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रचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः। हिण्डीरस्तु पुमान्फेने तथा वातिङ्गने नरि ।
रचतुर्थम् । अकूपारः स्रवन्तीनां नाथे कर्मठनायके ।। २४२॥ अग्निहोत्रो मतो वह्नौ वह्निहोत्रे हविष्यपि । अनुत्तरं त्रिषु श्रेष्ठे प्रतिवाक्यविवर्जिते ॥ २४३ ॥ उपर्युदीच्यश्रेष्ठानां विपर्यासे त्वनुत्तरः। वधे युद्धेऽप्यभिमरः खबलादपि साध्वसे ॥ २४४ ॥ अभिहारोऽभियोगे स्याच्चौर्ये सन्नहनेऽपि च । अरुष्करस्तु भल्लाते व्रणकारिणि वाच्यवत् ॥ २४५ ॥ अर्द्धचन्द्रस्तु खण्डेन्दौ गलहस्ते शरान्तरे । चन्द्रकेऽप्यर्द्धचन्द्रः स्यादर्द्धचन्द्रा त्रिवृद्भिदि ॥ २४६ ॥ अलङ्कारस्तु भूषायामुपमादिगुणेषु च ।
भवेदवसरः पुंसि मतः प्रस्ताववर्षयोः ।। २४७॥ हिंडीर-समुद्रझाग, बैंगन, (पुं०) [ कवच धारण करना (पुं०) रचतुर्थ।
| अरुष्कर-भिलावा ( पुं० ) व्रण अकूपार-समुद्र, कर्मठोंका अधिपति (घाव ) करनेवाला ( त्रि. ) (पुं०) ॥ २४२ ॥
॥२४५॥ अग्निहोत्र-अमि, अग्निहोत्र, हवि अर्द्धचंद्र-आधाबिंबवाला चंद्रमा, ग
(होमकरनेका द्रव्य ) (पुं०) लहस्त (तर्जनी अंगूठा फैलाया हुवा अनुत्तर-श्रेष्ठ ( त्रि.) उत्तर नहीं हाथसे प्रीवाके धक्का देकर निकादेना (न.)॥ २४३ ॥
लना),बाणभेद, मोरकी पंख, (पुं०) अनुत्तर-नहीं ऊपर ( आगे ), नहीं अर्धचंद्रा-निसोतभेद ( स्त्री० )
उदीची (उत्तर), नहीं अश्रेष्ठ (त्रि.) ॥ २४६ ॥ अभिमर-वध, युद्ध, अपनीसेनासे अलंकार-आभूषण, उपमाआदि भय (पुं०) ॥ २४४ ॥
गुण (पुं.) अभिहार-लडाईमें पुकारना, चोरी, अवसर-प्रस्ताव, वर्षा, (पुं० )२४७
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