________________
रद्वितीयम् । ]
भाषाटीकासमेतः ।
ऐन्द्रिः काके जयन्ते स्यादोड़ा जनपदान्तरे । ओडो जने जवावृक्षे देशे पुप्पे तु न द्वयोः ॥ १२ ॥ अंङ्गिः पादे च बुध्ने च कद्दुः कनकपिङ्गले ।
२७९
तद्वति त्रिषु कद्रुः स्यात्कदुः स्त्री नागमातरि ॥ १३ ॥ करस्तु पाणिप्रत्यायशुण्डारश्मिघनोपले | कारो बधे तुपारादौ निश्चये यतियत्नयोः ॥ १४ ॥ वलावप्यथ कारा स्याद्बन्धनागारबन्धयोः । सुबन्ते कारिकापीडादूतिकासु प्रसेवके ॥ १५ ॥ कारुः शिल्पिनि शिल्पे च कारके विश्वकर्मणि । कारिः क्रियानापिताद्योः कीरो जनपदे शुके ॥ १६ ॥ कुरुर्नृपान्तरे भक्ते कुरुः श्रीकण्ठजाङ्गले | कृच्छ्रं तु कष्टे पापे च तथासान्तपनादिके ॥ १७ ॥
चाल, (पुं० )
ऐन्द्रि-काग, ( पुं० )
जयंत ( इंद्रपुत्र ) ओडू - जनपद ( देशविशेष ) ( पुं०
कारा बंधनका स्थान, बंधन, सुबन्त, कारिका, पीडा, दूती, वीणाकी तूंबी, (स्त्री० ) ॥ १५ ॥
बहुवचनांत )
ओड़-जन, जया वृक्ष, देश, ( पुं० ) कारु-शिल्पी, शिल्प, करनेवाला,
विश्वकर्मा, (पुं० )
कारि - क्रिया, ( स्त्री० ) नाई आदि, ( त्रि० )
पुष्प, ( न० ) ॥१२॥
(पुं०)
अंत्रि- चरण, वृक्ष की जड, ( पुं० ) कदु सुवर्ण, कुछेक पीला रंग, कुछपीलारंगवाला (त्रि०) माता ( स्त्री० ) ॥ १३ ॥ कर - हस्त, निश्चय, हस्तीकी सूँड, कुरु- नृपभेद, अन्न, महादेव, जांगलदेश, (पुं० )
नाग,
कीर - देशविशेष, ( पुं० बहुवचनांत ) सूवा- पक्षी, (पुं० ) ॥ १६ ॥
किरण, ओला, (पुं० ) कार - मारना, हिमाद्रि (पर्वत), निश्चय, ! कृच्छ्र-कष्ट, पाप, सान्तपन आदियति, यत्न, ॥ १४॥ व्रत, ( न० ) ॥ १७ ॥
"Aho Shrutgyanam"