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विश्वलोचनकोशः- [ ढान्तवर्गेमूढस्तु तन्द्रिते मूर्खे राढा स्याद्गुह्यशोभयोः । वाढं भृशे प्रतिज्ञायां वोढा भारिकसूतयोः ॥ ४ ॥ व्यूढः पृथुलविन्यस्तसंहतेषु हते त्रिषु । षण्ढो वृषे वर्षवरे क्लीबे स्याद्वन्ध्यपूरुषे ।। ५ ॥ वाच्यवन्मर्षणे सोढा सोढा शक्तेऽपि वाच्यवत् ।
___ढतृतीयम् । अध्यूढ ईश्वरेऽध्यूढा कृतसापल्ययोषिति ॥ ६ ॥ आषाढो तिनां दण्डे मासेऽपि मलयाचले । उदूढ ऊढे स्थूले स्यादुपोढो निकटोढयोः ॥ ७ ॥ प्रगाढस्तु दृढे कृच्छ्रे प्रमीढो मूत्रिते घने । प्ररूढो जाठरे बद्धमूले स्यादभिधेययोः ॥ ८॥
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मूढ-तंद्रावाला, मूर्ख (पुं० ) अध्यूढा-जिसके कई विवाह हुए हों राढा-गुप्त, शोभा, (स्त्री०)
उसकी पहली स्त्री, (स्त्री०) ॥६॥ वाढ-अत्यन्त, प्रतिज्ञा, ( न०) आषाढ-व्रतियोंका दंड, आषाढबोहा-भारले जानेवाला, सारथि, मास, मलयाचल-पर्वत, (पुं० ) (पुं० ) ॥ ४ ॥
| उदृढ-विवाहाहुवा, स्थूल ( मोटा ) व्यूढ-मोटा, स्थापन कियाहुवा, इकट्टा (पु० ) . कियाहुवा, नाशहुवा, ( त्रि०) उपोढ-समीप होनेवाला, विवाहा घंढ-सांडबैल, हिजडा, (पुं०) संतान- हुवा, (पुं० ) ॥ ७ ॥
रहित पुरुष (पुं० ) ॥ ५ ॥ प्रगाढ--दृढ, कष्ट, (पुं०) सोढा-सहनेवाला-पुरुष,समर्थ,(त्रि०) प्रमीढ-पेशाब करना, मेघ (पुं० )
ढतृतीय। | प्ररूढ--पेट, जिसकी जड दृढ है वह, अध्यूढ-ईश्वर या समर्थ, (पुं०) । नाम (पुं० ) ॥ ८ ॥
"Aho Shrutgyanam"