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________________ क्षचतुर्थम् ।। भाषाटीकासमेतः । ४०५ क्षचतुर्थम् । देववृक्षः सप्तपर्णे मन्दारादिषु गुग्गुले । वीरवृक्षस्तु भल्लातपादपे ककुभद्रुमे ॥ १९ ॥ भूतवृक्षस्तु शाखोटयक्षश्योनाकपादपे । विख्यातो राजवृक्षस्तु सुवर्णालुपियालयोः ॥ २० ॥ विशालाक्षो हरे ताथै विशालाक्षी वरस्त्रियाम् । सकटाक्षो धवद्रौ स्यात्कटाक्षसहिते त्रिषु ॥ २१ ।। अणादितव्यादिगुणादियोगात्पदं बहुव्रीहिमतं च वीक्ष्य । अनुक्तलिङ्गं च समूहनीयं कृतं यदि क्वापि बहुत्वभीतेः ॥२२॥ इति विश्वलोचनेऽपराभिधानायां मुक्तावल्यां क्षकारान्तवर्गः ॥ क्षचतुर्थ । सकटाक्ष-धव-वृक्ष, ( पुं० ) देववृक्ष-सातवण-वृक्ष, मन्दार आदि कटाक्षसहित, (त्रि.)॥ २१ ॥ देववृक्ष, गूगल, (पुं०) श्रीधरसेनजी कहते हैंवीरवक्ष-भिलावा--वृक्ष, कोह-वृक्ष, अणादि-तव्यादि-प्रत्यय औरगुणादिके (पुं० ) ॥ १९ ॥ योगसे बहुव्रीहिके मतको देखकर भूतवृक्ष-सहोरा-वृक्ष, बड-वृक्ष, सो- कहीं मैंने लिंग नहीं कहाहै वह नापाठा वृक्ष, (पुं०) जानलेना क्यों कि ग्रंथ बहुत बढराजवृक्ष-सुवर्णालु-वृक्ष, चिरोंजी- जाता ॥ २२ ॥ वृक्ष (पुं० ) ॥ २०॥ इस प्रकार विश्वलोचन अपराभिधाना विशालाक्ष-महादेव, गरुड, (पुं०) मुक्तावलीमें क्षकारान्तवर्ग विशालाक्षी-सुंदरनेत्रोंवाली स्त्री, समाप्त हुवा ।। (स्त्री० ) (त्रि०) "Aho Shrutgyanam"
SR No.009534
Book TitleVishwalochana Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Sharma
PublisherBalkrishna Ramchandra Gahenakr
Publication Year1912
Total Pages436
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Dictionary
File Size9 MB
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