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प्रकाशित नहीं हुआ और तबसे अब तक इस विषय में कहीं से कोई प्रयत्न हुआ सुनाई नहीं पड़ा । हमारी समझमें संस्कृत साहित्यको सुपुष्ट सुस्पष्ट और विभवशाली बनानेके लिये कोशग्रन्थोंके प्रकाशित होनेकी बहुत बड़ी आवश्यकता है, इसलिये संस्कृत साहित्यके उपासकों को इस विषय में फिर प्रयत्न करना चाहिये ।
यह विश्वलोचन वा मुक्तावली कोश उक्त आवश्यकताकी ही यत्कि - ञ्चित् पूर्ति करनेके लिये प्रकाश किया जाता है । इसकी एक प्रति ईडर ( महीकांठा) के सुप्रसिद्ध सरस्वती भवन से प्राप्त हुई थी । इसकी उत्तमता और अन्य कोशग्रन्थोंसे जो इसमें विलक्षणता है, उसे देखकर प्रसिद्ध विद्याप्रचारक सेठ रामचन्द नाथाजी (नाथारंगजीवाले) ने इसके प्रकाशित करनेकी इच्छा प्रगट की और साथ ही श्रीयुक्त पं० धन्नालालजी काशलीवाल, पं० पन्नालालजी वाकलीवाल और नाथूराम प्रेमी आदिकी सम्मतिसे आपने यह भी चाहा कि, इसकी भाषाटीका भी हो जाय, तो भाषा जाननेवालोंको भी इससे लाभ पहुंचे । तदनुसार सेठजीने इस ग्रन्थके संशोधनका तथा भाषाटीकाका कार्य मुझे सौंपा और मैंने अपनी शक्ति के अनुसार इसे सम्पादन करके आपके सम्मुख उपस्थित किया है । जब ईडरकी एक प्रतिसे इसके संशोधनका कार्य न चल सका, नानाप्रकारकी कठिनाइयां उपस्थित होने लगीं, तब एक प्रति सरस्वतीभवन आरासे, और दो प्रतियां पं० जवाहिरलालजी शास्त्रीके द्वारा जयपुरके किन्हीं दो भंडारोंसे मंगाई गई । इस तरह इन चार प्रतियोंसे इस ग्रन्थका सम्पादन किया गया है । इनमें जयपुरकी एक प्रति औरोंकी अपेक्षा विशेष शुद्ध थी । इसके संशोधन कार्यमें मुझे जो परिश्रम पड़ा है, उसका अनुभव वे पाठक अच्छी तरहसे कर सकेंगे, जो इसको ध्यानपूर्वक देखेंगे और इस बातसे परिचित होंगे कि, एक अप्रकाशित अपरिचित ग्रन्थका सम्पादन करना और ऐसे प्रतियोंपर से जो कि बहुत ही अशुद्ध हों, कितना कठिन कार्य है । मैं यह स्वीकार करता हूं कि, मेरी बुद्धिके प्रमादसे अब भी इसमें बहुतसी अशुद्धियां रह गई होंगी और
"Aho Shrutgyanam"