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विश्वलोचनकोश:
देशेऽष्ठा तु चाङ्गेय पाठयूथिकयोरपि । कनिष्ठोऽल्पेऽनुजे यूनि कनिष्ठा त्वन्तिमाङ्गुलौ ॥ ११ ॥ कमठः कच्छपे पुंसि कमठं भाजनान्तरे । जरठः कठिने पाण्डौ कर्कशेप्यभिधेयवत् ॥ १२ ॥ नर्मधुके पुंसि नर्मठो नागरेऽन्यवत् । प्रकोष्ठो विस्तृतकरे कूर्परादधरेऽपि च ॥ १३ ॥ नृपकक्षान्तरे चाथ प्रतिष्ठा गौरवे मता । या (यो ) गनिष्पादने स्थानचतुरक्षरपद्ययोः ॥ १४ ॥ वरिष्ठः प्रवरे चोरुतरे स्यादभिधेयवत् । वरिष्ठं मरिचे ताम्रे वरिष्ठः पुंसि तित्तिरौ ॥ १५॥ मकुष्ठो मन्थरेऽपि स्याद् व्रीहिभित्सवयोरपि । लघिष्ठो भेलकेऽत्यल्पे वैकुण्ठो विष्णुशक्रयोः ॥ १६ ॥
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अम्बष्ठा-अम्ललोनियां औषधि, पाढ,
जूही- पुष्पझाड़, (स्त्री० ) कनिष्ठ - अल्प, छोटा भ्राता, जवान,
पिछली अंगुली,
(पुं०) कनिष्ठा दुबला, ( स्त्री० ) ॥ ११ ॥ कमठ - कछुवा, (पु० ) पात्र विशेष,
( न० ) जरठ-कठोर, पाण्डु ( पीला ), कर्कश ( दुःस्पर्श ) ( त्रि० )
॥ १२ ॥
नर्मठ - कुचका अग्रभाग, धूर्त (पुं० ) प्रकोष्ठ - फैलायाहुवा हाथ, कोंहनीसे
[ ठान्तवर्गे
नीचेका भाग, राजाकी ड्योढी, (पुं०) ॥ १३ ॥ प्रतिष्ठा - बडप्पन, योग या यज्ञकी सिद्धि, स्थान, चार अक्षरका छंद, ( स्त्री० ) ॥ १४ ॥ वरिष्ठ-श्रेष्ठ, बहुत जियादह, (त्रि०) मिरच, ताँबा, (न० ) तीतर - पक्षी, (पुं० ) ॥ १५ ॥ मकुष्ठ - मंद चलनेवाला, मोठ-धान्य, यज्ञभेद, (पुं०)
लघिष्ठ - नदी तरनेकी छोटी नौका, बहुत छोटा, (पुं० ) वैकुंठ - विष्णु, इंद्र (पुं० ) ॥ १६ ॥
" Aho Shrutgyanam"