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विश्वलोचनकोश:- [धान्तवर्गेन्यग्रोधस्तु वटे शम्यां न्यग्रोधो व्याममात्रके । न्यग्रोधी विषपयो च मोहनाख्यौषधावपि ॥ ३५ ॥ परिधिर्यज्ञियतरोः शाखायामुपसूर्यके । प्रणिधिर्याच्आचरयोः प्रसिद्धः ख्यातभूषिते ॥ ३६॥ मागधो मगधोद्भूते क्षत्रियावैश्यजे त्रिषु । बन्दिजीरकयोः पुंसि कणायूथ्योस्तु मागधी ॥ ३७॥ पर्याहाराध्वभारेषु पण्ये विवधवीवधौ। विबुधः पण्डिते देवे विश्रब्धं तु भृशार्थकम् ॥ ३८ ॥ विश्रब्धः स्यात्तु विश्वस्ताऽनुद्भटेषु त्रिषु त्रिषु । लतायां विटपे वीरुत्सन्नद्धो व्यूढवमिते ॥ ३९ ॥ सन्निधिः सन्निधाने स्त्री पुमानिन्द्रियगोचरे ।
समाधिाननीवाकनियमेषु समर्थने ॥ ४०॥ न्यग्रोध-बड़-वृक्ष, शमी ( जाँट )| विवध-वीवध-पूर्तआहार, मार्ग,
वृक्ष, तिरछी फैलाई हुई दोनों भु- भार, दूकान, (पुं०) जाओंका प्रमाण (पुरस) (पुं०) विबुध-पंडित, देवता, (पुं०) न्यग्रोधी-विषपर्णी-औषधि, मोहन- विश्रब्ध-अतिशय, (अत्यंत) (न०)
नाम औषधि, (स्त्री.)॥ ३५॥ ॥३८॥ परिधि-यज्ञयोग्यवृक्षकी शाखा, सू. विश्रब्ध-विश्वासपात्र, अनुद्भट (नम्र) __ र्यके चारों ओर गोलचक्र (पुं०) (त्रि.) प्रणिधि-याचना, चर, (पुं०) वीरुत् (ध)-बेल, वृक्षशाखा (स्त्री०) प्रसिद्ध-विख्यात, भूषित (त्रि०) सन्नद्ध-रक्खाहुवा या इकट्ठा किया
। हुवा, कवचधारी, (पुं०) ॥ ३९ ॥ मागध-मगधदेशमें होनेवाला, क्षत्रि-सन्निधि-समीप, (स्त्री.) इंद्रियोंका
या और वैश्यसे उत्पन्नहुवा, (त्रि.) विषय (पुं० ) मागध-बन्दीजन, जीरा, (पुं०) समाधि-ध्यान, धनधान्यसे मनुष्यका मागधी-पीपल, जूही-पुष्पपेड, अतिशय आदर, नियम, समर्थन, (स्त्री०)॥३७॥
(पुं०)॥ ४० ॥
"Aho Shrutgyanam"