________________
विश्वलोचनकोशः- [कान्तवर्गेकुषाकु मर्कटे भानौ बृहद्भानौ पुमांस्त्रिषु । परोत्तापिन्यपि मतं कूर्चिका सूचिकान्तरे ॥ ६१ ।। तूलिका क्षीरविकृतिकुञ्चिकाकुङ्मलेषु च । कूपको गुणवृक्षे स्यात्तैलपात्रे कुकुन्दरे ॥ १२ ॥ कूपे जलस्थग्रावादौ स्याच्च तुर्यां तु कूपिका । कूलकः पुंसि वल्मीके स्तूपेऽस्त्री कूलकं तटे ।। ६३ ॥ कृषकः कर्षके पुंसि फालेऽपि कृषके पुमान् । पारदारकरक्तेऽपि निःखेऽपि त्रिषु कञ्चकः ॥ ६४ ॥ कोरकः कुङमले न स्त्री ककोलकमृणालयोः । कोशाङ्कस्तु करीरे स्यादिक्षौ कीटान्तरेऽपि च ।। ६५ ।। कौतुकं त्वभिलाषेऽपि कुसुमे नमहर्षयोः । परम्परासमायाते मङ्गले चातिशायिनि ॥ ६६ ॥
कुषाकु-बन्दर, सूर्य, अग्नि, (पुं०) (पुं० न०) नदीआदिका तट दूसरोंको कष्टदेनेवाला (त्रि.)। (न० ) ॥ ६३ ॥
_ | कृषक-खेंचनेवाला पुरुष, खेतीकरकृर्चिका-सूईभेद ॥ ६१ ॥ चित्र
नेवाला, हलकी फाल, परस्त्रीमें खेंचनेकी कलम,दुग्धविकार(मलाई),
आसक्त (पुं०) चाबी, कुड्मल (फूलकली)( स्त्री.
कञ्चक-द्रव्यरहित (त्रि.) ॥६४॥ कृपक-नावका खंभा, तेलका पात्र कोरक-बिनाखिली फूलकी कली, ( पा), नितंबों (चूतड़ों ) में कंकोलवृक्ष, कमल (पुं० न० ) पड़ाहुवा खड्डा, कूवाँ, जलमें स्थित कोशाङ्क-कैरका वृक्ष, ईख,कीटविशेष, पत्थरआदि, (पुं०)
(पुं ) ॥ ६५ ॥ कपिका-कपड़ा बुननेका औजार कौतुक-अभिलाषा,पुष्प,ठहाके वचन, (स्त्रो० ) ॥ ६२॥
आनंद, परंपरासे प्राप्तहुवा मंगल, कूलक-बँधी (पुं० ) मिट्टीका समूह, अतिशय ॥ ६६ ॥
"Aho Shrutgyanam"