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२३८ विश्वलोचनकोशः- [भान्तवर्ग
रम्भा कदल्यप्सरसो रम्भो वैणवदण्डके। परिपूर्वस्तु संश्लेषे विभुर्नित्ये शिवे प्रभौ ॥ ८ ॥ शुम्भः स्याद्ब्रह्मशिवयोरर्हत्यपि च केशवे । योगे शुभः शुभं क्षेमे शोभा कान्तीच्छयोर्मता ॥९॥ सभा सामाजिके गोष्ठयां धूनमन्दिरयोः सभा । स्तम्भो जडत्वे स्थूणाया स्वभूर्गोविन्दवेधसोः ॥ १० ॥
भतृतीयम् । पापेऽप्यरिष्टेऽप्यशुभमात्मभूः स्मरवेधसोः ।
आरम्भ उद्यमे दप्पे त्वरायां च वधेऽपि च ॥ ११ ॥ ऋषभः श्रेष्ठवृषयोरष्टवर्गौषधान्तरे ।
खराद्रिभेदे वराहपुच्छे रन्ध्रे च कर्णयोः ॥ १२॥ रम्भा केला, अप्सरा, (स्त्री०) स्तंभ-जडता, स्थूणा (थून ) (पुं०) रम्भ-बांसका दंड, परिरम्भ- स्वभू-विष्णु, ब्रह्मा, (पुं० )॥ १०॥ ___अच्छीतरह मिलना, (पुं०) विभु-नित्य, शिव, प्रभु, ( पुं० ) ८
भतृतीय ।
मा शुम्भ-ब्रह्मा, शिव, अहंत देव, अशुभ-पाप, खेद, (न.)
केशव (विष्णु) (पुं०) आत्मभू-कामदेव, ब्रह्मा, (पुं० ) शुभ-योग, (पुं० ) क्षेम (कुशल) आरम्भ-उद्यम, अभिमान, शीघ्रता, (न०)
___वध, ( मारना ) (पुं०) ॥११॥ शोभा-कान्ति, इच्छा, ( स्त्री० ) ९ ऋषभ-श्रेष्ठ, बैंल, अष्टवर्गकी एक सभा-सामाजिक (सहधर्मियोंकी औषधि, एक गानेका खर, एक
सभा), गोष्ठी, जूवा, मंदिर, पर्वत, सूकरकी पूँछ, कानका (स्त्री.)
छिद्र (पुं० ) ॥ १२ ॥
"Aho Shrutgyanam"