॥ ८५ ॥
कुटिल - दुर्गमस्थान आदि ( त्रि०)
कुटिला - नदी (स्त्री० )
कुंडल - कर्णोंका आभूषण,
कंकण,
॥ ८३ ॥ पाश ( फाँशी ) ( न० ) ॥ ८० ॥ | कुलाल-कुम्हार, वनमुर्गा, कुंडली - सुवर्णवृक्ष गिलोय, ( स्त्री० )
( नागकेसर ),
कुद्दाल-कचनार, खुदाल (पुं० )
11 29 11
कुन्तल-जनपद देशभेद ( पुं० बहुवचनान्त ) कुंतल - केश (बाल), हल, जव, भाला, (पुं० ) ॥ ८२ ॥
३४३
कुंभिल - चोककी छायाहरनेवाला, चोर, साला, मच्छ, (पुं० ) कुरल-पक्षिभेद, जुल्फके बाल, (पुं० )
उलू-पक्षी
( पुं० ) कुवल - कमल, मोती, बेर ( न० )
।। ८४ ।।
कुशल - धर्म, सामर्थ्य, क्षेम, ( न० ) कुशल - शिक्षित ( त्रि० ) केवल - एक, संपूर्ण ( त्रि० ) कुन ( ठगनेकेलिये तपआदि करनेवाला) ( पुं ) ॥ ८५ ॥
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विश्वलोचनकोश:
निर्णीते केवलं ज्ञानभेदे स्यात्केवली न ना । मतः कौ वारिके केशद्रुमजातेऽपि कैशिलः ॥ ८६ ॥ कोमलं मृदुले नीरे मुनौ मधे च कोहलः । गन्धोली वरदायां स्याद्भद्राशट्योरपि स्मृता ॥ ८७ ॥ विषे मानेऽपि गरलं गरलं तृणपूलके । गोकिलो मुसले सीरे गोपालो गोपभूपयोः ॥ ८८ ॥ गैरिलो लोहचूर्णे स्याद्गौरिलो गौरसर्षपे । ग्रन्थिलस्त्रिषु संग्रन्थौ ना करीरे विकङ्कते ॥ ८९ ॥ चञ्चला च तडिलक्ष्म्योश्चश्चलश्चलकामिनोः । वाते पुंस्यथ चत्वालः स्यादर्भे हेमकुण्डले ॥ ९० ॥ चन्द्रितश्चन्द्रमौलौ च वास्तूके नापितेऽपि च । चपलः क्षणिके शीघ्रे चञ्चलेऽप्यभिधेयवत् ॥ ९१ ॥
३४४
केवल-निर्णय कियाहुवा, ( न० ) केवली ज्ञानभेद ( स्त्री० ) कैशिल - पृथ्वी,
वृक्षसमूह ( पुं० ) ॥ ८६ ॥ कोमल - सुकुमार, जल, ( न० ) कोहल - मुनि, मद्य ( पुं० ) गन्धोली- हंसी, पीपलरायसन आदि, कचूर ( स्त्री० ) ॥ ८७ ॥ गरल - विष, ( न० ) गोकिल - मूसल, हल (पुं० ) गोपाल - गोप, राजा ( पुं० ) ॥ ८८ ॥
[ लान्तवर्गे
गौरिल - लोहचूर्ण,
सफेद-सरसों
( पुं० )
जल, केशसमूह, | ग्रंथिल - गाँठोंवाला, ( त्रि० ) कैरवृक्ष, कटाई या विकंकत-वृक्ष ( पुं० ) ॥ ८९ ॥
चंचला - बिजली लक्ष्मी ( स्त्री० ) चंचल-चलायमान, कामी ( पुं० ) चत्वाल-वायु, गर्भ, सुवर्ण-कुंडल ( पुं० ) ॥ ९० ॥ प्रमाण, तृणका पूला चंद्रिल - महादेव, बथुवा-शाक, ( पुं० )
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नाई
चपल - अस्थिर बुद्धिवाला, शीघ्रतावाला, चंचल, (त्रि० ) ॥ ९१ ॥
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३४५
लतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
चपलः पारदे मीने शिलाभेदेऽपि चोरके। चपला कमला विद्युत्पुंश्चलीपिप्पलीष्वपि ।। ९२ ॥ चूडाला चक्रलायां स्याद्वाच्यवचूडयान्विते । छगली छागयोषायां छगली वृद्धदारके ॥ ९३ ॥ छगलस्तु मतश्छागे छगलं नीलवाससि । जगलो मेदके मद्ये कैतवे मदनद्रुमे ॥ ९४ ॥ जङ्गलस्त्रिषु निर्वारिदेशेऽस्त्री जङ्गलं पले । जटिलस्तु जटायुक्ते जटिला मांसिकौषधौ ।। ९५ ॥ जम्भलः पुंसि जम्बीरे जम्भलो देवतान्तरे । जम्बूलो जम्बुविटपे जम्बूलः क्रकचच्छदे ॥ ९६ ॥ जम्बालः शैवले पङ्के जाङ्गलस्तु कपिञ्जले । वाच्यवज्जङ्गलोद्भुते शूकशिम्ब्यां तु जागली ॥ ९७ ॥
चपल-पारा, मच्छ, शिलाभेद, चोर, जंगल-मांस (पुं० न०) (पुं०)
| जटिल-जटावाला, (त्रि.) चपला-लक्ष्मी, बिजली, पुंश्चली जटिला-जटामांसी-औषधि (स्त्री. )
स्त्री, पीपल, ( स्त्री.) ॥ ९२ ॥ चूडाला-निर्षिषी-धास, ( स्त्री० )..
' जम्भल-जंबीरी-नीबू, देवताभेद चोटीवाला (नि.) छगली-बकरी, भिदारा-औषधि
जंबूल-जामन-वृक्ष, शाक-वृक्ष (स्त्री.)॥ ९३ ॥
। (पुं०)॥ ९६ ॥ छगल-बकरा ( पुं० ) छगल-नीला वस्त्र (न. )
जम्बाल-सिवाल, कीच, (पुं०) जगल-मेदक (जगल ), मदिरा, जांगल-कपिंजल-पक्षी, (पुं० )
कपट, मौलसिरी या मैनफल-वृक्ष जंगलमें होनेवाला ( त्रि.) (पुं०)॥९४ ॥
जांगली-कौंचकी फली (स्त्री० ) जंगल-जलरहितदेश ( त्रि०) ॥९७ ॥
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३४६ विश्वलोचनकोशः
[लान्तवर्गेजाङ्गुली विषविद्यायां जाङ्गुलं जालिनीफले । स्यात्तण्डुलस्तु धान्यादिनिकरेऽपि विडङ्गके ॥ ९८ ॥ तमालः खङ्गे तापिच्छे तिलके वरुणद्रुमे । तरलश्चञ्चले खङ्गे भासुरे त्रिषु पुंसि तु ॥ ९९ ॥ हारमध्यमणौ मद्ययवाग्वोस्तरला स्त्रियाम् । ताम्बूली नागवल्यां स्यात्ताम्बूलं क्रमुके मतम् ।। १०० ।। तुमुलं रणसङ्घ तुमुलस्तु कलिद्रुमे । तैतिलो गण्डके पुंसि तैतिलं करणान्तरे ॥ १०१ ॥ दुकूलमद्वयोः क्षौमे दुकूलः सूक्ष्मवाससि । धवलः सुन्दरे श्वेते त्रिषु पुंसि महावृषे ॥ १०२ ॥ धवली सौरभेय्यां स्यान्नकुलः पाण्डवान्तरे । बभौ च नकुली तु स्यात्कुक्कुटयां मांसिकौषधौ ॥ १०३ ॥
जांगुली-विषविद्या ( स्त्री० ) तुमुल रणसंघट्ट ( रणसमूह, ) (न०) जांगुल-झिमनी तोरईके फल (न०), तुमुल-बहेडा-वृक्ष (पुं० ) तंडुल-धान्यआदिका समूह, बाय-तैतिल-गैंडा ( पुं०) बिडंग (पुं०)॥ ९८ ॥
तैतिल-करण ( न० ) ॥ १०१ ॥ तमाल-खड्ग, तमाल-वृक्ष, तिलक
दुकूल-रेशमीवस्त्र (न० ) पुष्पवृक्ष, बरना-वृक्ष (पुं० ) तरल-चंचल, खड्ग, (पुं०) तेज-3'
दुकूल-बारीकवस्त्र ( पुं० ) वाला (त्रि.) ॥ ९९ ॥
धवल-सुंदर, श्वेत ( सफेद) (त्रि.) हारकी मध्यमणि, (पुं०)
| बडाबैल (पुं० ) ॥ १०२ ॥ तरला-मदिरा, यवागू ( पतला रंधा धवली-गौ, ( स्त्री० ) __हुवा अन्न (स्त्री.)
नकुल-एक पांडव, नौला (पुं० ) तांबूली नागरवेल, (सी० ) नकुली-सेमर-वृक्ष, जटामांसी तांबूल-सुपारी ( न०) ॥ १०० ॥ (औषधि ) ( स्त्री०) ॥ १०३ ॥
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लतृतीयम् । ] भावाटीकासमेतः ।
३४७ नाकुली कुक्कुटीकन्दे नाकुली चव्यरानयोः । नाभीलं नाभिगर्भाण्डे वङ्क्षणे चोत्तमस्त्रियः ।। १०४ ॥ निचुलस्तु निचोले स्यानिचुलो हिज्जलद्रुमे । निर्माल्येऽप्यभ्रके क्लीबं विमले त्रिषु निर्मलम् ॥ १०५ ॥ निष्कलस्तु कलाशून्ये नष्टबीजेऽपि वाच्यवत् । निष्कला तु मता तस्यां या नारी विगतार्तवा ॥ १०६ ॥ वर्तुलेऽपि चलेऽपि स्यान्निस्तलं वाच्यलिङ्गकम् । नेपाली नवमाल्यां स्यात्कुनटीसुवहाख्ययोः ॥ १०७ ॥ पञ्चाली पुत्रिकागीत्योः पञ्चालो जनदेशयोः । पटलं तु छदिनॆत्ररुक्पिट के परिच्छदे ॥ १०८ ॥ न पुंसि वृन्दे पटलं पटोलं कर्कशच्छदे । पटोलं वस्त्रभेदे स्याज्ज्योत्स्निकायां पटोल्यपि ॥ १०९ ॥
नाकुली-कुकुटीकंद, चव्य, रायसन ! निस्तल-गोल आकार, चल (अ. (स्त्री०)
स्थिर) (त्रि.) नाभील-श्रेष्ठस्त्रीकी नाभि (ट्रंडी )के नेपाली-नेवारी, मनसिल, काले भीतरका अंडा, जंघा की संधि
फूलवाली निगुडी ( स्त्री० ) ( न०) ॥ १०४ ॥
॥ १०७ ॥ निचुल-अंगरखा,हिजल (जलवेत)का .
" पंचाली-पुतली, गीति, (स्त्री० ) __ भेद (पुं) निर्मल-निर्माल्य ( भोगीहुईवस्तु),
पंचाल-जन, देश (पुं० ) भोडल, ( न०) मलरहित (त्रि.)।
पटल-परदा, नेत्ररोग, पिटारी, ॥ १०५ ॥
___ ढकना, ( न०) ॥ १०८ ॥ निष्कल-कलारहित, नष्टबीज ( नष्ट- पटल-समूह ( स्त्री० न०)
वीर्य ) पुरुषआदि ( त्रि. ) पटोल-परवल, वस्त्रभेद, ( न० ) निष्कला-रजस्खलाहोनेसे बंदहुई | पटोली-सफेद फूलकी तोरई या रेस्त्री (स्त्री० ) ॥ १०६ ॥
णुका ( स्त्री० ) ॥ १०९ ॥
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विश्वलोचनकोश:
तिलचूर्णे पले पङ्के पललं राक्षसे पुमान् । पाकलं कुष्ठभैषज्ये पाकलः कुञ्जरज्वरे ॥ ११० ॥ कुटपूर्वश्च तत्रैव नवपाके तु पाकली । पाचलो राधनद्रव्ये दहने पवनेऽपि च ॥ १११ ॥ पाटला पाटलितरौ पुष्पे स्यात्पाटला न ना । पाटली पाटलायां स्यादाशुव्रीहौ तु पाटलः ॥ ११२ ॥ पाटलः श्वेतरक्तेऽपि तद्वति त्रिषु पाटलम् | मृत्पात्रभेदे वामायां वागुरायां च पातिली ॥ ११३ ॥ पातालं भूतलेऽप्यौर्वे बन्धक्यां भुवि पांशुला । पांशुलः पुंश्चले शम्भुखद्वाङ्गे पांशुसंयुते ॥ ११४ ॥ पिङ्गलो मुनिभेदेऽमौ चण्डांशोः पारिपार्श्विके । निधिभेदे कपौ रुद्रे पिङ्गलः कपिलेऽन्यवत् ॥ ११५ ॥ पलल-तिलचूर्ण, पल ( कालमान ) | पाटल-श्वेतमिश्रित रक्तवर्ण, (पुं० ) ')
कीच ( न०
श्वेतरक्तवर्णवाला ( त्रि० )
३४८
पलल - राक्षस, (पुं० )
पाकल -कूट - औषधि, (न० }
पाकल - हस्तीका
॥ ११० ॥
ज्वर ( पुं० )
कुटपाकल - हस्तीका ज्वर ( पुं० ) पाकली - नवीन-पाक ( स्त्री० ) पाचल - राधन ( सिद्ध ) द्रव्य, अमि, पवन, (पुं० ) ॥ १११ ॥ पाडल के पुष्प
पाटला- पाढर-वृक्ष,
( स्त्री० न० ) पाटली - मोखा या पाढल, (स्त्री० ) पाटल - आशुधान ( पुं० ) ॥ ११२ ॥
[ लान्तवर्गे
पातिली - मिट्टी के पात्रका भेद, स्त्रीभेद, मृगबंधिनी (बावर ) ( स्त्री० ) ॥ ११३ ॥
स्त्री, पृथ्वी
पाताल - पृथ्वीका तलभाग, वडवानल ( पुं० ) पांशुला - व्यभिचारिणी ( स्त्री० ) पांशुल - व्यभिचारी-पुरुष, शिवका वांग ( पु० ) धूलियुक्त (त्रि०)
॥ ११४ ॥
पिंगल - मुनिभेद, अनि, सूर्यका समीपवर्ती, निधिभेद, बंदर, रुद्र, ( पुं० ) पिंगलवर्णवाला ( त्रि० )
॥ ११५ ॥
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लतृतीयम् । भाषाटीकासमेतः।
३४९ स्त्रियां करायिकावेश्या कुमुदस्त्रीषु पिङ्गला। पिचुलो झबुके पुंसि निचुले वारिवायसे ॥ ११६ ॥ पिच्छिला शाल्मलौ सिन्धुभेदेशिंशपयोः स्त्रियाम् । स्त्रियामुपोदिकायां च पिच्छिलो विजिले त्रिषु ॥ ११७ ॥ पिञ्जलं कुशपत्रे स्यात्पीतेऽपि त्रिषु पिञ्जलम् । पित्तलं तैजसद्रव्ये पित्तयुक्ते तु वाच्यवत् ॥ ११८ ॥ पिप्पला जलपिप्पल्या बोधिवृक्षे तु पिप्पलः । निरंशुले पक्षिभेदे पिप्पलः पिप्पलं जले ॥ ११९ ।। वसनच्छेदभेदेऽपि कणायां तु च पिप्पली। पुद्गलः सुन्दराकारे देहे चात्मनि पुद्गलः ॥ १२० ॥ पेशलो रुचिरे दक्षे चारुशीलेऽपि वाच्यवत् ।
प्रस्खलो वाजिसन्नाहे त्रिषु ह्यन्तश्चले चले ॥ १२१ ॥ पिंगला-पक्षिणीभेद, वेश्याभेद, कु- पिप्पला-जलपीपल (स्त्री) मुदिनी (स्त्री.)
पिप्पल-पीपल-वृक्ष (पुं० ) पिचुल-झाऊ-वृक्ष, जलवेतका भेद, पिप्पल-कांतिहीन, पक्षिभेद, (पुं०)
जलकाग (पुं०)॥ ११६ ॥ पिप्पल-जल (न०) ॥ ११९ ॥ पिच्छिला-साल-वृक्ष, नदीभेद, वस्त्र फटनेका भेद, (पुं०)
सीसम-वृक्ष, शकुन-चिड़ी (स्त्री०) पिप्पली-पीपल-औषधि (स्त्री.) पिच्छिल-मंडयुक्त दधिआदि (त्रि.) पुद्गल-सुंदर आकारवाला शरीर, आ. ॥११७)
___त्मा, (पुं०)॥ १२०॥ पिंजल-कुशाका पत्र (न०) पीला पेशल-सुंदर, चतुर, अच्छे स्वभावरंगवाला (त्रि.)
वाला (त्रि.) पित्तल-पीतल-धातु, (न०) पि-प्रस्खल-अश्वका कवच, (पुं०)
त्तमुक्त (त्रि.) ॥ ११८॥ अंतःकरणसे चलित, ॥ १२१ ॥
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३५०
विश्वलोचनकोशः- [लान्तवर्गेप्रतलः स्यात्संहतयोमिदक्षिणहस्तयोः । पाताललोके प्रतलस्तताङ्गुलिकरेऽपि च ॥ १२२ ॥ वीणादण्डे प्रवालोऽस्त्री विद्रुमे नवपल्लवे । फेनिलोऽरिष्टवृक्षे स्यात्फेनिलं बदरीफले ॥ १२३ ॥ मदनद्रुफले चैव सफेने फेनिलस्त्रिषु । बन्धलस्त्वामले पुञ्ज पल्वले मत्तकुञ्जरे ॥ १२४ ॥ बहुलं व्योम्नि बहुला त्वेलानीलिकयोर्भुवि । बहुलाः कृत्तिकासु स्युः कृष्णपक्षेऽनले पुमान् ॥ १२५ ॥ बहुलस्तु मतः प्राज्ये कृष्णवर्णेऽपि वाच्यवत् । बार्दलो दुर्दिने पुंसि मसीधानेऽपि वाईलः ॥ १२६ ।। मङ्गला श्वेतदूर्वायां मङ्गलस्तु महीसुते । मङ्गलं श्रेयसि क्लीबं तथा लब्धार्थरक्षणे ॥ १२७ ॥
प्रतल-बायें दायें दोनों हाथ मिले बला-इलायची, नीला (नील),
हुए, पाताललोक, फैलीहुई अंगु- पृथ्वी ( स्त्री.) लियोंवाला हाथ ( पुं० ) ॥१२२॥ वद्दला-छहों कृत्तिका ( स्त्री० ) प्रवाल- बीणाका दंड, मूंगा, नवीन
- बहुल-कृष्णपक्ष, अग्नि ( पुं० ) __ पल्लव ( पुं० )
॥ १२५ ॥ बहुत, काला रंगवाला फेनिल-रीठाका वृक्ष, ( पुं० ) फेनिल-बेरीका फल (बेर )॥१२३॥
(त्रि.)
बादल-मेघोंसे छायादिन, दवात मैनफल ( न०) फेनिल-फेनों ( झागों ) वाला (पु० ) ॥ १२६ ॥ (त्रि.)
| मंगला-सफेद दूब, (स्त्री० ) बन्धल-आँवला, समूह, छोटी ता- मंगल-मंगल-ग्रह (पुं० )
लाई, उन्मत्त हस्ती (पुं० ) १२४, मंगल-कल्याण, लब्धद्रव्यकी रक्षा बहुल-आकाश, ( न०) | (न० ) ॥ १२७ ॥
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लतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
मञ्जुलो जलरको स्यान्मञ्जौ तु त्रिषु पेषलः । मलख्खं शैवले कुले बिम्बेषु त्रिषु मण्डलम् ॥ १२८ ॥ मण्डलं निकुरुम्बेऽपि देशे द्वादशराजके । कुष्ठाहिभेदे परिधौ चक्रवाले च मण्डलम् ॥ १२९॥ मण्डलं स्यान्मण्डलके सारमेये तु मण्डलः । महिला तु महेलायां महिलाऽभीरुगुन्द्रयोः ॥ १३० ॥ माचलो वन्दिचौरे स्यादामये ग्राहयादसोः । धत्तूरे सामके बीही मदनद्रौ च मातुलः ॥ १३१ ॥ समन्तात्तालमूल्याखुकर्योस्तु मुसली स्त्रियाम् । मुसली गृहगोधायामयोग्रे मुसलं मतम् ॥ १३२ ॥ काञ्च्यां शैलनितम्बे च खड्गबन्धे च मेखला । मेखला कटिदेशे च रसालः सरसे त्रिषु ॥ १३३ ।।
मंजुल-जलमृग, (पुं० ) सुंदर, | महिला-स्त्री, शतावर, फूल प्रियंगू (त्रि.)
( स्त्री०) ॥ १३० ॥ चतुर-सुंदर ( त्रि.)
माचल-वन्दिचोर, रोग, ग्राह, जल
। जंतु (पुं०) मंजुल-सिवाल, कुंज, (न०)
मातुल-धतूरा, सामक, व्रीहि, भैनमंडल-बिंब ( त्रि.)॥ १२८ ॥ फल-वृक्ष, (पुं० )॥ १३१ ।। मंडल--समूह (न० ) बारह राजा-मुसली-तालमूली, मूसाकन्नी, छप__ ओंके मध्यका देश, कुष्ठभेद, सर्प- कली, (स्त्री० )
भेद, कभी दीखनेवाला सूर्यका मुसल-मूसल (न०)॥ १३२॥
कुंडल, (गोल घेरा) ( पुं० )१२९ मेखला-करधनी, पर्वतका नितंब, मंडल-गोल मंडल, ( न०) कुत्ता खड्गबंध, कटिदेश, ( स्त्री० ) (पुं०)
। रसाल-रसवाला, (त्रि. )॥१३३॥
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३५२ विश्वलोचनकोशः
[ लान्तवर्गेरसाल इक्षौ चूते च रसालं बेलिसियोः । रसाला मार्जितायां स्याज्जिह्वादूर्वा विदारिषु ॥ १३४ ॥ रामिलो रमणे कामे लाङ्गलं पुच्छशेफयोः । लाङ्गली जलपिप्पल्यां लागलं कुसुमान्तरे ॥ १३५ ॥ गृहदारुविशेषे च सीरे ताले च लाङ्गलम् । लोहलः शृङ्खलाधार्ये त्रिषु त्वव्यक्तभाषिणि ॥ १३६ ॥ वण्टालः शूरयोयुद्धे पुंसि नौकाखनित्रके ।। वातुलो वातसंघाते वातले मारुताऽसहे ॥ १३७ ।। वातलं राजकूष्माण्डबीजकोलास्थिवीजयोः । वामिलो दाम्भिकेऽपि स्यात्रिषु वामेऽपि वामिलः ॥ १३८ । बिडालः पुंसि मार्जारे बिडालो विहगान्तरे । विपुलः पृथुलेऽगाधे मेरुपश्चिमपर्वते ॥ १३९ ।।
रसाल-ऊस, आम, (पुं० ) बोल, नेयोग्य) (पुं० ) अप्रकट बोलशिलारस (न.)
नेवाला (त्रि. ) ॥ १३६ ॥ रसाला-दही शहद खांड मिरच वण्टाल-शूरवीरोंका जुद्ध, नौका,
अदरक आदिसे बनाई हुई चटनी, जमीन खोदनेका औजार ( पुं० ) जीभ, दूब, विदारीकंद (स्त्री० ) वातूल-वायुका समूह (पुं० ) वात॥ १३४ ॥
_ वाला, वायुको नहीं सहनेवाला रामिल-रमण (पति), कामदेव, (त्रि.)॥१३७ ॥ (पुं०)
वातल--कोलाके बीज, बेरकी गुंठलांगूल-पूँछ, लिंग, (न० )
ली, (न.) लाङ्गली-जलपीपल, (स्त्री०) वामिल-दंभी, सुंदर (त्रि. )१३८ लांगल-पुष्पभेद, (न०) ॥१३५॥ बिडाल-बिलाव, पक्षिभेद ( पुं०) गृहकाष्ठविशेष, हल, ताड-वृक्ष, (न०) विपुल-बडा, बिनाथावाला, सुमेलोहल-शृंखलाधार्य (संकलसे रोक रुका पश्चिमपर्वत (पुं.)॥१३॥
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लतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
३५३ विमला शातलाभूमिभेदयोर्निर्मले त्रिषु । विशालो वृक्षभेदे स्याद्विशाले विपुलेऽन्यवत् ॥ १४० ॥ विशाला विन्द्रवारुण्यामुज्जयिन्यां च दृश्यते । वृषलः पुंसि शूद्रे स्याच्चन्द्रगुप्तेऽपि राजनि ॥ १४१ ।। शकलं वल्कले खण्डे रागवस्तुत्वचोरपि । क्ली पाथेयकुलयोर्मत्सरे त्रिषु शम्बलम् ॥ १४२ ॥ शयालुः शुन्यजगरे निद्राशीले तु वाच्यवत् । शरालं नीरसोपाने वास्तुपोतेऽपि पञ्जरे ॥ १४३ ॥ ऋजौ वक्रे च शीले च शार्दूलो राक्षसान्तरे । अष्टापदेऽपि व्याप्रेऽपि श्रेष्ठे स्यादुत्तरस्थितः ॥ १४४ ॥ शाल्मलिस्तु द्वयोवृक्षभेदे द्वीपान्तरेऽपि च । शीतलं शैलजे पुष्पे काशीशे मलयोद्भवे ।। १४५ ॥
विमला-शातला (थूअर ) भेद, शयालु-कुत्ता, अजगर, ( पुं० )
पृथ्वीभेद, (स्त्री०) निर्मल, (त्रि.) निद्राशील ( त्रि०) विशाल-वृक्षभेद, (पुं० ) बडा, शराल-तालाबकी पैड़ी, गृहनौका,
वहुत, (त्रि०)॥ १४० ॥ पीजरा, ( न० ) ॥ १४३ ॥ विशाला-इंद्रायण-औषधि, उज्जैन-.
। सरल, वक्र, शील, ( त्रि.)
"" ! शार्दूल-राक्षसभेद, अष्टापद (धतूरा नगरी (स्त्री.)
म या सोना) बघेरा, और दूसरे वृषल-शूद्र, चंद्रगुप्त राजा (पुं० ) ॥ १४१॥
। (पुं०) ॥ १४४ ॥ शकल-वृक्षका बल्कल, टुकड़ा, रंग- शाल्मलि-वृक्षभेद, द्वीपभेद, (पुं० नेकी वस्तु, चर्म ( न०)
स्त्री०) शम्बल-मार्गकी खरची, कुल, (न०) शीतल-पत्थरका फूल या भूरिछमत्सरी-पुरुषआदि (त्रि.) रीला, कसीस, मलयाचलमें होने
वाला ( चंदन) (न०) ॥१४५ ॥
२३
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३५४
विश्वलोचनशकोश:
[ लान्तवर्गे
१४६ ॥
शीते चासनपय च शीतलः शीतले त्रिषु । शेवाले शीतलं क्लीवं शैलेयेऽपि च शीतलम् ॥ शृगाली तु शिवाभीत्योः शृगालः फेरुदैत्ययोः । शृङ्खला निगडेऽपि स्यात्पुंस्कटीवस्त्रबन्धने ॥ १४७ ॥ शेवाले पद्मकाष्ठेऽपि शैवलं मतमद्वयोः । शौष्कलः शुष्कमांसस्य पाणिके पिशिताशिनि ॥ १४८ ॥ इमामलस्त्वसितेऽखच्छे श्यामवर्णे तु वाच्यवत् । श्रद्धालुर्दोहदिन्यां स्याद्वाच्यवच्छ्रद्धयान्विते ॥ १४९ ॥ श्रीफली नीलिकाधात्र्योम्र्म्माल श्रीफली पुमान् । षण्डाली तु सरोजिन्यां कामुकीतैलमानयोः ॥ १५० ॥ सङ्कुलं वाच्यवद्वयाप्तेऽस्पष्टार्थवचनेऽपि च । सन्धिला तु सुरङ्गायां नदीमदिरयोरपि ॥ १५१ ॥
i
स्त्री (स्त्री० ) श्रद्धायुक्त, (त्रि० )
शीतल-ठंड, रसुनियां घास या को श्रद्धालु - दोहद ( इच्छा ) वाली यल, (पुं० ) ठंढा, ( त्रि० ) शिलाजीत ( न० ) ॥ ९४६ ॥ शृगाली - गीदडी, भीति, (भय) (स्त्री०) शृगाल- गीदड, दैत्य, (पुं० ) शृंखला - वेडी, पुरुषकी कटिवस्त्रका बंधन ( स्त्री० ) ॥ १४७ ॥ शैचल-सिवाल, पद्माख - औषधि ( न० )
शौष्कल - सूखे मांसकी दुकानवाला, मांसभक्षी ( पुं० ) ॥ १४८ ॥ श्यामल-नीलवर्ण, मलिनवर्ण (पुं० ) श्यामवर्णवाला ( त्रि० )
!
॥ १४९ ॥
श्रीफली-नीली, (नीलका पेड ), आँवला, (स्त्री० ) श्रीफल - बेल वृक्ष, (पुं० ) षण्डाली - कमलिनी, संभोगकी इच्छावाली स्त्री, तैलप्रमाण, (स्त्री० )
॥ १५० ॥
सङ्कुल - व्याप्त, ( त्रि० ) अस्पष्टअर्थ. वाला वचन, ( न० >
मदिरा,
नदी,
संधिला - सुरंग, | ( स्त्री० ) ॥ १५१ ॥
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लचतुर्थम् 1]
भाषाटीकासमेतः ।
लचतुर्थम् ।
बलाभेदे स्वातंबला प्रबलेऽतिबलस्त्रिषु ॥ अक्षमाला विजानीयादरुन्धत्यक्षसूत्रयोः ॥ १५२ ॥ उदूखलं गुग्गुलौ स्यादुलूखलमुलूखले । एकाष्ठीला स्त्रियां पुंसि पापचेल्यां बुके क्रमात् ॥ १५३ ॥ कमाल मरुद्वाहे नागभेदे जटान्तरे । कन्दरालः पुमान्गर्दभाण्डेऽक्षलक्षवृक्षयोः ॥ १५४ ॥ अस्त्री कमण्डलुः कुण्ड्यां पर्कटीपादपे पुमान् । क्लीवं कर्मफलं कर्म्मरङ्गकर्म्मविपाकयोः ॥ १५५ ॥ पुंसि कोलाहले सर्जरसे कलकलः स्मृतः । कुतूहलं कौतुके स्यात्रिषु शस्ते कुतूहलम् ॥ १५६ ॥ कृताञ्जलिस्तु भैषज्ये विहितो येन चाञ्जलिः । खतमालः पुमान्धूमे खतमालो बलाहके ॥
१५७ ॥
पिलखनवृक्ष, (पुं० )
लचतुर्थ |
अतिबला-खरहटीभेद ( पीलेरंगकी
खरहटी, ) (स्त्री० )
अतिबल - प्रबल-पुरुष आदि (त्रि ० ) अक्षमाला - अरुंवती ( वसिष्ठकी
स्त्री ), रुद्राक्षकी माला, ( स्त्री० ) ॥ १५२ ॥
उदू (लू) खल- गूगल, ऊँखल, (न० ) एकाष्टीला - सोनापाठा, ( स्त्री० ) एकाष्ठील- गूमा औषधि ( पुं० )
॥ १५३ ॥ कचमाल
, नागभेद, जटाभेद
( पुं० ) कन्दराल-पारसपीपल,
या बहेडा,
॥ १५४ ॥
कमंडलु - कुंडी, पिलखन-वृक्ष, (पुं०) ( पुं० न० ) कर्मफल- कमरख फल, कर्मों का फल,
( न० ) ॥ १५५ ॥
कलकल - कोलाहल, ( हल्ला ), राल - वृक्ष, (पुं० )
३५५
कुतूहल - कौतुक,
॥ १५६ ॥
श्रेष्ठ, (न० )
कृतांजलि औषधि, जिसने अंजलि
करी है वह (पुं० )
अखरोट खतमाल - धूवाँ, मेघ, (पुं० ) १५७
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३५६
विश्वलोचनकोशः- [ लान्तवर्गेगण्डशैलो गिरिभ्रष्टस्थूलोपलकपोलयोः। स्त्रियां गन्धफली फल्यां तथा चम्पककोरके ।। १५८ ॥ गोलांगूलं तु गोपुच्छे गोलाङ्गलः कपौ पुमान् । चक्रबालो गिरेभेदे चक्रवालं तु मण्डले ॥ १५९ ।। जलाञ्चलं तु शैवाले स्वतः पानीयनिर्गमे । दलामलं मरुबके दमनेऽपि दलामलम् ॥ १६० ॥ ध्वनिनाला तु वीणायां वेणुकाहलयोरपि । भवेत्परिमलश्चित्तहारिगन्धविमर्दयोः ॥ १६१ ॥ रतामर्दसमुन्मीलदङ्गरागादिसौरभे । पीठकेलिः पीठमर्दै करकाकेक्षिरागयोः ॥ १६२ ।। दौर्गतौ वारिवाहे च पीठकेलिपदाभिधा । स्त्रीपुंसयोबहुफला मलयूनीपयोः क्रमात् ॥ १६३ ॥
गंडशैल-पर्वतसे गिराहुवा बडा ध्वनिनाला-बीणा, वेणु (वंशी),
पत्थर, कपोल ( गाल), (पुं० ) काहल, (बडा ) नगारा, (स्त्री०) गंधफली-फूलप्रियंगू, चपाकी परिमल-चित्तको हरनेवाला गंध, __ कली, (स्त्री०) ॥ १५८ ॥
(पुं० ) ॥ १६१ ॥ गोलांगूल-गौकी पूंछ, (न०) वन्दर, विशेषमर्दन, सुरतके मर्दनमें उत्पन्न (पुं०)
। हुवा अंगरागका गंध, (पुं०) चक्रवाल-पर्वतभेद, (पु.) मंडल, ॥१६२ ॥ जलांचल-शिवाल, आपसे पानीका पीठकेलि-अतिधृष्ट, ओला, नेत्ररं. झिरना, (न०)
| जन, दुर्गतिवाला, मेघ, (पुं० स्त्री०) दलामल-मरुवा, दौना, ( न०)| बहुफला-कठूमर, (स्त्री.) ॥ १६० ॥
बहुफल-कदंब-वृक्ष, (पुं०) ॥१६३॥
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लचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः।
३५७ बृहन्नलो गुडाकेशे महापोटगलेऽपि च । भद्रकाली तु पार्वत्यां गन्धोल्यामोषधीभिदि ।। १६४ ॥ भस्मतूलं हिमे पांशुवर्षणग्रामकूटयोः । मणिमाला मता योषिद्दशनक्षतहारयोः ॥ १६५॥ मदकलः स्यान्मत्तेभे मदेनाऽव्यक्तवाचि च । महाकालो महादेवे किम्पाके प्रमथान्तरे ॥ १६६ ॥ महानीलो नागभेदे महानीलश्च मार्कवे। महाबलं सीसके च बलप्रौढे तु वाच्यवत् ॥ १६७ ॥ गोरक्षतण्डुलायां तु स्त्रियामेव महाबला । मुक्ताफलं तु मुक्तायां कर्णपूरे बले फले ॥ १६८ ॥ स्यात्कदल्यां मृत्युफली महाकालतरौ पुमान् । पुमान्यवफलो वेणौ कुटजे मासिकौषधौ ॥ १६९॥
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बृहन्नल-अर्जुन, बडा देवनल या महानील-नागभेद, कूकरभंगरा, काश, (पुं०)
(पुं० ) : भद्रकाली-पार्वती, छोटाकचूर, महाबल--महाबल शीशा, (न० )
औषधिभेद, (स्त्री०) ॥ १६४ ॥ बहुतबलवान, (त्रि.)॥ १६॥ भस्मतूल-हिम (ठंढ), गाँवका कुरड़, महाबला-गंगेरन (स्त्री. )
रजका बरसना, मणिमाला-स्त्रीके दांतोंसे काटनेका
मुक्ताफल-मोती, कर्णआभूषण, चिह्न, हार, (स्त्री०)॥ १६५॥ ।
____ बल, फल, (न० ) ॥ १६८ ॥ मदकल-उन्मत्त हस्ती, मदसे अव्य-मृत्युफली-केला, ( स्त्री०)
क्तवाणीवाला, (पुं०) कदल-महाकाल-वृक्ष, ( पुं० ) महाकाल-महादेव, महाकाललता, यवफल-बांस, इंद्रजव, जटामांसी
शिवगणभेद, (पुं०)॥ १६६ ॥ । औषधि, (पुं० ) ॥ १६९ ॥
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विश्वलोचनकोश:
रजस्वलस्तु महिषे पुष्पवत्यां रजस्वला | वातकेलिः कलालापे षिङ्गानां दन्तखण्डने ॥ १७० ॥ क्लीबं वायुफलं शक्रकार्मुके वर्षणोपले । पुमान्विचकिलो मल्लीभेदे दमनकेऽपि च ॥ १७१ ॥ उदुम्बरे स्कन्धफले नालिकेरे सदाफलः । हरिताली नभोरेखाखङ्गदूर्वासु दृश्यते ॥ १७२ ॥ हलाहलो ब्रह्मसर्पे ज्येष्ठिकायां विषान्तरे । ऐरावते हस्तिमल्लो हस्तिमल्लो विनायके ॥ १७३ ॥
३५८
लपंचमम् ।
आसुतोबलशब्दस्तु मतो यज्वनि शौण्डिके । भवेदुद्दण्डपालस्तु मत्स्य सर्पप्रभेदयोः ॥ ९७४ ॥ राजराजेऽपि कालिन्दीभेदनेप्येककुण्डलः ।
गजपित्तज्वरे पाके पवने कूटपाकलः ॥ १७५ ॥
[ लान्तवर्गे
सदाफल- गूलर,.. ( पुं० ) हरिताली - आकाश रेखा, खड्ग, ( स्त्री० ) ॥ १७२ ॥
"
रजस्वल-भैंसा, ( पुं० ) रजस्वला-ऋतुधर्मवाली स्त्री (स्त्री०) वातकेलि-सूक्ष्मशब्दसे आलाप, कामी पुरुष के दांतों काटना, (स्त्री०)
॥ १७० ॥
वायुफल - इंद्रधनुष, वर्षाका पत्थर
( ओला ), ( न० ) विकिल - मल्लिकाभेद, दौना, (पुं०)
॥ १७१ ॥
नालीर
एककुंडल - कुबेर, बलदेव, (पुं० ) दूब, कूटपाकल - हस्तीका पित्तज्वर, पाक, पवित्रकरना, (पुं० ) ॥ १७५ ॥
हलाहल - ब्रह्मसर्प ( नागभेद ), जेठीमधु, विषभेद ( पुं० ) हस्तिमल्ल - ऐरावत हस्ती, ( पुं० ) ॥ १७३ ॥
गणेश
लपंचम |
आसुतीबल-यज्ञकरनेवाला, मदिरा बेचनेवाला, (पुं० ) उदंडपाल - मच्छभेद, सर्पभेद, (पुं०)
।। १७४ ॥
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३५९
वैकम् ।
भाषाटीकासमेतः । कृपीटपालः पुंस्येव केनिपातसमुद्रयोः ॥ १७६ ॥ ॥ स्यात्पाण्डुकम्बलः श्वेतकम्बले ग्रावदन्तरे । विवाहदिनसम्बन्धशिरोमाल्येऽपि सम्मता ॥ १७७ ॥ मता सुरतताली तु दूतिकामस्तकस्रजोः । मत्रचूर्णलमिच्छन्ति वशीकरणवेदिनि ॥ १७८ ॥ डाकिनीमोक्षमन्त्रज्ञे कुशाम्बुप्रोक्षणेऽपि च ॥ १७९ ॥
इति विश्वलोचनेऽपराभिधानायां मुक्तावल्यां लकारान्तवर्गः ॥
अथ वान्तवर्गः।
वैकम् । वः कुम्भे वरुणे व स्यादिवार्थे सांत्वनेऽव्ययम् । वा वाततातयोग्रन्थौ विः खगाकाशयोः पुमान् ॥ १॥
स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं तु त्रिष्वात्मीये धनेऽस्त्रियाम् । कृपीटपाल-पतवार, समुद्र, (पुं०)। इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें ॥ १७६ ॥
लान्तवर्ग समाप्त हुवा । पांडुकंबल-सफेद कंबल, पत्थरभेद,
अथ वान्तवर्गः। (पुं०)
वैकम् । सुरतताली-विवाहदिनकी शिरकी | व-कुंभ, वरुण, (पुं० ) व-इव-अमाला, (स्त्री०)॥ १७७ ॥ व्ययका अर्थ (सादृश्यार्थ ), दूती, मस्तककी माला, ( स्त्री० )।
सांत्वना ( अव्यय ), ॥ १७८ ॥
वा-वायु, तात (पिता पुत्र आदि),
(पुं० ) मंत्रचर्णल-वशी करण जाननेवाला, वि-पक्षी, आकाश (पुं०)॥१॥
डाकिनी छोडने का मंत्र जाननेवाला, स्व-जाति, आत्मा (पुं० ) स्वकुशाके जलसे प्रोक्षण (छींटादेना), आत्मीय ( अपना ), (त्रि०) (पुं० ) ॥ १७२॥
____ धन, (पुं० न० )
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३६०
विश्वलोचनकोशः- [ वान्तवर्ग
वद्वितीयम् । कविः शुक्रेऽपि वाल्मीके सूरौ काव्यकरे पुमान् ॥ २ ॥ किण्वं पापे सुराबीजे क्लीबः पण्डेऽप्यविक्रमे ।
खो हखे न्यगर्थेपि खर्वः स्यादभिधेयवत् ॥ ३ ॥ ग्रीवा ग्रीवाशिरायां स्याद्रीवा स्यात्कन्धराभिधा । छविः स्यादपि शोभायां द्यतावपि मतश्छविः ॥ ४ ॥ ओन्ड्रपुष्पे जवा वेगे जवो वेगिनि वाच्यवत् । जीवो वाचस्पतौ वृक्षप्रभेदे प्राणिमात्रयोः ॥ ५ ॥ जीवा जीवन्तिकामौर्वीक्षितिशिञ्जितवृत्तिषु । मता जीवा बचायां च जीवा जीवं च जीविते ॥ ६ ॥ तत्त्वं खरूपे नृत्यस्य प्रभेदे परमात्मनि । दवो दावश्व पुंस्येव वनेऽपि वनपावके ॥ ७ ॥ दिवं स्वर्गेऽन्तरिक्षे च द्यौद्यौर्दिवि च खे स्त्रियाम् । देवो राज्ञि सुरे मेघे देवं स्यादिन्द्रिये मतम् ॥ ८ ॥
पद्वितीय । जीव-जीवन्ती, मेंढासींगी, पृथ्वी, कवि-शुक्र, वाल्मीक, पंडित,काव्यको भूषणोंका शब्द, वृत्ति (जीविका), रचनेवाला, (पुं०)॥ २ ॥
बच, (स्त्री०) जीव-जीवित, किण्व-पाप, मदिराका बीज, क्लीब (पुं० न० ) ॥ ६ ॥
(नपुंसक), पराक्रमरहित, (त्रि.) तत्त्व-स्वरूप, नृत्यभेद, परमात्मा, खर्व-छोटा, ( बौना), नीच, (त्रि.) (न० )
दव-दाव-वन, वनअग्नि, (पुं०) ग्रीवा-गरदनकी नाड़ी, गरदन, (स्त्री.)! ॥७॥ छवि--शोभा, दीप्ति, (स्त्री०) ॥ ४॥ दिव-वर्ग, अंतरिक्ष, (पृथ्वी और जवा-गुडहरपुष्प, (स्त्री० )
आकाशका मध्य), (न.) जव-वेग (शीघ्रता), वेगवाला, (त्रि.)| दिव-स्वर्ग, आकाश, (स्त्री.) जीव-बृहस्पति, वृक्षभेद, प्राणी- देव-राजा, देवता, मेघ, (पुं० ) मात्र, (पुं० )॥५॥
देव-इंद्रिय, (न०)॥ ८ ॥
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वद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
३६१ देवी भट्टारिकायां च तेजनीक्योरपि । नाट्योक्यां चाभिषिक्तायां देवी देवी नृपस्त्रियाम् ॥ ९॥ द्रवः स्यान्नमणि रसे प्रद्रावे विद्रवे गतौ । द्वन्द्वं तु मिथुने युग्मे द्वन्द्वः कलहगुह्ययोः ॥ १० ॥ धवः पत्यौ पुमान्वृक्षभेदे धूर्ते नरेऽपि च ।। ध्रुवः क्लीबे शिवे शङ्कौ मुनौ योगे वटे वसौ ॥ ११ ॥ ध्रुवं तु निश्चिते तर्के नित्यनिश्चलयोस्त्रिषु ।। ध्रुवा मूर्वाशालिपोर्गीतिस्रुग्भेदयोरपि ॥ १२ ॥ नवः काके स्तुतौ पुंसि नवं नव्येऽभिधेयवत् । नीवी तु स्त्रीकटीवस्त्रग्रन्थौ मूलधनेऽस्त्रियाम् ॥ १३ ॥ मतं पक्कं परिणते विनाशाभिमुखे त्रिषु । पार्श्व कक्षाऽघरे चक्रोपान्ते पशुगणाऽन्तिके ॥ १४ ॥ देवी-भट्टारककी स्त्री,बड़ी मालकांगनी, ध्रुव-निश्चित, तर्क, (न० ) नित्य,
असवरम, (स्त्री०) नाट्यमें अभि- निश्चल (त्रि.) षेककरी हुई रानी, राजाकी रानी ध्रुवा-चुरनहार या मरोरफली, माष(स्त्री०)॥९॥
पर्णी या मषवन, गीतिभेद, स्रुक्द्रव-ठट्ठा, रस, झिरना. विशव भेद, (स्त्री.)॥१२॥ (दौड़ना), (पुं०)
नव-काग, स्तुति, (पुं० ) नव
नवीन, (त्रि.) द्वंद्व-स्त्रीपुरुषका जोड़ा, दो संख्या, नीवी-स्त्रीके कटिवस्त्रकी ग्रंथि (बंधन), (न०) द्वंद्व-कलह गोप्य, (पुं०)
___मूलधन, (स्त्री०) ॥ १३ ॥ ॥ १० ॥
पक्क-परिणामको प्राप्तहुवा, नाशको धव-पति, वृक्षभेद, धूर्त मनुष्य,
प्राप्त होनेवाला, (त्रि.) (पुं०)
पार्श्व-बगलके नीचे का भाग, (पसध्रुव-नपुंसक, शिव, कीला, मुनि, वाड़ा), चक्र का अंतभाग, पाँसुयोगभेद, बड़वृक्ष, वसुभेद, (पुं०) चोंका समूह, समीप, (न०) ॥ ११ ॥
॥ १४॥
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३६२
विश्वलोचनकोशः- [ वान्तवर्गेपृथ्वी भुवि पृथौ हिडपत्रिकाकृष्णजीरयोः। प्राध्वं तु बन्धने प्रह्वेऽप्यतिदूरपथे तथा ॥ १५ ॥ प्लवः कारण्डवे भेके भेलके वारिवायसे । प्लक्षे प्लुतिगतौ शब्दे निषादे कुलके कपौ ॥ १६ ॥ क्रमनिम्नक्षितौ गन्धतृणेऽपि न द्वयोः प्लवम् । भवः श्रीकण्ठसंसारश्रेयःसत्ताप्तिजन्मसु ॥ १७ ॥ भावः खभावचेष्टाऽभिप्रायसत्त्वात्मजन्मनि । भावः क्रियायां लीलायां पदार्थेऽभिनयान्तरे ॥ १८ ॥ जन्तौ बुधे विभूतौ च नाट्योक्त्या पण्डितेऽपि च । रेवा जंबालिनीभेदे रेवा नीलीस्मरस्त्रियोः ॥ १९ ॥ मता लघ्वी तु हखायां प्रकारे स्यन्दनस्य च । लटा करंजभेदे स्यात्फले वाद्ये खगान्तरे ॥ २० ॥
पृथ्वी-भूमि, महती (बडी), हींगत्री भव-महादेव, संसार, कल्याण, सत्ता,
या वंशपत्री, स्याहजीरा, (स्त्री०) प्राप्ति, जन्म, (पुं० ) ॥ १७ ॥ प्राध्व--बंधन, प्रह (......), अति भाव-स्वभाव, चेष्टा, अभिप्राय, दूरमार्ग (न०) ॥ १५॥
। सत्त्व, ( सतोगुण), जन्म, क्रिया,
1 लीला, पदार्थ, अभिनय, ॥ १८॥ प्लव-करडवा पक्षी, मेंडक, छोटी जन्तु, पंडित, विभूति, नाट्योक्ति में
नौका, जलकाग, पिलखन वृक्ष, पंडित, (पुं०) कूदकर चलना, शब्द, निषाद । रेवा-नदीभेद, नीली ( लील), काम(भील), कुलक (......), बंदर, देवकी स्त्री, ( स्त्री० ) ॥ १९ ॥ (पुं० ) ॥ १६ )
लध्वी -छोटी, रथका भेद, (स्त्री० ) प्लव-क्रमसे नीची पृथ्वी, सुगंधितृण- लट्टा-करंजुवाभेद, फल, बाजा, पक्षिविशेष (शखान), (न०)
भेद, (स्त्री०) ॥ २० ॥
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भाषाटीकासमेतः ।
वो लेशे विलासे च च्छेदने रामनन्दने ।
श्रीफलेऽपि फले बिल्वं विश्वे देवेषु नागरे ॥ २१ ॥ विश्वा विषायां सर्वस्मिन्विश्वं स्यादभिधेयवत् । विश्वं तु विष्टपे क्लीवं शिबिर्भूर्जे नृपान्तरे ॥ २२ ॥ शिवो हरे योगभेदे वेदे कीलेऽपि बालुके । गुग्गुले पुण्डरीकat शिवं मोक्षे सुखे जले ॥ २३ ॥ कुशलेऽपि शिवा तु स्याद्गौर्यामलकहेतुषु । शिवा झाटामलापथ्याक्रोष्ट्रीसक्तुफलासु च ॥ २४ ॥ सत्त्वं जन्तुषु न स्त्री स्यात्सत्त्वं प्राणात्मभावयोः । द्रव्ये बले पिशाचादौ सत्तायां गुणवित्तयोः ॥ २५ ॥ स्वभावे व्यवसाये च सत्त्वमित्यभिधीयते । सर्वं जलाढ्ययोः स्नाने सवः सन्धानयज्ञयोः ॥ २६ ॥
चद्वितीयम् । ]
लव-लेश, ( थोड़ा ), विलास, छेदन | शिव-मोक्ष, सुख, जल, ॥ २३ ॥ रामचंद्र का पुत्र, (पुं० )
कुशल, ( न०
बिल्व - बेलका वृक्ष, बेलका फल,
( न० )
विश्व - विश्वेदेव, (पुं०) विश्व - सोंठ,
॥ २२ ॥
ग्रहयोगभेद,
शिव - महादेव, कीला, बालू, ( रेती ), पुंडरीक - वृक्ष, (पुं० )
वेद,
गूगल,
३६३
>
( न० ) ॥ २१ ॥
विश्वा - अतीस, (स्त्री०) संपूर्ण, (त्रि०) सत्त्व-जन्तु, प्राण, आत्मभाव, द्रव्य, विश्व - जगत्, ( न० )
शिवि - भोजपत्र, शिवि - राजा, (पुं० )
बल, पिशाच आदि, सत्ता, गुण, धन. ॥ २५ ॥ स्वभाव, निश्चय, ( पु० न० )
शिवा-पार्वती, आँवला, हेतु, (स्त्री०) शिवा - भुई आंवला, हरड़, गीदड़ी, जांट - वृक्ष, (स्त्री० ) ॥ २४ ॥
>
सव - सन्तान, यज्ञ, ( पुं० ) ॥ २६ ॥
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|सव - जल, धनी, स्नान, ( न०
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विश्वलोचनकोश:
सान्त्वं दाक्षिण्यमात्रेऽपि सांत्वं सामनि च स्मृतम् । स्रुवा सुग्भेदशलक्योर्मूर्वायां च मता सुवा || २७ ॥ हवः स्यादध्वराह्वाननिदेशेषु मतः पुमान् ।
ह्रस्वः खर्वे न्यगर्थेपि राजिकायां क्षुते क्षवः ॥ २८ ॥ वतृतीयम् । अभावः स्यादसत्तायामभावो मरणेऽपि च । अक्षीवस्त्रिष्वमन्दे स्यादक्षीवोऽवसरे पुमान् ॥ २९ ॥ आर्त्तवं पुष्परजसोः समुद्भूते तु वाच्यवत् । आश्रवः स्यात्प्रतिज्ञायां क्लेशेऽपि वचनस्थिते ॥ ३० ॥ आहवस्तु पुमान्यागे सङ्गरेऽप्याहवस्तथा । उत्सवो मह उत्सेध इच्छाप्रसरकोपयोः ॥ ३१ ॥ उद्धवस्तूत्सवे कृष्णमातुले यज्ञपावके । कारवी दीप्यमधुरात्वक्पत्रीकृष्णजीरके ॥ ३२ ॥
३६४
[ वान्तवर्गे
सान्त्व- चतुराई, साम ( समझाना ), अक्षीव - अमंद ( तेज ), ( त्रि० ) ( न० · ) अवसर, ( पुं० ) ॥ २९ ॥ स्स्रुवा-स्रुग्भेद ( यज्ञपात्र ), सेह - आर्तव - पुष्प, स्त्रीका रजस्, ( न० प्राणी, चुरनहार औषधि, (स्त्री० ) ऋतु में उत्पन्नहुवा, ( त्रि० ) आश्रव - प्रतिज्ञा,
>
क्लेश,
वचन में
॥ २७ ॥
हव-यज्ञ, बुलाना, आज्ञा, (पुं० ) हस्व - बौना, नीच, (पुं० )
स्थित, (त्रि० ) ॥ ३० ॥ आहव-यज्ञ, युद्ध ( पुं० ) उत्सव - उत्सव, ऊँचाई, इच्छाका फैलना, क्रोध, (पुं० ) ॥ ३१ ॥ उद्धव-उत्सव, कृष्णका मामा, ( उद्धव ), यज्ञका अभि, ( पुं० )
क्षव - छींक, (पुं० ) ॥ २८ ॥
वतृतीय ।
अभाव -असत्ता ( नहींहोना ), म. कारवी - अजवायन, सौंप, हींगपत्री, | कालाजीरा, ( स्त्री० ) ॥ ३२ ॥
रना, (पुं० ),
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वतृतीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
कितवः पुंसि धुस्तूरे मत्तवञ्चकयोरपि ।
पुन्नागे माधवे पुंसि केशाढ्ये त्रिषु केशवः ॥ ३३ ॥ कैतवं तु छले द्यूते कैरवः शत्रुधूर्त्तयोः । कैरवं कुमुदे क्लीवं चन्द्रिकायां तु कैरवी ॥ ३४ ॥ कौट्टवी चण्डिकायां स्यात्तथा नमस्त्रियामपि । गाण्डीवगाण्डिवौ न स्त्री कार्मुकेऽर्जुनकार्मुके ॥ ३५ ॥ गालवस्तु मुनौ लोभे ताण्डवं तृणनृत्ययोः । स्वर्गेऽन्तरिक्षे त्रिदिवस्त्रिदिवा सरिदन्तरे ॥ ३६ ॥ दीदिविस्त्रिदशाचार्ये भवेदन्नेऽपि दीदिविः । द्विजिह्वः पन्नगे पुंसि सूचके त्वभिधेयवत् ॥ ३७ ॥ निष्पावः शूर्पपवने पचने च कडङ्गरे । निष्पावो निर्विकल्पेऽपि शिम्बिकाराजमाषयोः ॥ ३८ ॥ अपलापेऽपि निकृतावविश्वासेऽपि निह्नवः ।
पञ्चत्वं स्यात्तु पञ्चानां भावेऽपि निधनेऽपि च ॥ ३९ ॥ तांडव - तृण, नृत्य, ( न० >> त्रिदिव-स्वर्ग, आकाश, ( पुं० ) त्रिदिवा - नदी (स्त्री० ) ॥ ३६ ॥ दीदिवि - बृहस्पति, अन्न, (पुं० ) द्विजिह्न - सर्प, (पुं०) चुगलखोर, ( त्रि० ) ॥ ३७ ॥
कितव-धतूरा, उन्मत्त, ठग, (पुं०) | केशव - पुन्नाग-वृक्ष, विष्णु, (पुं० )
बहुतकेशोंवाला, (त्रि ० ) ॥ ३३ ॥ कैतव - छल, जूवा, ( न० ) कैरव - शत्रु, धूर्त, (पुं० ) कैरव
३६५
कमोदनी, ( न० )
कैरवी - चांदकी चांदनी, ( स्त्री० ) निष्पाव - छाजका वायु, वायु, भूसा, ( पुं० ) निर्विकल्प, ( त्रि० ) फली, उड़द, (पुं० ) ॥ ३८ ॥ निह्नव-वचनको गोप्यकरना, शठ, ता, अविश्वास, (पुं० ) पंचत्व- पाँचोंका भाव, मृत्यु, (पुं०)
॥ ३९ ॥
॥ ३४ ॥
कौट्टवी - चंडिका, नग्न स्त्री, ( स्त्री० ) गांडीव - गांडिव - धनुष्, अर्जुनका धनुष्, ( पुं० न० ) ॥ ३५ ॥ गालव- मुनि ( गालव ), लोध-वृक्ष, ( पुं० )
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विश्वलोचनकोशः- [ वान्तवर्गेपल्लवो विस्तरे खङ्गे शृङ्गारेलक्तरागयोः । चलेऽप्यस्त्री तु किसले विटपेऽपि च पल्लवः ॥ ४० ॥ तुगायां पार्थिवी भूपे पुमान्भूविकृतौ त्रिषु । पुङ्गवो वृषभे श्रेष्ठे गवोभेषजलान्तरे ॥ ४१ ॥ प्रभवो जन्महेतौ स्यादपांमूले पराक्रमे । प्रभवः किंवदन्तीनां सञ्चारगतिकारके ॥ ४२ ॥ आद्योपलब्धये स्थाने प्रभावः शक्तितेजसोः । प्रसवो गर्भमोक्षे स्याद्वक्षाणां फलपुष्पयोः ॥ ४३ ।। परंपराप्रसङ्गे च लोकोत्पादे च पुत्रयोः । प्रसेवो वल्लकीवाद्यकाष्ठे स्यूतेऽपि दृश्यते ॥ ४४ ।। फेरवो राक्षसे फेरौ बल्लवः सूदगोपयोः ।
भीमसेनेऽप्यथ पुमान्बन्धौ सुहृदि बान्धवः ॥ ४५ ॥ .--. ..................... -- ..पल्लव-शब्दविस्तार, खड्ग, शृंगार, प्रभाव-प्रभाव (शक्ति), तेज, (पुं०)
महावरका रंग, चल, कोमलपत्ता, प्रसव-गर्भका छूटना, वृक्षोंके फल वृक्षकी टहनी, (पुं० ) ॥ ४० ॥ और पुष्प, ॥ ४३ ॥ पार्थिवी-वंशलोचन, ( स्त्री० ) परंपराका प्रसंग, मनुष्योंसे उत्पाद. पार्थिव-राजा, (पुं०) पृथ्वी-विकार, न कियाहुवा, पुत्री-पुत्र, (पुं० ) (त्रि.)
| प्रसेव-वीणाके बाजनेके लिये तूंबा पुंगव-बैल, श्रेष्ठ, (पु०)...॥४१॥ या काष्ठ, सीयाहुवा, ( पुं० ) प्रभव-जन्म (उत्पत्ति), का हेतु, ॥ ४४ ॥
जलोंका मूल, पराक्रम, ( बल ) फेरव-राक्षस, गीदड़, (पुं० ) (पुं० ) किंवदंती (चुरघा), का बल्लव-रसोईकरनेवाला, गोप, भीमसंचार व गति करनेवाला प्रथमदर्श सेन, (पुं०) नके लिये स्थान, (पुं० ॥ ४२ ॥ बांधव-बंधु, मित्र, (पुं० ) ॥४५॥
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वतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः।
भार्गवः शुक्रगजयोः परशुरामे सुधन्वनि । भार्गवी पार्वतीलक्ष्मीसितदूर्वासु सम्मता ॥ ४६ ॥ भैरवः पुंसि भर्गे स्याद्भरवं भीषणे त्रिषु ।। माधवः केशवे राधे वसन्तेऽप्यथ माधवी ॥ ४७ ।। मधूत्थशर्करामद्यकुट्टनीप्वतिमुक्तके। राघवस्तु महामीनप्रभेदे रघुवंशजे ॥ ४८ ॥ राजीवो मत्स्यमृगयोस्त्रिषु राजोपजीविनि । क्लीबं पद्मे रौरवस्तु नरके त्रिषु भैरवे ॥ ४९॥ वडवाऽश्वाकुम्भदास्योः स्त्रीविशेषे द्विजस्त्रियाम् । वाडवा वडवासङ्घ स्त्रीणां च करणान्तरे ॥ ५० ॥ पाताले न स्त्रियामौर्वे विप्रे च नरि वाडवः ।. पद्रवोऽपक्रमे बुद्धौ विभवो निर्वृतौ धने ॥ ५१ ॥
भार्गव-शुक्र, हस्ती, परशुराम, श्रेष्ठ, आजीविकावाला, (त्रि.) राजीव. धनुषवाला, (पुं० )
___ कमल (न०) भार्गवी-पार्वती, लक्ष्मी श्वेतदूर्वा, रौरव-नरक, (पुं०) भयंकर, (त्रि०)
(स्त्री.)॥ ४६॥ भैरव-महादेव, (पुं०) भयंकर, वडवा-घोड़ी, जललानेवाली दासी,
(त्रि.) माधव-विष्णु, वैशाख-मास, वसन्त
__ स्त्रीभेद, ब्राह्मणकी स्त्री, (स्त्री०) ऋतु, (पुं०) ॥ ४७ ॥
वाडव-घोडियोंका समूह, स्त्रियोंका माधवी-मधु (शहद) की शक्कर,
करण (हावादि), (न०) ॥५०॥ मदिरा कुट्टनी स्त्री, कस्तूर मोगरा
। पाताल, (पुं० न०) वाडव. (स्त्री०)
जलामि (वाडवानल), ब्राह्मण, राघव-बडामच्छभेद, रघु-वंशमें होने- (पुं० ) __वाला, (पुं०)॥४८॥ पद्रव-उलटा जाना, बुद्धि, (पुं०) राजीव-मच्छ, मृग (पुं०) राजासे विभव-आनंद, धन, (पुं०)॥५१॥
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३६८
विश्वलोचनकोश:- [ वान्तवर्गेविभावः स्यात्परिचये कामस्योद्दीपनेऽपि च शत्रूणां भावसंहत्योः शात्रवं शात्रवो द्विपि ॥ ५२ ॥ सुषवी कारवेल्ले स्याज्जीरके कृष्णजीरके । पाडवस्तु रसे नागेऽप्याशुव्रीहिप्रसूनयोः ॥ ५३ ॥ नौकायां वासने चाथ सचिवो भृत्यमन्त्रिणोः । सम्भवः स्मृत उत्पत्तौ हेतौ सत्त्वे च मेलके ॥ ५४॥ आधारानतिरक्तत्वे आधेयस्य च सम्भवः । सुग्रीवो वानरपतौ चारुग्रीवे तु वाच्यवत् ॥ ५५ ॥ सैन्धवो माणिमन्थेऽश्वे सिन्धुदेशभवे त्रिषु ।
वचतुर्थम् । अनुभावः प्रभावे स्यान्निश्चये भावसूचके । अपह्नवोऽपलापेऽपि पुंसि स्नेहेऽप्यपह्नवः ॥ ५६ ॥
विभाव-परिचय (पहचान), कामको (सत्य ), मिलना, ॥ ५४ ॥ आधे
उद्दीपन करनेवाला रस, (पुं०) । यकी आधारसे एकता, (पुं०) शात्रव-शत्रुवोंका भाव और संहति सुग्रीव-बंदरोंका पति, (पुं०) सुंदर(समूह), (न.)
__ ग्रीवावाला, (त्रि.) ॥ ५५ ॥ .शात्रव-शत्रु, (पुं० ) ॥ ५२ ॥ सैंधव-सेंधानमक, अश्व, (पुं० )
सुषवी-करेला, जीरा, कालाजीरा, सिंधुदेशमें होनेवाला, (त्रि.) . (स्त्री०)
वचतुर्थ । पाडव-रस, सीसा, चावल, पुष्प, अनुभाव-प्रभाव, निश्चय, भावको
॥ ५३ ।। नौका, वासना, (त्रि०) सूचन करनेवाला, (पुं) सचिव-नौकर, मंत्री, (पुं०) । अपहव-छिपाहुवा वाक्य, स्नेह, सम्भव-उत्पत्ति, हेतु (कारण), सत्व। (पुं० ) ॥ ५६ ॥
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वचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः । स्नानेऽपि मद्यसन्धाने यज्ञे चाभिषवः पुमान् । आदीनवस्तु दोषे स्यात्परिक्लिष्टदुरन्तयोः ॥ ५७ ॥ उत्पाते विप्लवे चैव सैंहिकेयेऽप्युपप्लवः ।। वल्मीकजन्मनि नटे याचके च कुशीलवः ॥ ५८॥ एकयोक्त्या मतौ रामपुत्रयोश्च कुशीलवौ । जलबिल्वो मतः कूर्मे कर्कटे जलचत्वरे ॥ ५९ ॥ जीवंजीवश्चकोरे स्यात्पक्षिभेदे द्रुमान्तरे । दोलाजीवो वार्द्धषिके मिथ्याज्ञानप्रहर्षिते ॥ ६०॥ धामार्गवस्त्वपामार्गे देवदाल्यामपि स्मृतः । चञ्चले व्याकुलेऽपि स्याद्वाच्यलिङ्गः परिप्लवः ॥ ६१ ॥ पराभवस्तिरस्कारे विनाशे च पराभवः । मतः पारशवः पारस्त्रैणे शूद्रासुते द्विजात् ॥ ६२ ।।
अभिषव-स्नान, मदिराका निकालना, | जलबिल्व-कछुवा, ककोड़ा-जंतु, यज्ञ (पुं०)
। जलका हौज, (पुं० ) ॥ ५९॥ आदीनव-दोष, अति क्लेशित, अपार जीवंजीव-चकोर, पक्षिभेद, वृक्ष(पुं० ) ॥ ५७ ॥
___ भेद (पुं०)
दोलाजीव-व्याजसे जीनेवाला, उपप्लव-उत्पात, विप्लव (मनुष्यों का की लूटना आदि पीडा ) राहुग्रह | धामार्गव ऊँगा, देवदाली, (पुं०)
झूठे ज्ञानसे हर्षित (पुं० ) ॥६॥ (पुं०)
परिप्लव-चंचल, व्याकुल, (त्रि.) कुशीलव-वाल्मीकि-ऋषि, नट, याचक (पुं०)॥ ५८ ॥
| पराभव-तिरस्कार, विनाश (पुं० ) कुशीलव-एक बार बोलने में राम-पारशव-परस्त्रीका पुत्र, ब्राह्मणसे, चंद्रके पुत्र, (पुं० द्वि०)
उत्पन्न हुवा शूद्राका पुत्र,॥ ६२ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [शान्तवर्गेशस्त्रेऽप्यथ पुटग्रीवो गर्गरीताम्रकुम्भयोः । वार्द्धषिके बलदेवः स्याद्वलदेवो बलेऽनिले ॥ ६३ ॥ रोहिताश्वो हरिश्चन्द्रतनये जातवेदसि । शैलेये सैन्धवे क्लीबं मिश्यां शीतशिवः पुमान् ॥ ६४ ॥ सहदेवा बलादण्डोत्पलयोः शारिवौषधौ । सहदेवी भुजङ्गाक्ष्यां सहदेवस्तु पाण्डवे ॥ ६५ ॥
वपंचमम् । स्यादाशितंभवस्तृप्तावन्नाद्ये त्वाशितंभवम् ॥ ६६ ॥ इति विश्वलोचनेऽपराभिधानायां मुक्तावल्यां वकारान्तवर्गः ॥
अथ शान्तवर्गः।
शैकम् । शः शतायुषि हिंसायां शं धर्मे शा तु मातरि ।
शी स्त्रीषु स्वपरस्त्रीषु शीः स्यात्सदननिद्रयोः ॥ १॥ ___ शस्त्र (पुं० )
वपंचम। पुटग्रीव-गगरी, ताँबाका कलश आशितंभव-तृप्ति ( पुं० ) (पुं० )
. आशितंभव-अन्नादि ( न०) ६६ बलदेव-व्याजको लेनेवाला, बलभद्र, इसप्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें __ वायु (पुं० ) ॥ ६३ ॥
वान्तवर्ग समाप्तहुवा ॥ रोहिताश्व-हरिश्चंद्रराजाका पुत्र, अग्नि (पुं० )
अथ शान्तवर्ग । शीतशिव-शिलाजीत, सेंधानमक,
शैक। ( न० ) सौंफ ( पुं० ) ॥ ६४ ॥ श- सौवर्षकी आयुवाला, हिंसा, सहदेवा-खरँहटीकी डंडी, कमल, (पुं०) सरिवन, ( स्त्री. )
श-धर्म ( न०) सहदेवी-खरँहटी, गंडनी (स्त्री० )| शा-माता (स्त्री०) सहदेव-पंड्डु राजाका एक पुत्र (पुं०)। शी-अपना, पराया, स्त्री, (त्रि०) ॥ ६५ ॥
श-मकान, निद्रा ( न०) ॥ १॥
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शद्वितीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
शद्वितीयम् । आशा तृष्णादिशोराशुर्तीही क्लीबं तु सत्वरे । ईशा लाङ्गलदण्डे स्यादीशः स्यादीश्वरे प्रभौ ॥ २ ॥ अंशुस्त्विषि रवौ लेशे काशस्तु क्षवथौ तृणे । वाराणस्यां तु काशी स्यात्कीशो मर्कटनमयोः ॥ ३ ॥ कुशो रामसुते द्वीपे योक्ने दर्भे तु न स्त्रियाम् । कुशो मत्तेऽपि पापिष्ठे त्रिषु क्लीबे तु वारिणि ॥ ४ ॥ मता कुशा तु बलायां कुशी फाले प्रकीर्तिता । केशो बालेऽपि ह्रीबेरे दैत्यभेदप्रचेतसोः॥ ५॥ क्लेशो दुःखेऽपि रोगादौ व्यवसाये च दृश्यते । दर्शस्तु दशमे पुंसि दर्शः सूर्येन्दुसङ्गमे ॥ ६ ॥ पक्षान्तवैदिकविधौ दशा तु वसनांशुके । दशा कर्मविपाकेऽपि स्याद्दशा वर्त्यवस्थयोः ॥ ७ ॥
शद्वितीयम् । कुश-उन्मत्त-पापी, (त्रि.) आशा-तृष्णा, दिशा (स्त्री० ) कुश-जल (न० ) ॥४॥ आशु-व्रीहि (धान) (पुं०) कुशा-खरहटी, ( स्त्री०) आशु-शीघ्रता (न० )
कुशी-फाल ( हलकी कुश) (स्त्री०) ईशा-हलका दंड ( हाल ) ( स्त्री०) ईश-महादेव, प्रभु, (पुं० ) ॥२॥
केश--बाल, नेत्रबाला, दैत्यभेद, वरुण अंशु-किरण, सूर्य, लेश (पुं० ) (पुं० ) ॥ ५॥ काश-छींक, तृण ( काँस ) (पुं०) लशःख, राग आदि, व्यवसाय, काशी-काशी-पुरी (स्त्री.)
(पुं० ) कीश-बंदर, नग्न ( नंगा ) (०) दर्श-दशवाँ पुरुष, सूर्यचंद्रमाका संग॥ ३ ॥
। म ( अमावस्या) ॥६॥ पक्षके कुश-रामका पुत्र, कुश द्वीप, जोत अंतकी वैदिकविधि (पुं० ) (पुं०)
| दशा-कर्मफल, बत्ती, अवस्था,(स्त्री०) कुश-दर्भ ( डाभ) (पुं०न०) । ॥७॥
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विश्वलोचनशकोशः- [ शान्तवर्गेदृग् दर्शने च नेत्रे स्त्री ज्ञातृदर्शकयोस्त्रिषु । दंशः सन्नाहवनमक्षिकयो जगक्षते ॥ ८ ॥ दोषेऽपि खण्डने दंशो दंशो मर्माणि च स्मृतः । नाशः पलायनेऽपि स्यान्निधनानुपलम्भयोः ॥ ९॥ स्यान्निशा निगडे क्वापि स्त्रियां रात्रिहरिद्रयोः । निशा दारुहरिद्रायां महापूर्वा निशार्द्धके ॥ १० ॥ पशुप॑गादौ च प्रमथे पशुर्मासारिकात्मनि । अज्ञाने छागमात्रेऽपि पशु हव्यर्थमव्ययम् ॥ ११ ॥ पाशः पक्षादिबन्धे स्याच्चयार्थस्तु कचात्परः। छात्राद्यन्ते च निन्दार्थः कर्णोते शोभनार्थकः ॥ १२ ॥ पांशुधूलिषु शस्यार्थचिरसञ्चितगोमये ।
पेशी पललपिण्ड्यां स्यान्मांसीखड्गपिधानयोः ॥ १३ ॥ दृक्-दर्शन, नेत्र, ( स्त्री० ) जानने- पशु-देवताकी हविका दान, (अ.) वाला, देखनेवाला ( त्रि०)
॥ ११ ॥
पाश-केशोंका बांधना, केशवाचक दंश-कवच, वनमक्खी, सर्पका डंक
शब्दसे परे पाश-शब्द समूह अर्थ॥ ८ ॥ दोष, खंडन, मर्म, (पुं०)
वाला है जैसे 'केशपाश' अर्थात् नाश-भागना, मरना, नहीं प्राप्त- केशसमूह, छात्रआदिके अंतमें होना (पुं०) ॥ ९ ॥
निंदार्थक है जैसे 'छात्रपाश' निशा-बेडी, रात्रि, हलदी, दारु
कर्णके अंतमें सुंदरार्थक है जैसे हलदी, (स्त्री०)
'कर्णपाश' (पुं० ) ॥ १२॥ महानिशा-अर्धरात्रि ( स्त्री० ) १०
...पांशु-धूलि, खेतीके लिये बहुतदिन
का इकट्ठाकिया गोबर, (पुं०) पशु-मृग आदि, शिवगण, मांसारि- पशी-मांसकी पिंडी, जटामांसी,
का आत्मा, अज्ञानी, छागमात्र, तलवारका म्यान, अच्छा पका(पुं०)
हुवा कणिक, मंडभेद, (स्त्री०) १३
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शद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
सुपककणिके पेशी पेशी मण्डान्तरेऽपि च । राशिस्तु पु पुंस्येव तथा मेषवृषादिषु ॥ १४ ॥ वशस्त्रिषु स्याद्विवशे वशं वाञ्छाप्रभुत्वयोः । वशा योषासुतावन्ध्यास्त्रीगवीकरिणीष्वपि ॥ १५ ॥ विट् पुंसि वैश्ये मनुजे प्रवेशे तु स्त्रियामियम् । वेशः प्रवेशे नेपथ्ये वेशो वेश्यागृहे गृहे ॥ १६ ॥
वंशो वेणौ कुले वर्गे पृष्ठस्यावयवास्थानि । नासा विवरदेशेऽपि वाद्यभाण्डान्तरेऽपि च ॥ १७ ॥ शशः पशौ गन्धरसे पुरुषान्तरलोभयोः । मतः शश इति कापि शीतांशोरपि लाञ्छने ॥ १८ ॥
३७३
स्पर्शस्तु स्पर्शने दाने रुजायां स्पर्शकेऽपि च । स्पर्शः स्यात्पुंसि सङ्ग्रामे प्रणिधौ च मतो ह्ययम् ॥ १९ ॥
राशि - समूह, मेष वृष आदि राशि | वंश - बाँस, कुल, पीठका अवयवरूप अस्थि ( हाड ), नासिकाका छिद्र - देश, बाजेका पात्र ( वंशी ) (पुं०)
( पुं० ) ॥ १४ ॥
॥ १७ ॥
वश - वशमें होनेवाला, (त्रि ० ) वश- वांछा, प्रभुत्व, न० ) वशास्त्री, पुत्री, वन्ध्या, स्त्री, गौ, हथिनी ( स्त्री० ) ॥ १५ ॥ विश (द) वैश्य, मनुष्य, ( पुं० ) विशू (ट्) प्रवेश, (स्त्री० )
वेश - प्रवेश, वेश बनाना, वेश्याका | स्पर्श - गुप्त बातको कहनेवाला हलकारा, (पुं० ) ॥ १९ ॥
घर, घर, ( पुं० ) ॥ १६ ॥
शश - ससा, वणिकद्रव्यविशेष, मनुष्यभेद, लोध, चंद्रमाका लांछन, ( पुं० ) ॥ १८ ॥
स्पर्श - स्पर्श करना, दान, रोग, स्पर्श करनेवाला, संग्राम (युद्ध) (पुं०)
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३७४
विश्वलोचनकोशः- [ शान्तवर्गे
शतृतीयम् । आदर्शः पुंसि मुकुरे टीकायां प्रतिपुस्तके । उड्डीशः पार्वतीकान्ते ग्रन्थभेदे च स स्मृतः ॥ २० ॥ उपांशुर्जापभेदे स्यादुपांशु विजनेऽव्ययम् । माधव्यां कपिशा श्यावे त्रिषु पुंसि च सिहके ॥ २१ ॥ कम्पिल्लकासमक्षुकृपाणे पुंसि कर्कशः। निर्दये परुषे क्रूरे दृढे साहसिके त्रिषु ॥ २२ ॥ कुलिशो मत्स्यभेदेऽस्थिसंहारे कुलिशं पशौ । गिरीशः शङ्करे वाचस्पतावद्रिपतावपि ॥ २३ ॥ तुङ्गीशस्तु हरे चन्द्रे दुःस्पर्शः स्याद्यवासके । कण्टकार्यां तु दुःस्पर्शा खरस्पर्शे तु वाच्यवत् ॥ २४ ॥ निदेशः स्यादुपान्तेऽपि शासने भाषणे पुमान् । निर्वेशो वेतने भोगे निवेशो मूर्छनेऽपि च ॥ २५ ॥
शतृतीयम्। । कठोर, क्रूर, दृढ, साहसवाला (त्रि.) आदर्श-दर्पण ( शीशा), टीका, ॥ २२ ॥ नकलपुस्तक (पुं० )
कुलिश-मत्स्यभेद, अस्थियों ( हड्डि
__यों) का समूह, (पुं०) उडीश-महादेव, ग्रंथभेद ( उड्डीश- कुलिश- वज्र ( न०)
तंत्र) (पुं० ) ॥ २० ॥ गिरीश महादेव, बृहस्पति, पर्वतोंउपांशु-जापभेद, (पुं० ) ___ का पति. (पुं०)॥ २३ ॥ उपांशु-एकांतस्थान ( अ०) तुंगीश-महादेव, चंद्रमा, (पुं० ) कपिशा-माधवीलता, ( स्त्री० )
दुःस्पर्श--जवाँसा (पुं० )
दुःस्पर्शा-कटेहली ( स्त्री०) तीक्ष्ण कपिश-बंदरकेसे रंगवाला, (त्रि.) स्पर्शवाला (त्रि. ) ॥ २४ ॥
हींग (पुं० ) ॥ २१ ॥ निदेश-समीप, शिक्षा, भाषण (पुं०) कर्कश-कमेला, कसोंदी या परवल, निर्वेश-नौकरी, भोग, मूर्छा ( पुं०)
ऊस, तलवार, (पुं० ) दयाहीन, ॥ २५ ॥
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शतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
३७५ निवेशः शिबिरे पुंसि तथोद्वाहविनाशयोः । निस्त्रिंशो निर्दये खड्ने नीकाशो निश्चये समे ॥ २६ ॥ पलाशः किंशुके शट्यां पलाशो निकषात्मजे । क्लीबं पलाशं छदने पलाशो हरिति त्रिषु ॥ २७ ॥ पक्षीशो गरुडे कृष्णे पिङ्गाशं जात्यकाञ्चने । मत्स्ये पल्लीपतौ पुंसि पिङ्गाशी नीलिकौषधौ ॥ २८ ॥ प्रकाशोऽतिप्रसिद्धे च प्रहासे चाऽऽतपे स्फुटे । प्रदेशो देशभित्त्योः स्यात्तर्जन्यङ्गुष्ठसम्मिते ॥ २९ ॥ बालिशस्तु शिशौ बाल्यलिङ्गे मूर्खेऽपि बालिशः । भूकेश्यवल्गुजेऽपि स्याद्भूकेशः शैवले वटे ॥ ३० ॥ लोमशस्तु पुमान्मेषे वाच्यवल्लोमसंयुते । शृगालीमर्कटीमांसीशूकशिम्बिषु लोमशा ॥ ३१ ॥
निवेश-सेनास्थान, विवाह, नाशप्रकाश-अतिप्रसिद्ध, ठट्ठा, धूप,
प्रकट (पुं० ) निस्त्रिंश-निर्दय, खङ्ग (पुं०) प्रदेश-देश, दीवार, तर्जनी और नीकाश-निश्चय, तुल्य (पुं० ) २६ अँगूठेका परिमाण (पुं० ) ॥२९॥ पलाश-ढाक-वृक्ष, कचूर, राक्षस बालिश-बालक, बालभावका चिह्न, (पुं० )
मूर्ख (पुं०) पलाश-पत्र (न.)
भूकेशी-बावची, (स्त्री.) पलाश-हरा रंगवाला ( त्रि०) २७ भूकेश-सिवाल, वट ( बड़ ) (पुं०) पक्षीश-गरुड़, कृष्ण, (पुं०)
॥ ३० ॥ पिंगाश-सुवर्णभेद, ( न० ) मत्स्य, लोमश-मेंढा (पुं० ) लोमोंवाला __ छोटा ग्रामका पति, ( पुं० ) (त्रि.) पिंगाशी-नीलिका औषधि (स्त्री.) लोमशा-गीदड़ी, बंदरी, जटामांसी॥ २८ ॥
औषधि, कौंच ( स्त्री०) ॥ ३१ ॥
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३७६
विश्वलोचनकोशः- [ शान्तवर्गेलोमशा काकजङ्घायां काशीशे शाकिनीभिदि । महामेदातिबलयोर्वीकाशस्तु विकाशवत् ॥ ३२ ॥ प्रकाशे स्याद्विकसने विजनेऽपि मतः पुमान् । विकोशः पटवत्तौ स्याद्विकाशे विकचे त्रिषु ॥ ३३ ॥ विपाशा तु नदीभेदे त्रिषु पाशसमुद्गते । विवशो विह्वलेऽपि स्यादवश्यात्मनि च त्रिषु ॥ ३४ ॥ सङ्काशः सन्निधौ तुल्ये सदृशं तूचिते समे । सदेशः सन्निधौ देशे सदेशो देशवत्यपि ।। ३५ । सुखाशो राजतिनिशे वरुणे सुमनोरथे । आसनेऽपि च संवेशः संवेशः शयनेऽपि च ॥ ३६ ॥ हताशो वाच्यवत्क्रूरे निर्दये निर्वाञ्छिते ।
शचतुर्थम् । अपदेशः स्मृतो लक्ष्ये निमित्तव्याजयोरपि ॥ ३७॥ लोमशा-काकजंघा, काशीश, शाकि- | संकाश-समीप, तुल्य ( पुं० ) नीभेद, महामेदा, खरँहटी-भेद, सहश-उचित, तुल्य (त्रि.) (स्त्री०)
सदेश-समीप देश, (पुं०) वीकाश-विकाश-प्रकाश, पुष्प सदेश-देशवाला (त्रि. ) ॥ ३५ ॥
आदिका खिलना, जनरहित स्थान, सुखाश-बडा तिरिच्छ-वृक्ष, वरुण, (पुं०)॥ ३२ ॥
___ अच्छा मनोरथ (पुं० ) विकोश-वस्त्रकी वत्ती, विकाश, संवेश-आसन, शय्या ( पुं० ) ३६
खिलना (त्रि.)॥ ३३ ॥ हताश-क्रूर, निर्दय, आशारहित विपाशा-नदीभेद, ( स्त्री०) पाशसे (त्रि.) निकलाहुवा (त्रि.)
शचतुर्थ । विवश-विह्वल, नहीं वश करनेयोग्य अपदेश-लक्ष्य ( निशाना ), निमित्त,
आत्मावाला (त्रि.)॥ ३४ ॥ । व्याज ( बहाना)॥३७॥
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३७७
शचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
अपभ्रंशो दुष्पतने भाषाभेदापशब्दयोः । आश्रयाशो बृहद्भानौ त्रिवेवाश्रयनाशके ॥ ३८ ॥ उपदंशः पुमान्मेढ़े पीडायां च विदंशने । उपस्पर्शस्तु संस्पर्शे खानाचमनयोरपि ॥ ३९ ॥ क्रूरदृक् स्यात्खले वक्रे खण्डपशुः पिनाकिनि । राही खण्डामलकयोर्लेपकृत्पशुरामयोः ॥ ४० ॥ जीवितेशो यमे कान्ते जीवातौ जीवितेश्वरे । नागपाशः स्मृतः स्त्रीणां करणे वरुणायुधे ॥ ४१ ॥ वसेत्पञ्चदशी पौर्णमास्यमावस्ययोर्मता । परिवेशः परिवृतौ भानोश्चाभ्यर्णमण्डले ॥ ४२ ॥ पलंकशा तु मुण्डीयों लाक्षायां पुंसि गुग्गुले । पादपाशी चटुकायां शृङ्खलाकटुकेऽपि च ॥ ४३ ।।
अपभ्रंश-पड़ना, भाषाभेद, बुरा श- जीवितेश-धर्मराज, पति, जिला. ब्द (पुं०)
। नेकी औषध, जीवितका खामी आश्रयाश-अग्नि, (पुं० ) आश्र- (पुं० )
यका नाश करनेवाला ( त्रि.)३८ नागपाश-स्त्रियोंका करण (हावादि), उपदंश-लिंग-रोगभेद,
___ वरुणका अस्त्र (पुं०)॥ ४१ ॥ बिच्छू
पंचदशी-पौर्णमासी, अमावास्या आदिका डंक (पुं०)
(स्त्री.) उपस्पर्श-स्पर्श करना, स्नान, आ-परिवेश-घेरा, सूर्यके चारोंतरफका चमन (पुं० )॥ ३९ ॥
मंडल (पुं०) ॥ ४२ ॥ क्रूरदृक् ( शू) खल, वक्र (त्रि.) पलंकशा-गोरखमुंडी, लाख, (स्त्री.) खंडपशु-महादेव, राहु, खंडामलक पलंक (ष)श-गूगल (पुं०)
(खाँड और आँवला), लेप करने- पादपाशी-.....", संकलका कड़ा वाला, पशुराम (पुं० ) ॥ ४० ॥ (स्त्री०)॥ ४३ ॥
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३७८
विश्वलोचनकोश:
पुरोडाशो हविर्भेदे तथा सोमलतारसे । पिष्टकस्य चमस्यां च हुतशेषे च सम्मतः ॥ ४४ ॥ वार्ताहरे पुरोगे च सहाये च प्रतिष्कशः । भूमिस्पृक सम्मतो वैश्ये भूमिस्पृग्मनुजेपि च ॥ ४५ ॥ इति विश्वलोचनेऽपराभिधानायां मुक्तावल्यां शान्तवर्गः ॥
अथ षान्तवर्गः । षैकम् ।
ष - कारस्तु मतः श्रेष्ठेऽपि स्याद्गर्भविमोचने ।
षद्वितीयम् । उषा बाणसुतायां स्यात्प्रभातेऽपि विभावरौ । उषस्तु कामुके पुंसि गुग्गुलादावुषः पुमान् ॥ १ ॥ ऋषिश्छन्दे वसिष्ठादौ दीधितौ तु ऋषिः स्त्रियाम् । कर्षः पलचतुर्थांशे कर्षः स्यात्कर्षणेऽपि च ॥ २ ॥
पुरोडाश- हविभेद, सोमलताका रस । ( पुं० ) पीठीकी चमसी, हवनसे शेष रहा, ( पुं० ) ॥ ४४ ॥ प्रतिष्कश- हलकारा, आगे चलनेवाला, सहायता करनेवाला ( पुं० )
भूमिस्पृ (शू) कू - वैश्यमात्र
॥ ४५ ॥
(पुं० )
[ षान्तवर्गे
इसप्रकार विश्वलोचनकोशकी भाषा टीकामें शान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥
अथ पान्तवर्ग | षैक ।
- श्रेष्ट, गर्भका छुड़ाना, ( त्रि० ) षद्वितीय ।
उषा - बाणासुरकी पुत्री, प्रभात, रात्रि, ( स्त्री० )
|
उप- कामी पुरुष, गूगल आदि (पुं०)
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ऋषि-छंद, वसिष्ठ आदि, ( पुं० ) ऋषि-किरण ( स्त्री० ) कर्ष - एक तोला प्रमाण, ( पुं० ) ॥ २ ॥
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खेंचना
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षद्वितीयम् । ] भाघाटीकासमेतः । कर्पः पुंसि करीषाग्नौ कः कुल्याभिधायिनी । कोषोऽस्त्री कुमले दिव्ये पेश्यां शब्दादिसद्महे ॥ ३ ॥ अर्थोघे जातिकोशे च पात्रखगपिधानयोः । पनसादिफलस्यापि कोषः स्यान्मध्यवर्तिनि ॥ ४ ॥ घोषा तु शतपुष्पायां घोषः कांस्येम्बुदध्वनौ । घोषः स्याद्घोषकाभीरनिखनाभीरपल्लिषु ॥ ५ ॥ झषा नागबलायां स्याज्झषो वैसारिणि स्मृतः । पिपासालिक्षयोस्तर्षस्तुषो धान्यत्वगक्षयोः ॥ ६ ॥ तृट् तृषा च पिपासायां लिप्सायां च स्त्रियामुभे । त्विट् कान्तौ रुचि भारत्या व्यवसायजिगीषयोः ॥ ७ ॥ दोषस्तु दूषणे पापे दोषा रात्रौ भुजेऽपि च । पौषो मासविशेषे स्यात्पौषमुद्धवयुद्धयोः ॥ ८ ॥
कर्ष-करिश (अरना) की अग्नि, । झषा-गँगेरन-औषधि, ( स्त्री० } कर्दी-अस्थि (स्त्री० )
झष-मत्स्य आदि (पुं० ) कोष(श)-फूलकली, दिव्य, थेली, तर्ष-प्यास, बांछा ( स्त्री० )
शब्द आदिका संग्रह (पुं०) ॥३॥ तुष-धान्यका तुष, बहेड़ा-औषधि द्रव्यका समूह, जातिकोष ( एक
(पु० ) ॥६॥ जातिका संग्रह ), पात्र, खड्गका
तृट् (प)-तृषा-प्यास, बांछा, (स्त्री०) कोश ( म्यान), चमेलीका कोश, पनस आदिके फलका मध्यवर्ती
त्विट्()-कान्ति, प्रभा, सरखती,
उद्यम ( वीर्यातिशय ), जीतनेकी भाग (पुं० ) ॥ ४ ॥
इच्छा ( स्त्री० ) ॥ ७ ॥ घोषा-सौंफ ( स्त्री०) घोष-काँसी-धातु, मेघकी ध्वनि दोष-दूषण, पाप, (पुं० )
( शब्द ),घोषक (गोपाल ) अ- दोषा-रात्रि, भुजा (बाहु), (स्त्री) हीरजाति, शब्द, अहीरोंका ग्राम, पौष-पौष-मास, (पुं०) (पुं०)॥५॥
पौष-उत्सव, युद्ध, (न०)॥ ८॥
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३८०
विश्वलोचनकोश:
पौषी तु पौषपौर्णम्यां पुष्ययुक्ता भवेद्यदि । प्रेषस्तु प्रेषणोन्मानमर्दनक्लेशवाचकः ॥ ९ ॥ भाषा गिरि सरस्वत्यां विकल्पार्थे विपूर्वके । माषो व्रीह्यन्तरे माने मूर्खे त्वग्दूषणान्तरे ॥ १० ॥ मिषस्तु स्पर्द्धने व्याजे निमेषे तु निपूर्वकः । मेषः स्यादुरणे राशिभेदभैषज्यभेदयोः ॥ ११ ॥ मेष उत्पूर्वको वेधे वर्षाः स्युः प्रावृषि स्त्रियाम् । वर्षमस्त्री वर्षणेऽब्दे जम्बूद्वीपे घने पुमान् ॥ १२ ॥ विषा त्वतिविषायां स्याद्विषं तु गरले जले । विड् व्यापने पुरीषे च वृषो मूषकधर्म्मयोः ॥ १३ ॥ वृषभे वासके श्रेष्ठे राशौ शृङ्गयां च शुक्रले | शुक्रे पुरुषभेदेऽपि व्रतिनामासने वृषी ॥ १४॥
[ षान्तवर्गे
पौषी - जो पुष्यनक्षत्रयुक्त होवे वह | उन्मेष - बींधना, (पुं० ) पौषमास की पूर्णिमा, (स्त्री० ) वर्षा-वर्षाऋतु (स्त्री० ब० ) प्रैष - भेजना, उन्मान, मर्दन, क्लेश वर्ष - वर्षा, वर्ष ( पुं० न० ) जंबू( पुं० ) ॥ ९ ॥ द्वीप, मेघ ( पुं० ) ॥ १२ ॥ विषा - अतीस - औषधि ( स्त्री० ) विष- - गरल ( जहर ), जल ( न० ) बिट् (ब्) - प्रविष्ट होना, विष्टा, (स्त्री० ) वृष - मूसा, धर्म, ॥ १३॥
|
भाषा - वाणी, सरखती, ( बी० ) विभाषा - विकल्प ( स्त्री० ) माष- त्रीहि (उड़द), तोल (मासाभर), मूर्ख, त्वचा - दोषभेद (पुं० ) ॥ १० ॥ मिष-स्पर्द्धा ( ईर्षा ), बहाना, (पुं) निमिष - निमेष ( कालभेद ) (पुं) मेष- मेंढा, मेष - राशि, औषधिभेद ( पुं० ) ॥ ११ ॥
का
बैल, बाँसा, श्रेष्ठ, वृष - राशि, कडासींगी, वीर्यको बढानेवाला द्रव्य, वीर्य, पुरुषभेद ( पुं० ) वृषी- व्रतियोंका आसन, (स्त्री०) १४
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षतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
३८१ वृषा मूषकपो स्यात्कपिकच्छामपि स्मृता । शुषिः शोषे बिले ख्यातः शेषः सङ्कर्षणे वधे ॥ १५ ॥ अनन्तेऽप्यवशिष्टेऽपि शेषा निर्माल्यभिद्यपि ।
षतृतीयम् । अभीषुः पुंसि भासि स्यादभीषुः प्रग्रहेऽपि च ॥ १६ ॥ आकर्षस्त्विन्द्रिये ख्यातो द्यूताकर्षणयोरपि । पाशके शारिफलके कोदण्डाभ्यासवस्तुनि ॥ १७ ॥ क्लीबमामिषमुत्कोचे मांसे सम्भोगलोभयोः ।
आमिषं सुंदराकाररूपादौ विषयेऽपि च ॥ १८ ॥ उष्णीषं तु शिरोवेष्टे किरीटे लक्षणान्तरे । कल्माषो राक्षसे कृष्णकृष्णपाण्डरयोरपि ॥ १९ ॥ कलुषं किल्बिषे क्लीबमाविले कलुषं त्रिषु । किल्बिषं वृजिने रोगेऽप्यपराधेऽपि किल्बिषम् ॥ २० ॥
वृषा-मूसाकनी, कौंच (स्त्री०) आमिष-खिलना, मांस, संभोग, शुषि-शोष, बिल (पुं०)
लोभ, सुंदर-आकाररूपआदि, विशेष-बलदेव, वध ॥ १५ ॥ अनंत | षय ( न० ) ॥ १८ ॥ (शेषनाग), अवशिष्ट (बाकीरहा)|
| उष्णीष-शिरपर बाँधनेका वस्त्र,
मुकुट, लक्षणभेद ( न०) शेषा-निर्माल्यभेद, (स्त्री० ) षतृतीय।
कल्माष-राक्षस, काला रंग, काला अभीष-किरण, अश्व आदिकी रस्सी और धौला रंग (पुं०) ॥ १९ ॥ (पुं० ) ॥ १६ ॥
कलुष-पाप (न०) मलिन (त्रि.) आकर्ष-इंद्रिय, जूवा, आकर्षण, दुःख रोग, (न.) पासा, चौपट, धनुषके समीपकी किल्बिष-पाप, रोग, अपराध, वस्तु, ( पुं०) ॥ १७ ॥
(न०)॥ २० ॥
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३८२
विश्वलोचनकोश:
कुल्माषो यवके पुंसि चणके यवषष्टके | कुल्माषं काञ्जिके क्लीबं गण्डूषः प्रसृतोन्मिते ॥ २१ ॥ गण्डूषो मुखपूरेऽपि करिहस्ताङ्गुलावपि । जिगीषा जेतुमिच्छायां व्यवसाय प्रकर्षयोः ॥ २२ ॥ तरीषः शोभनाकारे भेलेब्धिव्यवसाययोः । ताविषस्तु सरिन्नाथे कनकवर्गयोरपि ॥ २३ ॥ नहुषो राजभेदे स्यान्नहुषो भुजगान्तरे । निकषः कषपाषाणे निकषा यातुमातरि ॥ २४ ॥
निमेषनिमिषौ कालभेदे नेत्रनिमीलने | परुषं कर्बुरे रूक्षे त्रिषु निष्ठुरवाच्यपि ॥ २५ ॥
[ षान्तवर्गे---
पुरुषः पुन्नागमातङ्गे माधवे परमात्मनि । पौरुषं तेजसि क्लीबं पुंसो भावेऽपि कर्म्मणि ॥ २६ ॥
कुल्माष - जव, चना, आधा सीजाहुवा | नहुष - राजा नहुष, सर्पभेद ( पुं० ) धान्य ( पुं० )
कुल्माष - काँजी ( न०
निकष- कसौटी पत्थर ( पुं० ) निकषा - राक्षसोंकी माता (स्त्री) २४ निमेष निमिष - कालभेद, नेत्रोंका
गण्डूष- एक अंजलि प्रमाण, ॥ २१ ॥ मुखका जल आदिसे पूरना, हाथीकी सूँड और अंगुली ( पुं० ) जिगीषा - जीतने की इच्छा, वीर्याति. ! परुष - कबरा रंग, रूखा, ( न० ) कठोर बोलनेवाला (त्रि०) ॥ २५ ॥
मीना ( पुं० )
>
शय, उच्चपन ( स्त्री० ) ॥ २२ ॥
तरीष- सुंदर आकार, छोटी नौका, | पुरुष - पुंनाग - वृक्ष, हस्ती, विष्णु, परसमुद्र, वीर्यातिशय ( पुं० ) मात्मा (पुं० ) ताविष- समुद्र, सुवर्ण, स्वर्ग ( पुं० ) | पौरुष - तेज, पुरुषका भाव और कर्म ( न० ) ॥ २६ ॥
॥ २३ ॥
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षचतुर्थम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
ऊर्द्धविस्तृतदोः पाणिनृमाने त्रिषु पौरुषम् । प्रत्यूषोऽहमुखे पुंसि प्रत्यूषो वसुदैवते ॥ २७ ॥ प्रदोषः पुंसि दोषे स्यान्नाट्योत्त्यार्ये च मारिषः । रौहिषं कत्तृणे पुंसि मृगभेदे तु रौहिषः ॥ २८ ॥ विशेषो भेदमात्रेऽपि विशेषस्तिलकेऽपि च । विश्लेषः स्याद्विघटने विश्लेषो विधुरे तथा ॥ २९ ॥ व्याकर्षः शारिफलके द्यूताक्षाकर्षणेषु च । शुश्रूषा श्रोतुमिच्छायां परिचर्याकथानयोः ॥ ३० ॥ कुशीलवेषे शैलूषः शैलूषो बिल्वपादपे । सङ्घर्षः स्पर्द्धने घर्षे प्रमोदेऽपि प्रभञ्जने ॥ ३१ ॥ पचतुर्थम् ।
अनुकर्षो रथस्याधोदारुण्यप्यनुकर्षणे । अनुतर्षः सुरापानपात्रे तृष्णाभिलाषयोः ॥ ३२ ॥
पौरुष - लंबी दोनों भुजाओंसे प्रमाण | व्याकर्ष- चौपड़, जूवा, पाशा, आ( न० ) कर्षण (पुं० ) परिचर्या शुश्रूषा - सुनने की इच्छा, ( टहल ), कथन ( पुं० ) ॥ ३० ॥ शैलूष - नट, बिल्वका वृक्ष ( पुं० ) संघर्ष - ईर्षा, घिसना, आनंद, वायु ( पुं० ) ॥ ३१ ॥ पचतुर्थ |
प्रत्यूष - दिनका मुख ( प्रातः काल ), वसुदेवताचाला ( पुं० ) ॥ २७ ॥ प्रदोष -दोष (पुं० ) मारिष - नाट्यकी उक्ति में आर्य (पुं०) रौहिष- रोहिष तृण, ( न० ) रौहिष- मृगभेद ( पुं० ) ॥ २८ ॥ विशेष-भेदमात्र, तिलक (पुं० ) विश्लेष-वियोग, अत्यंत
( पुं० ) ॥ २९ ॥
३८३
अनुकर्ष-रथके नीचेके भागका काष्ठ, अनुकर्षण (पुं० )
वियोग | अनुतर्ष-मदिरापीनेका पात्र, तृषा, अभिलाषा ( पुं० ) ॥ ३२ ॥
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३८४
विश्वलोचनकोशः- [षान्तवर्गे १० सुरे मत्स्येऽप्यनिमिषः सुरे मत्स्येऽनिमेषवत् । अम्बरीषो रणे भ्राष्ट्रेऽम्बरीषो भूभृदन्तरे ॥ ३३ ॥ मार्तण्डे खण्डपरशौ कपीतनकिशोरयोः । अलम्बुषः पुमानेव मतश्छर्दनपादपे ॥ ३४ ॥ अलम्बुषा तु मुण्डीरीवर्गवेश्याप्रभेदयोः । तुरङ्गवदने लोकभेदे किंपुरुषः पुमान् ॥ ३५ ॥ नन्दिघोपः पार्थस्थे स्तुतिपाठकघोषणे। परिघोषस्त्ववाच्ये स्यान्निनादे वारिदध्वनौ ॥ ३६॥ पलङ्कषा गोक्षुरके लाक्षागुग्गुलकिंशुके। मुण्डीरीरास्नयोश्चैव राक्षसे तु पलङ्कषः ॥ ३७॥ शृङ्गीभेदे महाघोषा पुंसि हट्टेऽतिघोषयोः । वातरूषस्तु वातूलेऽप्युत्कोचे शक्कार्मुके ॥ ३८ ॥
इति विश्वलोचनेऽपराभिधानायां मुक्तावल्यां षान्तवर्गः ॥
अनिमिष-अनिमेष-मच्छ, देवता परिघोष-नहींकहनेयोग्य शब्द, शब्द(पुं० )
| मात्र, मेधका गर्जना (पुं० ) ३६ अम्बरीष-रण, भाड़, एक राजा ३३ | पलंकषा-गोखरू, लाख.गगल केस.
सूर्य, महादेव, अंबाडा-वृक्ष, कि- गोरखमुंडी, रायसन (स्त्री०) शोर ( जवान) (पुं० )
पलंकष-राक्षस (पुं० ) ॥ ३७॥ अलंबुष-छर्दन ( वमन) करनेका
"महाघोषा-काकडासींगी, (स्त्री) - वृक्ष (पुं० ) ॥ ३४ ॥ अलंबुषा- गोरखमुंडी, वर्गवेश्या- महाघोष-हाट, अतिशब्द (पुं० ) भेद, (स्त्री० )
वातरूष-वायुको नहीं सहनेवाला, किंपुरुष-देवयोनिभेद (किन्नर), रिश्वत, इद्रका धनुष (पु० ) ३८
लोकभेद ( पुं० )॥ ३५॥ इसप्रकार विश्वलोचनकी भाषाटीकामें नंदिघोष-अर्जुनका रथ, स्तुतिकरने- षान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥
वालाका शब्द (पुं०)
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सद्वितीयम् ] भाषाटीकासमेतः।
३८५ अथ सान्तवर्गः।
सैकम् । सा पुंस्यन्धौ रमायां स्याद्रत्यां से श्रीश्रुतेऽपि सः। सोरच्युते तु पार्वत्यामंसस्कन्धविभूषयोः ॥ १॥
सद्वितीयम् । कासूर्विकलवाचि स्यात्कासूः शक्त्यायुधे स्त्रियाम् । कंसो दैत्यान्तरे कांस्ये कांस्यभाजनमानयोः ॥ २ ॥ स्याद्गुत्सः स्तबके स्तम्बे हारभिद्रन्थिपर्णयोः। गोसः प्रभाते पुंस्येव गोसो गन्धरसेऽपि च ॥ ३ ॥ चासः सुवर्णचूडे स्यात्प्रभेद इक्षुपर्वणः । मणिदोषे भये त्रासो दासो भृत्येऽपि धीवरे ॥ ४ ॥ शूद्रेऽपि दानपात्रेऽपि चेटीसिनकयोः स्त्रियाम् । नासा तु नासिकायां स्यान्नासा द्वारोर्द्धदारुणि ॥ ५॥
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अथ सान्तवर्ग। गुत्स-गुच्छा, तृणआदिका समूह, सैक।
___ हारभेद, ग्रंथिपर्णी (गठिवन) (पुं०) स-कुँवा (पुं०) लक्ष्मी, रति (स्त्री०) गोस-प्रभात, बोले, (पुं० )॥ ३॥ श्रीश्रुत (......) (पुं० )
चास-पक्षिभेद, ऊसभेद, (पुं० ) सो-विष्णु (पुं० ) पार्वती ( स्त्री० ) कंधा, कंधोंके भूषण ( पुं० )॥१॥
त्रास-मणिदोष, भय (पुं० ) सद्वितीय।
दास-भृत्य, धीवर (झीमर)॥ ४ ॥ कासू-विकलवाणी, शक्ति आयुध शूद्र, दानपात्र, (पुं० ) (स्त्री० )
दासी-टहलनी ( स्त्री० ) कंस-कंस-दैत्य, कांसी-धातु, काँ- | नासा-नासिका (नाक ), द्वारके
सीका पात्र, प्रमाण (पुं० ) ॥२॥ ऊपरका काष्ठ (स्त्री०)॥५॥
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३८६
विश्वलोचनकोशः- [ सान्तवर्गेप्रसूर्मातरि कन्दल्यामश्वायां पुंसि वीरुधि । वसुर्ना देवभेदे च योके वह्नौ युधे त्रिषु ॥ वसु वृद्ध्यौषधे रत्नेऽपि श्याम हट्टके धने ॥ ६ ॥ वाच्यवन्मधुरेऽपि स्याद्भाः प्रभावे रुचि स्त्रियाम् । भासस्तु भासि गृध्रे च गोष्ठकुक्कुटकेऽपि च ॥ ७ ॥ मांसं स्यादामिषे मांसी ककोलीजटयोः स्त्रियाम् । माः सुधीदीधितौ मासे चन्द्रे चन्द्रात्परोऽपि सः ॥ ८ ॥ मिसिः स्त्री मधुरीमांस्योः शतपुष्पाजमोदयोः । प्रसस्तु मुहिमूहे स्यान्मूसो मास्यामपि स्मृतः ॥ ९ ॥ रसः खादेऽपि तिक्तादौ शृङ्गारादौ द्रवे विषे । पारदे धातुवीर्याम्बुरागे गन्धरसे तनौ ॥ १० ॥ रसो घृतादावाहारपरिणामोद्भवेऽपि च ।
रसा जिह्वानुवापाठाशल्लकीकङ्गुषु स्त्रियाम् ॥ ११ ॥ प्रसू-माता, केला या कमलगट्टा, अ- मासू-पंडित, किरण, मास, चंद्रमा,
श्वा ( घोड़ी ) ( स्त्री०) । चंद्रमासे परेका लोक ( पुं०)॥८॥ प्रसू-बेल (पुं०)
| मिसि-सोआ, जटामांसी, सौंफ, अवसु-देवभेद, जोता, अग्नि, युद्ध जमोद ( स्त्री० ) (त्रि.)
प्रस-......(पुं० ) वसु-वृद्धि औषधि, रत्न, इयामरंग, मूस-जटामांसी (पुं०)॥ ९ ॥ हाट, धन ( न० ) ॥ ६ ॥
रस-स्वाद, तिक्त आदि रस, शृंगार वसु-मधुर ( त्रि.)
आदि रस, द्रव, विष, पारा, धातु,
वीर्य, जल, राग (अनुराग), बोल, भास्-प्रभाव, प्रभा ( स्त्री० )
शरीर ॥ १० ॥ धृत-आदि, भोज. भास-प्रभा, गृध्रपक्षी, गौवोंके ठानका।
नका परिपाकद्रव, (पुं० ) मुगी (पुं० ) ॥ ७ ॥
रसा-जिह्वा, खुवा, सोना-पाठा, सामांस-गांस ( न०)
ल-वृक्ष, मालकांगनी ( स्त्री०) मांसी-कंकोल, जटामांसी (स्त्री०), ॥११॥
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सतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
रासस्तु गोपक्रीडायां भाषाशृङ्खलके ध्वनौ । पुत्रादौ तर्णके वर्षे वत्सो वत्सं तु वक्षसि ॥ १२ ॥ वासो गृहेऽप्यवस्थाने वासा स्यादाटरूषके । मुनिविस्तारयोासः शंसा वचनवाञ्छयोः ॥ १३ ॥ हिंसा चौर्यादिवधयोः हंसः सूर्यमरालयोः । कृष्णेङ्गवाते निर्लोभनृपतौ परमात्मनि ॥ १४ ॥ योगिमन्त्रादिभेदे च मत्सरे तुरगान्तरे ।
सतृतीयम् । अलसा हंसपद्यां स्यादागः पापापराधयोः ॥ १५ ॥ आशीः स्त्री सर्पदंष्ट्रायां तथा स्त्री शुभशंसने । आख्यायिकापरिच्छेदेऽप्यावासो निर्वृतावपि ॥ १६ ॥ इष्वासः स्याद्धनुर्मात्रे स्यादिष्वासो धनुधरे ।
उच्छासः शासनाश्वासगद्यबन्धगुणान्तरे ॥ १७ ॥ रास-गोपक्रीडा, भाषाकी शृंखला, मात्मा, ॥ १४ ॥ योगिभेद, मंत्र ध्वनि, (पुं०)
आदि भेद, मत्सरी, अश्वभेद (पुं०) वत्स-पुत्रआदि, बछड़ा, वर्ष (पुं० )!
सतृतीय। वत्स-छाती (न.)॥ १२॥ अलसा-लालरंगका लजालू, (स्त्री)
| आगस्-पाप, अपराध (न०) १५ वास-घर, स्थिति (पुं० )
आशिस्-सर्पको डाढ, शुभका कथन वासा-अडूसा (स्त्री०)
(स्त्री०) व्यास-मुनि, विस्तार, (पुं०) आश्वास-वार्ताका विश्राम, आनंद शंसा-वचन, वांछा (स्त्री०)॥१३॥ (पुं० ) ॥ १६ ॥ हिंसा-चोरीआदि, प्राणीका मारना| इष्वास-धनुष,धनुष धारण करनेवाला (स्त्री०)
(पुं० ) हंस-सूर्य, हंस-पक्षी, श्रीकृष्ण, शरी- उच्छास-शिक्षा, आश्वासना, गाब
रका वायु, लोभरहित राजा, पर- न्धका विश्राम (पुं०) ॥ १७ ॥
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३८८ विश्वलोचनकोश:
[सान्तवर्गेउत्तंसश्चावतंसश्च वतंसश्चेत्यमी त्रयः । अस्त्रियामेव वर्तन्ते कर्णपूरेऽपि शेखरे ॥ १८ ॥ उरस्तु वक्षोवरयोरुषः सन्ध्याप्रभातयोः । एनोऽपराधे कलुषेऽप्योकस्त्वाश्रयसद्मनोः ।। १९ ।। ओजो दीप्तौ च सामर्थेऽप्यवष्टम्भप्रकाशयोः । ओजस्तेजसि धातूनामिति पञ्चसु दृश्यते ॥ २० ॥ कीकसः क्रिमिजातौ स्यात्कीकसं क्लीबमस्थनि । चमसः पिष्टभेदे स्यात्पर्पटे चूर्णसंबले ॥ २१ ॥ छन्दः श्रुतीच्छयोः पद्ये स्वाच्छन्छे ना तु वर्तते । ज्यायांस्त्रिप्विति वृद्धे स्यादपि श्रेष्ठातिशस्तयोः ॥ २२ ॥ गुणे कोपेऽप्यभिमतं तरः स्यालवेगयोः । तामसी चण्डिकायां स्यात्तामसः खलसर्पयोः ॥ २३ ॥ तेजः पराक्रमे दीप्तौ प्रभाव बलशुक्रयोः ।
धनुः शरासने राशौ धनुर्द्धन्विपियालयोः ॥ २४ ॥ उत्तंस, अवतंस, वतंस-मुकुट । छन्दस्-वेद, इच्छा, पद्य, स्वच्छंद.
आदि, कर्णभूषण (पुं०न०) १८| ता (पुं० ) उरस्- छाती, श्रेष्ठ, (न० ) ज्यायस्-अतिवृद्ध, श्रेष्ठ, अतिप्रशंउपस्-संध्या, प्रभात ( न०)
सनीय ( त्रि. ) ॥ २२ ॥ एनस्-अपराध, पाप (न० ) तरस-गुण, कोप, बल, वेग (न०) ओकस्-आश्रय, स्थान ( न० ) १९ तामसी-चंडिका, ( स्त्री० ) ओजस्-दीप्ति, सामर्थ्य, रोकनेवाला, तामस-खल (खोटा), सर्प (पुं०)
प्रकाश, धातुओंका तेज, (न०)२० ॥ २३ ॥ कीकस-क्रिमिजाति, (पुं० ) तेजस्-पराक्रम, दीप्ति, प्रभाव, बल, कीकस-अस्थि ( हड्डी) ( न० ) | वीर्य, (न.) चमस-पिष्टभेद, पापड़, चूर्णलिपटाहु-धनुस्-धनुष, धन-राशि, (पुं०न०) वा (पुं०)॥ २१ ॥
धनुस्-चिरोंजी, (पुं०) ॥ २४ ॥
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३८९
सतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
धनुर्धनुर्धरेऽपि स्याद्धनुरर्जुनभूरुहे । नभो व्योम्नि नभो मेघे बिससूत्रे पतद्हे ॥ २५॥ वर्षासु श्रावणे घ्राणे नभाः पलितमस्तके । पनसः कण्टकिफले कण्टके कपिरुग्भिदोः ॥ २६ ॥ दुग्धे नीरे बटादीनां क्षीरेऽपि क्षीरवत्पयः । श्रीवासे पायसः पुंसि परमान्ने तु पायसम् ॥ २७ ॥ पुष्कसी कालिकानील्योः पुष्कसः श्वपचेऽधमे । प्रहासः स्यान्नटवटौ हास्यतीर्थविशेषयोः ॥ २८ ॥ पुनरर्थेऽव्ययं भूयो भूयांस्तु बहुषु त्रिषु । मनश्चित्ते मनीषायां महस्तूत्सवतेजसोः ॥ २९ ॥ मानसं वान्तसरसो रजः स्यादातवे गुणे । रजः परागे रेणौ तु रजवदृश्यते रजः ॥ ३० ॥
धनुषको धारण करनेवाला (त्रि.)। पुष्कसी-कालिका, नील-वृक्ष(स्त्री०)
अर्जुन ( कोह ) वृक्ष (पुं० ) पुष्कस-चांडाल, नीच (पुं० ) नभस्-आकाश, मेघ, कमलभैंसीडा- प्रहास-नटका लड़का, ठट्ठासे हँसना,
का तंतु, पीकदान ( न० )॥२५॥ तीर्थविशेष (पुं०)॥ २८ ॥ वर्षा-ऋतु, श्रावण मास, नासिका, भूयस्-पुनः ( दूसरीबार) (अ० )
बुढापेसे सफेद मस्तकवाला (पुं०) भूयस्-बहुत (त्रि.) पनस्-फनस-वृक्ष, कॉटा, वानरभेद, मनस्-चित्त, बुद्धि, (न.) __ रोगभेद, ( पुं० ) ॥ २६ ॥ महस-उत्सव, तेज (न. ) ॥२९॥ पयस्(पय)-दृध, जल, बडआदि मानस-मन, एक सरोवर, (न.) वृक्षोंका दूध, ( न०)
रजस्-स्त्रीका आर्तव, गुण, पुष्पधूलि पायस-देवदारुकी धूप, (पुं० )क्षी- (न०)
रान्न ( खीर ) (न. ) ॥ २७ ॥ रजस(रज)-धूलिमात्र (न० ) ३०
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३९०
विश्वलोचनकोशः- [ सान्तवर्गेहर्षे वेगे च रभसस्तत्त्वे गुह्ये रते रहः । दंष्ट्रायां राक्षसी ख्याता राक्षसी राक्षसस्त्रियाम् ॥ ३१ ॥ रेतः शुक्रे रसे रेफाः क्रूरेऽपि कृपणेऽधमे । रोदश्च रोदसी चैव दिवि भूमौ द्वयोरपि ॥ ३२ ॥ लालसस्तु द्वयोस्तृष्णाविष्टे चौत्सुक्ययाच्नयोः। वपुर्नपुंसकं देहे वपुर्भव्याकृतावपि ॥ ३३ ॥ वयस्तु यौवने बाल्यप्रभृतौ विहगे वयाः। बर्हिस्तु पुंसि दहने बर्हिः पुंसि कुशेऽपि च ॥ ३४ ॥ वरासिः स्यादसिश्रेष्ठे वरासिः स्थूलशाटके । वों दीप्तौ पुरीषे च वर्ची रूपेऽपि न द्वयोः ॥ ३५ ॥ श्रीवासे वायसः पुंसि बलिपुष्टेऽपि वायसः । काकोदुम्बरिकायां च काकमाच्यां च वायसी ॥ ३६ ॥
रभस-हर्ष (आनंद), वेग (पुं० ) वयस्-यौवन, बालपनआदि अवस्था रहस्-तत्त्व, गुह्य (गोप्य), मैथुन (न.) (न०)
वयस्-पक्षी (पुं० ) राक्षसी-डाढ, राक्षसकी स्त्री (राक्ष
सी) ( स्त्री०)॥३१॥ वहिस्-अग्नि, कुशा, (पुं० )॥३४॥ रेतस्-वीर्य, रस (न०) वरासि-श्रेष्टखङ्ग, मोटी साडी या रेफस्-क्रूर, कृपण, नीच (त्रि.) धोती (पुं०) रोदस-रोदसी-आकाश, पृथ्वी, वर्चस-दीप्ति, विष्टा, रूप, (न० )
ये दोनों एकबार (आकाशभूमि ) ॥३५॥
(स्त्री०)॥ ३२ ॥ लालस-लालसा-तृष्णाव्याप्त,
वायस-श्रीवास-धूप, ( सरलवृक्षका _उत्सुकता, यात्रा ( पुं० स्त्री. ) गोंद ), कोयल-पक्षी (पुं० ) वपुस्-शरीर, सुंदर आकृति (न०) वायसी-कठूमर, मकोय, (स्त्री०)
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सतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
वासस्तु वसने ख्यातमोष्ठे दशनपूर्वकम् । वाहसोऽजगरे वारिनिर्माणे सुनिषण्णके ॥ ३७ ॥ विद्वान्धीरात्मवित्प्राज्ञे विलासो हावलीलयोः। वीतंसो बन्धनोपाये मृगाणां पक्षिणामपि ॥ ३८ ॥ तद्विश्वासाय वस्त्रे च वीतंसमपि न द्वयोः । बीभत्सो नाऽर्जुने हिंस्र विकृते सघृणे त्रिषु ॥ ३९ ॥ पितामहे बुधे वेधा वेधा दामोदरेऽपि च । शिरस्तु मस्तके सेनाप्रभागेऽत्र्यप्रधानयोः ॥ ४० ॥ श्रेयस्तु मङ्गले धर्मे श्रेयाशस्तेऽभिधेयवत् । श्रेयसी करिपिप्पल्यामभयारास्नयोरपि ॥ ४१ ॥ श्रीवासो वृकधूपेऽपि श्रीवासो विष्णुपद्मयोः ।
स्रोतोऽम्बुलेशे कर्णे च स्रोतो देहशिरास्वपि ॥ ४२ ॥ वासस्-वस्त्र, (न०) । वाला, विकारको प्राप्त हुवा, ग्लानि दशनवासस्-होंठ ( न० )
करनेवाला, (त्रि.)॥ ३९ ॥ वाहस-अजगर-सर्प, जलका निकस- वेधस्-ब्रह्मा, पंडित, श्रीकृष्ण (पुं०) ना, अच्छीतरह स्थित हुवा (पुं०) शिरस्-मस्तक, सेनाका अग्रभाग
( न० ) आगे होनेवाला, प्रधान विद्धस्-धैर्यवान, आत्मवेत्ता, पंडित,
(त्रि.) ॥ ४० ॥ (पुं०)
श्रेयस्-मंगल, धर्म (न)
श्रेयस्-श्रेष्ठ (त्रि०) विलास-हाव, लीला (पुं०)
श्रेयसी-गजपीपल, हरड, रायसन वीतंस-मृग और पक्षियोंका बंधन
का बंधन (स्त्री०)॥४१॥ __ का उपाय, (पुं० ) ॥ ३८॥ श्रीवास-सरल वृक्षका गोंद, विष्णु, वीतंस-मृग और पक्षियों के विश्वासके- कमल ( पुं० )
लिये वस्त्र ( डरावा) (न०) स्रोतस-जलका लेश ( थोडा जल), बीभत्स-अर्जुन (पुं० ) हिंसाकरने- कान, शरीरकी नाडी ( न०) ४२
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विश्वलोचनकोशः- [ सान्तवर्गेसङ्केपेऽपि समासः स्यात्समासः स्यात्समर्थने । द्वन्द्वादौ च समासाख्या सरस्तोयतडागयोः ॥ ४३ ॥ सहो ज्योतिष्मति बले सहा हेमन्तमार्गयोः । सारसं पङ्कजे क्लीबं सारसः पक्षिचन्द्रयोः ॥ ४४ ॥ साहसं तु बलात्कारकरणे साहसं मदे । सुरसौषधिभेदेऽपि हविस्तु घृतहव्ययोः ॥ ४५ ॥
सचतुर्थम् । अगौकाश्च नगौकाश्च शरभे सिंहपक्षिणोः । अधिवासस्तु वसतौ संस्कारे धूपनादिभिः ॥ ४६॥ अवध्वंसस्तु निंदायां परित्यागावचूर्णयोः । उदर्चिः पुंसि दहने उदर्चिस्तूत्प्रभे त्रिषु ॥ ४७ ।। कनीयाननुजेऽत्यल्पे त्रिषु स्यादतियूनि वा ।
कलहंसस्तु कादम्बे राजहंसे नृपोत्तमे ॥ ४८॥ समास-संक्षेप, समर्थन करना, द्वन्द्व
सचतुर्थ । आदि-समास (पुं० )
अगौकस् नगौकस-साबर, सिंह, सरस्-जल, तालाव ( न० )॥४३॥ पक्षी (पुं०)
| अधिवास्-बसना, धूप देना आदिसे सहस्-ज्योति, अतिबल, ( न०) ।
___ संस्कार (पुं०)॥ ४६ ॥ सहस्-हेमन्त ऋतु, मागेशिर-मास अवध्वंस-निंदा, परित्याग, चूर्ण (पुं०)
___ करना (पुं०) सारस-कमल ( न०)
उदर्चिस्-अग्नि (पुं०) सारस-सारस-पक्षी, चंद्रमा ( पुं०) उर्चिस्-तीव्र प्रभावाला (त्रि.)
॥ ४४ ॥ साहस-जबरदस्ती करनी, मद(न.)
| कनीयस्-छोटा भ्राता, बहुत थोड़ा,
__ अतियुवा ( जवान) (त्रि.) सरसा-आषाधमद (तुलसा ),कलहंस-बत्तक. राजहंस ( जिसकी (स्त्री०)
चोंच और चरण रक्तहों) राजाओंमें हविस्-घृत, देवान्न (न० )॥४५॥ श्रेष्ठ राजा (पुं० ) ॥ ४८ ॥
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सचतुर्थम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
कुम्भीनसो विषज्वालाकुलदृष्टिभुजङ्गमे । भुजङ्गमेऽप्यथ कुम्भीनसी लवणमातरि ॥ ४९ ॥ भवेद्यनरसो नीरे दक्षिणावर्त्तपारदे I सान्द्रनिर्यासकर्पूरपीलुपर्णीषु मोरटे ॥ ५० ॥ चन्द्रहासो दशग्रीवख खने च दृश्यते । क्लीबं तामरसं ताम्रे काञ्चने जलजेऽपि च ॥ ५१ ॥ त्रिस्रोता जाह्नवीनद्योदिवौकाश्चातके सुरे । दीर्घायुः पुंसि मार्त्तण्डकाकशाल्मलिजीवके ॥ ५२ ॥ निःश्रेयसं शुभे शुक्के पुंसि निःश्रेयसो हरे । नीलाञ्जसाऽप्सरोभेदे नदीभेदे तडित्यपि ॥ ५३ ॥ पुनर्वसुः स्त्रियामृक्षे कृष्णे कात्यायने पुमान् । पौर्णमासी तु पौर्णम्यां पौर्णमासः क्रतौ नरि ॥ ५४ ॥
वाला सर्प, सर्प, (पुं० ) कुंभीनसी - लवणासुरकी माता (स्त्री०)
कुंभीनस - विषज्वालासे आकुल दृष्टि | दिवौकस् - पपीहा - पक्षी, देवता ( पुं०) दीर्घायुस् - सूर्य, काग-पक्षी, शाल्मलि ( साल ) वृक्ष, जीवक औषधि ( त्रि० ) ॥ ५२ ॥ निःश्रेयस - शुभ ( न० ) शुक्ल (खच्छ ), महादेव ( पुं० ) नीलाञ्जसा - अप्सराभेद, नदीभेद,
॥ ४९ ॥
घनरस-जल, दक्षिणावर्त पारा, स घन, गोंद, कपूर, चुरनहार, क्षीरमोरट, (पुं० ) ॥ ५० ॥ चंद्रहास- रावणका खड्ग, खड्गमात्र,
( पुं० )
तामरस- ताँबा, सुवर्ण, कमल, ( न० )
॥ ५१ ॥
त्रिस्रोता - गंगा, नदी, ( स्त्री० )
३९३
बिजली ( स्त्री० ) ॥ ५३ ॥ पुनर्वसु- पुनर्वसु नक्षत्र ( स्त्री० )
कृष्ण, कात्यायन- मुनि ( पुं० ) पौर्णमासी - पूर्णिमा तिथि, ( स्त्री० ) पौर्णमास-यज्ञ ( पुं० ) ॥ ५४ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [ सान्तवर्गप्रचेताः पुंसि वरुणे मुनौ हृष्टे तु वाच्यवत् । योगे वरीयाञ् श्रेष्ठे च वरिष्ठे युवते त्रिषु ॥ ५५ ॥ मता मधुरसा मूर्वा द्राक्षादुग्धिकयोरपि । म्लाने मलीमसो लोहपुष्पकाशीशयोः पुमान् ॥ ५६ ॥ महारसस्तु खरे कोशकारे कसेरुणि । राजहंसस्तु कादम्बे कलहंसे नृपोत्तमे ॥ ५७ ।। रासेरसस्तु रासे स्याद्रससिद्धिवलावपि । विभावसुबृहद्भानौ भानौ हारान्तरेऽपि च ॥ ५८ ॥ विभावसुः स्याद्गन्धर्वभेदे पुंसि निशि स्त्रियाम् । विहायाः पुंसि विहगे विहायः सुरवर्त्मनि ॥ ५९ ॥ श्वःश्रेयसं तु कल्याणे परानन्दे च शर्मणि ।
सप्ताहिनेऽपि स्यात्सप्ताचिः क्रूरलोचने ॥ ६० ॥ प्रचेतस्-वरुण, मुनि, (पुं० ) प्रस- रासेरस-रास ( बहुतोंका नृत्य ), न (त्रि.)
| रससिद्धिकेलिये वलि (पुं० ) वरीयस्-वरीयान्-योग, श्रेष्ठ,अति- विभावसु-अग्नि, सूर्य, हारभेद,
श्रेष्ठ, जवान (त्रि. ) ॥ ५५ ॥ ॥५८ ॥ मधुरसा-मरोरफली, दाख, दूधी गंधर्वभेद ( पुं० ) रात्रि (स्त्री०) (स्त्री.) (पुं०)॥ ५६ ॥
विहायस्-आकाश, (न० )॥५९॥ महारस-खजूर, ऊस (ईख), कसे- श्वःश्रेयस-कल्याण, परम आनन्द, रू (पुं० )
। सुख (न०) राजहंस-बत्तक, कलहंस, राजाओं- सप्तार्चिस्--अग्नि, (पुं०) क्रूर नेत्र__ में श्रेष्ठ (पुं० ) ॥ ५७ ॥
वाला, (त्रि.)॥६० ॥
पण
मलोमस मलिन, लोहा. पुष्पकसीस विहायस-पक्षा पु° )
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सषष्ठम् । ] भाषाटीकासमेतः।
३९५ समञ्जसः स्यादुचितेऽप्यभ्यस्तेऽपि समञ्जसः। मतः सर्वरसो वीणाप्रभेदे धूनके पुमान् ।। ६१ ॥ साधीयानतिसाधौ स्यादतिवादेऽपि वाच्यवत् । भवेत्सिद्धरसो व्याडिप्रभृतौ च रसेऽपि च ॥ १२ ॥ सुमनाः पुष्पमालत्योः स्त्रियां धीरे सुरे पुमान् । सुमेधास्तु स्त्रियां ज्योतिष्मत्यां दिव्यमतौ त्रिषु ।। ६३ ॥
सपञ्चमम् ।। दिव्यचक्षुः पुमानन्धे सुगन्धेऽपि सुलोचने । स्यान्नभश्चमसश्चित्रापूपे चन्द्रेन्द्रजालयोः ॥ ६४॥ हिङ्गनियोसशब्दोऽयं निम्बे हिङ्गुरसे पुमान् ।
सषष्टम् । हिरण्यरेताः सप्तार्चिःसप्तपण्योः पुमानयम् ॥ ६५ ॥
इति विश्वलोचनेऽपराभिधानायां मुक्तावल्यां सान्तवर्गः ॥
समंजस-उचित, अभ्यास किया हुवा। _ सपंचम। (त्रि.)
दिव्यचक्षुस्-अन्धा, सुगंध, सुंदर सर्वरस-वीणाभेद, धुननेवाला,(पुं०) नेत्रोंवाला (पुं०) ॥ ६१ ॥
नभश्चमस-......चंद्रमा, इंद्रजाल साधीयस्-अत्यंत साधु, अतिवाद (पुं०) ६४॥ (त्रि.)
हिंगुनिर्यास-नींब, हींगका रस(पुं०) सिद्धरस-व्याडि आदि, रस, (पुं०)
सषष्ठ । ॥ ६२ ॥
हिरण्यरेतस्-अग्नि, लज्जावती औ. सुमनस्-पुष्प, मालती, (स्त्री०) षधि (पुं० )॥ ६५ ॥ धीर, देवता (पुं० )
इसप्रकार विश्वलोचनकी भाषा सुमेधस्-मालकाँगनी, (स्त्री०) श्रेष्ट टीकामें सान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥
बुद्धिवाला (त्रि.) ॥ ६३ ॥ ।
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३९६
[ हान्तवर्गे
विश्वलोचनकोशःअथ हान्तवर्गः।
सरोषवारणे हीरे हः स्यादीशात्मजे तु हिः ।
हद्वितीयम् । अहिर्वृत्राऽसुरे सप्पै स्यादीहा तूद्यमेच्छयोः ॥ १॥ नष्टेन्दुकलादर्शेपि पिकालापे स्त्रियां कुहूः। गहरे सिंहपुष्प्यां च गुहा स्कन्दे गुहः पुमान् ॥ २॥ गृहाः पुंसि गृहे पल्यां ग्राहो जलचरे पुमान् । ग्रहः सूर्यादिनिर्बन्धोपरागेषु रणोद्यमे ॥ ३ ॥ ग्रहणे पूतनादौ च सैंहिकेयेऽप्यनुग्रहे । नाहस्तु बन्धने कूटेऽप्युपाद्वैरानुबन्धने ॥ ४ ॥ प्राहो निपुणतर्केऽपि प्रौहो हस्त्यांघ्रिपर्वणोः । बहुः स्यात्र्यादिसंख्यासु वहुः स्याद्विपुलेऽन्यवत् ॥ ५ ॥ अथ हान्तवर्ग । गृह-घर, स्त्री (पुं० बहु०) हैक ।
ग्राह-ग्रहण करना, जलचर (ग्राहआह-क्रोधवालेका निवारण करना, हीरा
___दि ) (पुं० ) (पुं०)
ग्रह-सूर्यआदि ग्रह, हठ, सूर्यचंद्रका हि-शिवपुत्र (पुं०)
ग्रहण, रणका उद्यम ॥ ३ ॥ ग्रहण
करना, पूतना आदि बालग्रह, राहु, हद्वितीय ।
अनुग्रह (पुं०) अहि-त्राऽसुर, सर्प, (पुं० )
नाह-बंधन, लोहा कूटनेका घन(पुं०) इहा-उद्यम, वांछा ( स्त्री०)॥१॥ उपनाह-वैर, अनुबंधन, ( बीणाके कुहू-नष्ट इंदुकलावाली अमावास्या, तार बांधने की खूटी ) (पुं० ) ४
कोयलका शब्द ( स्त्री० )ौह-निपुण, तर्क, हस्तीका चरण, गुहा-पर्वतकी गुफा, पिठवन या म- पर्व ( पोरी) (पु.) - पवन औषधि, (स्त्री)
बहु-तीन आदि संख्या, बहुत (त्रि.) गुह-खामिकार्तिक (पुं० ) ॥२॥ ॥५॥
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हतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
३९७. वाहावाही हये वाहौ वाहः स्याद्रुषमानयोः । मही क्षितौ च नद्यां च मह उत्सवतेजसोः ॥ ६ ॥ मोहो मूढत्वमात्रेऽपि स्यादहम्मतिमूर्च्छयोः । लोहस्तु शस्त्रे लोहं तु जोङ्गके सर्वतैजसे ॥ ७ ॥ वह मयूरपिच्छेऽपि दलेऽपि स्यान्नपुंसकम् । वहो गन्धवहे स्कन्धदेशे स्याद्वृषभस्य च ॥ ८ ॥ व्यूहस्तु बलविन्यासे वृन्दे निर्माणतर्कयोः । सहो बले च भूम्यां तु मुद्गपा नखौषधे ॥ ९ ॥ सहदेवाकुमार्योश्च सहः क्षान्तियुते त्रिषु ।। सिंहः कण्ठीरवे राशिभेदे श्रेष्ठे परस्थितः ॥ १० ॥ सिंही बृहत्यां वार्ताको राहुमातरि वासके ।
हतृतीयम् । आरोहस्तु नितम्बे स्यादीर्घत्वे च समुच्छ्रये ॥ ११ ॥ वाहा, वाह-अश्व, भुजा, (स्त्री०पुं०) व्यूह-सेनारचना, समूह, रचना, तर्क वाह-बैल, प्रमाणभेद ( १२८ सेर) (पुं० ) (पु०)
सह-बल (पुं न० ) मही-पृथ्वी, नदी (स्त्री०)
सहा-पृथ्वी, मुगवन, नख ॥ ९ ॥ मह-उत्साह, तेज (पुं०) ॥ ६ ॥ ।.
सहदेई, गुवारपाठा, ( स्त्री. )
सह-क्षमावान् ( त्रि) मोह-मूढतामात्र, अभिमान, मूर्छा
मूछा सिंह-शेर, राशिभेद, शब्दके आगे (पुं० )
जुड़ा-श्रेष्ठ, (जैसे पुरुषसिंह ) (पुं०) लोह-शस्त्र (पुं०)
॥ १०॥ लोह-अगर, संपूर्ण धातु ( न०)| सिंही-कटेहली, बैंगन, राहु-ग्रहकी ॥ ७ ॥
माता, बाँसा ( स्त्री०) बह-मोरपंख, दल ( पत्ता ) (न० ) हतृतीय। बह-वायु, बैलका कंधा (पुं०) आरोह-नितम्ब ( चूतड़ ), लंबाई, ॥८॥
। उँचाई, ॥११॥
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३९८
विश्वलोचनकोश:
अवरोहे हस्तिपके मानारोहणयोरपि ।
उत्साहस्तूद्यमे सूत्रतन्तावपि पुमानयम् ॥ १२ ॥ कटाहो घृततैलादिपाकामत्रेऽपि कर्परे । दीपेऽपि कूर्मपृष्ठेऽपि कटाहो महिषीशिशौ ॥ १३ ॥ कलहो भण्डने युद्धे खड्गकोषे वराटके । दात्यूहः कालकण्ठेऽपि तथा वन्दिविहङ्गमे ॥ १४ ॥ नवाहो नूतनदिने नवाहः प्रतिपत्तिथौ । निग्रहो भर्त्सने बन्धे मर्यादायां च निग्रहः ॥ १५ ॥ निर्यूहो द्वारि निर्यासे शिखरे नागदन्तके । निरूहो बस्तिभेदे स्यात्तर्कनिश्चितयोरपि ॥ १६ ॥ पटहस्तु समारम्भे न स्त्री पटहमानके । प्रग्रहस्तु तुलासूत्रे बन्धे च नियमे भुजे ॥ १७ ॥
[ हान्तवर्गे
॥ १२ ॥
उतारना, फीलवान, प्रमाण-भेद, नवाह-नवीन दिन, प्रतिपदा तिथि चढना ( पुं० ) ( पुं० ) उत्साह - उद्यम, सूत्रतन्तु, (पुं० ) निग्रह - झिड़कना, बंधन, मर्यादा ( सीमा ) ( पुं० ) ॥ १५ ॥ निर्यूह - दरवाजा, वृक्षका गोंद आदि, शिखर, हाथीदांत ( पुं० ) निरूह - बस्तिभेद, तर्क, निश्चित (पुं०) ॥ १६ ॥
,
कटाह-घृत तेल आदिमें पाक करनेका पात्र, घटआदिका खप्पर, दीप, कछुवाकी पीठ, भैंसका छोटा बच्चा | ( पुं० ) ॥ १३ ॥ कलह - बहुत बोलना, युद्ध, खड्गको श, कौड़ी, (पुं० ) दात्यूह - जलकाक पपीहा ( पुं० ) प्रग्रह - तराजूका सूत्र ( चोटिया )
पटह-समारंभ ( आरंभ ) ( पुं० ) ( पुं० न० )
2
॥ १४ ॥
बंधन,
नियम, भुजा ॥ १७ ॥
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हतृतीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
रश्मौ हयादिरश्मौ च बन्द्यां स्वर्णालुनीपयोः । प्रग्राहस्तु तुलासूत्रे वर्षादिप्रग्रहेऽपि च ॥ १८ ॥ प्रवाहो जलवेगे स्यात्पारंपर्यानुवर्त्तने । वराहः किरिमुस्ताद्रिविष्णुमेघेषु मानके ॥ १९ ॥ वाराही मातृकाबुद्धदेव्योदृष्टयाख्यभेषजे । कायसङ्ग्रामविस्तारप्रविभागेषु विग्रहः ॥ २० ॥ विग्रहः स्यात्समासेऽपि विदेहो मिथिले पुमान् । विदेहा मिथिलायां स्यादेहशून्येऽपि वाच्यवत् ॥ २१ ॥ वैदेही रोचनासीतावणिग्योषित्सु पिप्पलौ । सङ्ग्रहो बृहद्युत्तुङ्गे मुष्टौ सङ्ग्रहणेऽपि च ॥ २२ ।। सुवहस्तु सुवाते स्यात्पुंसि सम्यग्वहे त्रिषु । एलापण्यौ तु सुवहा सल्लकीरास्नयोरपि ॥ २३ ।।
किरण, अश्वआदिकी रस्सी, बंदी, विग्रह--शरीर, संग्राम, ( युद्ध), वि.
अमलतास-वृक्ष, कदंब-वृक्ष (पुं०)। स्तार, विभाग, ॥ २० ॥ पदोंका प्रग्राह-तराजूका सूत्र ( चोटिया ), समास (पुं० )
वर्षा आदिका रुकना (पुं०) १८: विदेह-मिथिल-देश, (पुं० ) प्रवाह-जलवेग, परंपरतासे अनुव- व
नव विदेहा-मिथिलापुरी, ( स्त्री० ) र्तन ( पुं० )
| विदेह-शरीररहित (त्रि.) ॥२१॥
| वैदेही-गोरोचन, सीता, वणिककी वराह-सूकर, नागरमोथा, पर्वत, स्त्री, पीपल ( स्त्री० ) विष्णु, मेघ, मान (प्रमाण ) भेद संग्रह-बडा, ऊँचा, खड्गकी मूंठि, (पुं० ) ॥ १९ ॥
। पकड़ना ( पुं० )॥ २२ ॥ वाराही-मातृका, (देवी), बुद्ध सुबह-श्रेष्ठ वायु, ( पुं० ) अच्छी त
भगवानकी देवी, वाराही कंद-औ- रह चलनेवाला, (त्रि.) षधि ( स्त्री.)
सुवहा-रायसल ॥ २३ ॥
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४००
विश्वलोचनकोशः- [ हान्तवर्गेसुवहा वल्लकीहंसपदीशेफालिकासु च ।
हचतुर्थम् । अभिग्रहोऽभिग्रहणेऽप्यभियोगेऽपि गौरव ॥ २४ ॥ अवरोहोऽवतरणे मतो मूलाल्लतोद्गमे । शाखाशिफायां त्रिदिवेऽवग्रहस्तु गजालिके ॥ २५॥ वृष्टिरोधे प्रतिबन्धेऽप्यस्वातन्त्र्येऽप्यवग्रहः। अवग्राहो भवेद्वृष्टिरोधहस्तिललाटयोः ॥ २६ ॥ अश्वारोहाऽश्वगन्धायामश्वारोहोऽश्ववारके । पुमानुपग्रहो वन्द्यामुपयोगेऽनुकूलने ॥ २७ ॥ उपनाहस्तु वीणायां बन्धने व्रणलेपने । नासिकायां गन्धवहा वाते गन्धवहः पुमान् ॥ २८ ॥ तनूरुहं तु गरुति स्याल्लोन्नि च तनूरुहम् । तमोपहो जिने सूर्ये दहने मृगलक्ष्मणि ॥ २९ ॥ साल वृक्ष, नागदमनी,......लाल ललाट (पुं० ) ॥ २६ ॥ रंगका लज्जालू, निगुंडी ( स्त्री० ) अश्वारोहा-आसगंध-औषधि(स्त्री०) हचतुर्थ।
अश्वारोह-घोड़ेका सवार (पुं० ) अभिग्रह-चोरीकरना, लड़ाईमें पुका- उपग्रह-वन्दी (कैदखाना), उप. रना आदि, गौरव ( बडप्पन) योग, अनुकूलता (पुं० ) ॥२७॥ (पुं० ) ॥ २४ ॥
उपनाह-वीणाका बंधन (जहाँ तार अवरोह-उतरना, वृक्षकी जड़से बांधेजावें), व्रणलेप (पुं० ) बेलका ऊपरको चढना, शाखाकी गंधवहा-नासिका, (स्त्री०) गंधवह जड़, स्वर्ग ( पुं०)
वायु (पुं०) ॥२८॥ अवग्रह-हस्तीका ललाट ॥ २५ ॥ तनूरुह-पक्षीका पंख, लोम (रोम) वर्षाका रुकना, प्रतिबंध, पराधी- (न० ) नता (पुं०)
| तमोपह-जिनदेव, सूर्य, अग्नि, अवग्राह-वृष्टिका रुकना, हस्तीका चंद्रमा (पुं०)॥ २९ ॥
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हपञ्चमम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
सूतो देवसहो देवसहा दण्डोत्पलौषधौ ।
परिग्रहः परिजने पत्त्यां स्वीकारशापयोः ॥ ३० ॥ मूलेsपि परिबर्हस्तु राजयोग्ये परिच्छदे | परीवाहो जलोच्छ्रासे भूपालोचितवस्तुनि ॥ ३१ ॥ पितामहः पितुस्ताते ब्रह्मण्यपि पितामहः । प्रतिग्रहः स्वीकरणे सैन्यपृष्ठे ग्रहान्तरे ॥ ३२ ॥ महद्भ्यो विधिवद्देये तहे च पतइहे । वरारोहा कटौ नार्या पुंसि साद्यवरोहयोः ॥ ३३ ॥ महासहा मासपर्ण्यामम्लानेऽपि महासहाः ।
हपश्ञ्चमम् ।
पितामहे ऽपि तातस्य विधौ च प्रपितामहः ॥ ३४ ॥ इति विश्वलोचनेऽपराभिधानायां मुक्तावल्यां हान्तवर्गः ॥
देवसह -- सूत (सारथि), देवलहावृक्षविशेष डानिकुनिशाक ( वंगभाषा ) ( स्त्री० )
परिग्रह - परिजन ( परिवार ), पत्नी,
अंगीकार, शाप ॥ ३० ॥ मूल, (जड़ ) ( पुं० )
परिबर्ह - राजा के योग्य द्रव्य, उपस्कर, ( पुं० )
परीवाह - जलनिकसनेका
मार्ग, राजा के योग्य वस्तु, (पुं० ) ॥३१॥ पितामह - पिताका पिता ( दादा ), ब्रह्मा, (पु० ) प्रतिग्रह - अंगीकार करना,
२६
सेनाकी
४०१
पीठ, ग्रहभेद ॥ ३२ ॥ बड़ोंको विधिपूर्वक देनेयोग्य द्रव्य, उसी द्रव्यका विधिपूर्वक ग्रहणकरना, पीकदान, (पुं० ) वरारोहा - कटि (कमर ) स्त्री, (स्त्री०) वरारोह - घोड़ेका सवार, चढना, ( पुं० ) ३३ ॥
| महासहा - भाषर्पणी, कटैया, (स्त्री०) हपंचम | प्रपितामह-पिताका पितामह ( परदादा ), ब्रह्मा, (पुं० ) ॥ ३४ ॥ इस प्रकार विश्वलोचनमें हान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥
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विश्वलोचनकोश:
क्षैकम् |
राक्षसे क्षेत्रमात्रेऽपि क्षकारः परिकीर्तितः ।
क्षद्वितीयम् ।
अक्षस्तु पाशके चक्रे शकटे च बिभीतके ॥ १ ॥ आचारे व्यवहारे च चुल्लावात्मज्ञकर्षयोः । अक्षं स्यादिन्द्रिये क्लीबं तुत्थे सौवर्चलेऽपिच ॥ २ ॥ ऋक्षस्तु पुंसि भल्लूके शोणफे कृतवेधने । ऋषिभेदेऽद्विभेदे च तारायामृक्षमस्त्रियाम् ॥ ३ ॥ कक्षः सैरिभदोर्मूलकच्छे शुष्कवने तृणे । गुल्मिन्यामपि कक्षा तु गृहे काञ्चीप्रकोष्ठयोः ॥ ४ ॥ परिधाने परीधाने पश्चादश्चलपल्लवे । स्पर्द्धाद्वारवरत्रासु गजरज्जौ रथांशके ॥ ५ ॥ रौक्षं गीते त्वन्यवत् स्यात्तीक्ष्णे शुचिमनोज्ञयोः । दक्षो मुनौ हरवृत्रे कुक्कुटेऽग्नौ च धातरि ॥ ६॥ दक्षः स्याद्दक्षिणभुजे प्रगल्भेनलसे त्रिषु ।
४०२
क्षैक । क्ष - राक्षस, क्षेत्रमात्र, (पुं० )
क्षद्वितीय | अक्ष- पासा, चक्र, गाडी,
बहेडा,
॥ १ ॥ आचार, व्यवहार, चूल्हा, : ब्रह्मज्ञानी, २ तोले परिमाण, (पुं०) अक्ष- इन्द्रिय, नीलाथोथा, काला
नमक, ( न० ) ॥ २ ॥ ऋक्ष- रीछ, सोनापाठा-औषधि, तोरई या कहै छिद्र जिसमें वह, ऋषिभेद, पर्वतभेद, ( पुं० ) तारा ( न० ) ॥ ३ ॥
--
[ क्षान्तवर्गे
| कक्ष - भैंसा, भुजाका मूल (काख ), तून-वृक्ष, सूखा वन, तृण, (पुं०) कक्षा- ड्योढी, घर, करधनी, ओटा या चौखट, ॥ ४ ॥ डुपट्टा, दुपट्टेका पिछला पल्ला, स्पर्द्धा ( ईषी), डकारलेना, चर्मरज्जु, हस्तीकी रज्, रथका भाग ( स्त्री० ) ॥ ५ ॥ रौक्ष-गाना, तीक्ष्ण, पवित्र, सुंदर ( त्रि० )
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दक्ष-मुनि, शिवका वृषभ, मुर्गा, अग्नि, ब्रह्मा ॥ ६ ॥ दहिनी भुजा, (पुं०) प्रगल्भ ( चतुर ), सावधान (त्रि ० )
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शद्वितीयम् ।] भाषाटीकासमेतः।
४०३ दक्षा पृथिव्यामाख्याता ध्वानी कक्कोलिकौषधौ ॥ ७ ॥ ध्वानस्तु वायसे कके गृहे तक्षकभिक्षुके । न्यक्षः परशुरामे स्यान्युक्षः काय॑निकृष्टयोः ॥ ८ ॥ पक्षः केशात्परो वृन्दे पक्षो मासार्द्धपार्श्वयोः । गृहभित्तौ ग्रहे भृत्ये सख्यौ राजगजे बले ॥ ९ ॥ साध्ये गरुति देहाङ्गे चुल्लिरन्ध्रविरोधयोः । न्यायानुसारके प्रेक्षः प्रेक्षा नृत्येक्षणे गतौ ॥ १० ॥ प्लक्षस्तु पिप्पले जङ्घद्वारपार्श्वे गृहस्य च । द्वीपभेदे गर्दभाण्डे भिक्षुकीतिविशेषयोः ॥ ११ ॥ भिक्षा भृत्यर्थनासेवाखपि भिक्षितवस्तुनि । मोक्षोऽपवर्गे मृतौ च मोक्षो मुप्ककपादपे ।। १२ ।।
दशा-पृथ्वी, ( स्त्री०)
पक्षीको पंख, शरीरका अंग्ग, चू'स्वांनी-कंकोल औषधि, ( स्त्री. ) लहेका छिद्र, विरोध, (पुं०)
प्रेक्ष-न्यायके अनुसार चलनेवाला चांक्ष-काग, कंकपक्षी, घर, तक्षक सर्प, भिक्षुक (पुं०)
प्रेक्षा-नृत्य देखना, गमन (स्त्री० )
॥ १० ॥ न्यक्ष--परशुराम (पुं० ) न्युक्ष. प्रश्न-पीपल-वृक्ष, जंघाका और घ
संपूर्ण, निकृष्ट (खराब ) (त्रि० ). रका द्वार तथा पसवाडा, द्वीपभेद, ॥ ८ ॥
पारसपीपल, भिक्षुकीभेद, ईतिभेद, केशपक्ष केशसमूह, पक्ष-महीनाका (पुं० )॥ ११ ॥
अर्धभाग, शरीरका एक तरफका भिक्षा-नौकरी, मांगना, सेवा, माँगी भाग, घरकी भीत, ग्रह, भृत्य हुई वस्तु, ( स्त्री०) (नौकर), मित्र, राजाका हस्ती, मोक्ष-मोक्ष, मृत्यु, मोखा-वृक्ष, (पुं०) ॥९॥ सेना, साध्य (न्याय-पक्ष), ॥१२॥
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विश्वलोचनकोश:
कुबेरे के यक्षो रक्षा रक्षणलाक्षयोः । रूक्षो वृक्षान्तरे प्रेमशून्यकर्कशयोस्त्रिषु ॥ १३ ॥ लक्षं न पुंसि सङ्ख्यायां क्लीबं छद्मशरव्ययोः । लक्षं वितस्तौ च क्लीबं वीक्षं दृश्येऽभिधेयवत् ॥ १४ ॥ क्षतृतीयम् । अध्यक्षः स्यादधिकृते प्रत्यक्षेऽप्यभिधेयत् । आरक्षं रक्षणीयेऽपि शिरोकम्र्म्मणि दन्तिनाम् ॥ १५ ॥ उत्प्रेक्षा तु मता काव्याऽलङ्काराऽनवधानयोः । गवाक्षी त्विन्द्रवारुण्यां पुंसि जालककीशयोः ॥ १६ ॥ गोरक्षो नागरङ्गे स्याद्द्रवां च परिरक्षके । मृगाक्षी मृगनेत्रायामिन्द्रवारुणिकामिनोः ? ॥ १७ ॥ रक्ताक्षः सैरिने क्रूरे पारावतचकोरयोः । समीक्षा तत्त्वे बुद्धौ स्याइन्थभेदे निभालने ॥ १८ ॥
४०४
यक्ष - कुबेर, गुह्यकमात्र, (पुं० ) रक्षा-रक्षा करना, लाख, ( स्त्री० ) रूक्ष - वृक्षभेद (पुं) प्रेमशून्य, कठोर,
( त्रि० ) ॥ १३ ॥ लक्ष-लाख-संख्या, ( न० स्त्री० ) लक्ष-कपट ( बहाना ), बाणका निशाना, बालिस्त, ( न० > वीक्ष- देखनेयोग्य, ( त्रि० ) ॥ १४ ॥
| उत्प्रेक्षा- काव्यका अलंकारभेद, विस्म। रण, (स्त्री० ) गवाक्षी-गडूंभेकी बेल, ( स्त्री० ) गवाक्ष - झरोखा, बंदर, (पुं) ॥१६॥ गोरक्ष-नारंगी, गौवोंकी रक्षा करने
( त्रि० ) आरक्ष-रक्षा करने के योग्य, हस्तियोंका कुंभस्थल, (नि० ) ॥ १५ ॥
[ क्षान्तवर्गे -
वाला, (पुं० )
मृगाक्षी - मृग सदृशनेत्रोंवाली, स्त्री, गभेकी बेल, संधिनी, (स्त्री० ) ॥१७
क्षतृतीय ।
अध्यक्ष-अधिकार कियाहुवा, प्रत्यक्ष, रक्ताक्ष - भैंसा, क्रूर - मनुष्य, कबूतर,
चकोर, (पुं० ) समीक्षा-तत्त्व, बुद्धि, ग्रंथभेद, दर्शन ( देखना ); ( स्त्री० ) ॥ १८ ॥
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क्षचतुर्थम् ।। भाषाटीकासमेतः ।
४०५ क्षचतुर्थम् । देववृक्षः सप्तपर्णे मन्दारादिषु गुग्गुले । वीरवृक्षस्तु भल्लातपादपे ककुभद्रुमे ॥ १९ ॥ भूतवृक्षस्तु शाखोटयक्षश्योनाकपादपे । विख्यातो राजवृक्षस्तु सुवर्णालुपियालयोः ॥ २० ॥ विशालाक्षो हरे ताथै विशालाक्षी वरस्त्रियाम् । सकटाक्षो धवद्रौ स्यात्कटाक्षसहिते त्रिषु ॥ २१ ।। अणादितव्यादिगुणादियोगात्पदं बहुव्रीहिमतं च वीक्ष्य । अनुक्तलिङ्गं च समूहनीयं कृतं यदि क्वापि बहुत्वभीतेः ॥२२॥
इति विश्वलोचनेऽपराभिधानायां मुक्तावल्यां क्षकारान्तवर्गः ॥
क्षचतुर्थ । सकटाक्ष-धव-वृक्ष, ( पुं० ) देववृक्ष-सातवण-वृक्ष, मन्दार आदि कटाक्षसहित, (त्रि.)॥ २१ ॥
देववृक्ष, गूगल, (पुं०) श्रीधरसेनजी कहते हैंवीरवक्ष-भिलावा--वृक्ष, कोह-वृक्ष, अणादि-तव्यादि-प्रत्यय औरगुणादिके (पुं० ) ॥ १९ ॥
योगसे बहुव्रीहिके मतको देखकर भूतवृक्ष-सहोरा-वृक्ष, बड-वृक्ष, सो- कहीं मैंने लिंग नहीं कहाहै वह नापाठा वृक्ष, (पुं०)
जानलेना क्यों कि ग्रंथ बहुत बढराजवृक्ष-सुवर्णालु-वृक्ष, चिरोंजी- जाता ॥ २२ ॥ वृक्ष (पुं० ) ॥ २०॥
इस प्रकार विश्वलोचन अपराभिधाना विशालाक्ष-महादेव, गरुड, (पुं०) मुक्तावलीमें क्षकारान्तवर्ग विशालाक्षी-सुंदरनेत्रोंवाली स्त्री,
समाप्त हुवा ।। (स्त्री० ) (त्रि०)
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४०६
विश्वलोचनकोशः- [ अव्ययवर्गे
__ अथाव्ययानि । अकारादिकमप्येवमिदानी समनुक्रमात् । नया नानार्थकाण्डेऽस्मिन्विधीयन्तेऽव्ययानि च ॥१॥ अः श्रीकण्ठेऽव्ययं तुल्याभावयोराः पितामहे । आ प्रगृह्यः स्मृतौ वाक्येऽत्यल्पेऽव्ययमथाऽव्ययम् ॥ २ ॥ आडीपदर्थेऽभिव्याप्ती सीमायां धातुयोगजे । सन्तापे च प्रकोपे च भवेदाः स्मृतमव्ययम् ॥ ३ ॥ इस्तु कामे पुमान्खेदे रुषोक्तौ चाव्ययं भवेत् । ई लक्ष्म्यामव्ययं त्वी स्यादुःखभावनकोपयोः ॥ ४ ॥ उः शिवे नाऽव्ययं तु स्यात्सम्बुद्धौ रोषभाषणे । ऊः स्यादनव्ययं रक्षारक्षसू त्रिषु रक्षके ॥ ५ ॥ सूतिक्रियायां सूतौ च वाक्यारम्भे त्वसङ्ख्यकम् । मदेवमातरि स्त्री स्यादव्ययं वाक्यकुत्तयोः ॥ ६ ॥
....... .. . .---- श्री श्रीधरसेनजी कहते हैं- आः-संताप ( पीडा ), क्रोध, (कोप) अब इस नानार्थकांडमें अनुक्रमसे अका- (अ.) ॥३॥ रादिक अव्यय विधान करताहूँ॥१॥ इ-कामदेव, (पुं०) इ-खेद, क्रोधस अथाऽव्ययानि ।
बोलना, (अ.) अ-वासुदेव या शिव, (पुं० ) तुल्य, ई-लक्ष्मी, (स्त्री०) ई-दुःखहोना, ___ अभाव ( अ.)।
- कोप (क्रोध), (अव्यय) ॥ ४ ॥ आ-ब्रह्मा, (पु.) आ-स्मृति, वाक्य, उ-महादेव, (पुं० ) उ-संबोधन, अतिअल्प (अ.) ॥ २॥
क्रोधसे भाषण, (अ.) आ(छ)-ईषत् ( थोडा) अर्थ, ऊ-रक्षा.........( त्रि०) ॥ ५ ॥
अभिव्याप्ति, सीमा, धातुयोगसे ऋ-देवमाता, ( स्त्री०) ऋ-वाक्य, उत्पन्न अर्थ, ( अ०) . निंदा, (अ०) ॥६॥
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चकारान्तम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
ऋश्व स्त्री देवताम्बायां स्यादेः पुंसि चतुर्भुजे । स्मृतिसम्बोधनाह्वानेऽव्ययमैस्तु शिवे पुमान् ॥ ७ ॥ अव्ययं त्वै समाख्यातं स्मृत्यामन्त्रणाहूतिषु । ओः पुमान्ब्रह्मणि ख्यातेऽव्ययमामन्त्रणायोः ॥ ८ ॥ और्नभस्यव्ययं तु स्यात्सम्बुद्ध्याह्वानयोर्मतम् । परब्रह्मण्यनुमतावः स्यादश्च तथाऽव्ययम् ॥ ९ ॥ अः पुंसि शङ्करे ख्यातः कादिख्यातमतोव्ययम् ।
क०
कु निन्दायामीषदर्थे किल्बिषे वारणेऽपि च ॥ १० ॥
ग०
निर्भर्त्सनेऽपि निन्दायां धिग् मनागल्पमन्दयोः । अङ्ग सम्बोधने हर्षे पुनरर्थेऽपि दृश्यते ॥ ११ ॥
च०
चः पादपूरणे पक्षान्तरे चापि समुच्चये । अन्वाचये समाहारेऽप्यन्योन्यार्थेऽवधारणे ॥ १२ ॥
ऋ - देवमाता, ( स्त्री० )
क०
ए - विष्णु, (पुं० ) ए-स्मृति, संबो- कु - निंदा, ईषत् ( थोडा ) अर्थ, पाप, निवारण करना, ( अ० ) ॥ १० ॥
ग
धिक् झिङकना, निन्दा ( अ० ) मनाक् - अल्प, मंद, ( अ० ) अंग-संबोधन, हर्ष, पुनः का ( बारबार ) अर्थ, (अ० ) ॥ ११ ॥
धन, बुलाना, ( अ० )
ऐ - महादेव, (पुं० ) ॥ ७ ॥ ऐस्मृति, संबोधन, बुलाना, (अ०) ओ-ब्रह्मा, (पुं० ) ओ-संबोधन,
बुलाना ( अ० ) ॥ ८ ॥ औ - श्रावण मास, (पुं० ) संबोधन, बुलाना ( अ० > अ- परब्रह्म, अनुमति, (पुं०अ० ) ॥९॥ अ - महादेव, ( पुं० ) इसके आगे कादि अव्यय कहते हैं ।
४०७
च०
चपादपूरण, पक्षांतर, समुचय, ॥१२॥ अन्वाचय, समाहार, अन्योन्य अर्थ, निश्चय, (अ० )
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४०८
विश्वलोचनकोशः- [अव्ययवर्गेकिञ्चारम्भेऽपिसाकल्ये वस्तुहेतौ विनिश्चये । तिर्यक्तिरोर्थे च कुले विहगादिष्वनव्ययम् ॥ १३ ॥ ननुच प्रश्नदुष्टोक्त्योः प्राक् स्यादिग्देशकालतः। प्रागमातीतपूर्वेषु प्रभाते चाप्यनन्तरे ॥ १४ ॥ सम्यग् वाढे प्रशंसायां हिरुग् मध्यविनार्थयोः ।
नञभावे निषेधे च तद्विरुद्धतदन्ययोः ॥ १५ ॥ सादृश्ये चेषदर्थे च खरूपार्थेऽप्यतिक्रमे ।
सुष्टु प्रशंसनेऽत्यर्थेऽपष्टु शोभानवद्ययोः ॥ १६ ॥
अन्तरेण विनामध्यार्थयोः ख्यातं त्वति स्तुतौ ।
न
.
नितान्ताऽसंप्रतिक्षेपप्रकर्षे लङ्घनेप्यति ॥ १७ ॥ किंच-आरंभ, संपूर्णता, वस्तुहेतु, उससे अन्य ॥ १५ ॥ सादृश्य, निश्चय, (अ०)
1 ईषत् ( थोडा ) अर्थ, खरूपार्थ, तिर्यक-तिरछापना (अ.) कुल, अतिक्रम ( उलंघन ), (अ०)
पक्षी आदि, (त्रि.) ॥ १३ ॥ ननुच-प्रश्न, दुष्ट उक्ति, (अ०) सुष्ठ--प्रशंसा, अत्यर्थ (बहुत), (अ.) प्राक दिक्-देश-कालसे पूर्व, (त्रि.) अपष्ट-शोभा, दोषरहित, (अ.) प्राक्-अगाडी, बदीत हुवा, पूर्व,! ॥ १६ ॥ प्रभात, अनन्तर ( अंतररहित ),
ण (अ० ) ॥ १४ ॥
"" अन्तरेण-विनाअर्थ,मध्यअर्थ, (अ.) सम्यक-दृढ, प्रशंसा, (अ.)
त० . हिरुकू-मध्य, विनार्थ, ( अ०)। अति-स्तुति, निरंतर, अन्यकाल, अ०
। फेंकना, प्रकर्ष, लंधन, (अ०) नञ्-अभाव, निषेध, उससे विरुद्ध, ॥१७॥
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४०९
तकारान्तम् । भाषाटीकासमेतः।
४०९ अतोऽपदेशे निर्देशे पञ्चम्यन्ते च कारणे । अन्ततः शासने पंचम्यर्थे सम्भावनाङ्गयोः ॥ १८ ॥ अस्तु स्यादभ्यनुज्ञानेऽप्यसूयामात्रयोरपि । अहोबत मतं खेदे सम्बुद्धौ चानुकम्पने ।। १९ ॥ अहोबताद्भुतेऽपि स्यादारादरसमीपयोः । इतस्तु पञ्चम्यर्थे स्यादिते नियमभागयोः ॥ २० ॥ इति हेतौ प्रकारे च प्रकाशाद्यनुकर्षयोः । इति प्रकरणेऽपि स्यात्समाप्तौ च निदर्शने ।। २१ ।। उत प्रभे वितर्केर्थेऽप्युतात्यर्थविकल्पयोः । किन्तु स्यात्प्रश्नमात्रेऽपि किन्तु कामवितर्कयोः ॥ २२ ॥ किमुताऽतिशये प्रश्ने विकल्पार्थेऽपि कीर्तितः । कुतः स्यान्निहृते प्रश्ने पञ्चम्यर्थे कुतः स्मृतम् ॥ २३ ॥
अतः-बहाना, निर्देश ( दिखाना), इति-हेतु, प्रकार, प्रकाश, अनुकर्ष,
पंचमी विभक्तिवाला कारण, (अ.) प्रकरण,समाप्ति,निदर्शन (दिखाना) अन्ततः-पंचमी विभक्तिवाली शिक्षा. (अ.) ॥ २१ ॥
संभावना, अंग, ( अ०)॥१८॥! उत-प्रश्न, वितर्क, अतिअर्थ, विकल्प, अस्तु-अभ्यनुज्ञान ( ... ), ईर्षा- (अ० ) मात्र, (अ.)
किन्तु-प्रश्नमात्र, काम इच्छा, (न०) अहोबत-खेद, संबोधन, दया, ॥१९ वितर्क, ( अ० ) ॥ २२ ॥ __ अद्भुत, ( अ०)
किमुत-अतिशय, प्रश्न, विकल्प, आरात्()-दूर, समीप, ( अ०) (अ०) इतः-पंचम्यर्थ, इते-नियम, विभाग, कुतः-गोप्य करना, प्रश्न, पंचमी(अ.) ॥ २० ॥
___ अर्थ, (अ.) ॥ २३ ॥
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विश्वलोचनकोशः- [अव्ययवर्गेते तवार्थे त्वयार्थे च मे च मममयार्थयोः । तु पादपूरणे भेदाऽवधारणसमुच्चये ॥ २४ ॥ पक्षान्तरे नियोगे च प्रशंसायां विनिग्रहे । तत आदौ परिप्रश्ने पञ्चम्यर्थे कथान्तरे ॥ २५ ॥ आनन्तर्येऽपि तावत्तु काल्य मानावधारणे । परिच्छदे तु पश्चात्तु प्रतीच्यां चरमेऽपि च ॥ २६ ॥ पुरस्तात्प्रथमे प्राच्यामग्रतोऽर्थपुरार्थयोः ।। प्रति स्यात्प्रतिदाने च प्रति प्रतिनिधावपि । प्रधाने सम्भवे वीप्सालक्षणादौ प्रयोगतः ।। २७ ।। मात्रार्थे चाभिमुख्ये च प्रकाशे च स्मृतं प्रति । बत खेदे कृपानिन्दासन्तोषाऽऽमन्त्रणाद्भुते ॥ २८ ॥
यतःशब्दस्तु नियमे पञ्चम्यर्थविभागयोः ।। ते-'तव'का अर्थ, और 'मया'का अर्थ, पुरस्तात्-प्रथम, पूर्व दिशा, अग्रतमे-'मम'का अर्थ, और 'मया'का अर्थ, स्का अर्थ (आगाडी), पुराका (अ.)
अर्थ ( पहले ), (अ.) तु-पादपूरण, भेद, निश्चय, समुच्चय | प्रति-प्रतिदान ( वापिसदेना), प्रति( इकट्ठा करना), ॥ २४ ॥ पक्षां- निधि (बदला), प्रधान, संभव, तर (अन्यपक्ष), नियोग (जोड़ना), वीपसा, व्याप्त होनेकी इच्छा,लक्षणा प्रशंसा, पकड़ना, (अ.)
आदि, ( अ०) ॥ २७ ॥ मात्राततः-आदि, बारबार पूछना,पंचमीका अर्थ, आभिमुख्य (संमुख करना),
अर्थ, अन्यकथा, ॥ २५ ॥ आनं- प्रकाश, (अ.) तर्य (अनंतरभाव), ( अ०) बत-खेद, कृपा, निंदा, सन्तोष, तावत्-संपूर्णभाव,मान (परिमाण)का आमंत्रण ( संबोधन ), अद्भुत,
निश्चय, परिच्छद (सामग्री), (अ.) ॥ २८ ॥ पश्चात्-पश्चिमदिशा, अन्तिमसमय, यतः-नियम, पंचमीका अर्थ, विभाग, (अ.)॥ २६ ॥
(अ.)
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थकारान्तम् ]
भाषाटीकासमेतः ।
यद्वत्प्रश्ने वितर्के च यावन्मानेऽवधारणे ॥ २९ ॥ सीम्नि कार्त्स्न्ये परिच्छेदे शश्वत्पुनः सहार्थयोः । स्वित्प्रश्ने च वितर्के च सकृत्सहैकवारयोः ॥ ३० ॥ युक्तार्थे बहुमात्रार्थेप्यधुनार्थेऽपि सम्प्रति । प्रत्यक्षवाचकः साक्षात्साक्षातुल्यार्थवाचकः ॥ ३१ ॥ स्वस्त्याशीः क्षेमपुण्येषु मतं स्वस्ति सुखादिषु । हन्त हर्षेऽनुकम्पायां वाक्यारम्भविषादयोः ॥ ३२ ॥ विवादे शोभनार्थे च हन्तशब्दः प्रयुज्यते ।
थ०
अथाऽथ च शुभे प्रश्न साकल्यारम्भसंशये ॥ ३३ ॥ अनन्तरेऽप्यन्यथात्वपरार्थवितथार्थयोः ।
तथा सादृश्यनिर्देशनिश्चयेषु समुच्चये ॥ ३४ ॥
यद्वत् - प्रश्न, वितर्क, ( अ० 。) यावत् - मान (प्रमाण), निश्चय, ॥२९॥ सीमा, संपूर्णता, परिच्छेद ( इयत्ता), ( अ० )
शश्वत्-पुनः अर्थ, सह अर्थ, (अ० ) स्वित्- प्रश्न, वितर्क, ( अ० ) सकृत् - सहअर्थ, एकबारअर्थ (अ० )
॥ ३० ॥
४११
1
स्वस्ति - आशीर्वाद, क्षेम ( कुशल ) पुण्य, सुखआदि, ( अ० )
हन्त हर्ष, दया, वाक्यका आरंभ विषाद ( दुःख ), ॥ ३२ ॥ विवाद: शोभाअर्थ, ( अन्य ० >
थ०
अथ - अथो-शुभ, प्रश्न, संपूर्णता आरंभ, संदेह ॥ ३३ ॥ अनंतर ( अ० >
सम्प्रति-युक्तअर्थ, अधुनाअर्थ, अन्यथा - अपर अर्थ, वितथ (असत्य अर्थ ) ( अ० ),
(370)
साक्षात् - प्रत्यक्ष, तुल्य, ( अ० ) तथा - सदृशभाव, दिखाना, निश्चय ॥ ३१ ॥ समुच्चय, (अ० ) ॥ ३४ ॥
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विश्वलोचनकोशः- अव्ययवर्गेकारणस्योपपत्तावप्युद्देशप्रतिवाक्ययोः । यथाऽनुमाने सादृश्ये निर्देशोद्देशयोरपि ॥ ३५ ॥ कारणस्योपपत्तौ च वृथा तु विधिवर्जिते । वृथा निष्कारणे वन्ध्ये सर्वथा हेतु वादयोः ॥ २६ ॥ उत्प्राधान्ये प्रकाशे च मोक्षबन्धो कर्मसु । प्राबल्यलाभभावेषु विभागाऽवास्थ्यशक्तिषु ।। ३७ ॥ तत्कारणे तदात्वे च हेतुयद्यर्थयोस्तु यत् ।
न० अनु त्वनुक्रमे हीने पश्चादर्थसहार्थयोः । आयामेऽपि समीपार्थे सादृश्ये लक्षणादिषु ॥ ३८॥ किन्नु प्रश्ने वितर्के च ननु प्रश्नावधारणे । नन्वनुज्ञावितर्कायमन्त्रेष्वनुनये ननु ॥ ३९ ॥ नाना विनार्थेऽपि मतं नानाऽनेकोभयार्थयोः ।
कारणकी उपपत्ति (सिद्धि), उद्देश, यत्-हेतु ( कारण ), यदिका आर्थ, उत्तर, (अ० )
| (अ.) न० यथा-अनुमान, सादृश्य, निर्देश, | अनु-अनुक्रम, हीन, पश्चात्का अर्थ
उद्देश, ॥ ३५॥ कारणकी सिद्धि, (पीछे ), सहका अर्थ, ( सहित ), (अ.)
विस्तार, समीप, सदृशता, लक्षवृथा-विधिसे वर्जित, निष्कारण, गादि, ( अ०)॥ ३८॥ निष्फल, (अ.)
किन्नु-प्रश्न, तर्कना, ( अ० ) सर्वथा-कारण, वाद, (अ.) ॥३६॥ ननु-प्रश्न, निश्चय, आज्ञा, प्रश्न, लाभ उत्-प्राधान्य, प्रकाश, मोक्ष, बन्ध, मंत्र ( सलाह ), नम्रता, (अ.)
ऊध्र्वकर्म, प्रबलता, लाभ, भाव, ॥ ३९ ॥
अस्वस्थता, शक्ति ( अ० ) ॥३७॥ नाना-विनाका अर्थ, अनेक, दोओंका तत्-कारण, तदाका अर्थ, (अ०) अर्थ, ( अ०)
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४१३
पकारान्तम् ।] भाषाटीकासमेतः । निः स्यान्नित्यभृशाश्चर्यविन्यासक्षेपराशिषु ॥ ४० ॥ अन्तर्भावेऽप्यधोभावे दर्शने दानकर्मणि बन्धोपरमसामीप्यमोक्षकौशलसंयमे ॥ ४१ ॥ निवेशेऽप्यथ नु प्रश्नेऽतीतेऽनुनयवार्थयोः । स्थाने तु युक्तसादृश्यकारणार्थेषु दृश्यते ॥ ४२ ॥
प० अप स्यादपकृष्टार्थे वर्जनार्थे विपर्यये ।। वियोगे विकृतौ चौर्ये हर्षनिर्देशयोरपि ॥ ४३ ॥ अपि सम्भावनाशङ्काप्रश्नगर्दासमुच्चये । अपि युक्तपदार्थेषु कामकारक्रियास्वपि ॥ ४४ ॥ उप हीनेऽधिके व्याप्तौ शक्तौ चारम्भपूजयोः । आचार्यकरणे दाने दाक्षिण्ये व्यत्ययेऽपि च ॥ ४५ ॥ तद्योगे दोषकथने मरणार्थोद्यमार्थयोः । समासन्नेऽपि लिप्सायामुपशब्दः प्रकीर्तितः ॥ ४६ ॥
नि-नित्य, अत्यंत आश्चर्य, विन्यास, विकार, चोरी, हर्ष, निर्देश, (अ.)
क्षेप, राशि ॥ ४० ॥ अंतभाव, ॥ ४३ ॥ अधोभाव, दर्शन, दानकर्म, बंधन, अपि-युक्तपदार्थ, कामकार, क्रिया, उपराम, समीपता, मोक्ष, कौशल, (अ० ) ॥ ४४ ॥
संयम, (अ.)॥ ४१॥ उप-हीन, अधिक, व्याप्ति, शक्ति, नु-निवेश, प्रश्न, अतीत (बदीत ), आरंभ, पूजा, आचार्यकरण, नम्रता, 'वा'का अर्थ
दान, चतुराई, व्यत्यय (उलटा), स्थाने-युक्त, सादृश्य, कारण अर्थ, (अ.)॥ ४५ ॥ (अ०)॥ ४२ ॥
तिसका योग, दोषोंका कहना, प०
मरना, उद्यम, समीपता, लब्ध अप-अपकृष्ट, वर्जन,विपर्यय, वियोग, होनेकी इच्छा, (अ०)॥ ४६॥
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४१४
विश्वलोचनकोश:
[अव्ययवर्गे
व० वशब्द उपमायां स्याद्वरुणे वः पुमानयम् । वा स्याद्विकल्पोपमयोरेवार्थेऽपि समुच्चये ॥ ४७ ।। वै पादपूरणे सम्बोधनेऽप्यनुनये ध्रुवे ॥
अभीत्थंभूतकथनेऽप्यतिवीप्साऽभिमुख्ययोः ॥ ४८ ॥ अभीक्ष्णं तु मुहुःशीघ्रप्रकर्षेऽप्यतिसन्तते । स्यादभीक्ष्णं तथा पौनःपुन्यसन्ततयोर्मतम् ॥ ४९ ॥
म० अमा सहाऽन्तिकयोरमावास्याममा स्त्रियाम् । अलं भूषणपर्याप्तिशक्तिवारणनिष्फले ॥ ५० ॥ यत्ने नित्येऽप्यवश्यं स्यादास्मृताववधारणे । इदानीं वाक्यभूषायां सम्प्रत्यर्थे च सम्मतम् ।। ५१ ।। इं दुःखभावने क्रोधे प्रत्यक्षे सन्निधावपि । व०
म० क-उपमा, (अ० ) व-वरुण, (पुं०) अमा-सह अर्थ, समीप अर्थ, अमा. बा-विकल्प, उपमा, एवका अर्थ, अमावास्या तिथि, (स्त्री० )
समुच्चय, (अ.)॥ ४७ ॥ अलम्-आभूषण, पर्याप्ति (सामर्थ्य), वै-पादपूरण, संबोधन, नम्रता, ध्रुव, शक्तिनिवारण, निष्फल, (अ.)
(अ) भ० अभि-इत्थंभूत कथन, अतिवीप्सा अवश्यम्-सबप्रकारसे स्मृति, निश्चय, ( व्याप्तहोनेकी इच्छा ), आभि- (अ.) मुख्य, (अ०) ॥४८॥ इदानीम्-वाक्यभूषण, संप्रति (अब) अभीक्ष्णम्-मुहुसू (बारबार ) अर्थ, का अर्थ, (अ.)॥ ५१॥ - शीघ्र, प्रकर्ष, अतिनिरंतर, बारबार इम्-खोटा खभाव, क्रोध, प्रत्यक्ष, निरंतर, (अ.)॥ ४९ ॥
सन्निधि ( समीपता), (अ.)
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मकारान्तम् । ] भाषाटीकासमेतः ।
४१५ उं प्रश्नेङ्गीकृतौ रोषे ऊं प्रश्ने रोषभाषणे ॥ ५२ ॥ एवं प्रकारोपमयोरङ्गीकारेऽवधारणे । ओं स्यादनुमतौ प्रोक्तं प्रणवे चाप्युपक्रमे ॥ ५३ ।। कं शिरःसुखनीरेषु कथं प्रश्नप्रकारयोः । सम्भ्रमे सम्भवे चाथ कामं त्वनुमतौ मतम् ॥ ५४ ॥ प्रकामानुगमाऽसूयास्वथ किं प्रश्नकुत्सयोः । जोषं तु तूष्णींसुखयोः प्रशंसायां च लङ्घने ॥ ५५ ॥ तदिनं दिनमध्ये स्यात्तदिनं प्रतिवासरे । तूष्णीकां मौनमात्रे स्यात्तूष्णीकं त्रिषु मौनिनि ॥ ५६ ॥ नाम प्राकाश्यसम्भाव्यकुत्साऽभ्युपगमे क्रुधि । नूनं तर्के तु विख्यातं नूनं स्यादर्थनिश्चये ॥ ५७ ॥
उम्-प्रश्न, अंगीकार, क्रोध, ( अ० ) किम्-प्रश्न, निंदा, ( अ० ) ऊम् प्रश्न, क्रोधसे भाषण, (अ.) जोषम-तूष्णी ( मौन ) अर्थ, सुख,
प्रशंसा, लंघन, (अ० ) ॥ ५५ ॥ एवम्-प्रकार, उपमा, अंगीकार, तदिनम-दिनमध्य, प्रतिदिन, (अ०)
निश्चय, (अ०) ओम्-अनुमति, ॐकार, प्रथम, तूष्णीकाम्-मौन-मात्र, (अ.)
प्रारंभ, (अ०) ॥ ५३ ॥ तूष्णीक-मौनधारण करनेवाला, कम्-शिर, सुख, जल, ( अ. न. ) (त्रि.) ॥ ५६ ॥ कथम्-प्रश्न, प्रकाश, संभ्रम, संभव नाम-प्राकाश्य, संभावना, निंदा,
( सम्यक् प्रकारसे होना ), (अ.)। अंगीकार, क्रोध, ( अ०) कामम्-अनुमति, ॥ ५४ ॥ प्रकाम, नूनम्-तर्क, अर्थका निश्चय, (अ.)
अनुगम, निंदा, (अ०) ! ॥५७ ॥
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सामि
विश्वलोचनकोशः- [ अव्ययवर्गेप्राध्वं नर्मेऽनुकूलेऽपि प्रकर्षात्यर्थयोर्भृशम् । शं कल्याणे सुखे चाथ स्माऽतीते पादपूरणे ॥ ५८ ॥ सं सङ्गार्थे शोभनार्थे प्रहृष्टार्थसमार्थयोः । सामि निन्दार्द्धयोर्युक्तेऽप्यधुनार्थेऽपि साम्प्रतम् ।। ५९ ।। हं रुषोक्तावनुनये हुं स्यात्प्रश्नवितर्कयोः । हूं विक्रमे चानुमतौ तजनेऽपि कचिन्मतम् ॥ ६० ॥
य० अये स्मृतौ विषादे स्यादये सम्भ्रमकोपयोः । अयि काकुकुलालापसम्बोधप्रेमभाषिते ॥ ६१ ॥ अयि प्रश्नानुनययोः समयाऽन्तिकमध्ययोः ।
बनुनये
जानेऽपि
अन्तरा तु विनार्थे स्यान्मध्यार्थनिकटार्थयोः ॥ ६२ ॥ प्राध्वम्-नर्म (ठट्ठा), अनुकूल, एम्-पराक्रम, अनुमति ( अ०) कहीं (अ.)
पराक्रम और अनुमतिवाला मनुष्य, भृशम्-प्रकर्ष ( उत्कृष्टता ), अत्यंत, (त्रि०) ॥ ६० ॥ (अ.)
य० शम-कल्याण, सुख, ( अ०) अये-स्मृति, विषाद, संभ्रम, कोप, स्म-बदीत होना, श्लोकके चरणकी, (अ.)
पूर्ति, ( अ०) ॥ ५ ॥ सम्-संग अर्थ, शोभन ( संदर अर्थ । आय-काकु (भाषणभेद ), आलाप
(रागका स्वर), संबोधन, प्रेमसे भाप्रहृष्ट अर्थ, सम अर्थ, ( अ०) ।
षण, ॥६१॥ प्रश्न, नम्रता, (अ.) सामि-निंदा, अर्द्ध, (अ०) साम्प्रतम्-युक्तअर्थ, अधुना (अब)।
समया-समीप, मध्य, (अ०) अर्थ, (अ.) ॥ ५९॥ हम्-क्रोधसे बोलना, नम्रता, (अ.) अन्तरा-विना अर्थ, मध्य अर्थ, स. हुम्-प्रश्न, वितर्क, (अ०) मीप अर्थ, (अ.)॥ ६२ ।।
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लकारान्तम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
अन्तः प्रान्तार्थमध्याथस्वीकारार्थे तु वर्जने । उरर्युरुरीवदूरी विस्तारेऽङ्गीकृतौ त्रयम् ॥ ६३ ॥ दुर्निषेधेऽपि कष्टेsपि गताद्यर्थाऽप्रकर्षयोः । निर्निःशेषे निषेधे च क्रान्ताद्यर्थे च निश्चये ॥ ६४ ॥ परा गतौ वधे प्रातिलोम्यप्राधान्यघर्षणे ।
आभिमुख्ये विमोक्षे च भृशार्थे विक्रमेऽपि च ॥ ६५ ॥ परि स्यात्सर्वतोभावे वीप्सायां लक्षणादिषु । आलिङ्गने निरसने व्यापने व्याधिशोकयोः ॥ ६६ ॥ पूजोपरमभूषासु दोषाख्यानेऽपि वर्जने । पुनर्भिदाऽप्रथमयोः पुरा भाविपुराणयोः ॥ ६७ ॥ प्रबन्धे निकटेऽतीते स्वः स्वर्गपरलोकयोः ।
ल०
किल त्वरुचौ वार्त्तायां सम्भाव्यानुनयार्थयोः ॥ ६८ ॥
अन्तर् - समीप अर्थ, मध्य अर्थ, अंगीकार अर्थ, वर्जन अर्थ ( अ० > उररी १, उरुरी २, ऊरी ३, वि.
स्तार, अंगीकार, ( अ० ) ॥६३॥ दुर्- निषेध, कष्ट, गतआदि अर्थ,
अप्रकर्ष (अ० > निर्-निःशेष, निषेध, कान्तआदि | (उल्लंघन आदि) अर्थ, निश्चय (अ० )
।। ६४ ।।
T
४१७
परि चारों तरफ, दो बार, लक्षण
आदि, मिलना, दूर करना, व्याधि, शोक, ॥ ६६ ॥ पूजा, उपशम ( शांति ), आभूषण, दोषकथन, बर्जना ( अ० o) पुनर्-भेद, दूसरी बार (अ० पुरा - भावि ( होनेवाला ), पुराना, ॥ ६७ ॥ प्रबंध, समीप, बदीतहुवा (अ० )
>)
परा-गमन, वध, प्रातिलोम्य (उलटा | स्वर्-स्वर्ग, परलोक ( अ० )
पन), प्राधान्य, धर्षण ( तिरस्कार),
ल०
संमुख करना, छुटना, अति अर्थ, किल - अरुचि, वार्ता, संभावना अर्थ, पराक्रम ( अ० ० ) ॥ ६५ ॥ नम्रता अर्थ ( अ० ) ॥ ६८ ॥
२७
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विश्वलोचनकोशः- [अव्ययवर्गखलु स्याद्वाक्यभूषायां खलु वीप्सानिषेधयोः । निश्चिते सान्त्वने मौने जिज्ञासादौ खलु स्मृतम् ॥ ६९ ॥
व० अव व्याप्तौ परिभवे वियोगालम्बशुद्धिषु । ईषदर्थेऽपि विज्ञानेप्येवौपम्येऽवधारणे ॥ ७० ॥ वस्तु युष्माकमित्यर्थे वर्तते भेदने तु वि। वि स्यादतीते नानार्थे श्रेष्ठे विस्तु खगे पुमान् ॥ ७१ ॥
ष० उषाऽसङ्ख्यं ससङ्ख्यं च निशान्तनिशयोर्मतम् । दोषा रात्रिमुखे रात्रावत्रानव्ययमप्यसौ ॥ ७२ ॥ निकषा त्वन्तिके मध्ये रक्षोमातर्यनव्ययम् । विभाषा तु स्त्रियां कापि विकल्पार्थे समुच्चये ॥ ७३ ॥
स० अग्रतः प्रथमेऽग्रे स्यादञ्जसा तत्त्वपूर्णयोः ।। खलु-वाक्यभूषण, वीप्सा, (दो या
प० तीन बार कहना), निषेध, निश्चित, उषा-प्रातःकाल, रात्रि ( अ० स्त्री०) सावन, मान, जाननका इच्छा दोषा-सायं(संध्या)काल, रात्रि आदि (अ० ) ॥ ६९ ॥
(अ. स्त्री०) ॥ ७२ ॥ व० अव-व्याप्ति, तिरस्कार, वियोग निकषा-समीप, मध्य (अ० ।
आलम्बन, शुद्धि, ईषत् ( थोड़ा): निकषा-राक्षसोंकी माता ( स्त्री. ) अर्थ, जानना ( अ०) । विभाषा-विकल्प अर्थ, समुच्चय (इएव-सदृशता, निश्चय ( अ० ॥७॥। कहा) करना (अ० स्त्री०)॥७३॥ वस्-'तुम्हारा' यह अर्थ, (अ.) !
स० वि-भेदन, बदीतहुआ, नाना अर्थ, अग्रतस्-प्रथम, अग्र ( अ०)
श्रेष्ठ (अ.) वि-पक्षी (पुं०)॥७१॥ अञ्जसा-तत्त्व, शीघ्रता (अ.)
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हकारान्तम् । भाषाटीकासमेतः ।
अभितोऽन्तिकसाकल्यसम्मुखोभयतो द्रुते ॥ ७४ ॥ तिरोऽन्तौ तिर्यगर्थे निस् निश्चयनिषेधयोः । साकल्यातीतयोश्चाथ नीचैः खैराल्पयोर्मतम् ।। ७५ ॥ पुरोऽग्रे प्रथमे च स्यात्पुरतः प्रथमाग्रयोः । प्रातदिनेऽपि पूर्वेयुः पूर्वार्द्धर्मवासरे ॥ ७६ ॥ पूर्वत्रार्थेऽपि पूर्वेयुभूयस्तु स्यात्पुनःपुनः । अनव्ययं प्रभूतार्थे मिथोन्योन्यं मिथो रहः ॥ ७७ ॥ प्रादुः स्यात्प्रकटीभावे प्रादुः सम्भाव्यमात्रके । शनैः शनैश्चरे ख्यातं खरेऽपि च शनैरिति ॥ ७८ ॥ सु पूजायां भृशार्थाऽनुमतिकृच्छूसमृद्धिषु । तत्कालमात्रे सहसा सहसाऽऽकस्मिकेऽपि च ॥ ७९ ॥
अहा शोके धिगर्थे च विषादकरुणार्थयोः ।
11७८ ।।
अभितल्-समीप, संपूर्णता, संमुख, भूयस् बारबार (अ.) भूयस्.
उभयतस् (दोनों तर्फ), शीघ्र: बहुत (त्रि.) (अ.)॥ ७४ ।।
मिथस्-परस्पर, एकांत (अ.)।७७॥ तिरस्-ढकना, तिरछा ( अ.)
प्रादुस-प्रकटीभाव, संभावनामात्र निस्-निश्चय, निषेध, साकल्य (संपू- शनैस-शनैश्चर, यथेच्छा ( पुं०अ०)
र्णता), बदीतहुवा (अ०) नीचैस्-यथेच्छता, अल्प (अ.) सु-पूजा, अलंत, अनुमति, कृच्छ्
( कष्ट ), समृद्धि (अ० ) पुरस्-अग्र (आगे), प्रथम, ( अ. सहसा-तत्कालमात्र, अकस्मात् होना
(अ०) ॥ ७९ ॥ पुरतस्-प्रथम, अग्र ( अ०)
ह. पुर्वेद्युस्-प्रातःकाल, धर्मदिन ॥७६॥ अहा-शोक, धिअर्थ, विषाद, दया पूर्वअर्थ (अ.)
(अ.)
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विश्वलोचनकोशः- [अव्ययवर्गअहो प्रभे विचारे स्यादहहाद्भुतखेदयोः ॥ ८० ॥ अहह स्यादनुशये परिक्लेशप्रकर्षयोः । आह क्षेपनियोगार्थेऽप्युताहो प्रश्नतर्कयोः ॥ ८१ ॥ सहशब्दस्तु साकल्ययोगपद्यसमृद्धिषु । सादृश्ये विद्यमानेऽपि सम्बन्धेऽपि सह स्मृतम् ॥ ८२ ॥ ह पादपूरणे सम्बोधने हीरे त्वनव्ययम् । हा विषादेऽपि दुःखेऽपि शोके हाहा तु खेदने ॥ ८३ ॥ गन्धर्वेऽनव्ययं हाहा हि विशेषेऽवधारणे । हि पादपूरणे हेतौ ही विस्मयविषादयोः ।। ८४ ॥ ही हः दुःखहेतौ च हीही विस्मयहास्ययोः । हूहू हर्षेऽपि गन्धर्वे गन्धर्वे किन्त्वनव्ययम् ॥ ८५ ॥ हेहे व्यस्तौ समस्तौ च संस्मृत्यामात्रहूतिषु । हो च हो च समस्तौ च सम्बुद्धयाध्यानयोर्मतौ ॥ ८६ ॥
अहो--प्रश्व, विचार ( अ०) हाहा--खेद (अ० ) ॥ ८३॥ हाहाअहह- अद्भुत, खेद, ॥ ८० ॥ बहुत एक गन्धर्व (पुं० ) दिनका बैर या पिछताना, क्लेश, हि-विशेष, निश्चय, पादपूरण, हेतु
प्रकर्ष ( अ० ) आह-आक्षेप, नियोग (...) (अ.)! ही-आश्चर्य, विषाद ॥ ८४ ॥ हर्ष, उताहो-प्रश्न, विचार (अ०) ॥८१॥ दुःखकारण, (अ.) सह सकलभाव, एक बार, समृद्धि, हीही-आश्चर्य, हँसना (अ.) सदृशता. विद्यमान, सम्बन्ध, हर-हर्ष (अ.) गन्धर्व (पुं)॥८५॥
। हे,हे, हेहे-संस्मृति, आमन्त्रण, ह-पादपूर, सम्बोधन ( अ० ) ह- निमंत्रण, बुलाना ( अ०) हीरा ( न०)
हो-हो-होहो--संबोधन,स्मृति (अ.) हा विषाद. दुःख, शोक (अ.) ॥ ८६ ॥
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क्षकारान्तम् ।
भाषाटीकासमेतः ।
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मङ्ग शीघ्र भृशार्थेऽपि मन तत्त्वेऽपि कुत्रचित् ॥ ८७ ॥ इति विश्वलोचनेऽपराभिधानायां मुक्तावल्यामव्ययानेकार्थवर्गः ॥
इति श्रीपण्डितश्रीश्रीधरसेनविरचिते विश्वलोचनेऽपराभिधानायां मुक्तावल्यां नानार्थकाण्डः समाप्तः ॥ श्री ॥ श्री ॥ विक्रम संवत १९६९. ।
मक्षु-शीघ्र, अत्यर्थ, तत्त्व ( अ०)
इस प्रकार विश्वलोचन अपराभिधानमुक्तावलीमें अव्ययअनेकार्थवर्ग
समाप्त हुवा ॥
इति श्री पण्डित श्री श्रीधरसेन विरचित विश्वलोचनकोश
अपर नाम मुक्तावलीमें नानार्थकाण्ड समाप्त ।
॥ समाप्तोऽयं ग्रन्थः ॥
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