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विश्वलोचनकोश:
कार्याक्षमे प्रभोर्भावदर्शिन्यपि तु वाच्यवत् । त्रिषु लेखीलको लेखहारे यश्च विलेखयेत् ॥ २१९ ॥ स्वहस्त परहस्तेन लेखे लेखीलकः स च ।
वितुन्नकं तु धान्याके मतं झाटामलेऽपि च ॥ २२० ॥ विदूषकचावटौ परनिन्दाविधायिनि । विनायको जिने बुद्धे तार्क्ष्य हेरम्बविघ्नयोः ॥ २२१ ॥ गुरौ विमानकं तु स्यान्माने शून्येऽभिधेयवत् । विमानकं देवयाने सप्तभूमगृहे स्त्रियाम् ॥ २२२ ॥ विशेषकोsस्त्री तिलके विशेषावाहके द्रुमे । वैतालिको बोधकt खेट्टताले च कीर्तितः ॥ २२३ ॥ वैदेहको वाणिजके शूद्राद्वेश्यासुतेऽपि च । वैनाशिकस्तु क्षणिके परतन्त्रोर्णनाभयोः ॥ २२४ ॥
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[ कान्तवर्गे
कार्य करनेमें असमर्थ, (पुं० ) | विमानक- देवयान ( विमान ), सात स्वामीका भाव जाननेवाला (त्रि०) मंजलका मकान, (पुं० न० )
लेखीलक-लेखको
पहुँचानेवाला,
॥ २२२ ॥
भुँई आँवला
(त्रि ० ) अपने तथा दूसरेके हाथसे | विशेषक- तिलक, ( पुं० न० ) वि. लिखाहुवा लेखपर लिखनेवाला शेषता करनेवाला, ( तिलक वृक्ष (पुं० ) ॥ २१९ ॥ ( पुं० ) वितुनक- धनियां, वैतालिक-बोध करानेवाला, क्रीडाकरके तालदेना ( पुं० ) ॥ २२३ ॥ वैदेहक - वाणिजक (बनजी करनेवाला) शूद्रसे उत्पन्न हुवा वेश्यापुत्र ( पुं० ) वैनाशिक- क्षण में उत्पन्न और नष्ट होनेवाला, पराधीन, मकड़ी - जन्तु, ( पुं० ) २२४ ॥
( न० ) ॥ २२० ॥ विदूषक - मीठा बोलनेवाला लडका, दूसरोंकी निंदा करनेवाला - मनुष्य, ( पुं० )
विनायक - जिन- भगवान्, बुद्ध-भगवान्, गरुड, गणेश, विघ्न, गुरु ( पुं० ) ॥ २२१ ॥
"Aho Shrutgyanam"