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विश्वलोचनकोशः- [कान्तवर्गेअथ कान्तवर्गः।
कैकम् । को ब्रह्मानिलसूर्याग्नियमात्मद्योतबर्हिषु । के सुखे वारि शीर्षे च कुः शब्दे ना भुवि स्त्रियाम् ॥ ३ ॥
कद्वितीयम् । अकं दुःखाघयोरङ्को रेखायां चिह्नलक्ष्मणोः । नाटकादिपरिच्छेदोत्सङ्गयोरपि रूपके ॥ ४ ॥ चित्रयुद्धेऽन्तिके मन्तौ स्थानभूषणयोरपि । अर्कः सूर्येऽर्कपर्णेऽपि शके स्फटिकताम्रयोः ॥ ५॥ एकस्तु स्यात्रिषु श्रेष्ठे केवलेतरयोरपि । कंकः खगे लोहपृष्ठे कृतान्ते कपटद्विजे ॥ ६ ॥
परिभाषार्थ । इस प्रन्थमें खर वर्ण और ककार आदि वर्णके क्रमसे आदि (शब्दोंकी आदि) निर्णय की गई है और अंत भी ककार आदिसे निर्णय कियागया है जैसे कि-"को ब्रह्माऽनिलसूर्याऽग्नि-" और दूसरे वर्ण विषै भी काकार आदिके क्रमका नियम कियागया है जैसे कि-"अकं दुःखाऽधयोरको रेखायां चिह्नलक्ष्मणोः"॥२॥ कैक।
.! आदि ग्रंथका विश्रामस्थल, गोद, क-ब्रह्मा, वायु, सूर्य, अग्नि, धर्मराज, रूपक, सङ्ख्या, चित्रयुद्ध, समीप,
आत्मा, प्रकाश, मयूरपक्षी (पुंलिंग) अपराध, स्थान, भूषण, (पुं० ) क-सुख, जल, मस्तक, (नपुंसक) अर्क-सूर्य, आकका पत्ता, इंद्र, स्फटिकु-शब्द, ( पुं० ) कु-पृथ्वी, कमणि, तांबा, (पुं० ) ॥ ५ ॥ (स्त्रीलिंग) ॥३॥
एक-श्रेष्ठ, केवल ( अद्वितीय ), कद्वितीय।
इतर ( दूसरा), (त्रिलिंगी) अक-दुःख, पाय, (न०)॥४॥ कंक-काकविशेष, धर्मराज, कपटअंक-रेखा, चिह्न, लक्षण, नाटक [. से बना हुआ ब्राह्मण, (पुं०)॥६॥
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