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ठचतुर्थम् ।] भाषाटीकासमेतः ।
श्रीकण्ठः पार्वतीनाथे कुरुजाङ्गलकेऽपि च । भवेदार्येऽपि साधिष्ठः साधिष्ठोऽपि दृढेऽपि च ॥ १७ ॥
ठचतुर्थम् । कलकण्ठः पिके पारावते हंसे कलध्वनौ । कण्ठे मृगान्तरे कालपृष्ठः क्लीबं तु कार्मुके ।। १८ ॥ कर्णबाणेऽप्यथो दन्तशठो जम्भकपित्थयोः । कर्मरङ्गेऽपि नारङ्गे रुक्कियायां स्त्रियामियम् ॥ १९ ॥ नीलकण्ठस्तु दात्यूहे खञ्जने प्रबलाकिनि । कलविंके हरे पीतसारके कालकण्ठवत् ॥ २० ॥ पूतिकाष्ठं तु सरले देवदारुमहीरुहे । सूत्रकण्ठः कपोते स्यात्खञ्जरीटे द्विजन्मनि ॥ २१ ॥ हारिकण्ठः परभृते हारान्वितगले त्रिषु ॥ २२ ॥
___इति विश्वलोचने ठान्तवर्गः ॥
श्रीकंठ-महादेव,कुरुजांगलदेश, (पुं०)। जन-पक्षी, मयूर-पक्षी, चिडीसाधिष्ठ-अतिश्रेष्ठ, अतिदृढ, (पुं०) पक्षी, महादेव, टेरा-वृक्ष, (पुं० ) ॥ १७॥
॥ २० ॥ ठचतुर्थ।
पूतिकाष्ठ-सरल-वृक्ष, देवदारु-वृक्ष, कलकंठ-कोयल-पक्षी, कबूतर, हंस, (न. ) सूक्ष्मशब्द, कंट, मृगभेद, (पुं० )
सूत्रकण्ठ-कबूतर-पक्षी, खंजन-पक्षी, कालपृष्ठ-धनुष, कर्णका बाण,(पुं०) ब्राह्मण आदि, (पुं० ) ॥ २१ ॥ ॥१८॥
हारिकंठ-कोयल-पक्षी, (पुं० ) हादंतशठ-चांगेरी-औषधि, जंबीरी हारक नींबू, कैथ-वृक्ष, कमरख, नारंगी,
रधारीगलवाला, (त्रि.) ॥ २२ ॥ (पुं० )
इस प्रकार विश्वलोचनकी भाषाटी. दंतशठ-रोगकी क्रिया,(स्त्री०)॥१९॥
| कामें ठान्तवर्ग समाप्त हुवा ॥ नीलकंठ-कालकंठ-जलकाक, खं..
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