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[ हान्तवर्गे
विश्वलोचनकोशःअथ हान्तवर्गः।
सरोषवारणे हीरे हः स्यादीशात्मजे तु हिः ।
हद्वितीयम् । अहिर्वृत्राऽसुरे सप्पै स्यादीहा तूद्यमेच्छयोः ॥ १॥ नष्टेन्दुकलादर्शेपि पिकालापे स्त्रियां कुहूः। गहरे सिंहपुष्प्यां च गुहा स्कन्दे गुहः पुमान् ॥ २॥ गृहाः पुंसि गृहे पल्यां ग्राहो जलचरे पुमान् । ग्रहः सूर्यादिनिर्बन्धोपरागेषु रणोद्यमे ॥ ३ ॥ ग्रहणे पूतनादौ च सैंहिकेयेऽप्यनुग्रहे । नाहस्तु बन्धने कूटेऽप्युपाद्वैरानुबन्धने ॥ ४ ॥ प्राहो निपुणतर्केऽपि प्रौहो हस्त्यांघ्रिपर्वणोः । बहुः स्यात्र्यादिसंख्यासु वहुः स्याद्विपुलेऽन्यवत् ॥ ५ ॥ अथ हान्तवर्ग । गृह-घर, स्त्री (पुं० बहु०) हैक ।
ग्राह-ग्रहण करना, जलचर (ग्राहआह-क्रोधवालेका निवारण करना, हीरा
___दि ) (पुं० ) (पुं०)
ग्रह-सूर्यआदि ग्रह, हठ, सूर्यचंद्रका हि-शिवपुत्र (पुं०)
ग्रहण, रणका उद्यम ॥ ३ ॥ ग्रहण
करना, पूतना आदि बालग्रह, राहु, हद्वितीय ।
अनुग्रह (पुं०) अहि-त्राऽसुर, सर्प, (पुं० )
नाह-बंधन, लोहा कूटनेका घन(पुं०) इहा-उद्यम, वांछा ( स्त्री०)॥१॥ उपनाह-वैर, अनुबंधन, ( बीणाके कुहू-नष्ट इंदुकलावाली अमावास्या, तार बांधने की खूटी ) (पुं० ) ४
कोयलका शब्द ( स्त्री० )ौह-निपुण, तर्क, हस्तीका चरण, गुहा-पर्वतकी गुफा, पिठवन या म- पर्व ( पोरी) (पु.) - पवन औषधि, (स्त्री)
बहु-तीन आदि संख्या, बहुत (त्रि.) गुह-खामिकार्तिक (पुं० ) ॥२॥ ॥५॥
"Aho Shrutgyanam"