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विश्वलोचनकोश:
अतः सादरेऽपि स्यात् पूजितेऽप्यभिधेयवत् । आध्मातः पवनव्याधौ दग्धशब्दितयोस्त्रिषु ॥ ८६ ॥ आनर्त्तो नर्त्तनस्थाने देशभेदे रणे जले | पाते तदात्वेऽप्यापात आपतिः प्राप्तिदोषयोः ॥ ८७ ॥ आप्लुतः स्नातके पुंसि स्नाते स्यादभिधेयवत् । आयत्तिः स्नेहमर्यादावशिताबलवासरे ॥ ८८ ॥ आयतिस्तु यमे दैर्म्ये प्रभावोत्तरकालयोः । आयस्तस्तेजिते क्षिप्ते कुपिते क्लेशिते हते ॥ ८९ ॥ आवर्त्तश्चिन्तने चाssवर्तने वाप्यम्भसां श्रमे । आस्फोतस्त्वर्कपर्णे स्यादास्फोतः कोविदारके ॥ ९० ॥ आस्फोता गिरिकय च वनमहयामपि स्त्रियाम् । आसत्तिः सङ्गमे लाभे आहतं तु मृषार्थ ॥ ९१ ॥
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[ तान्तवर्गे
आहत-आदरकियाहुवा, पूजाकिया - | आयति-यम, लंबापना, प्रभाव आगे हुवा, (त्रि० ) आनेवाला काल, ( स्त्री० ) आध्मात - वातरोग, दग्ध, शब्दित, आयस्त - तीक्ष्णकियाहुवा, फेंकाहुवा, ( त्रि० ) ॥ ८६ ॥ कुपित, क्लेशित, हत, ( पुं० ) आवर्त - नृत्यकरनेका स्थान, देशभेद, ॥ ८९ ॥
रण, जल, ( पुं० )
आपात - पड़ना, तत्काल, (पुं० ) आपत्ति - प्राप्ति,
॥ ८७ ॥
आवर्त - चिंतन करना, आवर्तन ( आवृत्ति) करना, जलोंका भँवर (पुं०) दोष, ( स्त्री० ) | आस्फोत- आकका पत्ता, कचनारवृक्ष, (पुं० ) ॥ ९० ॥ आप्लुत- वेदव्रतवाला, (पुं०) स्ना- आस्फोता- कोयल-औषधि, नकियाहुवा ( त्रि० ) मल्लिका, (स्त्री० ) आसत्ति-संगम, लाभ, ( स्त्री० ) आहत - असत्य अर्थवाला ( न० ) ॥ ९१ ॥
आयत्ति स्नेह, मर्यादा, वशित्व, बल, वासर ( दिन ) ( स्त्री० ) ॥ ८८ ॥
"Aho Shrutgyanam"
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