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विश्वलोचनकोशः- [तान्तवर्गेनिरस्तः प्रेषितशरे संत्यक्ते त्वरितोदिते । निष्ठचूतेऽपि प्रतिहते निम्मितस्त्वनुपद्रुते ॥ १२२ ॥ दिक्पाल कालपर्णी तु पुस्त्रियोः स्यादनुक्रमात् । निर्वृत्तिः सुस्थितासौख्यनिर्वाणाऽस्तङ्गमाध्वसु ॥ १२३ ॥ निर्मुक्तस्त्यक्तसङ्गे स्यात् त्यक्तकञ्चकपन्नगे। निर्वातो वातविगते व्याश्रये दृढवर्मणि ॥ १२४ ॥ निशान्तस्त्रिषु शान्ते स्यान्निशान्तो भवनोषसोः । पञ्चता मृत्युमात्रेऽपि पञ्चभावेऽपि पञ्चता ॥ १२५ ॥ पण्डितः सिलके धीरे पतत्पातुकपक्षिणोः । पद्धतिः पथि पतौ च परतो वाच्यवन्मृते ॥ १२६ ॥ भूतभेदेऽप्यथ गिरौ सुरवपि पर्वतः। पर्याप्तं वारणतुष्टियथेष्टेष्वाप्तशक्तयोः ।। १२७ ॥
निरस्त-फेंकाहुवा बाण, त्यागाहुवा, निशान्त-शान्त, (त्रि. )निशान्त
शीघ्रकहाहुवा, थूकाहुवा, मारा- घर, प्रभात-काल (पुं० ) हुवा, (पुं० )
पंचता-मत्यु, पाँचोंका भाव (पंचनिर्मित-उपद्रवरहित, (पुं०)॥१२२॥ पना) (स्त्री०)॥ १२५ ॥ ___ दिक्पाल, (पुं०) तगर-वृक्ष, (स्त्री०) पंडित-हींग, विद्वान् , (पुं०) निर्वति-सुस्थिता, सौख्य, मृत्यु होना, पद्धति-मार्ग, पंक्ति, (स्त्री.)
पतत्-पडनेवाला, पक्षी, (त्रि.) अस्त होना, मार्ग, (स्त्री०) ॥१२३॥ " मा
११३ परेत-मृतक ॥ १२६ ॥ भूतभेद, निर्मक्त-त्यागा है संग जिसने वह, (पुं०)
कँचुलीसे मुक्तहुवा सर्प (पुं० ) पर्वत-पहाड़, एक सुरर्षि, (पुं०) निर्वात-वायुरहित होना, आश्रय, पर्याप्त-मनह करना, तुष्टि, यथेष्ट
दृढ कवच (पुं०) ॥ १२४ ॥ (न०)मान्य, समर्थ, (पुं०)॥१२७॥
"Aho Shrutgyanam"