Book Title: Vallabh Bharti Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Khartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लभ-भारती प्रथम खण्ड जिनवल्लभसरि-साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन 45 萬 हिन्दी विश्वविद्यालय (हिन्दी साहित्य सम्मेलन) इलाहाबाद द्वारा साहित्य महोपाध्याय उपाधि के लिये स्वीकृत शोध-प्रबन्ध 步 लेखक : महोपाध्याय विनयसागर साहित्य महोपाध्याय, साहित्याचार्य, जैनदर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न शास्त्रविशारद lc Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लभ-भारती प्रथम खण्ड 1নতসহ-ভিখ পা সীদ্ধাপ অথখন हिन्दी विश्वविद्यालय (हिन्दी साहित्य सम्मेलन) इलाहाबाद द्वारा साहित्य महोपाध्याय उपाधि के लिये स्वीकृत शोध-प्रबन्ध लेखक: গীবাত্মাথ বিনথাসহ साहित्य महोपाध्याय, साहित्याचार्य, जैनदर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न, शास्त्रविशारद Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: खरतरगच्छीय श्री जिनरंगसूरिजी का उपाश्रय व्यवस्थापक-श्रीमाल सभा, घी वालों का रास्ता, जयपुर-3 (राजस्थान) सन् १९७५ महावीर नि० सं० २५०१ वि० सं०२०३२ मूल्य १५.०० मुद्रक : वैशाली प्रिन्टिंग प्रेस श्री बालों का रास्ता जयपुर-3 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवीश्वर प्राचार्य जिनवल्लभसूरि BHBHISERIESHIMES SHEKSHISHISHESHAN REMEHEHRHANISATIRESHMIREERISEBIRTHEHINESHE R E westinantastesaHAREERSarmatmanSHARARIANTAmAamah (जैसलमेर भांडागारीय प्राचीन ताडपत्रीय प्रति के काष्ठफलक पर चित्रित चित्र के आधार से) Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक के दो शब्द युगप्रधान प्रगट प्रभावी दादा जिनदत्तसूरिजी महाराज ने स्वरचित गणधर सार्द्ध - शतक, चर्चरी, सुगुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र, श्रुतस्तव आदि ग्रन्थों में जिन युगप्रवर श्रीजिनवल्लभसूरि के क्रान्तिकारी विचार-सरणिका प्रतिपादन और उनके अगाध गुणगौरव का मुक्तकण्ठ से यशोगान करके अपनी वाणी और लेखनी को कृतार्थ किया है, उन्हीं स्वनामधन्य, रससिद्धकवीश्वर, प्रवर- आगमज्ञ, प्रबल क्रान्तिकारी, युगश्रेष्ठ, विधिपक्षप्रवर्त्तक, खरतरगच्छ - मुकुटमणि जैनाचार्य श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रस्तुत 'वल्लभ-भारती' नामक पुस्तक है । जिनवल्लभसूरि के साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन होने के कारण ही मैंने इस पुस्तक का नाम 'वल्लभ-भारती' रखा है । यह पुस्तक दो खण्डों में विभक्त है । प्रथम खण्ड में आचार्यश्री का जीवन-चरित्र, आक्षेप परिहार, आचार्य द्वारा रचित साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन और जिनवल्लभीय साहित्य की परम्परा का आलेखन है । द्वितीय खण्ड में 'जिनवल्लभसूरि रचित, वर्तमान समय में प्राप्त समग्र साहित्य का पाठभेद एवं टिप्पण के साथ मूल पाठ का सम्पादन है । इस वल्लभ भारती का कार्य मैंने सन् १९५२ में आरम्भ किया था । सन् १९६० में श्रद्धय डॉ० फतहसिंहजी एम. ए., डी. लिट् के निर्देशन में दोनों खण्डों का कार्य पूर्ण होने पर हिन्दी विश्वविद्यालय ( हिन्दी साहित्य सम्मेलन ) प्रयाग की उच्चतम परीक्षा 'साहित्य महोपाध्याय' के लिये मैने इस ग्रन्थ को शोध-प्रबन्ध के रूप में भेज दिया था । शोध-प्रबन्ध के रूप में यह पुस्तक स्वीकृत हुई और सन् १९६१ में सम्मेलनद्वारा मुझे 'साहित्य महोपाध्याय ' प्राप्त हुई। सन् १९६१ से १६७५ अन्तराल में कवि निर्मित अष्टसप्तति, स्वप्नसप्तति, चतुर्विंशतिजिनस्तुति आदि नवीन कृतियां भी मुझे प्राप्त हुई । इन नवीन कृतियों के आधार पर इस प्रथम खण्ड में मैंने यत्र तत्र संशोधन एवं परिष्कार भी किया है । सन् १९६२ में द्वितीय खण्ड के प्रकाशन का कार्य भी मैंने प्रारम्भ करवाया था । मूल-ग्रन्थों के १६० पृष्ठ भो मुद्रित हो चुके थे । फिर भी संयोगवश आगे मुद्रण न होने से वह आज तक प्रकाशित न हो सका। आज इस ग्रन्थ के प्रथम खण्ड को प्रकाशित होते देखकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है । ग्रामोद्वार ग्रंथ : जिनवल्लभसूरि रचित 'आगमोद्धार' नामक ग्रन्थ को अनुपलब्ध मानते हुये भी प्रस्तुत पुस्तक के पृ० ८७ की टिप्पणी में मैंने लिखा है कि- 'श्री अगरचंदजी नाहटा की Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचनानुसार स्वप्न - सप्ततिका और आगमोद्धार एक ही ग्रन्थ है ।' किन्तु जिनपालोपाध्याय ने चर्चरी पद्य ३३ की टीका करते हुये लिखा है : -- "यत उक्त श्रीजिनवल्लभसूरिभिरागभोद्धारेश्रोसन्ना चिय तत्थेव इती चेइयवंदगा । जेसि निस्साइ तं भवर सड्ढाइह वि कारियं ॥ " जिनपालोध्याय उद्धत आगमोद्धार की यह गाथा स्वप्न-सप्तति में प्राप्त नहीं है । अतः स्वप्नसप्तति और आगमोद्धार दोनों पृथक्-पृथक् ग्रन्थ हैं और आगमोद्धार ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है। श्राभार : मूल ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियां संकलन करने, समीक्षात्मक अध्ययन लिखने, विचार-विमर्श करने आदि में आगम प्रभाकर मुनिपुंगव स्व० श्री पुण्यविजयजी महाराज, स्व० आशुकवि उपाध्याय श्री लब्धिमुनिजी म०, स्व० अनुयोगाचार्य श्री बुद्धिमुनिजी म०, स्व० श्री रमणीकविजयजी महाराज, श्रद्ध ेय डॉ० फतहसिंहजी, श्री अगरचंदजी नाहटा, श्री भंवरलालजी नाहटा, डॉ० श्री बद्रीप्रसाद पंचोली आदि विद्वानों का मुझे समय-समय पर सहयोग तथा परामर्श प्राप्त होता रहा । अतः इन सब का मैं उपकृत हैं। साथ ही जिन लेखकों की कृतियों का मैंने इस ग्रन्थ में उपयोग किया हैं उन लेखकों का भी मैं कृतज्ञ हूँ । खरतरगच्छीया साध्वीश्रेष्ठा विदुषी श्री विनयश्रीजी महाराज का ११ जनवरी सन् १९७४ को जयपुर में स्वर्गवास हुआ। उन्हीं की स्मृति में श्री खरतरगच्छीय श्री जिनरंगसूरिजी गद्दी का उपाश्रय, व्यवस्थापक श्रीमाल सभा, जयपुर की ओर से इस वल्लभ-भारती के प्रथम खण्ड का प्रकाशन हो रहा है। इस प्रकाशन कार्य में श्रीमाल सभा जयपुर के सदस्यगण श्री लालचन्द्रजी वैराठी, श्री राजरूपजी टांक, श्री छुट्टनलालजी वैराठी, एवं भाई श्री राजेन्द्रकुमारजी श्रीमाल का अथक परिश्रम एवं अवर्णनीय सहयोग रहा है तथा मुनिराज श्री जयानन्दमुनिजी म० की सतत प्रेरणा रही है अतः इन सब का एवं विशेषतः श्रीमालसभा जयपुर का मैं हृदय से आभारी हूँ । अन्त में, मेरे परमपूज्य गुरुदेव खरतरगच्छालङ्कार गीतार्थ- प्रवर आचार्यश्रेष्ठ स्व० श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज के वरद आशीर्वाद का ही प्रताप है कि मेरे जैसा अज्ञ व्यक्ति जिनवल्लभसूरि जैसे युगप्रवरागम आचार्य पर प्रस्तुत पुस्तक लिख सका । काश ! आज वे विद्यमान होते और मेरी इस कृति 'वल्लभ-भारती' को देखते तो न जाने उन्हें कितना हर्ष होता ! चैत्र शुक्ला १ सं० २०३२ महावीर निर्वाण संवत् २५०१ जयपुर म० विनयसागर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'वल्लभ-भारती' प्रथम खण्ड प्रकाशित करते हुए अति प्रसन्नता अनुभव हो रही है। परमपूज्या विदुषी साध्वी श्री विनयश्रीजी के अन्तिम दाह-संस्कार के समय ही यहां के श्री संघ ने आपकी स्मृति में यह ग्रन्थ छपवाने का निर्णय किया था। उसी निर्णयानुसार श्री विनयश्रीजी महाराज की स्मृति में प्राचार्य श्री जिनरंगसूरिजी के उपाश्रय से यह ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है। इस ग्रंथ के लेखक महोपाध्याय विनयसागरजी हैं जो कि जैन-साहित्य के जाने-माने विद्वान हैं। यह गौरव की बात है कि विनयसागरजी की इस पुस्तक को हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग-जो कि हमारे देश का श्रेष्ठतम हिन्दी विश्वविद्यालय है-ने अपनी उच्चतम परीक्षा के लिये शोध-प्रबन्ध के रूप में स्वीकार कर, इन्हें साहित्य महोपाध्याय की उपाधि से सम्मानित किया है। महोपाध्याय श्री विनयसागरजी ने अपना जीवन जैन-साहित्य के अन्वेषण, लेखन, प्रकाशन में लगा रखा है। प्राचार्य श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज से प्रेरणा लेकर उन्होंने सतत अध्ययन की ओर उन्मुख होते हए निरंतर ज्ञानोपार्जन किया। इनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित वृत्तमौक्तिक, सनत्कुमारचक्रिचरित महाकाव्य, खडप्रशस्ति, नेमिदूतम्, अरजिनस्तव आदि १६ पुस्तके विभिन्न संस्थाओं से प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें से नेमिदूतम् राजस्थान विश्वविद्यालय के M.A. संस्कृत पाठ्यक्रम में और वृत्तमौक्तिक जोधपुर विश्वविद्यालय के M. A. संस्कृत पाठ्यक्रम में रह चुकी हैं । अतः जिस प्रतिभा, मेहनत व विद्वत्ता से इन्होंने प्रस्तुत शोधपूर्ण इतिहास लिखा है, वे वधाई के पात्र हैं । - खरतरगच्छीय परंपरा के सर्वप्रथम महानाचार्य जिनेश्वरसूरि जिन्होंने गुजरात के नरेश दुर्लभराज के समक्ष अपहिलपुर पाटण में पञ्चाशरीय पार्श्वनाथ भगवान के बडे मन्दिर में १०६६-७५ के मध्य में स्थानीय ८४ मठपतियों (चैत्यवासी) को शास्त्रार्थ में हराकर खरतर विरुद प्राप्त किया। आपके गुणों से प्रसन्न होकर दुर्लभराज ने कहा, "इस कलिकाल में कठिन और 'खरे' चरित्रनायक साधु पाप ही हैं।" तभी से उनका समुदाय खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हमा। सं० ११६८ में रचित देवभद्रसूरि कृत पार्श्वनाथ चरित्र की प्रशस्ति में (जैसलमेर भंडार में ताडपत्रीय ग्रन्यांक २६५ ) और सं० ११७० की लिखित पट्टावली में जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद मिलने का स्पष्ट उल्लेख है। उन्हीं के पाट पर विराजने वाले प्राचार्य जिनचन्द्रसूरि हुए जिनको अष्टादश नाममाला का पाठ तथा अर्थ सब अच्छी तरह कंठस्थ थे, उन्होंने अठारह हजार श्लोक वाली 'संवेग रंगशाला' की सं० ११२५ में रचना को। यह ग्रन्थ भव्यजीवों के लिये मोक्ष रूपी महल का सोपान है। उनके पाट पर पदासीन होने वाले स्थंभन पार्श्वनाथ प्रभु की सातिशय प्रतिमा प्रगट करने वाले खरतरगच्छाचार्य जिनअभयदेवसूरि हुये, जिन्होंने नवांगों की टीका के अतिरिक्त पंचाशक वृत्ति, उववाई वृत्ति, प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी, षट्स्थान भाष्य, पाराधना कुलक, आगम अष्टोतरी आदि अनेक ग्रन्थों की व 'जयतिहुयण' प्रादि स्तोत्रों की रचना की। उन्हीं के पाट पर विराजने वाले प्राचार्य श्री जिनवल्लभसूरि हुये, जो कि सब विद्यानों के पारदर्शी, शास्त्र ज्ञान के भंडार व अनेक सिद्धान्तों के ज्ञाता थे। जिनेन्द्र मत प्रचारक श्री हरिभद्रसूरि के अनेकान्तजयपताका आदि ग्रन्थों के अभिज्ञ थे। षट् दर्शन, कन्दली, किरणावली, न्याय, तर्क तथा पाणिनि मादि पाठों व्याकरण के सूत्र इनको कंठस्थ थे। चौरासी नाटक, सम्पूर्ण ज्योतिष शास्त्र, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच महाकाव्य, अन्य काव्य तथा जयदेव प्रभृति कवियों द्वारा रचित छन्द-शास्त्र के वे विशेष मर्मज्ञ थे। पिण्डविशुद्धि प्रकरण, षडशोति कर्मग्रन्थ, संघपट्टक, सूक्ष्मार्थ-विचारसार, पौषधविधि प्रकरण, धर्मशिक्षा, द्वादश कुलक, प्रश्नोत्तर शतक, प्रतिक्रमण समाचारी, अष्टसप्तति का, शृङ्गार शतक आदि अनेक प्रन्थों व स्तोत्रों की रचना प्रापने की, इनसे प्रापका प्रकांड वद्वान् होना भली मांति सिद्ध है । इन्हीं के पट्ट पर युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज हुए हैं। जिनकी सब सम्प्रदाय वाले पूर्ण श्रद्धा व भक्ति से अर्चना व पूजा करते हैं। इन्होंने एक लाख तीस हजार नूतन जैनी बनाए एवं स्वहस्त से १५०० साधुओं को दीक्षित किया था। मुनि श्री जिनविजयजी ने खरतरगच्छ के सम्बन्ध में जो भावोद्गार प्रगट किये है उनका अंश नीचे दिया जा रहा है "खरतरगच्छ में अनेक बड़े-बड़े प्रभावशाली प्राचार्य, बड़े बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े-बड़े. प्रतिभाशाली पंडित, मुनि और बड़े-बड़े यांत्रिक, तांत्रिक, ज्योतिविद, वैद्यक विशारद प्रादि कर्मठ यतिजन हए जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा के बढ़ाने में बड़ा योग दिया है। सामाजिक और साम्प्रदायिक उत्कर्ष के सिवा खरतरगच्छ के अनुयायियों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देश्य भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम किया और इसके फलस्वरूप प्राज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक प्रादि विविध विषयों का निरूपण करने वाली छोटी-बड़ी हजारों ग्रंथ कृतियां जैन भंडारों में उपलब्ध हो रही हैं। खरतरगच्छीय विद्वानों की यह उपासना न केवल जैन धर्म की दृष्टि से ही महत्त्व वाली है अपितु समूचे भारतीय संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है। साहित्योपासना की इष्टि से खरतरगच्छ के विद्वान् यति, मुनि बड़े उदारचेता मालूम देते हैं। इस विषय में उनकी उपासना का क्षेत्र केवल अपने धर्म या समुदाय की बाड़ से बंधा नहीं है। वे जैन और जैनेतर वाङमय का समान भाव से अध्ययन अध्यापन करते रहे हैं।" जिस देश समाज अथवा धर्म को जीवित रखना है तो दो चीजों की पूरी देख-रेख, सुव्यवस्था व रक्षा करनी पड़ेगी। (१) हमारा खडहरों का वैभव अर्थात् प्रतिमाएं, शिलालेख आदि (२) हमारा जीवित साहित्य-जिसमें हमारे भोज, ताडपत्र, हस्तलिखित व छपे हुए प्रथ प्रादि । परन्तु दुःख के साथ लिखना पड़ता है कि हम जिनकी मर्चना, पूजा, सेवा और भक्ति करते हैं उनकी अमूल्य कृतियों और उनके अप्रतिम चरित्रों को जानने की ओर दृष्टिपात भी नहीं करते। हम यह भी जानने की कोशिश नहीं करते कि हमारे प्राराध्य देवों व पूज्यवर प्राचार्यों ने संसार को जो अतुलनीय दान दिया वह क्या है ? यह जाति के मरणोन्मुखता का ही द्योतक है। वास्तव में इन अमूल्य निधियों की सुरक्षा सुव्यवस्था व सदुपयोग होना बहुत जरूरी है। हमारे समाज का गौरव और महत्त्व तभी ठीक से प्रकाश में पा सकेगा जब हम उसके संग्रह व इतिहास की खोज करें। धर्म में रुचि रखने वाले अन्य सभी महानुभावों से प्रार्थना करूंगा कि वे इस ग्रन्थ को पढ़कर, मनन करके हमें प्रोत्साहिन करें ताकि भविष्य में इस तरह के शोधपूर्ण साहित्य व इतिहास के प्रकाशन की की ओर हम अग्रसरित हो सकें। शांत एवं मृदुल स्वभावी परमपूज्य श्री साम्यानन्दजी मुनि व जयानन्दजी मुनि म० सा० एवं साध्वी श्री कल्याणश्रीजी का मार्गदर्शन भी हमें बराबर मिलता रहा है। प्राशा है आप मुनिजन भविष्य में भी ऐसे शोधपूर्ण जैन साहित्य के प्रकाशन की प्रेरणा देते रहेंगे। ___ अन्त में, मैं उन सभी महानुभावों का आभार प्रदर्शन करता हूँ जिन्होंने इस ग्रन्थ को छपवाने में सहयोग दिया है। -राजेन्द्रकुमार श्रीमाल Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म - पौष कृष्णा १० सं. १९४८ लोहावट सद्धर्मोपदेशिका विदुषी जैनार्या श्री विनयश्रीजी महाराज स्वर्गवास माघ वदि ३ सं. २०३० जयपुर दीक्षा - पौष शुक्ला १२ सं. १६६१ खीचन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ নিকুখী প্রাণীং খ বিনথখীজী সাংস सद्धर्मोपदेशिका परमविदुषी साध्वीश्रीष्ठा श्री विनयश्रीजी महाराज का जयपुर की जैन समाज से, वर्षों से घनिष्ठ सम्पर्क रहा है। इनके व्यक्तित्व एवं सुमधुर उपदेशों से यहां की समाज ने बहुत कुछ प्राप्त किया है। रुग्णता और वार्धक्य के कारण ३५ वर्ष से भी अधिक इनकी जयपुर में स्थिरता रही। इस दीर्वकाल में यहां का समाज इनसे सर्वदा ही लाभान्वित होता रहा । अपनी विनयशीलता और लघुता के कारण आपने अपने जीवनवृत्त पर कभी प्रकाश नहीं डाला । यत्र-तत्र बिखरी हुई सामग्री के आधार पर आपके जीवनचरित्र की संक्षिप्त रूपरेखा इस प्रकार प्राप्त होती है। लोहावट निवासी श्री रतनचंदजी लूणिया की आप पुत्री थीं। आपका जन्म वि. सं० १९४८ पौष वदि १० को हुआ था। माता-पिता ने गुणानुरूप आपका नाम वीरांबाई रखा था। ११ वर्ष की बाल्यावस्था में ही आपके पिता श्री रतनचंदजी ने आपका विवाह खीचन निवासी श्री माणकलालजी बोथरा के साथ कर दिया था। किन्तु दैव दविपाक से विवाह के कुछ महीनों पश्चात् ही श्री माणकलालजी का स्वर्गवास हो गया और १२ वर्ष की अल्पायु में ही वीरांबाई का सौभाग्य-सिन्दूर पोंछ दिया गया। वीरां वैधव्य-जीवन व्यतीत करने लगी। ___ संयोगवश उसी वर्ष खरतरगच्छीया स्वनामधन्या श्री पुण्यश्रीजी म० की शिष्यायें खीचन पधारी। उनके उपदेशामृत से वीरांवाई का हृदय वैराग्य-रंग से रंग गया। सं० १९६१ पौष सुदि १२ को खीचन में श्री स्वर्णश्रीजी म. के वरद कर-कमलों से दीक्षित होकर वीरांबाई विनयश्री के नाम से प्रत्तिनी श्री पूण्यश्रीजी म० की शिष्या बनीं। दीक्षा-ग्रहण के पश्चात् विनय श्रीजी ने बड़े मनोयोग से सिद्धान्तकौमुदी, भट्टिकाव्य, रघुवंशादि महाकाव्य, रत्नकरावतारिकादि दार्शनिक ग्रन्थ और जैनागमों, प्रकरणों तथा साहित्य-ग्रन्थों का विशेष अध्ययन किया । विदुषी बनीं, प्रवचनकार बनीं। आपका विचरण प्रायः कच्छ, सौराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश और राजस्थान प्रदेश में रहा है । विहार करते हुये अपने सुमधुर एवं प्रभावशाली उपदेशों से स्थान-स्थान पर कई विशिष्ट धर्मकार्य करवाये । हाथरस में दादावाड़ी और सिकन्दराबाद में मंदिर तथा स्कूल की स्थापना, टोंक में मंदिर का जीर्णोद्धार, हाथरस में ज्ञान भंडार, तथा जयपुर शिवजीराम भवन में आयंबिल खाते की स्थापना आदि विशेष कार्य आपही के प्रयत्नों से हुये थे। ___आप केवल व्याख्यानदाता ही नहीं थी अपितु लेखिनी की भी धनी थीं। उपासकदशा सूत्र का मूल और टीका का हिन्दी अनुवाद तथा युगादिदेशना का हिन्दी अनुवाद भी आपने Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया। संस्कृत में पुण्यश्री अष्टक की रचना भी आपने की थी। सज्झाय संग्रह और पंच प्रतिक्रमण सूत्र का संपादन भी आपने किया था। श्री समर्थश्रीजी, श्री विचित्रश्रीजी, श्री वीरश्रीजी, विजयश्रीजी, विशालश्रीजी आदि कई आपकी शिष्यायें बनी किन्तु सब ही शिष्याओं का आपकी उपस्थिति में ही स्वर्गवास हो गया था। अपनी निजी पुस्तकों का संग्रह भी आपने जयपुर के समाज को सौंप दिया था। असातावेदनीय कर्मों के कारण आपके कई बार बड़े-बड़े आपरेशन भी हुये । रुग्णता और शारीरिक अस्वस्थतावश आपने जयपुर में स्थिरवास स्वीकार कर लिया था रुग्णता की अवस्था में आपकी सेवा-शुश्रूषा श्रीमती इन्द्रबाई श्रीश्रीमाल जो आपकी सेवा में ४० वर्ष से रह रही थीं, ने जिस लगन और आत्मीयता के साथ की, वह अभूतपूर्व थी। वि० सं० २०३० माघ वदि ३. दिनांक ११ जनवरी १९७४ को ८२ वर्ष की अवस्था में आपका जयपुर में स्वर्गवास हो गया। जयपुर के जैन समाज ने अन्तिम क्रिया बड़े ठाठबाठ से की। इस समय का सारा व्यय श्रीमती इन्द्रबाई ने करके अपनी असाधारण गुरु-भक्ति का परिचय दिया था । आत्म-शान्ति निमित्त जयपुर के समाज ने अष्टाह्निका महोत्सव, शान्तिस्नान का भी आयोजन किया था। अन्तिम संस्कार के समय ही यहां के श्री संघ में आपकी स्मृति में प्रस्तुत 'वल्लभभारती' ग्रन्थ छपाने का निर्णय लिया था। स्वर्गीया श्री विनयश्रीजी म. की स्मृति में यह ग्रन्थ प्रकाशित कर जयपुर की "श्रीमाल सभा" अपने को सौभाग्यशाली समझती है और महाराजश्री के चरणों में श्रद्धांजली अर्पित करती है। जयपुर लालचन्द वैराठी १४-४-७५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 तश्चिनिन घपार | A sha 걺 वस्त त्या on | 4 ।दपा दोसस्तःपा नी नो, द म7 शा नशैघःस्थिर संलाभकांक्षी जिन जित श्रम स्थादद्या नमस्तव सामधा| रि मात्वया to ho ho | अब अ. की य त्य लप लि स नृ नि ज वा न३ ज ना ना मा भा - य 8 . Tr न्द व च मामा स्तं 22.. गजीवा मे जरा न्द्र गमा Page #15 --------------------------------------------------------------------------  Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न ल२ सी) मन्त जि Kा पन्त ००) मे ति यः करो त्य: ल्या णे षु स दासर्वा समुत्थे मा न्य शास/४ जनभा वेनशक्रा ली में तेः क्षोभ स सा ध्व पाव भवा रा तेः . म सा ल है. १ या म | ता |ग वि ना श 자기 कर 14 तागत्व मरक वी रा ज्ञा वि न द ति पा पं सा रा मा र म य ते न म नो नः या न म स भां मा र.त सा ने तें म न सि । Page #17 --------------------------------------------------------------------------  Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडा . 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परिचय श्री जिनवल्लभसूरि प्रणीत ६ ग्रन्थों के ४२ चित्र-काव्यों की ६ प्लेटें प्रस्तुत पुस्तक में दी गई हैं । किस ग्रन्थ का चित्र काव्य किस प्लेट में और कौन से क्रमांक पर है ? जानकारी हेतु वर्गीकरण' कर रहा हूँ ग्रन्थ का नाम (१) स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र ( चित्रकाव्यमय ) (२) चित्रकूटीय वीर चैत्य प्रशस्ति (३) धर्मशिक्षा प्रकरण (४) संघपट्टक प्रकरण (५) स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र ( चक्राष्टक ) ( ६ ) प्रश्नोत्तरं षष्टिशत काव्य प्लेट संख्या, १ २ चित्र सं० ६. प्रवासहासिबन्ध - : वल्लभ-भारती ] १ चित्र संख्या १,६,७,८ ६, ११ ३५, ३७ १७ २३ १५ २४ २६, ३० २, ३, ४, ५ १०, १२, १३, १४, १५, १६ १६, २०, २१, २२ २५, २६, २७, २८ ३१, ३२, ३३, ३४ ३६, ३८, ३६, ४०, ४१, ४२ न्यानुसार चित्रकाव्यों का परिचय निम्नलिखित है १. स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र ( चित्रकाव्यमय ) - इस स्तोत्र में शक्ति, शूल, शर, मुसल, हल, पत्र, खड्ग और धनुष ८ चित्रकाव्यों का प्रयोग हुआ है । प्रत्येक चित्रकाव्य में गुम्फित श्लोक चित्र 1 • संख्यानुसार निम्नांकित हैं : : चित्र सं० १. बज्रबन्ध ननन्द, बचसाऽमास्तं ध्वस्तासुग गतव्रज । . जगत्तबागमा सारोद्धतमज्जज्जनं जिन ||७|| 1 नमस्कारस्तवाक्षोभयनाभालि सन्नूनिन । नमेन्द्रराजवा नमस्यनल्पनयजरूपकं ॥ ६ ॥ [१ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र सं० ७. त्रिशूलबन्ध चित्र सं०८ शरबन्ध - चित्र सं० २ धनुबंध - चित्र सं० ११. सबन्ध - चित्र सं० २५ शक्तिबन्ध - नरौषः स्थिरसंलाभकांक्षी जिन जितश्रम । मदनो नोदमस्वाद - दद्यादस्तवमस्तव ॥ ३ ॥ चित्र सं० २० मुसलबन्ध नश्यन्ति तत्क्षणादेव स्मृत्या तव ततस्तव । वधपापादपापास्तः सद्वो वचननिश्चितम् ।। ४ ।। न स पाएवं भवारातेः कृतेः क्षोभं स साध्वस समेति यः करोत्यन्तस्यां सत्कुल सुशीलज || ६॥ नमन्त जिन भावेन शालीमननाशक । कल्याणेषु सदा सर्वां समुत्थे मान्यशासन ||२|| - नमल्लोकतटेर्भावे बंधो वृजिन वामन । नमस्ते भवभीवंभारभाव नयनक्षम ॥२॥ नयनः पाश्र्वं भवभी संवाधाल्लघुशाश्वतं । तन्द्रालुनभवावासं भीमभक्तास ||५|| X X X X X चित्र संख्या १७,२३, १५, २४, २६, ३० छहों षडारकबन्ध चक्रकाव्य हैं। इन चक्रकाव्यों में अक्षरों को स्थापन करने की पद्धति इस प्रकार है : चक्र में ६ धारक ( धारे) है, मध्य में नाभि है और चारकों के ऊपर गोलाकार चक्र है। पहले धारक में श्लोक के प्रथम चरण के २ से २ अक्षर और चौबे पारक में इसी प्रथम चरण के ११ से १५ अर्थात् आठ ग्राठ अक्षर लिखे जाते हैं। इसी प्रकार दूसरे और पांचवें धारक में द्वितीय चरण के एवं तीसरे तथा छठे आरक में तृतीय चरण के २ से ६ और ११ से १८ जाते हैं। मध्य नाभि भाग में प्रथम द्वितीय तृतीय चरणों का १० कि प्रारम्भ के तीनों ही चरणों में १०वां अक्षर नियमानुसार एक ही होता है, अर्थात् इस प्रक्षर की त्रिरावृत्ति होती है। ऊपर के गोलाकार व ( हाल में धारक में संलग्न छह स्थान है। इसमें से प्रारम्भ की १-२-३ तीनों शिराम्रों में तीनों चरणों के प्रथम अक्षर और शेष ४-५-६ शिराम्रों में तीनों चरणों के अन्तिम अक्षर क्रमशः स्थापित किये जाते हैं। इस प्रकार तीनों चरणों के प्राद्यन्ताक्षर की द्विरावृत्ति प्रर्थात् माठ म्राठ अक्षर क्रमशः लिखे अक्षर स्थापित किया जाता है जो चक्र में शेष स्थानों के होती है और केवल तृतीय चरण के अन्तिमाक्षर की पढ़ने में परावृत्ति होती है मध्य में छहों रिक्त स्थानों पर चतुर्थ चरण के दो-दो अक्षर क्रमशः २-३ ५-६ १ ११ १२ १४-१५ ; १७-१८ अक्षर स्थापित किये जाते हैं। चतुर्थ चरण के १. ४, ७, १०, १३, १६ और १२वां अक्षर जो सात अक्षर शेष हैं वे नियमानुसार प्रारम्भ के तीनों चरणों के मायन्ताक्षर होते हैं। अर्थात् प्रथम द्वितीय तृतीय चरण का प्रथमाक्षर जो होता है वही नियमित रूप से चतुर्थ चरण में ४, ७, १०वां प्रक्षर २ ] [ वल्लभ-भारती Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है और इस प्रकार उक्त तीनों चरणों का अन्तिमाक्षर जो होता है वही निश्चित रूप से चतुर्थं चरण का १३, १६, १६वां अक्षर होता है तथा तृतीय चरण का ही अन्तिम १६वां अक्षर चतुर्थ चरण का पहला प्रक्षर होता है । यह षडारकबन्ध चक्रकाव्य प्रायः १९ वर्णात्मक शार्दूलविक्रीडित छन्द में ही प्रथित किया जाता है। इस चक्रकाव्य में जिन प्रक्षरों के आगे १ से १२ तक के अंकों का न्यास किया गया है, उसकी परिपाटी निम्नांकित है : प्रारम्भ में श्लोक के प्रथम द्वितीय तृतीय चरण का ७वां अक्षर ग्रहण किया जाता है, पश्चात् क्रमशः १३वां अक्षर ग्रहण किया जाता है । पुनः उक्त तीनों चरणों के क्रमश: ३रा और १७वां अक्षर ग्रहण किया जाता है । उक्त रीति से ग्रक्षरों को ग्रहण करने पर कर्त्ता का नाम स्पष्ट होता है । उदाहरणार्थं चित्रकूटीय वीर चैत्य प्रशस्ति का ७६ वां पद्य देखें। इसमें श्लोक का ७वां प्रक्षर 'जिन व' १३वां अक्षर 'ल्ल भग' ३रा प्रक्षर 'णे वं च' प्रोर १७ वां अक्षर 'न मि दं' है । इन अक्षरों को संयुक्त करके पढ़ने पर 'जिनवल्लभगणेर्वचनमिदं कर्त्ता का नाम पढ़ा जाता है । २. चित्रकूटीय वीरचत्य प्रशस्ति, पद्म ७६ चित्र सं० १७. षडारक चक्रबन्ध - ७ १ ૪ १० बिभ्राणेन मति जिनेषु बलवल्लग्नेन जैनक्रमे, ८ २ ५ ११ सत्सर्वज्ञमतेन पूतवचसा भद्रावलीमिच्छुना । वल्लभ-भारती ] ε ३ हित्वा च पावत्र वचने रन्तव्यं विधिना सदा स्वहितदे ३. धर्मशिक्षा प्रकररण, पद्य १ र ४० चित्र सं० २३. षडारकचक्रबन्ध ६ १२ गर्हा प्रमादं दरं, मेधाविना सादरं ।। ७६ ।। 'जिनवल्लभ गणेर्वचनमिदं' ७ १० = नवा भक्तिनतांगको हमभयं नष्टाभिमान, २ ५ ११ विज्ञ वद्धि शोरिणमक्रमनखं वर्ण्य सतामिष्टदं । ६ १२ विद्याच विभु ं जिनेन्द्रमसकृल्लब्धास्य पादं भवे, बेद्य ं ज्ञानवतां विमर्शविशदं धर्म्य पदं प्रस्तुवे ||१|| 'गरिणजिनवल्लभवचनमिदं' € ३ ४ [ ६ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. お 1. चित्र सं० १८, षडारक चक्रबन्ध ७ शिक्षा भव्यनृणां गणाय मयकाऽनर्थ प्रदैनस्तरु, 5 २ ५ ११ दग्धुं वह्निरभाणि येयमनया वर्तेति योऽमत्सरः । ε ३ ६ १२. नम्यं चक्रभृतां जिनत्वमपि सल्लब्धा पादः परं, तासौ शिवसुन्दरीस्तनतटे रुन्द्रे नरः सादरं ||४०| ४. सङ्घपट्टक पद्य ३८ चित्र सं० २४ षडारक चक्रबन्ध ७. १० ४ विभ्राजिष्णुमगर्वमस्मरमनाशाद श्र, तोल्लङ्घने, १.१ ५ ४ ] ""गणिजिनवल्लभवचनमदः' २ ८ सज्ज्ञानद्य मरिंग जिनं वरवपुः श्रीचन्द्रिकाभेश्वरं । ३ ε १२ ६ वन्दे वर्ण्यमनेकधा सुरनरैः शक्रेण चैनच्छिदं दम्भारि विदुषां सदा सुवचसानेकांतरंगप्रदं ॥ ३८ ॥ 'जिनवल्लभेन गरिणनेदं चक्रे ' चित्र सं० १७, २३ और १८ में अंक स्थापन परिपाटी एक समान है किन्तु इसमें भिन्नता प्रतीत होती है । पूर्वोक्त तीनों चित्रों में ७, १३, ३ और १७वां अक्षर ग्रहण किया गया है, जबकि इसमें विपरीतगति से ३, १७, ७, और १३वां अक्षर ग्रहण किया गया है । ५. स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र (चक्राष्टक ) - इस स्तोत्र के पाठों ही पद्य षडारक चक्रबन्ध काव्य में गुफित हैं । यहां केवल प्रथम श्रौर अन्तिम आठवें पद्य के ही चित्र दिये गये हैं । चित्र सं० २६ षडारकचक्रबन्ध चित्र सं० ३०, षडारकचक्रबन्ध चक्रे यस्य नतिः सदा किल सुरैः दृष्टा प्रभावं क्रमरत्नांभीतमनुद्यवंत लघु यः शक्रालिरानच्च यं । यद्वालम्यमकर्मशर्मलयदं बंधन्तुराजी स्तुतं, तं भक्या बत वीरमक्षयरमामंत्री नयंतं नतं ॥ १ ॥ इसमें प्रङ्क-स्थापन परिपाटी द्वारा कर्ता का नाम नहीं दिया गया है। १ ७ ४ भद्राणि प्रवियोजितान्यनुभवाल्लग्नोस्म्यंसारक्रमे, ५ २ ५ शब्दो नापि शुभो न वा तनुमुखं भक्त स्वराज्यान्वितं । ६ ३ दृष्टिं दो वदेव मामनुततो गच्छस्वमेतत्पदे, देहे स्तम्भनकेश पार्श्व दृशं मे स्वे हितां तं वदे ॥ व । 'जिनवल्लभ गरिना' [ वल्लभ-भारती Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६. प्रश्नोत्तरं कषष्टिशत काव्य - यह प्रश्नोत्तर काव्य प्रहेलिकामय है । इस प्रश्नोत्तर काव्य के २८ प्रश्नों के उत्तर कवि ने चित्र काव्यों में दिये है। इन २८ उत्तरों का परिचय चित्रानुक्रम से इस प्रकार हैचित्र सं० २. मन्यानान्तर जाति का चित्र है। श्लोक ७४ का उत्तर 'शाटकी, कीटशा, कंटक, कटकं, शार्क, कीकट' चित्र सं० ३. मन्थानजाति, श्लोक १३९ का उत्तर 'साम घारि मा स्ववा, वात्वमारियाम सा नेह गरिमोचतां तां धमोरिगहने' 1 चित्र सं० ४. मन्यानान्तर जाति, श्लोक १५४ का उत्तर 'से तप, पतसे, सेतवें, वेतसे' चित्र सं० ५. मन्थान जाति, श्लोक १५२ का उत्तर 'हालिक, कलिहा, नालिके, केलिना, नाककेलिहा' चित्र सं० १०. मन्यानजाति, श्लोक ६१ का उत्तर ' सारतादिना, नादितारसा, यामतागवि, विगतामया' चित्र सं० १२. खलाजाति, श्लोक ६ का उत्तर'वीराशा विनुदति पापम् चित्र सं० १३. श्रृंखलाजाति, श्लोक ६३ का उत्तर'सा रामा रमयते मनो नः' चित्र सं० १४. खलाजाति, श्लोक ७१ का उत्तर'भामारत सानतेमनसि ' चित्र सं० १५. मन्यानजाति, श्लोक १३० का उत्तर 'वागत्वरीमरक, करमरीत्वगता, सारतरीपरमा, मारपरीतरसा' चित्र सं० १६. मन्थानजाति, श्लोक १० का उत्तर 'यानतामस, समतानया, विभुता सदा, दासता भुवि' चित्र सं० १६. अष्टदल कमल व्यस्त जाति के चित्र में श्लोक ४७ का उत्तर 'हासुस्तीसायताक्षीरे' चित्र सं० २०. विपरीत प्रष्टदलकमल चित्र में श्लोक २० का उत्तर 'विगतजलदपटलम्' चित्र सं० २१. अष्टदलकमल चित्र में श्लोक १४ का उत्तर 'अस्नातास्त्रीमङ्गलेप्सुना' चित्र सं० २२. अष्टदलकमल चित्र में श्लोक ३६ का उत्तर'हवा संस्तरं सारयेत ' चित्र सं० २५. विपरीत षोडशदल कमल चित्र में श्लोक ५६ का उत्तर'कजाक्षी वाचाऽस्मानहह सहसाऽशुभदरे' चित्र सं० २६. विपरीत पोडशदल कमल चित्र में श्लोक ७८ का उत्तर'तरलनयना मामत्रेयं स्मितास्थामितीयते' चित्र [सं० २७. द्वादशपत्र पद्म चित्र में श्लोक ४२ का उत्तर 'हले वर्षत्यायस्तेम्भोदेहारस्तीत ' ★ बल्लभ-भारती 1 1.[x Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र सं० २८. विपरीत अष्टदल कमल चित्र में श्लोक ११८ का उत्तर ___ 'अवलोकनकुतूहले' चित्र सं० ३१. पद्मान्तर जाति चित्र में पद्य १४५ का उत्तर-- 'तामस, समता, सारस, सरसा, साहस, सहसा, मारस, सरमा, समरहर, तासासामास' चित्र सं०३२. पप जाति चित्र में पद्य २६ का उत्तर 'विप्र, विधा, विना, विग्रा, विप्रधानाना' । चित्र सं० ३३. पद्मान्तर-जाति चित्र में श्लोक १४७ का उत्तर 'कलमे, मेलम, करता, तारक, कवसे, सेवक, कराव, वराक, कलरवरामे, तासेवक' चित्र सं० ३४. मन्थानान्तर जाति चित्र में श्लोक ३२ का उत्तर ___'मनसा, विनता' चित्र सं० ३६. मन्यान जाति चित्र में पद्य १४५ का उत्तर 'तामस, समता, सारस, सरसा, साहस, सहसा, मारस, सरमा, समरहर, तासासामास' पद्य १४५ का उत्तर कवि ने चित्र सं० ३१ और ३७ में भिन्न-भिन्न जाति के चित्रों में दिया है। चित्र सं०३८. मन्थानान्तर जाति चित्र में श्लोक १२ का उत्तर __'ना युवा, वायुना, जायुपा, पायुजा' चित्र सं० ३६. मन्थानान्तर जाति चित्र में पद्य ६६ का उत्तर-... 'नालिन, नलिना, मालिनी, नीलिमा, नामानि, इनं, प्रालि' चित्र सं० ४०. मन्थानान्तर जाति चित्र में श्लोक १४३ का उत्तर 'कालिदासकविना, नाविकसदालिका, तामरसविदम, मदविसरमता, सरकविदामविदलिता नाम का' चित्र सं.४१. मन्थान जाति चित्र में पद्य १३३ का उत्तर 'ये रता जिनमते, तेमनजितारये, लेखराजिमासन, नसमाजिराखले' चित्र सं० ४२. मन्थान जाति चित्र में श्लोक १३२ का उत्तर-- 'मायानमदनदा, दानदमनयामा, हारदामकाम्यया, याम्यकामदारहा' Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची प्रध्याय: १. पूर्वाभास और गुरु-परम्परा पृष्ठ १-३६ पूर्वाभास १, तत्कालीन राजनैतिक अवस्था २- १०, सामाजिक अवस्था १० - १४. धार्मिक अवस्था १४ - १५, चैत्यबास १६-१८, गुरु-परम्परा - आचार्य वर्धमानसूरि १८ - १६, आचार्य जिनेश्वर और पाटण शास्त्रार्थ - बिजय २०-२५ खरतर - विरुद प्राप्ति २५ - २८, आचार्य जिनेश्वर की साहित्य सर्जना और शिष्य परिवार २६-३०, आचार्य अभयदेवसूरि ३० - ३५, आचार्य जिनवल्लभसूरि ३५-३६ अध्याय : २. कवि का जीवन-वृत्त श्रौर देन ३७-६१ आचार्य जिनवल्लभसूरि का जीवन-वृत्त ३७-३६, बाल्यकाल और दीक्षा ३६, विद्याभ्यास ३९ - ४०, अभयदेवसूरि से विद्याध्ययन ४०-४२, चैत्यवास त्याग और उपसम्पदा ग्रहण ४२-४४, चित्रकूट गमन ४४-४५, गणिजी के चमत्कार ४५-४६ षट् कल्याणक प्ररूपणा और विधि चैत्यों की स्थापना ४६ - ४६, षड्यंत्र का भण्डाफोड़ ४६ - ५०, प्रतिबोध और प्रतिष्ठायें ५० - ५१, प्रवचन शक्ति ५१, समस्या-पूर्ति ५१ - ५३, आचार्यपद और स्वर्गवास ५३-५४, शिष्य परम्परा ५५-५८, विधिपक्ष ५८- ६१, अध्याय : ३. विरोधियों के असफल प्रयत्न ६२--८४ उपसम्पदा ६२-६५, षट् कल्याणक ६५-७६, संघ - बहिष्कृत ७६ - ७८, उत्सूत्र- प्ररूपक ७- ८१, पिण्डविशुद्धिकार ६१-६४ अध्याय : ४. ग्रन्थों का परिचय तथा वैशिष्ट्य ८२-१२४ ग्रन्थरचना ८५-८७, सूक्ष्मार्थ- विचार - सारोद्धार प्रकरण ८७-८८, आगमिक वस्तुविचारसार प्रकरण ८८ - ८६, पिण्डविशुद्धि प्रकरण ८६ - ६१, सर्वजीवशरीरावगाहना स्तव १-२ श्रावकव्रत कुलक ६२-६३, पौषधविधि प्रकरण ९३-९४, प्रतिक्रमण समाचारी ε४-९५, द्वादशकुलक ε५- ६८, धर्मशिक्षा प्रकरण ६८, सङ्घपट्टक ६८-६६, स्वप्न - सप्तति - १०२, अष्टसप्तति : चित्रकूटीय वीरचैत्य प्रशस्ति १०२ - १०४ शृङ्गारशतम् १०५, चरित्र- षट्क १०५ - ११२, चतुर्विंशति - जिन स्तोत्राणि ११२ - ११४, चतुविंशति- जिन-स्तुतयः ११४ - ११५, सर्व जिन पञ्च कल्याणक स्तोत्र ११५-११६. सर्व जिन पञ्च कल्याणक स्तोत्र ११६, प्रथम जिन स्तत्र ११६, लघु अजित - शान्ति-स्तव ११६, क्षुद्रोपद्रवहर पार्श्वनाथ स्तोत्र, स्तंभन पार्श्वनाथ स्तोत एवं महावीर विज्ञप्तिका ११६ - १२०, महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञ - विज्ञप्तिका १२०, नंदीश्वर चैत्य स्तव १२०-१२१, भावारिवारण स्तोत्र १२१, पंच कल्याणक स्तोत्र १२२, कल्याणक स्तोत्र १२२, अष्ट स्तोत्र १२२ - १२३, भारती स्तोत्र १२३, नवकार स्तोत्र १२३ - १२४ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय: ५. कवि-प्रतिभा १२५-१३६ कवि प्रतिभा १२५, काव्यशैली १२५-१२६, प्रश्नोतरेकषष्टिशतं १२६-१२८, शृंगारशतम् १२८-१३३, स्तोत्र-साहित्य १३३-१३६ ।। अध्याय : ६. जिनवल्लभ की साहित्य-परम्परा १३७-१८४ .. टीकाग्रन्थ और टीकाकार १३७, ग्रन्थों पर टीकायें १३७-१४१, टीकाकारों का परिचय-मुनिचन्द्रसूरि १४१-१४३, रामदेव गणि १४३-१४४, धनेश्वरसूरि १४४-१४६, मलयगिरि १४६-१४७,, हरिभद्रसूरि १४७-१४८, यशोभद्रसूरि १४८-१४६, श्रीचन्द्रसूरि १४६-१५१, यशोदेवसूरि १५१-१५२, उदयसिंहसूरि १५२-१५३, संवेगदेव गणि १५३, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि १५४-१५५, वाचनाचार्य विमलकीर्ति १५५-१५६, जिनपालोपाध्याय १५६-१५६, युगप्रवरागम जिनपतिसूरि १५९-१६१, हर्षराजोपाध्याय १६१-१६२, लक्ष्मीसेन १६२-१६३, महोपाध्याय साधुकीर्ति १६३, उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ १६३-१६४, महोपाध्याय पुण्यसागर १६४-१६६, उपाध्याय साधुसोम १६६-१६७, वाचक कनकसोम १६७-१६८, कमलकीर्ति १६८, उपाध्याय समयसुन्दर १६६-१६६, विमलरत्न १६९, वाचनाचार्य धर्मतिलक १६६-१७०, उपाध्याय गुणविन्य १७०-१७२, उपाध्याय देवचन्द्र १७२-१७३, उपाध्याय जयसागर १७३-१७४, वाचनाचार्य चारित्रवर्धन १७४-१८१, उपाध्याय मेरुसुन्दर १८१-१८२, सैमसुन्दर १८२, उपाध्याय पनराज १८२-१८३, उपसंहार १८४. . परिशिष्ट : १. युगप्रधान जिनदत्तसूरि रचित जिनवल्लभसूरि-गुणवर्णन १-७ . .. २. नेमिचन्द्र भण्डारी विरचित जिनवल्लभसूरि गुरु-गुणवर्णन ८-१० ..... ३. जिनवल्लभसूरि-स्तुत्यात्मक-पद्याः । ११-१६ सहायक ग्रन्थों की तालिका २०-२३ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारानरेश नरवर्मा को आशीर्वाद देते हुए युगप्रवर श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज Ka Page #35 --------------------------------------------------------------------------  Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लभ-भारती Page #37 --------------------------------------------------------------------------  Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय:१ पूर्वाभास और गुरु-परम्परा प्रस्तुत ग्रन्थ में खरतरगच्छ के एक प्रमुख आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि के ४४ ग्रन्थों . का संग्रह एवं अध्ययन किया गया है। इन ग्रन्थों की विशेषताओं के विषय में कुछ भी कहने से पूर्व आचार्य के जीवन तथा उनके महत्वपूर्ण कार्यों को जान लेना तथा ऐतिहासिक दृष्टि से आचार्य की जो देन समाज को प्राप्त हुई उस पर विचार कर लेना आवश्यक है। किसी भी व्यक्ति के जीवन का मूल्य आंकने के लिए उसके आस-पास की परिस्थितियों को तथा तत्कालीन सामाजिक शक्तियों को जान लेना आवश्यक है। क्योंकि जहां यह ठीक है कि व्यक्ति अपनी कुछ सहज प्रतिभा तथा शक्ति को लेकर जन्म ग्रहण करता है वहां यह भी सच है कि व्यक्ति की प्रतिभा और शक्ति तत्कालीन परिस्थितियों से मर्यादित और प्रभावित होकर अभिव्यक्त होती है। कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो समाज के अन्ध-भक्त न होकर उलटे उसको अपने पद-चिन्हों पर चलाया करते हैं और सच पूछिये तो आचार्य जिनवल्लभ ऐसे ही महापुरुषों में से एक थे। परन्तु यह सब होते हुए भी आचार्य उस युग की आवश्यकता के अनुरूप उत्पन्न हुए थे और उसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए सफल प्रयत्न के कारण वे जैन-धर्म के इतिहास में अपना एक निश्चित स्थान बना गये। इसलिए उनके जीवन पर कोई भी विचार तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक अवस्था के स्वरूप को भलीभांति न समझ लिया जाय। वल्लभ-भारती] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन राजनैतिक अवस्था यों तो सातवीं शती के चतुर्थ चरण से ही भारत के पश्चिमी सीमान्त पर यवनों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये थे और सिन्ध प्रदेश पर अरबों का आधिपत्य भी हो गया, पर दशमी शती के अन्त तक इन आक्रमणों की संख्या में वृद्धि हो गई। सिन्ध से पूर्व की ओर वढ़ने में थार की मरुभूमि ने उनकी महत्वाकांक्षा और शक्ति को निरुद्ध कर दिया था, इसलिए अब इन नवीन आक्रमणों का लक्ष्य पंजाब प्रान्त बना । पंजाब की भूमि उर्वर थी और वहां के लोग थे भी समृद्ध । यह कहना असंगत न होगा कि उस समय तक यवन आक्रान्ताओं का उद्देश्य विधर्मियों के धार्मिक स्थानों को तोड़ना व उनको लूट कर लूट के माल से अपने निवास स्थान को समृद्ध करना था। भारत की उत्तरी पश्चिमी सीमा के प्रहरी पंचनद (पंजाब) क्षेत्र में उनको अपनी उद्देश्य-पूर्ति के लिए पर्याप्त अवसर था। भारत पर अरबों का प्रारम्भिक आक्रमण सिन्ध विजय को एक परिणाम शून्य विजय कहा गया है।' दशम शती के ये आक्रमण भी परिणाम शून्य कहे जायं तो अत्युक्ति न होगी। हां, अब ये आक्रमण समृद्ध भागपर हो रहे थे और इस कारण आक्रान्ताओं को यथेष्ट धन लूट में मिल जाता था। प्रारम्भिक आक्रमणों के समय अरबों ने भारतीय ज्ञान-विज्ञान को ग्रहण किया था, जिनके माध्यम से यूरोप में इनका प्रचार हुआ। किन्तु दशम शती तक आते २ इन आक्रमणों का ऐसा भी कोई उद्देश्य न रहा। इस दृष्टि से इन आक्रमणों को एक सशक्त डाकेजनी के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। दशमशती में खलीफाओं की केन्द्रीय शक्ति के निर्बल हो जाने पर गजनी में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना हो गई। गजनी भारत के अति निकट था इसलिए शीघ्र ही यह भारत पर आक्रमण का केन्द्र बन गया। ९७७ ई० में गजनी का शासन सुबुक्तगीन के हाथ में आया। उसने शीघ्र ही भारत पर आक्रमण करना प्रारम्भ किया। भारत पर होने वाले यवनों के आक्रमणों में सुबुक्तगीन व उसके उत्तराधिकारी महमूद के आक्रमण अधिक महत्व रखते हैं। सुबुक्तगीन का संघर्ष कई बार सीमा प्रान्त के शाहीवंशी शासक जयपाल से हुआ। यद्यपि जयपाल सुबुक्तगीन को हरा न सका तो भी उसने विश्वासी सैनिक की भांति भारत के उत्तरी पश्चिमी सिंहद्वार की अर्गला की शक्ति रहते रक्षा की। सुबुक्तगीन विजय पाकर भी आगे न बढ़ सका। । सुबुक्तगीन के उत्तराधिकारी महमूद ने १००० ई० से १०२६ ई. तक भारत पर १७ आक्रमण किये और अतुल धनराशि लूट कर अपने साथ गजनी ले गया। महमूद से हारकर जयपाल ने ग्लानि से चितारोहण किया। जयपाल का पुत्र आनन्दपाल भी उसी के समान १. भारत का इतिहास : डॉ. ईश्वरीप्रसाद । २. भारत का इतिहास : डॉ. ईश्वरीप्रसाद। [वल्लभ-भारती Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाभिमानी था। उसने एक सशक्त संगठन करके महमूद को रोकना चाहा। धनी-निर्धन सभी ने आनन्दपाल की सहायता के लिए द्रव्य दिया। महमद आनन्दपाल से आतंकित था किन्त दुर्भाग्यवश आनन्दपाल का हाथी भाग जाने से महमुद को विजय हाथ लगी। उसने ज्वालामुखी के मन्दिर को लूटा। उसके अन्य आक्रमणों में १०२६ ई० का सोमनाथ का आक्रमण प्रसिद्ध है। प्रत्येक बार महमूद को लूट में अतुल सम्पत्ति मिली । वह स्वयं धर्म-युद्ध के नाम पर प्रतिवर्ष भारत पर आक्रमण करता था; किन्तु उसके आक्रमणों के मूल में धनेप्सा ही अधिक दृष्टिगोचर होती है। इस समय तक वह धन के साथ २ राज्य का लोभ भी विस्मरण न कर सका था। पंजाब में उसने अपनी सत्ता स्थापित कर ली किन्तु उसकी मृत्यु के बाद पंजाब पुनः स्वतंत्र हो गया। ११७५ ई० में मुहम्मद गोरी ने गजनी शासन का अन्त कर दिया। इस बीच छुटपुट हमलों के अतिरिक्त कोई बड़ा आक्रमण भारत पर न हुआ। मुहम्मद गोरी ने विशद्ध साम्राज्य-विस्तार की इच्छा से भारत पर आक्रमण किए। उसे गुजरात शासक भीमदेव ने पराजित कर दिया था। अनेक साहसी शूरवीर, युद्धप्रेमी राजपूतों और उनमें श्रेष्ठ पृथ्वीराज चौहान को हराये बिना मुहम्मद गोरी का उद्देश्य पूरा होना संभव न था। राजपूत जीते जी सूच्यग्रभाग के बराबर जमीन भी किसी को देने को तैयार न थे। वे सारे उत्तरी व दक्षिणी भारत में फैले हुए थे। साहस और शौर्य में वे आक्रान्ताओं से कम न थे। हां, वे कभी संगठित होकर शत्रु से न लड़ पाये और शताब्दियों तक संघर्षरत रह कर स्वाधीनता की दीपशिखा को उन्नत व प्रद्योतित रखते हुए भी काल के प्रवाह में उनकी भावना व प्रयत्नों को साफल्य न मिल सका। सारे भारत में स्थापित राजपूत-राज्यों में कुछ अत्यन्त उत्कर्ष को प्राप्त होने के कारण प्रसिद्ध है । जिस समय देश के सीमान्त सिंहद्वारों की अर्गला को विधर्मी आक्रान्ता बार बार खटखटा रहे थे और कभी-कभी भीषण प्रहार से ये द्वार और इनके प्रहरी आघात सहने में असमर्थ हो जाते थे, उस समय नितान्त शान्तिपूर्वक कुछ राज्यों के शासक विद्या और कलाओं की उपासना में रत थे। ऐसे शासकों में गुजरात के सोलंकी-वंशज सिद्धराज जयसिंह, मालवे के परमारवंशी वाक्पतिराज (मुञ्जदेव) व भोज तथा राजपूताने के चौहानवंशी विग्रहराज (वीसलदेव) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । गुजरात के अणहिलपट्टन स्थान पर सोलंकी राज्य की स्थापना मूलराज ने की थी। मूलराज के पुत्र चामुण्डराज ने सिन्धुराज (भोज के पिता) को युद्ध में मारा था। इसलिए सोलकियों और परमारों में आपसी शत्रुता हो गई। फलस्वरूप मालवा और गुजरात में बराबर युद्ध होते रहे। चामुण्डराज के बाद उसके दो पुत्रों वल्लभराज और दुर्लभराज ने गुजरात पर शासन किया। दुर्लभराज का विवाह नाडोल के चौहान राजा महेन्द्र की बहिन दुर्लभदेवी से हुआ था। १०२१ ई० में उसकी मृत्यु के बाद उसके छोटे भाई नागराज १. भारत का इतिहास : डॉ. ईश्वरीप्रसाद व राजपूताने का इतिहास प्र० भा०, गौ० ह० प्रोझा कृत । २. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास : मो. द. देशाई, व मोझाजी कृत राजपूताने का इतिहास बल्लभ-भारती] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पुत्र भीमदेव पाटन का शासक हुआ। भीमदेव के मंत्री विमलशाह ने १०३१ ई० में आबू के निकट देलवाड़े के प्रसिद्ध मन्दिर को बनाया था, जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि कला दृष्टि से उसकी समता करने वाली कृति भारत में अन्य नहीं है ।' महमूद गजनवी ने सन् १०२५ ई० में सोमनाथ पर आक्रमण किया था। उसका प्रतिरोध करने में अपने आपको असमर्थ पाकर भीमदेव ने कंथकोट के किले में शरण ली। वापस लौटते समय भीमदेव की सैनिक टुकड़ियों ने महमूद को रेगिस्तान व कच्छ के दलदल में भटका कर बहुत परेशान किया था, जिसका बदला महमद जीते जी न ले सका । भीमदेव के समकालीन शासक सिन्ध में हम्मुक, मालवे में भोजराज और अजमेर में चौहान राजा वीर्य राम थे । भीमदेव ने हम्मुक को हराया था। इसी बीच मालवा के सेनापति कुलचन्द्र ने पाटण को आकर लूट लिया । भीमदेव ने रुष्ट होकर मालवा पर आक्रमण कर दिया। चेदि का शासक कर्णदेव भी इस समय मालवे की ओर बढ़ रहा था। दोनों ने मिलकर धारानगरी को जीत लिया । इसी समय भोज की मृत्यु आकस्मिक बीमारी से हो गई । * भीमदेव की मृत्यु के बाद सन् १०६३ ई० तक उसके पुत्र व र्ण ने गुजरात पर शासन किया। उसकी प्रशस्ति में बिल्हण पंडित ने कर्ण सुन्दरी नामक नाटिका की रचना की है । ५ कर्णदेव की पत्नी कर्णाटदेशीया राजकुमारी मयणल्लदेवी से सिद्धराज जयसिंह का जन्म हुआ । जिनवल्लभसूरि ने कर्णदेव के समय गणि के रूप में जीवन यापन किया था। ये कूर्च - पुरीय जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । १०६३ ई० में सिद्धराज जयसिंह का राज्यारोहण हुआ । उसके राजत्व काल में जिनवल्लभ की आचार्य एवं ग्रन्थकर्त्ता के रूप में प्रतिष्ठा हुई। सिद्धराज सोलंकियों में सबसे प्रतापी शासक था । उसने १२ वर्ष तक मालवे के राजा नरवर्मा से युद्ध किया और उसके पुत्र 'यशोवर्मा को कैद करके मालवा के राज्य को गुजरात में मिला लिया । चित्तौड़ और बागड पर भी जयसिंह का अधिकार हो गया । उसने महोबा के चन्देल राजा मदनवर्मा पर भी चढाई की थी । गिरनार के खेंगार को भी जयसिंह ने पराजित किया था। अजमेर के चौहान अर्णोराज को जयसिंह की पुत्री कांचनदेवी ब्याही गई थी, ७ जिससे पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर का जन्म हुआ । जयसिंह के दरबार में कई विद्वान् रहते थे, जिनमें आचार्य हेमचन्द्र, श्रीपाल, वर्द्धमान, सागरचन्द्र आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। जयसिंह की के मृत्यु १. प्रभाजी का राजपूताने का इतिहास । २. भारत का इतिहास : डॉ० ईश्वरीप्रसाद ३. इतिहास प्रवेश : जयचन्द्र विद्यालंकार ४. भारत के प्राचीन राजवंश : पं० विश्वेश्वरनाथ रेउ ५. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास : मो० द० देसाई ६. वही । ७. नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग १. पृ० ३९३-३९४ ६] [ वल्लभ-भारती Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I बाद उसका सम्बन्धी कुमारपाल राज्य सिंहासन पर आसीन हुआ । कुमारपाल के बाद सिद्धराज की कीर्ति को अक्षुण्ण रखने वाला कोई शासक पाटन में नहीं हुआ । सोलंकी वंश के शासन को उन्नत बनाने का श्रेय शासकों से अधिक उनके योग्यतम मंत्रियों संपत्कर, विमलशाह, उदयन मेहता, दामोदर मेहता, मुञ्जाल मेहता, वाग्भट्ट, शान्त मेहता आदि को है । ऐतिहासिक का कथन है कि ये तत्कालीन भारत के प्रसिद्धतम राजनीतिज्ञ थे और इनकी समानता प्राचीन भारत के राज्य संस्थापकों चाणक्य और यौगन्धरायण आदि से की जा सकती है। यदि इनको आन्तरिक झगड़ों से अवसर मिलता तो संभवतः ये बाह्य आक्रमणों से देश को त्राण दिलाने का प्रयत्न भी कर पाते । इस समय आबू, किराडू, जालोर, मालवा व बागड़ में परमार वंश के शासक राज्य करते थे । बागड़ के परमारों की राजधानी अर्थ णा या उच्छूणक नगर थी । ये मालवे के परमारों के निकटतम सम्बन्धी थे । सन् १९०० ई० के लगभग चामुण्डराज यहां का शासक था, उसने सिन्धुराज (संभवत: सिन्ध के राजा) और कन्ह के सेनापति को हराया था। चामुण्डराज के पुत्र विजयराज के बाद इस वंश का कोई इतिहास नहीं मिलता । चामुण्डराज और विजयराज का सान्धिविग्रहिक वामन भी अपने समय का प्रसिद्ध राजनीति-विशारद था । १ किराडू का परमार उदयराज सिद्धराज का सामन्त था और सिद्धराज की कई विजयवाहिनियों में उपस्थित था । उदयराज के पुत्र सोमेश्वर ने 'मरुभूमि' के राजा जज्जक पर विजय प्राप्त करके उससे तृणकोट और नवसर के किले छीन लिये थे। आबू के परमारों में धरणीवराह व घून्धूक बड़े वीर हुए। धून्धूक भीमदेव सोलंकी का समकालीन था । आबू के दण्डनायक विमलशाह ने घून्धूक का भीमदेव से मेल करा दिया । उसके उत्तराधिकारी पूर्णपाल और कृष्णराज हुए। कृष्णराज (द्वितीय) भीनमाल, किराडू और वसन्तगढ़ का स्वामी हुआ। उसे भीमदेव ने कैद कर लिया था। बाद में यह भीमदेव का मित्र बन गया । ध्रुवभट, रामपाल आदि उसके उत्तराधिकारी हुए । परमारों की मुख्यशाखा मालवा पर शासन करती थी । चित्तौड़ भी उस समय मालवा के अधिकार में था । इस राज्यवंश के सबसे प्रतापी शासक मुञ्जदेव (वाक्पतिराज) सिन्धुराज और भोज देव थे । मुञ्जदेव ने कर्णाट के राजा तैलप को कई बार परास्त किया था, किन्तु अन्त में उसी के द्वारा कैद होकर मारा भी गया । मुञ्जदेव विद्वानों का आश्रयदाता था । उसकी राज्यसभा में तिलक मंजरी का रचयिता धनपाल, पद्मगुप्त (परिमल), धनजय, धनिक, हलायुध, अमितगति आदि अनेक विद्वान् रहते थे । वह स्वयं विद्वान् था । उसके कुछ श्लोक ही अब तक मिल पाये हैं। मुञ्ज के उत्तराधिकारी सिन्धुराज १. भारत के प्राचीन राजवंश : पं० विश्वेश्वरनाथ रेउ २. किराडू का शिलालेख : प्रोभाजी का राजपूताने का इतिहास पृ० १८३ ३. सोलंकियों का प्राचीन इतिहास : प्र० भा० पृ० ७५-७७ । वल्लभ-भारती ] [ ७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विरुद नवसाहसांक था। उसने बागड़, लाट, दक्षिण कोसल आदि को जीता । इसकी मृत्यु गुजरात के सोलंकी चामुण्डराज के द्वारा युद्ध में हुई ।' भोज उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के समान विद्वान्, रसिक और परोपकारी था। उसने चेदि के राजा गांगेयदेव, भीमदेव व कर्णाटक के राजा जयसिंह (तैलप के पौत्र) को पराजित किया था। प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ कुलचन्द्र उसका मंत्री था। राजा भोज के कई ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। वह स्वयं विद्वान् होने के साथ ही विद्वानों का गुणग्राहक था। वह कवियों को लक्ष-लक्ष रुपये दिया करता था। धनपाल व वेद-भाष्यकार उव्वट उसके सभा-पडित थे। कालिदास नामधारी कोई कवि भी उस समय विद्यमान था जिसका अभी तक कोई ग्रन्थ नहीं मिला है। भीमदेव और चेदि-नरेश कर्ण ने धारानगरी पर आक्रमण किया उसी समय भोज की मृत्यु हुई। भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह, उदयादित्य, लक्ष्मदेव आदि हुए। उदयादित्य ने सांभर के विग्रहराज (तृतीय) की सहायता से अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली और सोलंकी कर्ण को भी पराजित किया। उसने भोज द्वारा बनायी गई "सरस्वती-कण्ठाभरण" पाठशाला को नवीन ढंग से सज्जित किया। उदयादित्य का पुत्र, मध्यभारत की अनेक कहानियों का नायक जगदेव किसी कारणवश सिद्धराज जयसिंह की राज्यसभा में चला गया था। उदयादित्य का छोटा पुत्र नरवर्मा भी बड़ा प्रतापी राजा था। उसने चित्तौड़ पर भी अपना अधिकार कर लिया था और जयसिंह की अनुपस्थिति में पाटण को घेर लिया था। नरवर्मा पर जयसिंह ने आक्रमण किया और उसके पुत्र यशोवर्मा को कैद करके मालवे पर अधिकार कर लिया। कुमारपाल की मृत्यु के बाद मालवे के परमार पुनः स्वतंत्र हो गए। चित्तौड़ के गुहिलवंशी राजा उस समय आघाटपुर में राज्य करते थे। उदयपुर के समीप इसके खंडहर मिलते हैं । ग्यारहवीं शती में अल्लट यहां पर शासन करते थे। अल्लट के पिता भर्तृ भट्ट ने भरतपुर (माहेश्वर) बसाया। अल्लट की रानी हूण राजा की पुत्री हरियदेवी ने हर्षपुर बसाया। भोज और चेदि के कर्ण की मृत्यु के बाद कन्नौज में गहडवाल चन्द्रदेव व उसके वंशजों का राज्य हुआ। सांभर में इस समय चौहान वंश का राज्य था। अर्णोराज चौहान जयसिंह सोलंकी का समकालीन था। उसका पुत्र विग्रहराज भी बड़ा विद्वान् था। उसने हरकेलि और ललितविग्रहराज नाटक पत्थरों पर खुदवाये थे। सोमेश्वर का पुत्र पृथ्वीराज तृतीय चौहान वंश का सबसे प्रतापी और उत्तरी भारत का अन्तिम प्रसिद्ध हिन्दू सम्राट् था।५ १. ना. प्र. पत्रिका भाग १ पृ. १२१ । २. पृथ्वीराजविजय काव्य सर्ग ५ । ३. जिनवल्लभ कृत अष्टसप्ततिका ४. प्रबन्ध-चिन्तामणि पृ. १४२. ४३ व कुमारपालचरित जयसिंहमूरि कृत १ ५. भारत का इतिहास : डा. ईश्वरीप्रसाद [ वल्लभ-भारती Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व में इस समय पाल वंशी नयपाल और उसका पुत्र विग्रहपाल राज्य कर रहे थे। दक्षिण में चोल राजा वीरता और साहस में बढ़े चढ़े थे। इस वंश का राजेन्द्र चोल प्रथम (१०१८ से १०३५ ई०) बहुत बड़ा विजेता था। उसने समुद्र पार के कई द्वीपों को जीत लिया था और बिना किसी प्रतिरोध के उत्तरी भारत में गंगा तक की सैन्य यात्रा की थी।' उक्त ऐतिहासिक तथ्यों से प्रकट है कि यवनों के प्रारम्भिक आक्रमणों के समय भारत में भीमदेव, सिद्धराज जयसिंह, मुज, सिन्धुराज , भोज,कर्ण (चेदि), तैलप, विग्रहराज (वीसलदेव चतुर्थ). पृथ्वीराज चौहान, राजेन्द्र चोल आदि अनेक योग्य शासक हुए थे। उनके मंत्री तत्कालीन भारत के योग्यतम राजनीतिज्ञ थे। यदि वे विदेशी आक्रान्ताओं के सम्मुख एक होकर प्रतिरोध करने को तैयार हो जाते तो कदाचित् भारत को दासता की दुर्भाग्यशाली सहस्राब्दि का दुर्दर्शन न करना पड़ता। उनके बीच कोई गंभीर मतभेद भी न थे जो आसानी से दूर नहीं किये जा सकते हों। उनमें से कई ने कलाओं को संरक्षण देकर उनकी उन्नति में जो अपूर्व कार्य कर दिखाया उससे उन शासकों व उनके सामन्तों का बुद्धिकौशल भी प्रगट होता है। फिर भी छोटी-छोटी बातों के लिए उन्होंने युद्ध किया और अपनी शक्ति को इतना श्रान्त-क्लान्त, छिन्न-विच्छिन्न कर दिया कि उसका फल आगामी पीढियों को एक हजार वर्ष तक भोगना पड़ा। कला व साहित्य के क्षेत्र में जहां हम उनका नाम अत्यन्त आदर के साथ लेते हैं वहां उनके चक्षुहीन कृत्यों के कारण हमें खेद पूर्वक सिर झुका लेना पड़ता है। यह आश्चर्य की बात है 'गुजरात का नाथ' भीमदेव महमूद गजनवी पर पीछे से आक्रमण करे और छोटे २ राजपूताने के शासक उससे जम कर लोहा लें । अजमेर के चौहान वीर्यराम ने महमूद को युद्ध में घायल करके वापस लौटा दिया था। - इन समकालीन शासकों के समय अनेक साहित्यकारों ने अपनी रचनाएं लिखीं। जिनवल्लभसूरि सिद्धराज जयसिंह के समय आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हो गये थे। उनका गुजरात, मेदपाट, अवन्ती, नरवर, नागोर आदि स्थानों से सीधा सम्पर्क था। चित्रकूट (चित्तौड़),धारानगरी, नागौर आदि स्थानों पर उपदेश देकर भक्तों को कृतकार्य किया था।४ आचार्य जिनवल्लभसूरि के ग्रन्थों में कहीं भी प्रत्यक्षतः अथवा अप्रत्यक्षतः यवन आक्रमणों के विषय में उल्लेख नहीं मिलता। इससे प्रकट है कि इन धर्मप्रिय आचार्यों का मन बाह्य संसार से नितान्त निलिप्त था। उन्हें धर्म-सत्य की उपलब्धि हुई थी जिसके सामने यवनों के अत्याचारों का भय नहीं था। भोजराज, सिद्धराज, विग्रहराज, नरवर्म आदि उदार शासकों का आश्रय अन्य धर्माचार्यों के साथ जैनाचार्यों को भी मिला था। कई आचार्यों को इन शासकों के मान्य १. भारत के प्राचीन राजवंश : विश्वेश्वरनाथ रेउ पृ. ६ २. पृथ्वीराज विजय काव्य । ३. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास : मो० दु० देसाई । ४. वही। वल्लभ-भारती ] [६ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I पंडित होने का अवसर भी मिला था। उनकी धर्म-साधना व धर्मप्रचार कार्य अनवरत रूप से चलता था । योग्य शासकों के उदार शासन में जैन धार्मिक साहित्य की प्रभूत उन्नति हुई । कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य इस संधियुग की - मध्ययुग और प्राचीन युग के मध्य का यह धिग ही था - सर्वमान्य विभूति के रूप में प्रसिद्ध हैं । खरतरगच्छ के आचार्यों में प्रमुख जिनवल्लभसूरि भी इस काल के प्रसिद्ध साहित्यकार थे । सामाजिक अवस्था आचार्य जिनवल्लभ का समय ईसा की ग्यारहवीं शती का अन्तिम व बारहवीं शती का प्रथम चरण । जैसा कि राजनैतिक दशा का वर्णन करते समय बताया जा चुका है। कि बाह्याक्रमणों का भय सर्वदा बने रहने पर भी दक्षिणी राजस्थान, गुजरात, मालवा, कर्णाट आदि प्रदेशों के लोग पूर्ण शान्ति का अनुभव करते थे । आचार्य शंकर ने आठवीं शती में धार्मिक दिग्विजय करके भारत से बौद्धधर्म का उच्छेद कर दिया था। प्राचीन वैदिक धर्म की ओर अनिच्छा पूर्वक आकृष्ट होने वाले सामान्य स्थिति के लोगों को इस समय जैन-धर्माचार्यों की वाणी में अवलम्ब मिला और वे किसी न किसी रूप में उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सके । दक्षिण गुजरात में बौद्धों की वज्रयान शाखा के लोगों ने नवीन तंत्र प्रणाली को विकसित किया था। अभिचार - क्रियाओं द्वारा वे लोगों को आतंकित व प्रभावित करते थे । इनके प्रभाव के कारण जन-साधारण में यहां तक कि जैन धर्मावलम्बियों में भी शिवपूजा का प्रचार बढता जा रहा था। इस काल के बने हुए हजारों शिव मंदिर इस क्षेत्र में मिले हैं। विदेशी क्षत्रप और महाक्षत्रपों ने शिवपूजा का प्रचार सबसे पहले किया था । " दशमशती के पूर्व ही ब्राह्मण वर्ण का सम्मान कम होना प्रारम्भ हो गया था । २ केवल ब्राह्मण होने के कारण इस समय सम्मान मिलना कठिन था। हां, विद्वान् ब्राह्मणों का आदर अब भी होता था। कई शासकों ने ब्राह्मणों को गांव दान में दिये थे। ये दान-पत्र उन शासकों की उदारता को तो प्रकट करते ही हैं साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं को जानने के भी एकमात्र उपलब्ध प्रमाण हैं । मुञ्ज, भोज, सिद्धराज, कुमारपाल आदि विद्वानो के आश्रय दाता थे। यह प्रसिद्ध है कि धारानगरी में जुलाहे तक कविता करते थे । एक जुलाहे का यह श्लोक प्रसिद्ध है :काव्यं करोमि न हि चारुतरं करोमि यत्नात् करोमि यदि चारतरं करोमि १. भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का इतिहास : लूनिया २ . वही : ३. भारत के प्राचीन राजवंश में भोज, मुञ्ज, सिद्धराज के वर्णन १० ] [ वल्लभ-भारती Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य की ओर लोक-सामान्य की इतनी रुचि होने से प्रकट है कि लोगों की आर्थिक दशा अच्छी थी । विमलशाह ने आबू में देलवाड़े का जैन मन्दिर बनाया था, जिसमें उस समय करोड़ों रुपये खर्च हुए होंगे । पाटण का वैभव सारे भारत में प्रसिद्ध था। पाटण के अतिरिक्त धारानगरी, आघाट नगर, चित्रकूट (चितोड), उज्जयिनी, चन्द्रावती, सोमनाथपुरी उस समय के प्रसिद्ध नगर थे। ये केवल राज्यों के केन्द्र होने से ही समृद्ध नहीं थे, वरन् तत्कालीन भारत के व्यापारिक केन्द्र भी थे। पाटण के वैभव को देख कर मालवा के शासक कई बार उसे लूटने गये थे। इस लोभ के कारण ही मालवा और पाटण में आपस में शत्रुता बनी रही। यह माना जा सकता है कि अच्छी आर्थिक स्थिति वाले लोग ही नगरों में बसते होंगे। भीमदेव, कर्ण आदि के शासन काल में गुजरात के ग्रामीण भीलों व कोलियों ने उपद्रव किए थे। भील लोग जंगलों में यात्रियों को लूट लेते थे। इसका कारण कदाचित् उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी न होना ही होगा। सारा धन नगरों व मंदिरों में एकत्रित हो गया था। यवन आक्रान्ताओं ने मन्दिरों को तोड़ कर अतुल सम्पत्ति प्राप्त की थी। ग्यारहवीं शती में भारतीय समाज में अनेक जातियां उत्पन्न हो गई थी। 'ब्राह्मण, क्षत्रिय (कई शाखाओं में विभक्त), महाजन, कायस्थ आदि ऊंची जातियों के अतिरिक्त दर्जी, सुनार, लुहार, बढई, कुम्हार, माली, नाई, धोबी, जाट,गूजर, मैर, कोली, बलाई, रंगर, महतर आदि जातियां बन गई थी। इसके पहले जाति-पांति व खान-पान के बन्धन इतने कठोर न थे। राजशेखर की पत्नी चौहान वंश की थी। एक ही व्यक्ति दो अलग जातियों में भी विवाह कर सकता था। परन्तु ग्यारहवीं शती में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जब किसी ब्राह्मण ने इतर जाति में विवाह किया हो । खान-पान के आधार पर ब्राह्मणों के पंच गौड और पंचद्रविड़ भेद इसी समय हो गए थे। जातियों में देश-भेद भी माना जाने लगा था। राजपूतों में जाति-भेद के नियम अब भी ढीले थे । वे दूसरी जाति में विवाह भी कर सकते थे। मीने,. भील, भोगिये, गिरासिये आदि जंगली जातियां थीं। नगर के लोगों का प्रधान व्यवसाय व्यापार तथा गांव के लोगों का खेती व पशुपालन था। गुजरात, मालवा और राजपूताना में शिक्षा का प्रचार राज्य की ओर से होता था। पाणिनीय व्याकरण की दुरूहता को दूर करने के लिये कातन्त्र व्याकरण को रचना हुई थी। प्रादेशिक भाषाओं में उसका प्रचार बढता जा रहा था। शिक्षा प्रणाली प्राचीन थी। वलभी का विश्वविद्यालय इस समय तक नष्ट हो गया था । कुलीन लोगों की भाषा संस्कृत थी। संस्कृत के माध्यम से ही दर्शन, अर्थशास्त्र, वैद्यक आदि की शिक्षा दी जाती थी। प्रादेशिक भाषाओं की शिक्षा भी दी जाती थी। उज्जयिनि मध्यभारत में शिक्षा का केन्द्र था। भोज ने धारानगरी में 'सरस्वती कण्ठाभरण' नामक तथा विग्रहराज चतुर्थ ने अजमेर में शिक्षण संस्था की नींव डाली थी। विद्या निःशुल्क पढ़ाई जाती थी और १. भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का इतिहास : लूनिया २. भारत का इतिहास : ईश्वरीप्रसाद, बल्लभ-भारती] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्धन छात्रों को भोजन, वस्त्र भी मुफ्त मिलता था। कुलीन स्त्रियां भी शिक्षा प्राप्त करती थीं। समाज में स्त्रियों की प्रतिष्ठा यथावत् कायम थी। पाटण में मयणल्लदेवी और कर्णाट में मृणालवती शासन-कार्यों में भी भाग लेती थीं। राजघराने की स्त्रियों को संगीत व नृत्यकला का अभ्यास भी कराया जाता था। वे सवारी व तलवार चलाना सीखती थीं। पर्दा प्रथा न थी। स्वयंवर की प्रथा भी प्रचलित थी। पर अधिकतर विवाह माता-पिता की सम्मति से हो जाते थे। राजकूलों में विवाह का राजनीतिक महत्व भी देखा जाता था। विधवा विवाह का प्रचलन नहीं था। जैनाचार्यों की समाज के सभी वर्गों म अप्रतिहत गति थी। वे सब जगह जाकर सब लोगों को समान रूप से प्रतिबोध दिया करते थे। राज-दरबार से लेकर कर्मियों की झोंपड़ी तक में उनका समान रूप से सम्मान होता था। कई राजाओं ने जैन-धर्म स्वीकार किया था। जाति-भेद की बढ़ती हुई दीवारों को रोकने में इस समय जैनाचार्य सबसे बड़े प्रतिरोधक थे। ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ के अतिरिक्त निम्न जातियां भी जैन-धर्म का अवलम्बन ले रही थी। कई हण, शक आदि विदेशी जातियां भी जैन-धर्म ग्रहण कर चुकी थी। पजाब का शाही वंश भी विदेशी था; परन्तु तत्कालीन भारत की सीमान्त की रक्षा के लिए उसी ने यवनों से टक्कर ली। जैन-धर्म का प्रभाव गुजरात, मालवा, राजस्थान आदि क्षेत्रों में अधिक था। गुजरात में विशेषकर मेहताओं का बड़ा जोर था। . . सामान्य लोग अपने योग्य शासकों के बल पर निर्भय होते हुए भी विदेशी आक्रमणों से बेखबर न थे। वे अपने देश पर अभिमान करते थे। अल्बरुनी का यह कथन इस बात. को प्रमाणित करता है-"हिन्दू ऐसा विश्वास करते हैं कि उनके देश के समान दूसरा देश नहीं, उनके विज्ञान के समान दूसरा विज्ञान नहीं।" अपनी इस राष्ट्रीय-भावना के आधार पर वे देश की रक्षा करने को तत्पर थे। आनन्दपाल ने जब महमद गजनवी का प्रतिरोध करने के लिये राष्ट्रीय संगठन करना चाहा, उस समय धनी-निर्धन सभी ने कुछ न कुछ द्रव्य इस काम के लिये दिया था। यहां तक कि स्त्रियों ने भी अपने आभूषण बेच कर, चर्खा कात कर इस कार्य के लिये द्रव्य जुटाया था। यह ध्यान देने की बात है कि आनन्दपाल स्वयं विदेशी वंश का था। इससे स्पष्टतः प्रकट हो जाता है कि भारतीय-समाज उस समय राष्ट्रीयता की भावना से अपरिचित न था। राजपूत लोग देशभक्ति में सबसे आगे थे। देश के लिये रणक्षेत्र में मर जाना वे सौभाग्य की बात समझते थे। स्त्रियां उन्हें हर्षित होकर युद्ध के लिये भेजती थीं। पति के मरने पर वे सती हो जाती थीं। युद्ध से भाग जाना अत्यन्त निन्दनीय पाप माना जाता था। राजपूत लोग अपना रक्त समाज में सबसे शुद्ध समझते थे । प्रत्येक राजपूत वंश की इसी दृष्टि से किसी देवता या प्रसिद्ध वीर पुरुष से उत्पत्ति खोज ली गई । प्रत्येक उत्कृष्ट काम को करने के लिये राजपूत सदा तैयार रहते थे। स्वामिभक्ति, शरणागत-वत्सलता, स्त्री-सम्मान और वचन पालन करने में राजपूत अद्वितीय थे। कभी-कभी तो वे इन कार्यों १. भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का इतिहास : लूनिया १२ ] [ वल्लभ-भारती Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिये अपने प्राणों की बाजी भी लगा देते थे। राजपूत स्त्रियों में भी पति-भक्ति, सत्यनिष्ठा और साहस के गुण चरम उत्कर्ष को प्राप्त हुए थे। वे शत्रु से युद्ध करने के लिये युद्ध-क्षेत्र में भी जाती थीं। सतीत्व की रक्षा के लिये वे अपने शरीर को भी अग्नि को अर्पित कर देती थीं। इस काल की प्रकाण्ड विदुषी राजशेखर की पत्नी अवन्तीसुन्दरी चौहान वंश की कुमारी थी। राजपूत स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार अन्य वर्गो से अधिक था। उनको चित्रकला, संगीत, नृत्य के साथ शस्त्रचालन व घुड़सवारी की शिक्षा भी मिलती थी। कुछ स्त्रियों ने इस काल में शासन-व्यवस्था और युद्ध-कार्य में भी अपना कौशल प्रकट किया है। दक्षिण में सोलंकी विक्रमादित्य की बहिन अक्कादेवी ने चार प्रदेशों पर बड़ी कुशलतापूर्वक शासन किया था। उसने बेलगांव के गोकागे किले को भी घेरा था। गुजरात में मयणल्लदेवी भी शासन-कार्यों में भाग लेती थी। राजपूतों की देखादेखी अन्य लोगों में भी बालविवाह की प्रथा का प्रसार हो रहा था। अपने प्रभाव और सत्ता के कारण राजपूत-वर्ग समाज का प्रमुख वर्ग बन गया था। उनमें मदिरा सेवन, मिथ्याभिमान आदि दुर्गुण भी उत्पन्न हो गए थे। प्राचीन परिषदों की प्रथा को मिटा कर वे निरंकुश शासक बन चुके थे। राजपूतों में कन्याहनन जैसे जघन्य कार्य भी होते थे। फिर भी प्रेम और शौर्य में राजपूतों की समता करने वाला कोई नहीं था। राजपूतों के बढ़ते हुए प्रभाव से घबरा कर ब्राह्मणों ने सामाजिक-बन्धन कठोर कर दिये । शिल्पिसंघ अलग-अलग जातियों के रूप में परिणत हो गए। जातियों का विभाजन सामाजिक दृष्टि से राष्ट्रीय पतन का कारण बन गया। जातीय हितों के सामने राष्ट्रीयता गौण होती चली गई। जातियों की सीमाए दुर्लध्य हो जाने से भारतीय समाज का वह महान् गुण नष्ट हो गया जिससे वह विदेशी जातियों को अपने में पचाने में समर्थ हुआ था। समाज की इस पाचन-शक्ति के अभाव ने भारत देश को सबसे अधिक हानि पहुँचाई है। इतना होते हुए भी कर्म-स्वातंत्र्य , अब तक बना हुआ था। हां, शिल्पों पर एक मात्र शूद्रों का अधिकार होता जा रहा था। खान-पान में लोग अब भी अहिंसक-सिद्धान्तों से प्रभावित थे। मांस का प्रयोग कम होता था। राजपत लोग शिकार करते और मांस खाते थे। मदिरा सेवन भी राज में अधिक प्रचलित था। उनमें अफोम खाने का दुर्व्यसन भी बढ़ रहा था। कुलीन लोग ताम्बूल भक्षण करते थे। धूम्रपान का प्रचलन नहीं हुआ था। इस काल के समाज के निम्नवर्गों के विषय में बहुत ही कम जानकारी मिलती है। इतना कहा जा सकता है कि वे अपने में सन्तुष्ट थे। खेती,पशुपालन और आखेट से वे अपनी आजीविका चला लेते थे। इससे अधिक जीवन में वे कुछ इच्छा नहीं रखते थे। कभी-कभी वे सेना में भी भरती हो जाते थे। गुजरात में समुद्रतट पर कुछ मुसलमान लोग भी आ बसे थे । राज्य की ओर से उन्हें संरक्षण और धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की गई थी परन्तु वे हिन्दू-समाज पर किसी प्रकार के प्रभाव की स्थापना नहीं कर पाये थे। संक्षेप में कहा जा सकता है कि ईसा की ग्यारहवीं शती तक आते-आते भारतीय समाज की पाचन-शक्ति व आत्मीकरण की प्रवृति नष्ट हो गई। समाज अनेक जातियों वल्लभ-भारती] [ १३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपजातियों में विभक्त था। लोग इहलौकिक जीवन से सन्तुष्ट थे। अन्धविश्वास बढ़ते जा रहे थे। स्त्रियों का सम्मान था फिर भी उनको स्वातंत्र्य न देने व पुरुषों से हीन समझने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी। समाज में अनुदारता, रूढिवादिता, अन्धविश्वास, शिथिलता आदि बढ़ते जा रहे थे। समाज की गतिशीलता नष्ट हो गई थी। मध्य व पश्चिमी भारत में जैन-धर्म का प्रभाव अधिक था। राजपूतों ने धार्मिक स्वतंत्रता की नीति को अपनाया था। उनके संरक्षण में विद्या, साहित्य व कलाओं की उन्नति प्रभूतमात्रा में हुई थी। धार्मिक अवस्था कहा जा चुका है कि ११ वीं शती के समाज की प्रमुख प्रवृत्ति विभिन्नीकरण की थी। जाति-भेद इसी प्रवृत्ति की देन है । धार्मिक क्षेत्र में भी इस प्रवृत्ति का व्यापक प्रभाव पड़ा था। पौराणिक-धर्म के उदय व शंकराचार्य के प्रभाव से बौद्ध-धर्म का भारत से उच्छेद हो गया था। हिन्दू-धर्म ने भगवान् बुद्ध को विष्णु का अवतार मान कर उसका पृथक् अस्तित्व भी समाप्त कर दिया । अनेक सम्प्रदायों की सृष्टि हो रही थी। अधिकांश लोगों द्वारा नवीन सम्प्रदायों में अपना स्थान निश्चित कर लिये जाने पर शेष लोग उपयुक्त मार्गदर्शन के अभाव में अनेक अन्धविश्वासों से ग्रस्त हो गए। इन्हीं लोगों में वज्रयान बौद्ध सम्प्रदाय के तंत्र, मंत्र, पंचमकार सेवन आदि का प्रचार हुआ। इतना अवश्य है कि इस नवीन विचारधारा का सामान्य जीवन से निकट का सम्पर्क रहा, इसलिए आगे चल कर इसी परम्परा में गुरु गोरखनाथ और पीछे से कबीर जसे सुधारक जन्म ले सके। अब तकभिक्षु केवल बौद्ध-सिद्धान्तों के अनुयायी ही हुआ करते थे। अब, भिक्षुकों का अलग वर्ग ही बन गया; जिनका एक भाग किसी भी सिद्धान्त का अनुयायी न होकर केवल समाज का कोढ बन कर पनपने लगा। राजपूतों के उदय से बौद्ध धर्म का रहा सहा रूप भी समाप्त हो गया। केवल पूर्वी बंगाल के पाल शासक अब भी बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान कर रहे थे।' भारत में कुछ समय पहले से पाशुपत सम्प्रदाय अलग रूप से विकसित हो रहा था। तांत्रिकों को इस सम्प्रदाय में अवलम्बन मिला। वे अपवित्र जीवन बिताते. भस्मी रमाते और अद्भुत स्वर का उच्चारण करते थे। इनमें भी कापालिक और कालमुख अधिक उग्र थे। वे कपाल में भोजन करते व मदिरा-मांस का सेवन करते थे। पाशपत सम्प्रदाय का अपेक्षाकृत सौम्यरूप काश्मीर में विकसित हआ था। दक्षिण भारत में वीर शैव या लिंगायत मत का उदय भी इसी समय हुआ था; जिसको चोल तथा पाण्ड्य नरेशों ने आश्रय दिया था। ये लोग वेद को नहीं मानते, जाति-प्रथा का खण्डन करते, विधवा विवाह का समर्थन करते, शिवलिंग का पूजन करते, मृर्दो को गाड़ते, ब्राह्मणों के सर्वोपरि सम्मान, तीर्थ, श्राद्ध आदि का विरोध करते और गुरु की आज्ञा को सर्वोपरि मानते थे। मध्यकाल में सन्तों के सुधार सम्प्रदायों का सही अर्थों में पूर्वज इस मत को माना जा सकता है।' १. भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का इतिहास : लूनिया ___ भारत की संस्कृति का इतिहास : डा० मथुरालाल शर्मा १४] [ वल्लभ-भारती Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिव की पत्नी की शक्ति रूप में उपासना करने वाला एक सम्प्रदाय अलग उठ खड़ा हुआ था। ये लोग कालिका, दुर्गा आदि रूपों में शक्ति की उपासना करते थे राजपूतों में इस उपासना का प्रचलन अधिक हुआ। ये लोग पशु व नरबलि भी देते थे। गुजरात के अन्य भागों में पशु-बलि का प्रचलन अधिक हुआ था। कापालिक लोग भी दक्षिणी राजस्थान, गुजरात और मालवा में अधिक थे। साधारण लोग उनसे आंतकित थे और साथ ही उनके चमत्कारों में आस्था भी प्रकट करते थे। चमत्कार दिखाने वालों को सिद्ध पुरुष माना जाता था। ऐसे लोगों की अलग जाति बन गई थी जिन्हें “नाथ" कहा जाता है । ये लोग शिव और शक्ति की मिली-जुली उपासना करते थे और हिं, द्रु, फट आदि शाबर मन्त्रों में विश्वास करते थे। हिन्दू धर्म ही इस समय सार्वभौतिक प्रभुता प्राप्त करता जा रहा था। उक्त मतों के अतिरिक्त सबसे अधिक लोकप्रिय सम्प्रदाय वैष्णवों का था। ये लोग विष्णु के अनेक अवतारों में विश्वास करते थे। उनकी भक्ति पर जोर देते थे। विष्णु की पूजा का प्रचलन बढ़ जाने पर भी अन्य देवताओं की उपासना सर्वसाधारण लोग बराबर करते जा रहे थे। राम, कृष्ण, बुद्ध, ऋषभदेव आदि को विष्णु के अवतारों के रूप में स्वीकार करके बहुत पहले एक सर्वसम्मत समन्वित धर्म को विकसित करने के प्रयत्न किए गए थे। ऐसा ज्ञात होता है कि जैन लोग इसे स्वीकार करने में हिचकिचाते थे। उनकी सम्मति में यह अर्हत की शिक्षाओं के विपरीत था। आचार-विचार के मामले में वे महावीर के सिद्धान्तों में तनिक भी शिथिलता नहीं आने देना चाहते थे । तत्कालीन जैन-समाज में प्रचलित चैत्यवास प्रथा को निन्दनीय माने जाने का भी यही कारण ज्ञात होता है। - नव वैष्णव-मतवाद के प्रचार में दक्षिण भारत का अधिक योग रहा है । ग्यारहवीं शती के समाप्त होते-होते यमुनाचार्य जी का और श्रीसम्प्रदाय के संस्थापक रामानुज का आविर्भाव दक्षिण में ही हुआ था। कुछ लोग शांकर-मत के अद्वैतवाद से इस्लाम के एकेश्वर. वाद की समता देख कर पीछे से मुसलमान भी होने लगे थे परन्तु ऐसा अधिकतर उत्तर पश्चिम भारत में ही हुआ। मालवा, राजस्थान और गुजरात में जैन मत का प्रचार अधिक हुमा था। जैनमतावलम्बी शासन के उच्च पदों पर काम कर रहे थे। उनके कारण जैनाचार्यों का प्रभाव और भी बढ़ गया था। भोज, विग्रहराज, सिद्धराज आदि उदार शासकों ने जैन धर्म को प्रश्रय देने के साथ ही उन सिद्धांतों में विशेष रुचि दिखाई थी। गुजरात के सोलंकियों का समय जैन-साहित्य का स्वर्णकाल उचित ही माना गया है। स्वयं जिनवल्लभसूरि ने अनेक स्थानों पर जाकर लोगों को प्रबुद्ध किया था। चैत्यवास प्रथा तत्कालीन जैन-समाज की प्रमुख विशेषता है जिसके विषय में विस्तार से प्रकाश डालना युक्तिसंगत होगा। १. भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का इतिहास : लूनिया भारत की संस्कृति का इतिहास : डा० मथुरालाल शर्मा २.. वही । बल्लभ-भारती] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवास तत्कालीन जैन समाज की सबसे बड़ी बात जिसने आचार्य जिनवल्लभ के जीवन की गतिविधि को सबसे अधिक प्रभावित किया,वह थी जैन यतियों की चैत्यवास प्रथा। उस मसय श्वेताम्बर समुदाय के यति लोग जिन-मन्दिरों में रहा करते थे जिनको प्रायः चैत्यगृह कहते थे। साधारणतया जो लोग जैन-धर्म के इतिहास से परिचित नहीं हैं उनकी समझ में यह नही आ सकता कि जिन-मन्दिर में वास करने वाले यतियों को किसी समय भी घृणा की दृष्टि से क्यों देखा गया ? परन्तु यदि वे लोग यतियों के शास्त्र-सम्मत व्रत और आचार को अच्छी प्रकार से समझ लें तो उनका भ्रम दूर हो जाएगा। "जैन-शास्त्रों के विधान के अनुसार जैन यतियों का मुख्य कर्तव्य केवल आत्म-कल्याण करना है और उसके आराधन निमित्त शम, दम, तप आदि दशविध यतिधर्म का सतत पालन करना है । जीवन-यापन के निमित्त जहां कहीं मिल गया वैसा लूखा-सूखा और सो भी शास्त्रोक्त विधि के अनुकूल भिक्षान्न का उपभोग कर, अहर्निश ज्ञान-ध्यान में निमग्न रहना और जो कोई मुमुक्षुजन अपने पास चला आवे उसे एक मात्र मोक्षमार्ग का उपदेश करना है। इसके सिवा यति को न गृहस्थजनों का किसी प्रकार का संसर्ग ही कर्तव्य है और न किसी प्रकार का किसी को उपदेश ही वक्तव्य है। किसी स्थान में बहुत समय तक नियतवासी न बनकर सदैव परिभ्रमण करते रहना और वसति में न रहकर गांव के बाहर जीर्ण-शीर्ण देवकुलों के प्रांगणों में एकान्त निवासी होकर किसी न किसी तरह का सदैव तप करते रहना ही जैन यति का शास्त्र विहित एक मात्र जीवन-क्रम है"। जैन-सूत्रों के अनुसार साधुओं के लिये जिस आचार का विधान है उसके अनुसार जैन साधु को संक्षेप में निम्नलिखित बातों का पालन करना आवश्यक था: १. परिग्रह का अभाव अर्थात् धन, द्रव्य, दास, दासी, चतुष्भद आदि किसी भी _वस्तु का संग्रह न करना। २. एक स्थान पर स्थायी रूप से न रहना । ३. मधुकरी वृत्ति से ४२ दोष रहित भोजन ग्रहण करना। ४. ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना। ५. स्त्री, पशु रहित स्थान में ठहरना। ६. अंगराज, ताम्बूल, तेल, इत्र आदि का प्रयोग न करना। ७. क्रय, विक्रय आदि किसी भी किस्म का व्यापार न करना और न उससे प्राप्त - धन को ही स्वीकार करना। ८. परिमित आहार। ६. क्षमा, लघुता आदि दशविध यति-धर्म का पालन करना। .. १. कथाकोष प्रस्तावना पृ० ३-४. [ वल्लभ-भारती Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवासी लोग इन नियमों की सर्वथा अवहेलना करते थे । इन लोगों के आचार की कडी आलोचना संभवतः सर्वप्रथम हमें आचार्य हरिभद्रसरि कृत संबोधप्रकरण में मिलती है। उक्त आचार्य चैत्यवासियों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि "ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं । पूजा करने का आरम्भ करते हैं । देव द्रव्य का उपभोग करते हैं। जिन मन्दिर और शालायें बनवाते हैं । रंग, विरंगे सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहिनते हैं । बिना नाथ के बैलों के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं । आर्यिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते हैं और तरह तरह के उपकरण रखते हैं। सचित्त जल, फल, फूल आदि द्रव्य का उपभोग करते हैं। दिन में दो-तीन बार भोजन करते और ताम्बूल, लवंगादि भी खाते हैं। ये लोग मुहूर्त निकालते हैं। निमित्त बतलाते हैं तथा भभूत देते हैं । ज्योनारों में मिष्ट आहार प्राप्त करते हैं । आहार के लिये खुशामद करते हैं और पूछने पर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते । स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी आलोचन-प्रायश्चित्त आदि करवाते हैं । स्नान करते, तेल लगाते, शृंगार करते और इत्र फुलेल का उपयोग करते हैं । अपने हीनाचारी मृत गुरुओं की दाहभूमि पर स्तूप बनवाते हैं। स्त्रियों के समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियां उनके गुणों के गीत गाती हैं। सारी रात सोते क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने व्यर्थ बकवाद में समय नष्ट करते हैं। चेला बनाने के लिये छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों को ठगते और जिन प्रतिमाओं का क्रय विक्रय करते हैं । उच्चाटन करते और वैद्यक,मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र, गंडा, ताबीज आदि में कुशल होते हैं। ये सुविहित साधुओं के पास जाते हुए श्रावकों को रोकते हैं । शाप देने का भय दिखाते • हैं । परस्पर विरोध रखते हैं और चेलों के लिये आपस में लड़ पड़ते हैं। चैत्यवास का यह चित्र आठवीं शताब्दी का है। इसके पश्चात् तो चैत्यवासियों का आचार उत्तरोत्तर शिथिल ही होता गया और कालान्तर में चैत्यालय, भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये तथा वे शासन के लिये अभिशाप रूप हो गये । आचार्य जिनवल्लभ के पूर्व चैत्यवासी यतियों की जो अवस्था थी उसके विषय में मुनि जिनविजयजी लिखते हैं : "इनके समय से श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में उन यतिजनों के समूह का प्राबल्य था जो अधिकतर चैत्यों अर्थात् जिन मन्दिरों में निवास करते थे। ये यतिजन जैन देव मन्दिर, जो उस समय चैत्य के नाम से विशेष प्रसिद्ध थे, उन्हीं में अहर्निश रहते, भोजनादि करते, धर्मोपदेश देते, पठन-पाठनादि में प्रवृत्त होते और सोते बैठते । अर्थात् चैत्य ही उनका मठ या वासस्थान था और इसलिये वे चैत्यवासी के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे। इसके साथ उनके आचार विचार भी बहुत से ऐसे शिथिल अथवा भिन्न प्रकार के थे जो जैन-शास्त्रों में वर्णित निर्गन्थ जैन-मुनि के आचारों से असंगत दिखाई देते थे। वे एक तरह से मठपति थे । शास्त्रकार शान्त्याचार्य, महाकवि सूराचार्य, मन्त्रवादी वीराचार्य आदि जैसे प्रभावशाली, प्रतिष्ठा सम्पन्न और विद्वदग्रणी चैत्यवासी यति-जन उस जैन-समाज के धर्माध्यक्षत्व का गौरव प्राप्त कर रहे थे । जैन-समाज के अतिरिक्त आम जनता में और राज-दरबार में १. यु० जिनदत्तसूरि प्र० पृ०८-६ २. कथाकोष प्र० पृ० ३ वल्लभ-भारती] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी इन चैत्यवासी यतिजनों का बहुत बड़ा प्रभाव था। जैन-धर्मशास्त्रों के अतिरिक्त ज्योतिष, वैद्यक और मन्त्र, तन्त्रादि शास्त्रों और उनके व्यावहारिक प्रयोगों के विषय में भी ये जैन यतिगण बहुत विज्ञ और प्रमाणभूत माने जाते थे। धर्माचार्य के खास कार्यों और व्यवसायों के सिवाय ये व्यावहारिक विषयों में भी बहुत कुछ योगदान किया करते थे। जैन गृहस्थों के बच्चों की व्यावहारिक शिक्षा का काम प्रायः इन्हीं यतिजनों के अधीन था और इनकी पाठशालाओं में जैनेतर गणमान्य सेठ साहकारों एवं उच्चकोटि के राज-दरबारी पुरुषों के बच्चे भी बड़ी उत्सुकता पूर्वक शिक्षालाभ प्राप्त किया करते थे। इस प्रकार राजवर्ग और जन समाज में इन चैत्यवासी यतिजनों की बहुत कुछ प्रतिष्ठा जमी हुई थी और सब बातों में इनकी धाक बैठी हुई थी। पर इनका यह सब व्यवहार जैन-शास्त्र की दृष्टि से यतिमार्ग के सर्वथा विपरीत और हीनाचार का पोषक था।" गुरु-परम्परा प्राचार्य वर्धमानसूरि चैत्यवास की इस दुर्दशा को देखकर कई चैत्यवासी यतिजनों के मन में भी क्षोभ उत्पन्न होता था, परन्तु उसका प्रतीकार करने का साहस विरले ही कर सकते थे। ऐसे साहसी और सच्चे यतियों में श्री वर्धमानाचार्य का नाम लिया जा सकता है; जिन्होंने ८४ चैत्य-. स्थानों के अधिकार और वैभव को छोड़ कर सच्चे साधु-जीवन को बिताने का संकल्प किया। प्रभावकचरित में आचार्य वर्धमान के विषय में यह उल्लेख मिलता है : इतः सपादलक्षेऽस्ति, नाम्ना कूर्चपुरं पुरम् । मषीकुर्चकमाधातु, यदलं शास्त्रकानने ॥३१॥ मल्लभूपालपौत्रोऽस्ति, प्राक पोत्रीव धराधरः । श्रीमान् भुवनपालाख्यो, विख्यातः सान्वयाभिधः ॥३२॥ तत्रासीत् प्रशमश्रीभिर्वद्धं मानगुणोदधिः । श्रीवर्धमान इत्याख्यः, सूरिः ससारपारभूः ॥३३॥ चतुभिरधिकाशीतिश्चैत्यानां येन तत्यजे । सिद्धान्ताभ्यासतः सत्यतत्त्वं विज्ञाय संसृतेः ॥३४॥ अन्यथा विहरन् घारापुर्या धाराधरोपमः । मागाद् वागब्रह्मधाराभिर्जनमुज्जीवयन्नयन् ॥३५॥ इस प्रकार पता चलता है कि वर्धमानसूरि स्वयं चैत्यवासी थे, परन्तु उन्हें शास्त्रों के अध्ययन और अभ्यास से आडम्बर पूर्ण चैत्यवासी जीवन के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो गई और चैत्यवासियों के शिथिलाचार तथा भ्रष्टाचार से क्षोभ उत्पन्न हुआ। इसी के फलस्वरूप उन्होंने चैत्यवास को सर्वथा छोड़कर, त्याग और तपस्या के जीवन का संकल्प लेकर जीवन १८] [ वल्लभ-भारती Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यन्त उच्च त्याग का प्रयत्न किया । गणधर-सार्द्ध शतक बृहद्वृत्ति एवं युगप्रधानाचार्य गुवांवली के अनुसार श्री वर्धमानाचार्य अंभोहर प्रदेश के किसी चैत्य से सम्बन्ध रखते थे । कहा जाता है कि वहां जिनचन्द्राचार्य नाम के एक चैत्यवासी साधु थे जो ८४ ठिकानों के नायक थे। इन्हीं के शिष्य वर्धमान थे। "होनहार बिरवान के होत चिकने पात" इस कहावत के अनसार वर्धमान के भावी जीवन के बीज उनके प्रारम्भिक जीवन में ही प्रकट हो गये। घटना इस प्रकार है:-वर्धमान अपने गुरु जिनचन्द्राचार्य से सिद्धान्त-वाचना ले रहे थे । उसमें जिन-मन्दिर के विषय की ८४ आशातनाओं के प्रसंग का वर्णन आया। इनका वर्णन पढ़कर वर्धमान के मन में स्वाभावतः ही इन आशातनाओं को दूर करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हई। इन्हीं के निवारण में ही कल्याण समझ कर उन्होंने अपने गुरु से अपने मन की बात कही। गुरु ने सोचा कि उनके शिष्य के विचार तो चैत्यवास की जड को ही हिला देने वाले हैं और यदि उसकी यही विचारधारा चलती रही तो अपने इस योग्य शिष्य को ही खो बैठेगे । अत. उन्होंने वर्धमान को मोहने के लिये उन्हें आचार्य बनाकर अपना सारा वैभवपूर्ण अधिकार उनको दे डाला । परन्तु सच्चा विराग प्रलोभनों की शृंखलाओं में नहीं बांधा जा सकता । जिनचन्द्राचार्य के सारे प्रयत्न वर्धमान की विराग भावना को कुचलने में असमर्थ रहे और अन्त में उनको विवश हो कर वर्धमान को विदा देनी पड़ी। गुरु की अनुमति लेकर कुछ यतियों के साथ वर्धमान वहां से निकले और दिल्ली पहुंचे। वहां पर उन्हें उद्योतनाचार्य मिले जो सदा ही शास्त्र-सम्मत संयमी-जीवन का पालन करते हुए विचरण किया करते थे । वर्धमान उनके शिष्य बने और उद्योतनाचार्य ने उन्हें योग्य समझ कर आचार्य पद से विभूषित किया। . वर्धमानाचार्य ने यद्यपि स्वयं चैत्यवास त्याग करके त्याग-मय जीवन ग्रहण किया था, परन्तु फिर भी उनके द्वारा चैत्यवास के प्रति किसी व्यापक आन्दोलन का जन्म न हो सका। इस आन्दोलन का सूत्रपात उनके योग्य शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि के हाथों से हुआ। जिनके जीवन के विषय में हमें प्रभावकचरित आदि से पर्याप्त सामग्री मिलती है। १. कहा जाता है कि सूरिमन्त्र प्राप्त करने पर वर्धमानसूरि को यह संकल्प हया कि इस सूरिमन्त्र का अधिष्ठाता कौन है ? यह जानकारी प्राप्त करने के लिये उनने तीन उपवास किये । धरणेन्द्र उपस्थित हुआ और उसने कहा कि मैं इसका अधिष्ठाता है । साथ ही इन्द्र ने इस मन्त्र के प्रत्येक पद का क्या फल है, इसका भी ज्ञान प्राचार्य को करवाया। प्राचार्य को इस मन्त्र का फिर बहुत संस्फुरण होने लगा । अत: वे संस्फूराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हए। (यु० गु०) २. आपके प्रणीत ४ ग्रन्थ प्राप्त होते हैं: १. उपदेशपद टीका. (र० सं० १०५५) २. उपदेशमाला बृहद्वृत्ति ३. उपमितिभवप्रपंचकथा समुच्चय ४. वीरपारणक स्तोत्र गा. ४६ ५. वर्षमानजिनस्तुति गा० ४ (प्रादिपद-पापा धाधानि) इस स्तुति के विषय में गणि श्री बुद्धि मुनिजी ने सूचित किया है। वल्लभ-भारती ] [ १६ . Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनेश्वर और पाटन शास्त्रार्थ विजय 'प्रभावकचरित' के अनुसार ये मूलतः मध्यदेश अर्थात् वर्त्तमान उत्तरप्रदेश का मध्यभाग के निवासी थे । ये कृष्ण नामक ब्राह्मण के पुत्र थे । इनका नाम पहले श्रीधर था और इनके एक भाई था जिसका नाम श्रीपति था। दोनों भाई बड़े प्रतिभाशाली और मेधावी थे । उन्होंने वेद, वेदांग, इतिहास, पुराण, षड्दर्शन शास्त्र और स्मृतियों का अध्ययन विशेष मनोयोग से किया था । विद्या- पारंगत होकर उनमें देशाटन की प्रवृत्ति जगी और वे घूमते-घूमते तत्कालीन महासांस्कृतिक केन्द्र धारानगरी में पहुँचे। वहां पर न केवल राजा ही विद्वानों और विद्या का आदर करता था अपितु बहुत से सेठ भी राजा का इस बात में अनुकरण करते थे। ऐसा ही उदारमना और दानशील एक सेठ लक्ष्मीपति नाम का था । वह जैन-धर्मावलम्बी था और बाहर से जो विद्वान् अतिथि आते थे उनका स्वागत-सत्कार करने के लिये सदा तैयार रहता था । इसी सेठ के यहां ये दोनों भाई पहुंचे। ये आकार-प्रकार से बड़े तेजस्वी और प्रतिभा सम्पन्न प्रतीत होते थे । लक्ष्मीपति इनसे बहुत प्रभावित हुआ और श्रद्धा पूर्वक इनको निरन्तर भोजन कराने लगा । वे प्रतिदिन उसके यहां भोजन करने जाते और उसके मकान और दुकान पर होने वाले सारे व्यापार को भी देखते थे । सेठ बहुत बड़ा व्यवसायी था और उसके वहां रुपये का लेन-देन बहुत अधिक होता था । उन दिनों मकान या दुकानों की दीवारों पर तात्कालिक स्मृतिरूप हिसाब लिखने की प्रथा थी। इस सेठ के यहां भी यह हिसाबकिताब दीवाल पर लिखा रहता था । श्रीधर और श्रीपति की स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि प्रतिदिन देखते-देखते उन दीवारों पर लिखा हुआ सारा हिसाब-किताब उन्हें याद हो गया । एक बार सेठ के मकान में आग लग गई। उसकी बहुत सी वस्तुएं जलकर भस्म हो गईं, परन्तु सेठ को इन वस्तुओं के जल जाने से इतना दुःख नहीं हुआ जितना दीवार पर लिखे हुए हिसाब-किताब के नष्ट हो जाने से । वह सोचता था कि जो सम्पति नष्ट हो गई है वह तो फिर हो सकती है परन्तु हिसाब-किताब नष्ट हो जाने से उसे अपने व्यापारियों के साथ जिस झंझट और झगड़े का व्यवहार करना पड़ेगा, उससे उसकी धर्म-भावना को भयंकर आघात पहुंच सकता है। सेठ की इस कठिनाई को देख कर इन दोनों भाईयों ने कहा कि दीवार पर जो कुछ लिखा था वह तो हम लोगों को अक्षरश: याद है । यह सुनकर सेठ अत्यन्त प्रसन्न हुआ और इन दोनों भाईयों ने सारा हिसाब-किताब अथ से लेकर इति तक ब्योरे के साथ ज्यों का त्यों लिखवा दिया। इस घटना से दोनों भाइयों का उस सेठ के घर में बहुत अधिक आदर-सत्कार होने लगा और वे उसी के घर पर रहने लगे । इसी सेठ ने इन दोनों भाइयों का साक्षात्कार वर्धमानाचार्य से करवाया । ये दोनों भाई बड़े ही शान्त और संयमी थे और उनका चरित्र बहुत ही उदात्त था । इसलिये सेठ ने सोचा कि आचार्य के दर्शन करके ये लोग बहुत प्रसन्न होंगे । श्रीधर और श्रीपति जब वर्धमानाचार्य के पास पहुँचे तो वे उनके तेज और तप से अत्यन्त प्रभावित हुए । आचार्य ने भी सुन्दर लक्षणों से युक्त उनके आकार-प्रकार को देखकर संतोष प्राप्त किया। दोनों भाई निरन्तर आचार्य के पास आने जाने लगे और शास्त्रचर्चा करके सन्तोष ग्रहण करने लगे । २० ] [ वल्लभ-भारती Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीरे-धीरे उनके मन में दीक्षा के लिये इच्छा जगी और उनकी प्रार्थना पर तथा सेठ की अनु ति पर वर्धमानाचार्य ने उन दोनों को दीक्षा प्रदान की। दीक्षा लेते ही उन्होंने जैन-शास्त्रों का अध्ययन बड़ी लगन तथा तत्परता के साथ प्रारम्भ किया और वे थोड़े ही समय में उनमें पारंगत हो गए। वर्धमानाचार्य ने यह देखकर, उनकी योग्यता से प्रभावित होकर उनको आचार्यपद प्रदान किया। उस समय से वे क्रमशः जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के नाम से प्रख्यात हुए। वर्धमानाचार्य को इन दोनों भाईयों की प्रतिभा एवं योग्यता पर विश्वास था और उन्होंने समझ लिया था कि चैत्यवासियों के मिथ्याचार का प्रतिकार इन्हीं के द्वारा हो सकता है। इसीलिये उन्होंने इन दोनों को यह भार ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया और आदेश दिया कि तुम लोग अणहिल पत्तन को जाओ और वहां सुविहित साधुओं के लिये जो विघ्नबाधाएं हों उनको अपनी शक्ति और बुध्दि से दूर करो : . जिनेश्वरस्ततः सूरिरपरो बुद्धिसागरः । नामस्याँ विश्रुतो पूज्यविहारेऽनुमतौ तदा ॥४३॥ ददे शिक्षेति तैः श्रीमत्पत्तने चैत्यसूरिभिः । विघ्नं सुविहितानां स्यात्तत्रावस्थानवारणात् ॥४४॥ यवाभ्यामपनेतव्यं शक्त्या बद्धया च तत्किल। यदिदानीन्तने काले नास्ति प्राज्ञो भवत्समः ॥४५॥ ___ इन दोनों ने भी गुरु की आज्ञा को सिर पर धारण कर गुर्जर प्रदेश की ओर विहार करना प्रारम्भ कर दिया और धीरे-धीरे वे अणहिलपत्तन (पाटण) में पहुंच गये। ... पत्तन में इनको बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा । चैत्यवासियों का प्रमुख गढ होने के कारण, इन लोगों को वहां कहीं रहने का भी स्थान न मिला । वे घर-घर घूमते फिरे। अन्त में वें वहां के राजा दुर्लभराज के पुरोहित सोमेश्वर के मकान पर पहुंचे। वहां उन्होंने अपनी प्रतिभा एवं विद्वत्ता के संकेत स्वरूप वेद मंत्रों का उच्चारण किया और उन्होंने वेद के ब्राह्म, पैत्य तथा दैवत रहस्यों का बड़ी योग्यता पूर्वक उद्घाटन किया। उस वेद-ध्वनि को सुनकर पुरोहित सोमेश्वर स्तम्भित सा हो गया। उसे ऐसा प्रतीत होने लगा कि उसकी समग्र इन्द्रियों की चेतनता उसकी श्रुतियों में ही आगई है। उसने अपने भाई द्वारा इन दोनों भाईयों को बुलवाया। उनके आने पर सोमेश्वर अपना आसन छोड़कर खड़ा हो गया और उनको आसन प्रदान किया । परन्तु वे अपने शुध्द कम्बलों पर बैठ गये। परोहित को आशीर्वाद देते समय दोनों आनार्यों ने जो शब्द कहे, उनमें न केवल उनका अगाध पाण्डित्य प्रकट हो रहा था, अपितु धार्मिक सहिष्णुता और उदारता भी प्रकट हो रही थी। उन्होंने कहा : प्रपाणिपादो ह्यमनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः । स वेत्ति विश्वं न हि तस्य वेत्ता, शिवो ह्यरुपी स जिनोऽवताद् वः ॥ १. तद्ध्वानध्याननिर्मग्नचेताः स्तम्भितवत् सदा। समग्रेन्द्रियचैतन्यं, श्रुत्योरेव स नीतवान् । ५२ । (प्र० च०:) वल्लभ-भारती] २१ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सुनकर पुरोहित बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उनके प्रति बड़ी सहानुभूति दिखाते हुए पूछा कि "आप कहां पर ठहरे हुए हैं ?" इसके उत्तर में उन्होंने अपनी सारी कठिनाई पुरोहित के सामने रक्खी। उन्होंने बतलाया कि यहां चैत्यवासियों का अत्यधिक प्रभाव होने के कारण हमको कोई ठहरने का स्थान नहीं देता । राजपुरोहित ने विद्वानों और महात्माओं का आदर करना अपना कर्त्तव्य समझकर अपनी "चन्द्रशाला" में इनको रहने के निमित्त स्थान दे दिया । आचार्य-द्वय भी अपने साधुओं सहित वहां रहने लगे और ४२ दोषों से मुक्त निस्पृह भाव से भिक्षा ग्रहण करने लगे । गणधर सार्द्धशतक वृत्ति तथा युग० गुर्वावली में इस प्रसंग को कुछ विस्तार के साथ दिया गया है। उन ग्रन्थों के अनुसार वर्धमानसूरि अपने १८ शिष्यों सहित पाटन गये थे और वहां कोई स्थान न मिलने पर कहीं किसी खुली पडशाल में डेरा डाला। तब जिनेश्वर पंडित ने कहा कि “गुरु महाराज" इस तरह बैठे रहने से क्या होगा ? गुरुजी ने कहा- "तो फिर क्या किया जाय ?" जिनेश्वर बोले- "यदि आपकी आज्ञा हो तो वह सामने जो बड़ा सा मकान दिखाई देता है, वहां मैं जाऊं और देखूं कि कहीं हमें कोई आश्रय मिल सकता है या नहीं ? गुरुजी ने कहा - "अच्छी बात है, जाओ ।" फिर गुरुजी के चरणों को नमस्कार करके जिनेश्वर उस मकान पर पहुँचे । वह बड़ा मकान नृपति दुर्लभराज स्नानाभ्यंगन करवा रहा था। जिनेश्वर ने उसको आशीर्वाद दिया । उसे सुनकर पुरोहित होता है । के राजपुरोहित का था । उस समय पुरोहित एक सुन्दर भाव वाला संस्कृत श्लोक बनाकर खुश हुआ, बोला, कोई विचक्षण व्रती मालूम पुरोहित के मकान के अन्दर के भाग में बहुत से छात्र वेद पाठ कर रहे थे । इनके पाठ में उन्हें कहीं-कहीं अशुद्ध उच्चारण सुनाई दिया। तब जिनेश्वर ने कहा " यह पाठोच्चार ठीक नहीं है, ऐसा करना चाहिये ।" यह सुनकर पुरोहित ने कहा - अहो ! शूद्रों को वेदपाठ करने का अधिकार नहीं है । इसके उत्तर में जिनेश्वर ने कहा- हम शूद्र नहीं हैं। सूत्र और अर्थ दोनों ही दृष्टि से हम चतुर्वेदी ब्राह्मण हैं । पुरोहित सुनकर सन्तुष्ट हुआ। बोला- किस देश से आ रहे हो ? जिनेश्वर - दिल्ली की तरफ से । . पुरोहित-कहां पर ठहरे हुए हो ? जिनेश्वर - " शुल्कशाला (दाणचौकी) के दालान में हम मय अपने गुरु के सब १८ यति हैं। यहां का सब यतिगण हमारा विरोधी होने से हमें कहीं कोई उतरने की जगह नहीं दे रहा है। पुरोहित ने कहा- मेरे उस चतुःशाला वाले घर में एक पडदा लगाकर, एक पडशाल में आप लोग ठहर सकते हैं। उधर के एक दरवाजे से बाहर आ जा सकते हैं। आइये और सुख से रहिये । २२] [ वल्लभ-भारती Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावकचरितकार के अनुसार इन साधुओं के आने से पुरोहित के घर पर नगर के पण्डितों और विद्वानों का जमघट होने लगा। प्रतिदिन मध्याह्न को याज्ञिक, स्मार्त, दीक्षित, अग्निहोत्री आदि ब्राह्मण आते और शास्त्र-चर्चा करते । कहते हैं कि वहां ऐसा विद्याविनोद होने लगा, जैसा ब्रह्मा की सभा में ही संभव हो सकता था । इसकी प्रसिद्धि नगर में फैली और चैत्यवासो लोग भी वहां आये । इन वसतिवासी साधुओं की इतनी प्रतिष्ठा देखकर उनको बहुत क्रोध आया और उन्होंने आचार्य वर्धमान तथा उनके शिष्यों से कहा कि-'आप नगर से बाहर चले जाईये, क्योंकि यहां पर चैत्य-वाह्य श्वेताम्बर लोग नहीं ठहर सकते।' इस कथन पर राज-पुरोहित ने आपत्ति की और कहा कि-'इस बात का निर्णय तो राज-सभा में होगा। ऐसा कहे जाने पर वे सब अपने समुदाय महित राजा के पास गये। जिनपालोपाध्याय और सुमति गणि के प्रबन्धों के अनुसार यह घटना कुछ दूसरे ढंग से हुई है। कहा जाता है कि जब वसतिवासी साधुओं के नगर में आने की बात चारों ओर फैल गई तो चैत्यवासियों ने उसका प्रतिकार करने का निश्चय किया । उन दिनों चैत्यालयों में पाठशालाएं लगा करती थों। जिनमें विभिन्न वर्गों के बहुत से विद्यार्थो पढ़ने आया करते थे। चैत्यवासियों ने इन्हीं बच्चों को अपने हाथ की कठपुतली बनाया । उनको बतासे इत्यादि का प्रलोभन देकर इस बात के लिये राजी कर लिया कि वे नगर में यह समाचार फैलायें कि ''कुछ बाहरी गुप्तचर यतियों के वेष में नगर में आए हुए हैं, जिनको कि राजपुरोहित ने अपने घर पर शरण दे रखी है।" फैलते-फैलते यह सारी खबर राजा के कान में पहुँची और उसने तुरन्त पुरोहित को बुलाकर पूछा । पुरोहित ने इस बात को बिलकुल ही झूठ बतलाया और उसने कहा कि, मेरे मकान पर जो महात्मा लोग ठहरे हैं वे साक्षात धर्म की मूर्ति हैं और उन ठहरे हये साधुओं पर जो भी दोष लगाया गया है वह बिल्कुल झूठा है। उसने यह भी घोषणा की कि यदि कोई इन साधुओं को गुप्तचर सिद्ध कर दे तो मैं एक लाख पारुत्थ (एक तरह की स्वर्ण मुद्रा) इनाम में दूंगा। प्रभावकचरित के अनुसार पुरोहित ने राजसभा में केवल यही कहा कि मैंने केवलं गुण-ग्राहकता की दृष्टि से ही इन साधुओं को आश्रय दिया है और इन चैत्यवासियों ने इनका बहुत अपमान किया है। इसमें यदि मेरा कोई अपराध हो तो मैं दण्डग्रहण करने के लिये तैयार हूँ। कहते हैं कि राजा समदर्शी था। वह मुस्करा कर बोला : मत्पुरे गुणिनः कस्माद्देशान्तरत मागताः। वसन्तः केन वार्येत को दोषस्तत्र दृश्यते ॥ इस पर चैत्यवासियों ने राजा को याद दिलाया कि उस नगर के संस्थापक चापोत्कट वंशीय वनराज का पालन-पोषण श्री शीलगुणसूरिजी ने किया था और इसी के फलस्वरूप वनराज ने “वनराज-विहार" नामक पार्श्वनाथ मन्दिर की स्थापना करके यह व्यवस्था दे दी १. मध्याह्न याज्ञिकस्मात दीक्षितानग्निहोत्रिणः । प्राय दर्शितो तत्र निव्यूं ढौ तत्परीक्षया ।।६२।। यावद् विद्या विनोदोऽयं विरिञ्चेरेव पर्पदि [प्र. च०] मया च गुणग्राह्यत्वात् स्थापितावाश्रये निजे। भद्रपुत्रा अमीभिमें प्रहिताश्चैत्यवासिभिः ।।६।। वल्लभ-भारती] [ २३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी कि 'यहाँ केवल चैत्यवासी यतिजन ही ठहर सकते हैं।' राजा ने अपने पूर्वजों की व्यवस्था का पालन करना अपना धर्म बतलाते हुए कहा कि-"गुणियों का सन्मान भी तो अवश्य होना चाहिये" इसलिये राजा ने चैत्यवासियों से आये हुए मुनियों को वहां रहने देने के लिये आग्रह किया। कहते हैं कि इसी समय ज्ञानदेव नामक शैवाचार्य जो कि राजा का गुरु था वहां आ पहुँचा । राजा ने सत्कार पूर्वक गुरु का स्वागत करके उनसे निवेदन किया-'हे प्रभो! ये जैन ऋषि लोग यहां आये हुए हैं, इनको आप उपाश्रय प्रदान करें।' ऐसा सुनकर वह तपस्वी शैव हंसते हुए बोला “महाराज! आप गुणियों का सत्कार कर रहे हैं, यह बहुत अच्छी बात है। मैं इसको अपने उपदेशों से होने वाले फलों की निधि समझता है । वस्तुतः शिव और जिन एक ही हैं । केवल मूर्खतावश इनको और मान लिया गया है । दर्शनों में भेद मानना मिथ्यामति का चिह्न है।" ऐसा कहकर उन्होंने "त्रिपुरुष प्रासाद” नामक मुख्य शिव-मन्दिर के पास ही कणहट्टी में उपाश्रय बनवाने के लिये अनुमति प्रदान की और एक ब्राह्मण को यह कार्य करने के लिये नियुक्त किया और थोड़े दिनों में ही उपाश्रय तैयार हो गया। संभवतः इसी समय से वसतियों अर्थात् उपाश्रयों की परम्परा शुरु हो गई। प्रभावकचरितकार ने लिखा है: ततः प्रभृति सज्जज्ञे वसतीनां परम्परा । महद्भिः स्थापितं वृद्धिमश्नुते नात्र संशयः । ८६॥ गणधर साद्धं शतक बृहद्वृत्ति तथा युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के अनुसार चैत्यवासी लोग केवल उक्त दो ही प्रयत्न करके चुप नहीं बैठ गये अपितु उन्होंने एक वाद-विवाद में नवागन्तुक मुनियों को नीचा दिखलाने का भी प्रयत्न किया । वाद-विवाद राजा दुर्लभराज के सन्मुख होना तय हुआ। स्थान पंचासर पार्श्वनाथ का बड़ा मन्दिर चुना गया। कहते हैं कि निश्चित दिवस पर सूराचार्य के नेतृत्व में ८४ चैत्यवासी आचार्य खूब सज-धज कर वहां पर उपस्थित हए । ठीक समय पर राजा भी वहां आ गया और आचार्य वर्धमान तथा उनके शिष्य आदि भी वहां पर पधारे । राजा ने दोनों पक्षों के लोगों को ताम्बूल आदि से सत्कृत करना चाहा। चैत्यवासियों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। परन्तु जब वर्धमान के पक्ष की बारी आई तो उन्होने उत्तर दिया कि साधुओं को ताम्बूल भक्षण का निषेध है और उसका खाना गोमांस भक्षण के बराबर है: "ब्रह्मचारी यतीनां च विधवानां च योषिताम्। ताम्बूलभक्षरणं विप्र गोमांसा न्न विशिष्यते ।" इसके पश्चात् शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । एक ओर से पण्डित जिनेश्वर और दूसरी ओर से सूराचार्य थे। शास्त्रार्थ सूराचार्य ने प्रारम्भ किया। उनका कहना था कि 'जिनगृह१. गुणि नामर्चनां यूयं, कुरुध्वे विधुतैनसाम् । सोऽस्माकमुपदेशानां. फलपाक: श्रियां निधिः ।।८।। शिव एव जिनो बाहत्यागात् परपदस्थितः । दर्शनेषु विभेदो हि, चिह्न मिथ्यामतेरिदं ॥८६॥ [प्र० च] २. श्रीमान दुर्लभराजाख्यस्तत्र चासीद् विशांपतिः। गीष्पतेरप्युपाध्यायो नीतिविक्रमशिक्षणे ।४८। [प्रभावक चरित ] राज्यप्रधानपुरुषराकारितः श्रीदुर्लभराजमहाराजोऽपि महता भटचटपरिवारोणागत्योपविष्टस्तत्र (जिनेश्वरसूरिचरित्र कथाकोष परिशिष्ट पृ०१२) २४ ] [ वल्लभ-भारती Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास ही मुनियों के लिये समुचित है और वहीं पर निरपवाद ब्रह्मव्रत का पालन संभव हो सकता है ।" उनका कहना था कि - " वसतिवास अपवाद से रहित नहीं है, इसलिये त्याज्य है ।" सूराचार्य ने अनेक युक्तियों के द्वारा अपने पक्ष का समर्थन किया, परन्तु पंडित जिनेश्वर ने उन सभी युक्तियों का खण्डन बड़ी योग्यता के साथ करते हुए वसतिमार्ग का प्रतिपादन किया। उन्होंने अत्यन्त स्पष्ट और कटु आलोचना करते हुए चैत्यवास के तत्कालीन कलुषित और अपवाद पूर्व वातावरण को मुनि जीवन के लिये सर्वथा अनुपयुक्त तथा असंगत बतलाया । पंडित जिनेश्वर की वाक्पटुता, अकाट्य तर्क शैली तथा प्रकाण्ड - पाण्डित्य से न केवल उनके प्रतिपक्षी ही पराभूत और पराजित हुए अपितु वहां पर बैठे हुए निष्पक्ष विद्वान् तथा गणमान्य लोग भी अत्यन्त प्रभावित हुए। कहा जाता है कि इसी के फलस्वरूप राजा दुर्लभराज ने सं० १०६६-१०७८ के मध्यकाल में करडी हट्टी ( प्रभावकचरितानुसार, व्रीहिहट्टी) में वसतिमार्गियों के निवास के लिये एक स्थान प्रदान किया और इस प्रकार गुजरात में वसतिमार्ग का सर्वप्रथम आविर्भाव हुआ । खरतर विरुद-प्राप्ति गणधर सार्द्ध शतक बृहद्वृत्ति एवं युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में आचार्य जिनेश्वर से सम्बन्धित और भी कई घटनायें दी हुई हैं, परन्तु आचार्य जिनवल्लभ तथा उनके गच्छ एवं • संदेश को समझने के लिए हमें उनकी विशेष आवश्यकता नहीं है। ऊपर के वर्णन से इतना स्पष्ट है कि आचार्य जिनेश्वर ने जो उग्र आन्दोलन चलाया वह चैत्यवासियों के निर्मूलन का आन्दोलन था । इसका प्रमाण हमें उनके चैत्यवास विरोधी उस विचारधारा में भी मिलता है जिसकी अभिव्यक्ति इनके विभिन्न ग्रन्थों में भी स्थान स्थान पर हुई है। इन्हीं के प्रारंभ किये हुए कार्य को उनके अनुयायी अभयदेवाचार्य, देवभद्राचार्य, वर्धमानाचार्य, जिनवल्लभाचार्य, जिनदत्तसूरि, जिनपतिसूरि आदि ने अपने-अपने ढंग से सम्पन्न करने की परम्परा को जारी रखा। और यह कहना भी असंगत न होगा कि इन्हीं के प्रयत्नों के फल स्वरूप १३ वीं शती के अन्तिम चरण तक चैत्यंवास प्रथा नष्ट सी हो गई । इसी प्रसंग को लेकर मुनि जिनविजयजी लिखते हैं': " शास्त्रोक्त यतिधर्म के आचार और चैत्यवासी यतिजनों के उक्त व्यवहार में परस्पर बड़ा असामंजस्य देखकर और श्रमण भगवान् महावीर उपदिष्ट श्रमण धर्म की इस प्रकार प्रचलित विप्लवदशा से उद्विग्न होकर जिनेश्वरसूरि ने उसके प्रतिकार के निमित्त अपना एक सुविहित मार्ग - प्रचारक नया गण स्थापित किया और उन चैत्यवासी यतियों के विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन शुरु किया । x x चौलुक्य नृपति दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासी १. कथाकोष प्र० पृ० ४ । वल्लभ-भारती ] [ २५ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्ष के समर्थक अग्रणी सूराचार्य जैसे महाविद्वान् और प्रबल सत्ताशील आचार्य के साथ शास्त्रार्थ कर उसमें विजय प्राप्त किया। X x अनेक प्रभावशाली और प्रतिभाशाली व्यक्तियों ने उनके पास यति दीक्षा लेकर उनके सुविहित शिष्य कहलाने का गौरव प्राप्त किया । उनकी शिष्य - सन्तति बहुत बढ़ी और वह अनेक शाखा प्रशाखाओं में फैली । उसमें बड़े-बड़े विद्वान्, क्रियानिष्ठ और गुणगरिष्ठ आचार्य - उपाध्यायादि समर्थं साधु-पुरुष हुए। नवाङ्गवृत्तिकार अभयदेवसूरि, संवेग रंगशालादि ग्रन्थों के प्रणेता जिनचन्द्रसूरि सुरसुन्दरीचरित्र के कर्त्ता धनेश्वर अपरनाम जिनभद्रसूरि, आदिनाथ चरित्रादि के रचयिता वर्धमानसूरि, पार्श्वनाथ चरित्र एवं महावीर चरित्र के कर्त्ता गुणचन्द्र गणि अपरनाम देवभद्रसूरि, संघपट्टकादिक अनेक ग्रन्थों के प्रणेता जिनवल्लभसूरि - इत्यादि अनेकानेक बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वान् और शास्त्रकार जो उस समय उत्पन्न हुए और जिनकी साहित्यिक उपासना से जैन वाङ् मय-भंडार बहुत कुछ सुसमृद्ध और सुप्रतिष्ठित बना - इन्हीं जिनेश्वरसूरि के शिष्यों प्रशिष्यों में से थे ।” ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य जिनेश्वर से उद्भूत आचार-विचार की इस परम्परा को जहाँ इस परम्परा के अनुयायी लोग 'सुविहित' नाम प्रदान कर रहे थे, वहां उसके लिये एक दूसरे नामकरण का भी विधान हो रहा था । यह तो स्पष्ट ही है कि तत्कालीन चैत्यवासियों के विपरीत यह एक उग्र, प्रखर और कट्टर सुधारवादी परम्परा थी, जो न केवल चैत्यवासियों से पृथक् थी अपितु उन वसतिवासियों के मार्ग से भी पृथक् थी जो तत्कालीन चैत्यवासी शिथिलता को चुपचाप सहन करते हुए चले जा रहे थे। इसलिये स्वाभाविक था कि यह परम्परा अपनी उग्रता और कट्टरता की विशेषता को लेकर जनता में प्रसिद्ध हो जाती; सम्भवत: इसी आधार पर जनता ने इनको 'खरतर' कहना प्रारम्भ किया । इतिहास में ऐसे ही उदाहरण अन्यत्र मिलते हैं, ईसाई समाज में 'प्यूरीटन' नाम की उत्पत्ति इसी प्रकार के उग्र सुधारवाद के वातावरण को लेकर हुई और अपने ही देश में 'उदासी सम्प्रदाय' के नामकरण का आधार भी ऐसा ही प्रतीत होता है । इस प्रकार के नामों का जन्म स्वभावतः उसी समय होता है, जब इन नामों की आधारभूत विशेषता सब से अधिक आकर्षक, नवीन तथा विरोध प्राप्त होती है। जिनेश्वराचार्य की विचारधारा के लिये इस प्रकार का युग स्पष्टतः उस समय से प्रारम्भ होता है जब वह चैत्यवासियों के दुर्भेद्य गढ़ " अणहिलपुरपत्तन" में अपने प्रभाव को दिखलाते हैं । खरतरगच्छीय परम्परा के अनुसार “खरतर” विरुद जिनेश्वराचार्य को तत्कालीन राजा दुर्लभराज द्वारा दिया गया था। इस बात को लेकर बहुत निराधार विवाद चला है, परन्तु मेरी समझ में इसमें विवाद के लिए कोई स्थान नहीं है । राजा ने यह विरुद दिया हो अथवा न दिया हो, आचार्य जिनेश्वर की विचार-धारा की वह मूलभूत विशेषता जिसके कारण इस विरुद की कल्पना की जा सकती है, जनता के हृदय पर अवश्य ही अपना प्रभाव जमा चुकी होगी और उसी के फलस्वरूप जनता ने उनका जो नामकरण किया, वह समाज के मस्तिष्क पर अमिट अक्षरो में लिख गया । व्यक्ति चाहे वह चक्रवर्ती राजा ही क्यों न हो समाज सागर का एक क्षुद्र बुद-बुद है, जो अपना क्षणिक अस्तित्व दिखा कर चला जाता है । परन्तु समाज एक प्रवहमान सरिता है जो अक्षुण्ण रूप से अपनी युग-युग की सिद्धियों और स्मृतियों को समेटे चलता रहता है । २६ ]. [ वल्लभ-भारती Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए समाज के मानस-पटल पर आचार्य जिनेश्वर के सुधारवाद की खरतरता ने जो प्रभाव डाला उसकी स्थायी अभिव्यक्ति होना निश्चिंत था। चाहे कोई राजा उसको मानता या न मानता, चाहे कोई आचार्य या सम्प्रदाय उसको स्वीकार करता या नहीं करता। किसी विरुद के महत्त्व को बढ़ाने के लिए राजमान्य होने की आवश्यकता नहीं । वसतिमार्ग को मान्यता किसने दी थी? चैत्यवासी नाम को रखने वाला कौन था? वर्तमान युग में हवाई जहाज को चीलगाड़ी कहने वाला और मोटर सायकिल को फटफटिया कहने वाला कौन था ? इसका उत्तर यही है कि समाज या जनता। अतः इस प्रकार के नामकरणों के मूलकर्ता के विषय में विवाद करना भाषाविज्ञान के प्रति अनभिज्ञता प्रकट करना है। जब यह कहा गया कि दुर्लभराज की राजसभा में "खरतर-विरुद" की सृष्टि हुई, तो चाहे राजा ने अपने मुख से उस शब्द का उच्चारण किया हो या न किया हो, यह एक ऐसा सत्य कथन था जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता. क्योंकि जिस विशेषता ने जिनेश्वर की विचार-धारा को “खरतरविरुद" दिया उसका सर्वप्रथम सफल और सार्थक विस्फोट यहीं हुआ था। . कुछ लोगों ने शंका उठाई है कि दुर्लभराज की अध्यक्षता में आचार्य जिनेश्वर और सूराचार्य का उक्त शास्त्रार्थ हुआ ही नहीं। इस प्रसंग में प्रभावकचरितकार का मौन रहना भी प्रमाण रूप में रखा जा सकता है, परन्तु प्रथम तो प्रभावकचरितकार से पूर्ववर्ती सुमति• गणि और जिनपालोपाध्याय के प्रबन्धों में तथा उनके भी पूर्ववर्ती आचार्य जिनवल्लभ के पट्टधर युगप्रधान जिनदत्तसूरि प्रणीत गणधरसार्धशतक ५, गुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र आदि काव्यों १. हमारे इन विचारों की पुष्टि सुरत्राण अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि रचित पौषधविधि प्रकरण वृत्ति की प्रशस्ति से भी होती है:"यैः पूज्यैरणहिल्लपत्तनपुरे द्यौसिद्धिशून्यक्षमा (१०८०) वर्षे दुर्लभराजपर्षदि पराजित्य प्रमाणोक्तिभिः। सूरीन् चैत्यनिवासिनः खरतरख्यातिजनैश्चापिते, श्रीमत् सूरिजिनेश्वराः समभवंस्तत्पट्टशोभाकराः ॥३॥ (तत्कालीन लिखित प्रति से, बीकानेर भुवनभक्तिज्ञानभण्डार, प्रति सं० १००, पत्र ६७) २. श्रीमान् दुर्लभराजाख्यस्तत्र चासीद् विशांपतिः। गीष्पतेरप्युपाध्यायो नीतिविक्रमशिक्षणे ।।४८।। प्रभावकचरित ३. राज्यप्रधानपुरुषराकारितः श्रीदुर्लभराजमहाराजोऽपि महता भटचटपरिवारेणागत्योपविष्टस्तत्र । (जिनेश्वरचरित्र कथाकोष परिशिष्ट पृ० १२) ४. श्रीदुर्लभराजश्च पञ्चाशरीयदेवगृहे युष्माकमागमनमालोक्यते। (युगप्रधानाचार्य गुर्वावली पृ० ३) ५. अणहिल्लवाडए नाडयव्य दंसियसुपत्तसंदोहे । पहुरपए बहुकविदूसगे य सन्नायगाणुगए ॥६५॥ ___सढ्ढियदुल्लहराए सरसइम'कोवसोहिए सुहए। मझे रायसहं पविसिउरण लोयागमाणुमयं ॥६६॥ (गणधरसार्द्धशतक) ६. पुरमो दुल्लहमहिवल्लहस्स मणहिल्लवाडए पयडं। मुक्का वियारिऊणं सीहेण व दवलिंगिगया॥१०॥ (जिनदत्तसूरि रचित गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्र) बल्लभ-भारती] [२७ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में इस घटना का स्पष्ट उल्लेख मिलता है और दूसरे प्रभावकचरितकार के लिए इस विषय में मौन धारण करने के लिए एक उपयुक्त कारण भी था । प्रभावकचरित अनेक प्रभावक चरित्रों के साथ-साथ सूराचार्य के चरित्र का भी वर्णन करता है जो उक्त शास्त्रार्थ में जिनेश्वराचार्य के साथ पराजित हुये बताये जाते हैं, इसलिये यदि सूराचार्य के गौरव को घटाने वाली किसी घटना का इसमें उल्लेख किया जाता तो वह ठीक न होता । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय कि प्रभावकचरितंकार बहुत ही उदारमना होते हुए भी स्वयं एक चैत्यवासी आचार्य थे; अतः सामाजिक शिष्टाचार की eft से भी उनके द्वारा चैत्यवासी प्रधानाचार्य की पराजय का उल्लेख किया जाना ठीक न होता । साथ ही मुनि जिनविजयजी के शब्दों में- “ प्रभावक चरित के वर्णन से यह तो निश्चित ही ज्ञात होता है कि सूराचार्य उस समय चैत्यवासियों के एक बहुत प्रसिद्ध और प्रभावशील अग्रणी थे । ये पंचाशरा पार्श्वनाथ के चैत्य के मुख्य अधिष्ठाता थे । स्वभाव से बड़े उदग्र और वाद-विवाद प्रिय थे । अतः उनका इस वाद-विवाद में अग्ररूप से भाग लेना असंभवनीय नहीं परन्तु प्रासंगिक ही मालूम देता है। शास्त्राधार की दृष्टि से यह तो निश्चित ही है कि जिनेश्वराचार्य का पक्ष सर्वथा सत्यमय था । अतः उनके विपक्ष का उसमें निरुत्तर होना स्वाभाविक ही था । इसमें कोई संदेह नहीं कि राजसभा में चैत्यवासी पक्ष निरुत्तरित होकर जिनेश्वर का पक्ष राज सन्मानित हुआ और इस प्रकार विपक्ष के नेता का मानभंग होना अपरिहार्य बना। इसलिये संभव है कि प्रभावकचरितकार को सूराचार्य के इस मानभंग का उनके चरित में कोई उल्लेख करना अच्छा नहीं मालूम दिया हो और उन्होंने इस प्रसंग को उक्त रूप में न आलेखित कर अपना मौन भाव ही प्रकट किया हो" " अतः यह ध्रुव सत्य है कि आचार्य जिनेश्वर का सूराचार्य के साथ दुर्लभराज की राजसभा में शास्त्रार्थ हुआ और उसमें सूराचार्य पराजित हुए । कुछ लोग अर्वाचीन पट्टावलियों के अनुसार इस वाद-विवाद के समय के विषय में भी निरर्थक वाद-विवाद को खड़ा करते हैं । यह चर्चा किस संवत में हुई थी ? उस के सम्बन्ध में युगप्रधान जिनदत्तसूरि, जिनपालोपाध्याय, सुमतिगणि, प्रभावकचरितकार आदि मौन हैं । इसका कारण भी यही है कि सब ही प्रबन्धकारों ने जनश्रुति, गीतार्थ ति के आधार से प्रबन्ध लिखे हैं और वे भी सब १०० और २५० वर्ष के मध्य काल में । वस्तुतः सम लेखकों ने संवत् के सम्बन्ध में मौनधारण कर ऐतिह्यता की रक्षा की है अन्यथा संवत् के उल्लेख में असावधानी होना सहज संभाव्य था । अतः यह सहज सिद्ध है कि महाराजा दुर्लभराज का राज्यकाल १०६६ से १०७८ तक का माना जाता है, उसी के मध्य में यह घटना हुई है। कथाकोष प्रस्ता० पृ० ४१. अर्वाचीन किन्हीं पट्टावलियो में सं० १०५० का उल्लेख मिलता है तो किसी में १०२४ का, जो श्रवण परम्परा का आधार रखता है। इस परम्परा में भी ६००, ८०० वर्ष के अन्तर में २.४ वर्ष का लेखन फरक रह जाय यह स्वाभाविक है। इसे चर्चा का रूप देना निरर्थक ही है । २८ ] १. २. [ बल्लभ-भारती · Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० प्र० प्रा0 जिनेश्वर की साहित्य-सर्जना और शिष्य-परिवार आचार्य जिनेश्वर न केवल वाक्चातुरी और शास्त्रचर्चा के ही आचार्य थे अपितु लेखिनी के भी प्रौढ़ आचार्य थे । आपने 'प्रमालक्ष्म' वृत्ति सह और आपके भ्राता श्रीबुद्धिसागरसूरि ने बुद्धिसागर-व्याकरण तथा छन्दःशास्त्र' रचकर जैन वाङमय में जैन-दर्शन और व्याकरण साहित्य की जो अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की है वह साहित्य संसार के लिये संस्मरणीय है । आपके प्रणीत निम्न ग्रन्थ और प्राप्त होते हैं:१. अष्टक प्रकरण वृत्ति र० सं० १०८० जालोर । श्लो० ३३७४, प्र. २. चैत्यवन्दनक .... सं० १०६६ जालोर; (पत्र ३५, थाहरु भ०) ३. कथाकोष प्रकरण स्वोपज्ञवत्ति सह . सं० ११०८ श्लो० ५०००, प्र. ४. पञ्चलिङ्गी प्रकरण ५. निर्वाण लीलावती कथा सं० १०६२ अप्राप्त ६. षट्स्थान प्रकरण (श्रावक वक्तव्यता) श्लो० १०३ ७, सर्वतीर्थ-महर्षि कुलक गा० २६, ..८, वीरचरित्र भप्राप्त ६. छन्दोनुशासन (जैसलमेर ज्ञान भंडार, प्रतिलिपि मेरे संग्रह में) ____ आचार्य जिनेश्वरसूरि का शिष्य समुदाय भी अति विशाल था। आपने अपने स्व-हस्त से जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, धनेश्वरसूरि अपरनाम जिनभद्रसूरि और हरिभद्रसूरि को आचार्य पद तथा धर्मदेव गणि, सुमति गणि, सहदेव गणि५ सुमति गणि' और विमल गणि को उपाध्याय पद प्रदान किया था। चार आचार्य और तीन उपाध्याय जहां शिष्य हों वहां मुनिमण्डल का अत्यधिक संख्या में होना स्वाभाविक ही है। ____आचार्य जिनेश्वरसूरि का स्वर्गवास कब और कहां हुआ निश्चित नहीं है। किन्तु आपकी सं० ११०८ में रचित कथाकोष प्रकरण की स्वोपज्ञ वृत्ति प्राप्त है । अतः इसके बाद ही आप इस नश्वर देह को छोड़ चुके हों, तथा आचार्य अभयदेव ने स्थानाङ्गसूत्र की वृत्ति सं० ११२० में पूर्ण की है उसमें विद्यमान, राज्ये, इत्यादि शब्दों का प्रयोग न होने से सं० ११२० के पूर्व ही जिनेश्वरस रि का स्वर्गवास हो चुका था-मान सकते हैं। १. उल्लेख देवभद्रीय महावीर चरित्र प्रशस्ति । . २. प्राचार्य जिनपतिसूरि प्रणीत टीका सह जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सूरत से प्रकाशित ३. आपकी रचित 'सुरसुन्दरी कहा' प्राकृत भाषा में उपलब्ध है। इसकी रचना सं० १०६५ चन्द्रावती ४. ६आपके हरिसिंहाचार्य, सर्वदेव गणि, सोमचन्द्र (जिनदत्तसूरि) आदि प्रमुख शिष्य थे। ५. आपके अशोकचन्द्राचार्य शिष्य थे। अशोकचन्द्र को जिनचन्द्रसूरि ने प्राचार्य पद दिया था। आपके देवभद्राचार्य (पूर्व नाम गुणचन्द्र गणि) शिष्य थे जिनने प्रा० जिनवल्लभ पौर प्राचार्य जिनदत्त को प्राचार्य पद प्रदान किया था। प्रसन्नचन्द्राचार्य भी मापही के शिष्य थे। ६. वल्लभ-भारती] [२९ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० जिनेश्वर के पश्चात् उनके पट्ट पर जिनचन्द्रसूरि (अभयदेवसूरि के बृहद् गुरुभ्राता) हुए। आपके सम्बन्ध में कोई इतिवृत्त प्राप्त नहीं है । इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि आप बहुश्रु तज्ञ गीतार्थ थे आपने अपने लघु गुरु-बन्धु, गीतार्थ, विख्यात कीत्तियुक्त श्रीअभयदेवसूरि की अभ्यर्थना से 'संवेगरङ्गशाला' नामक प्राकृत कथाग्रन्थ की १००५० श्लोक बृहत्परिमाण में सं० ११२५ में रचना पूर्ण को। - अभयदेवसरि जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर गच्छनायक के रूप में हमें आचार्य अभयदेवसूरि के दर्शन होते हैं । आपके प्रारम्भिक जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में हमें केवल प्रभावक-चरित में ही किञ्चित् उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसके अनुसार आचार्य जिनेश्वर मूरि सं० १०८० के पश्चात् जाबालिपुर (जालोर) से विहार करते हुए मालव प्रदेश (मध्य भारत) की तत्कालीन प्रसिद्ध राज- . धानी धारानगरी में पधारे। चातुर्मास भी संभवतः वहीं किया। आपका प्रवचन अहर्निश होता था। इसी नगरी में श्रेष्ठी महीधर नामका एक विचक्षण व्यापारी रहता था। धनदेवी नामकी पत्नी थी और अभयकुमार नामक सौभाग्यशाली पुत्र था। आचार्य जिनेश्वर का प्रभावशाली व्याख्यान (प्रवचन) सुनने के लिये वहां की प्रायः समग्र जनता उपस्थित हुआ करती थी। महीधरपुत्र अभयकुमार भी सर्वदा प्रवचन सुना करता था। आचार्यश्री के वैराग्य-पोषक, आत्मतत्त्व-निर्दशक, सिध्दान्तों का विवेचनीय प्रतिपादक, शान्तरससंवर्धक उपदेश से अभयकुमार प्रभावित हुआ। अभयकुमार ने संसार की नाशशीलता, क्षणिकता समझकर, स्वविचारों को दृढकर, माता-पिता की अनमति प्राप्त करके श्रीजिनेश्वरसरि के पास दीक्षा ग्रहण की। आचार्य ने अभयकुमार का नाम अभयदेवमुनि रखा। श्रीजिनेश्वरसूरि के पास ही स्वशास्त्र और परणास्त्र का विधिवत् अध्ययन अभयदेव मुनि ने किया। आत्मशुद्धि के लिये अभयकुमार ने दीक्षा ग्रहण की थी। इसलिये वे उग्र तपश्चर्या भी करने लगे । आपकी योग्यता और प्रतिभा देखकर आचार्य जिनेश्वर ने आपको आचार्य पद प्रदान किया था। , उस समय के प्रमुख-प्रमुख आचार्य सैद्धान्तिक-आगमों का अध्ययन छोड़कर समयोचित धनुर्नेद, आयुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिक, काम-शास्त्र, नाट्य-शास्त्र आदि विषयों में पारङ्गत होते जा रहे थे। मन्त्र-तन्त्र और यन्त्र विद्या के चमत्कारों से भिन्न भिन्न स्थलों पर राजाओं पर प्रभावे जमाते जा रहे थे। चैत्यवास की प्रथा प्रौढता को प्राप्त कर चुकी थी, जिसका परिचय पहले दिया जा चुका है । ऐसी अवस्था में आगमों के अभ्यास की सुरक्षित परम्परा नष्ट हो जाने से शुद्ध क्रियाचार का पालन भी असंभव-सा होता जा रहा था। आचारांग और सूत्रकृतांग पर आचार्य शीलांक कृत विवेचन के अतिरिक्त पूरे अंग साहित्य पर कोई विवेचन प्राप्त ही नहीं था। जैन-आगमों में मुख्य स्थान ११ अंग का ही है। इनमें नव अंग तो अछूत ही से थे। मूलपाठ भी लेखकों की अशुद्ध-परम्परा के कारण अशुद्धतर होते [ वल्लभ-भारती ३.] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा रहे थे । वाचनाभेदों की बहुलता मूल-आगमों को कूट आगम सदृश कर रहे थे । जो कुछ वाचन-मनन की प्रणाली थी वह कूट पाठों की बहुलता से नष्ट होती जा रही थी। ... ऐसी परिस्थिति देखकर श्रीअभयदेवसूरि ने अपनी समयज्ञता का परिचय दिया। अपनी बहश्र तज्ञता का उपयोग समाज के लिये हो और आगम-ग्रन्थ कट ग्रन्थ न हो सर्वदा के लिये वाचन-सुलभ रहें इस आशय से अपनी लेखिनी तृतीय स्थानाङ्गसूत्र पर उठाई और सकुशल सफलता पूर्वक इसकी टीका सं० ११२० में पूर्ण की। इस प्रकार के महत्त्वपूर्ण कार्य प्रवास इत्यादि में नहीं हो सकते । और न इनके करने में काल-विकाल या ग्राह्या ग्राह्य के फेर में ही पड़ा जा सकता है । अतएव एक मात्र अपने पवित्र संकल्प की पूर्ति का ध्यान रखते हुए श्रीअभयदेवसूरि ने अपना कार्य क्षेत्र अणहिलपुर पतन चुना और वहीं श्रीजिनेश्वरसूरि द्वारा पवित्रित करडि हट्टी में निवास किया। प्रायः सं० ११२० से ११२८ तक का समय आपका वहीं पूर्ण हुआ। मध्य में ११२४ में आप अवश्य धवलका रहे थे और वहां धनपति बहुल और नन्दिक सेठ के घर में रहकर पञ्चाशक पर टीका की रचना पूर्ण की थी। ___ इतने लम्बे समय तक एक स्थान पर ही रहने का एक कारण और भी था । श्री अभयदेवसूरि ने ज्यों ही टीका-लेखन का कार्य प्रारम्भ किया त्यों ही उनके मस्तिष्क में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं यदि इन टीकाओं का संशोधन अपने ही सुविहित विद्वानों से कराकर प्रामाण्य की मोहर लगवा दूंगा तो पर्याप्त न होगा, क्योंकि आज सुविहितों का समुदाय अत्यल्प है, चैत्यवासी समुदाय अत्यन्त विशाल है और पूज्य श्री जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवास उन्मूलन का कार्य प्रारम्भ किया है उससे समग्र चैत्यवासी आचार्य क्षुब्ध हो रहे हैं; अतः वे यदि इसे अमान्य कर देंगे तथा इसमें दूपण शोधते रहेंगे तो टीकाएं एकपक्षीय हो जायेंगी; जो सचमुच में मेरे भगीरथ प्रयत्न पर पानी फेर देंगी। अतः ऐसी अवस्था में अपने किसी चैत्यवासी प्रौढ़ एवं दिग्गज आचार्य का आश्रय लें और उससे प्रामाणिकता की मोहर लगवावें तो सर्वश्रेष्ठ होगा। ऐसा विचार कर, हृदय की अत्यधिक विशालता से चैत्यवासी आचार्यों की तरफ दृष्टिपात किया तो उन्हें उस समय के सर्वश्रेष्ठ विद्वान्, उदार दृष्टिवाले, शान्तमना द्रोणाचार्य दिखाई पड़े, जो समग्र चैत्यवासी आचार्यों के प्रधान मुकुट स्वरूप थे। इसलिये आचार्य अभयदेव ने उनसे सम्पर्क साधा और संशोधन कार्य के लिये उन्हें तैयार किया । आचार्य द्रोण ने भी अपने समग्र आचार्यों की चर्चा की परवाह न करते हुए, अपने विपक्षी के एक शिष्य के कार्य को हाथ में लिया। इससे उस समय के प्रमुख-प्रमुख चैत्यवासी आचार्य द्रोणाचार्य पर कुपित भी हुए, किन्तु महामना द्रोण ने उन्हें यह कहकर शान्त कियाः प्राचार्याः प्रतिसन सन्ति महिमा येषामपि प्राकृतै- . 'तुं नाऽध्यवसीयते सुचरितस्तेषां पवित्र जगत् । एकेनाऽपि गुणेन किन्तु जगति प्रज्ञाधनाः साम्प्रतं, । यो धत्तेऽभयदेवसूरिसमतां सोऽस्माकमावेद्यताम् । आचार्य द्रोण ने अपनी गीतार्थता तथा उदार दृष्टि का परिचय भी अभयदेवसूरि प्रणीत समग्र टीकाओं का अवलोकन कर, संशोधन कर, प्रामाण्य की मोहर लगाकर दिया। आचार्य अभयदेव ने भी अपनी कृतज्ञता का प्रदर्शन प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ की टीका के अन्त में वल्लभ-भारती ] [३१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६९ "नमः प्रस्तुतानुयोगशोधिकायै श्रीद्रोणाचार्यप्रमुखपदे'' आदि पूज्य-शब्दों द्वारा प्रकट किया। इस प्रकार दोनों का सौजन्य, मिलनसारिता, समयज्ञता, सचमुच ही अन्ध-समाज के सन्मुख "सर्च लाइट" के समान प्रकाशकारिका सिद्ध हुई। आचार्य अभयदेव ने निम्नलिखित ग्रन्थों पर टीकाएं बनाई हैं:ग्रन्थनाम रचनासमय स्थल श्लोक परिमाण १. स्थानाङ्ग सूत्र वृत्ति ११२० पाटण १४२५० २. समवायाङ्ग सूत्र वृत्ति । ११२० ३५७५ ३. भगवती सूत्र वृत्ति ११२८ १८६१६ ४. ज्ञाता सूत्र वृत्ति ११२० ३८०० ५. उपासकदशा सूत्र वृत्ति ८१२ ६. अन्तकृद्दशा सूत्र वत्ति ७. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र वृत्ति १६२ . ८. प्रश्नव्याकरण सत्र वृत्ति ४६०० ६. विपाक सूत्र वृत्ति ६०० १०. औपपातिक सूत्र वृत्ति ३१२५ ११. प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी १३३ १२. पञ्चाशक सूत्र वृत्ति ११२४ धोलका: ७४८० १३. सप्ततिका भाष्य । १६२ १४. बृहद् वन्दनकभाष्य १५. नवपद प्रकरण भाष्य ___ इनके अतिरिक्त कतिपय स्तोत्र आदि साहित्य भी उपलब्ध है:१. पञ्चनिन्थी २. आगम अष्टोत्तरी ३. निगोद षट्तिशिका ४. पृद्गल षनिशिका ५. आराधना प्रकरण गा० ८५ ६ . आलोयणाविधि प्रकरण गा० २५ . ७. स्वधर्मीवात्सल्य कुलक ८. जयतिहअण स्तोत्र गा०३० ६. वस्तु पार्श्वस्तव (देवदुत्थिय) गा० १६ १०. स्तम्भन पार्श्वस्तव गा०८ ११. पार्श्वविज्ञप्तिका (सुरनरकिन्नर ० प ० २२, जैसलमेर भंडार) १२. विज्ञप्तिका (जैसलमेर भं०) प ० २६ १३. पट्स्थान भाष्य गा० १७३ १४. वीरस्तोत्र गा० २२ १५. षोडशक टीका [पत्र ३७] १६. महादंडक १७. तिथि पयन्ना १८. महावीर चरित्र गा० १०८ (अपभ्रंश) १६. उपधानविधि पंचाशक प्रकरण गा० ५० शास्त्रार्थनिर्णयसूसौरभलम्पटस्य, विद्वन्मधूव्रतगणस्य सदैव सेव्यः । श्रीनिर्वृताख्यकुलसन्नदपद्मकल्पः, श्रीद्रोणसूरिरनवद्ययशःपरागः ।। शोधितवान् वृत्तिमिमां युक्तो विदुषां महासमूहेन । शास्त्रार्थनिष्कनिष्कषणकषपट्टककल्पबुद्धीनाम् ।। [भगवती वृत्ति प्रशस्तिः] ३२] [ वल्लभ-भारती १५१ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावक चरित और सुमतिगणि तथा जिनापालोपाध्याय के प्रबन्धों के अनुसार शासनदेव की प्रेरणा और समय-समय पर सहायता देने के वचन से प्रभावित होकर आचार्य ने टीका रचना का कार्य हाथ में लिया और विवादास्पद तथा शंकापूर्ण स्थलों पर शासन देवता जया, विजया, जयन्ति, अपराजिता, पद्मावती आदि देवीवर्ग महाविदेह स्थित सीमन्धर तीर्थंकर से उत्तर प्राप्त कर आचार्य को देती थी। इससे टीका सर्वाङ्ग सुन्दर बन सकी है। इस प्रकार का मन्तव्य युक्त नहीं कहा जा सकता । यदि हम मान भी लें कि देवियों ने तीर्थंकर से उत्तर प्राप्त करके दिया हो तो, आचार्य अभयदेव को स्थान-स्थान पर "प्रायोऽस्य कूटानि च पुस्तकानि" "इह च बड़वो वाचनाभेदा:” “कस्यांश्चिद् वाचनायामपरमपि सम्बधसत्रमपलभ्यते" "सत्सम्प्रदायहीनत्वात" "तत्त्वं त केवलीगम्यम्" इत्यादि शब्दों का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं रहती तथा अन्य किसी भी स्थल पर इस बात का उल्लेख आचार्य अवश्य करते । जब आचार्य द्रोण के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन आचार्य न भूल सके तो भला ऐसी महत्त्वपूर्ण वस्तु प्राप्त करने वाले शासनदेवियों को कैसे भूल जाते ? वस्तुतः वह समय चमत्कार प्रदर्शन का युग था। अतिशयोक्ति का समय था। वस्तु के अभाव में भी ख्याति कराने के लिये इस प्रकार से परवर्ती समुदाय चमत्कार का आश्रय लिया करते थे । अतः तत्कालीन ऐसी मनोवृत्ति से प्रेरित होकर प्रबन्धकारों ने चमत्कार का आश्रय लिया होगा, ऐसा प्रतीत होता है । रचना के समय अहर्निश जागरण और रचना प्रारंभ से अन्त तक अत्युग्र आचाम्ल तप का सेवन इत्यादि अनेक कारणों से आचार्य का शरीर व्याधि-जर्जरित हो गया। केवल व्याधि से शरीर ही जर्जरित नहीं हो गया था किन्तु दुर्जनों के कुवाक्यों ने मन पर भी बुरा आघात पहुँचाया था। कोई कहता था कि टीकाओं की रचना में इन्होंने उत्सूत्र-प्ररूपणा की है और कोई अन्य मिथ्या प्रचार कर इनके हृदय को दुखाता था। यही कारण है कि आचार्य अनशन ग्रहण करने को तैयार हो गये थे। किन्तु शासन का सौभाग्य था इसलिये आचार्य अनशन के विचार को अमल में न ला सके, अपितु दूसरा ही कार्य उन्होंने किया; वह कार्य था स्तम्भन पार्श्वनाथ का प्रकटीकरण । व्याधिग्रस्त अवस्था में भी आचार्य कमशः प्रवास करते हुए खंभात पधारे और १. प्राचार्य को क्या रोग हुआ था ? इस सम्बन्ध में सब ही प्रबन्धकार रोग का नाम पृथक्-पृथक् लिखते हैं । प्रभावक चरित ५० १३० के अनुसार रक्तविकार, उपदेशसप्ततिका के अनुसार कुष्ठरोग, तीर्थकल्प के पृ० १०४ पंक्ति २६ के अनुसार अतिसार रोग हुआ था। कुछ भी हो, चाह रक्तविकार हो, चाहे कुष्ठरोग हो और चाहे अतिसार हो, यह तो निश्चित है कि प्राचार्य व्याधि से पीडित अवश्य थे। २. प्रभावक चरित (अभयदेव चरित प० १३०-१३१) वल्लभ-भारती ] [ ३३ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहां से निकट ही सेढी' नदी के पार्श्ववर्ती स्थान खंख रापलाश में पहुँच कर "जयतिहुअण वर" इत्यादि नूतन पद्यों से भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति की । और उसी समय भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति भूमि से स्वयमेव प्रगट हुई और वही मूर्ति खंभात में नूतन देवालय बनाकर प्रतिष्ठित की गई जो आज भी मौजूद है । अशातावेदनीय का नाश होने से और भगवान् पार्श्वनाथ के प्रभाव से आचार्यश्री का रोग शान्त होभाया। सुमति गणि रचित गणधरसार्द्ध शतक वृत्ति, उ० जिनपाल कृत युगप्रधानाचार्य गुर्वावली, जिनप्रभसूरि कृत विविध तीर्थकल्प और उपदेशसप्ततिका के अनुसार पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रकट करने के पश्चात् आचार्यश्री ने नवाङ्गों पर टीका रची थी और प्रभावक चरित, प्रबन्ध-चिन्तामणि और पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह के अनुसार नवाङ्ग टीका की पूर्णाहूति होने के पश्चात् स्तम्भन पार्श्वनाथ का प्रकटीकरण हुआ ? ___ इन दोनों कार्यों में से (स्तम्भन पाश्र्वनाथ स्थापना और नवाङ्ग वृत्ति रचना) प्रथम कौनसा कार्य हआ? इस पर भी जरा विचार करन म अपने प्रत्यक्ष जीवन में अनुभव करते हैं कि आज की की हुई वार्ता जनता के मुख पर फैलती हुई कुछ समय बाद दूसरा ही रूप ले लेती है। यदि यही वार्ता का समय ५०-१०० वर्ष व्यतीत हो जाय तो उस वार्ता का रूपान्तर मात्र ही हमें प्राप्त होगा। इसी प्रकार आचार्य के जीवनवृत्त से सम्बन्धित समग्न ग्रन्थ १२५ और २५० वर्ष के मध्य में रचे गये हैं । अतः प्रारम्भ का अन्तिम और अन्तिम का प्रारम्भ स्वरूप ले ले तो कोई आश्चर्य नहीं। मेरे नम्र मतानुसार यह भी सम्भव है कि वह समय चमत्कार का समय था। स्तम्भन पार्ननाथ का भूमि से प्रकट होना नवाङ्ग-वृत्ति रचना की अपेक्षा साधारण जनतां की दृष्टि में अत्यधिक महत्त्व रखता है। चमत्कार चमत्कार ही है जो साधारण से साधारण व्यक्ति भी इसकी जानकारी रखने में अपनी शान का अनुभव करता है और साहित्य-सृजन केवल विद्वान् ही जान पाते हैं । इस दृष्टि से पार्श्वनाथ की घटना चमत्कारपूर्ण होने से पूर्व में स्थान प्राप्त कर चुकी है । वस्तुतः नवाङ्ग टीका का कार्य आचार्य ने पूर्व में किया था और उपरि उल्लिखित अहर्निश जागरणादि कार्यों से आचार्य व्याधि-पीडित होने पर स्तम्भनक पधारे और उसी समय वहीं पर पार्श्वनाथ प्रतिमा का प्रकटीकरण किया। एक प्रश्न यहां अवश्य ही विचारणीय हो सकता है कि आचार्य ने अपने टीका-ग्रन्थों के प्रारम्भ और अन्त में भगवान महावीर के साथ श्रीपार्श्वनाथ को भी स्मरण किया है, वह भी अधिकता से । इसलिये पार्श्वनाथ स्थापना के पश्चात् ही टीकाओं की रचना की हो । यह दलील मानी जा सकती है और नहीं भी ; क्योंकि पार्श्वनाथ स्थापना के पूर्व भी वे भगवान् १. सेती नदी वस्तुतः खंभात के पास नहीं है किन्तु मही नदी है। हां, खेडा मातर के पास सेढी नदी अवश्य है और उसके किनारे थांभरण नामक एक ग्राम भी है । सम्भव है 'थंभणयपुरठ्ठिय' इत्यादि में इसी को स्तम्भनपुर कहा हो । कालान्तर से किसी अज्ञात संयोगवश स्तम्भन पार्श्वप्रभु की प्रतिमा खंभात में लाई गई हो और इसी निमित्त से पिछले कुछ समय से खंभात का नाम स्तम्भतीर्थ, स्तम्भनपुर प्रचलित हो गया हो। [बल्लभ-भारती Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ को अपना आराध्यतम देव समझते हों तो उनका नाम दे सकते हैं। केवल नाम से हम निश्चित करने में असमर्थ हैं कि स्थापना के पश्चात् टीका-प्रणयन हुआ हो । आप केवल जैनागमों के ही उद्भट विद्वान् नहीं थे अपितु तर्क शास्त्र और न्याय - शास्त्र के भी प्रकाण्ड पंडित थे । उस समय के प्रसिद्ध विद्वान् प्रसन्नचन्द्रसूरि वर्द्ध मानसूरि, हरिभद्रसूरि और देवभद्रसूरि ने आप ही के पास विद्याध्ययन किया था और आपको ही वे अपने गुरु रूप में, स्वयं को विनेय रूप में मानते थे । आचार्य जिनवल्लभसूरि ने अपने चित्रकूटीय वीरचैत्य - प्रशस्ति में लिखा है : --- सतर्क न्यायच चचितचतुरगिरः श्री प्रसन्नेन्दुसरि सूरिः श्रीवर्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनोड़ देवभद्रः । इत्याद्याः सर्व विद्यार्णव सकलभुवः सञ्चरिष्णूरुकीत्तिस्तम्भायन्तेऽधुनापि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ॥ में इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य अभयदेव ने लगभग ६२००० श्लोक प्रमाण साहित्य की रचना कर जैनागमों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया । वह सचमुच श्लाघ्यतम प्रयत्न था । आपकी प्रभावशालिता के सम्वन्ध में हम कुछ न लिखकर केवल मुनि जिनविजयजी के शब्द ही यहां उद्धृत करते हैं' : "जिनेश्वरसूरि के अनुक्रम में शायद तीसरे परन्तु ख्याति और महत्ता की दृष्टि से सर्वप्रथम ऐसे महान् शिष्य श्रीअभयदेवसूरि थे जिन्होंने जैनग्रन्थों में सर्वप्रधान जो एकादशाङ्ग सूत्र हैं उनमें से नव अंग सूत्रों पर सुविशद संस्कृत टीकायें बनाई । अभयदेवाचार्य अपनी इन व्याख्याओं के कारण जैन साहित्याकाश में कल्पान्तस्थायी नक्षत्र के समान सदा प्रकाशित और सदा प्रतिष्ठित रूप में उल्लिखित किये जायेंगे । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के पिछले सभी गच्छ और सभी पक्ष वाले विद्वानों ने अभयदेवसूरि को बड़ी श्रद्धा और सत्यनिष्ठा के साथ एक प्रमाणभूत एवं तथ्यवादी आचार्य के रूप में स्वीकार किया है और इनके कथनों को पूर्णतया आप्तवाक्य की कोटि में समझा है । अपने समकालीन विद्वत्समाज में भी इनकी प्रतिष्ठा बहुत ऊँची थी । शायद ये अपने गुरु से भी बहुत अधिक आदर के पात्र और श्रद्धा के भाजक बने थे । " जिनवल्लभसूरि यद्यपि अभयदेवाचार्य ने अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य एवं विपुल साहित्य से विद्वत्समाज में सदा के लिये अपना स्थान बना लिया और इस कार्य द्वारा श्री वर्धमान और श्री जिनेश्वर द्वारा प्रचारित सुविहित-सरिता को प्रगति प्रदान करने में उन्होंने एक अत्यन्त ठोस कार्य १. कथाकोष प्रकरण प्रस्तावना पृ० १२ वल्लभ-भारती ] [ ३५ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया, , परन्तु इसके करने में उन्हें जो चैत्यवासियों से समझौता करना पड़ा, उसके कारण सुविहित क्रान्ति की जो प्रचण्ड ज्वाला श्री जिनेश्वर ने एकाएक उत्पन्न कर दी थी वह कुछ दिनों के लिये मन्द पड़ गई और जनता के चित्त से वह लगभग उतरसी गई । उसी क्रान्ति की सुषुप्त और विस्मृतप्राय चिनगारियों को लेकर जैन समाज के जन-जन के मन में पुनः आग लगाने और सुविहित विचार-धारा के लिये अदम्य उत्साह एवं लगन उत्पन्न करने तथा चैत्यवास के विरुद्ध एक ब्यापक और विकराल आन्दोलन को पुनः जागरित करने का श्रीजिनवल्लभसूरि को है । श्रीजिनवल्लभसूरि आचार्य अभयदेव के पट्टधर थे और इनकी काव्य प्रतिभा, विद्वत्ता तथा वाक्पटुता की कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी । ३६ ] [ वल्लभ-भारती Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय:२ कवि का जीवन-वृत्त और देन आचार्य जिनवल्लभसूरि का जीवन-वृत्त आचार्य जिनवल्लभसूरि ने वि० सं० ११६३ में स्वप्रणीत अष्ट सप्ततिका अपरनाम चित्रकूटीय वीर-चैत्य-प्रशस्ति नामक ग्रन्थ में अपनी स्वयं की आत्मकथा का जो संक्षेप में आलेखन किया है, उसका सारांश इस प्रकार है: . निर्मल 'चन्द्रकुल' में श्री वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि हुये जो सिद्धान्तसम्मत साध्वाचार का उग्रता से पालन करने वाले तथा प्रगाढ और प्रतिभा सम्पन्न आगमज्ञ थे। एवं जिन्होंने राज्य सभा में सिद्धान्त-विरुद्ध आचरण वाले आचार्यों की प्ररूपणा और मान्यताओं को शास्त्रा-विरुद्ध ठहराकर गुर्जर प्रदेश (गुजरात) में संविग्न साधुओं (सुविहितों) के विहार मार्ग को सर्वदा के लिये प्रशस्त किया। ऐसे प्रकृष्ट गीतार्थ जिनेश्वरसूरि के शिष्य श्रु तज्ञान रूपी ऐश्वर्य से अन्धकार रूपी स्मर को नाश करने में महेश्वर के समान श्री अभयदेवसूरि हुये। जिन्होंने स्वगुरूपदेश और स्वयं की विशद प्रज्ञा से श्रमण भगवान् महावीर के वंशज गणधरों द्वारा ग्रथित स्थानाङ्ग सूत्र से विपाक सूत्र पर्यन्त नवाङ्गों- जिनका गम्भीरार्थ उस समय तक अनुद्घाटित था-पर श्री संघ के तोष के लिये टीकाओं की रचना की। - आचार्य अभयदेव का यश सौरभ तो विश्वव्यापी था ही, और उनके प्रमुख शिष्योंप्रसन्नचन्द्रसूरि, वर्द्ध मानसूरि, हरिभद्रसूरि एवं देवभद्रसूरि आदि की वैदुष्य कीत्ति से आज भी दिग्दिगन्त स्तम्भित है। ऐसे सुविहित शिरोमणि और श्रेष्ठ गीतार्थ श्री अभयदेवसूरि से लोकों में अच्यं कूर्चपुरगच्छीय श्री जिनेश्वरसूरि का शिष्य, गणि पदधारक जिनवल्लभ (मैं) ने उपसम्पदा और सिद्धान्त-ज्ञान प्राप्त किया। वल्लभ-भारती ] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां ग्रन्थकार स्वयं के लिये कहता है कि-विद्या को योग्य स्थान न मिलने से विश्व में भ्रमण करती हुई पीडित हो गई थी, मुझे योग्य पात्र समझ कर सूक्ष्म शरीर द्वारा मेरे में समाविष्ट हो गई और भूरिकाल से प्रीति की तरह वृद्धि को प्राप्त होती गई। कदाचित् मैं विहार (भ्रमण) करता हुआ चित्तौड़ आया। वहां के समुदाय ने मुझे सद्गुरु के रूप में स्वीकार किया। उस समय अम्बक, केहिल और वर्द्धमानदेव आदि प्रमुख व्यापारियों का समुदाय चित्तौड़ में रहता था और शुद्ध देव एवं सत्गुरु की उपासना करता रहता था । चित्तौड़ में उस समय पंक्ति बद्ध विशाल जैन-मन्दिर थे। __ मेरे उपदेश से चित्तौड़ के निवासियों ने शास्त्र-सम्मत विधिपक्ष, विधि-चैत्य और सुविहित साधुओं का स्वरूप समझ कर, चैत्यवासियों की मान्यता और प्ररूपणा का ल्याग कर सुविहित पक्ष के अनुयायी बने । उस समय वहां का समृदाय अपने को ऐसा मानने लगा, मानो इस कर भस्मकाल में भी हमें नवीन अर्हच्छासन प्राप्त हुआ है और इसी श्रद्धा से वे कुपथ से विमुख होकर धर्म-कर्म करने लगे। आ० जिनवल्लभ ने स्वप्रतिबोधित विधिपयानुयायी श्रेष्ठियों के कतिपय नाम इस प्रकार दिये हैं धर्कटवंशीय सोमिलक, वर्धमान का पुत्र वीरक, पल्लिका पुरी (पाली) में प्रख्यात प्रद्युम्नवंशीय माणिक्य का पुत्र सुमति, क्षैमसरीय (संभवतः खींवसर निवासी) भिषग्वर सर्वदेव और उसके तीनों पुत्र रासल, धन्धक एवं वीरक, खण्डेलवंशीय मानदेव और पद्मप्रभ का पुत्र प्रल्हक, पल्लिका में विश्रु त शालिभद्र का पुत्र साधारण और पल्लिका में चन्द्र समान ऋषभ का पुत्र सड्ढक आदि । इन श्रीष्ठियों ने चित्तौड़ में धर्माराधन हेतु विधि-चैत्य का अभाव महसूस कर नवीन चैत्य निर्माण का संकल्प किया। चैत्यवासियों के गढ़ में विधि-चैत्यों का निर्माण वेषधारियों के लिये कदापि सह्य नहीं था। उन्होंने निर्माण कार्य का ध्वंस करने के लिये भरपूर प्रयत्न किये, किन्तु उनके सारे प्रयत्न असफल रहे और अन्त में साधारण आदि उपरोक्त श्रीष्ठियों के प्रयत्नों से निर्माण कार्य पूरा हुआ। इस विशाल महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा (वि० सं० ११६३) में बड़े महोत्सव से सम्पन्न हुई। कल्याणक आदि पर्व दिवसों में अब धार्मिक समुदाय बड़े भक्तिभाव और आडम्बर से उत्सव मनाता है तथा अर्चन-पूजन करता हुआ कल्याणकारी मार्ग की ओर अग्रसर हो रहा है। इस गैत्य की अर्चा निमित्त प्रत्येक सूर्य संक्रान्ति पर दो पारुत्थ चित्तौड़ के धर्मदाय विभाग से देने का महाराजा श्री नरवर्मा ने आदेश दिया है। जिनवल्लभसूरि के इस अन्तरङ्ग प्रमाणभूत संक्षिप्त आत्मकथा के अतिरिक्त उनके योग्य शिष्य युगप्रधान दादोपनामधारक श्री जिनदत्तसूरि ने गणधरसार्द्ध शतक में , ६१ पद्यों में अपने गुरु की जो स्तुति को है उसकी टीका करते हुए उन्हीं के प्रशिष्य श्रीसुमति गणि ने आचार्य जिनवल्लभसूरि का विस्तार से जीवन-वृत्त दे दिया हैं। इसी का आधार लें। ३८ ] [ वल्लभ भारती Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर आचार्य का जीवन-चरित परवर्ती कई लेखकों ने लिखा है। श्रीसुमतिगणि के गुरुभाता श्री जिनपालोपाध्याय ने 'खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में जिनवल्लभसूरि का जो जीवन-चरित लिखा है, वह लगभग अक्षरशः सुमतिगणि द्वारा दिए हुए चरित से मिलता है । अन्तर है तो केवल इतना ही कि सुमतिगणि की भाषा आलङ्कारिक वर्णनों से परिपूर्ण है तो, उपाध्यायजी की भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है । इसलिये इसी वृत्ति को आधार मानकर हम भी उनका संक्षेप में जीवन चरित दे रहे हैं। बाल्यकाल और दीक्षा बालक जिनवल्लभ ने अपना पठन-पाठन आसिका (हांसी) नामक स्थान के एक चै यालय में प्रारम्भ किया । कूर्चपुरीय जिनेश्वराचार्य ने इस बालक की प्रतिभा की सब से पहले परख की। उन्होंने देखा कि बालक जिनवल्लभ अपने सभी सहपाठियों से अधिक मेधासम्पन्न है । इसी बीच में एक चमत्कार हुआ। बालक जिनवल्लभ को चैत्यालय के बाहर एक पत्र पड़ा मिला, जिसमें 'साकर्षिणी' और 'सर्पमोचिनी' नाम की दो विद्याएं लिखी हुई थीं। बालक ने दोनों को कण्ठस्थ कर लिया, परन्तु ज्योंही उसने सर्पाकर्षिणी विद्या को पढ़ा त्योंही बड़े-बड़े भयंकर सर्प उसकी ओर आने लगे; परन्तु वह बालक उस स्थान पर निर्भयता पूर्वक खड़ा रहा और उसने अनुमान किया कि यह इसी विद्या का प्रभाव है। जैसे ही उसने दूसरी विद्या का उच्चारण करना प्रारम्भ किया वैसे ही सब सर्प भाग गये। इस घटना को सुनकर जिनेश्वराचार्य बहुत ही प्रभावित हुए। उन्होंने समझ लिया कि यह बालक कोई सात्विक गुण-सम्पन्न होनहार व्यक्ति है । अतः उन्होंने उसको शिष्य बनाने की मन में ठान ली। उन दिनों चैत्यालयों में आचारशिथिलता बहुत आ गई थी और प्रलोभन आदि देकर भी शिष्यों को फांसना बुरा न समझा जाता था। इसलिये जिनेश्वराचार्य ने न केवल उस बालक को द्राक्ष, खजूर आदि देकर वश में किया अपितु उसकी माता को भी द्रव्य देकर और मीठी-मीठी बातें बनाकर जिनवल्लभ को अपने अनुकूल कर लिया और तुरन्त ही उसको दीक्षा दे दी। विद्याभ्यास जिनेश्वराचार्य ने बड़े मनोयोग के साथ जिनवल्लभ को पढ़ाना प्रारम्भ किया। उनके शिष्यत्व में शीघ्र ही उन्होंने तर्क, अलङ्कार, व्याकरण, कोष आदि अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। जिनवल्लभ की प्रखर बुद्धि जैसी विद्याध्ययन में सफल होती थी वैसी ही व्यावहारिक क्षेत्र में भी । एक बार जिनेश्वराचायं किसी काम से आसिका से बाहर गये । जाते समय उन्होंने उस चैत्यालय तथा उससे सम्बन्धित वाटिका, विहार, कोष्ठागार इत्यादि की व्यवस्था का सारा भार जिनवल्लभ को सौंप दिया। जब वे वापिस आये तो यह जानकर बल्लभ-भारती] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत प्रसन्न हुए कि जिनवल्लभ ने सारा प्रबन्ध बड़ी कुशलता के साथ किया और उसमें कोई भी कमी नहीं आने दी। अपने गुरु के प्रवास काल में बालक जिनवल्लभ को संयोगवश एक वस्तु और मिली, जिसका महत्त्व संभवतः उस समय उनको न मालूम हुआ होगा, परन्तु कौन कह सकता है कि उनके जीवन की दिशा को बदलने में उसने अप्रत्यक्ष रूप से बहुत बड़ा काम नहीं किया ! घटना इस प्रकार है: -- जब जिनेश्वराचार्य दूसरे ग्राम में चले गये तब बाल-सुलभ कौतूहलवश उन्होंने एक पुस्तकों से भरी हुई पेटी की छान-बीन प्रारम्भ की। उसमें उनको एक सिद्धान्त-पुस्तक मिली । उस पुस्तक में उन्होंने जो पढ़ा उससे उन्हें पता चला कि चैत्यवासियों का जो आचारविचार है वह ( दसवैकालिक आदि ) सिद्धान्त के बिल्कुल विपरीत है । उसमें लिखा था" साधु को ४२ दोषों से रहित होकर गृहस्थों के घरों से थोड़ा-थोड़ा भोजन उसी प्रकार लाना चाहिए जिस प्रकार मधुकर विभिन्न फूलों से रस को एकत्र करता है । इस वृत्ति के द्वारा साधु की देहधारणा हो जाती है और किसी को कष्ट भी नहीं होता। साधुओं को एक स्थान पर निवास नहीं करना चाहिए और न सचित्त फूल - फलादि को स्पर्श ही करना चाहिये ।” यह पढ़ते ही बालक जिनवल्लभ का मन उद्व ेलित हो उठा और उन्होंने सोचा, "अहो ! अन्य एव स कश्चिद् व्रताचारो, येन मुक्तौ गम्यते, विसदृशस्त्वस्माकमेष समाचारः, स्फुटं दुर्गतिगर्तायां निपततां एतेन न कश्चिदाधारः" अर्थात् "अहो ! जिससे मुक्ति प्राप्त होती है वह तो व्रत और आचार कोई दूसरा ही है, हमारा तो यह आचार बिल्कुल विपरीत ही है। हम तो स्पष्टतया ही दुर्गंति के गड्ढे में पड़े हुए हैं और हम बिल्कुल निराधार हैं ।" अभयदेवसूरि से विद्याध्ययन महापुरुषों के जीवन का यह एक व्यापक रहस्य है कि उनके मन में उठने वाले महत्त्वपूर्ण संकल्पों की सिद्धि का मार्ग स्वतः ही तैयार हो जाता है । जिनवल्लभ के विषय में भी यही हुआ । उनके मन में साधु के सच्चे व्रताचार के लिये जो उत्कण्ठा थी उसके लिये समुचित साधन स्वतः ही उपस्थित हो गये। जिनेश्वराचार्य ने स्वयं सोचा कि जिनवल्लभ सिद्धान्त-ग्रन्थों की शिक्षा दिलवाना आवश्यक है । उस समय सिद्धान्त-ग्रन्थों के ज्ञान में श्री अभयदेवसूरि की बड़ी प्रसिद्धि थी । उन्होंने जिनवल्लभ को उन्हीं आचार्य के पास पाण में भेज दिया । सिद्धान्त-ग्रन्थ पढ़ने के लिए यह आवश्यक है कि पढ़ने वाला व्यक्ति अधिकारी हो; यही अधिकार प्रदान करने के लिए उन्हें वाचनाचार्य बनाकर भेजा ।' जिनवल्लभगणि के साथ उनके गुरुभ्राता जिनशेखर भी गये । उन दिनों चैत्यवासियों और वसतिवासियों में पर्याप्त संघर्ष रहा करता था, अतः एक चैत्यवासी आचार्य के शिष्य को आगम की वाचना देना स्वीकार कर लेना एक वसति १. यहां से आपकी ख्याति ""जनवल्लभ गरिण" के नाम से हुई । ४० ] [ वल्लभ-भारती Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासी आचार्य के लिये संकट से खाली नहीं था। इसलिये श्रीअभयदेवसूरि के मन में भी संशय उठा कि वह जिनवल्लभ को वाचना दें या नहीं? परन्तु जब उनको विश्वास हो गया कि जिनवल्लभ के मन में सिद्धान्त-वाचना के लिये उत्कृष्ट अभिलाषा है और उसके लिये उपयुक्त पात्रता भी है तो उन्होंने सोचा कि: . "मरिज्जा सह विज्जाए, कालम्मि प्रागए विऊ। प्रपत्तं च न वाइज्जा, पत्तं च न विमारणए ॥" अर्थात्-अवसान समय के आने पर विद्वान् मनुष्य अपनी विद्या के साथ भले मर जाय, परन्तु अपात्र को शास्त्रवाचना न करावे और पात्र के आने पर उसका (वाचना न कराके) अपमान न करे। इसलिये उन्होंने गणि जिनवल्लभ को वाचना देना स्वीकार कर लिया। जैसेजैसे जिनवल्लभगणि अपने विद्याभ्यास से उन्हें सन्तुष्ट करते गये वैसे ही वे विद्यादान में अधिकाधिक उत्साही होते गये । इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने थोड़े से समय में ही सारे सिद्धान्त-ग्रन्थों का अध्ययन पूर्ण कर लिया। जिनवल्लभगणि की प्रखरबुद्धि और ज्ञान पिपासा को देखकर आचार्य ने उन्हें एक बहुत बड़े ज्योतिषज्ञ के पास भेजा। इस विद्वान् ने आचार्ग से पहले ही कह रखा था कि आपका कोई योग्य शिष्य हो तो उसे मेरे पास भेजें, जिससे मैं उसको अपना समग्र ज्योतिष-ज्ञान सिखला दूं। योग्य शिष्य को पाकर किस गुरु का मन प्रसन्न न होगा ? वह ज्योतिषाचार्य भी जिनवल्लभगणि जैसे छात्र को पाकर बहुत ' सन्तुष्ट हुआ और उसने उन्हें अपनी सारी विद्या सिखा दी। उन्होंने कौन-कौन से ग्रन्थ पढ़े इसका तो पता नहीं चलता, परन्तु इस सम्बन्ध में सुमतिगणि और जिनपालोपाध्याय दोनों ने ही यही लिखा है कि उन्होंने “सर्व ज्योतिषशास्त्र" पढ़े थे। - जिनवल्लभगणि की विद्वत्ता का वर्णन करते हुए उक्त दोनों लेखकों ने जिन लेखकों का और ग्रन्थों का उल्लेख किया है उनसे पता चलता है कि उन्होंने जैन-सिद्धान्त और ज्योतिष शास्त्र के अरिरिक्त और भी बहुत ग्रन्थ पढ़े थे । पत्तन में उन्होंने जो अध्ययन किया उसमें जैन-दर्शन और ज्योतिष शास्त्र के अतिरिक्त किन्हीं अन्य ग्रन्थों के अध्ययन करने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। अतः यह मानना पड़ेगा कि इनके अतिरिक्त उन्होंने जो कुछ अध्ययन किया उसके लिए तो अधिकांशतः वे चैत्यवासी जिनेश्वराचार्य के ही ऋणी थे। यही कारण है कि वे अपने प्रश्नोत्तरैकषष्टि शतक काव्य में जहां अपने 'सद्गुरु अभयदेवाचार्ग' पाके धातूरवाचि कः? क्व भवतो भीरोमनः प्रीतये? सालङ्कारविदग्धया बद कया रज्यन्ति ? विद्वज्जनाः । पाणी किं मुरजिद् बिति ? भुवि तं ध्यायन्ति ? के वा सदा, के वा सद्गुरवोत्र चारुचरणश्रीसुश्रु ता विश्रु ताः ॥१५८।। उत्तरम्-"श्रीमदभयदेवाचार्याः" वल्लभ-भारती] [४१ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का स्मरण करते हैं तो "मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः " कह कर उन चैत्यवासी आचार्य को भी नहीं भूलते। इससे सिद्ध होता है कि जिनेश्वराचार्य भी बड़े प्रकाण्ड पण्डित थे । उन्होंने जो ग्रन्थ संभवतः जिनवल्लभ को पढ़ाये, उसमें पाणिनीय आदि के आठों व्याकरण, मेघदूतादि काव्य, रुद्रट, उद्भट, दण्डी, वामन और भामह आदि के अलङ्कार ग्रन्थ, ८४ नाटक, जयदेव आदि के छन्दःशास्त्र के ग्रन्थ, भरत नाट्य और कामसूत्र, अनेकान्त जयपताकादि जैन न्यायग्रन्थ तथा तर्ककंदली, किरणावली, न्यायसूत्र तथा कमलशीलादि जैनेतर दार्शनिक ग्रन्थ थे । एक और ग्रन्थ या ग्रन्थकार जिसका उल्लेख उनकी विद्वत्ता के प्रसंग में मिलता है वह है "शङ्करनन्दन" । यह ठीक नहीं कहा जा सकता कि शङ्करनन्दन से अभिप्राय किससे है ? संभवतः यह कोई वेदान्ती आचार्य रहा हो । चैत्यवास त्याग और उपसम्पदा ग्रहण पत्तन में विद्याध्ययन समाप्त करने के पश्चात् जब वे अपने गुरु जिनेश्वराचार्य के पास वापिस जाने लगे तो आचार्य अभयदेवसूरि ने कहा कि "बेटा ! सिद्धान्त के अनुसार जो साधुओं का आचार-व्रत है वह तुम सब समझ चुके, अतः उसके अनुसार जिस प्रकार आचरण कर सको बैसा ही प्रयत्न करना।" यह वस्तुतः जिनवल्लभगणि के अन्तरात्मा की पुकार थी । उनके मन में चैत्यवास के प्रति अरुचि और वसतिवास के प्रति उत्कट प्र ेम पहिले से ही उत्पन्न हो चुका था, अतः जिनवल्लभगणि ने भी अभयदेवाचार्य के चरणों पर गिर कर कहा कि "गुरुदेव ! आपकी जो आज्ञा है वैसा ही निश्चित रूप से करूंगा।" इस वचन का पालन उन्होंने मार्ग में ही करना प्रारंभ कर दिया। जैसे ही मरुकोट (मरोट) में पहुंचे, (जहाँ ि उन्होंने आते समय देवगृह की स्थापना की थी) तो उन्होंने देवगृह में एक विधिवाक्य के रूप में निम्नलिखित श्लोक लिखा, जिसका पालन करके अविधिचैत्य भी विधिचैत्य होकर मुक्ति का साधन बन सके : प्रत्रोत्सूत्रिजनक्रमो न च न च स्नात्रं रजन्यां सदा, साधूनां ममतामयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि । जातिज्ञातिकदाग्रहो न च न च श्राद्धेषु ताम्बूलमि त्याज्ञाऽऽत्रेयमनिश्रिते विधिकृते श्रीजैन चैत्यालये ॥१॥ अब उन्होंने जिनेश्वराचार्य से पृथक् होने का दृढ़ संकल्प कर लिया था । यह कोई सरल कार्य नहीं था । उस बूढ़े की जिनवल्लभजी पर प्रगाढ ममता थी और इनका भी उनके प्रति अनुराग और भक्तिभाव होना स्वाभाविक था । अतः इस सुदृढ़ स्नेह - बन्धन को काट कर १. ४२ ] - कः स्यादम्भसि बारिवायसवति ? क्व द्वीपिनं हन्त्ययं ? लोके प्राह हयः प्रयोगनिपुणैः कः शब्दधातुः स्मृतः ? ब्रूते पालयितात्र दुर्धरतरः कः क्षुम्यतोम्भोनिधेब्र ूहि श्रीजिनवल्लभ ! स्तुतिपदं कीदृग्विधाः के सताम् ? ।। १५ ।। उत्तरं - "मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः” [ वल्लभ-भारती Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकल भागना, त्याग मार्ग स्वीकार करना साधारण कार्य न था । जिनवल्लभगणि के मन में भी परिस्थिति की गम्भीरता आई और उन्होंने सोचा कि संभवतः जिनेश्वराचार्य के चैत्य में पहुँच कर पूर्वस्मृतियां अत्यधिक वेग से जागृत हो उठेंगी और उस समय अपने संकल्प पर दृढ़ रहना कठिन हो जायगा । इसीलिये उन्होंने वहां न जाकर निकटवर्ती माइयड ग्राम में ही रह कर अपने गुरु को पत्र लिखकर मिलने के लिये बुलाया । पत्र में उन्होंने लिखा था- "मैं गुरु से विद्याध्ययन करके माइयड ग्राम आ गया हूं, यदि भगवन् ! यहीं आकर मुझ से मिलेंगे तो अति कृपा होगी ।" यह पत्र पढ़कर जिनेश्वराचार्य को बहुत आश्चर्य और दुःख हुआ । परन्तु फिर भी वे बड़े समारोह के साथ शिष्य को लेने माझ्यड ग्राम गये । यह सुन ही कि गुरुजी अनुग्रह करके पधारे हैं, जिनवल्लभगणि गद्गद हो गये और तत्काल उनके सामने पहुंचे और विधिवत् प्रणाम किया । स्नेह की सरिता उमड उठी । गुरु ने क्षेमकुशल पूछी, उसका उन्होंने यथोचित उत्तर दिया । इसी समय उनको अपना ज्योतिष का ज्ञान दिखाने का भी अवसर उपस्थित हुआ। एक ब्राह्मण वहां आया और उसने ज्योतिष की कई समस्याओं को उपस्थित किया । जिनवल्लभगणि द्वारा उनका समुचित समाधान देखकर जिनेश्वराचार्य बहुत ही आश्चर्यचकित हुए और उनके हृदय में अपार हर्ष एवं उल्लास उत्पन्न हो गया । ऐसी अवस्था में जिनवल्लभगणि के आसिका न जाने से उनके मन में जो शंका उत्पन्न हुई थी वह एक पहेली बनकर उनके मन में फिर उठी और उन्होंने पूछा कि, जिनवल्लभ ! यह क्या बात है कि तुम सीधे आसिका के अपने चैत्यवास में न आये और मुझे यहां बुलाया ? यह जिनवल्लभगणि के संकल्प, संयम और धैर्य की परीक्षा का समय था । कोई साधारण जन होता तो ममता और मोह के ऐसे पारावार में डूब गया होता, परन्तु जिनवल्लभगणि ने अत्यंत दृढ़ता के साथ विनीत स्वर में कहा - "भगवन् ! सद्गुरु के श्रीमुख से जिन वचनामृत का पान करके भी अब उस चैत्यवास का सेवन कैसे करू ? जो कि मेरे लिये विष-वृक्ष के समान है ।" यह सुनते ही आचार्य जिनेश्वर की आशाओं पर तुषारापात हो गया । उस समय उनकी दशा बड़ी दयनीय थी । वे बोले -"जिनवल्लभ ! मैंने यह सोचा था कि मैं अपना उत्तराधिकार देकर और चैत्यालय, गच्छ तथा श्रावक संघ का सारा भार तुम्हें सौंप कर स्वयं सद्गुरु के पास जाकर वसतिवास को स्वीकार करूंगा ।" उनके यह वचन सुनकर जिनवल्लभगणि का मुख हर्षोल्लास से जगमगा उठा और वे बोले-“भगवन् ! यह तो बहुत ही सुन्दर बात है । हेय वस्तु का परित्याग करके उपादेय वस्तु का ग्रहण करना ही विवेक का काम है, अतः दोनों एक साथ ही सद्गुरु के समीप चलकर सन्मार्ग को स्वीकार करें।" यह सुनकर जिनेश्वराचार्य ने एक दीर्घ निःश्वास ली और करुण स्वर में कहा कि- ' बेटा ! मुझ में इतनी निःस्पृहता कहां कि गच्छ चैत्य आदि को ऐसे ही छोड़ दूं ? हाँ, जब तुम तुल गये हो तो अवश्य वसतिवास को स्वीकार करो। " इस प्रकार गुरु से अनुमति प्राप्त करके वे पुनः पत्तन में गये और अभयदेवसूरि को अत्यन्त आदरपूर्वक प्रणाम किया। आचार्य अभयदेव भी हृदय में अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने सोचा कि मैंने इसको जैसा योग्य समझा था वैसा ही सिद्ध हुआ । उनके मन में यह दृढ़ विश्वास था कि - " जिनवल्लभ ही हमारा उत्तराधिकारी ( पट्टधर ) होने के सर्वथा योग्य है, परन्तु क्या उसको समाज स्वीकार करेगा ? वह एक चैत्यवासी आचार्य का शिष्य था, वल्लभ-भारती ] [ ४३ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर इससे क्या ? क्या पङ्क से पङ्कज उत्पन्न नहीं होता ?" इस प्रकार सोचते हुए भी अभयदेवसूरि जैसे प्रभावशाली आचार्य - शिरोमणि भी जिस बात को न्याय, धर्म और समाजहित की सर्वथा उचित समझते थे, उसको अन्धविश्वासी समाज का विरोध सहन करके भी करते । संभवतः वे भी यही सोचकर सतुष्ट हो गए कि “यद्यपि शुद्ध लोक विरुद्ध न करणीयं नाचरणीयम्” अतः आचार्यश्री के मन की बात मन में ही रह गई और उन्होंने स्थिति को लक्ष्य में रखते हुए समाज के सामने मत्था टेककर अपनी अन्तरात्मा की पुकार के विरुद्ध अपने दूसरे शिष्य वर्धमान को आचार्य पद देकर जिनवल्लभगणि को उपसम्पदा प्रदान की और सर्वत्र विचरण करने की अनुमति प्रदान की। तत्पश्चात् आचार्य अभयदेव के संकेतानुसार प्रसन्नचन्द्राचार्य की आज्ञा से उनके पश्चात् देवभद्राचार्य ने इनको पट्टधर बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु जब जिनवल्लभरि को यह पद प्राप्त हुआ, तो उनके जीवन का सूर्य अस्त होने वाला था । चित्रकूट गमन उपसम्पदा ग्रहण करके वे कुछ दिन गुर्जरप्रदेश में विहार करते रहे, परन्तु यहां उन्हें सुविहित सिद्धान्त प्रचार में वैसी सफलता नहीं मिली जैसी कि वे चाहते थे। उस समय गुजरात चैत्यवासियों का सबसे बड़ा गढ़ था। यहां पर जिनवल्लभगणि जैसे क्रान्तिकारी विचारक, कटु आलोचक और निर्भय वक्ता की दाल गलना सरल न था । यह तो अभयदेवाचार्य जैसे सुलझे हुए और व्यवहार कुशल व्यक्ति का ही काम था, जो चैत्यवासियों के प्रधानाचार्य आचार्य द्रोणसूरि तक से समुचित सन्मान प्राप्त कर सके और अपने नवाङ्गों की टीका पर उनकी छाप लगवा कर चैत्यवासियों द्वारा मान्य भी करा सके । परन्तु जिनवल्लभगणि दूसरे ही प्रकार के व्यक्ति थे, वे जिनका विरोध करते थे उसका बड़े उग्ररूप में; और उन्हें किसी विषय में और किसी समय शिथिलता तनिक भी पसन्द नहीं थी । इनकी असफलता का एक कारण यह भी हो सकता है चैत्यवास त्याग करने से चैत्यवासी इनको अपना शत्र सा समझने लगे होंगे और चैत्यवास के संसर्ग में रहने के कारण वमतिमार्गियों से उन्हें समुचित आदर एवं सहयोग न मिला होगा। इसी कारण संभवतः उन्होंने गुर्जरप्रदेश को छोड़ कर मेदपाट (मेवाड़) में जाना स्वीकार किया । यद्यपि वहां भी सर्वत्र चैत्यवासियों का जोर था, परन्तु नये प्रदेश में एक प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिए अपना स्थान बना लेना अधिक सरल होता है । 'घर का जोगी जोगिया, आन गांव का सिद्ध' यह कहावत प्रसिद्ध ही है। इसी के अनुसार महात्मा गौतम बुद्ध को जो आदर बाहर मिला वह उनकी जन्मभूमि कपिलवस्तु में नहीं ; भगवान् महावीर को भी लिच्छवी गण में सफलता तव ही मिली जब वे अन्यत्र प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे । यही बात आधुनिक काल में आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द के जीवन में भी हुई । अतः जिनवल्लभगणि को मेदपाट में अधिक सफलता प्राप्त होना स्वाभाविक ही था । मेदपाट प्रदेश में जाकर उन्होंने पहिले पहल चित्रकूट ( चितोड़ ) में कुछ दिन बिताने का निश्चय किया । वहां पर उनके गुरु आचार्य अभयदेव की कीर्ति और प्रतिष्ठा पर्याप्त थी । अतः वहां के लोग उनका कोई बिगाड़ तो न कर सके परन्तु फिर भी उन्हें कुछ क्षुद्रजनों का ४४ ] [ वल्लभ-भारती Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्त विरोध सहन करना पड़ा। वहां के श्रावकों से उन्होंने रहने के लिये स्थान मांगा तो उत्तर मिला - " यहां एक चण्डिकामठ है वहां यदि ठहरना चाहें तो ठहर जांय ।" गणिजी उनके दुष्ट अभिप्राय को अच्छी तरह से समझते थे, परन्तु फिर भी वे देवगुरु के प्रसाद पर विश्वास रख के वहीं पर ठहर गये । चण्डिका देवी भी उनके ज्ञान, ध्यान और अनुष्ठान से प्रसन्न हुई और उनकी सिद्धिदात्री बन गई। उनके पास प्रतिदिन अनेक दार्शनिक ब्राह्मण आने लगे । इनमें से प्रत्येक निज निज शास्त्रों के विषय में उनसे वार्तालाप करता था और उनके उत्तर से सन्तोषलाभ करता था। धीरे धीरे उनकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि और उनके पाण्डित्य का प्रभाव व सुयश सर्वत्र फैल गया। जैन श्रावक भी उनकी ओर आकर्षित हुए और उनको विश्वास होने लगा कि यही एक साधु है जो सर्व संशयों को दूर करके हमारे हृदय के अन्धकार को दूर कर सकता है । गणिजी जी में जो बात सब से अधिक आकर्षण करने वाली थी वह यह थी कि उनकी 'कथनी' और 'करणी' एक थी। वे जिन सिद्धान्तवचनों की व्याख्या अपने बचनों में करते थे उन्हीं को वे अपने आचरण में भी उतारते थे । यही कारण है कि साधारण, सड्ढक, सुमति, पल्हक, वीरक, मानदेव, धन्धक, सोमिलक, वीरदेव आदि श्रावकों ने जिनवल्लभगणि को सद्गुरु के रूप में स्वीकार किया । गणिजी के चमत्कार चित्रकूट में रहते हुए जिनवल्लभगणि ने कई चमत्कारपूर्ण कार्य किए। इनका साधारण नाम का एक भक्त श्रावक एक बार उनके पास आया । वह चाहता था कि अपने जीवन में परिग्रह की एक सीमा निर्धारित करलू । इसका संकल्प लेने के लिये जब वह उनके पास आया तो उन्होंने पूछा कि तुम अपने सर्व संग्रह की सीमा कितनी रखना चाहते हो ? साधारण श्रावक का वैभव साधारण ही था, अतः उसने सर्व संग्रह की सीमा २० हजार की रखनो चाही । परन्तु जिनवल्लभगणि जो अपने ज्योतिष ज्ञान से उसके भावी ऐश्वर्य को देख सकते थे, अतः उन्होंने उस सीमा को और बढाने के लिये कहा । तब साधारण ने तीस सहस्र कहे परन्तु जिनवल्लभगणि ने कहा कि "यह पर्याप्त नहीं है और अधिक बढाओ ।" साधारण को इस पर बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसके गृह की समस्त वस्तुओं का मूल्य ५०० भी नहीं होता था, फिर भी गणिजी के बारंबार आग्रह करने पर उसने एक लाख का सर्व परिग्रह निश्चित किया । स्वल्प कालान्तर में ही उसकी सम्पत्ति इतनी बढी कि वह एक लक्षाधीश कहलाने लगा और वह सम्पूर्ण संघ में अग्रगण्य हो गया । इस चमत्कार से वे सारे सेठ भी उनकी ओर आकर्षित हो गये; जो साधुओं के पास धर्म और चरित्र की शिक्षा के लिये नहीं अपितु ऋद्धिसिद्धि दोहने के लिये जाते हैं । एक दूसरा चमत्कार उन्होंने और दिखलाया । उनके ज्योतिषज्ञान की कीर्त्ति सर्वत्र फैल गई थी । एक ज्योतिषि ब्राह्मण उनके यश को सहन न कर सका और वह जिनवल्लभगणि 'नीचा दिखाने की दृष्टि से उनके पास आया । उपासकों द्वारा आसन देने के पश्चात् निम्नलिखित वार्तालाप प्रारम्भ हुआ: जि० - भद्र! आपका निवास स्थान कहां है? और आपने किस शास्त्र का अभ्यास किया है ? बल्लभ-भारती ] [ ४५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रा० - मेरा निवास स्थान यहां हो है और मैंने अभ्यास व्याकरण, काव्य, अलङ्कार आदि सब ही शास्त्रों का किया है। जि० - ठीक है, परन्तु विशेष रूप से किस विषय का किया है ? 0 ब्रा० - ज्योतिष का । 10 जि० - चन्द्र और आदित्य के लग्नों के विषय में आप क्या जानते हैं ? ब्रा० - इसमें क्या है ? बिना गणना किये ही एक दो या तीन लग्नों का प्रतिपादन कर सकता हूँ । जि० - बहुत सुन्दर ज्ञान है । ब्रा० - लग्न के विषय में क्या आप भी कुछ जानते हैं ? जि० - हां कुछ थोड़ा सा । ब्रा० - अच्छा, तो आप कुछ कहें । जि० - भूदेव ! आप बतलाइये, मैं दस या बीस कितने लग्नों का प्रतिपादन करू ? | यह बात सुनकर ब्राह्मण आश्चर्यचकित हो गया और उसके आश्चर्य का तो ठिकाना ही न रहा, जब उन्होंने शीघ्र गणना करके उन लग्नों को बतला दिया। इसके बाद गणिजी आकाश की ओर संकेत करके बोले - "विप्रवर ! देखो वह आकाश में दो हाथ का जो मेघ-खण्ड दिखाई पड़ता है, क्या आप बता सकते हैं कि उससे कितनी वर्षा होगी ?" ब्राह्मण बेचारा हतप्रभ हो गया। उसको निरुत्तर देख कर गणिजी ने बतलाया कि वह मेघखण्ड दो घड़ी के भीतर सम्पूर्ण गगनमण्डल में व्याप्त होकर इतनी जल-वृष्टि करेगा कि दो "भाजन" भर जायेंगे । सचमुच ऐसा हुआ भी। इसके परिणाम स्वरूप वह ब्राह्मण जब तक. वहां रहा तब तक उनके चरणों की वन्दना करके ही भोजन करता था । षटुकल्याणक प्ररूपणा और विधि-चैत्यों को स्थापना जिनवल्लभगणि जैन सिद्धान्त के कितने मर्मज्ञ थे और उसका प्रतिपादन वे कितने निर्भय होकर करते थे; इस बात का प्रमाण उनके द्वारा की गई छठे कल्याणक की प्ररूपणा में मिलता है । साधारणतया प्रत्येक तीर्थंकर के निम्नलिखित पाँच कल्याणक माने जाते हैं :१. देवलोक से च्युत होकर माता के गर्भ में प्रवेश करना। २. जन्म ग्रहण करना । ३. संसार से विरक्त होकर प्रव्रज्या ( दीक्षा ) ग्रहण करना । ४. तपश्चर्या द्वारा केवलज्ञानकेवलदर्शन प्राप्त करना । ५. निर्वाण (मुक्ति) प्राप्त करना । भगवान् महावीर के विषय में यह विशेष माना जाता है कि पहिले उन्होंने देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में प्रवेश किया और वहाँ से उस गर्भ को इन्द्र-आदेश से हरिणगमेषी देव द्वारा महारानी त्रिशला के गर्भ में लाया गया । सूत्रग्रन्थों में जैसा कि आगे बतलाया गया है. इस गर्भापहरण को भी उपर्युक्त पाँच के समान ही एक कल्याणक माना गया है। जिनवल्लभगणि कल्पसूत्रादि के पाठ पर सम्यग् विमर्श कर इसको छठा कल्याणक प्रसिद्ध किया । अन्य पाँच कल्याणकों के उपलक्ष में तो उस समय चैत्यवासी लोग भी एक उत्सव मनाकर भगवान् की पूजा किया करते थे, परन्तु गर्भापहरण नाम का कल्याणक तत्कालीन जनता में विस्मृत हो ४६ ] [ वल्लभ-भारती. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में चुका था । इसलिये जब आश्विन कृष्णा त्रयोदशी के आने पर जिनवल्लभगणि ने श्रावकों को कहा कि आज हमें श्रमण भगवान् महावीर का छठा कल्याणक मनाना है तो वे बड़े आश्चर्य गये । परन्तु जब उनको आगमों के प्रमाण देकर समझाया गया तो वे लोग छठे कल्याणक को मनाने के लिये सहर्ष तैयार हुए। वहाँ के सभी देवालय चैत्यवासियों के थे; अतः प्रश्न यह था कि उसको कहाँ मनाया जाय ? प्रथम तो जिनवल्लभगणि के नेतृत्व में सभी श्रावक एक चैत्यालय पर गये, परन्तु उनको देखते ही उस चैत्यालय की एक आर्या धरना देकर द्वार पर बैठ गई । उसका कहना था कि ऐसा काम कभी भी नहीं हुआ, गर्भापहार का उत्सव किसी ने नहीं मनाया, इसलिये मैं अपने जीते जी कदापि न होने दूंगी । वहुत समझानेबुझाने पर भी जब उसने अपना हठ नहीं छोड़ा तो जिनवल्लभगणि सारे श्रावकों को लेकर वापिस अपने स्थान पर लौट आये। अन्त में एक श्रावक के घर पर ही भगवान् की मूर्ति की स्थापना कर वह उत्सव सम्पन्न किया गया । पड़ इस घटना से जिनवल्लभगणि के श्रावकों को अपनी उपासना के लिये एक स्वतंत्र देवगृह की आवश्यकता प्रतीत हुई । अतः उन्होंने गणिजी के सामने दो देवालय बनाने की इच्छा प्रकट की । गणिजी ने भी उनके इस पुण्य प्रयत्न को श्रावकों का आवश्यक कर्त्तव्य व आचार बतलाया और श्रावकों ने भी निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया । सत्कार्य में विघ्न होते ही हैं । इस कार्य में भी अकारण ही वसुदेव नामक सेठ विघ्नरूप बनकर उपस्थित हुआ और उसने इन देवगृह निर्माण करने वाले श्रावकों को कापालिक तक कह डाला । एक दिन बाहर जाते हुए गणिजी को वह मिल गया, तो उन्होंने बड़े प्रेम पूर्वक उससे कहा कि 'भद्र वसुदेव ! गर्व करमा ठीक नहीं है। जो श्रावक देवालय बनवा रहे हैं उनमें कोई ऐसा भी होगा जो तुम्हें कभी बन्धन मुक्त करेगा ।' उस समय तो वसुदेव सम्भवतः इन शब्दों के मर्म को न समझ सका । परन्तु कुछ दिनों बाद जब वह किसी अपराध के कारण राजा का कोपभाजन हुआ और उसे ऊंट के साथ बांध के ले जाने की आज्ञा हुई तो जिनवल्लभगणि के भक्तं श्रावक साधारण नाम के सेठ ने ही उसको छुड़ाया । अन्त में उक्त दोनों मन्दिर पूर्ण हो गये और वाचनाचार्य जिनवल्लभगणि ने पार्श्वनाथ और महावीर विधि-चैत्यों की स्थापना कर दी । नवीन विधिचैत्यों के निर्माण का यही कारण देते हुये स्वयं आचार्य जिनवल्लभ स्वप्रणीत अष्टसप्ततिका अपरनाम चित्रकूटीय वीर चैत्य - प्रशस्ति पद्य ६६-६७ में लिखते हैं:क्षुद्राची कुबोधकुग्रहहते स्वं धार्मिकं तन्वति. द्विष्टानिष्टनिकृष्ट घृष्ट मनसि क्लिष्टे जमे सूयसि । ताद्गुलोकपरिग्रहेण निविडद्वषो रागग्रहग्रस्तैतद्गुरुसात्कृतेषु च जिनावासेषु भूम्नाधुना ॥ ६६॥ तत्त्वद्वेषविशेष एष यदसन्मार्गे प्रवृत्तिः सदा, सेयं धर्मविरोधबोधविधुतिर्यत्सत्पथे साम्यधीः । तस्मात्सत्पथमुद्विभावयिषुभिः कृत्यं कृतं स्यादिति श्रीवीरास्पदमाप्तसम्मतमिदं ते कारयाञ्चक्रिरे ॥ ६७ ॥ वल्लभ-भारती 1 [ ४७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनवल्लभ के ही प्रपौत्र पट्टधर श्रीजिनपतिसूरि ने जिनवल्लभीय संघपट्टक की वृहद्वृत्ति में, ३३ वें पद्य की व्याख्या करते हुये इन्हीं दोनों पद्यों को उद्धृत किया है और उन पर व्याख्या लिखी है: व्याख्या:-श्रीवीरास्पदं-श्रीमहावीरजिनगृहं आप्तसम्मतं-सद्गुरुणामनुमतं इदंप्रत्यक्षं ते प्रागुक्ताः श्रावकाः कारयाञ्चक्रिरे-विरचयाम्बभूवुः । अथ तनान्यदेवगृहसद्भावेऽपि तदबहमानादपरविधापनेन तेषां भगवदाशातनाप्रसङ्गात् किमिति ते कारयामासः? इत्यत आह-क्षुद्राणां-लिङ्गिनां आचीर्णानि-सिद्धान्तोक्तमपि श्रीमहावीरस्य षष्ठं गर्भापहारकल्याणकं लज्जनीयत्वात् न कर्त्तव्यमित्यादिकाः आचरणाः ततश्च आचीर्णानि च कुबोधश्च कुग्रहश्च तैः हते-दूषिते स्वं धार्मिकं तन्वति-वयमेव धार्मिका इति सर्वत्र प्रख्यापयन्ति । द्विष्टं-मात्सर्यवत् अनिष्टं-अपायकरणप्रवणं निकृष्टं-अधमं धृष्टं-पापं कुर्वतोऽनुपजाय- . मानं शङ्क मनः-चित्तं यस्य स तथा तस्मिन्, किलष्टे-धार्मिकान्प्रति क्रूराध्यवसाये एवम्विधे सम्प्रति भूयसि-प्रभूते जने-लोके सति । अथ यद्यवम्विधो भूयात् लोकः सम्प्रति ततः किमायातमपरचैत्यविधापनस्य? इत्यत आह-ताहग्लोकपरिग्रहेण-प्रागुक्तविशेषणविशिष्टजनाधीनत्वेन निविडद्वषोपरागग्रहेण-तीव्रगुणवत्मात्सर्योदग्रस्वमतानुरागाभिनिवेशेन ग्रस्ताः-वशीकृता ये एतद्गुरवः-प्रागभिहितनामाचार्यास्तत् सात्कृतेषु देयेर्थे सातितद्धितः, तत-च गुरुदक्षिणीकरणेन तदायत्तीकृतेषु जिनावासेषु- चैत्यसक्नेषु भूम्ना-बाहुल्येन अधुना सजातेषु सत्षु । ननु यदि सम्प्रति जिनालया दुष्टलोकपरिगृहीसा लिङ्गिगुरूणामायत्ताश्च तत् किमेतावता द्वषकारित्वात् आगमविरुद्धावायित्वाच्च तेषामेव पातकं भविष्यति, भवतां तु पूजावन्दनादिकं कुर्वाणानां धर्म एव ? इत्यत आह-तत्त्वद्वषविशेषः सन्मार्गे मात्सर्यप्रकर्ष एषः । यद् असन्मार्गे-कुमार्गे प्रवृत्तिः-गमनपूजनव्यवहारः लिङ्गिपरिगृहीतो हि जिनालयादि सर्वोऽपि असन्मार्गः, ततश्च सत्पथमेव बुध्यमाना अपि यन्नित्यं असन्मार्गे प्रवर्तन्ते तन्नूनं तेषां सत्पथे द्वषो मनसि विपरिवर्तते, कथमन्यथा तत्रोव प्रवृत्तिः ? अतस्तत्र प्रवर्तमानानां धार्मिकाणामपि अविध्यनुमोदनमुग्धजनस्थिरीकरणादिना पापमेव । सदा ग्रहणात् कदाचिदपवादेन तथापि प्रवृत्तिरनुज्ञाता। सेयं-सैषा .धर्मविरोधेन सद्धर्मविद्वषेण बोधविधुति:सब्दोधनाशो यत् सत्पथे-सन्मार्गे कुपथेन साम्यधी:-तुल्यताबुद्धिः । सत्पथकुपथयोः ह्यालोकतमसोरिव महदन्तरम्, सत्पथपरिज्ञानेऽपि नित्यं कुपथप्रवृत्तौ तु तेषां सत्पथकुपथयो. साधारण्यं चेतसि निविशमानं लक्ष्यते । तथा च नूनं ते धर्मविद्वेषिणः सद्बोधविधुरा इति । यस्मादेव तस्मात् सपथं-विधिमार्ग उद्विभावयिषुभिः-विधिचैत्यविधापनेन प्रकाशयद्धि: अस्माभिः कृत्यं कर्तव्यां कृतं-विहितं स्यात् । विधिमार्गमासेदुषां ह्येतदेव कर्तव्यं यत् कुपथपाथोधिपातुकभविको द्विधीर्षया विधिमार्गस्य प्रकाशनं, न चासो सम्प्रति विधिचैत्यनिर्मापणं विना प्रकाशयितु शक्यते । शेषचत्यानां प्रायेण सर्वेषामपि लिङ्गिपरिग्रहेणाऽघ्रातत्वात् इति हेतौ अस्माद्ध तोस्ते वीरास्पदमित्यादि पूर्वव्याख्यातम् । इत्यानुषङ्गिकवृत्तिद्वयार्थः । अर्थात् भगवान् महावीर का गर्भापहार कल्याणक सिद्धान्त-सम्मत होने पर भी वेषधारी इसे लज्जनीय मानकर, त्याज्य मानते हैं और इस दिवस धार्मिक अनुष्ठान करने वाले श्रावकों को न केवल हेय दृष्टि से ही देखते हैं अपितु धर्माराधन में बाधक भी होते हैं, ४८ ] [ वल्लभ-भारती Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा चैत्यों में प्रवेश भी नहीं करने देते हैं। साथ ही कदाग्रह - ग्रस्त एवं मात्सर्य से पीडित होकर भी स्वयं को धार्मिक और अन्य को अधार्मिक कहते हैं । ऐसी अवस्था में शास्त्रसम्मत और कुपथसम्मत आयतन का भेद आवश्यक होने से विधिचैत्य का निर्माण शास्त्रयुक्त है । विधिमार्ग का प्रकाशन विधिचैत्य के निर्माण से ही सम्भव है । इसीलिये नवीन महावीर चैत्य का निर्माण श्रावकों ने किया है। इसी चित्रकूटीय वोर चैत्य प्रशस्ति पद्य ७८ में आ० जिनवल्लभ ने इस नूतन निर्मापित महावीर विधिचैत्य की प्रतिष्ठा का समय शक संवत् १०२८ अर्थात् विक्रम संवत् ११६३ दिया है । अत: यह अनुमान किया जा सकता है कि वि० सं० १९५८ और १९६० के पूर्व ही जिनवल्लभ गणि गुजरात से चलकर चित्तौड़ आये और वहां रहते हुये तत्त्रस्थ श्रेष्ठियों को आयतन विधि ( विधिपक्ष) का उपासक बनाया एवं उन्हें उपदेश देकर नूतन विधि - चैत्यों का निर्माण करवाया । इसी बीच अर्थात् वि० सं० १९६० के आस-पास चित्तौड़ में ही महावीर स्वामी के षट् कल्याणकों का सैद्धान्तिक रूप से प्रतिपादन किया होगा । षड्यंत्र का भण्डाफोड़ जिनवल्लभ गणि के बढते हुए प्रभाव को कुछ लोग सहन न कर सके और वे उसको कम करने के लिये तरह-तरह के उपाय करने लगे । किन्हीं मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को जिनवल्लभजी के पास भेजा । प्रत्यक्ष में तो वे गणिजी से सिद्धान्तवाचना के लिये आये थे परन्तु अप्रत्यक्ष में वे एक षड्यन्त्र का आयोजन कर रहे थे। जिनवल्लभगणि शुद्ध मन से उन दोनों को सिद्धान्तों का अध्ययन कराते थे, परन्तु वे दोनों येन-केन-प्रकारेण जिनवल्लभगणि के श्रद्धालु श्रावकों में उनके प्रति असद्भाव उत्पन्न करने में लगे हुए थे और अपने सब कारनामों का समाचार अपने गुरु मुनिचन्द्राचार्य को लिखते रहते थे । एक बार संयोगवश उनका लिंखा पत्र जिनवल्लभजी के हाथ आगया और सारा भण्डाफोड़ हो गया । सारा प्रसंग जानकर उनके मन में खेद उत्पन्न हुआ और उनके मुख से निकल पड़ा : प्रासीज्जनः कृतघ्नः, क्रियमारगघ्नस्तु साम्प्रतं जातः । इति मे मनसि वितर्को, भवितालोकः कथं भविता ॥ १ ॥ [ किये हुए उपकार को न मानने वाले कृतघ्न पुरुष पहिले भी थे किन्तु प्रत्यक्ष में किये जाने वाले उपकार को न मानने वाले भी कृतघ्न इस समय देखे जाते हैं । मुझे रहरहकर मन में विचार आता है कि आगे होने वाले लोग कैसे होंगे ? ] जिनवल्लभगणि बड़े स्पष्टवादी थे और उनकी आलोचना बड़ी कटु होती थी । सभी विद्वान् लोग बैठे हुए थे, बहुत से ब्राह्मण विद्वान् भी आये हुए थे । इस बार व्याख्यान निम्नलिखित गाथा आगई - - विज्जाईण गिहीर, जाई (जई) पासत्थाईण वावि दट्ठूणं । जस्स न मुज्झइ दिट्ठी, प्रमूढदिट्ठ तयं बिति ॥ १ ॥ इस गाथा की व्याख्या उन्होंने बड़े विस्तार के साथ की और इस प्रसंग में चैत्यवासियों के साथ-साथ ब्राह्मणों की भी तीव्र आलोचना की । ब्राह्मण लोग इस बात को सहन वल्लभ-भारती ] [ ४ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कर सके और क्रुद्ध होकर व्याख्यान से उठ गये। उन्होंने एकत्र होकर सोचा कि किसी प्रकार जिनवल्लभ के साथ विवाद करके इनको निष्प्रभ करना चाहिये । परन्तु जिनवल्लभगणि इससे तनिक भी भयभीत नहीं हुए और उन्होंने निम्नलिखित पद्य भोजपत्र पर लिख कर उनके पास भेजा: मर्यादाभङ्गभीतेर मृतमयतया धैर्यगाम्भीयंयोगाद्, न क्षुभ्यन्ते च तावन्नियमितसलिला: सर्वदेते 'समुद्राः 1 श्रहो ! क्षोभं व्रजेयुः क्वचिदपि समये दैवयोगात् तदानीं, न क्षोणी नाद्रिचक्रं न च रविशशिनौ सर्वमेकार्णवं स्यात् ॥ १ ॥ [ अर्थ - अमृत के समान स्वच्छ जल से परिपूर्ण नियमित जल वाले ये समुद्र धीरता, गम्भीरता और मर्यादाभंग के डर से क्षोभ को प्राप्त नहीं होते हैं। यदि दैवयोग से ऐसे इन समुद्रों में कदाचित् क्षोभ उत्पन्न हो जाय तो पृथ्वी, पर्वत, सूर्य, चन्द्र तक का भी पता न चले । सारा जगत् जलमय ही हो जाय । ] यह श्लोक वृद्ध ब्राह्मण ने पढा और अन्य कुपित हुए ब्राह्मणों को समझा-बुझाकर शान्त किया । प्रतिबोध और प्रतिष्ठाएँ इस प्रकार हम देखते हैं कि जिनवल्लभगणि ने द्रोह, दर्प और विरोध के सामने कभी सिर नहीं झुकाया, साथ ही वे यह भी समझते थे कि मनुष्य कितना निरीह प्राणी है। जो लोभादि का शिकार सहज ही में हो जाता है। ऐसे लोगों पर वे क्रोध नहीं करते थे, क्योंकि वे दया के पात्र होते हैं। इस प्रकार के लोग भी उनके पास आते थे, तो वे उनको आध्यात्मिक रोगी समझ कर उनकी चिकित्सा विधान किया करते थे, शतं इस बात की थी कि उस व्यक्ति में पूर्ण श्रद्धा होनी आवश्यक थी । एक बार गणदेव नाम का एक श्रावक उनके पास आया, उसे स्वर्ण (सोना) सिद्धि की आवश्यकता थी । उसने सुन रखा था कि जिनवल्लभ जी के पास स्वर्णसिद्धि है, वह उनके स्थान पर बारंबार आने लगा । गणिजी को उसका यह भाव ज्ञात हो गया । उन्होंने लिप्सा की लपट से दग्ध होते हुए उसके हृदय को परख लिया । अतः उन्होंने ऐसे उपदेशामृत की वृष्टि करना आरंभ किया कि वह सेठ स्वर्णार्थी से धर्मार्थी हो गया। तब गणिजी ने पूछा “भद्र ! कहो, क्या तुम्हें स्वर्णसिद्धि की आवश्यकता है ?" तो उसका यही उत्तर था कि "मैं तो श्राद्ध-धर्म का ही व्यवहार करना चाहता है ।" यही सेठ बाद इनके लिखित " द्वादशकुलक" नामक उपदेशों को लेकर वाग्जड (वागड़ ) प्रदेश में गया और उनका प्रचार करके जिनवल्लभगणि की कीर्तिपताका फैलाई। इसके फलस्वरूप वहां की सारी जनता में गणिजी के प्रति अपार श्रद्धा और स्नेह का वातावरण बन गया' । इसके पश्चात् उनकी कोत्ति दिन-प्रतिदिन बढती गई और वे अपने ज्ञान और चारित्र के लिये प्रसिद्ध होते गये । दूर-दूर स्थानों से श्रावक लोग उनको आमन्त्रित करने लगे । नागपुर १. जिसका लाभ सूरिजी के पट्टधर, युगप्रधान पद विभूषित, दादा श्रीजिनदत्तसूरिजी को प्राप्त हुआ । ५० ] [ वल्लभ-भारती Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( नागोर) में जाकर उन्होंने नेमिनाथ विधिचैत्य की प्रतिष्ठ की' और तत्त्रस्थ संघ ने आदर पूर्व सर्वसम्मति से इनको गुरु-रूप में स्वीकार किया। इधर नरवरपुर के श्रावकों के हृदय में भी यह अभिलाषा उत्पन्न हुई कि जिनवल्लभजी को अपने गुरु रूप में स्वीकार करके उनके द्वारा देवमन्दिर और देवप्रतिमा की स्थापना करवायें। उनकी प्रार्थना स्वीकार हुई और जिनवल्लभगणिजी ने नरवरपुर जाकर उनको कृतार्थ किया। जिन-जिन मन्दिरों में उन्होंने प्रतिष्ठा करवाई, उनकी विशेषता यह थी कि उनमें यह स्पष्ट आदेश लिखवा दिया गया था कि " वहां रात्रि के समय पूजा, अर्चन, स्त्री का प्रवेश तथा ऐसे ही अन्य कार्य जो चैत्यवासियों के मन्दिरों में होते थे; नहीं होंगे ।" इस प्रकार जिनवल्लभगणि का सन्देश स्पष्टतया सफल होने लगा था । अब इनको सन्तोष हो चला था कि उन्होंने अपने गुरु अभयदेवाचार्य को जो वचन दिया था, वे उसके अनुसार आचरण करने में पूर्ण सफल हो रहे हैं । प्रवचनशक्ति जिनवल्लभगणि की व्याख्यानपटुता तथा प्रवचनशक्ति की भी बहुत प्रसिद्धि हुई । एक बार विक्रमपुर के आस-पास विहार कर रहे थे । मरुकोट्ट निवासियों ने उनके प्रवचन की प्रशंसा सुनकर उनको अपने नगर में बुलाना चाहा । बहुत मानपूर्वक वीनती करने पर जिनवल्लभगणि विक्रमपुर होते हुए मरुकोट्ट पधारे। वहाँ पहुंचने पर श्रावकों ने एकत्र होकर बड़े विनीत भाव से प्रार्थना की कि 'हे भगवन् ! हम लोग आपके श्रीमुख से भगवद् वचनों पर प्रवचन सुनना चाहते हैं ।' जिनवल्लभगणि ने कहा- 'श्रावकों की यह इच्छा सर्वथा उचित और श्लाघ्य है ।' अतः शुभ दिन से प्रवचन प्रारम्भ हुआ । अपने व्याख्यान के लिए उन्होंने श्रीधर्मदासगणि कृत उपदेशमाला की निम्नांकित गाथा को चुना: संवच्छर मुसभजिरगो, छम्मासा वद्धमाणजिणचंदो | इय विहरिया निरसरणा, जइज्ज एग्रोवमाणेणं ॥३॥ इस गाथा को लेकर वाचनाचार्य जिनवल्लभजी ने अनेक दृष्टान्त, उदाहरण आदि देते हुए, सिद्धान्त-प्ररूपण करते-करते छः महीने लगा दिये । इसको देख कर सभी लोग आश्चर्यचकित हुए और कहने लगे, 'ये तो स्वयं भगवान् तीर्थकर मालूम पड़ते हैं, अन्यथा इ प्रकार की अमृतस्राविणी वाणी कहाँ मिल सकती है ।' समस्या-पूर्ति व्याख्यान 'और शास्त्रार्थ करने में जो प्रसिद्धि गणिजी ने प्राप्त की, वही समस्यात के क्षेत्र में भी उन्हें सहज सुलभ हुई । समस्या - पूर्ति में न केवल उनकी काव्य-प्रतिभा, १. इसका उल्लेख तत्कालीन ही देवालय के निर्मापक सेठ धनदेव के पुत्र कवि पदुमानन्द अपने वैराग्यशतक में भी करते हैं : "सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतः, श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः । श्रेष्ठी श्रीधनदेव इत्यभिधया ख्यातश्च तस्याङ्गजः, पद्मानन्दशतं व्यधत्त सुधियामानन्दसम्पत्तये || " २. ये लेख चित्तौड़, नरवर, नागोर, मरुकोट्ट आदि के मन्दिरों में उत्कीर्ण करवाये गये थे । ३. जैसलमेर राज्यवर्ती बीकमपुर । वल्लभ-भारती ] [ ५१ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दयोजना तथा प्रबन्धपटुता का परिचय मिलता है, अपितु उनकी प्रत्युत्पन्नमति एवं उक्तिसौष्ठव का भी ज्ञान हमें होता है। एक समय की बात है वे कहीं जा रहे थे, एक विद्वान् उनको मार्ग में मिल गया। उसने उनके पाण्डित्य की प्रसिद्धि पहले से ही सुन रखी थी, अतः परीक्षा करने की दृष्टि से उसने निम्नलिखित समस्यापद उनके सामने रखाः "कुरङ्गः किं भृङ्गो मरकतमरिणः किं किमशनिः" इस पद को सुनते ही गणिजी ने इसकी पूर्ति तुरन्त ही इस प्रकार कर डाली :चिरं चित्तोद्याने चरसि च मुखाज पिबसि च, क्षणादेणाक्षीणां विरहविषमोहं हरसि च। नृप! त्वं मानादि दलयसि च किं कौतुककरं, कुरङ्गः किं भृङ्गो मरकतमणिः किं किमनिः ॥१॥ इसको सुनकर वह विद्वान् अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बोला-मैंने आपके विषय में जैसा सुना था वैसा ही आपको पाया। ऐसा कह कर वह उनके चरणों पर गिर पड़ा.। . ऐसी ही दूसरी घटना धारानगरी की है। उस समय धारा में श्रीनरवर्मा' नामक नृपति राज्य कर रहे थे। एक बार राजसभा में दो पण्डित बाहर से आये। उन्होंने पण्डितों के सामने यह समस्यापद रखाः 'कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः" . राजसभा के सभी पण्डितों ने अपनी बुद्धि के अनुसार इस समस्या की पूर्ति की, परन्तु उन दोनों विदेशी पण्डितों का चित्त प्रसन्न नहीं हुआ। तब किसी ने राजा से कहाहे देव ! पण्डितों के द्वारा की हुई समस्या-पूर्ति इन दोनों को पसन्द नहीं आई। तब राजा ने पूछा कि इन दोनों को सन्तुष्ट करने का कोई अन्य उपाय सम्भव है ? इस पर राजा को उत्तर मिला कि, चित्रकूट (चित्तौड़) में जिनवल्लभगणि नाम के श्वेताम्बर साधु हैं जो सब विद्याओं में निपुण माने जाते हैं। तब राजा ने साधारण नाम के सेठ के पास एक पत्र भेजा, जिसमें उससे अनुरोध किया गया था कि वह अपने गुरु जिनवल्लभगणि के द्वारा इस समस्या की पूर्ति करवा कर शीघ्र ही भेजे । प्रतिक्रमण के बाद जब गणिजी को पत्र सुनाया गया तो उन्होंने तत्काल ही इस प्रकार उस समस्या को पूर्ण किया:-- रे रे नपाः श्रीनरवर्मभूप-प्रसादनायः क्रियतां नताङ्गः। कण्ठे कुठारः कमठे ठकारश्चक्रे यदश्वोनखरामघातैः ॥१॥ यह पूर्ति जब राजसभा में पहुंची तो न केवल विदेशी विद्वान् ही सन्तुष्ट हुए अपितु स्वयं राजा भी जिनवल्लभगणि का सदा के लिए भक्त हो गया। यही कारण है कि जब गणिजी कुछ काल उपरान्त धारानगरी पधारे तो राजा ने उनको तीन लाख मुद्रा या तीन ग्राम लेने के लिए बहुत कुछ आग्रह किया । परन्तु जब यह आग्रह उस अपरिग्रही और निस्पृह साधु ने स्वीकार नहीं किया तो राजा ने गणिजी की अनुमति से चित्रकूट में श्रावकों द्वारा निर्मापित दो विधिचैत्यों की पूजा के लिए यह धन दान में दे दिया। इसी बात का उल्लेख १. देखें, अोझाजी कृत राजपूताने का इतिहास, पृ० १६५ । ५२ ] [ वल्लभ-भारती Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके गुरुभ्राता जिनशेखराचार्य के प्रशिष्य श्रीअभयदेवसूरि ने जयन्तविजय नामक काव्य ( २० सं० १२७८) में भी किया है :-- तच्छिष्यो जिनवल्लभो प्रभुरभूद् विश्वम्भराभामिनी भास्वद्भालललामकोमलयशः स्तोमः शमाराभमूः । यस्य श्रीनरवमंभूपतिशिरः कोटीररत्नाङ्कुर ज्योतिर्जालजलेरपुष्यत सदा पादारविन्दद्वयी ॥ १ ॥ कश्मीरानपहाय सन्तत हिमव्यासङ्गवैराग्यतः, प्रोम्मीलद्गुणसम्पदा परिचिते यस्यास्यपङ्केरुहे । सान्द्रामोदतरङ्गिता भगवती वाग्देवता तस्थुषी, धारालाल भव्य काव्य रचनाव्याजादनृत्यच्चिरम् ॥ २ ॥ १ जिनवल्लभप्रणीत चित्रकूटीय वीर चैत्यप्रशस्ति (पद्य ६३ ) में केवल यह उल्लेख मिलता है कि - महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा के समय चैत्य की अर्चा के लिए भूपति नरवर्मा प्रत्येक सूर्य संक्रान्ति पर पारस्थ द्वय देने का चितौड़ के धर्मदाय विभाग को आदेश दिया है । अतः यह निश्चित है कि प्रतिष्ठा से सम्बन्धित इस प्रशस्ति रचना के अनन्तर अर्थात् वि० सं० ११६३ के पश्चात् ही आचार्य का नरवर्मा से साक्षात्कार और उसके द्वारा तीन लाख मुद्रा या तीन ग्रामों का चित्तौड के विधि-चैत्यों की अर्चा के लिये दान आदि की घटनायें घटित हुई हैं। आचार्यपद और स्वर्गवास जिनवल्लभगणि की प्रसिद्धि और प्रभाव को सुनकर श्रीदेवभद्राचार्य को अपने गुरु प्रसन्नचन्द्राचार्य का अन्तिम वाक्य स्मरण हो आया। उन्होंने सोचा कि मैं अभी तक अपने गुरुश्री के आदेश के अनुसार जिनवल्लभगणि को श्रीअभयदेवाचार्य का पट्टधर नहीं बना सका। ऐसा विचार कर उन्होंने जिनवल्लभगणि को पत्र लिखा । उस पत्र में लिखा था - "तुम शीघ्र ही अपने समुदाय सहित विहार कर चित्रकूट आओ, मैं भी वहीं पर आ रहा हूँ ।" जिनवल्लभगणि उस समय नागपुर (नागोर) में थे, वहां से वे विहार करके चित्रकूट (चित्तौड़) पहुंचे । देवभद्राचार्य भी अपने समुदाय सहित वहां पधारे। देवभद्राचार्य उस समय के परम प्रतिष्ठित गीतार्थसाधु और विद्वान् थे । इनके द्वारा रचित महावीरचरियं, पासनाहचरियं, कहाकोस इत्यादि महाग्रन्थ आज भी जैन कथा - साहित्य में आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं । उन्होंने उस समय पं० सोमचन्द्र ( जो कि आगे चल कर जिनवल्लभसूरि के पट्टधर युगप्रधान ९. इसी प्रकार का उल्लेख उ० जिनपाल ने चर्चरी टीका में भी किया है । यथा: " मिथ्यादृष्टयोऽन्यदर्शन स्थिता अपि श्रीनरवर्म महाराजपण्डिताः पञ्चविंशतितमोऽयं तीर्थंकर इति प्रतिपादयन्तो वन्दन्ते किङ्करभावस्थिता बहुमानातिशयप्रवर्तित सादरवचनाः । लब्धप्रसिद्धिभिरत्यन्तप्रसिद्ध : सुकविभिर्नरवर्म महाराजसम्बन्धिभिः सादरं यो महितः । वल्लभ-भारती ] ( पृ० २४) ( चर्चरी टीका पृ० ४ ) [ ५३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दत्तसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए) को भी बुलाया था, परन्तु वे किसी कारणवश न आ सके । आचार्य देवभद्रसूरि ने विधिवत् जिनवल्लभमणि को श्रीअभयदेवसूरि के पट्ट पर स्थापित किया और उस समय से वे जिनवल्लभसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । परन्तु वे इस पद पर अधिक समय तक न रह सके । उन्होंने ज्योतिष गणना के अनुसार अपनी आयु छह वर्ष और समझी थी, परन्तु हह महिने ही बीते थे कि एकाएक उनका शरीर अस्वस्थ हो गया । यह देखकर उनको आश्चर्य हुआ और उन्होंने पुनर्गणना की तो पता चला कि पहले कुछ अङ्क छूट गये थे जिसके कारण छ महिने के स्थान पर छ वर्ष आये। ऐसा निश्चय हो जाने पर उन महानुभाव ने अन्तिम आराधना की तैयारी धैर्य और सन्तोष के साथ कर दी। संघ एकत्र हुआ । सर्व जीवों के प्रति आपने मैत्रीभाव को प्रकट करते हुए अपराधों की क्षमा याचना की । अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म का शरण अंगीकार किया और तीन दिन का अनशन किया । इस प्रकार तैयार होकर सं. १९६७ कार्तिक कृष्णा अमावस्या दीपावलि की मध्यरात्रि में पञ्चपरमेष्ठि का स्मरण करते हुए इस असार संसार को त्याग कर श्री जिनवल्लभसूरि ने चतुर्थ देवलोक की यात्रा की । शिष्य - परम्परा उपलब्ध प्रबन्ध ग्रन्थों के अनुसार आचार्य जिनवल्लभसूरि का स्वहस्तदीक्षित शिष्य-समुदाय अत्यधिक विशाल नहीं था । प्रबन्धों के अनुसार जिस समय गणि जिनवल्लभ आगमों का अभ्यास करने के लिये आ० अभयदेवसूरि के पास गये, उस समय उनके साथ जिनशेखर नाम का शिष्य था और उपसम्पदा ग्रहण करने पर भी यही साथ रहा । आचार्य अभयदेवसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् अनुमानतः सं० ११४० के आसपार आप 'गुर्जर' प्रदेश छोड़कर मेदपाट की राजधानी चित्रकूट पधारे। उस समय सुमति गणि के अनुसार वे 'आत्मतृती ' ( अर्थात् दो शिष्य और तीसरे स्वयं ) थे । इन दो शिष्यों में एक तो जिनशेखर निश्चित ही हैं और दूसरे संभवतः रामदेवगण हों । इन दो के अतिरिक्त अन्य भी आपके शिष्य हों, परन्तु इसका उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु शिष्यों की संख्या अत्यल्प होते हुए भी 'परम्परा' आपकी अत्यन्त वितृत और विपुल थी। इनके शिष्य जिनशेखर की शिष्य - परम्परा को हों ले लीजिये - वही जिनशेखर जो आगे चलकर जिनशेखरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए; जिनका विहार और निवास रुद्रपल्ली में अधिक हुआ और इस कारण जिनकी परम्परा रुद्रपल्लीशाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई । रुद्रपल्ली शाखा एक खरतरगच्छ की हो शाखा थी जिसका अस्तित्व १७ वीं शती के अन्तिम चरण तक रहा हैं । इन जिनशेखरसूरि की रुद्रपल्ली परम्परा में जयन्तविजय महाकाव्यकार अभयदेवसूरि, वीतरागस्तुति तथा ऋषभपंचासिका विवरणकार प्रभानंदसूरि, कुमारपालप्रबन्ध, षड्दर्शन समुच्चय टीका आदि ग्रन्थों के टीकाकार सोमतिलकसूरि, सम्यक्त्व सप्तति के टीकाकार संघतिलकाचार्य, प्रश्नोत्तरमाला और दानोपदेश के टीकाकार देवेन्द्रसूरि, संदेशरासक के टीकाकार लक्ष्मीचंद्र, आचारदिनकर के प्रणेता वर्धमानसूर, जिनपंजरस्तोत्र के रचयिता कमलप्रभाचार्य आदि अनेक धुरन्धर विद्वान् आचार्य हुए हैं । जिन्होंने साहित्य-सर्जन और संवर्धन में अपना अमूल्य योग दिया है । १. परिचय के लिये आगे देखें, टीकाग्रन्थ और टीकाकार ५४ ] वल्लभ-भारती Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह एक परम्परा नहीं थी, यह तो एक शाखा थी । वस्तुतः आपकी जो पट्ट- परम्परा चली और जो आज तक अक्षुण्ण रूप से चलती आ रही है, उस परम्परा के प्रणेता हैं आपके पट्धर युगप्रधान जिनदत्तसूरि' । श्वेताम्बर जैन समाज में गौतम गणधर के सदृश प्रातःस्मरणीय आचार्यों में श्री जिनदत्तसूरि का नाम शताब्दियों से निरन्तर बड़ी श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है । समाज में प्रथम दादाजी के नाम से ये अत्यधिक प्रसिद्ध हैं । भारत के कोने-कोने में 'दादावाड़ी' के नाम से ख्यात समस्त स्थलों पर एवं यत्र-तत्र मन्दिरो में इनकी पादुकायें अथवा मूर्तियाँ विद्यमान हैं, जहाँ निष्ठा और विश्वास के साथ इनकी निरन्तर अर्चना होती है । शताब्दियों से इनके चमत्कार श्रद्धालु भक्त जनों को प्राप्त होते रहे हैं और आज भी होते हैं । अम्बिका देवी प्रदत्त युगप्रधान पदधारक श्री जिनदत्तरि का वि० सं० १९३२ में धोलका निवासी क्षपणक भक्त वाछिंग की धर्मपत्नी बाहड़देवी की कुक्षि से हुआ था । सं० १९४१ में धर्मदेवोपाध्याय ने इनको दीक्ष्ग प्रदान कर सोमचन्द्र नाम रखा था । अशोकचन्द्राचार्य ने इनको बड़ी दीक्षा प्रदान की थी। हरिसिंहाचार्य से इन्होंने समस्त शास्त्रों की वाचना प्राप्त की थी। श्रीजिनवल्लभसूरि की आज्ञानुसार श्रीदेवभद्राचार्य ने सं० ११६६ वैशाख शुक्ला प्रतिपदा को चित्तौड़नगरी में बड़े महोत्सव के साथ इनको आचार्य पद देकर जिनवल्लभसूरि के पट्ट पर स्थापित किया था । आचार्य पद के समय सोमचन्द्र नाम परिवर्तित कर जिनदत्तसूरि नामकरण किया गया था । आचार्यपदानन्तर, देवलोकस्थ हरिसिंहाचार्य के संकेतानुसार आचार्यश्री नागोर होकर अजमेर आये और अजमेर के नृपति अर्णोराज चौहान को प्रतिबोध दिया । जयदेवाचार्य, रमलविद्या के जानकार जिनप्रभाचार्य, विमलचन्द्र गणि, मन्त्रवादी जयदत्त, गुणचन्द्र आदि प्रमुख चैत्यवासी आचार्यों ने भी चैत्यवास परम्परा का त्याग कर उनके पास उपसम्पदा ग्रहण की थी । आचार्य द्वारा प्रतिबोधित श्रावको में मेहर, भाखर, वासल, भरत, धनदेव, ठ० आशाधर, साधारण, रासल, देवधर आदि मुख्य थे । त्रिभुवनगिरि के महाराजा कुमारपाल को प्रतिबोध देकर इन्होंने अपना भक्त बनाया था । सवा लाख से अधिक व्यक्तियों को स्वकीय उपदेश से प्रतिबोध देकर, जैन बनाकर, ओसवंश में सैकड़ों नये गोत्र स्थापित किये थे । इनका विहारस्थल प्रमुखतया बागड और राजस्थान प्रदेश रहा । रुद्रपल्ली, अजमेर, त्रिभुवनगिरि, धारापुरी, गणपद्र आदि स्थानों में नवीन निर्मापित विधि - चैत्यों की प्रतिष्ठायें इन्हीं के करकमलों से हुई थीं । सं० १२११ आषाढ वदि ११, परम्परा की मान्यता के अनुसार आषाढ सुदि ११ को अजमेर में जिनदत्तमूरि का स्वर्गवास हुआ था । जिनदत्तसूरि ने संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना की । इनके रचित ग्रन्थ परिमाण में छोटे होते हुये भी अतिशय अर्थ- गाम्भीर्य और महनीय कवित्व से ओत-प्रोत हैं । इन रचनाओं में सूरिजी को अपूर्व विद्वत्ता, प्रकृष्ट प्रतिभा और विशिष्ट व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है । इनके द्वारा प्रणीत निम्नांकित साहित्य प्राप्त है: १. विशेष परिचय के लिये देखें, युगप्रधान जिनदत्तसूरि एवं स्वामी सुरजनदास लिखित दादाजी और उनका साहित्य वल्लभ-भारती ] [ ५५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. चर्चरी २. उपदेश रसायन ३. चैत्यवन्दन कुलक ४. कालस्वरूप कुलक ५. संदेह दोलावली ६. उपदेश कुलक ७. उत्सूत्रपदोद्घाटन कुलक ८. गणधर सार्द्ध शतक ६. गणधर सप्ततिका १०. 'तं जयउ' स्त्रोत ११. 'मयर हियं' स्तोत १२. 'सिग्घमवहरउ' स्तोत्र १३. श्रुतस्तव १४. पार्श्वनाथ मन्त्रगर्भित स्तोत्र १५. महाप्रभावक स्तोत्र १६. अजित शान्ति स्तोत्र १७. चक्रेश्वरी स्तोत्र १८. योगिनी स्तोत १६. सर्वजिनस्तुति २०. वीर स्तुति २१. विशिका २२. पदव्यवस्था २३. शान्तिपर्व विधि २४. आरात्रिक वृत्तानि श्रीजिनदत्तसूरि का शिष्य समुदाय भी अत्यन्त विशाल था। इनकी परम्परा नव शताब्दियों से चली आ रही है । इसमें अनेकों शाखाएं और प्रशाखाएं भी समय-समय पर फूटी हैं और उनमें एक नहीं सैकड़ों धुरन्धर आचार्य एवं उपाध्याय हुए हैं, जिनमें अलोकिक प्रतिभा, अद्वितीय विद्वत्ता तथा अनोखी तत्परता के साथ-साथ दृष्टि की वह उदारता एवं विशालता भी थी जो अनेकान्तवादी जैन-धर्म की प्रमुख देन है । यही कारण है कि इस गच्छ की परम्परा के मनीषियों ने जितना साहित्य-सर्जन किया है उसकी आज श्वेताम्बर समाज के समग्र गच्छों द्वारा निर्मित साहित्य-निधि से तुलना की जा सकती है। इन मनीषियों ने आगम, कर्म साहित्य, कथानुयोग, प्रकरण, व्याकरण, दर्शन, न्याय, लक्षण, छन्द, कोष, साहित्य, ज्योतिष, वैद्यक, नाट्य, नीति और कामशास्त्र आदि सभी विषयों पर अपनी लेखिनी चलाकर, मौलिक एवं टीकाएं रचकर केवल जैन साहित्य की ही नहीं अपितु भारतीय साहित्य की अनुपमेय सेवा की है । इन मनीषियों ने केवल साहित्य-सर्जन ही नहीं अपितु उस साहित्य के संरक्षण, संवर्धन तथा संप्रचलन में भी अत्यधिक योग दिया है जिसकी सृष्टि जैनेतर विद्वानों ने की थी । इस परम्परा के आचार्य प्रायः विद्वान हुए हैं और इन्होंने अपनी 'करनी' और 'कथनी' को सदा ही पाण्डित्य की शान पर पैनी करके रखा है । यही कारण है कि इस गच्छ और परम्परा के अनेक विद्वानों की कृतियां और सिद्धियां अपने गच्छ के सीमित परिधि से ऊपर उठकर सर्वगच्छीय सन्मान प्राप्त कर सकी है। इस जिनवल्लभीय खरतरगच्छ परम्परा के प्रमुख - प्रमुख आचार्य, उपदेशक और साहित्य-सर्जकों का शताब्दी के अनुसार उल्लेख करना यहां अप्रासंगिक न होगा: १३ वीं शती - युगप्रधान जिनदत्तसूरि, पंचवर्गपरिहार नाममाला के प्रणेता जिनभद्रसूरि, रुद्रपल्ली की राजसभा में पदुमप्रभ को पराजित करने वाले मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, षट्त्रिंशद् वादविजेता युगप्रवरागम जिनपतिसूरि, सनत्कुमार महाकाव्य प्रणेता उ० जिनपाल १. देखें म. विनयसागर द्वारा संपादित 'खरतर गच्छ साहित्य सूची' (मणिधारी अष्टम शताब्दी समारोह ग्रन्थ) । ५६ ] [ वल्लभ-भारती Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर सार्द्ध शतक बृहद्वृत्तिकार सुमति गणि, षष्टिशतकप्रकरणकार नेमिचन्द्र भण्डारी आदि । १४वीं शती - प्राकृतद्वयाश्रय टीकाकार पूर्णकलश गणि, अभयकुमार चरितकार उ० चन्द्रतिलक, प्रत्येकबुद्ध चरित्र, श्रावकधर्म विवरण रचयिता उ० लक्ष्मीतिलक, न्यायालङ्कार टिप्पण और संस्कृतद्वयाश्रय महाकाव्य के टीकाकार उपाध्याय अभयतिलक, जिनचन्द्रसूरि प्रगट प्रभावी दादा जिनकुशलसूरि, मुहम्मद तुगलक प्रतिबोधक विविधतीर्थंकल्प आदि अनेकों ग्रन्थों के निर्माता जिनप्रभसूरि, पडावश्यक बालावबोधकार तरुणप्रभाचार्य आदि । १५ वीं - गौतमरासकार उ० विनयप्रभ, अंजनासुन्दरी चरित्रकार साध्वी गुणसमृद्धि महत्तरा, विज्ञप्ति त्रिवेणी आदि ग्रन्थों के निर्मापक उ० जयसागर, पंच महाकाव्यों के प्रसिद्ध टीकाकार उ० चारित्रवर्धन, नेमिनाथ महाकाव्यकार कीर्तिरत्नसूरि, जैसलमेर, पाटण, खंभात आदि प्रसिद्ध भंडारों के संस्थापक तथा सहस्रों मूर्तियों के प्रतिष्ठापक आचार्य जिनभद्रसूरि आदि । १६ वीं – अनेक ग्रन्थों के बालावबोधकार उ० मेरुसुन्दर, आचाराङ्ग दीपिकाकार जिनहंससूरि सूत्रकृताङ्ग दीपिकाकार उ० साधुरंग, महोपाध्याय सिद्धान्तरुचि, कमलसंयमोपाध्याय आदि । १७ वीं -सम्राट् अकबर प्रतिवोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि उ० साधुकीर्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीकाकार महोपाध्याय पुण्यसागर, शतदलकमलकाव्यकार उ० सहजकीर्ति, कर्मचन्द्रवंशप्रवंधकार महो० जयसोम, अनेकग्रन्थ प्रणेता उ० गुणविनय, सहस्रदल कमलगर्भित अरजिनस्तव चित्रकाव्य के प्रणेता उ० श्रीवल्लभ, उ० सूरचन्द्र, अष्टलक्षी आदि सैकड़ों ग्रन्थों के प्रणेता उ० समयसुन्दर, चिन्तामणि नव्यन्याय के अध्येता वादी हर्षनन्दन, नैषधकाव्य टीकाकार जिऩराजसूरि, प्रश्नोत्तरशतं आदि के प्रणेता उ० विनयसागर अदि । "१८ वीं - प्रसिद्ध भाषा साहित्य निर्मापक जिनहर्ष, कल्पसूत्र उत्तराध्ययन सूत्रादि के टीकाकार लक्ष्मीवल्लभ, मस्तयोगी आनन्दघन, धर्मवर्द्धन, अध्यात्मज्ञानी उ० देवचन्द्र गौतमी महाकाव्य प्रणेता उ० रामविजय (रूपचन्द्र ), आदि । १९ वीं --क्रियोद्धारक उ० क्षमाकल्याण, उ० शिवचन्द्र चारित्रनंदी, ज्ञातासूत्र टीकाकार कस्तूरचन्द्र, मस्तयोगी ज्ञानसार आदि । २० वीं--योगी चिदानंदजी, आबू तीर्थोद्धारक ऋद्धिसागर, बालचन्द्राचार्य, स्याद्वादानुभव रत्नाकरादि प्रणेता चिदानंदजी बंबई के सर्वप्रथम उपदेशक मुनि मोहनलालजी, कृपाचन्द्रसूरि जिनऋद्धिसूरि, अप्रतिहतवादी जिनमणिसागरसूरि, कवीन्द्रसागरसूरि उ० लब्धिमुनि, . बुद्धिमुनि, इतिहासविद् कान्तिसागर आदि । प्रस्तुत ग्रन्थ का लेखक भी इसी परम्परा का है । इस वल्लभीय परंपरा में आज भी चार शाखाएं (बृहत्, लघुआचार्य, मंडोवरा, लख3) विद्यमान हैं और उनके श्रीपूज्य तथा आद्यपक्षीय पिप्पलक आदि के यतिगण भी विद्यमान हैं । साधुओं की भी तीन शाखाएं (क्षमाकल्याण, जिनकृपाचन्द्रसूरि, मोहनलालजी परंपरा ) मौजूद हैं, जिनमें आज भी अनेक विद्वान् साधुगण एवं साध्वीगण हैं और साहित्योपासना कर रहे हैं । इस वल्लभीय खरतरगच्छ परम्परा के आचार्यों की साहित्यसेवा का उल्लेख करते हुए मुनि जिनविजयजी कथाकोष प्रकरण की प्रस्तावना में लिखते हैं: “इस खरतरगच्छ में उसके बाद अनेक बड़े बड़े प्रभावशाली आचार्य, बड़े बड़े विद्या [ ५७ वल्लभ-भारती ] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय, बड़े बड़े प्रतिभाशाली पण्डित-मुनि और बड़े बड़े मांत्रिक, तान्त्रिक, ज्योतिर्विद्, वैद्यक विशारद आदि कर्मठ यतिजन हुये जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा के बढाने में बड़ा भारी योग दिया। सामाजिक और साम्प्रदायिक उत्कर्ष की प्रवृत्तिके सिवा, खरतरगच्छानुयायी विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा देश्य भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम किया और इसके फल स्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों का निरूपण करने वाली छोटी बड़ी सैकड़ों-हजारों ग्रन्थकृतियां जैन भण्डारों में उपलब्ध हो रही हैं। खरतरगच्छीय विद्वानों की की हुई यह साहित्योपासना न केवल जैन-धर्म की ही दृष्टि से महत्त्व वाली है, श्रपितु समूचे भारतीय संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है। साहित्योपासना की दृष्टि से खरतरगच्छ के विद्वान् यति-मुनि बड़े उदारचेता मालूम देते हैं । इस विषय में उनकी उपासना का क्षेत्र केवल अपने धर्म या समुदाय की वाड़ से बद्ध नहीं है । वे जैन और जैनेतर वाङमय का समानभाव से अध्ययन-अध्यापन करते रहे हैं । व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक और दर्शनशास्त्र तक के अगणित अजैन ग्रन्थों का उन्होंने बड़े आदर से आकलन किया है और इन विषयों के अनेक अजैन ग्रन्थों पर उन्होंने अपनी पाण्डित्यपूर्ण टीकायें आदि रखकर तत्तद् ग्रन्थों और विषयों के अध्ययन कार्य में बड़ा उपयुक्त साहित्य तैयार किया है। खरतरगच्छ के गौरव को प्रदर्शित करने वाली ये सब बातें हम यहां पर बहुत संक्षेप में, केवल सूत्र रूप से, उल्लिखित कर रहे हैं। विशेष रूप से लिखने का यहां अवकाश नहीं है ।" [ पृ० ३] विधिपक्ष आचार्य जिनवल्लभरि ने जैन समाज को जो अमूल्य देन प्रदान की है वह विधिपक्ष के नाम से से अभिहित हुई है। सिद्धान्ततः यह विधिपक्ष आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वारा प्ररूपित सुविहित पक्ष ही है । परन्तु यह एक नियम सा है कि कोई भी क्रान्ति प्रारम्भ में अवांछनीय ध्वंस पर ही अधिक जोर देती है। अतएव श्री जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवास के विरुद्ध जो आन्दोलन खड़ा किया उसमें वे केवल निषेध, खण्डन और विध्वंस के लिये जितना आवश्यक था उतना ही अपने शास्त्रसम्मत पक्ष को जनता के सम्मुख रख पाये थे; उनको इतना अवसर नहीं मिल पाया था कि वे कोई व्याबहारिक विधान उपस्थित कर पाते और न उस समय यह संभव ही था । इस कमी की पूर्ति जिनवल्लभसूरि ने की । उन्होंने अशास्त्रीय, अकत्तं व्य और अवाँछनीय का केवल खण्डन तथा विध्वंस करके ही सन्तोष न किया; उसके स्थान पर उन्होंने शास्त्रीय, कर्त्तव्य एवं वांछनीय का मण्डन तथा निर्माण करने का भी विशेष प्रयत्न किया । उन्होंने निषेध की अपेक्षा 'विधि' पर अधिक जोर दिया; सम्भक्तः इसीलिए इनके पक्ष का नाम " विधिपक्ष" पड़ा । वस्तुतः क्रान्ति की सफलता कोरे विध्वंस में नहीं, सृजन में है । अव - ata की अवांछनीयता बतलाने या निषेध में नहीं, उसके स्थान पर वाँछनीय के निर्माण या "विधि" में ही निहित है । अतः उनके इस विधि-पक्ष का व्याबहारिक स्वरूप, जैसा कि पहले संकेत किया जा [ वल्लभ-भारती ५८ ] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुका है, सर्वप्रथम हमें नये चैत्यों के निर्माण में मिलता है । इन चैत्यों में नये विधिपक्ष के विधान को लागू किया गया और उन अवांछनीय तथा अशास्त्रीय कृत्यों का स्पष्ट निषेध कर दिया गया जिनके कारण 'चैत्यबासियों का विधान बदनाम हो चुका था। जिम-मन्दिरों के सम्बन्ध में विधि-पक्ष का जो दृष्टिकोण था उसको झलक उन चैत्यों में उत्कीर्ण श्लोकों से मिलती है जिनमें आचार्य जिनवल्लभसूरि ने प्रतिष्ठा करवाई थी। वे श्लोक निम्नलिखित हैं: प्रत्रोत्सूत्रजनक्रमो न च न च स्नानं रजन्यां सदा, साधूनां ममताधयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि । जाति-ज्ञाति कदाग्रहो न च न च श्राद्धषु ताम्बूलमित्याज्ञाऽत्रेयमनिधिते विधिकृते श्रीधीरचैत्यालये। इह न लगुडरासः स्त्रीप्रवेशो म रात्री, न च निशि बलि-दीक्षा-स्नात्र-नत्य-प्रतिष्ठाः । प्रविशति न च नारी गर्भगेहस्य मध्ये- शुचितमकरणीयं गीतनत्तादिकार्यम् ।१ इन दो पद्यों में देवालयों की व्यवस्था का निम्नलिखित विधान किया गया है:. १. अशास्त्रीय तथा उन्मार्ग में ले जाने वाली समस्त प्रवृत्तियों का त्याग होना चाहिये । भले ही वे 'उपचार' से भक्ति का साधन प्रतीत होती हों, किन्तु जो अन्ततः पतित करने वाली हैं, वे वर्ण्य हैं। २. रात्रि में प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, स्नान (प्रक्षालन), दीक्षा, बलि (देवतर्पण) आदि श्रेष्ठ कृत्य भी नहीं होने चाहिये; क्योंकि आपाततः ये हिंसा साध्य ही हैं। ३. चैत्यों में 'लगुडरास' (डांडिये, घूमर) अर्थात् रास, रासड़ा आदि जो नरनारियों द्वारा किये जाते हैं वे भी नहीं होने चाहिये ; क्योंकि ये बाह्य भक्ति के साधन होते हुए भी अन्त में केवल चक्षु और श्रोत्र के विकार मात्र ही रह जाते हैं, प्रभु भक्ति के साधन नहीं। ४. चैत्यों में वेश्याओं अथवा नारियों द्वारा नृत्य नहीं होना चाहिये; क्योंकि नारी का नृत्य और उसके अंगोपांगों की चेष्टाएँ आदि केबल विषय-वासना की ही साधक हैं न कि ब्रह्मचर्य की। अतः संयम के स्थान पर 'उत्तेजक' सामग्रियों का 'सात्विकता' की दृष्टि से परिहार होना ही चाहिये। ५. रात्रि के समय नारियों का चैत्य में प्रवेश निषिद्ध है ; क्योंकि यह कभी पतन की 'भूमिका' हो सकती है। ६. ताम्बूल आदि भक्षण करके चैत्य में न जाना चाहिये; क्योंकि इससे नम्रता तथा लघुता का नाश, शृंगारिता का उद्दीपन और गर्व का पोषण होता है। ७. चैत्य केवल आत्मसाधना के आलम्बन है। अतः इनमें जातियों या ज्ञातियों का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है केवल भव्यता का। वह 'भव्य' चाहे किसी भी ज्ञाति या कुल का हो, उसको भक्ति करने का अधिकार है। उससे वह वंचित नहीं होना चाहिये । १. संघपट्टक टीका एवं चर्चरी टीका के आधार पर । वल्लभ-भारती ] [ ५९ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः आचार्यश्री का यह प्रतिपादन शास्त्रीय दृष्टि से कितना महत्त्वपूर्ण है । आचार्यश्री जाति से धर्म का अथवा आलम्बन-भूत साधनों का सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते हैं; वे तो केवल 'भव्यता' का प्रश्रय लेकर गुण-कर्म-विभाग ही स्वीकार करते हैं जो उनकी असीम निर्भीकता का परिचायक है । - इस प्रकार चैत्यों के साथ-साथ साधु-यतिजनों के लिये भी आचार्यश्री ने निम्नलिखित आदेश दिये हैं जो संघपट्टक की ५ वीं कारिका से स्पष्ट हैं:यौशिकभोजनं जिनगृहे वासो वसत्यक्षमा, स्वीकारोऽर्थगृहस्थचैत्य सदनेष्वप्र ेक्षिताद्यासनम् । सावद्याचरितादरः श्रुतपथावज्ञा गुणिद्वेषंधीः, धर्मः कर्महरोत्र चेत्पथि भवेन्मेरुस्तदाब्धौ तरेत् । इस कारिका के अनुसार जो आत्म-साधना की दृष्टि से गृहस्थावास का त्याग कर संयम धारण कर चुके हैं उन्हें अपनी आत्मा को पतन के मार्ग से बचाने के लिये निम्नलिखित कर्त्तव्यों का ध्यान अवश्य रखना चाहिये; अन्यथा इसके अभाव में साधुता कैवल लम्पटता और वेषाभासमात्र रह जाती है । १. सर्वप्रथम अन्तरंग शुद्धि के लिये बाह्य शुद्धि की भी आवश्यकता है। अतः अशुद्ध और स्वयं के लिये निर्मित पिण्ड (भोजन) कदापि ग्रहण नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह षट्कायिक-मर्दन का कारण होने से, उससे अहिंसा महाव्रत का पूर्ण रूपेण नाश सम्भव है । २. चैत्यों में निवास और चैत्यों की सार-संभार की चिन्ता, मोह, ममता और माया - लोभ का केन्द्र होने से आत्मसाधना का घातक है और राजसीवृत्ति का पोषक तथा शिथिलाचार का संवर्धक है । अतः साधकों को इनसे निर्लिप्त ही रहना चाहिये । ३. द्रव्य संग्रह और उपासकों के प्रति ममत्व 'मठपतित्व' का सूचक है । द्रव्य से समस्त अकथ्य कुकृत्यों तथा पापों के होने की भी पूर्ण सम्भावना रहती है और ममत्व से अवर्णनीय कुपथ भी ग्रहण किये जाते हैं । अतः उसका त्याग आवश्यक है । ४. गद्दी आदि का आसन और आस्रव पूर्ण आचरणाओं का त्याग होना चाहिये ; क्योंकि गद्दी आदि 'सुकुमारता' के प्रतिपादक होते-होते 'शैथिल्य' की चरम सीमा तक पहुँचाने वाले हैं और उनके साथ बंधी हुई आस्रव पूर्ण क्रियायें ( यथा - अंगराग, तेल, इत्र का उपयोग, ताम्बूल - भक्षण आदि) कामोद्दीपक साधन होने से व्यक्ति को पतन की ओर ले जाने वाली हैं। ५. अपनी शिथिलता का प्रतिपादन करने के लिये सिद्धान्त-मार्ग की अवज्ञा या उन्मार्ग की प्ररूपणा नहीं करनी चाहिये और न अपनी स्वार्थान्धता के कारण सन्मार्ग प्ररूपक, सुविहित, आत्मसाधक-मुनियों की अवहेलना एवं गुणिजनों के प्रति उपेक्षा ही करनी चाहिये, अन्यथा साधक अपनी वैयक्तिक-साधना को त्याग कर केवल मृग मरीचि के पीछे ही भ्रमण करता रहेगा । इस प्रकार अन्य भी अनेक छोटे-मोटे विधान विधिचैत्य' और 'साधुगणों' के लिये आचार्यश्री ने बनाये थे; वे यहां विस्तार के भय से नहीं दिये जा रहे हैं । जिन्हें इनका ६० ] [ वल्लभ-भारती Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्तृत अध्ययन करना हो, वे संघपट्टक, चर्चरी, उपदेशरसायन, सन्देहदोलावली आदि ग्रन्थों का अध्ययन करें। - वस्तुतः उस समय आचार्य जिनवल्लभ ने अविधिवाद का जड़-मूल से विनाश न किया होता और व्यावहारिक मर्यादायें स्थापित न की होती तो आज 'जैन-चैत्य" इस रूप में दृष्टिगत न होते ! होते तो केवल अन्य देवालयों की तरह भोगलिप्सा के साधक व व्यक्तिगत सम्पत्ति-रूप ही होते । जैन-साधु-यतिगण आज के रूप में न रहते और रहते तो मठपति या पण्डों के रूप में। अस्तु, वस्तुतः आज जो जैन-चैत्य और जैन-साधु यत्किचित् प्रमाण में भी शास्त्र-सम्मत दिखाई पड़ते हैं वह आचार्य जिनवल्लभ की कृपा का ही फल है। वल्लभ-भारती ] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय:३ विरोधियों के असफल प्रयत्न आचार्य जिनवल्लभसूरि के व्यक्तित्व और असाधारण प्रतिभा से उत्पीडित परवर्ती कई लेखकों ने असंभाव्य कल्पनाएँ उत्पन्न करके उनके व्यक्तित्व को दूषित करने का प्रयत्न किया है । इस प्रकार के अवांछनीय दुष्प्रयत्न करने वालों में (साहित्य में शोध करने पर) हमें सर्वप्रथम उपाध्याय धर्मसागरजी के दर्शन होते हैं। धर्मसागरजी जैसे उद्भट विद्वान् और मेधावी लेखक थे वैसे ही यदि शान्ति-प्रिय और शासनप्रेमी होते तो वे निश्चित ही महापुरुषों की कोटि में आते । पर शोक ! उनकी प्रतिभा और विद्वत्ता का उपयोग सत्यशोध एवं शान्तिसंग्रह में न होकर दुराग्रह, कलह-प्रेम और छिद्रान्वेषण में ही हुआ, जिसके कारण तत्कालीन गणनायकों (विजयदानसूरि तथा हीरविजयसूरि जैसों) को बारंबार बोल (आदेश पत्र) निकाल कर उन्हें गच्छ बहिष्कृत करना पड़ा और उनके उत्सूत्र-प्ररूपणामय ग्रन्थों को जलशरण. करवाना पड़ा । अतः ऐसी अवस्था में धर्मसागरजी द्वारा कल्पित विकल्पों का उत्तर देना व्यर्थ ही होता, परन्तु श्री आनन्दसागरसूरि, विजयप्रेमसूरि तथा मानविजय जैसे लोगों ने धर्मसागरजी के चरण-चिह्नों पर आज पुनः चलना प्रारम्भ कर दिया है और आचार्य जिनवल्लभ की धवलकीति पर कीचड़ उछालना प्रारम्भ कर दिया है। अतः उनके आक्षेपों पर पुनः विचार कर लेना और वस्तुस्थिति को विद्वानों के सामने स्पष्ट कर देना आवश्यक हो गया है। सागरजी ने जिनवल्लभगणि के विषय में जो विभिन्न विवाद उठाये हैं उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं: १. आचार्य अभयदेवसूरि के पास इन्होंने उपसम्पदा ग्रहण नहीं की थी अर्थात् वे उनके शिष्य नहीं बने थे। २. षट् कल्याणक की प्ररूपणा उनकी उत्सूत्र प्ररूपणा थी। ३. उत्सूत्र-प्ररूपणा के कारण वे संघ-बहिष्कृत थे। ४. पिण्डविशुद्धि आदि सैद्धान्तिक ग्रन्थों के प्रणेता जिनवल्लभ नाम के दूसरे आचार्य थे । अतः अब इन चारों विकल्पों पर हम क्रमशः विचार करते हैं: उपसम्पदा आचार्य जिनवल्लभसूरि के वृत्त को ऊपर देख चुके हैं। मूल में वे कूर्चपुरीय चैत्यवासी जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे और आचार्य अभयदेवसूरि से सैद्धान्तिक वाचना प्राप्त कर, सुविहित साधुओं के आचरण-व्यवहारों को समझकर तथा चैत्यवास त्यागकर अभयदेवाचार्य ६२ ] [ वस्लभ-भारती Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पास उन्होंने उपसम्पदा (पुनर्दीक्षा ) ग्रहण की थी । धर्मसागरजी से चार शताब्दि पूर्व ही श्री सुमतिगण और जिनपालोपाध्याय (जिनका दीक्षा पर्याय ११२४ से १३११ तक है) ने अपने ग्रन्थों में यह बात स्पष्टतः स्वीकार की है । आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य और नवाङ्गटीकाकार श्री अभयदेवसूरि के सतीर्थ्य गुरुभ्राता श्री जिनचन्द्रसूरि ने सं० ११२५ में संवेगरंगशाला नामक कथाग्रन्थ की रचना पूर्ण की जिसकी पुष्पिका में उन्होंने लिखा है: " इति श्रीमज्जिनचन्द्रसूरिकृता तद्विनेयश्री प्रसन्नचन्द्रसूरिसमभ्यर्थितेन गुणचन्द्रगणि (ना) प्रतिसंस्कृता जिनवल्लभगणिना च संशोधिता, संवेगररङ्गशालाराधना समाप्ता । " अर्थात् श्री जिनचन्द्रसूरिप्रणीत उनके विनेय प्रसन्नचन्द्राचार्य की अभ्यर्थना से गुणचन्द्रमणि (जो आचार्य बनने पर देवभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए) द्वारा प्रतिसंस्कृत और गणि जिनबल्लभ द्वारा संशोधित संवेगरंगशाला पूर्ण हुई । इससे स्पष्ट है कि यदि जिनवल्लभगणि उपसम्पदा ग्रहण कर आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य न बने होते तो अपने सतीर्थ्य अभयदेवसूरि एवं शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य, हरिभद्रसूरि तथा वर्धमानसूरि आदि समर्थ विद्वानों के रहते हुए जिनचन्द्रसूरि एक चैत्यवासी गणि से अपनी कृति का संशोधन कभी नहीं करवाते । सचमुच जिनवल्लभमणि यदि अभयदेवसूरि के शिष्य न बने होते और उत्सून प्ररूपक होते तो उन्हें अभयदेवसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् अभवदेवसूरि के पट्टधर होने का सौभाग्य कदापि प्राप्त न होता और वह भी तत्कालीन मच्छ के असाधारण प्रतिभाशाली और गीतार्थप्रवर आचार्य देवभद्रसूरि के हाथ, जिनके सम्बन्ध में सुमतिगणि कहते हैं: “सत्तकन्यायचर्चाचितचतुरगिरः श्रीप्रसन्नेन्दुसूरिः, सूरिः श्रीवर्द्ध मामो यक्तिपतिहरिभद्रो मुनीड्देवभद्रः । इत्माद्याः सर्वविद्या व सकलभुवः सञ्चरिष्णूरुकोतिः स्तम्भायन्तेऽधुनापि श्रुतचरपरमार जिनो यस्य शिष्याः || आचार्य देवभद्रसूरि द्वारा पट्ट पर स्थापित करना स्पष्ट प्रतिपादन करता है कि गणी ने आचार्य अभयदेवसूरिजी के पास में उपसम्पदा ग्रहण करली थी । सं० १९७० में लिखित पट्टावलि में कवि पल्ह भी जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का पट्टधर स्वीकार करते हैं: सुगुरु जिणेसरसूरि नियमि जिणचंदु सुसंजमि । प्रभयदेउ सव्यंग नारगी, जिणवल्लहु श्रागमि ॥ आचार्य जिनवल्लभसूरि के प्रपौत्र पट्टधर और उ० जिनपाल तथा सुमति गणि के गुरु, आचार्य जिनपतिसूरि स्वरचित संघपट्टक वृत्ति में लिखते हैं कि - चैत्यवास को चतुर्गतिभ्रमणदायक मानकर जिनवल्लभजी ने आचार्य अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा ग्रहण की थी : - १. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सं० ११२५ से पूर्व ही जिनवल्लभगरिण चैत्यवास का परित्याग कर उपसंपदा ग्रहणपूर्वक नवांगटीककार श्री अभयदेवसूरि के शिष्य बन चुके थे । बल्लभ-भारती ] [ ६३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सुगृहीतनामधेयः, प्रणतप्राणिसन्दोहवितीर्णशुभभागधेयः, चैत्यवासदोषभासनसिद्धान्ताकर्णनापासितकृतचतुर्गतिसंसारायास जिनभवनवासः, सर्वज्ञशासनोत्तमाङ्गस्थाना (ङ्गा ) दिनवाङ्गवृत्तिकृच्छ्रीमदभयदेवसूरिपादसरोजमूले गृहीतचारित्रोपसम्पत्तिः, करुणासुधातरङ्गिणीतरङ्गरङ्गत्स्वान्तः सुविधि मार्गावभासनप्रादुःष द्विशदकीत्तिकौमुदी निषूदित दिक्सीमन्तिनीवदनध्वान्तः, 'स्वस्योपसर्गमभ्युपगम्यापि विदुषा दुरध्व विध्वंसनमेवाधेयमिति' सत्पुरुषपदवीमदवीयसीं विदधानः, समुज्जितसूरिर्भगवान् श्रीजिनवल्लभसूरि : ' साथ ही इन्हीं जिनवल्लभ गणि रचित सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार (सार्द्धं शतक) प्रकरण पर बृहद्गच्छीय श्रीधनेश्वराचार्य ने सं० १९७१ में टीका रचना की है। (स्मरण रहे कि जिनवल्लभसूरि का स्वर्गवास १९६७ में हुआ था, उसके चार वर्षं पश्चात् ही इसकी रचना हुई है, अर्थात् ग्रन्थकार और टीकाकार दोनों समकालीन आचार्यं हैं) उसमें १५२ वें पद्य की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं: " जिणवल्लहगणि” त्ति जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसङ ग्राहिस्थानाङ्गाद्यङ्गोपाङ्गपञ्चाशकादिशास्त्रवृत्तिविधानावाप्तावदातकीत्तिसुधाधव लितधरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण 'लिखितं' कर्मप्रकृत्यादिगम्भीरशास्त्र ेभ्यः समुद्धत्य दृब्धं जिनवल्लभगणिलिखितम् । ” अर्थात् सार्द्धं शतक के प्रणेता स्थानांगसूत्रादि अंगोपांग और पंचाशक आदि के व्याख्याकार आचार्य अभयदेवसूरि के ही शिष्य थे। इससे भी यह बात अत्यन्त . स्पष्ट हो जाती है कि अभयदेवसूरि इनको उपसम्पदा प्रदान कर अपना शिष्य घोषित कर चुके थे । केवल ये ही नहीं किन्तु धर्मसागरजी के ही पूर्वज तपगच्छीय श्रीमहंससूरि अपने कल्पान्तवाच्य में लिखते हैं: “वाङ्गवृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरि जिण थंभण सेठी नदीनें उपकंठी श्रीपार्वनाथ तणी स्तुति करी, धरणेन्द्र सहायै श्रीपार्श्वबिम्व प्रत्यक्ष कीधो, शरीरतणी कोढ रोग उपशमाव्यो, तच्छिष्य जिनवल्लभसूरि हुआ, चारित्रनिर्मल अनेक ग्रन्थतणौ निर्माण कीधो ।” और इसी प्रकार तपागच्छीय आचार्यं मुनिसुन्दरसूरि स्वप्रणीत त्रिदशतरङ्गिणी गुर्वावली में लिखते हैं: "व्याख्याता भयदेवसूरिरमलप्रज्ञो नवाङ्गयां पुनभव्यानां जिनदत्तसूरिरवदाद् दीक्षां सहस्रस्य तु । प्रौढः श्रीजिनवल्लभो गुरुर भूद् ज्ञानादिलक्ष्म्या पुनग्रन्थान् श्री तिलकश्चकार विविधांश्चन्द्रप्रभाचार्यवत् । " इसी प्रकार राजगच्छ पट्टावली ( विविधगच्छीय पट्टावली संग्रहः, संपा० आचार्यं जिनविजय, पृ० ६४ ) में लिखा है : 4: "श्री उद्योतनसूरयस्तदन्वये श्रीअभयदेवसूरयः, यः स्वीयकुष्ठरोगस्फेटनाय 'जयतिहुअण• ' स्तवेन श्रीस्तम्भनकपार्श्वनाथं स्तुत्वा धरणेन्द्रः प्रकटीकृतः । रोगो निर्गमितः । तथानवानामङ्गसूत्राणां वृत्तयः कृताः । यथा ६४ ] [ वल्लभ-भारती Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुवेऽहमेवाभयदेवसूरि, विनिर्मिता येन नवाङ्गवृत्तिः । श्रुतश्रियं प्रोद्वहतो. महर्षेर्बभौ नवाङ्गा वरवेदिकेव ॥४८॥ तच्छिष्याः पिण्डविशद्वयादिप्रकरणकारकाः श्रीजिनवल्लभसरयः। इन अवतरणों से सिद्ध है कि गणिजी नवाङ्गीवृत्तिकारक आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य थे। उपसम्पदा के बिना शिष्यत्व स्वीकृत नहीं हो सकता तो पट्टधर आचार्यत्व की कल्पना कल्पना मात्र ही रह जाती है। अतः यह मानना ही होगा कि जिनवल्लभगणि ने चैत्यवास त्याग कर अभयदेवसूरि से उपसम्पदा ग्रहण की थी। इसीलिये युगप्रधान जिनदत्तसूरि जैसे समर्थ विद्वान् स्थान-स्थान पर जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का शिष्य कहते हैं । __केवल यही नहीं, किन्तु आचार्य जिनवल्लभसूरि स्वयं स्वप्रणीत श्रावकव्रतकुलक में अपने को आचार्य अभयदेवसूरि का शिष्य कहते हैं: ___ जुगपवरागमसिरि-अभयदेवमुरिणवइपमाणसुभ्देरण । जिणवल्लहरिणरणा गिहि-वयाइ लिहियाइ मुद्धरण ॥ २८॥ इतना ही नहीं किन्तु अष्टसप्ततिका अपरनाम वीर-चैत्य-प्रशस्ति में तो वे अपने को अभयदेवसूरि के पास श्रु ताध्ययन करने और उपसम्पदा ग्रहण करने का उल्लेख भी करते हैं: • लोकाच्यकूर्चपुरगच्छमहाधनोत्थ-मुक्ताफलोज्ज्वः लजिनेश्वरसूरिशिष्यः । - प्राप्तः प्रथां भुवि गणिजिनवल्लभोऽत्र, तस्योपसम्पदमवाप्य ततः श्रुतं च ॥५२।। साथ ही स्वप्रणीत प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतं काव्य में जहां आचार्य अभयदेवसूरि को "के वा सद्गुरवोऽत्र चारुचरणश्रीसुश्रु ता विश्र ताः” इस प्रश्न के उत्तर में "श्रीमदभयदेवाचार्याः" का उल्लेख किया है, उसकी अवचुरि करते हुए तपागच्छनायक श्रीसोमसुन्दरसूरि के शिष्य ने (सं० १४८६ में) 'सद्गुरवः' के स्थान पर 'मद्गुरवः' पाठ स्वीकार किया है: - "श्री पाके इति वचानात् श्रीधातुः । ममाभयं ददातीति मदभयदस्तस्मिन् यो मदभयं ददातीति, तत्र मम मनः प्रीतियुक्त भवतीत्यभिप्रायः ।" इस प्रकार आचार्य जिनवल्लभ के स्वयं रचित ग्रन्थों के प्रमाणों से सन्देह का अवकाश ही नहीं रह पाता। षटकल्याणाक शास्त्रीय मतानुसार प्रत्येक तीर्थंकर के च्यवन,' जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और १. इस प्रथम कल्याणक का नाम एक च्यवन ही नहीं, किंतु अवतरण गर्भ गर्भाधान आदि अनेक नाम भी आते हैं। जैसे कि प्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण बृहत्संग्रहणी की--"अवयरणजम्मनिक्खमणणाणनिव्वाण पंच कल्लाणे । तित्थयराएं नियमा, करंति सेसेसु खित्तेसु ॥" गाथा में 'अवतरण' कहते हैं । आचार्य हरिभद्रसूरि पंचाशक की-'गब्भे जम्मे य तहा. रिणक्खमणे चेव गाणनिव्वाणे । भुवगुरूणं जिणाणं, कल्लाणा होंति णायब्वा ॥३१ ।" गाथा में गर्भकल्याणक और इसकी टीका में नवाङ्गटीकाकार श्री अभयदेवसूरि इसे गर्भाधान कहते हैं । इन निर्दिष्ट प्रमाणों से निश्चित यह हया कि देवलोक से च्यवनमात्र को ही नहीं अपितु च्यवकर माता की कुक्षि में तीर्थंकर गर्भतया उत्पन्न होना कल्याणक है । इसी कारण शास्त्रकार स्थान-स्थान पर लिखते हैं कि "चुए चइता गब्भं वक्कते" अर्थात् देवलोक से च्यवे और च्यवकर माता की कुक्षि में गर्भतया उत्पन्न हुए। वल्लभ-भारती ] [६५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण ये पांच कल्याणक अनिवार्य रूप से होते ही हैं । परन्तु श्रमण भगवान् महावीर के इन पांच कल्याणकों के अतिरिक्त एक छठा कल्याणक और हुआ, वह था गर्भापहरण ।' यह घटना इस प्रकार वर्णित मिलती है: श्रमण भगवान् महावीर का जीव दशम देवलोक से च्युत होकर आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिवस माहणकुण्डग्राम के निवासी कोडाल गोत्रीय ऋषभदत्त विप्र की पत्नी जालन्धरा गोत्रीय देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। देवानन्दा ने चौदह स्वप्न देखे । ८२ दिवस पश्चात् देवलोकस्थ सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से भगवान् को देवानन्दा के गर्भ में स्थित देखकर प्रसन्न होता है और श्रद्धापूर्वक 'नमुत्थुणं' आदि से स्तुति करता है। पश्चात् वह विचार करता है कि "तीर्थंकर का जीव किसी अशुभ कर्मोदय के कारण श्रेष्ठ क्षत्रियवंशों का त्यागकर विप्रादि कुलों में उत्पन्न हो सकता है, परन्तु उस निम्न कुल की माता की योनि से उनका जन्म कदापि नहीं होता। मैं इन्द्र हूँ । भगवान् का भक्त हूँ । अतः मेरा जीताचार (कर्त्तव्य) है कि मैं गर्भसंक्रमण (अपहरण कर अन्य स्थान पर प्रक्षेप) करवाऊं।" इस प्रकार विचार कर अपना आज्ञाकारी हरिणगमेषी नामक देव को बुलाता है और आदेश देता है कि "तुम जाकर देवानन्दा के गर्भ में स्थित भगवान् के जीव को लेकर क्षत्रियकुण्ड के अधिपति ज्ञातवंशीय काश्यप गोत्रीय सिद्धार्थ नरेश की पत्नी वाशिष्ठ गोत्रीय त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में स्थापित करो और त्रिशला की कक्षि में स्थित पुत्री के गर्भ को देवानन्दा ब्राह्मणी के उदर में स्थापित करो।" आदेश प्राप्त कर हरिणगमेषी देव आता है और आश्विन कृष्णा त्रयोदशी की मध्यरात्रि में यह कार्य पूर्ण करता है। इसी रात्रि में त्रिशला क्षत्रियाणी १४. स्वप्न देखती है। राजा सिद्धार्थ से निवेदन करती है। नृपति सिद्धार्थ भी स्वप्नलक्षण पाठकों को बुलाकर स्वप्न फल पूछता है। तब मालूम होता है कि तीर्थंकर अथवा चक्रवर्ती का जीव त्रिशला की रत्नमयी कुक्षि से जन्म ग्रहण करेगा। उसी दिवस से धनद के आज्ञाकारी सब प्रकार के वस्तुओं की सिद्धार्थ के घर में वृद्धि करते हैं। इसी गर्भापहरण को मंगलस्वरूप मानकर सब ही शास्त्रकारों ने इसे कल्याणक के रूप में स्वीकार किया है। किन्तु अपनी आभिनिवेशिक मान्यता के वशीभूत होकर, शास्त्रीय मान्यता एवं परंपरा का त्याग कर, कई इस कल्याणक को कल्याणक के रूप में स्वीकार नहीं करते । उनकी मान्यता के अनुसार इसमें निम्नलिखित बाधाएं हैं: १. जैसे च्यवन शब्द च्यवकर माता की कुक्षि में गर्भतया उत्पन्न होने का द्योतक है वैसे ही गर्भापहार शब्द हरण मात्र का नहीं, किंतु देवानन्दा की कुक्षि से अपहरण द्वारा त्रिशला की कुक्षि में स्थापन करने रूप अर्थ का भी द्योतक है। यही बात तपागच्छीय उपाध्याय जयविजयजी कल्पदीपिका में लिखते हैं:- "गर्भस्य-श्रीवर्द्ध मानरूपस्य हरणं-त्रिशलाकुक्षौ सङ कामणं-गर्भहरणं" । इस तरह त्रिशला की कुक्षि में गर्भाधानरूप गर्भहरण-गर्भापहार को कल्याणक न मानना किसी प्रकार युक्तियुक्त नहीं। यदि उपरोक्त व्याख्योपेत गर्भापहार कल्याणक मानने योग्य न हो तो कल्पसूत्रोक्त "एए चउदस महासूमिणे सव्वा पासेइ तित्थयरमाया” इस नियमानुसार और पंचाशकोक्त कल्याणक के "कल्लाणफला य जीवाणं" इस लक्षण से युक्त गर्भाधान कल्याणक सूचक १४ स्वप्न त्रिशला माता न देखती। [ वल्लभ-भारती Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. गर्भहरण अतिनिन्द्य कार्य होने से आश्चर्य (अच्छेरा) है।' जो आश्चर्य हो वह मंगलस्वरूप कल्याणक नहीं माना जा सकता। २. शास्त्रों में किसी भी स्थल पर श्रमण भगवान् महावीर के छ कल्याणकों का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। यदि कहीं उल्लेख है भी तो वह कल्याणक शब्द से अभिहित नहीं है किन्तु वस्तु या स्थान शब्द से कथित है। ३. पञ्चाशक शास्त्र में भूतानागत और भविष्यद् रूप त्रिकालभावि चौवीस-चौवीस तीर्थंकरों के कल्याणकों की संख्या-परिमाण सूचन करने में महावीर के पाँच कल्याणक माने जाते हैं । टीकाकार अभयदेवसूरि ने भी पांच ही लिखे हैं। यदि गर्भापहार छठा होता तो उसकी संख्या क्यों नहीं देते। ४. यदि 'पंच हत्थुत्तरे होत्था साइणा परिनिव्वए' आदि से गर्भहरण को भी कल्याणक स्वीकार करते हो तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार 'पंच उत्तरासाढे अभीई छठे होत्था' से ऋषभदेव का राज्याभिषेक नामक कल्याणक भी मानना चाहिये । ५. शास्त्रों में तथा किसी भी आचार्य द्वारा इसका उल्लेख न होने से यह प्रतिपादन अशास्त्रीय है, अतः उत्सूत्र प्ररूपणा है और इसका प्रतिपादन सर्वप्रथम जिनवल्लभ गणि ने ही किया है। इन विकल्पों का समाधान (उत्तर) क्रमशः इस प्रकार है: १. यदि हम आश्चर्य को कल्याणक के रूप में स्वीकार न करें तो हमारे सन्मुख कई बाधायें उपस्थित होती हैं । शास्त्रों में जहां दश आश्चर्यों (अच्छेरों) का वर्णन है, उसमें १६ वें तीर्थंकर मल्लिनाथ का स्त्री रूप में होना भी एक आश्चर्य माना गया है। यदि नारी का तीर्थकर होना आश्चर्य के अंतर्गत आता है तो सहज ही प्रश्न उठते हैं कि, क्या उस नारी का तीर्थंकरत्व मंगलदायक हो सकता है ? क्या उस नारी के जीवन की अमूल्य घटनाएं कल्याणक के रूप में स्वीकार की जा संकती हैं? क्या उसकी तीर्थंकर उपाधि कल्याणकारक हो सकती है ? क्या उसका शासन चतुर्विध संघ के लिये कल्याण-कारक हो सकता है ? यदि भगवान् महावीर का गर्भापहरण कल्याणक-स्वरूप नहीं हो सकता तो नारी का तीर्थकरत्व कैसे कल्याणक-स्वरूप हो सकता है ? । इसी प्रकार दूसरा आश्चर्य उत्कृष्ट देहधारी १०८ मुनियों के साथ भगवान् ऋषभदेव का सिद्धिगमन (निर्वाण प्राप्त करना) है। ५०० धनुष परिमाण की देह उत्कृष्ट देह मानी जाती है। इस प्रकार के उत्कृष्ट देहधारी जीव एक समय में एक साथ दो ही मुक्ति जा सकते हैं, यह शास्त्रीय नियम है। दो से अधिक एक समय में मूक्ति नहीं जा सकते, इस शास्त्रीय मर्यादा का उल्लंघन होने से इसे आश्चर्य मानते हैं, तो क्या हम इसको आश्चर्य मानकर मंगलदायक कल्याणक स्वीकार नहीं कर सकते ? यदि हम इसे कल्याणक स्वीकार १. "नीचैर्गोत्रविपाकरूपस्य प्रतिनिन्धस्य प्राश्चर्यरूपस्य गर्भापहारस्यापि कल्याणकत्वकथनं अनुचितम्" कल्पसुबोधिका पृ. ६ इसी पर टिप्पन करते हुए सागरानंदसूरि लिखते हैं - 'गर्भापहारोऽशुभः । अकल्याणक भूतस्य गर्भापहारस्य" कल्पकिरणावली । करोषि श्रीमहावीरे, कथं कल्याणकानि षट् । यत्तेष्वेकमकल्याणं, विप्रनीचकुलत्वतः ।।१।। (गुरुतत्त्वप्रदीप) वल्लभ-भारती ] [ ६७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं करते हैं तो प्रभु ऋषभदेव का निर्वाण प्राप्त करना उनके स्वयं के लिये मंगलस्वरूप, आनन्दधाम-प्राप्तिरूप कदापि नहीं हो सकता तथा उनका निर्वाण कल्याणक, समाज के लिये श्रयस्कर भी नहीं हो सकता । परन्तु आश्चर्य है कि हम इसे मंगलस्वरूप कल्याणक अंगीकार करते हैं करना ही पड़ता है। अतः विचार करना चाहिये कि एक आश्चर्य को तो हम कल्याणक नहीं मानते और दो आश्चर्यों को कल्याणक रूप में स्वीकार करते हैं, क्या यह नीति उचित कही जा सकती है ? 学 * Deli पुरुषचरित्र कि दशमपर्व, द्वितीय सर्ग में इसे कहते हैं 7 न i i यदि गर्भापहार मंगलमय न होता तो आचार्य हेमचन्द्रसूरि अपने त्रिषष्टिशलाका मंगलस्वरूप कदापि स्वीकार नहीं करते, वे י द्विजन्मनः । इवागते ॥ ६॥ देवानन्दा गर्भगते प्रभौ तस्य बभूव महती ऋद्धिः कल्पद्र ुम तस्या गर्भस्थिते नाथे, द्वयशीतिदिवसात्यये । सौधर्मकल्पाधिपतेः सिंहासनमकम्पत ' ॥ ७ ॥ ज्ञात्वा चावधिना देवा - नन्दा गर्भगतं प्रभुम् । सिंहासनात् समुत्थाय शक्रो नत्वेत्यचिन्तयत् ॥ ८ ॥ X X X कृष्णाश्विनत्रयोदश्यां चन्द्र हस्तोत्तरास्थिते । स देवस्त्रिशलागर्भे, स्वामिनं निभृतं न्यधात् ॥ २६ ॥ गजो वृषो हरिः साभिषेकश्रीः स्रक् शशी रविः । महाध्वजः पूर्णकुम्भः पद्मसरः सरित्पतिः ॥ ३० ॥ विमानं रत्नपुञ्जश्च निधू मोग्निरिति क्रमात् । ददर्श स्वामिनी स्वप्नान् मुखे प्रविशतस्तदा ॥ ३१ ॥ इन्द्रः पत्या च तज्ज्ञैश्च तीर्थकृज्जन्मलक्षणे । । उदीरिते स्वप्नफले त्रिशला देव्यमोदत ॥ ३२ ॥ गर्भस्थेse प्रभो शक्रांऽज्ञया जृम्भकनाकिनः । भूयो भूयो निधानानि न्यधुः सिद्वार्थवेश्मनि ॥ ३३ ॥ १. इस पद्य में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि स्पष्ट कहते हैं कि देवानन्दा की कुक्षि में महावीर देव के अवतरित होने के बयांसी दिवस बीत जाने पर सौधर्मेन्द्र का आसन कंपित हुआ । श्रतः शान्तिचन्द्रीय जब्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ति के -- " तदेव हि कल्याणकं यत्रासनप्रकम्पप्रयुक्तावधयः सकलसुरासुरेन्द्राः जीतमिति विधित्सवो युगपत्ससम्भ्रमा उपतिष्ठन्ते" इस कथनानुसार जिसमें इन्द्रादि देवताओं का आना प्रभृति न हुआ हो उसे कल्याणक न मानने वालों को देवानन्दा की कुक्षि में वीरविभु के अवतरण को, जिसे कि हरिभद्रसूरि व अभयदेवसूरि जैसे प्रामाणिक प्राचार्यों ने पंचाशक प्रकरण मूल व वृत्ति में स्पष्टतया कल्याणक माना है, इसे कल्याणक नहीं मानना चाहिये । ६८ ] [ वल्लभ-भारती Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ यदि हम देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होना कल्याणक मानते हैं और त्रिशला की कुक्षि में संक्रमण होना कल्याणक नहीं मानते हैं तो यह कितना अयुक्त होगा? जहां हरण को अतिनिन्द्य कार्य स्वीकार करते हैं वहां विप्र कुल में उत्पन्न होना भी नीच गोत्र कर्मविपाक के उदय से मानते हैं- दोनों ही जघन्यता की कोटि में आते हैं । उस अवस्था में एक का अंगीकार और एक का त्याग कदापि युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात, च्यवन के पश्चात् जो देवोचित कर्तव्य होते हैं वे हरण के पश्चात् ही हुए हैं, ऐसा शास्त्रों में उल्लेख मिलता है। तथा गर्भापहरण यदि कल्याणक न होता तो आचार्य भद्रबाहुस्वामी जैसे इस अतिनिन्ध कार्य का शास्त्रों में विस्तार से वर्णन कदापि नहीं करते । उनका यह प्रतिपादन हमें एक नूतन दृष्टि प्रदान करता है कि प्रभु महावीर के कल्याणकों की संख्या हमें ५ ही स्वीकार हो तो देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होने से न मान कर गर्भहरण के बाद से ही संख्या मानें। २. शास्त्रीय उल्लेखों में हम किसी गच्छ के अथवा आचार्यों के उल्लेख न देकर कतिपय शास्त्रीय उल्लेखों पर ही विचार करते हैं: - जैनागमों में प्रथम अंग श्री आचाराङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रु तस्कन्ध, भावनाध्ययन में में वीरचरित्र का वर्णन करते हुए गणधरदेव लिखते हैं: ___ "ते णं काले णं ते णं समये णं समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे यावि होत्था, तं जहा-१. हत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गभं वक्कते, २. हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गम्भं साहरिए, ३. हत्युत्तराहिं जाए, ४. हत्थुत्तराहिं सव्वतो सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, ५. हत्थुत्तराहिं कसिणे पडिपुण्णे निव्वाघाए निरावरणे अणंते अणुत्तरे केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने, ६. साइणा भगवं परिनिव्वुए ।' इसकी टीका करते हुए व्याख्याकार आचार्य शीलाङ्कसूरि ने भी छ ही कल्याणक स्वीकार किये हैं। इसी प्रकार कल्पसूत्र के प्रारम्भ में भी पाठ आता है: १. इस पाठ का अर्थ नागपुरीय तपागच्छ के मुख्य प्रतिष्ठापक प्राचार्य पार्श्वचन्द्रसूरि इस प्रकार लिखते __ "श्रीमहावीर तेहना पंच कल्याणिक हस्तोत्तरा नक्षत्रमांहि हुआ । जिणि उत्तरा नक्षत्र प्रागलि हस्त छे ते हस्तोत्तरा कहिये, एतले उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमांहि पंच कल्याणिक हुआ। ते कल्याणिक केहा ? कहे छे - हस्तोत्तरा नक्षत्रमांहि स्वामी चव्या, चवीने गभि ऊपना १, हस्तोत्तरा नक्षत्रमाहि गर्भ थकी बीजे गभि संहर्या २, हस्तोत्तरा नक्षत्रमांहि स्वामी जन्म पाम्या ३, हस्तोत्तरा नक्षत्रमांहि xxx अणगारपणे प्रवजित हुआ एतावता संयम प्रादर्यो ४, हस्तोत्तर नक्षत्रमांहिxxxस्वामी केवली हुआ ५, साइणा स्वाति नक्षत्रे भगवंत श्रीमहावीर निर्वाण पदिइ पहता ६।। (प्राचारांग सूत्र बाबू प्रकाशन पत्र २३६ व २४२) २. पञ्चसु स्थानेषु गर्भाधान-संहरण-जन्म-दीक्षा-ज्ञानोत्पत्तिरूपेषु संवृत्ता, अतः पञ्च हस्तोत्तरो भगवान भूदिति" इस टीका पाठ से गर्भाधानादि जिन पांच स्थानों में हस्तोत्तरा नक्षत्र होने को कहा गया है. उन पांच स्थानों में से चार को कल्याणक और एक गर्भसंहरण को अकल्याणक नहीं बताया, प्रतः छः कल्याणक ही मानना टीकाकार के अभिप्राय से यूक्तियुक्त है। वल्लभ-भारती ] [ ६६ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “ते णं काले णं ते णं समये णं समणे भगवं महावीरे पंच हत्युत्तरे होत्था, तं जहा१. हत्थुतराहि चुए चइत्ता गब्भं वक्कंते, २. हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गब्भं साहरिए, ३. हत्थुत्तराहिं जाए, ४. हत्थुत्तराहि मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, ५. हत्थुत्तराहि अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने, ६. साइणा परिनिव्वुए भयवं । " इसकी भी टीका करते हुए कुछ तपगच्छीय आचार्यों को छोड़ कर प्रायः सब ही टीका व टब्बार्थकारों ने छ ही कल्याणक स्वीकार किये हैं । स्थानाङ्ग सूत्र के पंचम स्थानक में पद्मप्रभु, सुविधि, शीतल आदि महावीर पर्यन्त के चौदह तीर्थंकरों के एक-एक नक्षत्र में पांच-पांच कल्याणकों की गणना करते हुए कुल ७० कल्याणकों का उल्लेख दिखाया है, उसमें भी वीर के पांच कल्याणक हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए:"समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे होत्था, तं जहा - हत्थुत्तराहि चुए चइत्ता गब्र्भ वक्ते, हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गब्भं साहरिए, हत्थुत्तराहिं जाए, हत्थुत्तराहि मुंडे भवित्तां जाव पव्वइए, हत्थुत्तराहिं अणते अणुत्तरे जाव केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने ।” इसकी टीका करते हुए आचार्य अभयदेवसूरि लिखते हैं: "समणे, इत्यादि । हस्तोपलक्षिता उत्तरा हस्तोत्तरा, हस्तो वा उत्तरो यासां हस्तोत्तरा उत्तराफाल्गुन्यः पञ्चसु च्यवनगर्भहरणादिपु हस्तोत्तरा यस्य स तथा, गर्भाद्-गर्भस्थानात् 'गर्भ' ति गर्भे - गर्भस्थानान्तरे संहृतः - नीतः निर्वृतिस्तु स्वातिनक्षत्रे कार्तिकामावास्थायाम् ।” इसमें तेरह तीर्थंकरों के पाँच-पाँच कल्याणक एक-एक नक्षत्र में होने से कुल मिलाकर ६५ होते हैं और उसमें महावीर के गर्भहरणसहित केवलज्ञान प्राप्ति तक ५ कल्याणक हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए, स्वीकार कर ७० की संख्या पूर्ण करते हैं । इसमें निर्वाण सम्मिलित नहीं है । क्या यहाँ निर्वाण को कल्याणक न माना जाय ? और यदि उसे मानते हैं तो ६ हो ही जाते हैं । इसलिये आचार्य अभयदेवसूरि को बिशिष्ट रूप से लिखना पड़ा कि 'निर्वृतिस्तु स्वातिनक्षत्र कार्तिकामावास्यायाम्' इति । अतः यह स्पष्ट है कि शास्त्रकारों ने गर्भहरण को कल्याणक के रूप में स्वीकार किया है । यदि गर्भपरिवर्तन अतिनिन्द्य और अशुभ होता तो इसे मङ्गलमय कल्याणकों की गणना में ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं थी । इसमें ग्रहण करना सूचित करता है कि गर्भपरिवर्तन भी मङ्गलस्वरूप कल्याणक है । यहाँ पर यदि यह आक्षेप किया जाय कि इसमें कहीं कल्याणका शब्द की गन्ध तक प्राप्त नहीं होती, अपितु इसमें तो केवल इतना ही कहा गया है कि इस नक्षत्र में ये वस्तुएँ हुई, तो यह केवल मतिविभ्रम है, विद्वत्तापूर्ण विचार नहीं । यहाँ पर वस्तु ही कल्याणक का पर्यायवाची शब्द है । इसीसे कल्याणक ग्रहण किया जाता है। इस एकार्थक को हम यदि स्वीकार न करें तो हमारे सामने अनेक प्रकार की विप्रतिपत्तियां खड़ी हो जायेंगी । कुछ स्थलों को छोड़कर हमें कहीं भी और किसी भी शास्त्र में कल्याणक शब्द पृथक् रूप से प्राप्त नहीं होता, हमें केवल लक्षणा से ही ग्रहण करना होता है । ऐसी अवस्था में क्या हम च्यवन निर्वाण-पदप्राप्तिपर्यन्त की वस्तुओं को कल्याणक स्वीकार नहीं करेंगे ? स्थानाङ्ग सूत्र में [ वल्लभ-भारती ७० ] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपादित १४ तीर्थङ्करों के ७० कल्याणकों को अंगीकार नहीं करेंगे ? कल्पसूत्रस्थ पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि के चरित्रों में कल्याणक शब्द का उल्लेख न होने से क्या हम उनको भी कल्याणक स्वीकार नहीं करेंगे ? नहीं, हमें स्वीकार करना होगा, अन्यथा कल्याणकों का ही स्पष्टतः अत्यन्ताभाव हो जायगा, जो सचमुच में शास्त्रविरुद्ध होगा । कल्याणकों का अभाव होने से इन्द्रादिक देवताओं की की हुई श्रद्धापूर्वक सम्यग् आराधना केवल ढोंग मात्र ही होगी, भक्ति नहीं । अतः कल्याणक शब्द का उल्लेख न होने पर भी हमें लक्षणा से कल्याणक ग्रहण करना ही होगा । यही नहीं, किन्तु तीर्थंकर का जीव पूर्वभवों में जिस भव से सम्यक्त्व अर्जन करता है वहाँ से लेकर तीर्थंकर भव तक उसके सभी भव " उत्तमभव" माने जाते हैं । कल्पसूत्रादि शास्त्रों में प्रभु महावीर का भव पोट्टिल राजपुत्र के भव से पंचम भव माना जाता है, परन्तु समवायाङ्ग सूत्र में गणधरदेव महावीर का पंचम भव देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होना और छट्टा भव त्रिशलारानी की कुक्षि में उत्पन्न होना और तीर्थंकर रूप से जन्म लेना मानते हैं:“समणॆ भगवं महावीरे तित्थगरभवग्गहणाओ छुट्ट पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासकोड सामन्नं परियागं पा उणित्ता सहस्सारे कप्पे सव्व विमाणे देवत्ताए उववन्ने । " श्रमण तपस्वी भगवान् महावीर के पोट्टिल के भव से पाँच ही भव माने गये, यह छट्ठा भव कैसा ? इसका भ्रम न हो इसलिये टीकाकार अभयदेवसूरि स्पष्ट कर देते हैं: "समणे, इत्यादि । किल भगवान् पोट्टिलाभिधानो राजपुत्रो बभूव । तत्र वर्ष कोटिं प्रव्रज्यां पालितवान् इत्येको भवः । ततो देवोऽभूदिति द्वितीयः । ततो नन्दाभिधानो राजसूनुः छत्रानगर्यां जज्ञे इति तृतीयः । तत्र वर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवर विजय पुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवत् इति चतुर्थः । ततो ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्त ब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानाया. कुक्षौ उत्पन्न इति पञ्चमः । ततो शीतितमे दिवसे क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थ महाराजस्य त्रिशलाभिधानभार्यायाः कुक्षौ इन्द्रवचनकारिणा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहृतः - नीतः तीर्थङ्करतया च जातः इति षष्ठः । उक्तभवग्रहणं हि विना नान्यद्भवग्रहणं पष्ठं श्रूयते भगवतः इत्येतदेव षष्ठभवग्रह्णतया व्याख्यातं,यस्माच्च भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति, सुष्च्ठच्यते तीर्थङ्करभवग्रहणात् षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति । " इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होना और उससे 1. अपहृत होकर विशलाकुक्षि में धारण होना अतिनिन्द्य या आश्चर्य नहीं किन्तु उत्तम भव है । अतः पृथक् भवनिर्देश से उत्तमभव होने के कारण यह स्वतः ही मंगलस्वरूप कल्याणक हो जाता है । ३. पञ्चाशक प्रकरण एवं टीकाकार अभयदेवसूरि द्वारा पञ्चकल्याणक स्वीकार करना अपना निजी महत्त्व रखता है । वहाँ सामान्य रूप से २४ तीर्थङ्करों के कल्याणकों की गणना का प्रसंग होने से पांच ही कहे गये हैं, इससे ६ कल्याणक की मान्यता में यत्किञ्चित् भी बाधा नहीं आती । देखिये, चौवीस तीर्थङ्करों की सामान्य गणना में १६ वें तीर्थंकर मल्लिप्रभु की स्त्रीरूप में गणना नहीं करते हैं, किन्तु मल्लिनाथजी कहकर पुरुष रूप में गिनते वल्लभ-भारती ] [ ७१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । क्या सामान्य प्रसंग से मल्लिप्रभु का स्त्रीत्व नहीं छूट जाता है ? इसी प्रकार प्रत्येक तीर्थंकर की माता चौदह स्वप्न देखती है। उसमें ऋषभदेव की जननी वृषभ से, महावीर प्रभु की जननी सिंह से और अवशिष्ट अजितनाथ से पार्श्वनाथ पर्यन्त २२ की माताएं हस्ति से लेकर निघू म अग्निशिखा पर्यन्त चौदह स्वप्न देखती हैं । कल्पसूत्र में वीरचरित्र में त्रिशला के द्वारा दृष्ट स्वप्नों के अधिकार में आचार्य भद्रबाहुस्वामी, सामान्य पाठ होने से एवं बहुलता की रक्षा करने के लिये सिंह स्वप्न से वर्णन प्रारंभ न कर हस्ति स्वप्न से ही वर्णन प्रारंभ करते हैं, तो क्या यह मान सकते हैं कि त्रिशला ने चौदह स्वप्नों में सर्वप्रथम सिंह का स्वप्न न देखकर हाथी का स्वप्न देखा था ? यही क्यों ?, आचार्य जिनवल्लभसूरि ने स्वयं सर्व-जिन पञ्च कल्याणक स्तोत्रों में सामान्य जिनेश्वरों की स्तुति एवं कल्याणक निर्देश करते समय महावीरप्रभु के भी पांच ही कहे हैं तो क्या हमें जिनवल्लभसूरि का ही पृथक् अस्तित्व स्वीकार करना होगा ? या उन्हें वितथवचनी कहना होगा ? कदापि नहीं । वस्तुतः सामान्य प्रसंग से पञ्चाशक में महावीरदेव के पांच ही कल्याणक मानने से अतिरिक्त कल्याणक का अभाव नहीं हो जाता । अतः सामान्य एवं विशेष व्याख्या मध्यस्थ दृष्टि से देखें तो छ कल्याणक की मान्यता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । ४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के “उसभे णं अरहा कोसलिए पंच उत्तरासाढे अभीई छट्ठे होत्था" पाठ के अनुसार यहाँ यह सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है कि क्या शास्त्रकार राज्याभिषेक को कल्याणक स्वीकार कर 'पंच उत्तरासाढे' कहा है ? परन्तु इसका समाधान इसकी टीका करते हुए टीकाकार तपागच्छीय आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य श्री शान्तिचन्द्रगणि (जो धर्मसागरजी के हो समकालीन विद्वान् थे) कहते हैं कि 'वीस्य गर्भापहार इव नायं कल्याणकः ।' महावीर के गर्भहरण की तरह यह कल्याणक नहीं है, किन्तु राज्याभिषेक इन्द्र कर्त्तव्य होने से लक्षणा के साधर्म्य से एवं उत्तराषाढा नामक एक नक्षत्र में होने से शास्त्रकार ने पंच उत्तरासाढे' कहा है, इसमें कोई दोष नहीं है । इसीलिये आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने कल्पसूत्र में 'उसमे णं अरहा कोसलिए चउ उत्तरासाढे अभीई पंचमे होत्था' कहा है । अर्थात् चार कल्याणक उत्तराषाढा नक्षत्र में हुए हैं और पांचवां (निर्वाण) अभिजित् नक्षत्र में । टीकाकार का पूरा मन्तव्य इस प्रकार है "ननु अस्मादेव विभागसूत्रबलात् आदिदेवस्य षट्कल्याणकं समापद्यमानं दुर्निवारं इति चेत् ? न तदेव हि कल्याणकं यत्रासन प्रकम्पप्रयुक्तावधयः सकलसुरासुरेन्द्रा जीतमिति विधित्सया युगपत् ससंभ्रमा उपतिष्ठते । नह्ययं षष्ठकल्याणकत्वेन भवता निरूप्यमाणो राज्याभिषेकस्तादृशस्तेन वीरस्य गर्भापहार इव नायं कल्याणकः, अनन्तरोक्तलक्षणायोगात् । न च तहिं निरर्थकस्य कल्याणकाधिकारे पठनमिति वाच्यम्, प्रथमतीर्थेश राज्याभिषेकस्य जीतमिति शक्रेण क्रियमाणस्य देवकार्यत्व - लक्षण साधर्म्येण समाननक्षत्रजाततया प्रसङ्ग ेन तत्पठनस्यापि सार्थकत्वात् तेन समाननक्षत्रजातत्वे सत्यपि कल्याणकत्वाभावेन ( अ ) नियतवक्तव्यतया, क्वचित् राज्याभिषेकस्याकथनेऽपि न दोषः । अतएव दशाश्रु तस्कन्धाष्टमाध्ययने पर्युषणाकल्पे श्रीभद्रबाहु स्वामिपादाः " ते णं काले णं ते णं समये णं उसमे णं अरहा कोसलिए चउ उत्तरासाढे अभी पंच होत्था" इति पञ्चकल्याण कनक्षत्रप्रतिपादकसूत्र बबन्धिरे । न तु राज्याभिषेकन ७२ ] वल्लभ-भारती Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्राभिधायकमपीति । न च प्रस्तुतव्याख्यानस्यानागमिकत्वं, आचाराङ्गभावनाध्ययने श्रीवीरकल्याणकसूत्रस्यैवमेव व्याख्यातत्वात् ।" इस पाठ से राज्याभिषेक के कल्याणक न होने में सन्देह का अवकाश ही नहीं रहता । यदि मानलें कि राज्याभिषेक भी कल्याणक है, तो प्रायः प्रत्येक तीर्थङ्कर का राज्याभिषेक हुआ है; अतः प्रत्येक का भी मानना होगा । यही क्यों ? भगवान् ऋषभदेव ने युगलिक धर्म का निवारण कर सुमङ्गला के साथ पाणिग्रहण किया, यह लौकिक व्यवहार से एवं गार्हस्थ्य-धमरूप श्रेष्ठ कार्य होने से इसे भी कल्याणक मानने में क्या आपत्ति है ? यदि इस प्रकार से कल्पनाओं का आश्रय लिया जाय, तो पांच ही नहीं अपितु कितने ही कल्याणक प्रत्येक तीर्थंकर के हो सकते हैं, परन्तु शास्त्रविहित न होने से इन्हें कल्याणकों की कोटि में किसी भी शास्त्रकार ने नहीं रखा, अतः राज्याभिषेक भी कल्याणक की कोटि में नहीं आ सकता। ५. कतिपय शास्त्रीय प्रमाणों के उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं । अब खरतरगच्छीय आचार्यों के लिखित प्रमाण छोड़कर केवल अन्यान्य-गच्छीय आचार्यों के ही प्रमाण प्रस्तुत करते हैं:__ (क) श्री पृथ्वीचन्द्रसूरि कल्पटिप्पन में लिखते हैं: "हस्त उत्तरो यासां ताः, बहुवचनं बहुकल्याणकापेक्षम्, इत्यत्र पञ्चसु पञ्च, स्वातौ षष्ठमेव ध्वन्यते।" (ख) आचार्य विनयचन्द्रसूरि कल्पनिरुक्त (र० १३२५) में लिखते हैं:"हस्त उत्तरो यासां ता हस्तोत्तरा-उत्तरफल्गुन्यो, बहुवचनं बहुकल्याणकापेक्षम् । तस्यां हि विभोश्च्यवनं १, गर्भाद् गर्भसंक्रान्तिः २, जन्म ३, व्रतं ४, केवलं ५ चाभवत् । निर्वृतिस्तु स्वातौ ६।" (ग) तपगच्छीय आचार्य कुलमण्डनसूरि कल्पावचूरिका में मूल पाठ की व्याख्या करते हुए लिखते हैं:"श्रीवर्द्धमानस्य षण्णां च्यवनादीनां कल्याणकानां हेतुत्वेन कथितौ तौ वा इति ब्रूमः।" (घ) आचार्य जयचन्द्रसूरि अपने कल्पान्तर्वाच्य में लिखते हैं: "प्राषाढे सितषष्ठी, त्रयोदशी चाश्विने सिता चैत्रे। मार्गे दशमी सितवैशाखे सा कात्तिके च कूहुः ॥१॥ वीरस्य षट्कल्याणकदिनानि इति ।" (च) तंपगच्छीय आ० श्रीसोमसुन्दरसूरि या तत्शिष्य स्वप्रणीत कल्पान्तर्वाच्य में लिखते हैं:“यत्राऽसौ भगवान् महावीरो देवानन्दाया. कुक्षौ दशमदेवलोकगतप्रधानपुष्पोत्तरविमानादवतीर्णः, पञ्चकल्याणकानि उत्तराफाल्गनिनक्षत्रो जातानि तद्यथाx x x x स्वातिनक्षत्रे परिनिर्वृतः-निर्वाणं प्राप्तो भगवान् मोक्षं गत इत्यर्थः । एतानि भगवतो वर्द्ध मानस्य षट्कल्याणकानि कथितानि।" वल्लभ-भारती ] [ ७३ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (छ) अञ्चलगच्छीय धर्मशेखरसूरि शिष्य उदयसागर स्वप्रणीत कल्पसूत्रटीका (र० १५११) में लिखते हैं:"हस्त उत्तरोऽग्रेसरो यासां ताः उत्तराफाल्गुन्यः, बहुवचनं पञ्चकल्याणकापेक्षया 'होत्था' आसीत् । x x x x x स्वातिना नक्षत्रोण परिनिर्वृतः निर्वाणं प्राप्तः ।” (ज) अञ्चलगच्छीय वाचनाचार्य श्रीमहावजी गणि शिष्य मुनि माणिकऋषि लिखित सं० १७६६ की प्रति' में लिखा है:"पञ्चसु च्यवनादिकल्याणकेषु हस्तोतरा-हस्तादुत्तरस्यां दिशि वर्तमाना यद्वा हस्त उत्तरो यासां ता उत्तराफाल्गुन्यो यस्य स पञ्च हस्तोत्तरो भगवान् होत्थ त्ति अभूत् ।” (झ) जोधपुर केसरियानाथ भंडार में सुरक्षित कल्पसूत्र टीका की एक प्राचीन प्रति२ में लिखा है:"श्रीवर्द्ध मानतीर्थाधिपतेः पञ्चकल्याणकानि हस्त उत्तरो अग्रे यस्मात्, एवम्भूते उत्तराफाल्गुनीलक्षणे नक्षत्रे जातानि। मोक्षकल्याणकस्य स्वातौ जातत्वादिति ।" (ट) तपागच्छीय पं० शान्तिविजयगणि लिखित (ले० सं० १६६७ लाहोर) कल्प सूत्र अन्तर्वाच्य स्तबक 3 में लिखा है:"श्रमणतपस्वी भगवंत ज्ञानवंत श्रीमहावीरदेव, तेहना पांच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रे हुआ। xxx x x स्वातिनक्षत्रे मोक्ष पहुँता श्रीमहावीरदेव।" (ठ) उपकेश (कंवला) गच्छीय ककुदाचार्य सन्तानीय उपाध्यायं रामतिलक . शिष्य गणपति लिखित (ले. सं. १७२४) कल्पसूत्र बालावबोध में लिखा है:"ए श्रीकल्पसूत्र तणइ प्रारंभइ जगन्नाथ श्रीमहावीरतणां छ कल्याणिक बोलियइ, तद्यथा-"ते णं का० पंचहत्थुत्तरे होत्था"-तिणइं समई श्रमण भगवंत श्री महावीररहइं पञ्चकल्याणिक उत्तराफाल्गुनि नक्षत्रि चन्द्रमा तणइ. संयोगि प्राप्त हुंतइ हुआं ।xx-ए संक्षिप्त वाचनाइं जगन्नाथ तणां छ कल्याणिक जाणिवा ।" (ड) आञ्चलिक मेरुतुङ्गसूरि रचित सूरिमन्त्रकल्प के पूर्वलिखित वर्धमानविद्या कल्प में लिखा है:"उपाध्यायादिपदचतुष्टयेन नवपदस्थापनादिनप्रतिपन्नषट्स्वपि महावीरकल्याणकेषु यावज्जीवं विशेषतपः कार्यम् ।" १. शान्तिनाथमंदिरस्थ अञ्चलगच्छ भंडार, कच्छ मांडवी पत्र १५० २. डाबडा नं० १८ ३. जोधपुर केशरियानाथ भंडार डा० २०,प्र० न०६ ४. महेसाणा उपाश्रय का भंडार, पत्र ६१ ७४ ] [ वल्लभ-भारती Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ढ) तपागच्छीय श्रीशान्तिचन्द्रगणि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका करते हुए भगवान् ऋषभप्रभु का राज्याभिषेक कल्याणक माना जा सकता है या नहीं, प्रसंग पर लिखते हैं: - "वीरस्य गर्भापहार इव नायं कल्याणकः" अर्थात् वीर के गर्भापहार की तरह यह (ऋषभ का राज्याभिषेक) कल्याणक नहीं है । इससे स्पष्ट है कि गर्भापहार कल्याणकों की परिधि में है । (त) आगमिकगच्छीय आचार्य जयतिलकसूरि स्वप्रणीत सुलसाचरित्र के छट्ठे सर्ग में लिखते हैं: "देवानन्दोदरे श्रीमान् श्वेतषष्ठ्यां सदा शुचिः । श्रवतीर्णोऽसि मासस्याषाढस्य शुचिता ततः ॥ १ ॥ त्रिशला सर्वसिद्ध च्छा, त्रयोदश्यामभूद् यतः । तवावतारातेनैषा, सवसिद्धा त्रयोदशी ॥२॥ शुक्ल त्रयोदश्यां यश्चा-चलमेरु प्रचालयन् । चित्रं कृतवांस्तद्योगा- चैत्रमासोऽपि कथ्यते ॥३॥ यस्याद्यदशभ्यां दुर्ग- मोक्षमार्गस्य शीर्षकम् । चारित्रमाहत युक्ता, मासोऽस्य मार्गशीर्षता ॥४॥ दशम्यां यस्य शुक्ला, केवलश्रीरहो त्वया । ह्यादत्ता तेन मासोऽस्य युक्ता माधवता प्रभो ॥५॥ तव निर्वाणकल्याणं यद्दिनं पावयिष्यति । तन्न वेद्मि यतो नाथ, मादृशोऽध्यक्षवेदिनः ॥ ६॥ सिद्धार्थ राजाङ्गज देवराज, कल्याणकैः षडभिरिति स्तुतस्त्वम् । तथा विधेद्यान्तरवै रिषट्कं यथा जयाम्याशु तव प्रसादात् ॥७॥ इत्यादि एक नहीं सैकड़ों प्रमाण दिये जा सकते हैं । अतः यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं है कि जिनवल्लभगणि ने ही यह नूतन प्रतिपादन किया है । श्रीमान् जिनवल्लभ गणिने तो केवल जो वस्तु चैत्यवासियों के कारण 'विवर" में प्रविष्ट होती जा रही थी उसका पुनः उद्धार कर जनता के सामने रखकर अपनी असीम निर्भीकता का परिचय दिया है । वस्तुतः गणिजी का यह षट् कल्याणकों का प्रतिपादन उत्सूत्र प्रतिपादन नहीं था, किन्तु द्धान्तिक वस्तु का ही प्रतिपादन था । यदि यह प्ररूपणा, उत्सूत्र - प्ररूपणा होती तो तत्कालीन समग्र गच्छों के आचार्य इसका उग्र विरोध करते; प्रतिशोध में दुर्दम कदम उठाते । पर आश्चर्य है कि तत्काल वत्ति किसी भी आचार्य ने इस प्ररूपणा का विरोध किया हो ऐसा प्रमाण प्राप्त नहीं होता है; प्रत्युत प्रतिपादन के प्रमाण अनेकों उपलब्ध होते हैं । अतः यह सिद्ध है कि यह प्ररूपणा तत्कालीन समग्र आचार्यों को मान्य थी। साथ ही यह भी मानना होगा कि खुद तपागच्छीय विद्वानों ने भी पट् कल्याणक लिखे हैं. अतः धर्मसागरजी की स्वयं की प्ररूपणा ही निह्नव मार्ग की प्ररूपणा है, आचार्य जिनवल्लभसूरि की नहीं । इस कल्याणक के विषय में शास्त्रीय दृष्टि से विशेष अध्ययन करना हो तो मेरे वल्लभ-भारती ] [ ७५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिरच्छत्र पूज्य गुरुदेव श्री जिनमणिसागरसूरि जी म० द्वारा लिखित " षट् कल्याणक निर्णय " १ नामक पुस्तक देखें | सङ्घ-बहिष्कृत ? जो व्यक्ति पाण्डुरोग से ग्रसित हो जाता है उसे सृष्टि की समस्त वस्तुएं पीतवर्णी ही प्रतीत होती हैं वैसे ही धर्मसागरजी को विद्वत्ता का पीलिया हो गया, तत्फलस्वरूप उनकी दृष्टि में समग्र गच्छ वाले निह्नव, विशुद्ध और कठोर क्रियापानी खरतरगच्छ जैसा गण खरतर, जिनवल्लभसूरि जैसा आचार्य उत्सूत्न - प्रतिपादक मालूम हुए। जिनवल्लभसूरि को उत्सूत्रप्ररूपक कहने के पश्चात् एक जटिल समस्या उनके सन्मुख और आई कि ऐसे प्ररूपक संघ, गण बहिष्कृत हुआ करते हैं तो क्यों न इनको संघ - बहिष्कृत सिद्ध कर दूं ? इसको सिद्ध करने के लिये प्रमाण को आवश्यकता थी । प्रमाण के लिये साहित्य - सागर में काफी गोता लगाया पर निष्फल हुए, अन्त में उनको एक प्रमाण मिल ही गया । वह यह था: 'सङ्घत्राकृतचैत्य कूटपतितस्यान्तस्तरां ताम्यतस्तन्मुद्राहढपाशबन्धनवतः शक्तश्च न स्पन्दितुम् । मुक्त्यै कल्पित दानशीलतपसोप्येतत्क्रमस्थायिनः, सङ्घव्याघ्रवशस्य जन्तुहरिव्रातस्य मोक्षः कुतः ॥ ३३ ॥ " यह आचार्य जिनवल्लभसूरि प्रणीत सङ्घपक की ३३ वीं कारिका है। इसका अर्थ समस्त टीकाकारों ने निम्नलिखित किया है: "इन हीन आचारवाले चैत्यवासियों को देने के लिये बनवाये गये चैत्यरूप कूट अर्थात् जाल में जो फंसे हुए हैं, इसी हेतु जो अन्तःकरण से छटपटा रहे हैं, परन्तु इन चैत्यवासियों की मुद्रा अर्थात् 'हमारे चैत्य को छोड़कर अन्यत्र मत जावो' ऐसी राजाज्ञारूप दृढ बन्धन से बन्धे हुए होने के कारण जरा भी हिलडुल नहीं सकते हैं । मुक्ति के लिये जो दान शील, तप आदि करते हैं, परन्तु इन हीनाचारियों के कुसंघ की परम्परा में पड़े हुए हैं । ऐसे जो ये दयनीय भव्य प्राणीरूप हरिणों के झुंड हैं, उनका होनाचारियों के कुसङ्घरूप व्याघ्र से छुटकारा कहां ? अर्थात् जैसे हरिण समूह जब व्याघ्रक्रम - व्याघ्र के पंजे में आ जाता है तब उसका छूट रा असंभव होता है उसी प्रकार इन हीनाचारियों के कुसङ्घरूप व्याघ्र के फंदे में पड़े 1. . भव्य प्राणीरूप हरिणों का छुटकारा कहां ? अर्थात् उनका मुक्तिगमन कैसे हो सकता है ? इस ग्रन्थ के टीकाकार युगप्रवरागम श्रीजिनपतिसूरि के कतिचित् अपूर्ण वाक्यों का उल्लेख करके उ० धर्मसागरजी और वर्तमानकालीन विजय मसूरि तथा तन्मतानुयायी जो तोड़-मरोड़ कर अर्थ करते हैं वह कितना विचारणीय तथा उपहासास्पद है । देखिये: - पद्य में आये हुए “सङ्घव्याघ्रवशस्य" शब्द पर विशेष ऊहापोह है। उनका मन्तव्य है कि संघ को व्याघ्र की उपमा देना पूर्ण रूप से अनुचित है । किन्तु किस संघ को व्याघ्र की १. सुमति सदन, कोटा (राजस्थान) द्वारा प्राप्य ७६ ] [ वल्लभ-भारती Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपमा दी है- विचारने का वे परिश्रम नहीं उठाते । आचार्य जिनपतिसूरि इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं: ___“अथ कथमिह सङ्घस्य क्रूरतमा व्याघ्रण निरूपणं ? तत्त्वे हि तस्य भगवन्नमस्कारो न घटामिययात् । श्रू यते च तीर्थप्रवर्तनाऽनेहसि “नमो तित्थस्से'त्याद्यागमवचनप्रामाण्येन भगवतस्तन्नमस्कारविधानं, तत्कथमेतदुपपद्यत इति चेत् ? न, सहग्नामश्रवणाद् सङ्घऽपि प्रकृते भवतः सङ्घभ्रान्तेः । अन्यो हि संघो भगवन्नमस्कारविषयोऽन्यश्चाधुनिको भवदभिमतः । तथाहि-गुणगुणिनोः कथंचित्तादात्म्यंन ज्ञानादिगुणसमुदायरूपः शुद्धपथप्रथनबद्धादरोऽनुल्लंधितभगवच्छासनः साध्वादिः सिद्धांते सङ्घ इत्यभिधीयते । यदाह सव्वोवि नाणदसण-चरणगुणविभूसियाण समरणारणं । समुदायो होइ सघो. गुणसघायो ति काऊरणं ॥ एवंविधश्च संघो भगवन्नमस्कारविषयः । स हि भगवन्नमस्यदखण्डाखण्डलमौलिमालाललितक्रमकमलोऽपि तीर्थस्य साक्षात्रष्टापि प्राक्तनजन्मनिर्वत्तितभावसंघवात्सल्यादार्हन्त्यं मयावाप्तमिति कृतज्ञता प्रदिदशयिषया सद्बहुमानदर्शनाच्च लोकोऽप्येनं बहुमन्येत इति जिज्ञापयिषया च तं नमस्कुरुते । .. गुणसमुदायो संघो, पवयरण-तित्थं ति हुति एगट्ठा । तित्थयरो वि हु एय, नमए गुरुभावप्रो चेव ॥१॥ तप्पुधिया (?) अरहया, पूइयपूया य विणयकम्मं च । कयकिच्चोवि जह कह, कहेइ नमए तहा तित्थ ॥२॥ इतरथा कृतकृत्यत्वेन भगवतो यथाकथंचित्तत्रैव भवे मुक्तिसंभवाकिमनेनेति । साम्प्रतिकस्तु भवदभिप्रेत उन्मार्गप्रज्ञापकत्वेन, सम्मार्गप्रणाशकत्वेन, जिनाज्ञासर्वस्वलुण्टाकत्वेन, यतिधर्ममाणिक्यकुट्टाकत्वेन च गुणसमुदायरूपत्वस्य संघलक्षणस्याभावान्न संघः । यदुक्तम् केइ उम्मग्गट्टिय, उस्सुत्तपरूवयं बहुं लोयं । दठ्ठ भरणंति संघ, संघसरूवं प्रयागंता ॥१॥ सुहसीलामो सच्छ दचारिणो वेरिणो सिवपहस्स। प्राणाभट्ठामो बहु-जणाम्रो मा भरणह सघोति ॥२॥ परं बहुकीकशसंधातरूपत्वात्सोऽपि संघ इत्यभिधया लोकेऽभिधीयत इति मुग्ध ! नाम्ना विप्रलब्धोऽसि । यदुक्तं-- एक्को साहु एक्का वि साहुणि सावो य सड्ढो य । पारणाजुत्तो सघो, सेसो पुरण प्रसिंघानो ॥१॥ अतः सङ्घलक्षणाभावान्नायं बहुमानमर्हति, तद् बहुमानादिकारिणो भगवत्प्रत्यनीकादिभावेनाभिधानात् । यदुक्त प्राणाए प्रवट्टतं, जो उवबूहिज्ज मोहदोसेणं । तित्थयरस्स सुयस्स य, संघस्स य पच्चरणीयो सो॥१॥ तथा जो साहिज्जे वट्टइ, प्राणाभगे पयट्टमाणाणं। मरणवायाकाएहिं, समाणदोसं तयं बिति ॥१॥ बल्लभ-भारती ] [ ७७ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतएव सुखसीलतानुरागादेरसङ्घमपि सङ्घ इत्यभिदधतां प्रायश्चित्तं प्रतिपादितं सिद्धान्ते । यदाह - अस्संघ संघ जे, भांति रागेण श्रहव दोसेण । छेो वा मूलं वा, पच्छित्तं जायए तेसि ॥ १॥ तस्माद्युक्तं क्रूरतया प्रकृतसङ्घस्य व्याघ्रतया ( नि ) रूपणम् । गुणसमुदाय, संघ, प्रवचन तथा तीर्थ शब्द एकार्थक हैं तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुणों से परिपूर्ण साधु के समुदाय को यहां संघ कहा है और वह संघ बहुमाननीय है । किन्तु उन्मार्गस्थित, सन्मार्ग का विनाशक, जिनाज्ञा का नाश कर के स्वच्छन्द रूप से प्ररूपित चैत्यवासी समुदाय, जो सुख - लोलुपी है उसको यहाँ संघरूप से स्वीकार नहीं किया है । अर्थात् उन्मार्गप्ररूपक चैत्यवासी समुदाय संघ को ही व्याघ्र की उपमा दी है किन्तु तीर्थ- सम्मत संघ को नहीं; जो यथार्थ ही है । और इसी प्रकार के संघ को जब आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे समर्थ विद्वान् भी चैत्यवास का खंडन करते हुए, “ (आज्ञावियुक्तः) शेषन ङ्घः अस्थिसंघात एव” कह कर हड्डियों, का समुदाय मात्र ही है - प्रतिपादन करते हैं तो इस वर्त्तमानीय ( चैत्यवासी) संघ को जो व्याघ्र की उपमा दी है वह अयुक्त प्रतीत नहीं होती है । दूसरी विचारणीय वस्तु यह है कि इस टीका में आये हुये “ऐदयुगीनसङ्घप्रवृत्तिपरिहारेण च सङ्घबाह्यत्वप्रतिपादन ममीषां भूषणं न तु दूषणं ।" वाक्य का प्रश्रय लेकर जो प्रतिपादन करते हैं कि 'जिनवल्लभ संघ बहिष्कृत थे'-- किन्तु उन्हें टीकाकार के पूर्ण शब्दों का ध्यान रखना चाहिये कि टीकाकार जो संघबाह्यत्व को भूषण कहता है उसका आशय क्या है ? देखिये टीकाकार के पूर्णवाक्य: "ऐदयुगीन सङ्घप्रवृत्तिपरिहारेण च सङ्घबाह्यत्वप्रतिपादनममीषां भूषणं, न तु दूषणम् । तत्प्रवृत्तेरुत्सूत्रत्वेन तत्कारिणां दारुणदुर्गतिविपाक त्या तत्परिहारेण प्रकृतसङ्घबाह्यत्वस्यैव तेषां चेतसि रुचितत्वात्तदन्तर्भावे तु तेषामपि तत्प्रवृत्तिवर्तिष्णुतयाऽनंतभवाटवीपर्यटन प्रसङ्गात् । आधुनिक सबाह्यत्वेनैव तेषां गुणित्वं, तथा च तेषूच्छेदबुद्धिर्महापापीयसामेव भवति । तस्मात्तेषु मुक्यथिनां प्रमोद एव विधातव्यो न तनीयस्यापि द्वेषधीरिति व्यवस्थितम् ।" उपरि उल्लिखित टोकाकार के शब्दों से यह स्पष्ट है कि जिस चैत्यवासी संघ को हमने व्याघ्र की उपमा दी है, उस संघ में यदि जिनाज्ञानुसार चालित, सुविहित साधु-समुदाय नहीं रहता है अथवा ये चैत्यवासी कहते हैं कि 'ये सुविहित साधु संघ बाह्य हैं' तो वह सुविहित गण के लिये दूषण नहीं है किन्तु भूषणरूप ही है । क्योंकि यदि सुविहित गण उस संघ को स्वीकार करता है और उसकी आम्नायानुसार चलता है तो वह संसार का वृद्धिकारक है । वस्तुतः आचार्य जिनपतिसूरि का यह कथन उपयुक्त ही है, अन्यथा आचार्य हरिभद्रसूरि और आचार्य जिनेश्वरसूरि जैसे प्रौढ सुविहित, चैत्यवासियों की आचरणाओं का क्यों विरोध क ते ? विरोध के कारण यह वस्तु भी उपयुक्त है कि चैत्यवासी समुदाय इन सुविहितों को सवा करता है तो वह सुविहितों के लिये दूपणरूप नहीं है; क्योंकि उनका मतव्यामोह एकान्त दृष्टि से कहने को उन्हें बाधित करता है । इससे यह सिद्ध है कि चैत्यवासी संघ से जिनवल्लभसूरि आदि सुविहित बहिष्कृत अवश्य थे किन्तु थे वे सुविहित संघ के अन्दर और उसके प्रमुख । ७८ ] [ वल्लभ-भारती Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सूत्र-प्ररूपक षट् कल्याणक के अतिरिक्त एक विषय और है जिसको लेकर कुछ प्राचीन और अर्वाचीन विद्वानों ने जिनवल्लभगणि पर 'उत्सूत्र - प्ररूपक' होने का दोषारोपण किया है । यह विषय है ' संहनन' का । आ० जिनवल्लभ ने सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण की १४ वीं कारिका के उत्तरार्द्ध में संहनन के अधिकार में लिखा है: "सुत्त सत्तिविसेसो संघयणमिहट्ठिनिचउ ति ॥ १४ ॥” इस पद्य में उल्लिखित “सुत्ते सत्तिविसेसो" पर प्रज्ञापनासूत्र की टीका करते हुए ( पृ० ४७० ) आचार्य मलयगिरि लिखते हैं : "तेन यः प्राह सूत्रे शक्तिविशेष एव संहननमिति । तथा च तद्ग्रन्थः - "सुत्त े सत्तिविसेसो संघयणं" इति स भ्रान्तः । मूलटीकाकारेणापि सूत्रानुयायिना सहननस्यास्थिरचनाविशेषात्मकस्य प्रतिपादितत्वात् । यत्तु एकेन्द्रियाणां सेवार्त्तसंहननमन्यत्त्रोक्त ं तत् 'टीकाकारेण समाहितं । औदारिकशरीरत्वात् उपचारत इदमुक्तं द्रष्टव्यं न तु तत्त्ववृत्त्येति । यदि शक्तिविशेषः स्यात् ततो देवानां नैरयिकाणां संहननमुच्येत । अथ च ते सूत्र े साक्षादसंहनिन उक्ता इत्यलं उत्सूत्रप्ररूपकविस्पन्दितेषु ।” पुनः श्रीमलयगिरि के 'उत्सूत्रप्ररूपक विस्पन्दितेषु' शब्द पर स्व० श्री सागरानन्दसूरि ने साढे तीन पृष्ठ की टिप्पणी लिखकर और श्री प्रेमविजयजी ( वर्तमान विजयप्रेमसूरि) ने सार्धशतक की प्रस्तावना में इसी विषय पर ढाई पृष्ठ लिख कर जो गाली गलोच' किया है वह सर्वविदित है । यद्यपि यहाँ 'ईंट का जवाब पत्थर' से देने का विचार कदापि नहीं, परन्तु सत्यासत्य का निर्णय करने के लिए न केवल आचार्य मलयगिरि आदि के आक्षेपों की परीक्षा करना आवश्यक है, अपितु उससे भी पूर्व जिनवल्लभगणि के उस कथन का भी स्पष्टीकरण कर लेना आवश्यक है जो इन आक्षेपों का लक्ष्य है । श्री जिनवल्लभसूरि ने जो शक्तिविशेष को संहनन माना है वह शास्त्रसम्मत है या नहीं ? इसका निर्णय करने के लिए यह अधिक अच्छा होगा कि यहां पर यह देख लिया जाय कि अन्य मान्य आचार्यों ने क्या कहा है। श्री जिनवल्लभसूरि और श्री मलयगिरि के पूर्ववर्ती आचार्य आप्तव्याख्याकार श्रीहरिभद्रसूरि ने आवश्यक सूत्र की बृहद्वृत्ति ( आगमोदय समिति, सूरत से प्रकाशित पृष्ठ ३३७.१ ) में लिखा है: " इह च इत्थंभूतास्थिसञ्चयोपमितः शक्तिविशेषः संहननं उच्यते, न तु अस्थिसञ्चय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथम संहननयुक्तत्वात् ।" अर्थात् इस प्रकार अस्थिसंचय से युक्त शक्तिविशेष को संहनन कहते हैं, केवल अस्थिसंचय को नहीं; क्योंकि देवताओं को अस्थि रहित होने पर भी प्रथम संहनन ( वज्रर्षभनाराच ) २ युक्त होने वाला कहा गया है । १. अपरिणत भगवत् सिद्धान्तसारो वावदूक : सिद्धान्त बाहुल्यमात्मनः ख्यापयन्नेवं प्रललाप | कुमार्गगमृगसिंहनादीयं वचनम् । २. जैन साहित्य में संहनन छह प्रकार के माने गये हैं : -- (१) बज्रऋषभनाराच, (२) वज्रनाराच, (३) नाराच, (४) अर्धनाराच, (५) कीलित, (६) सेवा । वल्लभ-भारती ] [ ७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार सर्वगच्छमान्य नवाङ्ग-टीकाकार श्री अभयदेवसूरि स्वप्रणीत स्थानांगसूत्र की टीका (आगमोदय समिति सूरत से प्रकाशित पृष्ठ ३५७.१) में लिखते हैं: "सहननं अस्थिसञ्चयः वक्ष्यामाणोपमानोपमेयः, शक्तिविशेष इत्यन्ये।" इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आचार्य हरिभद्र और आचार्य अभयदेव दोनों ही शक्तिविशेष को किसी न किसी रूप में 'संहनन' का तत्त्व स्वीकार करते हैं। __और देखिये, इसी सार्द्धशतक प्रकरण के टीकाकार चन्द्रकूलीय श्री धनेश्वरसूरि (जिनका सत्ताकाल आचार्य मलयगिरि से पूर्व है) भी इस पद्य की टीका करते हुए इसी मत को पुष्ट करते हैं : "सूत्र-आगमे शक्तिविशेषः संहननमुच्यते ! कोऽभिप्रायः ? वज्रर्षभनाराचादिशब्दस्य संहननाभिधायकस्य शक्तिविशेषाभिधायकतया व्याख्यातत्वात् शक्तिविशेषः संहननमागमे प्रोच्यते । ईदृशं च संहननं देवनारकयोरपीष्यत एव तेन देवा वज्रर्षभनाराचसंहनिनो नारकाः सेवार्तसंहनिन इत्यागमाभिप्रायतो बोद्धव्यम् ।' . और इसी शक्तिविशेष संहनन-परंपरा को कर्मग्रन्थकार प्रसिद्ध आचार्य देवेन्द्रसूरि ने भी अपने शतक नामक ग्रन्थ में स्वीकार किया है। ऐसी अवस्था में उपरि उल्लिखित शास्त्रीय प्रमाणों से यह तो स्पष्ट है कि शक्तिविशेषरूप संहनन की मान्यता व्यापक है; यह केवल जिनवल्लभ की अपनी प्ररूपणा नहीं। इस प्रकार इन आचार्यों के मतों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि शक्तिविशेष को भी संहनन माना जाता था। अतएव यदि शक्तिविशेष को संहनन मानना उत्सूत्र प्ररूपणा कही जाय तो उक्त मान्य आचार्यों को भी उत्सूत्र-प्ररूपक होने का लांछन लगाया जा सकता है। परन्तु इन आचार्यों को उत्सूत्र-प्ररूपक कहने का साहस न तो आ० मलय गिरि को ही था और न उनके चरण-चिह्नों पर चलकर जिनवल्लभ को कोसने वाले आधुनिक आचार्यों को ही है। ___ इसके अतिरिक्त एक बात और है जो बड़ी दुविधा में डालने वाली है। आचार्य मलयगिरि एक तरफ तो स्वप्रणीत जिनवल्लभीय 'आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरण' की टीका करते हए अवतरणिका में "न चायं आचार्यो न शिष्ट इति3" कहकर जिनवल्लभसूरि की गणना शिष्ट-आचार्यों की कोटि में करते हैं और दूसरी तरफ प्रज्ञापनासूत्र की टीका में जैसा कि प्रारम्भ में कह चुके हैं, उन्हें उत्सूत्र-प्ररूपक कहते हैं। ऐसे आप्त-टीकाकार आचार्य के वचनों में विरोध क्यों ? प्रमाणों के अभाव में इस प्रश्न का कोई युक्तियुक्त उत्तर तो यहां १ जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगर से प्रकाशित पृष्ठ १४ २. “यत्त, देवेन्द्रनतपादपङ्कजः श्रीमद्देवेन्द्रसूरिपादैः स्वोपज्ञशतकवृत्ती एवमेवोक्त तदप्येतद् ग्रन्थानुसारेणानुमीयते।" (प्रेमविजयजी लिखित सार्धशतक प्रस्तावना पृष्ठ ३) ३. 'इह हि शिष्टाः क्वचिदिष्टे वस्तुनि प्रवर्तमानाः सन्त इष्टदेवतास्तवाभिधानपुरस्सरमेव प्रवर्तन्ते, न चायं प्राचार्यों न शिष्ट इति ।' (षडशीति टीका, प्रात्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित पुष्ठ १) ८० ] [ वल्लभ-भारती Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं दिया जा सकता, परन्तु यह विषय विद्वचिन्त्य अवश्य है । अतः अन्ततोगत्वा किन कारणों के वशीभूत होकर श्रीमलयगिरि को इन शब्दों का प्रयोग करना पड़ा, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। विद्वानों के लिये इतना ही विचारणीय और दुविधाजनक प्रश्न यह भी है कि आचार्य मलयगिरि ने जिनवल्लभसूरि के “सुत्ते सत्तिविसेसो" के स्थान पर “सुत्ते सत्तिविसेस एव" कैसे पढ़ लिया? दूसरा यह भी पता नहीं चलता कि आचार्य मलयगिरि ने अपने वक्तव्य में 'मूलटीकाकारेणापि' शब्द का प्रयोग किस टीकाकार के लिये किया है ? यदि हम मूलटीकाकार शब्द से प्रज्ञापना, जीवाभिगम आदि सूत्रों के टीकाकार आचार्य हरिभद्र को ग्रहण करते हैं तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या आचार्य मलयगिरि ने हारिभद्रीय आवश्यक टीका का अवलोकन नहीं किया था ? जिसमें कि जिनवल्लभगणि के मत का स्पष्ट समर्थन प्राप्त होता है ! यदि किया होता तो, वे स्वयं एकपक्षीय सिद्धान्त का प्रतिपादन अपने वक्तव्यों में कैसे करते ? और यदि हम मूलटीकाकार शब्द से सार्द्ध शतक टोकाकार आचार्य धनेश्वर का ग्रहण करते हैं तो, इस टीका में भी कहीं पर 'एव' का प्रयोग न होने पर भी आचार्य ने किस आधार से 'एव' का प्रयोग किया? चिन्त्य है । आचार्य मलयगिरि एक सूविज्ञ और श्रद्धास्पद व्याख्याकार हैं, अतः यह कहना भूल होगा कि उन्होंने अज्ञानवश, भ्रमवश या ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित होकर यह सब लिख दिया। अतः यह प्रश्न भी ज्यों का त्यों रह जाता है जिसका समुचित उत्तर प्रमाणाभाव से नहीं दिया जा सकता। . साथ ही मलयगिरि के ये शब्द “उपचारत इदमुक्त न तु तत्त्वदृष्ट्या" युक्तियुक्त नहीं कहें जा सकते; क्योंकि आचार्य जिनवल्लभ स्वयं उपचार से ही शक्तिविशेष को संहनन स्वीकार करते हैं. निश्चय से नहीं। यदि उन्हें औपचारिक प्रयोग इष्ट न होता तो वे 'सत्तिविसेसो संघयणं' न कह कर 'सुत्ते सत्तिविसेसच्चिय संघयणं' कहते या ‘एवकार' का प्रयोग करते, अधिक इष्ट रहता; किन्तु ऐसा नहीं है। * अस्तु आचार्य मलयगिरि की टीकाओं में पाये जाने वाले विरोधाभास और विप्रतिपत्ति के विषय में मौन धारण कर लेने पर भी जिनवल्लभगणि के आलोचकों सागरानन्दसरि और विजयप्रेमसूरि के कथन को साम्प्रदायिक द्वषभाव से प्रेरित हुआ मानने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं दीखता । आश्चर्य होता है कि उत्कृष्ट संयम, वीतरागता और सत्य तथा अहिंसा कां व्रत लेने के पश्चात् भी इन सज्जनों ने मलयगिरि की टीकाओं में पाये जाने वाले विरोधाभास पर कैसे आंखें मूंद लीं और कैसे निकले उनके मुख से जिनवल्लभगणि के लिये वे शब्द, जिनको कि किसी प्रकार भी सज्जन-मुखमंडन नहीं कहा जा सकता। पिण्डविशुद्धिकार एक और विवादग्रस्त प्रश्न है पिण्डविशुद्धि प्रकरण के कर्तृत्व का। पिण्डविशुद्धि प्रकरण जैसा कि आगे बतलाया गया है, जिनवल्लभगणि के उन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में से है जो गच्छ विशेष की सीमा को लांघकर सर्वमान्य हो चुके हैं और जिन पर विभिन्न गच्छीय आचार्यों ने टीका लिखकर इन्हें गौरवान्वित किया है । इस ग्रन्थ की लोकप्रियता और महत्ता वल्लभ-भारती ] [८१ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे प्रकट है कि लेखक की मृत्यु के ११ वर्ष पश्चात् ही इस पर टीकायें लिखी जानी प्रारंभ हुई और यह क्रम १२वीं से लेकर १७वीं शताब्दि तक बराबर चलता रहा । परन्तु दुःख है कि साम्प्रदायिक भेद-भाव से प्र ेरित होकर कुछ विद्वानों के अहंकार को यह सहन नहीं हुआ कि किसी इतर - गच्छीय लेखक की कृति को इतना सन्मान क्यों मिले ? इसीलिये १७वीं शती के उत्तरार्द्ध में उपाध्याय सोमविजयजी गणि अपने "सेनप्रश्न" में जिनवल्लभ को इसलिये इस ग्रन्थ का कर्त्ता नहीं मानते कि उनके पौषधाविधिप्रकरण में पौषध के प्रसंग में भोजन का तथा कल्याणक स्तोत्र में महावीरप्रभु के पांच कल्याणकों का ही उल्लेख मिलता है जो कि खरतरगच्छीय मान्यताओं के विरुद्ध होने से जिनवल्लभगण द्वारा नहीं लिखी जा सकती थी : "पिण्डविशुद्धिविधाता जिनवल्लभगणिः खरतरोऽन्यो वा ? इतिप्रश्नः, अनोत्तरम् - जिनवल्लभगणेः खरतरगच्छसम्बन्धित्वं न संभाव्यते, यतस्तत्कृते पौषधविधिप्रकरणे श्राद्धानां पौषधमध्ये जेमनाक्षरदर्शनात्, कल्याणकस्तोत्रे च श्रीवीरस्य पञ्चकल्याणक प्रतिपादनाच्च तस्य सामाचारी भिन्ना, खरतराणां च भिन्नेति । " परन्तु जैसा कि इसी पर टिप्पणी करते हुए पं० लालचन्द्र भगवान् गांधी ने अपभ्रंश -काव्यत्रयी की प्रस्तावना में लिखा है, "सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर यह आक्षेप समीचीन प्रतीत नहीं होता' और जैसा कि अन्यत्र बतलाया जा चुका है, क्योंकि उनके प्रकृत सन्दर्भों को देखने से उक्त दोनों आक्षेप निराधार प्रतीत होते है । इसके अतिरिक्त सुमतिगणि जहां गणधर सार्धशतक की वृत्ति में जिनवल्लभगणि के अन्य ग्रन्थों के साथ-साथ पिण्डविशुद्धि को भी समग्र गच्छाहत कहते हैं वहीं धनेश्वराचार्य सार्द्धशतक की टीका में 'अभयदेवसूरिशिष्येण मतिमता जिनवल्लभेन' लिखकर यह प्रमाणित करते हैं कि सुमति गणिका लिखना पूर्ण सत्य है, गच्छ ममत्व से मृषा अत्युक्ति नहीं, तो फिर भ्रम या प्रश्न का अवकाश ही कहां ? पिण्डविशुद्धिदीपिकाकार आचार्य उदयसिंहसूरि (र०स० १२६५) जैसे भिन्न- गच्छीय प्रौढ-विद्वान् भी पिण्डविशुद्धि के प्रणेता का 'सुविहितसूत्रधारः' विशेषण लगाते हैं जो निश्चित रूप से खरतरगच्छीय जिनवल्लभसूरि से ही सम्बन्धित है; क्योंकि सुविहित- पथ-प्रकाशक या विधिमार्गप्ररूपक विशेषण धर्मसागरजी भी प्रवचन- परीक्षा में खरतरगच्छीय जिनवल्लभ के लिये ही स्वीकार करते हैं । अतः प्रकरणकार वे ही हैं यह भलीभांति सिद्ध होता है :'सुविहितविधिसूत्रधारः स जयति जिनवल्लभो गणिर्येन । पिण्डविशुद्धिप्रकरणमकारि चारित्रनृपभवनम् ।" X X X X जगडु कवि (१२७८ - १३३१ ) स्वप्रणीत सम्यक्त्वमाई चउपई में ( जब ४२ दोष रहित शुद्ध १. " किन्तु एतत् सुदीर्घं दृष्ट्या चित्तने न समीचीनं प्रतिभाति" अपभ्रंश काव्यत्रयी प्रस्तावना पृ० २६ २. देखें, षट्कल्याणक और पौषधविधि सारांश ३. “समग्रगच्छाहत सूक्ष्मार्थसिद्धान्त विचारसार-षडशीति सार्द्ध शतकाख्यकर्म ग्रन्थ-पिण्डविशुद्धि ८२ ] [ वल्लभ-भारती Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्ड का उपदेश करने वाले जिनवल्लभ की याद करते हैं तो वस्तुतः उनका लक्ष्य पिण्डविशुद्धि ग्रन्थ ही मानना पड़ेगा ) लिखते है: "धन्नु सु जिणवल्लह वक्खाणि नाणरयण केरी छइ खाणि । Mataria सुद्ध, पिण्डु विहरेइ त्रिविधु मदिरु जग प्रगट करेई ।" X X X X खरतरगच्छीय युगप्रवरागम श्री जिनपतिसूरि के शिष्य श्री नेमिचन्द्र भंडारी प्रणीत षष्टिशतक प्रकरण के ऊपर तपागच्छीय सुप्रसिद्ध आचार्य श्रीसोमसुन्दरसूरि ने बालावबोध की सं० १४६६ में रचना की है; उसकी प्रारम्भिक अवतरणिका में वे लिखते हैं : "नेमिचन्द्र भंडारी पहिलउं तिस्यउ धर्म न जाणतउ । पछइ श्री जिनवल्लभसूरिना गुण सांभलि अन तेहना कीधा पिण्डविशुद्धि प्रमुख ग्रन्थनइ परिचइ साचउ धर्म जाणिउ ।” इसी प्रकार इसी ग्रन्थ के १२६ वें पद्य का बालावबोध करते हुए आचार्य लिखते हैं "दिट्ठा० केतलाइ गुरु साक्षात् दीठाइ हुता तत्त्वना जाणनइ मनि रमइ नहीं ही हर्ष न करइ । केवि० अनइ केतलाइ पुण गुरु अणदीठाइ हुंता हीइं रमई वसई तेहना गुण सलिन ही हर्ष उपजइ । जिम श्री जिनवल्लभसूरि । ते जिनवल्लभसूरि नेमिचन्द्र भंडारी पहिला हुआ भी अदृष्टइ हुंता पण नेमिचन्द्र भंडारी नइ मनि तेहना कीधां पिण्डविशुद्धि आदिक प्रकरण देखतां वस्या । इसिउ भाव ।" आगे चलकर ग्रन्थकार की महत्ता दिखाते हुए पद्य १५३ की व्याख्या में फिर कहा गया है- संपइ० हिवडां प्रभु श्री जिनवल्लभसूरिनइं वचनिइं जां धर्मनी खरी विधि अनइ साचा विवेकनउं जाणिवउंन उल्लसईन ऊपजइ ता निविड० ते निविडमोह अजाणिवउं अनइ मिथ्यात्वनी ग्रन्थि तेहनजं गाढउ माहात्म्य गाढउ महिमा । ते गाढा अजाण अनइ गाढा मिथ्यात्वी कहीं ।' X X X सं० १४६७ में प्रतिष्ठित जैसलमेर सम्भवनाथ जिनालय के प्रशस्ति शिलालेख में तो स्पष्ट ही लिखा है कि नवांगवृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि-शिष्य जिनवल्लभगणि पिण्डविशुद्धि प्रकरण के कर्ता थे: X "ततः क्रमेण श्रीजिनचन्द्रसूरि - नवाङ्गीवृत्तिकार - श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथप्रकटीकार श्री अभयदेवसूरिशिष्य श्री पिण्डविशुद्धयादिप्रकरणकार श्रीजिनवल्लभसूरि ............." X X X X १. क्ष्माखण्डामृतकुण्ड विष्टपमिते संवत्सरे श्रीतपागच्छेन्द्र गुरुसोमसुन्दरवरैराचार्येधुर्यैरियम् । वार्ताभिर्विहिता हिताय कृतिनां सम्यक्त्ववीजे सुधा-वृष्टिः षष्टिशताह्वय प्रकरणव्याख्या चिरं नन्दतु ॥” २. यह षष्टिशतक प्रकरण श्ररण बालावबोध सहित महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय बड़ोदरा तरफ से प्रकाशित हो चुका है । वल्लभ-भारती ] [ ८३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगच्छपट्टावली ( विविधगच्छाय पट्टावली संग्रहः, संपा० आचार्य जिनविजय पृ० ६४ ) में लिखा है: "श्रीउद्योतनसूरयस्तदन्वये श्रीश्रभयदेवसूरयः, x x × × × × तच्छिष्याः " पिण्डविशुद्धयादिप्रकररणकारकाः श्रीजिनवल्लभसूरयः ।" इतने पर भी यदि यह मान लें कि खरतरगच्छीय जिनवल्लभगणि पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता नहीं हैं अपितु कोई और है तो फिर वे कौन थे ? किस गच्छ के थे ? इत्यादि अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं जिनका समाधान करने के लिये किसी भी प्रकार का कोई प्रमाण नहीं मिलता है । तत्कालीन तीन चार शताब्दियों में खरतर गणि जिनवल्लभ के अक्तिरिक्त किसी भी ऐसे व्यक्ति की उपलब्धि जैन साहित्य के इतिहास में नहीं होती है जो पिण्डविशुद्धिकार हो सके । खरतरगच्छीय गुरु- परम्पराओं के अतिरिक्त इनके सम्बन्ध में अन्यत्र कोई उल्लेख भी नहीं मिलता । अतः यह सिद्ध है कि पिण्डविशुद्धिकार जिनवल्लभगणि कोई पृथक् आचार्य नहीं है. किन्तु अभयदेवाचार्य के शिष्य खरतरगच्छीय ही हैं । ८४ ] [ वल्लभ-भारती Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय : ४ ग्रन्थों का परिचय तथा वैशिष्ट्य ग्रन्थ रचना गणिवरजी १२वीं शती के सुप्रसिद्ध उद्भट विद्वानों में से एक थे । इनका अलङ्कार. शास्त्र, छन्दशास्त्र, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष, नाट्यशास्त्र, कामतन्त्र और सैद्धान्तिक विषयों पर एकाधिपत्य था । इन्होंने अपने जीवनकाल में विविध विषयों पर सैकड़ों ग्रन्थों की रचना की थी जिसका उल्लेख सुमतिगणि गणधर सार्द्धं शतक की वृत्ति में इस प्रकार करते हैं: — परमद्यापि भगवतामवदातचरितनिधीनां श्रीमरुकोट्टसप्तवर्षप्रमितकृतनिवासपरिशीलितसमस्तागमानां समग्रगच्छादृतसूक्ष्मार्थसिद्धान्त विचारसार- षडशीति-सार्द्धं शतकाख्यकर्मग्रन्थ-पिण्डविशुद्धि - पौषधविधि - प्रतिक्रमण सामाचारी सङ्घपट्टक-धर्मशिक्षा- द्वादशकुलकरूपप्रकरण- प्रश्नोत्तरशतक - शृङ्गारशतक - नानाप्रकारविचित्रचित्तकाव्य - शतसंख्यस्तुतिस्तोत्रादिरूपकीर्तिपताका सकलं महीमण्डलं मण्डयन्ती विद्वज्जनमनांसि प्रमोदयति । " - किन्तु दैवदुर्विपाक से बहुत से अमूल्य ग्रन्थ नष्ट हो गये और इस कारण से इस समय ४४ रचनाएँ ही प्राप्त हैं एवं अन्य के केवल नामोलेख ही मिलते हैं । उपलब्ध ग्रन्थों की तालिका निम्नलिखित है: ग्रन्थ नाम 1 १. सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार (सार्द्ध शतक) प्रकरण २. आगमिकवस्तुविचारसार (षडशीति) प्रकरण ३. पिण्डविशुद्धि प्रकरण ४. सर्वजीवशरीरावगाहना स्तव ५. श्रावकव्रत कुलक वल्लभ-भारती ] विषय कर्म - सिद्धान्त प्राकृत 11 भाषा आचार कर्म - सिद्धान्त आचार " 21 11 " गाथा अथवा पद्य संख्या १५२ ८६ १०३ = २८ [ ८५ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. पौषधविधि प्रकरण ७. प्रतिक्रमण समाचारी ग्रन्थ नाम ८. द्वादश कुलक ९. धर्मशिक्षा प्रकरण १०. सङ्घपट्टक ११. स्वप्नसप्ततिका १२. अष्टसप्तति अपरनाम चित्रकूटीय-वीर चैत्य - प्रशस्ति १३. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशत १४. शृङ्गारशतक १५. आदिनाथ चरित्र १६. शान्तिनाथ चरित्र १७. नेमिनाथ चरित्र १८. पार्श्वनाथ चरित्र १६. महावीर चरित्र २०. वीर चरित्र ( जय भववण ० ) ८६ ] 33 विषय २१. चतुर्विंशति जिन स्तोत्राणि (भीमभव० ) २२. चतुर्विंशति जिन स्तुति ( मरुदेवि नाभितणयं ० ) २३. पञ्च कल्याणक स्तव ( सम्मं नमिउण० ) २४. सर्वजिन पञ्च कल्याणक स्तव ( पणय सुर० ) २५. प्रथम जिन स्तव (सयल भुवणिक्क ० ) २६. लघु अजित शान्ति स्तव ( उल्लासिक्कम ० ) २७. स्तम्भन पार्श्वजिन स्तोत्र ( सिरि भवण ० ) २८. क्षुद्रोपद्रवहरपार्श्वजिन स्तोत्र ( नमिर सुरासुर ० ) २६. महावीर विज्ञप्तिका (सुरनरवर ० ) ३०. महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका ( लोयालोय ० ) ३१. नन्दीश्वर चैत्य स्तव (वंदिय नंदिय० ) ३२. भावारिवारण स्तोत्र ( भावारिवारण ० ) ३३. पञ्चकल्याणक स्तोत्र ( प्रीतद्वात्रिंश ० ) ३४. कल्याणक स्तव (पुरन्दर पुर० ) ३५. सर्वजिन स्तोत्र ( प्रीतिप्रसन्न ० ) ३६. पार्श्वजिन स्तोत्र ( नमस्यद्गीर्वाण ० ) ( पायात्पार्श्व ० ) ३७. विधि विधि औपदेशिक " आचार-विधान स्वप्न शास्त्र प्रशस्तिकाव्य काव्य चरित्र 11 11 17 :" 17 "" स्तोत स्तुति स्तोत्र 17 "" 17 27 37 17 71 17 11 71 21 27 "1 भाषा प्राकृत 79 "1 संस्कृत 11 प्राकृत संकृस्त 11 " प्राकृत ." 11 17 11 17 17 अपभ्रंश प्राकृत 11 "1 11 11 11 17 ३७ २५. समसंस्कृत प्राकृत ३० संस्कृत १३ द २३ ३३ १ " गाथा अथवा पद्य संख्या "2 ४० २३३ ४० ४० ७१ ७८ १६१ १२१ २५ ३३ १५. १५ ૪૪ १५. १४५ ६६ २६ ८ ३३ १७ १.१ २२ १२ [ वल्लभ-भारती. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. पाश्र्व जिन स्तोत्र ( देवाधीश ० ) ३६. ४०. " ग्रन्थ नाम " ( समुद्यन्तो ० ) ( विनय विनमद्० ) चित्रकाव्यात्मक (शक्तिश्ले षु० ) चकाष्टक (चक्रे यस्य नतिः ) ४१. ४२. ४३. सरस्वती स्तोत्र ( सरभसलसद्० ) ४४. नवकार स्तव ( किं किं कप्पतरु० ) विषय स्तोत्र 31 37 " 11 3. अनुपलब्ध ग्रन्थ - १. आगमोद्धार' तथा २. प्रचुरप्रशस्ति उक्त समस्त ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : -- भाषा संस्कृत 11 11 "1 17 73 अपभ्रंश गाथा अथवा पंद्य संख्या १० २४ १७ १०. ८ २५ १३ १- सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार प्रकरण इस ग्रन्थ में कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि कर्म सिद्धान्त के विविध ग्रन्थों का आलोडन कर नवनीत की तरह संक्षेप में कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है, इसीलिये कवि ने इसका नाम सूक्ष्मार्थविचारसारोद्वार प्रकरण रखा है। इसका अपरनाम सार्द्धं शतक प्रकरण है जो इसकी ५२ पद्य - पंख्या का सूचक है । इस लघुकायिक ग्रन्थ में कर्म - प्रकृति के सिद्धान्त, मूल- उत्तरभेद, प्रकृति भेद, बन्ध, अल्पबहुत्व, स्थिति, योग, रस, उदय और गुणस्थान आदि का वैशिष्ट्य पूर्ण प्रतिपादन होने से सारोद्धार नाम सार्थक ही है जो कवि के सैद्धान्तिक ज्ञान की अगाधता और उक्ति लाघव की ओर संकेत करता है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि कर्मजेतृ महावीर को नमस्कार कर कर्मादि विचारों का संक्षेप में वर्णन करूंगा-प्रतिज्ञा करता है । पद्य २ से २२ तक कर्म बन्ध के मूल कारण - ज्ञानावरणीय, दशनावरणीय, अंतराय, मोहनीय, आयु गोत्र, वेदनीय और नाम कर्म का उल्लेख कर, प्रत्येक कर्म के भेद जो कुल १५८ होते हैं और उनका प्रकृति, स्थिति रस तथा प्रदेश से सम्बन्ध दिखाया है । पद्य २३ से ४० में पंचेन्द्रिय जीवों में जिन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता उन प्रकृतियों को गिनाया है । कर्म प्रकृतियों में कुछ प्रकृतियें ध्रुवोदय हैं और कुछ अध्रुवोदय हैं । ध्रुव और अध्रुव सत्तावाली कर्म-प्रकृतियां कौन-कौनसी हैं ? यह गुणस्थानों की अपेक्षा बतलाया गया है । पद्य ४१ से ४८ में घाती और अघाती प्रकृतियां अपने प्रतिपक्ष सहित बतलाई गई हैं और इन प्रकृतियों के कारण का उल्लेख भी किया गया है । कर्मप्रकृतियों में कुछ प्रकृतियां शुभ हैं, कुछ अशुभ हैं और कुछ प्रकृतियां अपरावर्तमान भी हैं । पद्य ४ से ६३ $1 १. चर्चरी टीका पृष्ठ १६ । श्री अगरचंदजी नाहटा की सूचनानुसार स्वप्नसप्ततिका मौर भागमोद्धार एक ही ग्रन्थ है । २. चर्चरी टीका पृष्ठ १६ । वल्लभ-भारती ] [ ८७ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कुछ प्रकृतियें पुद्गल-विपाकी, जीवविपाकी भावविपाकी और क्षेत्रविपाकी हैं, उसका कारण सहित इसमें उल्लेख है। पद्य ६४ से ७७ में मूल कर्मप्रकृतियें और उत्तर कर्म-प्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रिरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा बतलाई गई है। पद्य ७८ से ८४ में कर्मबन्ध होकर जब तक फलादेश शरु नहीं होतातब तक के समय को अबाधाकाल कहते हैं, इसका वर्णन ग्रन्थकार ने अच्छी तरह किया है । पंचेन्द्रिय जीवों में कर्म-स्थिति का अल्प-बहुत्व और जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति बन्ध के स्वामी, स्थिति का शुभाशुभत्व और उसके कारण का संक्षिप्त वणन है। पद्य ८५ से ८६ में योग का स्थितिस्थान, योगवृद्धि, योगोदाहरण का स्वरूप-वर्णन है । पद्य १० से १०१ में शुभाशुभ रस बंध में क्या कारण है इसका और प्रकृतियों का स्वरूप, प्रदेश-बंध का स्वरूप तथा वर्गणा स्वरूप का वर्णन है । कर्मों और सर्वंघाती प्रकृतियों का आश्रय कर प्रदेश विभाग का वर्णन किया गया है । पद्य १११ से ११३ में योग, प्रकृति प्रदेश स्थितिबन्धाध्यवसाय, स्थितिस्थान, अनुभागबंधाध्यवसाय अनुभाग और अनुभागस्थान तथा इनके अल्प-बहुत्व का वर्णन है । गोत्र और काल की सूक्ष्मता तथा स्थूलता भी बतलाई गई है। पद्य ११४ में श्रेणीप्रतर, घन और लोक का प्रतिपादन किया गया है। ११५ से ११७ में प्रकृति और स्थिति तथा इनके अध्यवसाय और अनुभागबन्धाध्यवसायों के असंख्यपन का वर्णन किया गया है। ११८ से १२२ में कषायों के उदय में अशुभ और शुभ, शुभ और अशुभतेस्याओं से अनुभागस्थानों के अल्पबहुत्व का वर्णन है। १२३ से १५१ में संख्यात, असंख्यात और अनंतभेदों का स्वरूप कथन है तथा संख्यात, परितासंख्यात, युक्तसंख्यात. असंख्यात, परितानंत, युक्तानंत और अनंतानंत के जघन्य, मध्यम एवं उत्कृट के भेदों का कथन है। पद्य १५२ में कवि ने स्वनाम सहित उपसंहार किया है। १५२ आर्याओं में विवेचनीय अत्यधिक वस्तुओं का अति संक्षेप होने के कारण इसका प्रचार बहुत ही हुआ प्रतीत होता है। यही कारण है कि आज भी भंडारों में इसकी सैकड़ों की संख्या में प्रतियें प्राप्त हैं - और इस पर विवेचन ग्रन्थों का तो कहना ही क्या ?' आगमिकवस्तुविचारसार-प्रकरणा इस ग्रन्थ में कवि ने पूर्वर्षि प्रणीत आगमिक जीव, मार्गणा, गुणस्थान, उपयोग और लेश्या आदि विषों का विवेचन होने से इसका यथानुरूप आगमिकवस्तुविचारसार नामकरण किया है। इसका एक अपरनाम भी है, वह है 'षडशीति' । इस नामकरण का रहस्य यह है कि उपर्युक्त समग्र वस्तुओं का विवेचन केवल ८६ आर्याओं में ही हुआ है । इसीलिये इस वृहन्नाम का लघु संस्करण हुआ है; जो विशेष प्रसिद्ध है। कवि की उक्तिलाघवता और छन्दयोजना के सम्बन्ध में तो यहाँ लिखना व्यर्थ हो है, क्योंकि इस विषय पर अन्यत्र हमने प्रकाश डाल दिया है । इसमें आदि से अन्त तक आर्यानामक वृत्त का ही अनुकरण हुआ है। इसमें कवि प्रथम पद्य में भगवान पार्श्वनाथ को नमस्कार कर, द्वितीय पद्य में अपनी लघूता प्रदर्शित करता हुआ वक्ष्यमाण वस्तुओं का उल्लेख करता है । तृतीय पद्य में १. देखिये-टीकाग्रन्थ और टीकाकार ८८ ] [ वल्लभ-भारती Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ण्य जीवस्थान की १४ संख्याओं का निदश करता हुआ पद्य ४ से ११ तक जीवस्थानों में गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, कर्मबन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता का स्वरूप विस्तार से प्रगट करता है । पद्य १२ में मार्गणा के गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञि और आहार इन १४ स्थानों-संख्याओं का निर्देश करता हुआ (१३-१७) तक अवान्तर भेदों का दिग्दर्शन कराता है और (१८ से ६४ तक) उपर्युक्त मार्गणा के १४ स्थानों में प्रत्येक का जीवस्थानक, गुणस्थानक, योग, उपयोग, लेश्या और अल्पबहुत्व का विवेचनीय स्वरूप दिखाता है। पद्य ६५ में १४ गुणस्थानों का नाम निर्देश किया गया है । तदनन्तर (पद्य ६६ से ८५ तक) गुणस्थानक - मिथ्यात्व, सास्वादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमतसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय, सूक्ष्मसम्पराय उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगिकेवलि और अयोगि केवलि के प्रत्येक का जीवस्थानक, योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता और अल्पबहुत्व इस प्रकार १० वस्तुओं के साथ सम्बन्ध दिखाता हुआ प्रशस्य स्वरूप प्रकट करता है और अन्तिम पद्य ८६ में उपसंहार करता हुआ अपना नाम प्रकट करता है। इस लघु-कायिक ग्रन्थ की उपयोगिता इतनी अधिक सिद्ध हुई कि समग्र गच्छवालों ने इसे आहत किया। केवल आदृत ही नहीं किन्तु पठन-पाठन कर महत्ता सिद्ध की । यही कारण है कि आज भी इसकी सैकड़ों की संख्या में लिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं जो इसके प्रचार को प्रकट करती हैं। इसी षडशीति के अनुकरण पर तपागच्छीय श्री देवेन्द्रसूरि ने षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की रचना की है। ३. पिण्डविशुद्धि प्रकरण आत्म साधना की दृष्टि से पिण्ड-भोजन की शुद्धि होना अत्यावश्यक है, अन्यथा जैसा 'खावे अन्न वैसा होवे मन्न' की उक्ति के अनुसार मानसिक शुद्धि नहीं हो सकती। इसीलिये श्रमण-संस्कृति एवं श्रमण परम्परा में संयमी मुनियों के लिये शुद्ध अन्न का ग्रहण परमावश्यक समझा गया है। पूर्व में श्रुतधर श्रीशयम्भवसूरि ने दसर्वकालिक सूत्र में और आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने पिण्डनियुक्ति में इस विषय का बहुत ही विस्तृत और सुन्दर प्रतिपादन किया है । परन्तु वह विस्तृत होने के कारण कंठस्थ करने में अल्पबुद्धिवालों की असमर्थता देखकर आचार्य जिनवल्लभ ने पिण्डविशुद्धि नाम से इस प्रकरण की रचना की।। ____ इस प्रकरण में कुल १०३ पद्य हैं। १-१०२ तक आर्याछन्द में हैं और अन्तिम पद्य शार्दूलविक्रीडित वृत्त में । इसमें ग्रन्थकार ने प्रथम और द्वितीय पद्य में नमस्कार और प्रयोजन कथन कर, ३, ४.पद्य में गृहस्थाश्रित उत्पादन के १६ दोषों का नालोल्लेख मात्र किया है और गाथा ५ से ५७ तक में इनका विस्तृत विवेचन किया है। गाथा ५८-५६ में साधु आश्रित उद्गम के १६ दोषों का नामोल्लेख है और ६०-७६ तक इनका विस्तृत विवेचन है। इस प्रकार कुल गवेषणा और ऐषणा के मिलाकर ३२ दोषों का वणन यहाँ पूरा होता है । तदनन्तर ग्रहणषणा के १० दोषों का ७७वें पद्य में उल्लेखकर, ७८-६३ तक उनका विस्तृत प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् ६३वें पद्य में भक्षण-ग्रासैषणा के पांच दोषों का उल्लेख और गाथा १०१ तक उनका विवेचन है। १०२वें पद्य में शुद्धि का निर्जरा फल और अन्तिम वल्लभ-भारती ] [ ८९ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पद्य में ग्रन्थकार का नामोल्लेख है। इस प्रकार भोजन-शुद्धि के ४७ दोषों का अनेकों भांगों सहित विवेचन १०३ श्लोक के छोटे से प्रकरण में; वह भी आर्या जैसे लघु मात्रिक छन्द में ग्रथित करना गणिजी का उक्तिलाघव और छन्दयोजना का चातुर्य प्रकट करता है । उक्त प्रकरण में प्ररूपित ४७ दोष निम्नलिखित हैं; जिनमें गवेषणा के १६, एषणा १६, ग्रहणैषणा के १० और ग्रासैषणा के पांच, इस प्रकार कुल ४७ होते हैं । जिनमें गृहस्थाश्रित १६ गवेषणा के दोष इस प्रकार हैं : १. आधाकर्म - साधु के निमित्त निष्पादित आहार आधा कर्म कहलाता है । २. औद्दशिक - जिसका उद्देश करके बनाया गया हो वह औद्दे शिक कहलाता है । ३. पूतिकर्म - पवित्र आहार में आधा कर्म आहार का एक भी कण मिल जाय तो वह कर्म कहलाता है । ४. मिश्रजात - जो आहार साधु तथा अपने लिये सामिल बनाया गया हो । ५. स्थापना - साधु के निमित्त रक्षित आहार जो दूसरों को नहीं दिया जाता । ६. प्राभृतिका - साधु के लिये अतिथि को आगे पीछे करना । ७. प्रादुष्करण - अन्धकारमय स्थान में प्रकाश करके साधु को देना । ८. क्रीत - साधु के लिये वस्त्र, पात्र आदि वस्तुओं को खरीदना । ६. अपमित्थ-साधु के लिये भोजन आदि उधार लाकर देना । १०. परिवर्तित - साधु को देने के लिये अपनी वस्तु का दूसरों से परिवर्तन कर, लाकर देना । ११. अभिहृत - साधु के सामने जाकर आहारादि दान देना । १२. उद्भिन्न- बर्तन के मुख पर लगे हुए लेप को छुड़ाकर, उसमें से भोजनादि निकाल कर साधु को देना । १३. मालापहृत - पीढा या सीढी लगाकर ऊपर नीचे अथवा तिरछी रखी हुई वस्तु को निकाल कर साधु को देना । १४. आच्छेद्य - किसी दुर्बल से छीनकर साधु को आहार देना अथवा बलात्कार से दिलाना । १५. अनि सृष्टि - दो या अनेक मनुष्यों के भागीदारी की वस्तु किसी भागीदार की आज्ञा बिना देना । ६. अध्यवपूरक - साधुओं को नगर में आये हुए जानकर बनाने में अधिक वस्तु डालना । साध्वाश्रित एषणा के १६ दोष निम्न हैं : धात्री कर्म - धाय माता का कार्य करके आहार लेना । . २. दूती कर्म - गृहस्थों के संदेशादि पहुँचाकर दौत्यकर्म द्वारा आहार ग्रहण करना । ३. निमित्त - त्रिकाल का लाभालाभ एवं जीवन - मृत्यु आदि निमित्तशास्त्र बतलाकर आहार लेना । ४. आजीव - अपनी जाति कुल गोत्र आदि की प्रशंसा कर आहार लेना । वनीपक- दीनतापूर्वक याचना कर आहार लेना । ६. विचिकित्सा - औषधोपचार कर आहार लेना । ७. क्रोध — क्रोधपूर्वक आहार लेना । ६० ] . [ वल्लभ-भारती Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. मान - गर्व पूर्वक आहार लेना । ६ माया - प्रपंच पूर्वक आहार लेना । १०. लोभ -- लोभपूर्वक अथवा लोभ दिखाकर आहार लेना । ११. पूर्वपश्चात् संस्तव - प्रारंभ में या अन्त में दाता की प्रशंसा करना । १२. विद्या - विद्या सिद्धि के बल से आहार लेना । १३. मन्त्र - मन्त्र प्रयोग पूर्वक आहार लेना । १४. चूर्ण - चूर्णों का प्रयोग करना । १५. योग - लेपादि योग बतलाना । १६, मूलकर्म - गर्भपातादि के लिए औषध बतलाकर आहार लेना । साधु एवं भक्ताश्रित ग्रहणैषणा के १० दोष निम्न हैं: १. शङ्कित - साधु और गृहस्थ दोनों को ही आहार के विषय में शंका होने पर भी उस आहार को ग्रहण करना । २. म्रक्षित - सचित्त जल से हाथ अथवा केश जिसके भीगे हैं उस गृहस्थ के हाथ से आहार ग्रहण करना । ३. निक्षिप्त- अकल्प्य वस्तु पर रखी हुई कल्प्य वस्तु को ग्रहण करना । ४. पिहित - सचित्त वस्तु से आच्छादित अचित वस्तु को ग्रहण करना । ५. संहृत - अकल्प्य वस्तु वाले पात्र को खालीकर उस पात्र से लेगा, अथवा जिस पात्र से लेने में पश्चात् कर्म की ( कच्चे पानी से धोना आदि) संभावना हो उस से ग्रहण करना । ६. दायक - अयत्ना - अनुपयोग पूर्णक दिया हुआ आहार ग्रहण करना । ७. उन्मित्र - अकल्प्य वस्तु से मिली हुई कल्प्य वस्तु को ग्रहण करना । ८. अपरिणत - अपरिपक्व वस्तु को ग्रहण करना । ६. लिप्त - तत्काल की लींपी हुई जमीन को लांघकर आहार ग्रहण करना । १०. छर्दित - दान देते हुए आहारादि के छींटे नीचे पड़े हों उस आहार को ग्रहण करना । साधु को भक्षण करते समय लगने वाले ग्रासैषणा के ५ दोष निम्न हैं १. संयोजना - स्वाद के लिये अनेक वस्तुओं का संमिश्रण करना । २. प्रमाण - मर्यादा से अधिक भोजन करना । ३. इंगाल - स्वादिष्ट भोजन की प्रशंसा करना । -: ४. घूम – अरुचिकर आहार की निन्दा करना । ५. कारण - क्षुधा, वेदना, वैयावृत्य, संयम, सद्ध्यान और प्राणरक्षार्थ आदि कारणों के बिना भोजन करना । ४. सर्वजीतशरीरावगाहना स्तव भगवती ( विवाह प्रज्ञप्ति) सूत्र के २५०वें शतक के तृतीय उद्दे शक का आधार लेकर प्राकृत भाषा में आर्याओं में इसकी रचना की गई है। इसका वर्ण्य विषय है- सूक्ष्म, ८ वल्लभ-भारत ] [ १ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादर, अपर्याप्त, पर्याप्त, ज्येष्ठ, इतर के देह भेद, तथा पांचों ही निगोद, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय देह की अवगाहना तथा इनका क्रमशः अल्प-बहुत्व का शास्त्रीय दृष्टि से विवेचन । गणिजी ने इस सैद्धान्तिक, एवं मार्मिक विषय को भी सरलता से प्रतिपादन करने में सफलता प्राप्त की है। ५. श्रावक व्रत कुलक प्राकृत भाषा में २८ आर्याओं में रचित इस कुलक को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि यगप्रवरागम श्री अभयदेवसरि के पास उपसम्पदा ग्रहण करने के पश्चात किसी भक्त श्रावक ने आपके पास सम्यक्त्व सहित बारह व्रत ग्रहण किये थे। प्रस्तुत कुलक में यह तो स्पष्ट नहीं है कि किस संवत् में और किस श्रावक ने आपके पास व्रत ग्रहण किये थे ? किन्तु यह तो स्पष्ट है कि लेने वाला श्रावक बाहड़मेरु' (मारवाड़) के आस-पास का निवासी था। इसका नाम अन्य प्रति में 'परिग्रहपरिमाण कुलक' भी लिखा मिलता है, किन्तु इसमें केवल एक परिग्रह का ही परिमाण नहीं है अपितु समग्रव्रतों का है । अतः उपर्युक्त नाम उपयुक्त ही प्रतीत होता है । इसमें 'कुलक' के स्थान पर लेखक 'टिप्पनिका' नाम रखता तो अधिक उपयुक्त होता। क्योंकि इसमें त्याज्य और मयोदित वस्तुओ का ही टिप्पन के रूप में लेखन किया है न कि वर्णन के रूप में। __ प्रारम्भ में श्री महावीर को नमस्कार कर देव गुरु धर्म मूलक सम्यक्त्व सह गृहीधर्म स्वीकार करता हूँ। तृतीय पद्य में १२ व्रतों का नाम निर्दश इस प्रकार किया है : पांच अणुव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। तीन गुणवत-दिक्परिमाण, भोगोपभोग, अनर्थदण्ड । चार शिक्षाव्रत - सामायिक, देशाप्रकासिक, पौषध. अतिथिसंविभाग । पद्य ३, ४ में स्थूल प्राणातिपात, असत्य, स्तेय तथा स्वपत्नी अतिरिक्त मैथुन का त्याग करता है। पद्य ५ों में बाह्य नवबिध परिग्रह-धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तू. चांदी, सूवर्ण, चतुष्पद (पशु, पक्षी), द्विपद (दास, दासी), कुप्य नाम निर्देश कर गाथा ६-८ तक इसकी मर्यादापरिमाण का उल्लेख किया है। पद्य ६-२० में दिशा का परिमाण एवं भोग्य वस्तुओं को सीमित करता हुआ १४ नियमों को धारण कर अनर्थदण्ड का परिमाण करता है । गा० २० से २६ में, प्रति वर्ष ६० सामायिक करने की प्रतिज्ञा करता हुआ देशावगासिक, पौषध, अतिथि संविभाग, जिनमूर्ति की द्रव्यपूजा, वह भी जिनेश्वर देव के पांच कल्याणक दिवसों में विशेष रूप से करूंगा ऐसा कथना करता हुआ प्रतिज्ञा करता है तथा कहता है कि प्रमादवश व्रत में अतिचार (दोष) लग जाय तो एक हजार श्लोकों का स्वाध्याय करूगा एवं सम्पूर्ण आस्रव द्वारों का त्रिकरण तथा त्रियोग द्वारा त्याग करता हूँ। ___ अन्त में पद्य २७ में कवि इसकी महत्ता दिखाता हुआ कहता है कि सम्यक्त्व जिसका मूल है, अणुव्रत जिसका स्कन्ध है, गुण व्रत और शिक्षाव्रत जिसकी शाखा और प्रशाखायें हैं ऐसे गृही-धर्मरूपी वृक्ष को श्रद्धारूपी जल से सिंचन करने पर मोक्ष फल प्राप्त होता है। पद्य २८वें में कवि अपना नाम प्रदान करता हुआ उपसंहार करता है। १. बाहड़मेरु माणं पद्य १२ ६२ ] [ वल्लभ-भारती Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १२ में 'बाड़मेरु माणं' शब्द से उस समय में प्रचलित वस्तु परिमाण - तौल सूचक का प्रयोग किया है । यह प्रयोग ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। संभव है उस समय राजस्थान प्रदेश में बाहड़मेरो मान का प्रचार होगा । ६. पौषधविधि प्रकरण । far क्ष के अनुयायी श्रमण वर्ग के लिये नूतन आचार-ग्रन्थ की कोई आवश्यकता नहीं थी; क्योंकि आचार -ग्रन्थ के आगम मौजूद थे अतः उपासकों को लक्ष्य में रखकर पौषधविधि प्रकरण एवं प्रतिक्रमण- समाचारी नामक दोनों ग्रन्थों की रचना की गई है । इसीलिये कवि को मगलाचरण में यह वस्तु स्पष्ट करनी पड़ी है। कवि कहता है कि दसविध यतिधर्म का प्रकाशन करने वाले जिनेश्वर देवों ने पौषधविधान की उपासकों के लिये प्ररूपणा की है । जो उपासक संसार से विरत होकर आत्मिक सुख का अनुभव करना चाहता है तथा जो व्रत, प्रतिमा, सन्ध्याविधि, पूजा इत्यादि श्रावकोय धर्मकृत्यों द्वारा कल्याण पथ पर अग्रसर होना चाहता है उसे चतुर्दशी, अष्टमी, पर्युषणादि पर्व -दिवसों में साधु के पास अथवा पौषधशाला या एकान्त गृहप्रदेश में पौषध अवश्य करना चाहिये । तदनन्तरं पौषध की समग्र विधि का आद्योपान्त वर्णन किया गया है जो आज भी खरतरगच्छ समाज में प्रसिद्ध एवं प्रचलित है । इसलिये इसका वर्णन न कर इसमें विशिष्ट विवेचनीय विषयों का उल्लेख कर रहा हूँ । पौषध दण्डक (पूत्रपाठ ) तथा सामायिक दण्डक का शास्त्रीय विवेचन करता हुआ afa त्रिविध-त्रिविध प्रत्याख्यान का अनेक भांगों द्वारा स्थापना भी करता है जो पठनीय है । इसी प्रसंग में एक मत का उल्लेख है कि साधुओं के साथ श्रावकों को प्रतिक्रमण करना योग्य नहीं है। इस मत का शास्त्रीय प्रमाणों तथा गीतार्थ- परम्परा द्वारा खडन कर यह स्थापना है कि श्रावकों को साधुगण के साथ प्रतिक्रमण करना चाहिये । पौषधव्रत-धारी सभा के सन्मुख प्रवचन ( व्याख्यान ) दे या नहीं ? इस प्रसंग को उठाकर निशीथ आदि आगमिक ग्रन्थों के उद्धरण के साथ यह प्रतिपादन किया है कि सभा में गीतार्थ श्रमणों को ही प्रवचन देने का अधिकार है । जहाँ सामान्य साधुओं के लिये भी सभा में प्रबचन देने का प्रतिबन्ध वहां उपासकों का स्थान ही कहां आ सकता है ? हां, वह पौषधव्रतधारी गीतार्थ श्रमण के अभाव में वैसे उपदेश दे सकता है किन्तु सभा के सन्मुख प्रावचनिक पद्धति से नहीं । जो इस आज्ञा-धर्म का उल्लंघन करता है उसके लिये कवि कहता fe वह अनर्थभाषी और शासन - विराधक है । चैत्य में मध्याह्न-काल का देववन्दन करने के पश्चात् यदि उपासक 'आहार पोसही' हो तो जो प्रत्याख्यान एकासन, निवी, अथवा आयम्बिल का किया हो, वह पूर्ण करे । यहां 'आहारपोसही' शब्द पर कई विपक्षियों ने खरतरगच्छ की वैधानिक परम्परा को अवैधानिक ठहराने के लिये सेन प्रश्न - " पौषधविधिप्रकरणे श्राद्धानां पौषधमध्ये जेमनाक्षारदर्शनात् " ( पृ० ४) का प्रमाण कर वातावरण को दूषित करने का जो प्रयत्न किया है वह वस्तुत: गर्हणीय है । ये वल्लभ-भारती ] [ ६३ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hi भूल जाते हैं कि लेखक ने पूर्व में लिखा है - "पादोन पौरुषी व्यतीत होने पर पडिलेहन करू' का आदेश लेकर, भण्डोपकरण अर्थात् थाली, कटोरा आदि पात्रों की प्रमार्जना करे । " उपधान-तप आदि बड़ी तपस्याओं में ही भोजन पात्र रखे जाते हैं, सामान्य एक दिवस के पौषध में नहीं । इसीलिये तो लेखक को पुनः “जो पुण आहारपोसही देसओ" शब्द लिखने पड़ े । अतः किसी लेखक के लिखित पूर्वापर वाक्यों को छोड़कर स्वप्रयोजनीय शब्दों को ग्रहण करना और अपने झूठे मत का प्रतिपादन करना क्या विज्ञों के लिये योग्य कहा जा सकता है ? क्या इन शब्दों से कहीं भी स्पष्ट है कि पर्वतिथि के अतिरिक्त दिवसों में भी पौषध में भोजन करना चाहिये ? पौषधती राग और द्वेष की परिणति से रहित होकर शास्त्रीय नियमानुसार अपने घर पर अथवा पूर्व निश्चित स्थान पर जाकर भोजन करे। भोजन के लिये एकादश प्रतिमाधारक व्यक्तियों को छोड़कर श्रमण की तरह भ्रमण न करे ; क्योंकि वह धर्म की लघुता करने वाला हैं। तथा पिण्ड - विशुद्धि का ज्ञान न होने से एवं उपयोग का अभाव होने से शास्त्रों में इसका पूर्णतया निषेध किया गया है । सन्ध्याकालीन विधि पूर्ण होने पर रात्रि संस्तारक की विधि करके अनित्यादि भावनाओं द्वारा संसार, लक्ष्मी, यौवन तथा गर्व की नश्वरता पर विचार करता हुआ, सम्पूर्ण ऐहिक वस्तुओं का त्याग कर जिनेश्वर का शरण स्वीकार कर शयन करे। रात्रि के अन्तिम प्रहर में 'उठकर ८ प्रहर पूर्ण हो गये हों तो सामायिक ग्रहण कर स्वाध्याय ध्यान करे । पश्चात् प्राभातिक प्रतिक्रमण करे, प्रतिलेखन करे। पौषध पारने की इच्छा हो तो त्रिवि - योग से अनुष्ठान में अतिचार लगा हो उसकी चिन्तवना करता हुआ 'भयवं दसण्णभद्दो' के पाठ से पौषध की विधि पूर्ण करे । तदनन्तर उपासक का यह नियम है कि पूज्य श्रमणों को आहार भोजन का दान देकर स्वयं भोजन करे अन्यथा दोष का हेतु है । अतः साधु समीप जाकर विनय विवेक पूर्व क उनको अपने साथ लेकर अपने घर पर आवे और भक्ति-पूर्वक उन्हें भोजन का दान देकर पारणा करे। यदि वहां सुविहित साधु न हो तो देश कालोचित कर्त्तव्य करे तथा मन में यह विचार करता हुआ कि गीतार्थ साधु होते तो मेरा संसार से निस्तार हो जाता तथा मेरा जीवन कृतार्थ हो जाता: संविग्गा सोवएसा गमनयनिउरगा खित्तकालागुरूवागुट्टाणा सुद्धचित्ता परसमयविऊ मच्छरुच्छेयदच्छा । सुत्तत्तत्ती जुयवयणहयातुच्छ मिच्छत्तवाया, सम्म साहू मे एज्ज गेहे जह कवि तोऽहं कयत्थो भविज्जा ।। अन्त में इसका मोक्षफल दिखलाते हुए कवि स्वयं का नाम सूचित करता हुआ • सुविहित पथ की पौषधविधि का उपसंहार करता है । ७. प्रतिक्रमण - समाचारी कवि देवेन्द्रवृन्दवन्दित श्रीमहावीर को नमस्कार कर प्रतिक्रमण - समाचार प्रकट करता है । द्वितीय पद्य में पंचविध आचार की विशुद्धि के लिये साधु और श्रावक को सर्वदा गुरु ४] [ वल्लभ-भारती Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ प्रतिक्रमण का विधान करता है। प्रतिक्रमण पांच प्रकार के होते हैं-१. रात्रि २. देवसिकी, ३. पाक्षिक ४. चातुर्मासिक और ५. सांवत्सरिक । पद्य ३ से २४ तक कवि देवसिक प्रतिक्रमण की विधि का वर्णन करता है और पद्य २५-३३ में रात्रि प्रतिक्रमण का। पद्य ३५-३६ तक में अवशिष्ट तीनों प्रतिक्रमणों की विशिष्ट विधि का उल्लेख करता हआ पद्य ४० में अपना नाम देकर उपसंहार करता है। कवि ने देवसिक प्रतिक्रमण का विधान 'देवसिय प्रायश्चित कायोत्सर्ग' तक ही दिया है तथा रात्रि-प्रतिक्रमण का अन्तिम देववन्दन तक । स्पष्ट है कि वार्तमानिकी विशेष क्रियायें गुरु-परम्परा मात्र की ही बोधक हैं। ...... ८. द्वादशकुलक कवि ने अपना जीवन केवल वैधानिक-चर्चाओं और प्रौढ-साहित्यिक रचनाओं में ही नहीं बिताया है। वह धर्म प्रचार का लक्ष्य भी रखता है। इसीलिये उसने द्वादशकल और धर्मशिक्षा प्रभृति औपदेशिक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। सर्वत्र स्थलों में स्वयं का विचरण असंभव है, स्वीकार कर अन्य प्रदेशों में उपदेशों के साथ-साथ वैधानिक सुविहित-पथ . का भी प्रचार हो इस दृष्टि को लक्ष्य में रख कर, गणदेव नामक उपासक को साहित्य-प्रचारक बना कर, प्रस्तुत ग्रन्थ-निर्माण कर, बागड देश में प्रचारार्थ भेजा। जैसा कि जिनपालोपाध्याय कहते हैं: धर्मोपदेशकुलकाङ्कितलेखसारः, श्राद्ध न बन्धुरधिया गणदेवनाम्ना । म. प्राबोधयत् सकलवाग्जदेशलोक, सूर्योऽरुणेन कमल किरणेरिव स्वैः ॥ .. । (द्वादशकुलक वृत्ति मं० १०) इस ग्रन्थ में कुल १२ कुलक हैं और ये सभी कुलक परस्पर सम्बद्ध होते हुए भी मौलिक काव्य की तरह स्वतंत्र भी हैं। इसीलिये कवि ने इस ग्रन्थ का नाम भी द्वादशकुलक रखा है। प्रस्तुत ग्रन्थ औपदेशिक होने पर भी कवि ने अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से, लाक्षणिक दृष्टि से लिख कर इसे प्रासाद एवं माधुर्य गुणमय काव्य का रूप प्रदान कर दिया है। इसका पठन करने पर पाठकों को उपदेश के साथ-साथ काव्य-गरिमा का आस्वादन भी होता है। - प्रत्येक कुलक भिन्न-भिन्न छन्दों में है और पद्य संख्या भी सब की पृथक्-पृथक् है जिसका वर्गीकरण निम्न प्रकार है:कुलक संख्या पद्य संख्या छन्द १-२० उपजाति; २१वां मालिनी १-२० आर्या; २१वां मालिनी १, ३- ११, १३-१५ शार्दूलविक्रीडित; २, १२ स्रग्धरा तथा १६वां आर्या २५. १-२५ आर्या १, २, ५-११, १३-१६, १८-२३, २६-२८, वल्लभ-भारती] [ ६५ ہم سب » .३१ * Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल संख्या कर्म संख्या छन्द ३१ आर्या; ३ शार्दूलविक्रीडित; ४ मालिनी; १२ वसन्ततिलका; १७ मन्दाक्रांता, आर्या आर्या आर्या मालिनी १-१० वसन्ततिलका; ११ शार्दूल विक्रीडित ; अन्तिम पद्य संस्कृत में । १-७ मालिनी; ८ स्रग्धरा, आर्या प्रथम कुलक:-इसमें श्रेष्ठ कुलोत्पन्न, गुणागार, धर्मोद्यत उपासकों को उपदेश दिया गया है। परन्तु सर्वप्रथम यह बताया गया है कि धर्मोपदेश श्रवण का अधिकारी कौन है ? अधिकारी का निर्णय करने के पश्चात् उसके आचरण करने योग्य धर्ममय औपदेशिक तत्त्वों का निदर्शन किया गया है। द्वितीय कुलकः-कदली पत्र पर स्थित जलबिन्दु के समान जीवन. धन, यौवन और स्वजन-संयोग क्षणिक समझकर, निपुणबुद्धि के साथ कुग्रह का त्याग कर, निर्वाण सुख के अनन्य कारणभत भवनगण्य की विचारणा करे। वर्तमान समय में श्रतधरों का अभाव है, अतः तत्प्ररूपित आगमानुसार ही सद्गुरु की उपासना, धर्माराधन, जिनपूजन आदि सत्कृत्यं करे; जिससे प्राप्त मानुष्यादि सामग्री का सदुपयोग हो और भवबन्धन का नाश हो । ततीय कुलक:-जन्म मत्य के आवर्तन से पूर्ण इस भवोदधि में यौवन, जीवन, लावण्य लक्ष्मी, भोगसुख, कामिनी, राज्य परिवार आदि इहलौकिक समग्र वस्तुयें जल बुद्-बुद् के समान नश्वर हैं तथा वियोग, शोक एवं दुःख के भंडार हैं । अतः संविग्न-मार्गानुसार सम्यक्त्व युक्त पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत रूपी सद्धर्म कल्पवृक्ष को श्रद्धामय जल से सिंचन करे। त्रिकाल चैत्य-वन्दन, दान, इन्द्रियदमन, पंचभावना, स्वधर्मी-वात्सल्य आदि सत्कृत्यों को निष्काम भाव से तथा मात्सर्य, मोह एवं लोभ रहित होकर करे, जिससे भव का नाश हो । चतुर्थ कुलक:-राग और द्वेष रूपी भुजंगों से परिपूर्ण इस संसार समुद्र के भीतर चतुर्गतियों में भ्रमण करते हुए, यह दश दृष्टान्तों से दुर्लभ मनुष्यभव तुझे प्राप्त हुआ है । अतः प्रमाद का त्याग कर । प्रमाद जीवन का एक महाशत्रु है जो तुझे इस संसार में परिभ्रमण कराता है। कदाग्रह का त्याग करके विधि अनुसार आचरण करने वाले साधुजनों की सम्यक् प्रकार से सेवा-शुश्रुषा कर। चारित्र का पालन कर । अंतरंगशत्र राग-द्व'ष क्रोधादि कषायों का दमन कर । दाक्षिण्यादि भावनाओं का पालन कर । आयुष्य अत्यल्प है, आचरण अत्यधिक है अतः सुसंयोगों से प्राप्त सद्गुरु की अध्यक्षता में पूर्णरूपेण धर्माराधन कर, जिससे तेरा कल्याण हो। पंचम कुलक:-निगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि संसार की समस्त योनियों ६६ ] [ वल्लभ-भार Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में परिभ्रमण करते हुए तुझे यह मानुषभव प्राप्त हुआ । यह जीवन आशा, चिन्ता, रोग, शोक, वियोग, संताप आदि दुःखों से भरा हुआ है । अनन्त सागरोपमों तक भ्रमण करते हुए पुण्य सञ्चय के कारण श्रेष्ठकुल, सद्गुरु आदि की तुझे प्राप्ति हुई है । अतः अनिवृत्तिकरण द्वारा मिथ्यात्व की ग्रन्थि का छेदन करके गुणस्थानों की श्र ेणि का आलंबन लेकर आत्मसिद्धि कर । कुनयों और कदाग्रहों का त्याग कर, अन्यथा ग्रहण किया हुआ चारित्र भी प्रमाद और आश्रवों के कारण संसार में परिभ्रमण का हेतु मात्र ही होगा । इसलिये शास्त्रमर्यादानुसार दानशीलादि धर्म जो गीतार्थ-परम्परा द्वारा मान्य हैं वे सुगुरु के आदेशानुसार पालन कर, धर्माराधन कर, जिससे तुझे मोक्षलाभ हो । षष्ठं कुलक :- धनादि में ममत्व संसार वृद्धि का हेतु है । अतः उस पर से ममत्व हटा कर उसका श्र ेष्ठ कार्यों में सदुपयोग कर अन्यथा यह लक्ष्मी १८ पापस्थान की भूमिका होने कारण तुझे दुर्गति प्राप्त करावेगी । वास्त्रसम्मत सम्पूर्ण श्रेष्ठ कार्य 'सुगुरु की अध्यक्षता में राग रहित होकर आचरण कर जिससे मोक्षसुख का लाभ तुझे प्राप्त हो । मे सप्तम कुलक :- अनंतकाल तक संसार में परिभ्रमण करते हुए तसत्व, नरत्व, श्रेष्ठ क्षेत्र, कुल, जाति, रूप, आरोग्य, पूर्णायुत्य आदि अति दुर्लभ सामग्री अत्यन्त पुण्योदय से तुझे प्राप्त हुई है। इसलि यदि तूं साधुधमं पालन करने में अपने को असमर्थ समझता हो तो श्रावक-धर्म का पालन कर । विधिपूर्वक त्रिकाल चैत्यवन्दन, सुगुरु सेवा, धर्मश्रवण, जिनपूजा, सुपात्रदान, उपधान आदि तप तथा स्वाध्याय आदि उत्तम कृत्यों की आराधना कर । संसार की असारता का विचार करके आश्रव के कार्यों का त्याग कर । मोह-ममत्व का त्याग कर । हृदय में जिनमत का शुद्ध स्वरूप देख; जिससे तेरा भवभ्रमण का चक्र समाप्त हो जाय । श्रष्टम कुलक :- मिथ्यात्व, अत्रत, कषाय, प्रमाद आदि कर्म - बंधन एवं भवबंधन के हेतु हैं उनको तथा इनसे उपार्जित भयंकर फलों को ज्ञान पूर्वक त्याग कर, अन्यथा तुझे प्राप्त गुरु की प्राप्ति आदि सारी उत्तम सामग्री व्यर्थ हो जायगी। इसलिये मार्गानुसारिता स्वीकार कर के अप्रमत्ततया धर्माचरण कर, जिससे तुझे शिवसुख प्राप्त हो । नवम कुलक :- हुण्डा अवसर्पिणी काल पंचम आरक, भस्मराशि ग्रह आदि अनेक पापग्रहों के कारण जहां धर्म सामग्री का बीज ही मिलना दुष्कर है वहां तुझे जो उत्तम उत्तम सामग्रियां प्राप्त हुई हैं उनका तू त्याग न कर । कुगुरुओं का भक्त न हो । उन्मार्ग का अनुयायी न बन । प्रमाद धारण न कर । गीतार्थ गुरुपरंपरा का त्याग न कर, अन्यथा चारों गति का भ्रमण पुनः तुझे घसीटेगा और तू चिन्तामणी रत्न को यों ही खो देगा । इसलिये प्रमाद त्याग करके निष्ठा और श्रद्धा पूर्वक सुविहित पथ दर्शित सम्पूर्ण विधि-विधानों का अनुष्ठान कर, जिससे तू अभय पद प्राप्त कर सके । दशम एकादश कुलक: - यदि तु मुखाकांक्षी है और अक्षयपद प्राप्त करना चाहता है तो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र, सद्गुरु-सेवा तथा गीतार्थ परंपरा का पूर्णरूपेण पालन कर । दुर्गति के कारण भूत कुगुरु, उन्मार्ग आचरण, काम-क्रोधादि कषाय, मिथ्यात्व, कुतीर्थी-संसर्ग, शंका, विषय आदि जितने अंतरंग जीवन के शत्रु हैं उनका पूर्णरूपेण दमन कर, जिससे तू अचिन्त्य मोक्षरूपी कल्पवृक्ष को प्राप्त कर सके । बल्लभ-भारती ] [ ७ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशम कुलक:- काल की विचित्रता से श्रेष्ठ श्रु तधरों का अभाव होने से और अपने गुरुकर्मीपन से आज बहुत लोग जिनमत तथा साधु धर्म का ज्ञान होने पर भी एवं श्रेष्ठ धर्म अंगीकार कर लेने पर भी आजीविका के भय से कषायादि अन्तरंग शत्रु ओं को प्रोत्साहन दे रहे हैं । धर्म के नाम पर स्वच्छंद आचरण कर रहे हैं । अपनी आत्मा को कषाय विष से नाश कर रहे हैं और गारव धारण कर रहे हैं । आह!!! ये सब महा मोह का प्रभाव है। इसलिये भव्य को सुबुद्धि पूर्वक शठभाव का त्याग कर, सिद्धान्त का परमार्थ जानकर, कषाय भावों का पूर्ण रूप से त्याग करना चाहिए, जिससे तू बुद्धिमानों का पूज्य हो सके । ९. धर्म शिक्षा प्रकरण कवि ने इस काव्य की सृष्टि भव्यजीवोपकारार्थ ही की है। यह श्लोक संख्या की अपेक्षा तो अत्यन्त ही लघु काव्य है किन्तु प्रसाद और ओज संयुक्त होने से इसकी कोमल-कान्त-पदावली, चैत्रिक गरिमा, अलंकारों का सम्मिश्रण तथा विविधतामयी छंद योजना इसको एक विशेष महत्त्व प्रदान करते हैं। प्रस्तुत काव्य में जीवन में आचरणीय १८ विषयों का प्रतिपादन बहुत ही मार्मिक शैली से किया गया है। प्रस्तुत अठारह विषयों में देव गुरु और धर्म तीनों की प्रमुखता बतलाते हुए इनकी आराधना-पद्धति, तज्जनित फल और सांसारिक पदार्थों की नश्वरता से उत्पन्न दुःख तथा उनके निवारण के हेतओं का विवेचन बहत ही सरल शब्दों में किया गया है। १८ विषय निम्नलिखित हैं भक्तिश्चंत्येषु शक्तिस्तपसि गुणिजने सक्तिरर्थे विरक्तिः, प्रीतिस्तत्त्वे प्रतीतिः शुभगुरुषु भवाद् भीतिरुद्धात्मनीतिः । क्षान्तिः दान्तिः स्वशान्तिः खहतिरबलावान्तिरभ्रान्तिराप्ते, ज्ञोप्सा दित्सा विधित्सा श्रुत-धन-विनयेष्वनु धिः पुस्तके च ॥ इसमें कवि ने प्रथम पद्य में जिनेश्वर को नमस्कार कर काव्य कहने की प्रतिज्ञा की है। दूसरे पद्य में मानवभव की दुर्लभता बतलाते हुए महाकुलीन भव्यों को धार्मिक कर्तव्य करने का उपदेश दिया है। तीसरे पद्य में १८ प्रसंगों का नामोल्लेख कर पद्य ४ से ३६ तक में प्रत्येक विषय का दो-दो पद्यों में प्रतिपादन किया गया है। प्रथम और अन्तिम पद्य चक्रबन्ध काव्यरूप में है जिसमें कवि ने अपना नाम 'जिनवल्लभगणिवचनमिदम्' और 'गणिजिनवल्लभवचनमदः' सूचित किया है। इस परिपाटी की रचना श्वेताम्बर जैन साहित्य में सम्भवतः सर्वप्रथम आचार्य जिनवल्लभ ने ही की है। इसके अनुकरण पर तो परवर्ती कवियों ने अनेक रचनायें की हैं जिनमें सोमप्रभाचार्य प्रणीत सिन्दूरप्रकर आदि मुख्य हैं। १०. सङ्घ पट्टक इस काव्य की रचना में गणिजी के जीवन का चरमोत्कर्ष निहित है। उपसम्पदा के पश्चात् आपने चैत्यवास का सक्रिय विरोध कर उसके आमूलोछेच्दन करने का प्रयत्न किया ६८ ] [ वल्लभ-भारती Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और इस प्रयत्न में इनको पूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई । गणिजी ने इस लघु काव्य में तत्कालीन चैत्यवासी आचार्यों की शिथिलता, उनकी उन्मार्ग - प्ररूपणा और सुविहितपथप्रकाशक गुणिजनों के प्रति द्वेष इत्यादि विषय का सुन्दर चित्र उपस्थित करते हुए विधिपक्ष ( खरतर - गच्छ ) के व्यावहारिक आचार का विवेचन किया है। संघ (विधिपक्ष) का पट्टक ( विधानशास्त्र) होने से कवि ने इसका नाम भी संवपट्टक किया है । " इस काव्य में ४० पद्य हैं। उनमें प्रथम श्लोक में श्री पार्श्वनाथ को नमस्कार कर 'विज्ञों को कुपथत्याग करने का उपदेश देकर दूसरे पद्य में श्रोताओं की योग्यता का निरूपण किया है । ३.४ पद्य में उपमाओं द्वारा चैत्यवासियों को 'जिनोक्तिप्रत्यर्थी' सिद्ध करते हुए पांचवें पद्य में १. औद्दे शिक भोजन, २. जिनगृह में निवास, ३. वसतिवास के प्रति मात्सर्य, ४. द्रव्य संग्रह, ५. भक्तों के प्रति ममत्व, ६. चैत्य स्वीकार (चिन्ता), ७. गद्दी आदि का आसन, ८. सावद्य आचरण, ६. सिद्धान्तमार्ग की अवज्ञा और १० गुणियों के प्रति द्वेष का विवेचन किया है । इस प्रकार वक्ष्यमाण दस द्वारों का उल्लेखकर पद्य ६ से ३६ तक इनका विशद विवेचन किया गया है । पद्य ३४.३५ ग्रन्थ रचना का कारण कह कर पद्य ३६-३८ में सुविहित साधुवृन्द के पवित्र आचार की प्रशंसा की है । पद्य ३८ में चित्रकाव्य द्वारा 'जिनवल्लभगणिनेदं चक्रे' कहकर अपना चित्रालङ्कार प्रेम प्रदर्शित किया है । पद्य ३९.४० में चैत्यवास को भस्मकम्लेच्छसैन्य की उपमा प्रदान कर उसकी भर्त्सना करते हुए उपसंहार किया गया है । इस लघु काव्यात्मक वैधानिक एवं चाचिक ग्रन्थ में भी गणिजी ने निदर्शना, अप्रस्तुत प्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, तुल्ययोगिता, रूपक, उपमा, अनुप्रासादि अलंकारों तथा स्रग्धरा आदि ८ प्रकार के छन्दों के प्रयोग द्वारा अपनी बहुमुखी प्रतिभा का सुन्दर परिचय दिया है । समग्र ओ गुण से परिपूर्ण होने के कारण पाठक के हृदय को पुलकित करता है । इसमें आये हुए छन्दों का वर्गीकरण इस प्रकार है: स्रग्धरा - १, ४, ७, ६, २१, ३०, ३५, ३७ । शार्दूलविक्रीडित -- २, ५, ६, १०, १३१७, २२-२६, ३१-३३, ३८,४०, । मालिनी - ३, ११, ३६ । द्विपदी - १८-२० । शिखरिणी - ६६ । मन्दाक्रान्ता -- ३४ । पृथ्वी - १२ । वसन्ततिलका - ८ । ११. स्वप्न सप्तति जिनपालोपाध्याय ने जिनवल्लभरि प्रणीत ग्रन्थों में स्वप्नसप्तति का उल्लेख किया है किन्तु यह ग्रन्थ अद्यावधि अप्राप्त था । शोध करते हुए सन् १९६७ में इसकी एक टीका सहित • पाण्डुलिपि राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, शाखा कार्यालय बीकानेर के श्रीपूज्य श्री जिन १. सङ्घस्य पट्टकरूपं श्रीसङ्घराज्यपट्टकशास्त्र चकार । ( साधुकीत अवचूरि) २. यत्रौद्द शिकभोजनं जिनगृहे वासो वसत्यक्षमा, स्वीकारोर्थगृहस्थचैत्य सदनेष्वप्रेक्षिताचासनम् । सावद्याचरितादरः श्रुतपथाऽवज्ञा गुरिण षधीः, धर्मः कर्महरोऽत्र चेत्पथि भवेन्मेरुस्तदाच्धी तरेत् ॥ ५॥ बल्लभ-भारती ] [ ee Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रसूरि संग्रह में प्राप्त हुई । संग्रह का ग्रन्थाँक २६४ है और पत्रांक २३२ से २५६ तक स्वप्नसप्तति टीका का आलेखन है। प्रति का लेखन-काल सं. १४१८ है और यह प्रति श्री कीतिरत्नसूरिशिष्य श्री कल्याणचन्द्रोपाध्याय की है ऐसा पत्रांक १८५ पर उल्लेख मिलता है । यह टीका तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में, गाथा १ से गाथा ३६ तक मूल ग्रन्थ का प्रतीक देते हुए विस्तृत टीका दी गई है । दूसरे भाग में, प्रारम्भ की ३६ गाथाओं में से स्वप्नफलप्रतिपादक ८ वीं गाथा से २६ वीं गाथा तक, अर्थात १६ मूल ग्रन्थ की पूर्ण गाथायें देते हुए पुनः उनकी टीका दी गई है और अन्त में कृतिः श्रीजिनवल्लभसूरेः' का उल्लेख किया गया है । इसके साथ ही जिनपालोपाध्याय प्रणीत २८ गाथायें देते हुए लिखा है "इति गजादिस्वप्नाष्टकफलप्रतिपादकगाथासमस्तार्थः समाप्तः । कृतिर्वा जिनपालगणिरिति ।" इससे यह स्पष्ट है कि द्वितीय भाग की टीका जिनपालोपाध्याय प्रणीत है। तीसरे भाग में, गाथा १ से ३५ तक, पूर्ण गाथायें देते हुए उनकी सक्षेप में टीका दी गई है। अन्त में 'स्वप्नसप्ततिटीका समाप्ता' लिखा है । टीकाकार का नाम नहीं दिया गया है। प्रथम भाग की ३६ गाथायें और तीसरे भाग की ३५ गाथायें अर्थात् ७१ गाथाओं में यह ग्रन्थ पूर्ण होता है जोकि नाम से स्पष्ट है। तीनों भागों की टीका-रचना शैली पृथक्-पृथक् होने से यह तो स्पष्ट है कि तीनों ही टीकाकार अलग-अलग हैं। प्रथम और तृतीय भाग के टीकाकार अज्ञात हैं एवं दूसरे भाग के टीकाकार जिनपालोपाध्याय हैं। आश्चर्य है कि किसी भी टीकाकार ने टीका के प्रारम्भ में या अन्त में कोई मंगलाचरण या प्रशस्ति नहीं दी है। टीकाकारों ने टीका का प्रारम्भ भी अनूठे ढंग से किया है, मानों किसी अन्य ग्रन्थ की टीका करते हुए प्रसंगवश इसकी भी टीका कर रहे हों, यथा --'अधुना क्रियाविकलस्यापि भावस्य. प्राधान्यं दर्शयन् दृष्टान्तमाह ।' आचार्य जिनवल्लभ ने सार्द्धशतक, षडशीति, अष्टसप्ततिका, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकादि ग्रन्थों के समान ही ७१ गाथा के इस ग्रन्थ का नाम भी स्वप्नसप्तति या स्वप्नकसप्तति रखा है। श्री अगरचन्दजी नाहटा की सूचनानुसार इसका नाम 'आगमोद्धार' भी है। जिनवल्लभ के प्रायः समस्त ग्रन्थों में, प्रारम्भ में मंगलाचरणात्मक तीर्थंकरों को नमस्कार और ग्रन्थान्त में स्वयं का नाम प्राप्त होता है, किन्तु स्वप्नसप्तति में इन दोनों का अभाव है। ग्रन्थ का सारांश दुषम काल में पूर्ण चारित्र धर्म के अभाव में भी सम्यक् (सुविहित) मार्ग पर चल कर, यथाशक्ति अनुष्ठान करने वाले भव्यजीव सिद्धान्तनिया से मुक्ति को प्राप्त करेंगे। भगवान् महावीर ने कहा है कि दुषमकाल के अन्तिम समय में, श्री दुप्पसहसूरि तक छेदोपस्थान चारित्र रहेगा। अतः इस दुषमकाल में उक्त चारित्र का अभाव मानना व्यामोह मात्र है। तीर्थंकरों की विद्यमानता में भी आज्ञाबाह्य एवं जिनवचन-विराधकों को उक्त चारित्र कदापि नहीं होता है । अतः भव्यों को चारित्र के प्रति यथाशक्य प्रयत्न करना चाहिये और व्यामोहित गतानुगतिकमार्ग का त्याग कर, जिनाज्ञा एवं आगमसम्मत चारित्र धर्म का विचार, १०० ] [ वल्लभ-भारती Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणीकरण तथा उस पर स्थिरता करनी चाहिये । शिथिलाचारियों का आगमविरुद्ध आचरण और व्यवहार बहुजन सम्मत होने पर भी तिरस्करणीय है । यह प्रवृत्ति निन्द्य होने पर भी कतिपय आगम के जानकार आचार्यों ने इसका विरोध या निषेध क्यों नहीं किया है ? इसका समाधान पूर्वाचार्यों द्वारा शास्त्रों में दर्शित इस प्रसंग ( कथानक ) से किया है । दुषम सुषम नामक चौथे आरे के अन्त में किसी राजा ( पुण्यपाल ) ने आठ स्वप्न देखे और समवसरण में जाकर श्रमण भगवान् महावीर से इन स्वप्नों का फल पूछा । आठ स्वप्न निम्नांकित है : १. जीर्ण-शीर्ण शाला में स्थित हाथी, २. चपलता करता हुआ बन्दर, ३. कण्टकों से व्याप्त क्षीरवृक्ष, ४. कौआ, ५. सिंह मृत होने पर भी भयदायक, ६ . अशुचिभूमि में उत्पन्न कमल, ७. ऊषर क्षेत्र में बीजवपन, और ८. म्लान स्वर्णकलश | भगवान् महावीर ने इन स्वप्नों का फल अनिष्टकारक बतलाते हुये कहा किकाल के प्रभाव से भविष्य म देव मन्दिरो में शिथिलाचारी निवास करेंगे । वे विकथा करेंगे, आयतन विधि का श्याग कर अविधिमार्ग का अवलम्बन ग्रहण करेंगे, भग्न परिणाम वाले होंगे, और आगमज्ञ विरल साधुओं का समादर नहीं होगा । चपल बन्दर के समान अल्प सत्व वाले एवं चलितबुद्धि वाले सहयोगियों से प्रेरित होकर बहुत से गच्छ्वासी आचार्य भी निन्द्य कर्मानुष्ठान करने लगेंगे और उनकी अनुचित प्रवृत्ति से प्रवचन की हंसी होगी। उद्यत विहारी साधुओं की वे पार्श्वस्थ निन्दा करेंगे जिससे कि आगमज्ञ या तो निन्द्यानुष्ठान का आचरण करें या गच्छ को त्याग कर चले जावें । आगमज्ञ सुसाधुओं के विचरण योग्य सत्क्षैत्रों का अभाव सा हो जाने पर, अधिक त्रस्त होकर वे जनरंजन का मार्ग ग्रहण कर लेंगे । कलहकारी पार्श्वस्थों की वृद्धि होगी, अर्थात् कल्पवृक्षरूपी धर्म का स्थान बबूल-कण्टक वृक्ष ग्रहण करेगा । कौए के समान अतीव वक्र बुद्धि वालों से व्याप्त होने पर, शुद्ध प्रज्ञा वाले भी मूढ़ हो जायेंगे और उनके सम्पर्क से अधर्माचरण की ओर प्रवृत्त होंगे । सिंह के समान जिन-प्रवचन भी कुतीर्थिक एवं शिथिलाचारी श्वापदों के आघातों से व्याकुल होकर निष्प्राण-सा हो जायगा । ऐसे समय में प्रवचनप्रत्यनीक कीड़े सियार आदि इसे नोच-नोच कर खायेंगे। इस प्रकार के विकट समय में भी कतिपय आगमज्ञ क्रियाधारियों से ये अधम सियार सहमते रहेंगे । कमलोत्पत्ति तुल्य धर्मक्षेत्र एवं शुद्ध कुल वाले भी दुराचारियों की संगति से अपना स्वरूप त्याग देंगे । अधर्मरूपी क्षेत्र तथा नीचकुलीय निन्द्य व्यक्तियों की प्रतिष्ठा बढेगी । श्रद्धालु उपासक भी कुसमय और पार्श्वस्थों की संगति से, अधर्माचारियों को सुपात्र समझ कर दानादि देंगे । ज्ञान एवं चारित्र धारक भी दुस्संग के कारण बहुलता से हीनाचारी हो जायेंगे । प्रसंगोपरान्त ग्रन्थकार का मन्तव्य है कि — वल्लभ-भारती ] [ १०१ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशुद्ध रत्नों के समान सर्वज्ञ प्रणीत शुद्ध धर्म के ग्राहक एव पालक अल्प ही होते हैं, अतः श्रमण एवं उपासकों को शिथिलाचारियों एवं कुतीर्थिकों के धर्म का त्याग करना चाहिये । इस काल में शुद्धधर्म का पालन अति दुष्कर है - ऐसा उन्हें नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत संसार-दुःखनाशन हेतु शुद्धधर्म का अप्रमत्त होकर आराधन करना चाहिये। इसी से भविष्य में मुक्ति प्राप्त हो सकती है । अन्यथा विपरीत आचरण करने से चैत्यद्रव्योपयोगी संकाश श्रावक एवं चैत्यवासी देवसाधु की तरह अनन्तकाल तक भव-भ्रमण करना पड़ेगा । अतः भव्य श्रद्धालुओं को जिन गृहों में थूकना, ताम्बूल खाना, विकथा करना, आसनपाट पर बैठना, सोना, खाना-पीना, हंसी मजाक करना, स्त्रियों के साथ नर्मालाप करना, देवद्रव्य का स्वयं के कार्यों में उपभोग करना, रात्रि में नाच-गान करवाना आदि निषिद्ध क्रियाओं का तथा आशातनाओं त्याग का कर शास्त्रोक्त पूजा-अर्चनादि करनी चाहिये जिससे कि कल्याण हो । कृति के उत्तरार्द्ध भाग (पद्य ३७-७० ) में कवि का लेखन है कि — इस हुण्डावसर्पिणी काल में दशम आश्चर्य रूप असंयत पूजा और भस्म राशि ग्रह के प्रभाव से शास्त्रोक्त क्रिया एवं आचार का पालन करने वाले सुसाधुजन अत्यल्प होंगे और वेषधारी पार्श्वस्थ- कुशील आदिकों की बहुलता रहेगी। ये लोग जिनशासन और प्रवचन के लिये असमाधिकारक होंगे और स्वयं के लिये वे कलहकारी एवं डमरकारी होंगे। ये पार्श्वस्थ शास्त्रों की आड में मन्दिरो में निवास की उपयोगिता बताते हुए सिद्धान्त विपरीत आचरण करेंगे और समाज को भी उसी गढ्ढे में धकेलेंगे, इससे इनके भवभ्रमण की वृद्धि होगी । इस प्रकार चंत्यवासी शिथिलाचारियों की मान्यता और प्ररूपणा को शास्त्रविरुद्ध होने से त्याज्य, निन्द्य, गर्हणीय कहकर, मखौल उडाते हुये सुविहित धर्म की ओर भव्यों को आकृष्ट करने का प्रयत्न किया है। अन्त में श्रद्धालुओं को उपदेश देते हुये कहा है -- जिनेन्द्र भाषित श्र ेष्ठ अनुष्ठान जो तुम्हारे लिये शक्य है उसे पूर्णशक्ति एवं पराक्रम के साथ पालन करो और जो विशिष्ट धैर्य-संहनन आदि के कारण अशक्य है तो उसके प्रति हृदय में श्रद्धा एवं बहुमान रखो तथा शुद्ध प्ररूपणा करो, जिससे तुम्हें सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हो १२. अष्ट सप्तति : चित्रकूटीय वीर चैत्य-प्रशस्ति इस कृति में कुल ७८ पद्य होने से इसका नाम आचार्यश्री ने स्वप्रणीत षडशीति, सार्द्धशतक, स्वप्नसप्तति, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक आदि ग्रन्थों के समान ही अष्टसप्तति रखा है या प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है । प्राप्त ग्रन्थ की पुष्पिका में 'प्रशस्तिजिनवल्लभीति' लिखा है। एवं श्री जिन पालोपाध्याय ने भी 'चर्चरी' पद्य ४ की टीका में, जिनवल्लभ प्रणीत ग्रन्थनामों में 'प्रशस्तिप्रभृतिकम्' का उल्लेख किया है । आचार्य श्रीजिनपतिसूरिने चित्रकूट में नवनिर्मापित महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा से सम्बद्ध प्रशस्ति होने से इसका नाम 'चित्रकूट- वीर चैत्यप्रशस्ति' माना है: १०२ ] [ वल्लभ-भारती Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अतएव लिङ्गिपरिगृहीतचैत्यानां युगप्रवर- जिनवल्लभसूरिदेशनावशादनायतनत्वं निर्णीय श्रीचित्रकूटे प्रभुभक्त श्रावकैः श्रीमहावीरजिननिकेतनं विधिचैत्यं विधिपथप्रचिकापिया निर्मायाम्बभूवे । तथा चैतदर्थ सत्यापिका तत्वत्या प्रशस्तिः ।" [ संघपट्टक पद्य ३३ की टीका ] यह प्रशस्ति शिलापट्ट पर उत्कीर्ण कर वि० सं० ११६३ में चित्तौड़ में नवनिर्मापित महावीर विधि चैत्य में लगाई गई थी । देव दुर्विपाक से चित्तौड़ में न तो आज महावीर चैत्य ध्वंसावशेष ही प्राप्त हैं और न शिलापट्ट के अवशेष ही । शिलापट्ट नष्ट होने से पूर्व ही किसी अज्ञात नामा इतिहास और साहित्यप्रिय विद्वान् ने इसकी प्रतिलिपि की थी, वही एक मात्र प्रति के रूप में, लालभाई दलपत भाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद में उपलब्ध है । यह कोई ग्रन्थ होता तो, कहीं न कहीं भंडारों में इसकी अन्य प्रतियां अवश्य प्राप्त होतीं, किन्तु मन्दिर की प्रशस्ति होने के कारण अन्य प्रति की संभावना नहीं के समान है । प्रशस्ति का सार - इस प्रशस्ति के आरम्भ में कवि ने त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश), महावीर, आदिनाथ, पार्श्वनाथ और सरस्वती देवी को नमस्कार किया है ( पद्य १-५ ) 1 परमारवंशीय महाराजा भोज (पद्य ६-१४), मालव्यभूरुद्धारक उदयादित्य (पद्य १५-२० ) और चित्रकूटाधिपति नरवमं ( पद्य २१ - २८ ) का यशोगान एवं मेदपाट देश की राजधानी चित्रकूट ( पद्य २ - ३५ ) की शोभाश्री का सालंकारिक सुन्दरतम वर्णन करते हुये तत्रस्थ अम्ब, केहिल आदि श्र ेष्ठियों का ( पद्य ३६- ३८ ) उल्लेख किया है । चन्द्रकुलीय वर्द्ध मानसूरि के विष्य जिनेश्वरसूरि (पद्य ३१ - ४४ ) और नवाङ्गी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ( पद्य ४५ - ५१ ) के प्रशस्य गुणों का कीर्त्तन करते हुए (पद्य ५२ से ६४ में ) कवि ने अपनी संक्षिप्त आत्मकथा और चित्तौड़ में स्वप्रतिबोधित श्रेष्ठियों के नामों का आलेखन किया है। पद्य ६५ से ७२ में अनेक जिन मन्दिरों से मण्डित चित्रकूट में नवीन विधि चैत्य के निर्माण का उद्देश्य, निर्माण कार्य में विघ्न, तथा कार्य की समाप्ति, महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा और उपासकों की धार्मिक प्रवृत्ति का उल्लेख करते हुये नृपति नरवर्म द्वारा प्रति रवि-संक्रान्ति पर पारुत्थ-द्वय देने का संकेत किया है । पद्य ७३-७४ में विधिपक्षीय चन्यों की मान्यता के आदेश हैं और पद्य ७६-७८ तक कवि ने अपना नाम और प्रशस्ति का रचनाकाल १९६३ देते हुये प्रशस्ति टंकनकार सूत्रधार रामदेव का नाम दिया है । कवि ने इस प्रशस्ति में मात्रिक छन्दो में आर्या (३, २३, ३६, ३६, ७३ ), उपगीति (१६) और वर्णिक छन्दों में अनुष्टुप् (८, ५४, ५६, ५७), इन्द्रवज्रा (६४), इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रोपजाति के भेदो में - प्रेमा (२१, २५), आर्द्रा (६१), शाला (६२), बाला (६३) -, वंशस्थविला (१), वसन्ततिलका (४, २६, ४०, ५२, ६५), मालिनी ( ६९, ७४), पृथ्वी ( ३३, ४५), शिखरिणी ( ६ ), मन्दाक्रान्ता (३१), हरिणी (६, २७), शार्दूलविक्रीडित ( २, ११, १३, १४, १५, १७, १९, २०, २४, ३०, ३५, ४२, ४३, ४४, ४८, ५०, ५५, ५८, ६०, ६६, वल्लभ-भारती ] [ १०३ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७, ७०, ७१, ७२, ७५, ७६, ७८), स्रग्धरा ( ५, ७, १०, १२, १८, २२, २६, २८, ३२, ३४, ३७, ३८, ४१, ४६, ४७, ४६, ५१, ५३, ५६, ६८, ७७ ) का प्रयोग किया है । आचार्य जिनवल्लभसूरि वि० सं० १९६७ में चित्तौड़ में आचार्य पदारूढ़ हुए और ११६७ में ही चित्तौड़ में उनका स्वर्गवास हुआ। स्वर्गारोहण के ४ वर्ष पूर्व ही अर्थात् ११६३ में उन्होंने इस प्रशस्ति की रचना की । रचना में प्रौढ़ता, प्राञ्जलता लाक्षणिकता, चित्रात्मकता आदि काव्य के समस्त गुण पद-पद पर प्राप्त होते हैं । कवि का चित्रकाव्य प्र ेम भी पद्य ७६ पर द्रष्टव्य है । वैशिष्ट्य - वि० सं० १९६३ में चित्रकूट पर परमारवंशीय महाराजा नरवर्मा का आधिपत्य, तत्कालीन चित्तौड़ के विधिपक्षीय प्रमुख श्रेष्ठि, और कवि जिनवल्लभ को स्वलेखिनी से अति आत्मकथा आदि होने से इस प्रशस्ति का ऐतिहासिक सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है | आत्मकथा का ऐतिहासिक सारांश पूर्व परिच्छेद- जीवन-चरित्र में दिया जा चुका है। इस प्रशस्ति की रचना मेदपाट देश (मेवाड़) की राजधानी चित्रकूट (चित्तौड़) परमार वंशी महाराजा श्री नरवर्मा के राज्यकाल में हुई है । महाराजा नरवर्मा का परिचय देते हुये कवि ने उनके पूर्वज विश्व प्रसिद्ध धाराधीन भोजनृपति का और महाराजा उदयादित्य का भी कीर्तिगान किया है। महाराजा भोज का यशोगान करते हुये कवि कहता है किवाग्देवता ने वेदाभ्यास से कुण्ठित बुद्धि वाले पुराण- पुरुष ब्रह्मा का त्याग कर भोज का वरण कर लिया है । यही कारण है कि भोज ने स्रष्टा के समान ही तर्क, व्याकरण, इतिहास, गणित आदि संस्कृति के प्रधान वाङ्मयों की रचना की है। कवि ने उदयादित्य के लिये 'महावराहवपुषा' विशेषण का प्रयोग करते हुये उसे मालव्यभूमि का उद्धारक बतलाया है। ऐसा प्रतीत होता है कि महाराजा भोज के पश्चात् मालव प्रदेश पर गुजरात के भीम और चेदि के कर्ण ने अधिकार कर लिया होगा । उस समय आदिवराह के समान ही उदयादित्य ने विपक्षी नरेगों के चंगुल से छुड़ाकर मालवा पर पुनः अधिकार किया होगा । कवि ने नरवर्मा' को प्रबल प्रतापी दुर्धर्ष योद्धा, बुद्धिमान, धर्मप्रेमी, महानीतिज्ञ और समर विजयी कहा है। इससे यह स्पष्ट है कि मेवाड़ पर नरवर्मा ने ही अधिकार किया था । १. कोटा स्टेट म्युजियम में नरवर्म राज्य काल के दो मूर्तिलेख प्राप्त हैं १. ६० ।। संवत् १९६५ ज्येष्ठ सुदी ६ पंडित श्री मल्लोकनन्दि धात्रेण सुभंकर पुत्रेण सौवारिक सहदेवेन कम्यनिमित्तेन कारायितं । श्री नरवर्मदेवराज्ये २. श्री नरवर्म्मदेवराज्ये संवत १९८० (?) झापाढ वदि १ अग्रवालान्वय साधु जिनपालसुत यमदेवः पु'"""""•••••• १०४ ] [ वल्लभ-भारती Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. शृङ्गार-शतम् कवि की साहित्यिक कृतियों में शृङ्गार शतक का विशिष्ट स्थान है। उपाध्याय जिनपाल और सुमति गणि ने इस शतक का प्रबन्ध काव्य के रूप में उल्लेख किया है । अद्यावधि यह कृति अप्राप्य ही थी किन्तु अनुसंधान और खोज करते हुए, सन् १९५४ में कोटा से बम्बई का पैदल प्रवास करते हुए श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञान भंडार इन्दौर में सं० १५०७ की लिखित एकमात्र प्रति मुझे प्राप्त हुई। इस प्रति में कतिपय लेखन-त्रुटियां हैं, तो कतिपय स्थानों पर पद्यों की पंक्तियां ही गायब हैं । अस्तु कवि की यह रचना आचार्य अभयदेव के पास उपसम्पदा ग्रहण करने के पूर्व की है। 'तत्काव्यदीक्षागुरु' वाक्योल्लेख से स्पष्ट है कि कूर्चपुरीय आचार्य जिनेश्वर की ओर इनका संकेत है । उ० जिनपाल और सुमति गणि ने भी स्वीकार किया है कि व्याकरण, साहित्य, अलंकार, छंद, न्याय, दर्शन, आदि का अध्ययन और दीक्षा आचार्य जिनेश्वर से ही कवि ने प्राप्त की थी और जैनागमों का अभ्यास तथा उपसम्पदा आचार्य अभयदेव से ग्रहण की थी। कवि ने भरत का नाट्यशास्त्र और कामतन्त्र का अध्ययन कर इस शतक की रचना की है। इस शतक में कूल १२१ पद्य हैं। वियोगिनी. अनूष्ट्रप, बसन्ततिलका, मालिनी, मन्दा क्रान्ता, हरिणी, शिखरिणी पृथ्वी, शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा आदि छन्दों का प्रयोग कवि • ने स्वतन्त्रता से किया है । अलंकारों का प्रयोग भी इसमें सुन्दर ढंग से हुआ है। प्रथम पद्य में कवि ने जगदीश्वर की स्तुति की है। द्वितीय पद्य में सरस्वती और तीय पद्य में कवि-वाणी की प्रशंसा है। पद्य ४, ५, ६, ७, में सज्जन-दुर्जन का उल्लेख है ओर पद्य ८ से ११६ तक भाव, विभाव, अनुभाव, संचारीभाव, स्थायीभावों के साथ लीलाविलसित नायिका के अंगोपांगों का तथा संभोग शृङ्गार का उत्कट स्वरूप वर्णित किया है; जो पठनीय है । पद्य १२० और १२१ में रचना का कारण और पूर्व कवि तथा उनके ग्रन्थों का उपजीव्य हूँ कहकर स्वनामोल्लेख किया है । इसका विशेष वर्णन कवि-प्रतिभा में द्रष्टव्य है। १५-२०. चरित्र-षटक इस चरित्र षट्क में—१. आदिनाथ, २. शान्तिनाथ, ३. नेमिनाथ, ४. पार्श्वनाथ और ५., ६. महावीर देव-इन छ चरित्रों का संक्षिप्त समावेश है। इसमें पद्यों की संख्या क्रमशः इस प्रकार है-२५, ३३, १५, १५, ४४ और १५ । ये छहों चरित्र प्राकृत भाषा में हैं और सभी चरित्रों में कवि ने आर्या छन्द का ही प्रयोग किया है। केवल ५वें महावीर-चरित्र में प्रथम पद्य मालिनी वृत्त और अन्तिम पद्य शार्दूलविक्रीडित वृत्त में है। चरित्रों में घटना बाहुल्य होने के कारण अलंकारों का समावेश इनमें नहीं के समान ही है किन्तु विशेषणों में कहीं-कहीं रूपक और उपमा अलंकार अवश्य ही प्राप्त हो जाते है। छहों चरित्रों का सारांश इस प्रकारहै। बल्लभ-भारती ] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रों को सामान्य घटनायें १३ भवसंख्या च्यवनस्थान च्यवनस्थान स्थिति च्यवनतिथि च्यवननक्षत्र १४ स्वप्न गर्भपरिवर्तन तिथि गर्भपरिवर्तन नक्षत्र जन्मभूमि जन्मतिथि जन्मनक्षत्र राशि पितृनाम मेष मातृनाम वंशनाम गौत्र शरीरवर्ण शरीरपरिमाण लाञ्छन कुमारकाल राज्यकाल आदिनाथ शान्तिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ महावीर महावीर १२ । । १० । २७ सर्वार्थसिद्ध | सर्वार्थसिद्ध | अपराजित | प्रारणत प्रागत प्रारणत ३३ साग- ३३ साग- ३२ भाग- २० साग- । २० सागरोपम रोपम रोपम रोपम रोपम आषा कृ.४ भा.कृ.७ का.क १२ आषा. शु.६ | प्रा.शु.६ उत्तराषाढा भरणी चित्रा विशाखा उत्तराफाल्गुनी प्रथम वृषभ| प्रथम गज | प्रथम गज | प्रथम गज [ प्रथम सिंह वि. अरिष्टचक्र प्राश्विन कृ १३/प्राश्विन कृ.१३ उत्तराफाल्गुनी इक्ष्वाकु, | हस्तिनागपुर सौरिपुर | बनारस | क्षत्रियकुण्ड विनीता चै.कृ.८ ज्ये.कृ.१३ | श्रा.शु.५ पौ कृ.१३ | चै.शु १३ | चै शु.१३ उत्तराषाढा| भरणी चित्रा विशाखा उत्तराफाल्गुनी धनु कन्या तुला कन्या नाभि विश्वसेन | समुद्रविजय | अश्वसेन सिद्धार्थ | सिद्धार्थ (ऋषभदत्त) | (ऋषभदत्त) मरुदेवी अचिरा शिवा वामा त्रिशला त्रिशला (देवानंदा) I (देवानंदा) इक्ष्वाकु इक्ष्वाकु हरिवंश इक्ष्वाकु इक्ष्वाकु काश्यप काश्यप गौतम काश्यप ज्ञान सुवर्णवर्ण | सुवर्णवर्ण कृष्णवर्ग नीलवर्ण सुवर्णवर्ण ५०० धनुष | ४० धनुष | १० धनुष | हाथ ७ हाथ वृषभ मृग शंख सर्प सिंह २० लाख पूर्व २५ हजार वर्ष ३०० वर्ष | ३० वर्ष | ३० वर्ष ३० वर्ष ६३ लाख पूर्व २५ हजार ४ वर्ष मंडलीक और २५ हजार वर्ष चक्रवर्तीराज्य दो उपवास दो उपवास | दो उपवास | ३ उपवास | २ उपवास चै कृ.८ ज्य.कृ.१४ | श्रा. शु. पौ.क.११ | मार्ग कृ.१०] मार्ग. कृ.१० उत्तराषाढा भरणी चित्रा | विशाखा . त्तराफाल्गुनी ४००० १००० १००० ३०० एकाकी सुदंसरणा सर्वार्थ उत्तरकुर विशाला चन्द्रप्रभा सिद्धार्थ सहसाम्र रेवतगिनि पाश्रम ज्ञातखंडवन सहसाम्र जनपद अशोक अशोक अशोक अशोक अशोक श्रेयांसकुमार सुमित्र वरदिन्न बल गजपुर द्वारिका कोयगडपुर कोल्लागसन्निवेश | इक्षुरस क्षीर | क्षीर क्षीर क्षीर दीक्षा-तप दीक्षा-तिथि दीक्षा-नक्षत्र दीक्षा-परिवार दीक्षा-शिविका दीक्षा-वन धन्य दीक्षा-वृक्ष प्रथम पारणक पारणक नगरी पारणक भोज्य १०६ ] [ वल्लभ-भारती Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छद्मस्थकाल ज्ञाननगरी प्रादिनाथ शान्तिनाथ नेमिनाथ पाश्वनाथ महावीर महावीर | १००० वर्ष | १ वर्ष | ५४ दिवस | ८४ दिवस १२३वर्ष१पक्ष १२१वर्ष१पक्ष पुरिमताल; हस्तिनापुर | गिरिनार | बनारस जम्भिकानगरी प्रयागः ऋजुवालुका शकटमुख । | सहसान नदीतट बट नन्दि वेतस धात्री ज्ञान वन केवलज्ञान-वृक्ष साल चित्रा ३६ ३६ ९००० २०००० केवलज्ञान-तप ३ उपवास २ उपवास | ३ उपवास | ३ उपवास | २ उपवास केवलज्ञान-तिथि फा.कृ.११ प्रा.कृ.१५ | चै.कृ.४ | वै.शु.१० | वै.शु.१० के बलज्ञान-नक्षत्र उत्तराषाढा| भरणी विशाखा उत्तराफाल्गुनी महाव्रत गणधर संख्या १८ गरण संख्या साधु संख्या ८४ हजार ६२ हजार १८००० १६०० १४००० साध्वी सख्या ३०००००। ६१६०० ४०००० ३८००० श्रावक संख्या ३०५००० १६०००० | १६६००० १६४००० १५६००० धाविका संख्या ५५४००० ३३६००० । ३३६००० ३१८००० १४ पूर्वी संख्या ४७५० ८०० ४०० ७५० ३०० अवधिज्ञानी संख्या ३००० १५०० ३००० १३०० केवलज्ञानी संख्या ४३०० १५०० १००० ७०० वैक्रियलब्धि धारी संख्या २०६०० ६००० १५०० ११०० वादी सख्या १२६५० २४०० ६०० मनपर्यवी संख्या । १२६५० १००० ७५० अनुत्तरोपपातिक गमनवासी संख्या १६०० १२०० ८०० प्रमुख उपासक भरत [चक्रायुध] , कृष्ण अश्वसेन श्रेणिक गोमुख] | कन्दर्प(गरड) गोमेध] [पार्श्व] | मातंग यक्षिणी । [चक्रेश्वरी]] [निर्वाणी] | [अम्बिका] [[पद्मावती]] सिद्धायिका श्रमणधर्म पर्याय १ लाख पूर्व २५ हजार वर्ष ७०० वर्ष | ७० वर्ष । ४२ वर्ष आयुष्य ८४ लाख पूर्व १ लाख वर्ष १००० वर्ष | १०० वर्ष | ७२ वर्ष मोक्षपरिवार १०००० । १०० एकाकी मोक्ष मलेखना ६ उपवास | एकमास एकमास |एकमास २ उपवास निर्वाण तिथि माघ कृ.१३] ज्य.क.१३ ग्राषाढ शु. श्रा.शु.८ का.कृ.१५ | का.कृ.१५ निर्वाण नक्षत्र प्रभीची भरणी विशाखा | स्वाति निर्वाण स्थान अष्टापद सम्मेतशिखर] गिरनार सम्मेतशिखर मध्यपापा (पावापुरी) यक्ष चित्रा वल्लभ-भारती ] [ १०७ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवसंख्या १. ४. ६. ७. नाम धन महाबल वज्रजंध अपर विदेह पूर्वविदेह उत्तरकुरु द्वादशम जीवानंद विजय वज्रनाभ चक्री अष्टम विजय विनीता युगलिक वैद्य ११. १३. आदिनाथ १. श्रीषेण ३. युगलिक ४. खेचरेन्द्रअमिततेज ६. अपराजित ८. वज्रायुध चक्री १०. मेघरथ १. धनकुमार २. चित्रगति ५. अपराजित tor | ७. शंखकुमार ६. नेमिनाथ १. मरुभूति २. हस्ति ४. किरणवेग भगवान् श्रादिनाथ के तेरह भव नगरी भवसंख्या देवलोक २. उत्तरकुरु ३. सौधर्म श्रीप्रभविमान सौधर्म अच्युत सर्वार्थसिद्ध सिंहपुर हस्तिनापुर ५. ६. वज्रनाभ ८. चक्री सुवर्णबाहु पुराणपुर 5. १०. भगवान् शान्तिनाथ के १२ भव रत्नपुर उत्तरकुरु रथनपुर चक्रवाल सुभगापुरी रत्नसंचया पुण्डरीकि १२. ३. सौधर्म ५. 13. ε. ११. १२. भगवान नेमिनाथ के ६ भव अचलपुर सूरतेजनगर २. ४. ६. ८. प्राणत अच्युत ३. ५. ७ ह. १०. भगवान् पार्श्वनाथ के १० भव पोतनपुर विन्ध्याटवी तिलकानगरी शुभंकरानगरी सौधर्म माहेन्द्र आरण्य अपराजित अष्टम देवलोक अच्युत 'ग्रैवेयक नाम युगलिक देव नवमग्रैवेयक देव सर्वार्थसिद्ध देव शान्तिनाथ प्राणत पार्श्वनाथ ललिताङ्ग देव देव देव "" इन्द्र "1 देव "" 17 देव देव "1 " [ वल्लभ-भारती Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव भगवान् महावीर के २७ भव १. नयसार कणवारी, प्रतिष्ठान | २. प्रथम देवलोक ३. मरीचि, भरतपुत्र अयोध्या | ४. पंचम देवलोक ब्राह्मण देवलोक ११. " १३. १५. १८. • २०. १७. विश्वभूति राजगृही १६. त्रिपृष्ठ वासुदेब पोतनपुर २१. सिंह २३. प्रियमित्र चक्रवर्ती मूकानगरी २५. नन्दन छत्राग्रापुरी २७. महावीर देव २२. २४. २६. सप्तम नरक चतुर्थ नरक सप्तम देवलोक देव दसम देवलोक देव प्रत्येक चरित्र को पृथक्-पृथक् विशेषतायें: आदिनाथ चरित्रः-प्रथम और द्वितीय पद्य में भगवान् आदिनाथ को नमस्कार कर 'चरित' कहने की कवि प्रतिज्ञा करता है और अन्तिम २५ वें पद्य में कवि अपना नाम देता हुआ परमपद प्राप्ति की अभिलाषा प्रकट करता है। तृतीय पद्य में पूर्वभव के वर्णन में धन नामक सार्थवाह मुनि को दान देने के प्रताप से सम्यक्त्व (बोधिलाभ) प्राप्त करता है। पांचवें पद्य में साधु की चिकित्सा से वह 'चक्रवर्ती नाम कर्म उपार्जन करता है। छठे पद्य में वोसस्थानक सेवन से तीर्थंकर नाम कर्म उपाजित करता है और १२ वें पद्य में इक्ष्वाकुवंश की उत्पत्ति का कारण बताया है । शान्तिनाथ चरित्र:-प्रथम और द्वित्तीय पद्य में १६ वें तीर्थंकर और पंचम चक्रवर्ती भगवान् शान्तिनाथ को नमस्कार कर शान्तिनाथ का संक्षेप में जीवन चरित कहने की प्रतिज्ञा है और अन्तिम पद्य में मोक्षपद की याचना की गई है। १२ वें पद्य में 'गुप्तगर्भ' का उल्लेख है और पद्य १७ से २२ तक में चक्रवर्ति ऋद्धि का उल्लेख इस प्रकार किया गया है : १. वीसस्थानक निम्नलिखित हैं -अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, प्राचार्य, स्थविर, उपाध्याय, साधु, ज्ञान, दर्शन, विनय, चारित्र, ब्रह्मचर्य, क्रिया, तप, सुपात्रदान, वैयावृत्त्य, समाधि, अपूर्वज्ञानग्रहण, श्रुतभक्ति, प्रवचनप्रभावना। वल्लभ-भारती ] [ १०६ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवाह खेटक निधान यक्ष राजा रानी ग्राम सेना [पैदल] हाथी घोड़ा १६००० ३२००० ६४००० १६००००००० १६००00000 ८४००००० ८४००००० ८४00000 आगर पुर द्रोणमुख मडंब कब्बड पतन रत्न १४००० १६००० २०००० ७२००० 88000 ८४000 ८४००० १६८००० १४ नाटक नेमिनाथ चरित्रः-प्रथम पद्य में भगवान् नेमिनाथ को नमस्कार कर उनका संक्षेप में जीवन चरित्र कहने की कवि प्रतिज्ञा करता है और अन्तिम १५ वें पद्य में कल्याण की अभिलाषा करता है । चौथे पद्य में यदुवंशीय नेमिनाथ द्वारा राजीमती'' को त्याग कर दीक्षा ग्रहण किये जाने का उल्लेख पार्श्वनाथ चरित्रः-जिनके मस्तक पर सराज की फणायें रक्षक की तरह सुशोभित हो रही हैं उन पार्श्वनाथ को नमस्कार करके चरित्र का प्रारंभ होता है। पांचवें पद्य में कमठ नामक तापस को प्रतिबोध देने का उल्लेख सामान्य घटनाओं के साथ-साथ किया गया है। ___ महावीर चरित्रः-प्रथम पद्य में पापरूपी रेणु का नाश करने में वायु सदृश, मोहरूपी कर्दम का क्षालन करने में जल सदृश, कामदेव पर विजय प्राप्त करने वाले जिनेश्वर महावीर को नमस्कार करके उन्हीं का संझेप्न जोवन-वृत कहने की कवि प्रतिज्ञा करता है और अन्तिम पद्य में पुण्यानुबंधिपुण्य प्रदान करने के लिये जिनदेव के चरणों में अञ्जलि प्रस्तुत की गई है। तृतीय पद्य में बतलाया गया है कि भगवान् आदिनाथ के मुख से अपने गौरवमय भविष्य का समाचार पाकर गर्वोत्कुल्ल होने से, मरीचि ने एक कोटाकोटि सागरोपम की भव-वृद्धि किस प्रकार उपार्जित की। इसी कारण कवि ११ वें से. १३ वें पद्य में कहता है कि इस अशुभ बंधन के कारण ही महावीर का जीव ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। ८२ दिवस व्यतीत होने पर इन्द्र की आज्ञा से हरिनैगमेषि नामक देव ने गर्भ परिवर्तन कर ज्ञातवंशीय सिद्धार्थ की पत्नी तथा महाराजा चेटक की भगिनी त्रिशला की कुक्षि में संचार किया । ७ वें पद्य में नन्दन राजपि के भव में प्रव्रज्या ग्रहण करने पर एक लाख वर्ष पर्यन्त चारित्र का आपने पालन किया था। इस अवधि में आपने सर्वदा मास-क्षमण की तपस्या की थी। १५ वें और १६ व पद्य में कवि नामकरण का रहस्य बतलाता है । वह कहता है कि आपके उत्पन्न होने से ज्ञात कुल में धन, धान्य आदि समग्रवस्तुओं की वृद्धि हुई इसीलिये १. भोजवंशीय महाराजा उग्रसेन की पुत्री। ११० [ वल्लभ-भारती Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात-पिता ने वर्धमान और जन्मोत्सव के समय आपके माहात्म्य को देखकर इन्द्रादि देवताओं ने आपका महावीर नाम रक्खा। - प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् महावीर को जो जो प्रमुख उपसर्ग हुए और आपने कष्टदाताओं के प्रति जो प्रेम भाव रखा तथा कष्टों पर जिस अनुपम आत्मिक बल से विजय प्राप्त की उस सब का वर्णन २१ वें से २६ वें पद्य तक किया गया है । इन उपसर्गों में १. कुमार ग्राम के बाहर गोपालक, २. तरुण, तरुणियों, भमरों आदि, ३. शूलपाणी यक्ष, ४. चण्डकौशिक सर्प तथा ५. संगम देव द्वारा किये गये उपपर्गों के अतिरिवत एक रात्रि में २० प्रकार के अन्य भयङ्कर उपसर्ग तथा गोप द्वारा उनके कानों में कांसे की शलाका डालने की घटना का समावेश किया गया है पद्य २७ से ३० तक भगवान ने उग्र तपश्चर्या का वर्णन किया गया है जिसके अनुसार १ छमासी, ६ चातुर्मासी, ३ तोन पासी. ६ दो मासी, १२ एक मासी, ७२ अर्धमासी, २ अढीमासी, भद्रप्रतिमा, महाभद्रप्रतिमा, और सर्वतोभद्रप्रतिमा ( जो आपने एक साथ ही की थीं), १२ तीन अहोरात्रि प्रति पा तथा ५ मास २५ दिवस की तपस्या (जिसका पारणक चम्पानगरीय दधिवाहन की पुत्री च दनबाला के हाथ से कौशाम्बी में हुआ था) को लेकर भगवान की १२ वर्ष ६ मास एक पल की उस दीर्घ तपस्या का वर्णन किया गया है जिसमें आपने केवल २४८ दिवस ही भोजन ग्रहण किया था। ३२ वें से ३३ वें पद्य तक केवलान प्राप्ति के अनन्तर तथा प्रथम देशना निष्फल होने पर उसी रात्रि को १२ योजन विहार रके पावापुरी नगरी के महसेन उद्यान में भगवान् के पधारने तथा चतुर्विध संघ की स्थापना का उल्लेख है। __ पद्य ३६ और ४० में भगवान् की प्रशंसा करता हुआ, भवितव्यता वश गोशालक द्वारा होने वाले उपसर्ग का वर्णन किया गय है। यहीं भगवान् की परोपकारिता का उल्लेख करते हुए विप्र ऋषभदत्त और देवानन्दाको मुक्तिप्रदान करने का भी उल्लेख है। ___वीर चरितः- इस चरित्र में ८ ११ तक के केवल चार पद्य ही बड़े महत्त्व के हैं जिनमें कवि ने कर्म की विचित्र गति का सुन्दर चित्र दिखाया है: - देवेन्द्र स्तुत त्रिजगत्प्रभ तथा त्रिभान के अनन्यमल्ल होने पर भी आपको मरीचि के भव में उपाजित पाप का लवलेश रहने के कारण गोपादि से अनेक प्रकार की कदर्थना सहन करनी पडी। आह ! कर्मगति विचित्र है कि स्त्री. गाय, ब्राह्मण तथा बालक की हत्या और महापाप करने वाले दृढप्रहारी आदि पुर प तो उसी भव में सिद्ध हो गये किन्तु आपको १२।। वर्ष एक पक्ष तक कष्ट सहन करने के पश्चात् ही कैवल्य पद प्राप्त हुआ। सामान्य-प्रसंग तीर्थंकर के भव से तीसरे पूर्वभव में वीस स्थानक तप की आराधना करना, कुक्षि में उत्पन्न होने पर माता द्वारा १४ स्वप्न देखना और उसी दिवस से घर में समग्र वस्तुओं की वृद्धि होना, जन्म होने पर ५६ दिक्कुमारियों और ६४ इन्द्रों द्वारा मेरु पर्वत पर जन्मोत्सव मनाना, जन्म से ही तीन ज्ञान संयुक्त होना, प्रव्रज्या पूर्व लोकान्तिक देवों द्वारा बोध प्राप्त वल्लभ-भारती ] [ १११ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना, वर्षीदान देना तथा दीक्षा पश्चात् देवदूष्य वस्त्र धारण करना आदि समग्र कृत्य तीर्थंकरों के लिये होते ही हैं। अतः उनका वर्णन सभी चरित्रों में किया गया हैं । २१. चतुर्विंशति जिन-स्तोत्राणि इसमें कवि ने प्रत्येक तीर्थंकर के जीवन के १५ प्रसंगों का उल्लेख बड़ी सफलतापूर्वक किया है । पद्यों की कुल संख्या १४५ है; जिसमें अन्तिम पद्य कविनाम गर्भित उपसंहार का है । इसकी भाषा प्राकृत और छन्द आर्या है । वस्तुतः चरित्र षट्कान्तर्गत ६३ प्रसंगों और इस स्तोत्र के अन्तर्गत विषयों का आश्रय लेकर परवर्ती कवियों ने 'सप्ततिशतस्थानक प्रकरण' आदि ग्रन्थों की रचना की है। श्वेताम्बर जैन - साहित्य में इस प्रकार की तथा पंचकल्याणका गर्भित स्तोत्रादि कृतियों के प्रादुर्भाव कह श्रय सर्वप्रथम आचार्य जिनवल्लभ को ही है । इस स्तोत्र में वर्णित विषय को निम्नलिखित ढंग से दिखाया जा सकता है: क्रमाङ्क १. २ ३. ४. ५. ६. ७. ८. ε. १०. ११. १२. १३. २४. १५. १६. १७. १५. १६. २०. २१. २२. २३. २४. ११२ ] श्री आदिनाथ ======= " SARRRARARR n " P 97 " 7 तीर्थङ्कर नाम " अजितनाथ संभवनाथ अभिनन्दन सुमतिनाथ पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ सुविधिनाथ शीतलनाथ श्रेयांसनाथ वासुपूज्य विमलनाथ अनन्तनाथ धर्मनाथ शान्तिनाथ कुन्थुनाथ अरनाथ मल्लिनाथ मुनिसुव्रत नमिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ महावीर च्यवन स्थान सर्वार्थसिद्ध विजय सप्तम ग्रैवेयक जयन्त जयन्त नवम ग्रैवेयक षष्ठ वैवेयक वैजयन्त प्रारणत प्राणत अच्युत प्रारणत सहस्रार प्रारपत विजय सर्वार्थसिद्ध जयन्त अपराजित प्रारणत अपराजित प्रारणत प्राणत च्यवन तिथि आषाढ कृ० ४ वैशाख शु० १३ फाल्गुन शु० प वै० शु० ४ श्रा० शु० २ माघ कृ० ६ भा० कृ० ८ चै० कृ० ५ फा० कृ० ह वै० कृ० ६ ज्ये ० कृ० ६ ज्ये० शु० ६ वै० शु० १२ श्रा० कृ० ७ वै० शु० ७ भा० कृ० ७ श्रा० कृ० १ फा० शु० २ फा० शु० ४ श्रा० शु० १५ आश्विन शु० १५ का० कृ० १२ चै० कृ० ४ आषाढ शु० ६ जन्म भूमि विनीता 21 श्रावस्ती विनीता कोशल कौशाम्बी वाराणसी चन्द्रपुरी काकंदी भद्दिलपुर सिंहपुरी चम्पापुरी कम्पिलपुर अयोध्या रत्नपुरी हस्तिनापुर 19 मिथिला राजग्रही मिथिला शौरीपुर वाराणसी क्षत्रियकुण्ड [ वल्लभ-भारती Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ॥ " (श्रावस्ती) १८ ॥ सिंह ६ महीने ६ महीने जन्मतिथि शरीरवर्ण राशि दीक्षातप दीक्षापरिवार छद्मस्थकाल ज्ञाननगरी चै० कृ०८ स्वर्णवर्ण | धनु । दो उपवास | ४००० [१००० वर्ष | पुरिमताल (प्रयाग) मा० शु०८ ॥ १००० | १२ वर्ष | सहसाम्रवन (अयोध्या) मार्गशीर्ष शु० १४ ॥ मिथुन | मा० शु०२ १००० " (अयोध्या) वै० शू०८ नित्यभक्त १००० , (कौशाम्बी) का० कृ०१२ रक्तवर्ण कन्या दो उपवास १००० " (वाराणसी) ज्ये० शु० ४ स्वर्णवर्ण तुला १००० " (चन्द्रपुरी) पौ० कृ० १२ श्वेतवर्ण वृश्चिक १००० " (काकंदी) मार्ग० कृ० ५ श्वेतवर्ण धनु १००० " (भद्दिलपुर) मा० कृ० १२ स्वर्णवर्ण १००० फा० कृ० १२ मकर विहारगृह(चम्पापुरी) फा० कृ० १२ रक्तवर्ण चतुर्थभक्त । ६०० सहसाम्रवन ,, (कम्पिलपुर) मा० शु०३ स्वर्णवर्ण मीन दो उपवास १००० २ , ,, (अयोध्या) वै० कृ० १३ मीन १००० वप्पगाए (रत्नपुरी) मा० शु० ३ १००० | सहसाम्रवन ज्ये० कृ०१३ मेष १००० ,, (हस्तिनापुर) वै० कृ० १४ १००० " (हस्तिनापुर) मार्ग० शु०१० मीन १००० " (हस्तिनापुर) मार्ग० शु० ११ नीलवर्ण ३ उपवास ३०० अहोरात्र , (मिथिला) ज्ये० कृ०८ कृष्णवर्ण मकर दो उपवास १००० ११ मास " (राजगृह) श्रा० कृ०८ स्वर्णवर्ण मेष १००० ६ मास ., (राजगृह) श्रा० शु० ५ कृष्णवर्ण मिथुन १००० ५४ दिवस पौ० कृ०१० नीलवर्ण तुला ३ उपवास ३०० ८४ दिवस | वाराणसी च० शु०१३ । स्वर्गवर्ण । कन्या । दो उपवास ' एकाकी १२३वर्ष१पक्ष ऋजुवालिका नदी سه » سه له مه " (सिंहपुरी) कर्क له سه له مه مه له " मेष " | गिरनार प्रायुष्य ८४ लाख पूर्व ज्ञानतिथि दीक्षा पर्याय फा० कृ० ११ ।१ लाख पूर्व पौ० शु०११ का० कृ०५ पौ० शु० १४ च० शु० ११ चै० शु० १५ फा० कृ०६ फा० कृ०७ का० शु०३ ५० हजार पूर्व पौ० कृ० १४ २५ हजार पूर्व मा० कृ० १५ मा० शु० २ पौ० शु०६ वै० कृ० १४ निर्वाणतिथि निर्वाणस्थान माघ कृ. १३ | प्रष्टापद चै० शु०५ सम्मेतशिखर चै० शु०५ वै० शु० ८ चै० शु०६ मार्ग० कृ०११ फा कृ०७ भा०कृ०७ भा० शु०६ वै० कृ० २ श्रा० कृ०३ प्रा० शु० १४ चम्पापुरी आ० कृ०७ सम्मेतशिखर चै० शु०५ वल्लभ-भारती ] [ ११३ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानतिथि पौ० शु० १५ पौ० शु०६ चै० शु० ३ का० शु०१२ मार्ग० शु०११ फा० कृ० १२ मार्ग० शु०११ आश्विन कृ०१५ चै० कृ०४ वै० शु०१० प्रायुष्य निर्वाणतिथि निर्वाणस्थान १० लाख वर्ष । ज्ये० श०५ | ज्ये० शु०५ । सम्मेतशिखर ज्ये० शु०१३ । ६५ हजार , वै० कृ०१ मार्ग शु० १० फा० शु० १२ ज्ये० कृ०६ वै० कृ १० प्रा० शु० ८ गिरनार सौ वर्ष श्रा० शु० ८ सम्मेत शिखर ७२ वर्ष का० कृ० १५ | पावापुरी २२. चतुर्विंशति-जिन-स्तुतयः स्तुति 'थुई' की परम्परानुसार प्रथम पद्य में नाम विशेष तीर्थकर की, द्वितीय पद्य में सामान्य जिनेश्वरों के गणों की ततीय पद्य में जिनागम-जिनवाणी की और चतर्थ पद्य में श्रु तदेवता या तीर्थंकर के शासन देवता की स्तवना की जाती है। इस मान्यता के अनुसार स्तुति-साहित्य के सर्वप्रथम सर्जकों में संस्कृत भाषा में रचना करने वाले महाकवि धनपाल के अनुज श्री शोभनमुनि और प्राकृत भाषा में गुम्फन करने वाले आचार्य जिनवल्लभ हैं । परवर्ती स्तुतिकार कवियों के प्रेरक ये दोनों आचार्य ही हैं। ६६ वें गाथा की 'चतुर्विंशति-जिन-स्तुतयः' नामक लघु कृति में ४-४ गाथाओं में प्रत्येक तीर्थङ्कर की स्तुति की गई है। इन २४ स्तुतियों में उक्त परम्परा का पालन तो किया ही गया है। साथ ही प्रत्येक स्तुति के प्रथम पद्य में तीर्थंकर-नाम के साथ, छह अन्य वर्ण्यविषयों का भी समावेश किया गया है, जो इन स्तुतियों का वैशिष्ट्य है। ये ६ वर्ण्य-विषय . निम्न हैं:-१. तीर्थंकर की माता का नाम, २. पिता का नाम, ३. लक्षण, ४. शरीर का देहमान, ५. जिस देवलोक से च्यूत होकर माता के गर्भ में आये उस देवलोक का नाम और ६. जिस नक्षत्र में देवलोक से च्यूत होकर माता के गर्भ में आये उस नक्षत्र का नामः तीर्थकरनाम मातृनाम पितृनाम लक्षण धनुष्काय देवलोक च्यवन नक्षत्र श्रुत देवता ऋषभ मरुदेवी नाभि वृषभ ५०० सर्वार्थसिद्ध उत्तराषाढा सरस्वती अजित विजया जितशत्रु ४५० विजय रोहिणी रोहिणी सम्भव सेना जितारि ४०० ग्रेवेयक मृगशिरा प्रज्ञप्ति अभिनन्दन सिद्धार्था संवर कपि ३५० जयन्त पुनर्वसु वज्रशृखला सुमति मङ्गला मेघ क्रोंच ३०० मघा वज्रांकुशी पद्मप्रभ सुसीमा धर कमल २५० ग्रैवेयक चित्रा अप्रतिचक्रा सुपार्श्व पृथिवी प्रतिष्ठ स्वस्तिक २०० विशाखा पुरुषदत्ता चन्द्रप्रभ लक्ष्मणा महसेन चन्द्र १५० वैजयन्त अनुराधा काली .. ११४ ] [ वल्लभ-भारती Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृढरथ ५ बिजय तीर्थकरनाम मातृनाम पितृनाम लक्षण धनुष्काय. देवलोक च्यवन नक्षत्र श्रुत देवता सुविधि रामा सुग्रीव मकर १०० आनत मूल महाकाली शीतल नन्दा श्रीवत्स ६० प्राणत पूर्वाषाढा गौरी श्रेयांस विष्णु . विष्णु गेण्डा ? अच्युत श्रवण गान्धारी वासुपूज्य जया वसुपूज्य महिष ७० प्रारणत शतभिषा सर्वास्त्रमहा ज्वाला विमल श्यामा कृतवर्म वराह ६० सहस्रार उत्तरभाद्रपद मानवी अनन्त सुयशा सिंहसेन श्येन ५० प्रारणत रेवती फरिणराजजाया? धर्म सुवता भानु वन अच्छुप्ता शान्ति प्रचिरा विश्वसेन हरिण ४०. सर्वार्थ कुन्थु श्री सूर छाग कृत्तिका महामानसी पर देवी सुदर्शन । नन्दावर्त शान्ति मल्लि प्रभावती कुम्भ कलश जयन्त अश्विनी ब्रह्मशान्ति मुनिसुव्रत पद्मावती सुमित्र प्रानत श्रवण अम्बा नमि . वप्रा विजय उत्पल प्राणत अश्विनी नेमि शिवा समुद्रविजय शंख १० अपराजित चित्रा प्रम्बा पार्श्व वामा अश्वसेन सर्प ६ हाथ प्राणत विशाखा सरस्वती बीर त्रिशला सिद्धार्थ सिंह हाथ प्राणत हस्तोत्तरा ? पुष्य भरणी मानसी ३० " रेवती ___ २३. सर्वजिनपन्चकल्यापाक-स्तोत्र - इस स्तोत्र में कवि ने २४ तीर्थंकरों के पांचों कल्याणकों के समय का वर्णन मासतिथि आदि पूर्वक २६ आर्याओं में किया है। जिसमें प्रथम पद्य में जिनेश्वर को नमस्कार करके चौवीस तीर्थंकर के प्रत्येक के च्यवन, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण का वर्णन कहने की प्रतिज्ञा की गई है और २ से २६ पद्यों तक मास, तिथि, तीर्थंकर-नाम और कल्याणक का उल्लेख करते हुए “यह पद प्रणतजनों (जिनवल्लभ) को प्राप्त हो" कहकर स्तोत्र पूर्ण किया गया है। स्तोत्र के विषयों का क्रमशः वर्गीकरण इस प्रकार है:कार्तिक कृष्णा ५ संभवनाथ केवलज्ञान पद्मप्रभ जन्म नेमिनाथ च्यवन पद्मप्रभ महावीर निर्वाण सुविधिनाथ केवलज्ञान अरनाथ मार्गशीर्ष कृष्णा सुविधिनाथ । जन्म दीक्षा दीक्षा शुक्ला वल्लभ भारती ] [ ११५ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशीर्ष कृष्णा पौष पौष माघ माघ " 19 " "" " " " "9 " 33 " 17 "7 19 "7 " 19 "? "7 " " 39 "" " " " " " " ११६] " शुक्ला " " "1 " " "1 37 कृष्णा 27 "" 17 " शुक्ला 27 2 : 77 " कृष्णा 99 19 " " शुक्ला " 17 " " 17 " 29 १० ११ १० ११ a ११ " " ?* १५ १० ११ १२ १३ ** ६ ह ११ १४ १५ ६ १२ १२ १३ १५ २ २ ३ ६ १२ १२ महावीर पद्मप्रभ अरनाथ " मल्लिनाथ मल्लिनाथ 31 नमिनाथ संभवनाथ " पार्श्वनाथ 23 चन्द्रप्रभ 17 शीतलनाथ विमलनाथ शान्तिनाथ अजितनाथ अभिनन्दन धर्मनाथ पद्मप्रभ शीतलनाथ 19 आदिनाथ श्रेयांसनाथ . अभिनन्दन वासुपूज्य धर्मनाथ विमलनाथ " अजितनाथ अभिनन्दन धर्मनाथ 1 दीक्षा निर्वाण जन्म निर्वाण दीक्षा जन्म दीक्षा केवलज्ञान " जन्म दीक्षा जन्म दीक्षा जन्म दीक्षा केवलज्ञान केवलज्ञान " " 19 च्यवन जन्म दीक्षा " निर्वाण केवलज्ञान "" जन्म केवलज्ञान "1 जन्म जन्म दीक्षा जन्म दीक्षा [ वल्लभ भारती Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन चैत्र 19 99 #7 " 37 77 31 17 31 २१ 11 "1 31 11 "1 11 " 11 " वैशाख 19 27 19 39 " 11 कृष्णा 11 19 17 1 カナ 21 71 71 19 शुक्ला 17 "1 77 कृष्णा 11 17 19 शुक्ला 11 11 71 91 19 कृष्णा "1 "1 29 11 19 19 11 वल्लभ-भारती ] ૬ 19 ७ ह ११ १२ १२ १३ १४ १५ २ ४ ८ १२ १२ ४ ५ ५ ८ ३ ५ ५ X ११ १३ १५ १ २ ५ ६ १० १३ १४ "" 33 सुपार्श्वनाथ 29 चन्द्रप्रभ सुविधिनाथ आदिनाथ श्रेयांसनाथ मुनिसुव्रत श्र यांसनाथ वासुपूज्य 71 अरनाथ मल्लिनाथ संभवनाथ मल्लिनाथ मुनिसुव्रत पार्श्वनाथ 19 चन्द्रप्रभ आदिनाथ 11 कुन्थुनाथ अजितनाथ अनन्तनाथ संभवनाथ सुमतिनाथ महावीर पद्मप्रभ कुन्थुनाथ शीतलनाथ कुन्थुनाथ शीतलनाथ नमिनाथ अनन्तनाथ 19 19 कुन्थुनाथ केवलज्ञान मोक्ष केवलज्ञान च्यवन केवलज्ञान जन्म केवलज्ञान दीक्षा जन्म दीक्षा च्यवन 19 , मोक्ष दीक्षा च्यवन केवलज्ञान च्यवन जन्म दीक्षा केवलज्ञान निर्वाण " ·19 केवलज्ञान जन्म केवलज्ञान मोक्ष 19 दीक्षा च्यवन निर्वाण जन्म दीक्षा केवलज्ञान जन्म [ ११७ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वशाख शुक्ला च्यवन निर्वाण अभिनन्दन धर्मनाथ अभिनन्दन सुमतिनाथ सुमतिनाथ महावीर विमलनाथ अजितनाथ श्रेयांसनाथ मुनिसुव्रतत दीक्षा केवलज्ञान च्यवन च्यवन ज्येष्ठ कृष्णा शान्तिनाथ शुक्ला धर्मनाथ बासुपूज्या सुपार्श्वनाथ जन्म निर्वाण जन्म निर्वाण दीक्षा निर्वाण च्यवन जन्म दीक्षा व्यवन निर्वाण दीक्षा च्यवन निर्वाण आषाढ कृष्णा शुक्ला आदिनाथ विमलनाथ नमिनाथ महावीर नेमिनाथ वासुपूज्य श्रेयांसनाथ अनन्तनाथ नमिनाथ कुन्थुनाथ सुमतिनाथ नेमिनाथ श्रावण कृष्णा " च्यवन . च्यवन शुक्ला दीक्षा निर्वाण च्यवन भाद्रपद पार्श्वनाथ मुनिसुव्रत शान्तिनाथ चन्द्रप्रभ सुपार्श्वनाथ निर्वाण च्यवन [वल्लभ-भारती Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाद्रपद शुक्ला आश्विन कष्णा " शुक्ला १५ १५ सुविधिनाथ नेमिनाथ नमिनाथ निर्वाण केवलज्ञान , च्यवन २४. सर्वजिनपञ्चकल्याणक स्तोत्र मदनावतार नामक मात्रिक छन्द में प्रथित सामान्य रूप से (अर्थात जिसमें किसी तीर्थकर विशेष का नाम न लिया गया हो उसे सामान्य कहते हैं) समग्र तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण इन पांच कल्याणकों का गुणगौरव और अतिशयों का वर्णन इसमें किया गया है । नामानुरूप मदनावतार की गेयता इसमें परिपूर्णरूप से लक्षित होती है। २५. प्रथमजिन स्तव ३३ पद्यात्मक इस स्तोत्र में यथासामान्य प्रथम तीर्थपति श्रीआदिनाथ के गुणों की स्तवना और स्वयं की लघुता प्रदर्शित की गई है। स्तवना की अपेक्षा भी तद्देशीय प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के छन्दों की विविधता के कारण इसका महत्त्व विशेष है। इसमें दोहा, पद्धटिका, पादाकुलक, वस्तुवदन, मदनावतार, द्विपदी, मात्रा पचपदी, एकावली, क्रीडनक, हक्का, षट्पदी आदि छन्दों का कवि ने स्वतंत्रता से प्रयोग किया है । तत्कालीन प्राकृत-अपभ्रंश स्तोत्र साहित्य में छन्द वैविध्य की दृष्टि से यह रचना संभवतः अजितशान्ति स्तोत्र के बाद सर्वप्रथम ही हो ! परवर्ती काल में इन प्राकृत छन्दों का अपभ्रंश एवं प्राचीन हिन्दी में प्रचुरता से उपयोग हुआ है । २६. लघु अजित-शान्तिस्तव इस स्तोत्र का प्रसिद्ध और अपरनाम 'उल्लासि' है। इसमें द्वितीय जिनेश्वर अजितनाथ और सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ की स्तुति की गई है। श्वेताम्बर जैन-स्तोत्र-साहित्य में प्रसिद्धतम 'अजितशान्तिस्तव' के अनुकरण पर कवि ने इसकी रचना की है । कोमल-कान्तपदावली का जो लालित्य और संगीत अजितशान्ति स्तव में है, उससे कुछ अधिक ही इसमें प्राप्त हो सकती है। जिन पदों में दोनों तीर्थङ्करों की स्तुति एक साथ की गई हैं, उनमें कवि की शब्द-योजना तथा भाषासौष्ठव देखते ही बनता है। आचार्य जिनवल्लभ-प्रणीत समग्र प्राकृत स्तोत्रों में यह सर्वश्रेष्ठ है । इस स्तोत्र का आज भी खरतरगच्छ समाज में त्रयोदशी एवं विहार के दिवमों में पठन-पाठन प्रचलित है और दैनिक संस्मरणीय सप्तस्मरण स्तोत्रों में इसका द्वितीय स्थान है। इसकी लोकप्रियता और प्रभावोत्पादकता का इससे अधिक और क्या प्रमाण हो सकता है! २७-२६. क्षुद्रोपद्रवहर-पार्श्वनाथ स्तोत्र, स्तम्भनपार्श्वनाथ स्तोत्र एवं महावीर विज्ञप्तिका क्षुद्रोपद्रवहर पार्श्वनाथ स्तोत्र २२ आर्याओं में ग्रथित है। इस स्तोत्र में भगवद्गुणवल्लभ भारती] [ ११६ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तन के साथ भगवन्नाम माहात्म्य से समस्त प्रकार के आधि-व्याधि उपद्रवों के नाश होने का प्रभावोत्पादक वर्णन किया गया है । स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र ( आर्या छन्द ११ ) में स्तम्भनपुर के प्रसिद्ध तीर्थपति पार्श्वनाथ की एवं महावीर विज्ञप्तिका (आर्या छन्द १२ ) में श्रमण भगवान् महावीर की सुन्दर और सुललित पदों में स्तवना की गई है। भाषा प्राकृत और छंद आर्या ही है । ३०. महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें सर्वज्ञ-जिनेश्वरों की सेवा में कवि ने अत्यन्त ही भक्ति से ओतप्रोत एक विज्ञप्ति की है । कवि सांसारिक भव- बन्धनों से, जन्म, जरा, मरण, दुःख, शोक आदि से त्रस्त होकर सर्वज्ञ-जिनेश्वरों के अपरिमित एवं अनन्त गुणों का संस्मरण करता हुआ तथा उनके सन्मुख अपने अवगुणों की स्पष्ट रूप से निन्दा, गर्हा और प्रायश्चित्त करता हुआ दृष्टिगत होता है। उसकी प्रार्थना है कि भगवान् उसे सम्यक्त्व (बोध) प्रदान करते हुए शिवनगरी का मार्ग शीघ्र बतायें। इस विज्ञप्ति में ३७ आर्याओं के अतिरिक्त अन्तिम छन्द वसन्ततिलका है । ३१. नन्दीश्वर चैत्य स्तव नन्दीश्वर नामक अष्टमद्वीप में स्थित शाश्वत ५२ जिनालयों और उनमें प्रत्येक चैत्यालयों में स्थित १२४ जिन - प्रतिमाओं का कवि ने भक्ति पुरस्सर वन्दन करते हुए अपनी लघुयोजना शैली द्वारा पच्चीस आर्याओं में आकर्षक वर्णन किया है । कवि के वर्णनानुसार प्रत्येक दिशा में अंजनगिरि (कृष्णवर्ण वाले) पर्वत हैं; जिनके नाम हैं - देवरमण, नित्योद्योत, स्वयंप्रभ और रमणीय । प्रत्येक अंजनगिरि के चारों दिशाओं में चार-चार पुष्करिणियां हैं अर्थात् चार अंजनगिरि के चारों तरफ १६ पुष्करिणीयें हैं जो नन्दिषेणा, अमोघा, गोस्तूपा, सुदर्शना, नन्दोत्तरा, नन्दा, सुनन्दा, नन्दिवर्धना, भद्रा, विशाला, कुमुदा, पुण्डरीकिनी, विजया, वैजयन्ती, जयन्ति और अपराजिता के नाम से जानी जाती हैं । प्रत्येक पुष्करिणी के चारों दिशाओं में एक-एक वन खंड हैं जो अशोक वन खण्ड, सप्तपर्ण वन खण्ड, चम्पक वन खण्ड और आम्रवन खण्ड के नाम से विख्यात हैं । अतः कुल ६४ वन खण्ड हुये । प्रत्येक पुष्करिणी के मध्य में एक दधिमुख (श्वेत) गिरि पर्वत होने से कुल १६ दधिमुख पर्वत हैं। प्रत्येक दधिमुखपर्वत के अन्तराल में दो-दो पुष्करिणीयें हैं और प्रत्येक पुष्करिणी के मध्य में दो-दो रतिकर ( लालवर्ण) नाम के पर्वत हैं। इस प्रकार कुल ३२ रतिकर पर्वत होते हैं। इस प्रकार समग्र ५२ पर्वत हुए । प्रत्येक पर्वत के ऊपर एक-एक जिनचैत्य हैं, जिनके प्रत्येक दिशा में चार-चार दरवाजे हैं, जो प्रत्येक में देवद्वार, असुरद्वार, नागद्वार तथा सुपर्णद्वार कहलाते हैं । इन द्वारों से चैत्यालय में देवादि अपने-अपने द्वार से प्रवेश करते हैं । प्रत्येक चैत्य में पांच सौ धनुष प्रमाणोपेत १२० प्रतिमायें हैं । प्रत्येक चैत्य में एक मणिमय वेदिका है और उस पर ऋषभानन, चन्द्रानन, वारिषेण और वर्धमान शाश्वत नामधारक तीर्थंकरों की प्रतिमायें हैं । प्रत्येक प्रतिमा के परिकर में ६ ६ प्रतिमायें अवस्थित हैं । १२० ] [ वल्लभ-भारती Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये प्रत्येक चैत्य तोरण, ध्वजा, अष्टमंगल तथा पूजादि की समग्र सामग्रियों से आकलित हैं। इन चैत्यों में कल्याणक दिवसों, पर्वतिथि तथा पर्यों में समग्र प्रकार के देवता आकर द्रव्य और भाव पूजन के साथ भक्ति करते हैं । नंदीश्वर द्वीप के अन्तर्मध्य में ४ रतिकर नामक पर्वत विशेष हैं । इनकी प्रत्येक दिशा में एक-एक राजधानी होने से कुल १६ राजधानियें हैं, जिनमें ८ सौधर्मेन्द्र की इन्द्राणियों की और ८ ईशानेन्द्र की इन्द्राणियों की हैं, जिनके नाम हैं -देवकुरा, उत्तरकुरा, नन्दोत्तरा, नन्दायणा, भूता, भूतावसन्ता, मातारमा, अग्निमालिनी, सोमनसा, सुसीमा, सुदर्शना, अमोघा, रत्नप्रभा, रत्ना, सर्वरत्ना और रत्नसंचया। ये सम्पूर्ण नगरियां राजधानीवत् समग्र वस्तुओं से परिपूर्ण हैं। इनमें देवी-देवता निवास करते हैं और क्रीड़ा पूर्वक अपना समय व्यतीत करते हैं। प्रत्येक राजधानी में एक-एक जिन चैत्य (मतान्तरापेक्षया दो-दो) पूर्ववणित प्रतिभावों और सामग्रियों से पूर्ण हैं। केवल इनके ३ दरवाजे होते हैं और शाश्वत नामधारक ४ प्रति. माओं के अभाव में १२० प्रतिमायें होती हैं। - इसमें प्रत्येक पर्वत, पुष्करिणी. वनखण्ड, नगरी आदि की उच्चता, पृथुता, अधोभाग इत्यादि के परिमाण का उल्लेख किया गया है। __ अन्त में कवि उपसंहार करता हुआ सूत्रों के अनुसार २०, वृत्तियों की दृष्टि से ५२, राजधानियों के विचार से १६ तथा मतान्तर से ३२, जिनेश्वरों को नमस्कार करता है जो नन्दीश्वर द्वीप के चैत्यों में विराजमान बतलाये गये हैं। ३२. भावारिवारणा स्तोत्र _ समसंस्कृत प्राकृत भाषा में साहित्य-सर्जन करना अत्यन्त ही दुष्कर कार्य है, क्योंकि दोनों भाषाओं पर जिसका समान अधिकार हो और प्रतिभा हो वही इस शैली का अनुसरण कर सकता है। भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से ऐसे साहित्य की विशेष महत्ता है । इस प्रकार की कृति हमें सर्वप्रथम याकिनी महत्तरासूनु आचार्य हरिभद्रसूरि की 'संसारदावा' स्तुति मिलती है । प्रस्तुत महावीर स्तोत्र अपरनाम भावारिवारण भी इसी कोटि की सुन्दरतम रचना है। भक्तामर, कल्याणमन्दिर, सिन्दूरप्रकर की तरह ही 'भावारिवारण' इसका आदि पद होने से यह महावीर स्तोत्र भी इसी नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार के नाम पड़ने से यह स्पष्ट ही है कि यह स्तोत्र जनता में बहुत लोकप्रिय होने से अत्यधिक पढ़ा जाता था। अपनी आलंकारिक योजना, प्रसादगुणवैभव, माधुर्य प्रचरता. छन्द की गेयता. तथा भावानकूल शब्द-योजना आदि के कारण इसमें आकर्षण और प्रभाव अधिक है। इस स्तोत्र को साहित्यिक स्तोत्र-साहित्य में भक्तामर और कल्याणमंदिर की कोटि में सरलता से रखा जा सकता है। स्तोत्र का लक्ष्य भगवान् की गुणगरिमा का गान करके संगीत लहरियों द्वारा आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण करना है। वल्लभ-भारती ] [१२१ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. पन्च कल्याणाक स्तोत्र इसमें स्रग्धरावृत्त में समग्र जिनेश्वरों के पांचों कल्याण कों के अतिशयों का वर्णन है । प्रत्येक दो-दो श्लोकों में एक-एक कल्याणक का वर्णन है और अन्तिम दो पद्यों में इन सब का महत्त्व । इसकी रचना अलंकार पूर्ण और ओजमयी शैली में हुई है । इसमें समासों की जटिलता अधिक होते हुए भी सरलता होना ही इसकी विशिष्टता है। इसकी भाषा संस्कृत है। ३४. कल्याणाक स्तोत्र इसमें श्लोक २ से ६ तक एक-एक श्लोक में एक-एक कल्याणक का वर्णन है और प्रथम तथा अन्तिम पद्य में इनकी महत्ता वर्णित है । इसमें केवल अनुष्टुप् छन्द का ही कवि ने प्रयोग किया है। ३५-४२. अष्ट स्तोत्र सर्वजिनेश्वर स्तोत्र और पार्श्वनाथ स्तोत्र सं. ३६ से ४२ में से प्रत्येक स्तोत्र संस्कृत भाषा में है । इन सब में न केवल कवि को शब्दचयन शक्ति, उक्ति-वैचित्य चित्र-काव्यात्मकता और अलंकार-प्रयोग का तो हमें ज्ञान होता ही है अपितु इसके साथ-साथ ओज के साथ प्रसाद गुण, समास जटिलता के साथ सरलता और व्याकरण के साथ दर्शन का भी सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर होता है। उपमा, रूपक, अनुप्रास, इलेष, यमक, निदर्शना, विभावना विशेषोक्ति, अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त, अतिशयोक्ति आदि अलंकार तो इन स्तोत्रों में इधर-उधर बिखरी हुई मणिराजी के समान बिखरे हुए दीख पड़ते हैं । इन आठों की पृथक्-पृथक् विशिष्टता निम्नलिखित है: ३५. सर्वजिन स्तोत्रः -सम्पूर्ण जिनेश्वरों की वसन्ततिलका वृत्त द्वारा २३ पद्यों में स्तुति की गई है। ३६. पार्श्वजिन स्तोत्र:-तैवीसवें तीर्थकर आश्वसेनीय पार्श्वनाथ की स्तवना की गई है। कूल श्लोक ३३ हैं। शिखरिणी, मालिनी, वसन्ततिलका और हरिणी छन्दों के चार अष्टकों में रचना की गई। अन्तिम पद्य शार्दूलविक्रीडित में उपसंहार का है। इस आद्यस्तोत्र में उपसंहार के पद्य में कवि की उस प्रतिभा के बीज का हमें भली भांति दर्शन हो जाता है जो आगे जाकर अंकुरित-पल्लवित और पुष्पित होती हुई नाना रूप ग्रहण करके कवि की यशश्री को बढ़ाती है । प्रथम रचना में होने वाले गुणापकर्ष के प्रति कवि स्वयं सजग है । जैसा कि उसने स्वयं लिखा है: ____ 'प्रज्ञानाद् भरिणति स्थितेः प्रथमकाभ्यासात् कवित्वस्य यत्' ३७. यह पार्श्वस्तोत्र स्रग्धरा छन्द में ग्रथित है और उपसंहार का ६ वां पद्य वसन्ततिलका में है। ३८. यह पार्श्वनाथ स्तोत्र स्रग्धरा छन्द में है और इसमें १० श्लोक हैं। ३९. इसके २४ श्लोक हैं। जिनमें २३ लोक शिखरिणी और अन्तिम श्लोक शार्दूलविक्रीडित में है। १२२ ] [ वल्लभ-भारती Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. इसमें १६ मालिनी और १७ वां हरिणी छन्द है। ४१. यह स्तम्भनाधीश पार्श्वजिन स्तोत्र चित्र-काव्यमय है । १० पद्य हैं। १६ पद्य अनुष्टुप् हैं और १० वां १५ मात्रिक".."छन्द है। प्रथम पद्य में चित्र-काव्यों के नाम हैं और २ से १ में शक्ति, शूल, शर, मुसल, हल, वज्र, असि, धनुः चित्रकाव्यों में गुणवर्णनात्मक जिन स्तुति है । १० वां पद्य उपसंहारात्मक है। चित्रकाव्यत्व की दृष्टि से यह लघु रचना आचार्यश्री की सर्वोत्तम कृति है। ४२. यह स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र चक्रबन्ध काव्यात्मक अष्टक स्तोत्र है। प्रत्येक श्लोक षडारक चक्रबन्ध चित्रकाव्य में गुंफित है । अष्टम पद्य में धर्मशिक्षा, संघपट्टक के समान कवि ने 'जिनवल्लभ गणिना' स्वनाम भी अंकित किया है । छन्द शार्दूलविक्रीडित है। ४३ भारती स्तोत्र जैन-साहित्य में जिनेश्वर देव की वाणी ही श्रुतदेवता या सरस्वती कहलाती है। वह अन्य देवियों की तरह कोई स्वतन्त्र शक्ति नहीं है। यही कारण है कि स्वतन्त्र रूप से 'सरस्वती' पर स्तोत्र-साहित्य नहीं मिलता। प्राचीन जैन ग्रन्थकारों ने ग्रन्थारंभ में प्राय: सरस्वती का स्मरण अवश्य किया है किन्तु जिनवाणी के रूप में ही। आचार्य जिनवल्लभ ने इसी सरस्वती को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार कर इस स्तोत्र की रचना की है। इन्हीं के चरण-चिह्नों पर चल कर परवर्ती कवियों ने इसको सरस्वती देवी के रूप में स्वीकार किया है। इसी के पश्चात् सरस्वती देवी की मूर्तियों का निर्माण भी प्रारंभ हुआ। युगप्रवरागम जिनपतिसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने सं. १३१७ में भीमपलासी स्थान पर ५१ अंगुल परिमाण की मूर्ति की प्रतिष्ठा' की ही थी। कुछ विद्वानों के मतानुसार सरस्वती की प्राचीनतम प्रतिमायें जैनों द्वारा ही स्थापित हुई हैं। ____ हरिणीवृत्त में ग्रथित यह भारती स्तोत्र २५ श्लोकों में है । रचना की शैली सदा की भांति ही सालंकारिक, सुललितपदा तथा विदग्धमनोहरा है । सरस्वती का स्वतंत्र स्वरूप स्थापित करते हुए भी कवि ने उसका जिनवाणीरूप दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया है। इसीलिये वह भारती से 'परमविरतं' की याचना करता है। ४४. नवकार स्तोत्र नवकार मंत्र समस्त जैन सम्प्रदायों में सर्वश्रेष्ठ मन्त्र माना जाता है। इसे १४ पूर्वो का सार स्वीकार करते हुए जैन सम्प्रदाय इसकी महत्ता के सम्मुख चिन्तामणिरत्न, कल्पवृक्ष, चित्रावेली, रत्नराशि तथा कामकुम्भ को भी तुच्छ गिनता है। शत्र जय तीर्थ के समान ही इस मन्त्र को प्रमुखता प्रदान की गई है। इस नवकार मन्त्र में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं को पंच परमेष्ठि रूप में स्वीकार किया गया है । उसके आराधक को 'सर्वपाप विनिर्मुक्त' होने का १. युगप्रधानाचार्ग गुर्वाबली पृ० ५१ वल्लभ-भारती ] [ १२३ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल प्राप्त होता माना जाता है। इस स्तोत्र में भी प्रथम और दूसरे पद्य में इसकी महत्ता का निर्देश है । तीसरे से आठवें तक पंच परमेष्ठि का स्वरूप और ध्यान तथा आराधन की विधि है तथा ६ से १३ तक इसके आराधन से फल प्राप्त करने वाले कतिपय आराधकों के नाम तथा इससे होने वाले अनेक प्रकार के फलों और सिद्धियों का वर्णन है । अन्तिम पद्य में अपने नाम के साथ इस मंत्र के आराधन की शिक्षा देते हुए उपसंहार किया गया है। इस स्तोत्र की भाषा अपभ्रंश है और इसका छन्द वस्तुवदन और दूहा मिश्रित 'द्विभंगी' है । कतिपय प्रतियों में 'गुरु जिणवल्लहरि भणइ' के स्थान पर 'गुरु जिणप्पहसूरि भइ' भी मिलता है । भाषा की दृष्टि से देखते हुए यह स्तोत्र जिनप्रभसूरि प्रणीत भी हो सकता है जैसा कि कुछ प्रतियों में उल्लेख है । परन्तु जिनप्रभसूरि की शिष्यपरंपरा द्वारा लिखित सोलहवीं शती के एक गुटके में भी 'जिनवल्लभसूरि' नाम ही लिखा है । १२४ ] [ वल्लभ-भारती Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय: ५ कवि-प्रतिभा जिनवल्लभसूरि को कविरूप में उच्च आदर प्राप्त हुआ था। कहा जाता है कि उस युग के लब्धप्रसिद्ध कवियों द्वारा भी ये पूज्यभाव से देखे जाते थे। उनके अपने पट्टध: युगप्रधान जिनदत्तसूरि द्वारा जिनवल्लभपुरि को माघ, कालिदास तथा वाक्पतिराज से भी बढकर कहा जाना चाहे स्नेह-श्रद्धा का पक्षपात लगे, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि सत्काव्य के जो मान मध्ययुगीय समाज में समादृत थे उनके अनुसार आचार्य जिनवल्लभ एक उच्चकोटि के कवि थे। जैन-परंपरा के अनुसार इनका काव्य नवरसों से पूर्ण और अपूर्व था। .यद्यपि उपलब्ध कृतियों से इस मत की पूर्णतया पुष्टि नहीं हो पाती परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रचुरप्रशस्ति आदि जो अनेक काव्य' अभी तक अनुपलब्ध हैं वे, काव्य की दृष्टि से अधिक महत्त्व के थे। काव्य शैली कवि जिनवल्लभ की काव्य शैली के मूल्यांकन के लिये हमें उनकी समस्त कृतियों पर दृष्टि रखनी होगी। उनकी कुल मिलाकर ४४ कृतियां प्राप्त हैं । प्राप्त रचनाओं में विषय, १. लब्धप्रसिद्धिभिः सुकविभिः सादरं यो महितः । चर्चरी पृष्ठ ४ २. सुकवि माघ ते प्रशंसन्ति ये तस्य शुभगुरोः, . साधु न जानतेऽज्ञा मतिजितसुरगुरोः । । कालिदासः कविरासीद् यो लोकर्वर्ण्यते, तावद् यावद् जिनवल्लभ कवि कर्ण्यते ।। सुकविविशेषितवचनो यो वाक्पतिराजकविः सोपि जिनवल्लभपुरतो न प्राप्नोति कीति काञ्चित् । चर्चरी पृष्ठ ५ ३. काव्यमपूर्व यो विरचयति नवरसभरसहितम् । जिनदत्तसूरि नवरसरुचिरं काव्यम् । जिनपालोपाध्याय ४. तु० 'महाप्रबन्धरूप-प्रश्नोत्तरशतक-शृङ्गारशतक प्रचुरप्रशस्तिप्रभृतिक यो विरचयति नवरसभरसहितन् (जिनपालोपाध्याय) वल्लभ-भारती ] [ १२५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन, विचार तथा भाव की दृष्टि से जो विविधता मिलती है उससे कवि की प्रतिभा का पर्याप्त ज्ञान हो जाता है । कर्मसिद्धान्त, तत्त्वज्ञान, कर्मकाण्ड तथा आचारशास्त्र के ग्रन्थों में हमें गंभीर विवेचन के अनुरूप जो शैली मिलती है वही खंडनात्मक 'संघपट्टक' में आकर विषयानुकूल तीक्ष्णता को अपना लेती है और साहित्यिक ग्रन्थों में सरसता और रोचकता । वह चरित काव्यों में समास - प्रधान है तो स्तोत्रों में व्यास प्रधान; संस्कृत काव्यों में समास - बहुला है । इनकी शैली की प्रमुख विशेषता है विविधता; जो सर्वत्र प्रकट होती है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्रित भाषाओं का प्रयोग, ३० से ऊपर छन्दों में लिखना और कभीकभी एक ही स्तोत्र में अनेक छन्दों अथवा विविध भाषाओं को लाना तो उनके वैविध्य प्रेम के द्योतक हैं ही, परन्तु प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतम् में उनकी यह विशेषता चरमसीमा तक पहुंची हुई प्रतीत होती है । अतः यहां पर इस कृति का सक्षिप्त परिचय समीचीन होगा । प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतम् यह एक श्लोकबद्ध प्रश्नावली 3 है। इसकी रचना जैसा कि प्रारंभ में ही कहा गया बुधजनों के बोध के लिये ही की गई है। इस प्रश्नावली में जो प्रश्न एकत्र किये गये हैं उससे स्पष्ट है कि उस समय की पण्डित - मण्डली कैसे उच्चकोटि के बौद्धिक मनोविनोदों की अपेक्षा रखती थी, क्योंकि इसमें जहां व्याकरण, निरुक्त, पुराण, दर्शन, " तथा व्यवहार' आदि विविध विषयों को लेकर प्रत्युत्पत्ति तथा प्रतिभाकी परीक्षा करने वाली पहेलियां हैं, वहां सुरुचि, सदाचार तथा सद्धर्म की भी कहीं उपेक्षा नहीं की गई है । कवि के प्रकाण्ड-पाण्डित्य एवं ज्ञान - गांभीर्य को प्रकट करने वाली विषयों की विविधता के साथ-साथ प्रश्नों में शैलीभेद से होने वाले प्रकारों को भी इसमें भलीभांति दिखाया गया है; जैसा कि निम्नलिखित सूची से भी पता चलेगाः १. अष्टदलकमलम् २. गतागताः ३. गतागतद्विर्गतः ४. गतागतचतुर्गतः ५. चतुर्गतः ६. चतुः समस्तः १. देखिये 'प्रथम जिनस्तव' जिसमें ११ छंद हैं। २. देखिये 'भावारिवारण स्तोत्र' में संस्कृत और प्राकृत ३. इस प्रश्नकाव्य में अन्तः प्रश्न, बहिः प्रश्न, अन्तः बहिः प्रश्न जातिप्रश्न, पृष्ठप्रश्न और उत्तरप्रश्नों का प्रयोग किया गया है । लक्षणों के लिये देखें, 'सरस्वतीकठाभरण' द्वितीय परि० प्रश्नोत्तरलक्ष पृ. ३०३-३०४ ४. कतिचिद् बुधबुद्ध यं वच्म्यहं प्रश्नभेदान् ५. प्र. १२२; ७४ ६४; ५६; इत्यादि ६. ७. प्र. ८; १८; १२; २६; १२४; १२५; इत्यादि प्र. २४; ३५; ३६ ३; इत्यादि प्र. ४; ६ ५; १३; २०; इत्यादि प्र. ६; १४; १३१; १२७; इत्यादि १२६ ] 5. ε. [ वल्लभ-भारती Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. चलबिन्दुजाति ८. विर्गतजाति ६. त्रिः समस्तजाति १०. त्रिसमस्तसूत्रोत्तरजाति ११. द्विर्गतजाति १२. द्विः समस्तजाति १३. द्विर्व्यस्त समस्त जाति १४. द्वादशपत्रं पद्मम् १५. द्विगतभाषाचित्रक १६. नामाख्यातजाति १७. पद्मजाति १८. पद्मान्तरजाति १६. पादोत्तरजाति २०. भाषाचितजाति २१. भाषाचित्रद्विर्गतजाति २२. भाषाचित्रकसमवर्णजाति २३. मञ्जरी सनाथजाति २४. मन्थानजाति २५. मन्थानान्तरजाति २६. वर्धमानाक्षरजाति २७. व्यस्तकमलाष्टदलजाति २८. व्यस्तसमस्तजाति २६. वाक्योत्तरजाति ३०. विपरीताष्टदलजाति ३१. विपरीतमंजरीसनाथजाति ३२. विषमजाति ३३. श्लोकमध्यस्थितसमवर्ण प्रश्नोत्तरजाति १. प्र. १०६; ११५; २. प्र. १८८८ ७६; वल्लभ-भारती ] ३४. श्रृंखलाजाति ३५. समवर्ण प्रश्नोत्तरजाति ३६. समस्तव्यस्तजाति प्रश्नों में विषय-भेद और शैलीभेद के अतिरिक्त भाषाभेद भी मनोरंजनकारी है । अधिकांश पद्य शुद्ध संस्कृत में होते हुये भी कहीं कहीं शुद्धप्राकृत' या मिश्रभाषा का प्रयोग भी हुआ है। कुल १६९ पद्यों के छोटे से काव्य में भी २० छन्दों का प्रयोग, काव्यगत अन्य विधिताओं को देखते हुए कवि के वैविध्यप्रेम का सूचक है । परन्तु इतनी विभिन्नता तथा विधता होते हुए भी इस काव्य में भी वे गुण न्यूनाधिक रूप में देखे जा सकते हैं जो कवि के अन्य काव्यों में पाये जाते हैं । इस काव्य की सब से बड़ी विशेषता है इसका चित्रकाव्यत्व | जैसा कि परिशिष्ट से ज्ञात होगा । इसमें कुल मिलाकर २८ चित्रों की योजना है, परन्तु यहां भी कवि वैविध्यम उसे ८ प्रकार के चित्रों का समावेश करने को बाधित करता है । सामान्य-सरलता और सुबोधता होते हुए भी इस काव्य में कहीं-कहीं चित्रकाव्य सुलभ क्लिष्टता भी आ गई है; जिसके लिये कवि बड़े विनम्र शब्दों में काव्य- उपसंहार करते हुए कहता है : किमपि यदिहाश्लिष्टं क्लिष्ट तथा चिरसत्कविप्रकटितमथानिष्टं शिष्टं मया मतिदोषतः । तदमलधिया बोध्यं शोध्य सुबुद्धिधनैर्मनः प्रणयविशदं कृत्वा धत्वा प्रसादलवं मयि ॥ उनकी शैली की दूसरी प्रमुख विशेषता है चमत्कार प्रेम । यों तो विविधता में भी चमत्कार है और वस्तुतः उनका वैविध्यप्रेम चमत्कार - प्र ेम का पोषक होकर ही आया हुआ [ १२७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीत होता है, परन्तु उनके चमत्कार प्र ेम का सबसे बड़ा प्रमाण हमें उनके चित्रकाव्यों में मिलता है । खेद है कि उनके कई चित्रकाव्य (षट्चक्रिका, सप्तचत्रिका, गजबन्धरूप, गोमूत्रिका और गुप्त क्रिया) आज प्राप्त नहीं हैं, परन्तु, यदि नाम से वस्तु का कुछ भी संकेत मिल सकता है, तो श्रीजिनदत्तसूरिजी के इस कथन से अवश्य सहमत होना पड़ेगा कि: जिण कयनाणा चित्त चित्त हरंति लहु तसु दसणु विणु पुन्निहि कउ लब्भइ दुलहु यद्यपि कवि की चित्रकाव्य-श्री की पूर्ण छटा से आज हम वंचित हैं, परन्तु फिर भी धर्मशिक्षा, संघपट्टक, प्रश्नोतरैकषष्टिशत तथा स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र द्वय में जो कुछ उदाहरण प्राप्त हैं उनसे जिनवल्लभ की चित्रकाव्य-प्रतिभा का पर्याप्त आभास मिल जाता है । अतः इनका सामान्य परिचय एक चित्र द्वारा यहां दिया जा रहा है। विशेष परिचय के लिये आरम्भ में 'चित्र-परिचय' द्रष्टव्य है । मन्थानानान्तरजाति कालिदा कालिदासक विना, मदविसरमता, ता म र स वि द म क बि ना नाविक्रसदालिका, तामरसविदम, सरक विदामविदलिता नाम का, प्र० १४३ शृङ्गार - शतक जिनवल्लभ के काव्य की अपूर्वता उनके शृंगार-काव्य में है । साधु-समुदाय के लिये शृंगार तो अंगार के समान अस्पर्य माना जाता है; और फिर कहां तो नीरस तथा विरक्त साधु-जीवन और कहां रसराज शृंगार ! परन्तु श्रृंगार वर्णन के साथ साधु-जीवन की इस सर्वमान्य असंगति को जिनवल्लभ भली भांति समझते थे । अतएव अपने श्रृंगारशतक के अंतिम पद्य में उन्होंने जहां एक ओर 'अंगार-शृंगार की दाहकता का व्यंग्योल्लेख किया है १२८ ] [ वल्लभ-भारती Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहां दूसरी ओर उन्होंने अपने इस काव्य को 'वाचालता-चापल' कहकर सुकवियों से सहन कर लेने के लिये भी कहा है: “भेदो विद्यत एव दाहकतया नाऽङ्गारशृंगारयोरित्युक्तं न यदस्मदच्यचरणैः सार्वैस्तदेवाधुना । दाक्षिण्यात् किल नीरसेन रचित किञ्चिन्मयाऽपीति यद्, बालस्यैव सहन्तु मे सुकवयो वाचालताचापलम् ॥१२१॥" एक बाल ब्रह्मचारी के लिये श्रृंगार के रहस्यों को जानना और कहना कठिन होने के साथ ही एक अपूर्व साहस का भी काम है । परन्तु आचार्य ने न केवल शृंगार-काव्य की निर्भीकता पूर्वक रचना की अपितु उस रचना के लिये अपेक्षित अनुभव की कमी को पूरा करने के लिये उन्होंने अनेक शृंगार-काव्यों का परिचय प्राप्त किया और भरत के नाट्यशास्त्र तथा कामसूत्र का भी अध्ययन किया, जैसा कि निम्नलिखित श्लोक में उन्होंने स्वयं कहा है: "बाचः काश्चिदधीत्य पूर्वसुधियां तत्काव्यदीक्षागुरु, वीक्ष्य श्रीभरतं च संज्ञरुचिर श्रीकामतन्त्रं च तत् । साहित्याम्बुधि बिन्दु बिन्दुरपि सत्यद्य विधित्सुर्मनागयास जिनवल्लभोsहभदिमाः शृंगारसारा गिरा: ।। १२० ।। " आचार्य जिनवल्लभ के लिये यह शृंगार-काव्य कोई मनोविनोद की सामग्री अथवा वाणी - विलास मात्र नहीं था । त्याग और तपस्या के जीवन को अपना कर तत्त्वनिर्णय करना ही उनका चरम लक्ष्य था और यह श्रृंगार - काव्य साधना भी उनको इस लक्ष्य - सिद्धि में आवश्यक सी प्रतीत हुई, क्योंकि, जैसा कि मंगलाचरण में उन्होंने स्वयं कहा है - एकान्ततः तत्त्वनिश्चय संभव नहीं हो सकने के कारण ही कभी - कभी असत् वस्तु का भी आश्रय लिया जाता है: सन्तोऽसदपि कुर्वन्ति भूषणं दूषणं परे । एकान्ततस्ततश्चेह कुतस्त्यस्तत्त्वनिश्चयः ||४॥ सैद्धान्तिक दृष्टि से तत्त्वज्ञान के लिये विरक्तों को शृंगार- ज्ञान की आवश्यकता अनुभव करते हुए भी आचार्य जिनवल्लभ को इस काव्य की संभावित आलोचना अथवा निन्दा का पूर्वाभास रहा प्रतीत होता है । इसीलिये इन्होंने मंगलाचरण के पश्चात् स्पष्ट कहा है कि, जो सज्जन है वह खलचचनों से आकुल होने पर भी अपने सहज आर्य - आचार को नहीं छोड़ सकता: "लक्ष्मीमुक्तोऽपि देवादुदितविपदपि स्पष्ट दृष्टान्यदोषोप्यज्ञावज्ञाहतोऽपि क्षयभृदपि खलालीकबाक्याकुलोऽपि । नैवं त्यक्त्वाऽचर्या कथमपि सहजा सज्जनोऽसज्जनः स्यात्, कि कौम्भः शातकौम्भः क्वचिदपि भवति त्रापुपो जातुषो वा ||५|| " इसी दृष्टि से कोई व्यक्ति उन दुष्टों के वचनों पर कोई ध्यान नहीं देता जो बिना किसी निमित्त के ही संपूर्ण जगत् का अहित करने में रत रहते हैं और सज्जनों के दोषों की घोषणा करने में ही प्रसन्न होते हैं: बल्लभ-भारती ] [ १२६ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " नास्ते मालिन्यमीतेरखिलगुणगणः सन्निधानेऽवि येषां, येषां सन्तोषपोषः सततमपि सतां दूषरणोद्घोषणेन । तेषामाशीविषाणामिव सकलजगन्निनिमित्ताऽहितानां कर्णे कर्णेrपानां विषमिव वचन कः सकरणः करोति || ६ || " वस्तुतः शृंगार को पाप कहकर छुट्टी नहीं ली जा सकती । शृंगार नर-नारी सम्बन्ध का एक अमिट सत्य है और वह कितना भी कटु, कठिन अथवा घोर सत्य क्यों न हो, परन्तु किसी तत्त्वज्ञानी के लिये उसके सामने आंख मूंद लेने से काम नहीं चल सकता । आचार्य जिनवल्लभ श्रृंगार के इस महत्त्व को समझते थे और वे जानते थे, उन 'पुण्यपण्यापण' भों को जो शृंगार की व्यापक सार्वभौमता की उपेक्षा करने का व्यर्थ प्रयत्न करते हैं । अतः शृंगारशतक के प्रारंभ में ही कवि ने स्पष्टतया इस बात को स्वीकार किया है: - "कोऽयं दपकरूपदर्पदलन कः पुण्यपण्यापणः, कस्त्रैलोक्यमलङ्करोति कतमः सौभाग्यलक्ष्म्यावृतः । सोत्कण्ठ तव कण्ठकाण्डकुहरे कुण्ठः परं पञ्चमो मुग्धे यस्य कृते करे च विलुत्यापाण्डुगण्डस्थलम् ||७ ।” अतः आचार्य जिनवल्लभ ने अपने शतक में श्रृंगार का जो साँगोपांग चित्रण किया वह किसी प्रकार भी साधु-जीवन का अतिक्रमण नहीं करता । उन्होंने श्रृंगार के सभी स्वरूपों का वर्णन किया और समस्त हाव, भाव, विभाव, अनुभाव और सचारीभावों का परिचित्रण किया, परन्तु उनके मन में न कोई भय था और न थो कोई शका अथवा जुगुप्सा । शृंगारकाव्य की साधना उनकी दृष्टि में उसी निर्मल मन से की जा सकती है जिससे कि तत्वज्ञान का उहापोह अथवा स्तोत्र - साहित्य का सृजन या चरित-काव्य का गायन । इतिहास में जनक जैसे गृहस्थ राजा तो सुने गये हैं जो श्रृंगार और वैराग्य दोनों को एक साथ लेकर चले हों, परन्तु बचपन से ही वैराग्यवृत्ति को लेकर मुनि-जीवन में दीक्षित होने वाले और नन्हीं बालिका तक को भी स्पर्श न करने वाले साधुओं में शान्त तथा श्रृंगार के बीच काव्यगत समन्वय स्थापित करने वाले आचार्य जिनवल्लभ अद्वितीय हैं। भर्तृहरि ने अवश्य ही वैराग्यशतक और श्रृंगारशतक लिखकर ऐसा ही प्रयत्न किया था, परन्तु इस विषय में हम यह नहीं भूल सकते कि भर्तृहरि विरक्त होने से पहिले शृंगार का पूर्ण अनुभव भी राजमहलों में कर चुके थे । परन्तु आचार्य जिनवल्लभ का शृंगारशतक एक प्रकार से एक अलौकिक प्रयत्न नहीं तो अपूर्व प्रयत्न अवश्य है; क्योंकि उन्हें श्रृंगार का साक्षात् अनुभव बाल- ब्रह्मचारी होने से कभी नहीं हुआ था । अमरुशतक लिये कहा जाता है कि बाल ब्रह्मचारी शंकराचार्य उसे तब लिखा, जब वे परकायाप्रवेश करके गार का साक्षात् अनुभव कर सके, पर जिनवल्लभ को इसकी भी आवश्यकता नहीं पड़ी। उन्होंने केवल श्रृंगार साहित्य का अध्ययन करके ही अपने शृंगारशतक की रचना कर डाली । फिर भी श्रृंगारशतक को पढ़ने से कहीं भी कोई रिक्तता या कमी नहीं दिखाई पड़ती है । भाषा में प्रवाह है और शब्द-योजना भावानुकुल है । मानिनि के कुटिल-भ्रूभंग, दन्तदंशन तथा हुंकार भी युवकों के मन को प्रसन्न करने वाला है - इस बात को प्रकट करने १३० ] [ वल्लभ-भारती Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिये जिस समन्वित शब्द-योजना का प्रयोग किया है उसे निम्नलिखित पद्य में देखियेः "मानिन्याः कुटिलोत्कटभ्र सहसा सन्दष्टदन्तच्छदा, स्वेदातडूभयेन मोचनकृते हुङ्कारगर्भ मुखम् । काम केलिकलौ दृढाङ्गघटनानिष्पेषपीडोत्त्रस त्तियग्मानकृतात नादवदिव प्रीणाति यूनां मनः ।।१३।।" इसी प्रकार कुपिता नायिका के मुखसौन्दर्य का वर्णन भी उल्लेखनीय है: "भुग्नभ्रस्फुटरक्तगण्डफलक प्रस्यन्दि दन्तच्छद, लोललोहितचक्षुगिरदिव प्रौढानुरागं हृदः । सर्वाकारमनोहर सुतनु! ते कोपेऽपि पश्यन्मुखं, दूयेनाऽस्मि यतस्ततोयमधुना मानानुबन्धेनं ते ।।८।।" लक्षणा और व्यञ्जना के सह रे घोर से घोर शृंगार को भी शिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन किये बिना ही किस प्रकार काव्य में चित्रित किया जा सकता है उसका ज्वलन्त उदाहरण उस वर्णन में देखा जा सकता है, जो उन्होंने संभोगशृगार के विस्तृत वर्णन में किया है। संभोग के पश्चात् नायक और नायिका की जो विलक्षण अवस्था हो जाती है, उसका सजीव चित्रण करते हुए कवि ने लिखा है: कृत्वा रागवदुद्धतं रतमथो मीलदृशं निःसहां, श्रोणीपार्श्वसमस्तहस्तवितताघातेप्यसंज्ञामिव । दृष्ट्वा मां सखि मूछिता किमु मृता सुप्ता नु भीताथवे त्याकूताकुलधोरिव द्रुतम भूत् सोऽपि प्रियोऽस्मत् समः ।।११।।" ये तो रही संभोगोपरान्त शरीर की अवस्था, परन्तु उस समय की अनिर्वचनीय रसानुभूति का चित्रण भी जिनवल्लभ ने चित्रित करने का प्रयत्न किया है : "कान्ते ! कल्पितकान्तमोहनविधावाऽऽनन्दसान्द्रद्रवदागावेगनिमीलिताक्षियगला वीक्षेन तं यद्यपि । नेत्रानन्दकर तथापि सखि मे तच्चुम्बनालिङ्गन प्राक् संक्रान्त इव स्फुरत्यनुपमः कश्चिद् रसश्चेतसि ।।११२।।" __ शृगार-शतक में नारी के सौन्दर्य का वर्णन भी यत्र तत्र विशद तथा सहजरूप में मिलता है। नायिका की कटाक्षछटा दूध के समान श्वेत तथा तरल है और उसकी दन्तज्योत्स्ना आकाश में मंडलाकार फैलती हुई सपूर्ण विश्व को अपनी श्वेतिमा से आप्लावित कर रही है। फिर वह अभिसार के लिये चन्द्रोदय की प्रतीक्षा क्यों करे: "मुग्धे ! दुग्धरिवाशा रचयति तरला ते कटाक्षच्छटाली, दन्तज्योत्स्नापि विश्व विशदयति वियन्मण्डलं विस्फुरन्ती । उत्फुल्ल गंडपाली विपुलपरिलसत् पाण्डिमाडम्बरेण, क्षिप्तेन्दो कान्तमद्धाभिसर सरभसं किं तवेन्दूदयेन ।।७।।" एक साथ ही प्रसादन और मारण में दक्ष नायिका के लोचन भी कितने विचित्र हैं, वल्लभ भारती] [ १३१ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसकी व्याख्या कवि ने इस प्रकार की है: "शंके सुभ्रु ! सुधारसविरचितं ते कालकूटच्छटागर्भे मौक्तिकदामवन्मरकतश्री रोचनं लोचनम् । यन्मामन्तरचारिमृगसुभगश्वेता बजपत्र प्रभाधिक्षेपीदमनङ्गसङ्ग सपदि प्रीणाति मीनाति च ॥ १०१ ॥ | " और नायिका की प्रेम द्रव से आर्द्र तथा लाजभरी दृष्टि युवकों के लिये काम कर बैठती है; इस विषय में कवि की उक्ति कितनी विलक्षण है: न मालूम कौनसा " साकूतोत्कलिकाः सकौतुक करणा: प्रेमद्रवार्दास्तव, क्रीडन्त्यस्तरलाक्षि दिक्षु निविडव्रीडा जडा दृष्टयः । चेतश्चञ्चलयन्ति कायलतिकामुत्कम्पयन्ति क्षणात् चक्षुः शीतलयन्ति किं तदथवा यूनां न यत् कुर्वते ।। १०२ ।। " जिनवल्लभ की कविता प्राय: प्रसाद गुण सम्पन्न है । कहीं-कहीं तो भाषा की सर लता ने इस काव्य-गुण को बहुत ही आकर्षक बना दिया है। इसका सब से अच्छा उदाहरण निम्नलिखित श्लोक में देखा जा सकता है: "न ताः काश्चिद्वाचः क्वचन न च ताः काश्चन कलाः, • स नोपायः प्रायः स्फुरति न तदस्त्यक्षरमपि । यतोऽन्योन्यं यूनां विरहभवभावव्यतिकरं परं वक्तुं शक्तः कथमपि कदापि क्वचिदपि ।। ११५ ।। " शृंगारशतक में अलंकारों का प्रयोग भी अत्यन्त सुन्दर और स्वाभाविक हुआ है । शब्दालंकारों में यों तो श्लेष और यमक का प्रयोग भी प्रचुरमात्रा में मिलता है परन्तु अनुप्रास का प्रयोग बहुत ही मनोरम हुआ है । "पीतं पीतमथो सितं सितमिति" में जो स्वाभाविकता है वही आप "प्र ेमप्रसन्नः प्रियः” में देख सकते हैं । विषय की अनुकूलता तथा स्वाभाविक सरलता को ध्यान में रखते हुए कवि ने जो अनुप्रास प्रयुक्त किये हैं उनका एक अच्छा उदाहरण निम्नलिखित पद्य में देखा जा सकता है: "भ्रमद्भ्रमरविभ्रभोद्मटकटाक्षलक्षाङ्किता, दृशामसदृशोत्सवाश्चतुरकुञ्चितभ्रूलताः । स्फुरत्तरुणिमद्र मोल्लसदनल्पपुष्यश्रियो हरन्ति हरिणीदृशां कमपि हन्त ! हेलोदयाः || ५०|| अर्थालङ्कारों में भी रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, स्वाभावोक्ति आदि का बहुत ही सुन्दर और सफल प्रयोग किया गया है । कहीं "संफुल्लशेफालिका" कुसुम के समान " नीविग्रन्थि " सरक जाती है और कहीं कोई "पुण्डरीकवदना लीलानिमीलित" नयना होकर दिखाई पड़ती है । कामदेव के प्रताप से वस्तुओं का जो स्वभाव विपर्यय हो जाता है उसका वर्णन कवि की अलंकार-युक्त वाणी से निम्नलिखित पद्य में देखियेः— १३२ ] [ वल्लभ-भारती Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "यत्कान्तेऽवनतेप्यहं स्मरगुरूद्दिष्टं सखी प्राथितं, कोपान्नकरवं तदेतदुदितं पाप स्फुटं यत्नतः । कर्पू रोऽसिकरणायते मृगमदश्रीः कालकूटायते, शीतांशुर्दहनायते कुवलयस्रक कालपाशायते ॥४७॥" कहीं-कहीं पर काव्य के प्रांगण में भी पाण्डित्य-प्रदर्शन के प्रलोभन का संवरण नहीं किया जा सका है । निम्नलिखित पद्य में अलंकारों की सुन्दर छटा के साथ-साथ कवि की इसी प्रवृत्ति का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत है: "सत्यं सख्यविकल्पदृक् क्षणिकधीर्नष्टायकः सौगतः, प्रामाण्येन न योऽब्रवीत्यवितथज्ञाने विकल्पस्मृती। यस्मादस्मि विकल्पतल्पशयितं प्रेयांसमङ्गस्पृशं, स्मत्वा केलिकलां च तां रतिफलं विन्दामि निन्दामि च ॥३३॥" स्तोत्र-साहित्य कवित्व की दृष्टि से स्तोत्र-साहित्य में आचार्य जिनवल्लभ का मन सब से अधिक रमा हुआ जान पड़ता है। स्तोत्रों में जैसा उक्ति वैचित्य, अलंकार-वैविध्य तथा छंद-बाहुल्य मिलता है वैसा अन्यत्र नहीं। जैसा कवि ने स्वयं कहा है, अपनी कवि-प्रतिभा को व्यक्त करने के लिये उसने जो सर्वप्रथम माध्यम चुना वह एक स्तोत्र ही था। अपने इष्ट श्री पार्श्वनाथ के इस स्तवन में उन्होंने अपने जिस भक्त हृदय का परिचय दिया है, उससे इस रहस्य का पता सहज ही चल सकता है कि वे स्तोत्र-साहित्य में इतने क्यों सफल हुए हैं: 'न नपपदवी नार्थावाप्ति न भोगसुखं न वा, सुरपतिपदं त्वां याचेऽहं न वा शिवसम्पदाम् । - महनि निशि च स्वप्ने बोधे स्थिते चलिते बने सदसि हृदये भक्त्यद्वंत ममास्तु परं त्वयि ॥३१॥" उन्हें न अर्थ चाहिये और न भोग, न इहलोक का राज्य चाहिये न व लोक्य का। वे तो रातदिन, सोते-जागते, चलते-फिरते, सर्वत्र और सर्वदा अपने भगवान् की अनन्य भक्ति में ही रत रहना चाहते हैं. क्योंकि वे जानते हैं कि संसार में फंसने का क्या परिणाम होता है। एक वा अनेक भवों में भ्रमण करने के पश्चात् अब उनका मन श्रीजिनेश्वर के चरणों का चंचरीक बन पाया है: "गतोऽहं संसारे नर-नरक-तिर्यक-सुरभवेध्वनेकेष्वेव त्वां जिनमलभमानः क्वचिदपि। इदानीं यौष्माकं चरणकमलं संश्रितवतो, द्विरेफस्येवाभून्मनसि परमा निवृतिरतः ॥४॥" कवि जिनवल्लभ के लिये भगवान् ही माता है और भगवान् ही बन्धु, पिता, मित्र, स्वामी, वैद्य तथा गुरु हैं। अधिक क्या कहा जाय वही उनके स्र्वस्व हैं । इसलिये वे सदैव उन्हीं की शरण में रक्षा के लिये जाते हैं:वल्लभ-भारती ] [ १३३ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " त्वमम्बा त्वं बन्धुस्त्वमसि जनकस्त्वं प्रियसुहृत्, त्वमीशस्त्वं वैद्यस्त्वमसि च गुरुस्त्वं शुभगतिः । त्वमक्षि त्वं रक्षा त्वमसव इति त्वं मम न कि, ततो मां त्रासीष्ठाः कठिनगदवृन्दादिततनुम् ॥२१॥।” भगवान् के चरणकमलों से अलग होकर क्या-क्या दुःख नहीं भोगने पड़ते ? अतः वे गुरुकृपा से पुनः भगवच्चरण की शरण में आकर अपने सम्पूर्ण दारिद्र्य और दैन्य को जानते हुए भी अपने को धन्य मानते हैं: - "धिया होनो दीनः कुकृतशालीनः सुकृपणो, गुणैर्वान्तस्तान्तस्तत भव महावर्त पतितः । विलग्नो मग्नोऽहं तव पदयुगे तद्गुरुकृपाकृपारणी कृत्तान्तःकरणशरसा त्वं मम परम् ॥ ७॥ : " जिनवल्लभ के स्तोत्रों में सर्वत्याग की भावना के साथ-साथ दैन्यप्रदर्शन, आत्मनिवेदन तथा भक्तहृदय का करुणक्रन्दन मिलता है । भवसागर के अनेक संकटों और क्लेशों भषिका से पीडित जीव के लिये ताण पाने और शान्तिलाभ प्राप्त करने के लिये एकमात्र शरण्य प्रभुचरण ही हैं। अतः भक्त अपने भगवान् की सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता के सामने अपने को अत्यन्त दीन-हीन और मलीन पाकर अपने हृदय की चीत्कार को जब छुपाने में विवश हो जाता है, तो उसके हृदय से जो वाणी निकलती है वह किस पाषाण हृदय को द्रवीभूत न कर देगी ? इस दृष्टि से जिनवल्लभ को भक्ति का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप संभवतः महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका में देखा जा सकता है । भगवान् और भक्त में, सर्वज्ञ और अज्ञ में जो भेद है उसको प्रकट करते हुए वे कैसे सरल शब्दों में कहते हैं: १३४ ] तुह जिण प्रांत प्रणुवम गुणगुणणे जडमई प्रसत्तोहं । किंतु दुहत्तो किर तक्खयाय नियदुक्कयं कहिमो ॥ २ ॥ 6 इय पुणरुत्तमरणंत दुरंतभवचक्कगो किलिस्संतो । लोए पइक्खपएसु जानो य मनो य बहुसोहं ॥ १३ ॥ कवि को पूर्ण विश्वास है कि वह कितना ही वाम पामर या पलित क्यों न हो, परन्तु भगवच्चरण में ऐसी शक्ति है जिससे कि सब का उद्धार निःसंदेह हो सकता है । इसीलिये वह भव- निवारण के लिये पुनः पुनः भगवान् के सामने पुकार करता है: तुह दंसरणं निवारइ कारइ मध्वत्थवत्थुवच्चासं । चररणकरणम्मि सद्धि विद्ध सड़ दंसइ कुमग्गं ॥३३॥ ईसा विसाय-मच्छर- हरिसा-मरिसाइवि विहरू बेहि । फुडमद जालिश्रो इव वामोऽह इम जिणिद तो ॥३४॥ मोहमहारिपरवसं जयबंधव रक्ख म खमाविजनो । पिच्छता न हु पहुणो भिच्चमुबेहं तिवसरणगयं ||३५|| [ वल्लभ-भारती Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र - साहित्य में कवि ने संभवतः अपने सभी चमत्कार दिखा देने का प्रयत्न किया है । भाषा चमत्कार की दृष्टि से कवि ने न केवल संस्कृत और प्राकृत में पृथक्-पृथक् स्तोत्र लिखे अपितु एक स्तोत्र अपभ्रंश में भी लिखा है और एक में संस्कृत और प्राकृत दोनों का ही एक साथ प्रयोग किया है। अपभ्रंश का स्तोत्र जहां अन्य गुणों के लिये महत्त्वपूर्ण है वहां भाषाप्रवाह भी दर्शनीय है । इसकी भाषा का महत्त्व हिन्दी भाषा के प्राचीन इतिहास की दृष्टि से आंका जा सकता है। नवकार मंत्र की शक्ति का व्याख्यान करते हुए कवि कहते हैं: "चोर धाडि संकट टलइ राजा वसि होई तित्थंकर सो हवइ लक्खगुण विधि संजोई साइणि डाइणि भूत प्रेत वेयाल न पहवइ प्राधि व्याधि ग्रह गरगह पीड ते किमइ न होई कुट्ठ जलोदर रोग सवे नासइ एणइ मंति । मयणासुंदरि तरणी परि नवपद भाण करंति ॥११॥" छंदों की विविधता की दृष्टि से भी कवि ने अपना चमत्कार स्तोत्र - साहित्य में ही दिखलाया है । प्रथम जिनस्तवन में न केवल विविध छंदों का प्रयोग ही किया गया है अपितु दोहा जैसे संस्कृत और प्राकृत में अज्ञात तथा अप्रसिद्ध छंदों का प्रयोग भी किया गया है । निम्नलिखित दोहे को प्रमाणस्वरूप रखा जा सकता है: "इय जातु विभत्तिभर तरलिउ किंपि भरणामि । दुक्क सुक्करु निरुत्तमण जेण वियारिहि सामि ||३|| " भावारिवारण स्तोत्र न केवल संस्कृत और दृष्टि से चमत्कारपूर्ण है, अपितु काव्य गुणों की कवि का जो अनुप्रास प्रेम उसके सारे साहित्य में परिमाण में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिये निम्नलिखित पद्य देखिये: वल्लभ भारती ] प्राकृत के एक साथ प्रयोग किये जाने दृष्टि से भी यह स्तोत्र बहुत समृद्ध है । दिखाई पड़ता है, उसको यहां भी प्रचुर " निस्संग ! निःसमर ! निःसम ! निःसहाय ! नीराग ! नीरमण ! नीरस ! नीरिरस ! हे वीर ! धोरिमनिवार्सानिरुद्धघोरसंसारचार ! जय जीवसमूहबन्धो ! ॥२१॥" जिनवल्लभ के काव्य में संगीतात्मकता के लिये जो सर्वत्र आग्रह दिखाई पड़ता है वह किसी भी पाठक से छिपा नहीं रह सकता । अन्य काव्यगुणों के साथ-साथ संगीतात्मकता की दृष्टि लघु अजित शान्ति-स्तव सभवतः यहां पर उदाहरण स्वरूप रखा जा सकता है । अनुनासिक वर्णों की बहुलता तथा विविध वर्णों के अनुप्रास से उत्पन्न होने वाली संगीतात्मकता के लिये निम्नलिखित छंद देखिये : : निर्वाडियार पत्थवत्तासियाण, जल हिल हरिहरंताण गुत्तिहियाणं । जलियजल राजाला लिंगियाण च झाण, जय लहु संति संतिनाहा जियाण ॥१२॥।” [ १३५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार 'क्ष' कार की छटा का कोमल-वर्णों की सन्निधि में जो अनुपम चमत्कार उत्पन्न करने का प्रयत्न कवि ने सर्व जिनेश्वर स्तोत्र में किया है, उसका अनूठा उदाहरण निम्नलिखित श्लोक में देखा जा सकता है: "क्षण्णक्षक्षिपितमोक्षविपक्षलक्ष- क्षीणक्षदाभितपदिमलहक्कटाक्षः। क्षान्तिक्षत-क्षजिताक्ष-सदक्षमा, रक्ष क्षणं क्षतकमक्षनिरीक्षणान माम् ॥२१॥" एक पार्श्वनाथ स्तोत्र में सभी छंदों में एक-एक ऐसा वर्ण या वर्णसमदाय चुना गया है जो उस मालिनी के छंद की प्रत्येक यति पर आता है। इस प्रकार कहीं "ठं" की आवृत्ति है तो कहीं "आरं" की और कहीं पर "क्षं" या "हारं" की। उदाहरण के लिये स्तोत्र के प्रथम छंद में "द्र" की आवृत्ति देखिये: "विनयविनमदिन्द्र मन्ममोम्भोधिचन्द्र, हित कृतिगततन्द्र प्राणिषु प्रीतिसान्द्रम् । वचसि जलदमन्द्र संस्तुवे पार्श्वचन्द्र, त्रिजगदवितथेन्द्र धैर्यधूताचलेन्द्रम् ॥१॥" इस प्रकार जिनवल्लभ की काव्यकला में उक्ति-वैचित्य, पदलालित्य तथा प्रयोगवैलक्षण्य के साथ-साथ लक्षणा और व्यंजना तथा अलंकार और रस की दृष्टि से जो समद्धि एवं सफलता दिखलाई पड़ती है वह कवि की भक्ति-भावना तथा सहृदयता के कारण अत्यन्त हृदयग्राही और मर्मस्पर्शी हो गई है। उनके काव्य में जो सौन्दर्य, अलंकरण तथा चमत्कार मिलता है, उस सब से अधिक यदि कोई भी एक गुण सर्वोपरि तथा सर्वोत्कृष्ट कहा जा सकता है तो, वह है जिनवल्लभ की मानवता, निश्छल, निष्कपट, उदार तथा आडम्बरहीन एवं अकृत्रिम मानवता । सत् और असत्, पुण्य और पाप, उच्च और नीच तथा पावन और पतित के द्वन्द्व को एक साथ लेकर चलने वाली जीवन-यात्रा में मिथ्यात्व से क्रमशः उठते हए अहंतु पद-प्राप्ति के लिये निरन्तर प्रयत्नशील होने का नाम ही तो मानवता है। यद्यपि इस दृष्टि से जैन-धर्म की भांति सभी धर्म मानवता के पर्यायवाची कहे जायेंगे, परन्तु कितने हैं ऐसे धर्मध्वजी, साधुत्व का ढिंढोरा पीटने वाले तथा परोपदेशकुशल प्रचारक और गुरु मन्य लोग; जो अपने दंभ, पाखंड और आडंबर को छोड़कर आचार्य जिनवल्लभ के चरण-चिह्नों पर चलकर अपने भगवान् के सामने हृदय के नग्नरूप को रखकर कह सके कि:- . "उल्लासितारतरलामलहारिहारा-नारीगणा बहुविलासरसालसा मे। संसारस सरण भवभीनिमित्त, चित्रं हरन्ति भण किं करवाणि देव ॥२२॥" अतः निर्भीक मानव जिनवल्लभ, रससिद्ध कवीश्वर जिनवल्लभ से कहीं ऊपर है, अथवा यों कहें, प्रथम द्वितीय का जनक होने से उसमें अनुस्यूत है। इसीलिये द्वितीय महिमामय है। आचार्य जिनवल्लभ का व्यक्तित्व एक अद्भुत व्यक्तित्व है, जिसमें एक विक्रान्त-क्रान्तिकारी, प्रबलसूधारक, तपस्वी आचार्य तथा विलक्षण कवि का समन्वय मिलता है, परन्तु इन सब रूपों को प्रकाशित और उद्भासित करने वाला जिनवल्लभ के व्यक्तित्व का जो स्वरूप है वह सही वीर-मानव का स्वरूप है । अतः महावीर वरणरत इस परमवीर मानव को मेरा शत-शत प्रणाम अपित है। [ वल्लभ-भारती Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय : ६ जिनवल्लभ की साहित्य-परम्परा टीका-ग्रन्थ और टीकाकार आचार्य जिनवल्लभसूरि के ज्ञान-गांभीर्य तथा सुधार-कार्य का जो सुदृढ़ और स्थायी प्रभाव विद्वन्मण्डली पर पड़ा उसका सब से बड़ा प्रमाण उनके ग्रन्थों पर लिखी गई अनेक टीकायें हैं । उनकी मृत्यु के लगभग तीन वर्ष उपरान्त से लेकर शताब्दियों पर्यन्त तक इनके ग्रन्थों पर जितनी टीकायें लिखी गई उतनी संभवतः किसी भी जैनाचार्य की कृतियों पर, नहीं । इन टीकाओं की सब से बड़ी विशेषता यह है कि इनके रचयिता प्रायः खरतरगच्छ तर विद्वान् साधु ही थे। अतः इनकी रचना न केवल जिनवल्लभसूरि के ग्रन्थों का साहित्यिक, धार्मिक एवं सामाजिक महत्त्व प्रकट करती है, अपितु यह भी प्रमाणित करती है कि ये ग्रन्थ संप्रदाय के सीमित क्षेत्र से ऊपर उठ कर सर्वमान्यता तथा सर्वग्राह्यता प्राप्त कर चुके थे। उनके ग्रन्थों में सब से अधिक गौरव इस दृष्टि से जिनको प्राप्त हुआ वे सार्द्धशतक, षडशीति एवं पिण्डविद्धि हैं। इन पर टीका लिखने वालों में धनेश्वराचार्य, हरिभदाचार्य, मुनिचन्द्राचार्य, श्रीचन्द्राचार्य, यशोदेवाचार्य तथा मलयगिरि आचार्य जैसे बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों के भी नाम हैं जो अपने पाण्डित्य तथा गांभीर्य के लिये जैन इतिहास में प्रसिद्ध हो चुके हैं और जिनका टीका लिखना ही मूलग्रन्थों की महत्ता को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है। अतः यहां पर टीकाओं और टीकाकारों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है: ग्रन्थों पर टीकायें सूक्ष्मार्थ-विचार-सारोद्धार (सार्द्ध शतक) भाष्य' टिप्पण रामदेवगणि . चूणि मुनिचन्द्रसूरि लींबड़ी, बड़ौदा और पाटण के भंडारों में है। सम्भवतः प्रकाशित नहीं हुआ है। इसके कर्ता कौन हैं ? निश्चित नहीं कहा जा सकता । इसका पाद्यन्त भाग इस प्रकार है:(प्रा.) नियहेउसम्भवे विह भयरिणज्जो जाण होइ पयडीणं । बंधो वा अधूवा""अभयरिणज्ज बंधारो। (अं०) तिरिगइसममुज्जोयं इगजाइसमं तु प्रायवे बंधे । परघा उस्सासाणं पज्जेण समं भवे बंधो ।१०६। वल्लभ-भारती ] [ १३७ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्ति " " 33 प्राकृत वृत्ति टिप्पणक आगमिकवस्तुविचारसार ( षडशीति) भाष्य " टिप्पण वृत्ति " 21 विवरण टीका अवचूरि 21 उद्धार धनेश्वराचार्य महेश्वराचार्य ' हरिभद्रसूरि चक्रेश्वराचार्य अ अज्ञातकर्तृ क४ 22 रामदेव गणि हरिभद्रसूरि मलयगिरि यशोभद्रसूरि मेरु वाचक अज्ञातकर्तृक* अज्ञातकर्तृक१• " 19 ११ १२ १. महेश्वराचार्य की टीका कान्तिविजयजी संग्रह बड़ोदा में है । ० महेश्वर अनेक हुए हैं। आप का समय इत्यादि के संबंध में प्रति के प्रभाव में मैं कहने में असमर्थ हूं । २. इस टीका की नोंध वृहट्टिप्पनिका के प्राधार से की गई है। अतः इसकी प्रति प्राप्त है या नहीं ? नहीं कह सकता । ३. इस टीका की प्रतियें पाटण के भंडारों में है । चक्रेश्वराचार्य अनेक हुए हैं। अतः प्राप का समय क्या था, प्रति के अभाव में नहीं कह सकता । परन्तु धनेश्वराचार्य विरचित वृत्ति का आपने संशोधन किया है । ऐसा उल्लेख आचार्य धनेश्वर स्वयं करते हैं । श्रतः मेरी मान्यतानुसार इनकी स्वयं वृत्ति नहीं होगी । ४. संभवतः मुनिचन्द्रसूरि रचित चूरिंग ही हो क्योंकि चूर्णी प्राकृत में ही है । ५. संभवत: रामदेव गरिए का ही हो, इसकी प्रति जयपुर भंडार में है । ६. यह 'सटीकाश्चत्वारः प्राचीनकर्मग्रन्थाः' में प्रकाशित हो चुका है । ७. यह २३ गाथा का प्रपूर्ण मुनि श्री चतुरविजय जी को प्राप्त है। इसमें कर्त्ता का उल्लेख नहीं है । ८. इसकी प्रति अहमदाबाद चंचलबाना भंडार में है । पत्र २ हैं । ये मेरु वाचक कौन हैं ? प्रति के सन्मुख न होने से नहीं कह सकता । ६. इसकी प्रति बंगाल एसियाटिक सोसायटी में है । १०. १२. अवचूरि और उद्धार दोनों प्रतियें खंभात जैन शाला के भण्डार में है । अवचूरि ७०० श्लोक परिमाण की है और उद्धार १६०० श्लोक परिमाण का । इन दोनों के कर्त्ता कौन हैं? कह नहीं सकता । ११. इसकी एक प्रति कान्तिविजयजी संग्रह बड़ौदा में १६ वीं शती लिखित प्राप्त है । १३८ ] [ वल्लभ-भारती Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डविशुद्धि-वृत्ति लघुवृत्ति दीपिका टीका दीपिका (लघुवृत्तिरूपा) अवचूरि श्रीचन्द्रसूरि यशोदेवसूरि उदयसिंहसूरि अजितदेवसूरि' अज्ञातकर्तृक पञ्जिका अवचूरि टीका वृत्ति . बालावबोध पौषधविधिप्रकरण प्रतिक्रमण समाचारी द्वादशकुलंक धर्मशिक्षा प्रकरण श्रीचन्द्र अज्ञातकर्तृक . कनककुशल संवेगदेवगणि यु० जिनचन्द्रसूरि स्तबक विमलकीत्ति टीका उ० जिनपाल टीका उ० जिनपाल बृहद्वृति जिनपतिसूरि लघुवृत्ति (संस्करण) उ० हर्षराज वृत्ति लक्ष्मीसेन विवेकरत्नसूरि अवचूरि उ० साधुकीति संघपट्टक १. पल्लीवाल गच्छीय श्री महेश्वरसूरि के शिष्य हैं। इस दीपिका की रचना सं १६२६ में हुई है। आपकी रची हुई उत्तराध्ययन बालावबोधिनी टीका, प्राचारांग दीपिका और पाराधना आदि प्राप्त हैं। इस दीपिका की केवल एक मात्र प्रति पाटण भण्डार में है। २. इसकी प्रति गाल रोयल एशियाटिक सोसायटी में है। वृहत् टिप्पनिका के आधार पर इसका श्लोक परिमाण ५५० है। ३. सं १५१० आषाढ वदि २ देवकुलपाटक नगर में तपगच्छीय सोमसुन्दरसूरि प्रशिष्य उपाध्याय साधुराज गणि के शिष्य आनन्दरत्न गरिण लिखित प्रति कान्तिविजय जी सं० बड़ौदा में है। ४. इसकी प्रति डेला उपाश्रय भंडार अहमदाबाद में है। ५. जैन प्रन्थावली के आधार से इसकी प्रति जैसलमेर भंडार में है। ६. इसकी प्रति विजयधर्मलक्ष्मी ज्ञान भंडार आगरा आदि में है। इसका कर्ता कौन है ? संदिग्ध है। ७. जिनरत्न कोष में इसे संदिग्ध कर्ता के रूप में लिखा है। अतः विचारणीय है। यदि कनक कुशल ही हो तो ये कनककुशल विजयसेनसूरि के शिष्य थे और इनका सत्ताकाल हैं १७वीं शती का उत्तरार्द्ध । इनके परिचय के लिये देखें, देसाई का जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास । ८. ये खरतरगच्छ के हैं और इसकी एक मात्र प्रति डेलानो भण्डार अहमदाबाद में है। प्राप्त न होने से लेखक और व्याख्या के सम्बन्ध में लिखने में मैं असमर्थ हैं। घल्लभ-भारती ] [ १३६ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न-सप्तति प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् पंजिका बालावबोध टीका टीका अवचूरि देवराज उ० लक्ष्मीवल्लभ सर्वदेवसूरि उ० पुण्यसागर सोमसुन्दरसूरि शिष्य मुक्तिचन्द्र गणि कमलमन्दिर गणि४ अज्ञात . अज्ञात । चरित्र पञ्चक टीका टीका अवचूरि बालावबोध टीका अवचूरि बालावबोध महावीर चरित्र उ० साधुसोम उ० कनकसोम कमलकीत्ति उ० समयसुन्दर कनककलश गणि विमलरत्न उ० समयसुन्दर स्तबक सुमति . १. देवराज, इस पंजिका का उल्लेख केवल जिनरत्न कोष में ही है। २. सोमसुन्दरसूरि शिष्य का नामोल्लेख नहीं है । लेखक का समय १६वीं शती का पूर्वार्ध है । यह अव-. चूरि स्तोत्र रत्नाकर द्वितीय भाग में प्रकाशित हो चुकी है । ३. मुक्तिचन्द्र गणि का समय १६वीं शती का पूर्वाध है। इनका कोई इतिवृत्त प्राप्त नहीं है । इसकी एक मात्र प्रति मेरे संग्रह में है। ४. इस अवचूरि के कर्ता खरतरगच्छीय वेगड़ शाखा के श्री जिनगुणप्रभसूरि के शिष्य कमलमंदिर है । संभवतः आपका सत्ताकाल १७वीं शती है । इसकी तत्कालीन लिखित ६ पत्र की प्रति नाहटाजी के संग्रह में है। इसका प्राद्यन्त इस प्रकार है:(प्रा०) सद्गुरु गरिमागरं, ज्ञानविज्ञानसंयुतम् । प्रणम्य परया भक्त्याऽवचूरिलिख्यते मया ॥१॥ (अं०) इत्यवचूरिः, कृता श्रीखरतर-बेगडगच्छे श्रीजिनेश्वरसूरिसन्ताने श्रीजिनगुणप्रभसूरीश्वरसुविनेयेन __मुनिना कमलमन्दिरेण शोधिता। पं० गुणसागरवाचनाय ।। ५. इसकी एक मात्र प्रति यूनिवर्सिटी लायब्ररी बम्बई में सुरक्षित है । जैसा कि कुछ सूचिपत्रों में कर्ता का नाम देवसूरि लिखा है। किन्तु लिपि-वाचन के भ्रम से 'तदवचूरि' को देवसूरि पढा गया हो, ऐसा प्रतीत होता है। ६. जिनरत्न कोषानुसार ७. खरतरगच्छीय श्री जिनचन्द्रसूरि के शिष्य रंगनिधान के पठनार्थ सं० १६०६ में इसकी रचना की गई है। इसी समय की एक प्रति भां० ओ० रि० इ० पूना में नं० ३१३:. १८७१-७२ पर पत्र ३ पंच पाठमय सुरक्षित है । ८. इसकी स्वयं लिखित प्रति राज० प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में है। ९. खरतरगच्छीय पिप्पलक शाखा के श्री उदयसागर के प्रशिष्य श्री जयकीर्ति के शिष्य थे। प्रापका सत्ताकाल १७वीं शती का उतराद्ध है। १४० ] [ वल्लभ-भारती Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघु अजित शान्ति-स्तव नन्दीश्वर स्तोत भावारिवारण स्तोत (उल्लासि) टीक " बल्लभ-भारती ] 11 बालावबोध 91 19 टीका टीका 11 " 99 "" अवचूरि बालावबोध पादपूर्ति स्तोत १. मुनि कान्तिसागर संग्रह, जयपुर, सं० १५०१ लिखित प्रति । २. इसकी प्रति महिमा भक्ति भंडार बीकानेर में नं० २१० पर है । उ० धर्मं तिलक उ० समयसुन्दर उ० गुणनिय उ० साधुकीत उ० कमलकीत्ति उ० देवचन्द्र उ० साधुसोम उ० जयसागर उ० मेरुसुन्दर क्षैमसुन्दर 21 चारित्रवर्धन मतिसागर टोकाकारों का परिचय मुनिचन्द्रसूरि सूक्ष्मार्थविचारसार प्रकरण के चूर्णिकार आचार्य मुनिचन्द्रसूरि वृहद्गच्छीय पर्वदेवसूरि के प्रशिष्य और श्री यशोभद्रसूरि के शिष्य थे । आपको संभवतः श्री नेमिचन्द्रसूरि ने आचार्य पद प्रदान किया था। आपके विद्यागुरु पाठक विनयचन्द्र थे । आप न केवल असा • धारण विद्वान् तथा वादीभपंचानन थे, अपितु अत्युग्र तपस्वी और बालब्रह्मचारी भी थे । आप केवल सौवीर ( कांजी) ही ग्रहण करते थे. इसी कारण से आप "सौवीरपायी" के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपके अनुशासन में ५०० साधु और साध्वियों का समुदाय निवास करतो था । तत्समय के प्रसिद्ध वादीकण्ठकुद्दाल आचार्य वादी देवसूरि जैसे विद्वान् के गुरु होने का आपको सौभाग्य प्राप्त था। गुर्जर, लाट, नागपुर इत्यादि आपकी विहारभूमि के क्षेत्र थे । ग्रन्थ रचनाओं में प्राप्त उल्लेखों को देखते हुए आपका पाटण में अधिक निवास हुआ प्रतीत होता है । आपका स्वर्गवास सं० १९७८ में हुआ है । अज्ञात उ० मेसुन्दर पद्मराज पणि [ १४१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप तत्समय के प्रसिद्ध और समर्थ टीकाकार तथा प्रकरणकार हैं। आपके प्रणीत टीका-ग्रन्थों की तालिका इस प्रकार है: १. देवेन्द्र - नरकेन्द्र- प्रकरण वृत्ति २. सूक्ष्मार्थविचारसार प्र० चूर्णी ३. अनेकान्तजयपताकावृत्त्युपरि टिप्पन ४. उपदेशपद टीका ५. ललितविस्तरा पञ्जिका ६. धर्मबिन्दु वृत्ति ७. कर्मप्रकृति टिप्पन प्रकरणों की तालिका निम्न प्रकार है: १. अंगुल सप्तति २. आवश्यक सप्तति ३. वनस्पति सप्तति ४. गाथाकोष ५. अनुशासनाङ कुशकुलक ६. उपदेशामृत कुलक ७. ८. उपदेश पञ्चाशिकह ९. धर्मोपदेश कुलक १०. " - כל १४२] स. १९६६ पाटण चक्रेश्वराचार्य संशो. सं० ११७० आमलपुर शि. रामचंद्र सहायता से सं० ११७१ सु. ११७४ (नागौर में प्रारम्भ और पाटण में समाप्त ) ११. प्राभातिक स्तुति १२. मोक्षोपदेश पञ्चाशिका १३. रत्नत्रय कुलक १४. शोकहरोपदेश कुलक १५. सम्यक्त्वोत्पादविधि १६. सामान्यगुणोपदेश कुलक १७. हितोपदेश कुलक १५. कालशतक १६. मंडलविचार कुलक २०. द्वादशवर्ग आपने नैषधकाव्य पर भी १२००० श्लोक प्रमाणोपेत टीका की रचना की थी किन्तु दुर्भाग्यवश आज वह प्राप्त नहीं है । मुनिन्द्र ने इस सार्द्ध शतक प्रकरण पर सं० ११७० ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया गुरुवार के दिवस, आमलपुर में निवास करते हुए अपने शिष्य रामचन्द्रगणि (आचार्य बनने के बाद वादि देवसूरि के नाम से प्रसिद्ध) की सहायता से प्राकृत भाषा में २४७३ श्लोक प्रमाणवाली चूर्णी की रचना पूर्ण की: इच्चेसा जिरणवल्लहस्त गरिगो वक्काउ निष्फाइया, वृन्नी चुन्न य सुट्ठनिट्ठरपथा भव्वासासंबोहिणी । लखेवा मुविंदसा हुहुगा पत्थमि पन्ना क्र. अम्भस्तंतु विसोहयंतु य इमं वित्थारमारणंतु यं ॥ १॥ 1. वल्लभ-भारती Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामलपुरस्स एसा निप्फत्तिमुवागया विहारम्मि । नियसीसरामचंदाभिहारण परिषरको सहायत्ता ॥२॥ विक्कमनिवामसंवच्छरेसु नहमुखिहरप्पमारणेसु । तीइ सुइ मासिद्धा जेट्ठा इम बोय गुरुवारे ॥३॥ पच्चक्खरं निरूविय सिलोगमारपेण ठावियं मारसं । चउवोससयाई तिसत्तराई एपाए चुन्नीए ॥४॥ आचार्य जिनवल्लभ प्रणीत ग्रन्थों पर सर्वप्रथम व्याख्याओं में हमें यह चूर्णी ही प्राप्त होती है। स्मरण रहे कि यह चूर्णी आ० जिनवल्लभ के देहावसान के ३ वर्ष पश्चात् ही बनाई गई है। यह चूर्णी, चूर्णी के नियमानुसार प्राकृत भाषा में रची गई है। ग्रन्थस्थ प्रत्येक वाक्यों को चूर्ण-चूर्ण करके विशद व्याख्या सह पदार्थ का प्रतिपादन चूर्णीकार ने बहुत ही सफलता के साथ किया है और आगमिक उद्धरणों सह प्रत्येक वस्तुओं का स्पष्टीकरण भी सुन्दर पद्धति से किया है। कई अंशों में तो आचार्य धनेश्वर की अपेक्षा भी यह चूर्णी विशेष महत्त्व रखती है। चूर्णीगत भाषा की प्राञ्जलता, प्रौढता और प्रवाहपूर्णता देखकर निश्चिततया कह सकते हैं कि चूर्णीकार का प्राकृत भाषा पर असाधारण अधिकार था। खेद है कि ऐसी महत्त्वपूर्ण चूर्णी का अभी तक भी प्रकाशन नहीं हुआ है। ___ इसकी प्रतियां प्र० कान्तिविजय जी संग्रह बड़ोदरा आदि में प्राप्त है। रामदेव गणि . रामदेव गणि के संबंध कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है किन्तु स्वकृत षडशीति टिप्पणक में 'तस्सिस्सलवेणं' से तथा सुमति गणि रचित गणधरसार्द्ध-शतक वृहद्वृत्ति में उल्लिखित “स हि भगवान् (जिनवल्लभसूरिः ) यस्य शिरसि स्वहस्तपद्म ददाति, स जडोऽपि रामदेवगणिरिव वदनकमलावतीर्णभारतीको त्यन्तदुर्बोध-सूक्ष्मार्थसारप्रकरणवृत्ति विरचयति ।" उल्लेख से यह सिद्ध है कि आप जिनवल्लभरि के स्वहस्त-दीक्षित शिष्य थे। आपकी दीक्षा कब हुई, इसका कोई उल्लेख नहीं है किन्तु १.३०-६७ के मध्य में आपकी दीक्षा हुई होगी। ___आपकी रचनाओं में सत्तरीटिप्पन, सार्द्धशतक टिप्पन तथा षडशीति टिप्पन प्राप्त हैं । जिनके आद्यन्त इस प्रकार हैं:सत्तरी टिप्पन: (प्रा.) "सुगइगमसरलसररिण वीरं नमिऊरण मोहतमतरणि । सत्तरिए टिप्पेमि किंचि तुन्नीउ अणुसरिउ । (नं.) "इय एउ सुमरणस्थं टिप्पण मित्तपि किषि उद्धरियं । लक्खरखछंदवियारो न य काय०वो य कोंविदहं ॥४४७॥ इत्थ य सुत्तविवन्न भइमोहा किपि उद्धयि होज्जा । सोहिंतु जारणमारण मज्झ य मिच्छुक्कडं होउ ।।४४८।। कृतिरियं श्रीरामदेवगरपः।" वल्लभ-भारती ] [ १४३ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्द्ध शतक टिप्पन: ( श्रा० ) " सिद्धत्थसुयं नमिउं सुहमत्थवियाटिप्परगं किंचि । सुगुरुवसे श्रहं भणामि सरणत्थमप्पस्स । तत्थ पगरणकारों मगलाभिधियारां पडिपायर्णानिमित्तं इमां गाहामाहः(०) "इति सूक्ष्मार्थवचारसारप्रकरणस्य टिप्पणकं समाप्तम् ॥ इति ॥ ग्र० १४५० " षडशीति टिप्पण: श्रा० “सर पासजिणं नमिउं वत्थुविया रस्स विवरण भरणमो । इह श्रायसुमररत्थं गुरुवएसा समासेण ॥ "तत्थ ताव पगरणकारो इट्ठदेवयाणमोक्कारपुव्वं श्रभिधेयं हंश्रोयण च गाहादुगेण भणेइ: इन तीनों टिप्पणकों की रचना प्राकृत भाषा में ही है। इससे आपका प्राकृत भाषा और कर्मसिद्धान्त पर अच्छा अधिकार था, ऐसा प्रतीत होता है। इन तीनों टिप्पणों की जिनमें प्रथम सं० १२११ तथा २, ३ सं० १२४६ लिखित प्राचीन प्रतियां जैसलमेर जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार में सुरक्षित हैं । (०) सुगुरूगं सिरिजिणवल्लहारण सूरिण सूरिपवरालं । उज्झियनियकज्जारणं परोवगारेक्कर सियारणं ॥ २ ॥ जेण कय वत्युवियारसारनामं ति पगरणं पउरं । गंथ महत्यं तस्सेव णु विवरण विहिथं ॥ ३॥ तस्सिस्सल वेगं रामदेवगरिगणा उ मदमइनावि । पाइयवणे हि फुडं भव्वहि यट्ठेरणं समासेण ||४| इनकी टिप्पण संज्ञा होते हुए भी कतिपय वर्ण्यस्थलों पर आपने विवेचन भी विस्तार से बहुत सुन्दर किया है । धनेश्वरसूरि सूक्ष्मार्थ- विचार - सारोद्धार प्रकरण के सर्वप्रथम टीकाकार श्री धनेश्वरसूरि त्रिभुवनगिरि के सम्राट् कर्दम भूपति थे और प्रतिबुद्ध होकर चन्द्रकुलीय श्री शीलभद्रसूरि के शिष्य बने थे। इनने अपने शिष्य पार्श्वदेव गणि ( आचार्य पदारूढ होने पर श्रीचन्द्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध ) की सहायता से सं० १९७१ चैत्र शुक्ला सप्तमी गुरुवार को अणहिलपुर पत्तन में रह कर इस वृहत्परिमाणवाली टीका की रचना पूर्ण की है। इसका संशोधन तत्समय के प्रसिद्ध आचार्य चक्रेश्वरसूरि ने किया है और इसका प्रथमालेखन इन्हीं के शिष्य मुनिचन्द्रगणि ने किया है: १४४ ] - सम्पूर्ण निर्मलकलाकलितं सदैव जाड्येन वर्जितमखण्डितवृत्तभावम् । दोषानुषङ्गरहित नितरां समस्ति चान्द्र कुलं स्थिरमपूर्वशशाङ्कतुल्यम् ॥३॥ तस्मिंश्चरित्रधनधामतया यथार्थः, सजज्ञिर ननु धनेश्वरसूरिवर्याः ॥ नीहारहारह रहा रविका शिकाश-सङ्काशकी त्तिनिवहैर्धवलीकृताशाः ॥ ४ ॥ ॥ [ वल्लभ भारती Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये निस्सङ्गविहारिणोऽमलगुणा-विश्रान्तविद्याधरव्याख्यातार इति क्षितौ प्रविदिता विद्वन्मनोमोदिनः । येsनुष्ठानि जनेषु साम्प्रतमपि प्राप्तोपमाः सर्वतस्तेभ्यस्तेऽजितसिंहसूरय इहाभूवन् सतां सम्मताः ॥५॥ उद्दामधामभवजन्तु निकामवाम-कामे भकुम्भतटपाटनसिहपोता: । श्रीवर्द्धमानमुनियाः सुविशुद्धबोधास्तेभ्योऽभवन् विशदकीर्तिवितानभाजः ॥६॥ लोकानन्दपयोधिवर्धनवशात् सद्वृत्तता सङ्गतैः, सौम्यत्वेन कलाकलापकलनाच्छ् लाघ्योदयत्वेन च । ध्वस्तध्वान्ततया ततः समभवंश्चन्द्रान्वयं सान्वयं, कुर्वाणाः शुचिशालिनोऽत्र मुनिपाः श्री शीलभद्राभिधाः ॥७॥ निः सख्यैपि लब्धमुख्यगरणनैराशाविकाशं सतां कुर्वाणैरपि दिगो प्रीणिकैः । श्वेतैरप्यनुरञ्जित त्रिभुवनैर्येषां विशालैगु - श्चित्रं कोऽपि यशः पटः प्रकटितश्चेतो विचित्रैरपि |5|| सत्तर्कक कंशधियः सुविशुद्धबोधाः, सुव्यक्तसूक्तशतमौक्तिकशक्तिकल्पाः । तेषामुदारचरणाः प्रथमाः सुशिष्याः, सद्योभवन्न जिर्तास हमुनीन्द्रवर्याः ॥ ६ ॥ तेषां द्वितीय-शिष्या जाताः श्रीमद्धनेश्वराचार्याः । सार्द्धशतकस्य वृत्ति गुरुप्रसादेन ते चक्रुः ॥१०॥ शशिमुनिपशुपतिसंख्ये वर्षे विक्रमनृपादतिक्रान्ते । चैत्रे सितसप्तम्यां समर्थतेयं ॥११॥ युक्तायुक्तविवेचन-संशोधन लेखनै कदक्षस्य । निजशिष्यस्य सुसाहाय्याद् विहिता श्रीपार्श्वदेवगणेः ॥ १२ ॥ | प्रथमादर्शे वृत्ति समलिखतां प्रवचनानुसारेण । सुनिचन्द्र - विमलचन्द्रो गरणी विनीतौ सदोद्य क्तौ ॥ १३ ॥ श्रीचक्रेश्वरसूरिभिरतिपदुभिनिपुणपण्डितोपेतैः । मरण हिलपाटकनगरे विशोध्य नीता प्रमाणमियम् ||१४|| इस ग्रन्थ प्रशस्ति के अतिरिक्त आपके सम्बन्ध में कोई भी उल्लेख प्राप्त नहीं होते हैं । ग्रन्थ की इस विशद टीका को देखने से यह तो अत्यन्त ही स्पष्ट हो जाता है कि आप कर्म - साहित्य के सूक्ष्म सूक्ष्म विषयों के भी पूर्ण ज्ञाता थे । यही कारण है कि इस ग्रन्थ में ऐसा विषेच्य विषय कोई भी अवशिष्ट नहीं रहा जिस पर किसी को पुनः लेखिनी उठानी पड़े। टीका बहुत ही सुन्दर और सर्वार्थ- प्रकाशिनी है । व्याख्याकार की लेखिनी अत्यन्त ही प्रौढ और प्राञ्जल होने से यह व्याख्या केवल विद्वदभोग्या ही बन सकी है, ऐसा हम निःसंकोच कह सकते हैं । भाषा में माधुषं, ओज तथा आलङ्कारिकता और समास - बहुलता भरी पड़ी है । उदाहरण के तौर पर अवतरणिका का थोड़ा सा भाग ही देखिये : बल्लभ-भारती 1 [ १४५ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इहातिगम्भीरापारसंसारपारावारविहा रिजन्तुनाऽति निविडशैवलवलयविस्फुरितान्धकारमहाह्रदविवर निगतग्रीवकच्छपेनेव करप्रस र विधुरितान्धकारतारतारकपरिकरितकौमुदीशशाङ्कदर्शनमिवावाप्यातिदुष्प्रापं जिनधर्मान्वितं मानुषत्वं सकलपुरुषार्थसारे परोपकारे यतितव्यम् । स च न निखिलकल्याणकारि जिनशासनो देशमन्तरेण । तस्य च प्रभूततरपदार्थविषययत्वेऽपि प्रथमं तावत् कर्मणः सकलदुःखोपनिपातहेतुत्वेन परमारातिभूतवात् तत्स्वरूपप्रकाशनविष एवासौ युक्तः । तत्परिज्ञाने हि सदनुष्ठानतस्तदुच्छेदमाधाय प्राणिनः परमपदसम्पदं सपदि समासादयन्तीति । तत्स्वरूपप्रकाशनं च यद्यपि कर्म प्रकृत्यादिषु प्रभूततरग्रन्थेषु विहितमेव । तथापि तेऽतिविस्तीर्णत्वेनातिगम्भीरतया च दुरवगाहत्वाद् विशिष्ट संहननमेधादिरहितानामिदानीन्तन मानवानां न तथाविधोपकारायालम् । अतस्तेषामनुग्रहाय कर्मप्रकृति-पञ्चसंग्रहादिशास्त्रादेवोद्धृत्य कर्मगतकतिचित्पदार्थानां प्रसङ्गतस्तदितरेषां च केषाञ्चित्प्ररूपणाय सूक्ष्मपदाfootoसन्निभप्रतिभः श्रीजिनवल्लभाख्यः सूरिः सार्द्ध शतकाख्यं प्रकरणं चिकीर्षुः ।" यह टीका जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगर से प्रकाशित हो चुकी है । मलयगिरि आगमिवस्तुविचारसार प्रकरण के टीकाकार श्रीमलयगिरि के नाम से कौन जैन विद्वान् परिचित न होगा ? जैन आगमों में उपांग- नाहित्य, छेद- साहित्य और प्रकरण- साहित्य पर आपकी उद्भट और प्राञ्जल लेखिनी न चलती तो आज इस साहित्य का ज्ञान भी हमें होता या नहीं ? संदेह ही है । नवाङ्गीवृत्तिकारक खरतरगच्छविभूषण आचार्य श्री अभयदेव - सूरि के समान ही आप भी अपने व्याख्या-ग्रन्थों के कारण जैन- साहित्याकाश में सूर्य के समान प्रभापूर्ण स्थायी हो गये । श्वेताम्बर समुदाय के समस्तगच्छ और समग्र विद्वान् आपको सदा से श्रद्धाञ्जलि चढाते आये हैं और आपके वाक्यों को आप्तवाक्य सदृश समझते आये हैं । किन्तु खेद है कि ऐसे भागधेय आचार्य का यत्किंचित् भी जीवन-वृत्त हमें प्राप्त नहीं होता । स्वयं टीकाकार ने अपनी लाघवता के कारण किसी भी टीका या ग्रन्थ में अपने नाम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लिखा है । और तो और, किन्तु रचना संवत् का भी उल्लेख हमें प्राप्त नहीं होता । आपके कतिपय ग्रन्थों के आधार से केवल इतना हो निश्चित है कि आप चालुक्यवंशी कुमारपाल के समय में मौजुद थे। किंवदन्तियों के आधार से तो यह मालूम होता है कि तत्समय के प्रसिद्ध जैनाचार्य महाराजा कुमारपाल प्रतिबोधक श्रीहेमचन्द्राचार्य के आप सहपाठी और सहविहारी थे और एक समय इन दोनों ने साथ ही में देवी की आराधना भी की थी। कुछ भी हो, यह निश्चित है कि आपका सत्ताकाल १३ वीं शती का पूर्वार्ध है। आपके प्रणीत अनेक ग्रन्थ हैं जिनका विस्तृत विवेचन जैन साहित्य नो संक्षिप्त इति हास पृ० २७३ तथा मुनि पुण्यविजयजी लिखित बृहत्कल्पसूत्र प्रस्तावना में देखना चाहिये । प्रस्तुत टीका अन्य टीकाओं की अपेक्षा प्रौढ और उपादेय है । किसी-किसी स्थल पर तो ( जैसे १४ गुणस्थान) टीकाकार ने इतना अधिक विशद विवेचन किया है कि उस १४६ ] [ वल्लभ-भारती Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या के अतिरिक्त तत्सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों को पढने की आवश्यकता ही न रहे । आपकी व्याख्या पटुता के सम्बन्ध में क्या प्रकाश डाला जाय ! सूर्य की किरणें सर्वत्र ही प्रकाशमान है। इस प्रकरण पर टीका रचकर आपने जिनवल्लभगणि की शिष्ट और आप्तकोटि के महापुरुषों में गणना की है जो वस्तुतः आचार्य जिनवल्लभ की गीतार्थता और प्रामाणिकता को उद्घोषित कर रही है। अन्य टीका-ग्रन्थों की तरह इसमें भी नाम के अतिरिक्त किंचित् भी उल्लेख प्राप्त नहीं हैं। यह टीका 'सटीकाश्चत्वारः प्राचीनकर्मग्रन्थाः' नाम से आत्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हो चुकी है। हरिभद्रसूरि आगमिक-वस्तुविचारसार प्रकरण (षडशीति) के टीकाकार श्रीहरिभद्रसूरि वृहद्गच्छीय श्रीमानदेवसूरि के प्रशिष्य और उपाध्यायवर श्री जिनदेव के शिष्यरत्न थे। आपका सत्ताकाल १२ वीं शती का उतरार्द्ध है । आपने सं० ११७२ श्रावण शुक्ला ५ रविवार को सिद्धराज जयसिंह के राज्यकाल में अणिहलपूर पाटण में आशापरी वसति में निवास करते हुए ८८५ श्लोक-परिमाण की षडशीती पर टीका की रचना की है: "मध्यस्थभावादचलप्रतिष्ठः, सुवर्णरूपः सुमनोनिवासः । अस्मिन्महामेरुरिवास्ति लोके, श्रीमान् वृहद्गच्छ इति प्रसिद्धः ॥५॥ तस्मिन्न भूदायतबाहुशाखः, कल्पद्रमाभः प्रभुमानदेवः । यदीयवाचो विबुधैः सुबोधाः, कर्णेकृता नूतनमञ्जरीवत् ॥६॥ तस्मादुपाध्याय इहाजनिष्ट, श्रीमान्मनस्वी जिनदेवनामा । गुरुक्रमाराधयिताल्पबुद्धिस्तस्यास्ति शिष्यो हरिभद्रसूरिः ॥७॥ प्रणहिल्लपाटकपुरे श्रीमज्जयसिंहदेवनृपराज्ये । प्राशापूरवसत्यां वृत्तिस्तेनेयमारचिता ८॥ एकेकाक्षरगणनादस्या वृत्तेरनुष्टुभां मानम् । प्रष्टौ शतानि जातं पञ्चाशत्समधिकानीति ।। वर्षशतकादशके द्वासप्तत्यधिके ११७२ नभोमासे । सितपञ्चम्यां सूर्ये समर्थिता वृत्तिकेयमिति ॥१०॥ श्रीहरिभद्रसूरि भी तत्समय के प्रसिद्ध टीकाकारों में से हैं। आपके प्रणीत अन्य प्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं; वे निम्नलिखित हैं:१. बन्धस्वामित्व कर्मग्रन्थ टीका र.सं. ११७२ पाटण २. प्रशमरति प्रकरण वृत्ति सं. १९८५ ३. क्षेत्रसमास वृत्ति ४. मुनिपतिचरित्र (प्राकृतभाषा) ५. श्रेयांसनाथचरित्र (प्राकृतभाषा) वल्लभ-भारती] [ १४७ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिपति चरित्र और श्रेयांसनाथ चरित्र देखने से आपका प्राकृत भाषा पर भी पूर्ण अधिकार प्रतीत होता है। आपकी यह षडशीति पर टीका न अत्यधिक विस्तृत है और न अति संक्षिप्त ही। इसमें प्रकरणगदित वस्तु का विवेचन अत्यन्त ही स्पष्टता के साथ किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि आप कर्म-साहित्य के भी पूर्णज्ञाता थे। ___ यह टीका 'सटीकाश्चत्वारः प्राचीनकर्मग्रन्थाः' नामक ग्रन्थ में आत्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हो चुकी है। यशोभद्रसूरि आगमिक-वस्तुविचारसार प्रकरण के टीकाकार आचार्य यशोभद्र चन्द्रकुलीय, राजगच्छीय ( देशाई के अनुसार ) आचार्य शीलभद्रसूरि के प्रशिष्य, सूक्ष्मार्थविचारसार प्रकरण के टीकाकार ख्यातनामा आचार्य श्रीधनेश्वरसूरि के प्रशिष्य तथा शाकंभरी नरेश, अजयदेव प्रतिबोधक, महाराजा अर्णोराज की राजसभा में दिगम्बर मतानयायी प्रसिद्ध विद्वान विद्याचन्द्र एवं गुणचन्द्र के विजेता, धर्मकल्पद्र मग्रन्थ के प्रणेता आचार्य धर्मसूरि (धर्मघोषसूरि) के शिष्य थे । जैसा कि प्रशस्ति से स्पष्ट है: - शब्दककारणतयाद्भुतवैभवेन, सद्भावभूषिततया ध्रुवतानुवृत्त्या । पुष्णात्यखण्डमिह यद्गमनेन संख्यं, चान्द्र कुलां तदवनाधिविगीतमस्ति ॥१॥ तत्रोदितः प्रतिदिनं स्मरमत्सरादि-दैतेयनिर्दयविमर्दनकेलिलोलः । विश्वेप्यधृष्ट्यमहिमासवितेव सूरिः, श्रीशीलभद्र इति विश्रु तनामधेयः ॥२॥ तस्याऽभवद् भुवनवल्लभभाग्यसम्पद्, सूरिधनेश्वर इति प्रथितः स श्रुष्यतः । अद्याप्यमन्दमतयो ननु यत्प्रतिष्ठामादित्सवः किमपि चेतसि चिन्तयन्ति ।।४।। सूक्ष्मार्थ-सार्ध शतकप्रकरणविवरणमिषेण सम्यग्दृशाम् ।। मलयजमिव लोकानां हृदयानि मुखानि भूषयति ॥५॥ xxx नृपतिरजयदेवो देवविद्वन्मनीष-मददलनविनोदैः कोविदेस्तुल्यकालम् । स्थितिमुपधिविरुद्धां मागधीयामधत्त, स्खलितमखिलविद्याचार्यक यस्य दृष्ट्वा ॥६॥ अर्णोराजनपे सभां परिवढे श्रीदेवबोधादिषु, प्राप्तानेकजयेषु साक्षिषु सदिग्वासः शिरः शेखरः । सद्विद्योपि गुणेन्दुरन्तरुदितक्षोभोद्भवेद्वपथुहेतुर्यस्य निशम्य मन्त्रविमुखं तत्याज वादवतम् ।।१०॥ यस्य श्रीखण्डपाण्डुर्धमति दशदिशः कीतिरुत्साहिते वा, घाट द्रष्टं त्रिलोक्याः सुरभितभुवनस्तैः पवित्रश्चरित्रैः । तस्य श्रीधर्मसूरिनिरवधिधिषणाशालिनः शिष्यलेशः, स्मृत्यै स्वस्येदमल्पं विवरणमकृत श्रीयशोभद्रसूरिः ॥११॥ आपकी प्रतिष्ठित सं० ११६५ की एक मूत्ति अजमेर म्युजियम म प्राप्त है। लेख के लिये देखें, उपाध्याय विनयसागर सम्पादित 'प्रतिष्ठालेख संग्रह' लेख १५. १४८ ] [ वल्लभ-भारती Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रशस्ति में आचार्य ने रचनाकाल का निर्देश नहीं किया है किन्तु आचार्य धनेश्वर की सार्द्ध शतक टीका का उल्लेख होने से तथा आचार्य जिनप्रभसूरि कृत विविधतीर्थ कल्पान्तर्गत फलवधि पार्श्वनाथ कल्प में आ० धर्मसूरि द्वारा सं. १९८१ में फलौदी पार्श्वनाथ चैत्य की प्रतिष्ठा का उल्लेख होने से, यह निश्चित है कि आचार्य का सत्ताकाल १२ वीं शती का अन्तिम चरण और १३ वीं शती का प्रथम चरण है। अतः यह अनुमान किया जा सकता है इसकी रचना ११८५ के पश्चात् आचार्य ने की है । आचार्य यशोभद्र ने ग्रन्थकार पूज्य जिनवल्लभ की रचना के सन्मुख अपनी जो पंगुता लघुता प्रकट की है; वह दर्शनीय है : - क्वासौ श्रीजिनवल्लभस्य रचना सूक्ष्मार्थचर्चाञ्चिता, क्वेयं मे मतिरग्रिमा प्रणयिनी मुग्धत्व पृथ्वीभुजः । पङ्गोस्तुङ्गनगाधिरोहण सुहृद्यत्नोयमार्यास्ततोसद्ध्यानव्यसनार्णवे निपततः स्वान्तस्य पोतोषितः ॥ २ ॥ यह टीका आचार्य मलयगिरि और आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत टीकाओं के सम्मुख साधारण कोटि की होती हुई भी साधारण विद्वानों की तृषा को बुझाने में पूर्ण समर्थ है । श्लोक-परिमाण में भी अन्य टोकाओं की अपेक्षा इसका परिमाण विपुल है । स्थान-स्थान पर भाषा की प्राञ्जलता के साथ-साथ वाग्वैदग्ध्य भी प्राप्त होता है । विवेचन सुन्दर पद्धति से किया गया है। इस टीका की प्रति प्र० कान्तिविजयजी संग्रह बड़ोदा में सुरक्षित है । देशाई के अनुसार आपका प्रणीत 'गद्यगोदावरी' नामक ग्रन्थ भी प्राप्त है । श्रीचन्द्रसूरि पिण्डविशुद्धिप्रकरण के टीकाकार श्रीचन्द्रसूरि चान्द्रकुलीय शीलभद्रसूरि के प्रशिष्य और श्रीधनेश्वरसूरि के शिष्य थे। मुनि अवस्था में आपका नाम पार्श्वदेव गणि था, आचार्य होने के पश्चात् आपका श्रीचन्द्रसूरि नाम प्रसिद्ध हुआ । सं० १२०४ में मन्त्री पृथ्वीपाल विमल सहि (आबू ) का उद्धार करवाया था, उस समय आप भी वहां विद्यमान थे । आप एक समर्थ टीकाकार और प्रतिभाशाली विद्वान् थे । सं० १९७१ में जिनबल्लभी सार्द्ध शतक पर आपके गुरुश्री ने टीका रची थी उसमें आप सहायभूत थे:युक्तायुक्तविवेचन-संशोधन लेखनै कदक्षस्य । निशष्यस्य सुसाहाय्याद् विहिता श्रीपाश्वदेवगणेः ॥ १२ ॥ बल्लभ-भारती 1 ( सार्द्धं शतकटीका प्रशस्तिः ) [ १४e Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके प्रणीत जो अन्य टीका-ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, उसकी तालिका निम्नलिखित है:१. दिङ नाग प्रणीत न्यायप्रवेश, हारिभद्रीय वृत्ति पर पञ्जिका सं० ११६६ : २. महत्तर जैनदासीय निशीथचूर्णी पर विंशोद्देशक व्याख्या सं० ११७३ ३. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र वृत्ति सं० १२२२, ४. नन्दीसूत्रटीका दुर्गपदव्याख्या ५. जीतकल्पबृहच्चूणि व्याख्या सं० १२२७, ६. निरयावलीसूत्र वृत्ति सं० १२२८ ७. चैत्यवन्दन सूत्र वृत्ति ८. सर्वसिद्धान्तविषमपदपर्याय ६. प्रतिष्ठाकल्प १०. सुखबोधा समाचारी ११. पिण्डविशुद्धिवृत्ति सं० ११७८ १.. पद्मावत्यष्टक वृत्ति आपका साहित्य सर्जन-काल ११६६ से १२२८ तक का है। पिण्डनियुक्ति आदि शास्त्रों का अवलोकन कर सं० ११७८ कार्तिक कृष्णा ११ रविवार, देवकुलकपाटक ( देलवाड़ा ) में चातुर्मास की स्थिरता करते हुए, ४४०० श्लोक प्रमाण की पिण्डविशुद्धि प्रकरण पर टीका की रचना आपने पूर्ण की है: दोषानुसङ्गरहितं सवृत्तं जाड्यजितं सकलम् । समभूदिह चान्द्रकुलं स्थिरं सदाऽऽपूर्वचन्द्रसमम् ॥१॥ तस्मिन् गुणमणिरोहणगिरिकल्पाः शीलभद्रसूर्यास्याः । प्रभवन्ति हि तु मुनीन्द्रा विशालमतय. सदाकृतयः ॥२॥ प्रौदार्यस्थैर्यगाम्भीर्य-धैर्यरूपादिसंयुताः। समभवन् सुशिष्यास्ते श्रीधनेश्वरसूरयः ॥३॥ x शास्त्रं पिण्डविशुद्धिसजितमिदं श्रीचन्द्रसूरिः स्फुटं, तवृत्ति सुगमां चकार तनुधी श्रीदेवतानुग्रहात् ॥७॥ पिण्डनियुक्तिसच्छास्त्रवृद्धव्याख्यानुसारतः । मालिकेर्यादिसवृक्षे श्रीदेवकुलपाटके ।। बसुमुनिरुद्र जति विकमवर्षे रवी समाप्येषा । कृष्णकादश्यां कात्तिकस्य योगे प्रशस्ते च ॥ प्रस्यां चतुःसहस्राणि शतानां च चतुष्टयम् । प्रत्यक्षरप्रमाणेन श्लोकमानं विनिश्चतम् ॥१४॥ प्रस्तुत टीका अन्य समग्र टीकाओं की अपेक्षा श्रेष्ठ है। इसकी व्याख्या तो संस्कृत में है और उदाहरण प्राकृत भाषा में; जो इनके प्राकृत भाषा के सौष्ठव को सूचित करते हैं। वस्तु का विवेचन भी परिमार्जित किन्तु सरल भाषा में आपने विस्तार से किया है। साथ ही अनेकों दृष्टान्त देकर वस्तु को उपादेय बना दिया है। इस टीका की रचना आचार्य जिनवल्लभ के स्वर्गारोहण (११६७) के ११ वर्ष पश्चात् की गई है। इसी को लक्ष्य में रख कर पन्यास मानविजय ने इस ग्रन्थ की भूमिका में १५.] [वल्लभ-भारती Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छ-व्यामोह से जो यह लिखा है:-"शासनद्रोहकारि-नवीनमतोत्पादकस्य ग्रन्थं प्रमाणीकुर्वन्तः परमसूत्रानुसारिश्रीमच्चन्द्रसूरिमहाभागास्तस्योपरि वृत्ति कुयु रेतदपि सुबुद्धिपथं नावतरति ।" सो कितना प्रलापपूर्ण है । देखिये, आप ही के गुरु धनेश्वरसूरि जिन्होंने सं० ११७१ में खरतरगच्छ मान्य इन्हीं जिनवल्लभगणि प्रणीत सार्द्ध शतक पर टोका रची है; जिसमें आप (श्री चन्द्रसूर) स्वयं सहायभूत थे । इस टीका में धनेश्वरसूरि स्पष्ट लिखते हैं: "जिणवल्लह गणित्ति, जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थ-संग्राहिस्थानाङ्गाद्यङ्गोपाङ्गपञ्चाशकादिशास्त्रवृत्तिविधानावाप्तावदातकीत्तिसुधाधवलितधरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण ।' इससे अत्यन्त ही स्पष्ट है कि जिनवल्लभ नाम का अन्य कोई व्यक्ति नहीं किन्तु अभयदेवसूरि शिष्य ही है। अन्यथा आचार्य श्रीचन्द्र स्वयं 'गणि' शब्द की व्याख्या करते हुए "उण (पुनः) गणयोगात् साधुगणयोगाद्वा गणिना-सूरिणा" तथा "सूक्ष्मपदार्थ-निष्क निष्कषणपटकसन्निभप्रतिभजिनवल्लभाभिधानाचार्य" जैसे पज्य शब्दों का व्यवहार कदापि नहीं करते । अतः मानविजयजी का "शासनद्रोहकारि" यह कथन अत्यन्त ही उपेक्षणीय है। यह टीका विजयदानसूरि ग्रन्थमाला सूरत से प्रकाशित है। यशोदेवसूरि आप चन्द्र-कुलीय श्रीवीरगणि के प्रशिष्य और श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य थे । सं० ११७६ में आपने अपने सुयोग्य शिष्य श्री पार्वदेव की सहायता से पिण्डविशुद्धि पर लघुवृत्ति की रचना पूर्ण की । इस लघुवृत्ति का संशोधन आचार्य मुनिचन्द्रसूरि ने किया है। जैसा कि प्रशस्ति में कहा गया है: प्रासीच्चन्द्रकुलोद्गतिः शर्माधिः सौम्याकृतिः सन्मतिः, सलोनः प्रतिवासरं निलयगो वर्षासु सुध्यानधीः । हेमन्ते शिशिरे च शावरहिमं सोढुं कृतोवस्थितिस्विच्चण्डकरे निदाघसमये चाऽतापनाकारकः ॥१॥ प्रादेयता तपस्त्याग-व्याख्यातृत्वादिसद्गुणैः । लोकोत्तरै विशालश्च श्रीमद्वीररिणप्रभुः ।।२।। श्रीचन्द्रसूरि नामा शिष्योऽभूत्तस्य भारतीमधुरः । मानन्दितभव्यजनः शंसितसशुद्धसिद्धान्तः ॥३॥ तस्यान्तेवासिना दृब्धा, श्रीयशोदेवरिणा। सुशिष्य-पार्श्वदेवस्य, साहाय्यात् प्रस्तुता वृत्ति ॥४॥ पिविद्धिप्रकरणवृत्ति कृत्वा यदवाप्तं मया कुशलम् । तेनाऽभवपि भूयाद् भगवद्वचने ममाभ्यासः ॥६॥ श्रुतहेनिकषपट्ट: श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिभिः पूज्यः । संशोधितेयखिला प्रयत्नतः शेर्षावबुधैश्च ॥७॥ पल्लभ-भारती] [ १५१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका को देखते हुए यह मालूम होता है कि व्याख्याकार 'मूले इन्द्र बिडोजा टीका' के चक्र में नहीं फंसे हैं और न इसका व्यर्थ में कलेवर ही बढाया है; किन्तु ग्रन्थकार के आशय को विशदता और सरसता के साथ बहुत ही सुन्दर पद्धति से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । भाषा भी आपकी दुरूह न होकर सरल होते हुए भी प्रवाह पूर्ण एवं परिमार्जित है। साथ ही इसकी एक यह भी विशेषता है कि विषय को रोचक बनाने के लिये प्रसंग प्रसंग पर उदाहरण भी दे दिये हैं। उदाहरण बृहद्वृत्ति की तरह विस्तृत न होकर संक्षेप में हैं; पर जो हैं वे भी प्राकृत आर्याओं में । इससे स्पष्ट है कि आपका प्राकृत भाषा पर भी अच्छा अधिकार था। यह वृत्ति लघु होते हुए भी अपने में पूर्ण है अर्थात् इसको समझने के लिये अन्य टीका की आवश्यकता नहीं रहती। आपके प्रणीत और भी ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, जिनकी सूचि निम्न प्रकार है : सं० ११७२ में हारिभद्रीय पंचाशक पर चणि, सं० ११७४ में इपिथिकी, चैत्यवन्दन और वन्दनक पर चूणिये, सं० ११७८ में पाटण में सिद्धराज जयसिंह के राज्य में सोनी नेमिचन्द्र की पौषधशाला में निवास करते हुए पाक्षिकसूत्र पर सुखावबोधा नाम की टीका और सं० ११८२ में रचित प्रत्याख्यान-स्वरूप आदि की रचनाएं प्राप्त हैं। यह टीका जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है। उदयसिंहसूरि पिण्ड विशुद्धि प्रकरण के दीपिकाकार श्री उदयसिंहसूरि चन्द्रकूलीय आगमज्ञ श्री श्रीप्रभरि (धर्मविधिप्रकरण के प्रणेता ) के प्रशिष्य और श्रीमाणिक्यप्रभसरि ( कच्छूली पार्श्वचैत्य के प्रतिष्ठाकार) के शिष्य थे। आपने श्रीयशोदेवसूरि प्रणीत लघवृत्ति को आदर्श मानकर तदनुसार ही सं० १२६५ में ७०३ श्लोक प्रमाणवाली इस दीपिका की रचना की। जैसा कि प्रशस्ति से स्पष्ट है: इति विविधविलसदर्थ सुविशुद्धाहारमहितसाधुजनम् । श्रीजिनवल्लभरचितं प्रकरणमेतन्न कस्य मुदे ॥१॥ मादृश इह प्रकरने महाथपंक्तौ प्रिवेश बालोऽपि। यवृत्त्यङ्गा लिलग्नस्तं श्रयंत गुरु यशोदेवम् ॥२॥ प्रासीदिह चन्द्रकुले श्रीश्रीप्रभरिरागमधुरीणः । तत्पदकमलमरालः श्रीमाणिकप्रभाचार्यः ॥३॥ तच्छिष्याणुजडधी-रात्मविवे साररुदयसिंहाख्यः। पिण्डविशुद्ध वृत्ति-मुद्दधे दीरिकामेनाम् ॥४॥ अनया पिण्डविशुद्ध-पिकया साधवः करस्थितया। शस्यावलोककुशला दोषोत्थतमांस्यपहरन्तु ॥५॥ विक्रमतो वर्षारणा पञ्चनवधिक रविमितशतेषु । विहितेयं श्लोकैरिह सूत्रयुता व्यधिकसप्तशती ॥६॥ १५२ ] [ वल्लभ-भारती Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य बृहद्वृत्तियों, लघुवृत्तियों का आश्रय लेकर इस दीपिका की रचना हुई है । यह दीपिका संक्षिप्त होते हुए भी वस्तुतः प्रकरण के लिये दीपिका सदृश ही है । संक्षिप्तरुचि तज्ज्ञों के लिये यह दीपिका अत्यन्त ही महत्त्व की है । भाषा भी इसकी सरल और सुबोध है । संक्षिप्त होने पर भी इसमें प्रतिपादित विषयों का प्रतिपादन बहुत ही सुन्दर ढंग से किया गया है । इसमें दीपिकाकार ने कथानकों का आश्रय लेकर इसका कलेवर बढाने का व्यर्थ प्रयत्न नहीं किया है; उदाहरणों के लिये वृत्तियों का उल्लेख कर दिया है । उदयसिंहसूर के संबंध में देसाई अपने "जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' में लिखा है: "ते उदयसिंहे चड्डावलि (चन्द्रावती) ना राउल धंधलो देवनी समक्ष मन्त्रवादि ने मन्त्र थी हरायो । तेणे पिण्डविशुद्धि विवरण, धर्मविधिवृत्ति अने चैत्यवन्दन दीपिका रची। अने ते सं० १३१३ मां स्वर्गस्थ थया । पछी कमलसूरि, प्रज्ञासूरि, प्रज्ञातिलकसूरि थया वगेरे । " ( पृ० ४३४) यह दीपिका जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है । संवेगदेव गणि पिण्डविशुद्धि प्रकरण के बालावबोधकार पं० संवेगदेव गणि तपागच्छनायक श्री सोमसुन्दरसूरि के पट्टधर श्रीरत्नशेखरसूरि के शिष्य थे । आपने पिण्डविशुद्धि पर सं० १५'३' में बालावबोध की रचना की है । आपके सम्बन्ध में कोई उल्लेखनीय बात प्राप्त नहीं है । आपकी दूसरी कृति १५१४ में रचित आवश्यक पीठिका पर बालावबोध है । इससे प्रतीत होता है कि समय की मांग को स्वीकार करते हुए आपने अपनी लेखनी को भाषासाहित्य की तरफ मोड़कर समयज्ञता का परिचय दिया है । पिण्डविशुद्धि वालावबोध का आद्यन्त इस प्रकार है: ( श्रा० ) श्रीमद्वीरजिनेशं नत्वा श्रीसोमसुन्दरगुरू ंश्च । पिण्डविशुद्ध बलावबोधरूपं तनोम्यर्थम् ॥ १॥ X X ( श्रं० ) इति श्रीजिनवल्लभसूरिविरचित-पिण्डविशुद्धिप्रकरणस्यार्थो बाला बोधरूपः तपागच्छनायक श्री सोमसुन्दर सूरिशिष्य - विजयमानभट्टारक प्रभु श्री रत्न शेखसूरिशिष्य० पं० संवेगदेव गणिना समर्थितः ।" X उक्त बालावबोध मूल प्रकरण पर सुन्दर प्रकाश डालता है। भाषा होते हुए भी इसकी भाषा प्रसादगुण से पूर्ण है । भाषा - शास्त्र की दृष्टि से यह बालावबोध विवेचनीय अवश्य है । इसकी अनेकों प्रतियां प्राप्त है। १. जैन सा० सं० ६० के आधार से वल्लभ-भारती ] [ १५३ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पौषध-विधि-प्रकरण के वृत्तिकार आचार्य युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि श्रीजिनमाणिक्यसूरि के शिष्य थे। आपके माता-पिता वीसा ओसवाल श्रीवंत और सियादे खेतसर (मारवाड़) के निवासी थे। आप का जन्म सं० १५६५ में हुआ था और बाल्यावस्था का आपका नाम था सुलतान । आचार्य श्रीजिनमाणिक्यसूरि के उपदेश से प्रभावित होकर ६ वर्ष की अल्पावस्था में आपने सं० १६०४ में दीक्षा ग्रहण की और आप का उस समय दीक्षा नाम रखा गया सुमतिधीर । सं० १६१२ भाद्रपद शुक्ला ६ गुरुवार को जैसलमेर के राउल श्रीमालदेवजी ने आचार्य पदारोहण का उत्सव किया और बेगडाच्छ (खरतरगच्छ की 'ही एक शाखा) के आचार्य गुणप्रभसूरि ने आपको आचार्य पद प्रदान कर तथा जिनचन्द्रसूरि नाम प्रख्यात कर गच्छनायक घोषित किया सं० १६१४ चैत्र कृष्णा सप्तमी को प्रचलित शिथिलाचार को दूर कर आपने क्रियोद्धार किया । सं० १६१७ में पाटण में जिस समय तपगच्छीय उद्भटविद्वान् कदाग्रही उ० धर्मसागरजी ने गच्छ-विद्वषों का सूत्रपात किया उस समय उनका आचार्यश्री ने शास्त्रार्थ के लिये आह्वान किया और उनके उपस्थित न होने पर अन्य तत्कालीन समग्रगच्छीय आचार्यों के समक्ष धर्मसागरजी को उत्सूद बादो घोषित किया था। सम्राट अकबर के आमन्त्रण से सूरिजी १६४८ फाल्गुन शुक्ला १२ के दिवस ३१ साधुओं के परिवार सहित लाहौर में सम्राट से मिले और स्वकीय उपदेशों से प्रभावित कर आपने तीर्थों की रक्षा एवं अहिंसा प्रचार के लिये कई फरमान प्राप्त किये थे। सं० १६४६ फाल्गुन वदि १० के दिवस सम्राट् के हाथ से ही युगप्रधान पद भी प्राप्त किया जिसका विशाल महोत्सव करोड़ों रूपये व्यय कर महामन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत ने किया था। स० १६७० आश्विन कृष्णा २ को बिलाडा में आपका स्वर्गवास हआ था। २२ वर्ष जैसी अल्पावस्था में पौषधविधि प्रकरण जैसे सैद्धान्तिक विधि-विधान पूर्ण : प्रकरण पर ३५४४ श्लोक प्रमाण वृत्ति रचकर आपने अपनी असीम प्रतिभा का परिचय दिया है। इस टीका की पूर्णाहूति सं० १६१७ विजय दसमी के दिवस पाटण में हुई है। इस प्रकरण के अन्तिम द्विपदी-पद्य की व्याख्या उपाध्याय जय गोम ने की है और इस वत्ति का संशोधन तत्समय के प्रतिष्ठित गीतार्थशिरोमणि महोपाध्याय पुण्यसागर, उपाध्याय धनराज और महोपाध्याय साधुकीति गणि ने किया है: “एतद्विपदीव्याख्या लिखनादवलोकनाच्च गुरुवचसा । जयसोमोपाध्याया एतत्कृत्योपयोगिनो विहिताः ॥१॥ ग्रथितमदः श्रीगुरुभिः शास्त्रं जिनचन्द्रसूरिभिविवृतम् । पुण्यधनसाधुणितमेतज्जयकारणं भूयात् ॥२॥ तेषां गुरुणां शिष्येण श्रीजिनचन्द्रसूरिणा। श्रीपौषधविधेवृत्तिश्चक्रे वाणीप्रसादतः ॥१६।। मुन्येकणाङ्ककलाप्रमिते वर्षेऽहिल्लपुरनगरे । बभासि विजयदसमीदिवसे सत्पुण्यसम्पूर्णे ॥२०॥ १५४ ] [ वल्लभ-भारती Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोज्य वृत्तिणि-सामाचारी विलोक्य सदृष्ट्या । श्रीपुण्यसागरमहोपाध्यायः शास्त्रधौरेयः ॥२१॥ श्रीपाठकधनराजः सुशोधिता साधुकोत्तिगणिनाऽपि । विबुधैः प्रवाच्यमाना नन्दतु यावज्जिनेन्द्रमतम् ॥२२॥ प्रत्यक्षरगणनेन त्रिसहस्रीपञ्चशतकसयुक्ता। चतुरधिकः पञ्चाशत्श्लोकः प्रत्यक्षतः प्रकटा ॥२३॥ जिनवल्लभ के अन्य ग्रन्थों पर तो तत्काल ही अनेक वृत्तियों की रचना हो चुकी थी। किन्तु इस मूल प्रकरण की रचना होने के ५०० वष तक भी इस पर कोई टीका, दीपिका, पञ्जिका और अवचूरि आदि की रचना हई हो ज्ञात नहीं होती। सर्वप्रथम १७ वीं शती में ही आवश्यक सूत्र सम्बन्धी समग्र साहित्य (जिसमें वृत्ति, चूणि इत्यादि का भी समावेश है) का आलोडन कर, सुन्दर वृत्ति का निर्माण कर आपने विधिपक्ष (खरतरगच्छ) की समाचारी को सुस्थिर रखने का जो प्रयत्न किया है, वह वस्तुतः श्लाघ्य है। इस टीका में स्थान-स्थान पर आगमिक तथा प्राकरणिक उद्धरणों की बहुलता दृष्टिगोचर होती है। इसकी भाषा अत्यन्त ही परिमार्जित है और विवेच्य विषय है प्रवाह पूर्ण। इस टीका का प्रकाशन उपाध्याय सुखसागरजी कर रहें हैं। वाचनाचार्य विमलकीर्ति प्रतिक्रमण-समाचारी के स्तबककार श्री विमलकीत्ति महोपाध्याय श्री साधुकीत्ति गणि के प्रशिष्य तथा उपाध्याय श्री विमलतिलक के शिष्य थे। जातितः आप हुम्बडगोत्रीय थे और आपके माता-पिता का नाम था श्रीचन्द्र शाह और गवरादेवी । सं० १६५४ माह शुक्ला ७ के दिवस "उक्तिरत्नाकर, धातुरत्नाकर, शब्दरत्नाकर' आदि अनेक ग्रन्थों के प्रणेता श्री साधुसुन्दर उपाध्याय ने आपको दीक्षा प्रदान की थी। आचार्य जिनराजसूरि जी ने सं० १६७४ के पश्चात् आपको 'वाचक' पद प्रदान किया था। सं० १६६२ किरहोर (सिन्ध) में आपका स्वर्गवास हुआ था। . आपकी निम्नलिखित कृतियां प्राप्त हैं:१. चन्द्रदूत (मेघदूत पादपूर्तिरूप ७. दशवैकालिक सूत्र स्तबक ___ सं० १६८१. प्र.) २. पदव्याख्या . ८. उपदेशमाला स्तबक (र. सं० १६८६) ३. जीवविचार बालावबोध ६. प्रतिक्रमणसमाचारी स्तबक ४. नवतत्व १०. यशोधर रास (र. सं० १६६५) ५. षष्टिशतक ११. जोधपुर-मंडन पार्श्वस्तब ६. जयतिहुअण ॥ १२. प्रतिक्रमण-विधि-स्तव (र. सं० १६९०:) १. विशेष परिचय के लिये देखें, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि। . वल्लभ-भारती] [१५५ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रदूत काव्य देखने से कवि-प्रतिभा का हमें अवश्य ही ज्ञान होता है। यह काव्य मेघदूत की पादपूर्ति-रूप में बनाया गया है। पादपूर्ति रूप होता हुआ भी यह एक मौलिक काव्य का सौन्दर्य रखता है। प्रतिक्रमण समाचारी का अक्षरार्थ-स्तबक (टब्बा) सामान्यतया सुन्दर है किन्तु इस स्तबक से कोई व्युत्पत्ति अथवा विचारणा शक्ति का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। . जिनपालोपाध्याय युगप्रवरागम श्रीजिनपतिसूरि के आप शिष्य के। सं० १२२५ में पुष्कर में स्वयं आचार्यश्री नै आपको दीक्षा प्रदान की थी। १२६६ में जाबालिपुर (जालोर) विधिचैत्य में आचार्यश्री ने आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था। सं० १२७३ में बृहद्वार में आचार्य जिनपतिसूरि की आज्ञा से महाराज पृथ्वीचन्द्र की अध्यक्षता में पं० मनोदानन्द को "जैनषड्दर्शन से बाह्य हैं" विषय पर शास्त्रार्थ कर विजयपत्र प्राप्त किया था। सं० १२८८ आश्विन सुदि १० को पालनपुर में राजपुत्र श्री जसिंह के सानिध्य में साधु भुवनपाल ने स्तूप पर ध्वजारोहण प्रतिष्ठा का महामहोत्सव आपके कर-कमलों से कराया था। सं० १३११ पालनपुर में आपका स्वर्गवास हुआ था। आप न्यायशास्त्र, अलङ्कार, साहित्य-शास्त्र तथा चित्रकाव्य के मर्मज्ञ थे। आपकी प्रतिभा का यशोगान करते हुए आपके ही सतीर्थ्य श्री सुमतिगणि गणधरसार्धशतक बृहद्वृत्ति में लिखते हैं: नानातर्फावतर्ककर्कशलसद्वारणीकृपारणीस्फुरत्तेजःप्रौढतरप्रहारघटनानिष्पिष्टवादिवजाः । श्रीजैनागमतत्त्वभावितधियः प्रीतिप्रसन्नाननाः, सन्तु श्रीजिनपाल इत्यलमुपाध्यायाः क्षितौ विश्रुताः ॥ जैनागमों के भी आप पूर्णनिष्णात थे । आपने अभयकुमार-चरित्रकार चन्द्रतिलको. पाध्याय, सन्देहदोलावलीवृत्तिकार श्री प्रबोधचन्द्रगणि आदि प्रतिभा-सम्पन्न विद्वानों को शास्त्रों का अभ्यास करवाया था। इसीलिये वे अपने ग्रन्थों में आपको गुरु-रूप में स्वीकार करते हैं: सम्यगध्याप्य निष्पाद्य यश्चान्तेवासिनो बहून् । चक्रे कुम्भध्वजारोपं गच्छप्रासादमूर्धान ॥३८॥ १. इस शास्त्रार्थ का उल्लेख आपने स्वयं ने स्वप्रणीत युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि पृ. ४४-४६ में बड़े विस्तार से दिया है और इसी का उल्लेख उ. चन्द्रतिलक अभयकुमार चरित्र में भी करते हैं: . भूयो भूमिभुजङ्गसंसदि मनोदानन्दविप्रं घनाहङ्कारोद्ध रकन्धरं सुविदुरं पत्रावलम्बप्रदम् । जित्वा वादमहोत्सवे पुरि बृहद्वारे प्रदोच्चकयुक्तीः सङ्घयुतं गुरू जिनपति यस्तोषयामासिवान् ॥३७॥ १५६ ] [ वल्लभ-भारती Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन पालोपाध्याय मौलेस्तस्यास्य सन्निधौ । मयोपादाय नन्द्यादिमूलागमाङ्गवाचना ॥३६॥ जिन पालोपाध्याय श्रासन् यस्यागमे गुरवः । संदेह दोलावृलिवृति - प्रशस्ति आपकी स्वतन्त्र मौलिक रचनाओं में सनत्कुमारच क्रिचरित' महाकाव्य है । इसमें २४ सर्ग हैं | इसके २१ वें सर्ग में युद्धवर्णन प्रसंग को लक्ष्य में रखकर कविकल्पना के साथ क. च. ट. त. प. य. इत्यादि वर्गों का परिहार करते हुए चित्रकाव्यों में जो चमत्कार दिखलाया है वह अन्यत्र सुलभ नहीं है। इसी की प्रशंसा करते हुए सुमति गणि लिखते हैं:नानालङ्कारसारं रचितकृतबुधाश्चर्यचित्रप्रकार, नानाच्छन्दोभिरामं नगरमुख महावर काव्यप्रकामम् । go काव्यं सटीक संकलकविगुरगं तुर्यचक्रेश्वरस्य, क्षिप्रं यैस्तेsभिषेकाः प्रथमजिनपदाश्लिष्टपाला मुद्दे नः ॥ १३ ॥ इसमें 'सटीक' शब्द जो सुमति गणि ने लिखा है उससे यह तो निश्चित है कि इस पर आपने स्वयं ने टीका की रचना की थी; किन्तु हमारा दुर्भाग्य है कि इसकी टीका आज अभयकुमारचरित-प्रशस्ति आप केवल कवि ही नहीं थे किन्तु एक सफल टीकाकार भी थे। आपकी रचित निम्नाङ्कित टीकाएं प्राप्त हैं: ९. षट् स्थानक वृत्ति ( सं १२६२ ) ३. द्वादश कुलक- विवरण ४ ( सं . १२६३ ) ५. धर्मशिक्षा - विवरण (सं. १२९३ ) ७. स्वप्नफलविवरण इनके अतिरिक्त युग प्रधानाचार्य गुर्वावलि" (सं. १३०५ ढिल्ली वास्तव्य हैमाभ्यर्थनया) जो ऐतिहासिक दृष्टि से खरतरगच्छ के आचार्यों का एक सुव्यवस्थित इतिहास प्रस्तुत करती है तथा जिनपतिसूरि पंचाशिका और संक्षिप्त पौषध विधि भी प्राप्त है । ६. अप्रकाशित है । प्राचीन प्रति मेरे संग्रह ८. जैसलमेर भंडार १. यह महाकाव्य मेरे द्वारा सम्पादित होकर राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से प्रकाशित हो चुका है। २. ४.५. जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सूरत से प्रकाशित ३. ७. पं० लालचन्द्र गांधी द्वारा संपादित अपभ्रंश काव्यत्रयी में प्रकाशित में २ उपदेश रसायन विवरण 3 ( सं १२६२ ) ४. पंचलिङ्गी विवरण - टिप्पण (सं. १२९३ ) ६. चर्चरी - विवरण: (सं. १२६४ ) ८. स्वप्न विचारभाष्यवृत्ति है । ६. अप्राप्त । १०. मुनि जिनविजय संपादित एवं सिंघी ग्रन्थमाला से प्रकाशित है । वल्लभ-भारती ] [ १५७ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि ने अपनी लघुता दिखाने के लिये अपना उपनाम 'शिष्यलेख' रखा है और इसी का सनत्कुमारादि काव्यों में प्रयोग किया है। द्वादशकुलक-विवरण— अनेक ग्रन्थों का अवलोकन कर प्रमाण देते हुए ३३६३ श्लोकोपेत द्वादशकुलक का विवरण आपने बहुत ही सुन्दर पद्धति से लिखा है। इस विवरण में शब्दों की व्यर्थ भरमार नहीं है, इससे ग्रन्थकार के मूल आशय को समझने में काफी सरलता हो गई है। इस का रचना काल १२६३ भाद्रपद शुक्ला १२ है और इसका प्रारंभ गच्छनायक श्री जिनेश्वरसूरि के आदेश से किया गया था: चक्रे तच्छष्यलेशनिरुपमजिनपालाभिषेकैः प्रसादादत्युग्रात् सद्गुरूणां कुलक विवरणं किञ्चिदेतत् सुबोधम् । तज्छोध्यं सूरिवर्यैमयि विहितकृपः सम्भवन्त्येव यस्माद्, दोषrrorataये किमुत कुवचने मादृशां मान्द्यभाजाम् ॥ ६॥ श्रीमत्सूरिजिनेश्वरस्य सुमुनिव्रातप्रभोः साम्प्रतं, शीघ्र ं चारुमहाप्रबन्धकवितुर्वाक्यात् समारम्भ यत् । ३ १२ धर्म-शिक्षा- विवरण - धर्मोपदेशमय ४० श्लोक के इस छोटे से काव्य में वर्णित १८ वस्तुओं का सैद्धान्तिक - प्रतिपादन और दृष्टान्तों सहित विवेचन सुन्दर पद्धति से किया गया है । द्वादशकुलक विवरण की अपेक्षा इसकी भाषा कुछ अधिक प्रौढ है । जो स्वाभाविक भी है क्योंकि आप्त इत्यादि का विवेचन दार्शनिक विषय होने से दुरूह होता ही है; फिर भी उसे सरल पद्धति में रखने का आपने प्रयत्न अवश्य किया है। १५८ ] ह सन्निष्ठामधुना ययौ गुणनवादित्यप्रमाणे वरे, वर्षे भाद्रपदे सितौ शुभतरे द्वादश्य हे पावने ||७|| X X X त्रयस्त्रिंशच्छतान्येव त्रिषष्ट्या सङ्गतानि च । प्रत्यक्षरं प्रमाणं भोः श्लोकानामिह निश्चितम् ॥६॥ इसकी भी रचना तत्कालीन गणनायक श्रीजिनेश्वरसूरि के आग्रह से सं० १२६३ पौष शुक्ला & अनुमानतः २००० श्लोक प्रमाण में पूर्ण की गई है: . को X गुणग्रहोष्ण तिसंख्य, वर्षे पौधे नवम्यां रचिता सितायाम् । स्पष्टाभिधेयाद्भुतधर्मशिक्षा-वृत्तिविशुद्धा स्फटिकावलीय ॥२॥ X X X सूरिजिनेश्वर इतीह बभूव शाखी, यस्वाऽभवत् फलयुगाकृति शिष्ययुग्मम् । तत्रादिमो निरुपमो जिनचन्द्रसूरि-रन्यो नवाङ्गनिधिदोऽभयदेवसूरिः ||४|| [ वल्लभ-भारती Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततोऽनि श्रीजिनवल्लभाख्यः, सूरिः सुविद्यावनिताप्रियोऽसौ। अद्यापि सुस्था रमते नितान्तं, यत्कोत्तिहंसी गुणिमानसेषु ॥५॥ यश्चाकरोत महावतैरिदं प्रकरण लघ।। धर्मशिक्षाभिधं भव्यसत्त्वानां शिवदन्ततः ॥६॥ जिनपतिरिति सूरिस्त द्विनेयावतंसः, समभवदिह येन प्रोज्ज्वलानि प्रचक्रे । गुणिजनवदनानि प्रौढवादीन्द्रवृन्दवजविजयसमुत्थेरिन्दुगौरेयंशोभिः॥८॥ तच्छिष्यलेशेन जडात्मनापि, प्रपञ्चिता किञ्चन धर्मशिक्षा। चक्रे सुबोधा जिनपालनाम्ना निदेशतः सूरिजिनेश्वराणाम् ।।६॥ इस टीका की एक-मात्र प्रति मेरे संग्रह में सुरक्षित है । जिनपालोपाध्याय के विशेष परिचय के लिये देखें, मेरे द्वारा सम्पादित 'सनत्कुमारचक्रि चरित महाकाव्य' की भूमिका । युगप्रवरागम श्रीजिनपतिसूरि संघपट्टक बृहत् वृत्ति के टीकाका आ०जिनपतिसूरिश्री जिनवल्लभ के प्रपौत्र, युगप्रधान जिनदत्त सूरि के प्रशिष्य तथा मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के शिष्य थे। आप विक्रमपुर (जैसलमेर का समीपवर्ती) के निवासी माल्हू गोत्री यशोवर्धन सूहवदेवी के पुत्र थे । आपका जन्म वि. सं० १२१० चैत्र कृष्णा ८ को हुआ था और आपकी दीक्षा सं० १२१७ फाल्गुन शुक्ला १० को जिनचन्द्रसूरि के हाथ से हुई थी। आपकी दीक्षावस्था का नाम नरपति था। सं० १२२३ भाद्रपद कृष्णा १४ को जिनचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हो जाने से उनके पद पर १२२३ कात्तिक शुक्ला त्रयोदशी को यु० जिनदत्तसूरि के पादोपजीवि श्री जयदेवाचार्य ने नरपति को (आपको) स्थापित किया और नाम जिनपतिसूरि रखा। आचार्य पदारोहण के समय आप की उम्र केवल १४ वर्ष की ही थी। सं० १२२८ में जिस समय आय आशिका पधारे उस समय नगर का उल्लेखनीय प्रवेश महोत्सव तत्रस्थानीय नरेश भीमसिंहजी ने किया था। वहीं रहते हुए वहां के प्रामाणिक दिगम्बर विद्वान् (जिसका नामोल्लेख प्राप्त नहीं है) को शास्त्र-चर्चा में पराजित किया था। ____ सं० १२३९ में अजमेर में इतिहास के प्रसिद्ध पुरुष अन्तिम हिन्दू सम्राट महाराजा पृथ्वीराज चौहान की अध्यक्षता में, राजसभा में फलवद्धिका निवासी उपकेशगच्छोय पद्मप्रभ के साथ शास्त्रार्थ हुआ था। उस समय राजसभा में प्रधानमन्त्रि कैमास, सभा के शृङ्गार पं० वागीश्वर, जनार्दन गौड, विद्यापति आदि महाविद्वान् एवं महाराजा पृथ्वीराज का अतिवल्लभ मण्डलीक राणकतल्य तथा जिनपतिसरिका भक्त श्रावक रामदेव आदि उपस्थित थे। आचार्यश्री के साथ शास्त्र-विद्या में एवं श्रावक रामदेव के साथ मल्लविद्या में पद्मप्रभ ने बहुत बुरी वल्लभ-भारती ] [ १५६ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह से पराजय प्राप्त कर तथा राजकीय नियमानुसार "अर्धचन्द्राकार " प्राप्त किया था। दो दिवस के पश्चात् सम्राट् पृथ्वीराज ने परिवार सहित उपाश्रय में आकर आचार्यश्री को 'जयपत्र' प्रदान किया था । " सं० १२४४ में आपकी निश्रा में तीर्थयाचार्थ संघ निकला था। वह क्रमशः प्रयाण करता हुआ चन्द्रावती पहुंचा। वहां पूर्णिमापक्षीय आचार्य अकलङ्कदेवसूरि के साथ नामसम्बन्धी आदि अनेक विषयों पर मनोविनोदार्थ सुन्दर विचार-विमर्श हुआ था । चन्द्रावती में ही पौर्णमासिक आचार्य तिलकप्रभसूरि के साथ तीर्थयात्रा आदि अनेक शास्त्रीय विषयों पर शास्त्रचर्चा हुई थी । 1 संघ, चन्द्रावती से क्रमश: प्रयाण करता हुआ आशापल्ली पहुंचा। वहां आचार्यश्री का परमभक्त श्रावक क्षेमन्धर; जिसका पुत्र प्रद्युम्नाचार्य नाम से ख्यातिमान वादी देवाचार्य की पौषधशाला में रहता था, जो उस समय चैत्यवासि आचार्यों में प्रमुख माना जाता था । उसकी ( प्र म्नाचार्य की ) आचार्य जिनपति के साथ शास्त्रार्थ करने की अभिलाषा थी। इस मनोकामना को आचार्यश्री ने स्वीकार किया, किन्तु संघ को वहां ठहरने का अवकाश न होने के कारण, आह्वान को लक्ष्य में रखकर, वहां से प्रयाण कर उज्जयन्त, शत्रु ञ्जय इत्यादि तीर्थों की तीर्थयात्रा कर आचार्यश्री पुनः आशापल्ली ( अहमदाबाद ) आये और प्रद्य ुम्नाचार्य के साथ उनकी इच्छानुसार " आयतन - अनायतन" विषय पर शास्त्रार्थ क्रिया । इस शास्त्रार्थ में आचार्य प्रद्युम्नसूरि विशेष समय तक स्थिर न रह सका । अन्त में पराजय प्राप्त कर स्वस्थान को लौट गया । इसी वाद के उपलक्ष में आचार्य ने जो प्रत्युत्तर प्रदान किये थे उनका दिग्दर्शन कराने वाला स्वरचित 'प्रबोधोदय वादस्थल' नामक ग्रन्थ प्राप्त है जो जैसलमेर आदि भंडारों में है । सं० १२५३ में षष्टिशतक प्रकरण के कर्त्ता नेमिचन्द्र भंडारी ने; जो अनेक वर्षों से शुद्ध गुरु की शोध में भटकते थे आचार्यश्री से प्रतिबोध पाया । इसी वर्ष पत्तन ( अणहिल्लपुर पाटण) का भंग हो जाने से आचार्य ने घाटी ग्राम में चातुर्मास किया था । सं० १२७२ में "बृहद्वार" में नरेश पृथ्वीचन्द्र की सभा में काश्मीरी पण्डित मनोदानन्द का 'जैन षड्दर्शन बाह्य हैं' विषय पर आचार्यश्री की आज्ञा से उपाध्याय जिनवाल से शास्त्रार्थ हुआ था, उसमें उपाध्याय सफल हुए थे और जयपत्र प्राप्त किया था । आपने अपने जीवनकाल में अनेकों विद्वानों के साथ ३६ शास्त्रार्थ किये और उन सभी विवादों में विजय पताका प्राप्त की । इसीलिये प्रत्येक ग्रन्थकारों ने आपके नाम के साथ " षड्विंशद्वादविजेता" विशेषण सुरक्षित रखा है । आपने अपने ५४ वर्ष के लम्बे आचार्य-काल में सैकड़ों प्रतिष्ठाएं, सैकड़ों दीक्षायें एवं अनेकों योग्य व्यक्तियों को पद प्रदान आदि अनेक कार्य किये हैं जिनका वर्णन जिनपालोपाध्याय लिखित गुर्वावली में उपलब्ध है । सं० १२७७ आषाढ शुक्ला दसमी को पालनपुर में आपका स्वर्गवास हुआ था । १. युगप्रधानाचार्य गुर्वावली पृष्ठ ३३ १६० ] [ वल्लभ-भारती Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप वादी - विजेता तो थे ही साथ ही आपकी संघपट्टक की टीका का अवलोकन करते हैं तो कहना ही पड़ता है कि आपकी लेखिनी भी सरस्वती पुत्र के अनुकूल ही है । संघपट्टक जैसे ४० पद्यों वाली कृति पर ३२०० श्लोक प्रमाणोपेत टीका की रचना में आपने आगमों तथा प्रकरणों के अनेक उद्धरणों द्वारा विधिपक्ष की समर्थना में जो सफलता प्राप्त की है वह श्लाघनीय है । इस टीका की शैली नैयायिक शैली है; जिसमें स्वतः ही प्रश्न उद्भूत कर नैयायिक दृष्टि से ही उत्तर प्रदान किये गये हैं । इसकी भाषा अत्यन्त प्रौढ और प्राञ्जल होने के कारण विद्वभोग्या बन गई है । वाक्यों की आलंकारिक छटा, प्रौढता तथा समास - हुलता का परिचय टीका की अवतरणिका से ही करिये : ' इह हि सदृशां पदार्थसार्थ प्रकटनपटीयसि समूलकाषङ कबितनि शेषदोषे निर्वाणचरमशिखरीशिखरमधिरूढे भगवति भास्त्रति श्रीमहावीरे, तदनु दुःषमासमयभविष्णुदशमाश्चर्य महादोषान्धकारोदयात्तनिमानमासादयति जिनराजमार्गे मन्दायमानेषु सदृष्टिषु सात्विकेषु सत्त्वेषु प्रोज्जृम्भमाणेषु सदालोकबाह्यषु तामसेषु निरङ्कुशमत्तमतङ्गजवद्यथेच्छं गर्जत् सञ्चरिष्णुषु प्रमादमदिरामदावदायमानानवद्यविद्यासम्पत्तिषु सातशीलतया स्वकपोलकल्पना शिल्पिकल्पितजिनभवन निवासेषु चौलुक्य वंशमुक्तामाणिक्य चारुतत्वविचारचातुरीधुरीण विलसदङ्गरङ्गनृत्यन्नीत्यङ्गनारञ्जितजगज्जनसमाजश्रीदुर्लभराजमहाराजसभायां अनल्पजल्पजलधिसमुच्छलद तुच्छ विकल्प कल्लोलमालाकवलितबहलप्रतिवादिकोविदग्रामण्या 'संविग्नमुनिनिवहाग्रण्या सुविहितवसतिपथप्रथनरविणा वादिकेसरिणा श्रीजिनेश्वरसूरिणा ००" इस टीका की रचना कब हुई है निश्चित नहीं कहा जा सकता । किन्तु इस टीका प्रौढता देखते हुए सं० १२३५ के पश्चात् ही इसकी रचना हुई हो। आपके रचित लगभग ८.१० स्तोत्र भी प्राप्त हैं । यह टीका अनुवाद सहित जेठालाल दलसुख की तरफ से प्रकाशित हो चुकी है । हर्ष राजोपाध्याय सङ्घपट्टक लघुवृत्तिकार उपाध्याय हर्षराज श्रीजिनभद्रसूरि के प्रशिष्य, महोपाध्याय श्री सिद्धान्तरुचि के प्रशिष्य तथा उपाध्याय अभयसोम के शिष्य थे । इनका विशेष वृत्तान्त ज्ञात नहीं है । इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में रचना संवत् का उल्लेख भी नहीं है, परन्तु १. श्रीमति खरतरगच्छे श्रीजिनभद्राभिधा गरणाधीशाः । सिद्धान्तरुचिप्रौढानूचानाः सन्ति तच्छिष्याः ॥ १ ॥ श्रीमदभयसोमास्तूपाध्यायास्तद्विनेयविख्याताः । तच्छिष्य हर्षराजोपाध्यायेन हि कृता वृत्तिः ॥ २ ॥ लब्धिवाग्गुरुभद्रोदय साहायाच्च सङ्घपट्टस्य । श्रीमज्जिन पतिसूरीश्वर कृतबृहट्टीकातः ॥३॥ यदत्र हर्षराजेन लिखितं मतिमान्द्यतः । विरुद्ध चं तदुत्सूत्रं बुधं शोध्यं सुबुद्धिभिः || ४ || वल्लभ-भारती ] १६१ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री सिद्धान्तरुचि के प्रशिष्य होने के कारण इस वृत्ति की रचना १६ वीं शताब्दि के प्रारंभ में हुई है। यह लघुवृत्ति वस्तुतः स्वतंत्र वृत्ति नहीं है किन्तु आ० जिनपतिसूरि रचित बृहद् टीका का सङ्कलनमात्र है। बृहट्टीका के प्रपञ्चित पक्ष-विपक्ष प्रतिपादन, आगमिक-उद्धरण इत्यादि का त्यागकर मूल ग्रन्थानुसारिणी समग्र टीका का प्रारंभ से अन्त तक पंक्ति-पंक्ति, अक्षर-अक्षर को उद्धृत कर लेखक ने संक्षिप्त संस्करण तैयार किया है। यह लघुवृत्ति श्रीजिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सूरत से प्रकाशित हो चुकी है । लक्ष्मीसेन सङ्घट्टक काव्य की स्फुटार्था नाम की टीका रचने वाले श्री लक्ष्मीसेन के सम्बन्ध में उल्लेखनीय सामग्री का अभाव है । केवल इस टीका की प्रशस्ति से इतना ज्ञात होता है। कि लक्ष्मीसेन विमलकीत्ति वाले श्रावक वीरदास के पौत्र और धीरवीर श्री हमीर के पुत्र थे 1 संघपट्टक जैसे दुरूह काव्य पर १६ वर्ष की अल्पायु में सं० १५१३ में स्फुटार्था नाम की टीका की आपने रचना की है । क्व जिनवल्लभ सूरिसरस्वती, क्व च शिशोर्मम वाग्विमवोदयः । शुकवचोवदिमां सुजनाः खलु, श्रवणयोः कुतुकात् प्रकरिष्यथ ॥१॥ श्री वीरदास इति वीरजिनेश्वरस्य पादाब्ज पूजनपरायणचित्तवृत्तिः । श्रीमान मूदमल कीत्तिवितानकेन, येनावृतं जगदिद करुणात्मकेन ॥२॥ तस्यात्मजो भवदनन्तगुणाः समग्र-सम्यक्त्व संग्रहविर्वाद्धतपुण्यराशिः । श्रीमान् हमीर इति धीरतरः शरीरः, वाक्कमहृद्भिरनिश जिनपूजनाय ॥३॥ तत्पुत्रोऽतिपवित्रकर्मनिरतः सद्विद्यया सर्वतः, ख्यातः षोडशहायनोऽप्यरचयत् टीकां स्फुटार्थाभिधाम् । लक्ष्मीसेन इति प्रसिद्धमहिमा देवान् गुरूनचंयन्, जयाज्जीवदयापरः परपरीतापातिहन्ता वरः ॥४॥ विमले श्रावणमासे वर्षे त्रिमीषुचन्द्र संगुणिते । कृतवान् लक्ष्मीसेन टीका श्रीसङ्गपट्टस्य ||५|| यह टीका सामान्य सी ही है । टीकाकार कई-कई स्थलों पर शाब्दिक पर्यायों का कथन त्याग कर भावार्थ तात्पर्यमात्र ही प्रकट करने को उत्सुक प्रतीत होता है, अत: कई स्थलों का विवेचन अस्पष्ट सा रह गया है। साथ ही इनके सन्मुख बृहट्टीका होने के कारण कई स्थानों पर उन्हीं शब्दों को अक्षरशः उद्धृत भी कर दिया है । आश्चर्य की वस्तु यह है कि इस टीका की जितनी भी प्रतियें देखने में आई हैं उन में केवल पद्य २६ की टीका प्राप्त नहीं होती है। इस पद्य की टीका टीकाकार स्वयं ही करना भूल गया या पश्चात् प्रतिलिपिकार भूलते ही आये, निश्चित नहीं कहा जा सकता । १. उदाहरण के लिये देखिये, मेरी लिखित संघपट्टक की भूमिका १६२ ] [ वल्लभ-भारती Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें सन्देह नहीं कि लक्ष्मीसेन का व्यक्तित्व अवश्य ही प्रभाव पूर्ण था, अन्यथा १६ वर्ष जैसी अल्पावस्था में इस दुरूह काव्य पर लेखिनी चलाना संभव ही नहीं था। __ यह टीका जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सूरत से प्रकाशित हो चुकी है। महोपाध्याय साधुकीर्ति सङ्घपट्टक के अवचूरिकार और लघु अजितशान्तिस्तव के बालावबोधकार महोपाध्याय साधुकीत्ति खरतरगच्छीय श्रीजिनभद्रसूरि की परम्परा में वाचनाचार्य श्री अमरमाणिक्य गणि के प्रमुख शिष्य थे। वैसे आप ओसवाल वंशीय सुचिन्ती गोत्रीय श्रेष्ठि वस्तुपाल-खेमलदेवी के पुत्र थे। आपने सं० १६१७ में युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि रचित पौषधविधिप्रकरण वृत्ति का संशोधन किया था और सं० १६२५ में आगरा में सम्राट अकबर की सभा में पौषधविधि-विषय में तपागच्छीय बुद्धिसागर के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें निरुत्तर' किया था। सं० १६३२ में श्रीजिनचन्द्रसरिजी ने आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था। समय-समय पर गच्छनायक स्वयं आप से सैद्धान्तिक-विषयों में परामर्श लिया करते थे। सं० १६४६ माघ वदि १४ को जालोर में आपका स्वर्गवास हुआ था। ' आपने अपने जीवनकाल में शेषनाममाला आदि मौलिक कृतियें और संघपट्टक आदि पर टीकाएं तथा सप्तस्मरण आदि पर बालावबोध एवं सतरभेदी पूजा इत्यादि लगभग छोटे मोटे २३ ग्रन्थों की रचना की हैं। सङ्घपट्टक पर आपने सं० १६१६ माह शुक्ला पञ्चमी को अवचूरि की रचना पूर्ण की है । यह अवचूरि होते हुए भी अर्थ को अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रकाशित करने वाली होने से टीका का ही सादृश्य धारण करती है। इसकी भाषा भी प्राञ्जल है। द्वितीय कृति, लघुअजित-शान्ति-स्तव पर सं० १६१२ दीपावली पर्व पर बीकानेर में मंत्रि संग्रामसिंह के आग्रह से बालावबोध की रचना पूर्ण की है । बालजीवों के लिये यह बालावबोध अत्यन्त ही उपादेय है। उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ . संघपट्टक प्रकरण के बालावबोधकार उपाध्याय लक्ष्मीवल्ल्लभ खरतरगच्छीय क्षेमकीतिशाखा के विद्वान् उपाध्याय लक्ष्मीकीत्ति के शिष्य थे । आपका गार्हस्थ्य जीवन का १. आपके सम्बन्ध में आपके गुरुभ्राता कनकमोम कृत जइतपदवेली तथा जयनिधान कृत स्वर्गगमन गीत देखें। २. तच्छिष्येण सुविहिता सुगमेयं साधूकीतिगरिगनापि । एकोनवशिसमधिक-षोडशसंवत्सरे प्रवरे ॥४॥ माघमासे शुक्लपक्षे पञ्चम्यां प्रवरयोगपूर्णायाम् । विबुधैः प्रपद्यमाना समस्तसुखदायिनी भवतु ॥५॥ ३. यह अवचूरि जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सूरत से प्रकाशित है। पल्लभ-भारती ] [ १६३ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम हेमराज था। 'वल्लभ' नंदी को देखने से ऐसा अनुमान किया जा सकता है सं० १७१० के लगभग आपकी दीक्षा जिन राजसूरि अथवा जिनरत्नसूरि के करकमलों से हुई होगी। प्राप्त पत्रों के अनुसार आपको उपाध्याय पद सं० १७३३ के पूर्व ही प्राप्त हो चुका था। १८वीं शती के आप एक प्रसिद्ध टीकाकार और भाषा-साहित्य के सर्जक थे । आपकी प्रणीत उत्तराध्ययन तथा कल्पसूत्र को वृत्तियें जितना आदर प्राप्त कर सकी हैं उतनो अन्य इन ग्रन्थों के टीकाकारों की कृतियें भी नहीं कर पाई। इनके ग्रन्थों के अध्ययन से यह तो निष्कर्ष अवश्य निकाला जा सकता है कि आप अनेक विषयों के ज्ञाता थे । साथ ही यह भी कह सकते हैं कि इनकी कृतियों में 'पण्डितमन्य' की भावना का प्रदर्शन हमें कहीं भी नहीं मिलता; अपितु सामान्य तज्ज्ञों को आकषित करने का प्रयत्न अवश्य दिखाई पड़ता है। इनकी धर्मोपदेश स्वोपज्ञवृत्ति और कुमारसम्भव काव्य पर वृत्ति भी प्राप्त है । कुमारसम्भव की वृत्ति कवि की प्रारम्भिक रचना होने के कारण प्रौढ व परिमाजित नहीं बन सकी है। इसमें केवल खण्डान्वय पद्धति से पर्यायों पर ही अधिक बल दिया गया है। आपकी रचनाए सं० १७२१ से ४७ तक की प्राप्त हैं। अतः सं० १७५० के लगभग आपका स्वर्गवास हो गया हो ऐसा सम्भव है। ___आपकी भाषा में तो एक नहीं सैकड़ों कृतियें प्राप्त हैं। वे केवल राजस्थानी भाषा में ही नहीं; अपितु हिन्दी और सिन्धी भाषा में भी । भाषा-काव्य-साहित्य में आपने अपना उपनाम 'राजकवि' भी दिया है। राजस्थानी हिन्दी गद्य-साहित्य में आपकी तीन रचनाए प्राप्त हैं, वे हैं-संघपट्टक का बालावबोध, कृष्ण रुक्मिणो वेली और भर्तृहरि शतकत्रय स्तबक । इस बालावबोध की रचना आपने कब की? प्रशस्ति के अभाव में कह नहीं सकते। किन्तु भाषा और शैली को देखते हुए कह सकते हैं कि आपकी यह प्रौढकालीन रचना है। यही कारण है, इस ग्रन्थ का विवेचन व्याख्याकार अच्छी तरह से कर सका है। व्याख्याकार ने आ० जिनपति की बृहट्टीका को ही आदर्श मान कर तदनुरूप बालावबोध की रचना की है। इसकी प्रतियें अबीरजी भंडार व म० रामलाल जी संग्रह बीकानेर में हैं । आपके रचित पंचदंड चौ०, अमरकुमर रास, रात्रिभोजन चौ०, रत्नहास चौ० आदि रास, पंचकुमार कथा. भावनाविलास, कालज्ञान (वैद्यक) आदि प्राप्त कृतियों का परिचय राजस्थानी भा. २ में 'राजस्थानी भाषा के दो महाकवि' निबन्ध देखें। महोपाध्याय पुण्यसागर प्रश्नोत्तरेकषष्टिशतं काव्य के टीकाकार महो. पुण्यसागर: बादशाह सिकन्दर लोदी को प्रसन्न कर ५०० बन्दियों को कारागार से मुक्त कराने वाले तथा आचारांग सूत्र की दीपिका नाम से व्याख्या बनाने वाले आ० जिनहंससूरि के स्वहस्त-दीक्षित शिष्य थे। गीतों में आपके मातुश्री का नाम उत्तमदेवी और पिताश्री का नाम उदयसिंहजी प्राप्त होता है। १. सं० १७३३ का प्रा० जिनचन्द्रसूरि का प्रादेश पत्र, नाहा संग्रह । [ वल्लभ-भारती Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन समय के समर्थ आचार्य युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिजी को भी सूरिपद के योगोद्वहन कराने वाले आप ही थे, तथा समय-समय पर युगप्रधानजी स्वयं सैद्धान्तिक विषयों में आपसे परामर्श लिया करते थे। आप उस समय के उद्भट विद्वान् और गीतार्थप्रवर माने जाते थे। युगप्रधानजी ने जिनवल्लभीय पौषधविधि प्रकरण पर १६१७ में जिस टीका की रचना की थी उसका संशोधन भी आपने किया था। टीकाकार के रूप में आपने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपांग पर (सं० १६४५ जैसलमेर राउल भीम राज्ये) बृहद्वृत्ति की रचना की है जो अन्य उपलब्ध समग्र टीकाओं से विशेष प्रौढता धारण करती है। आप की दूसरी टीका प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतं काब्य पर है। इनके अतिरिक्त आपके सुबाहुसन्धि (१६०४ जिनमाणिक्यसूरि आदेशात्), मुनिमालिका (जिनचन्द्रसूरि आदेशात्) एवं स्तवन इत्यादि प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं। प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक काव्य पर यू.जिनचन्द्रसूरि के विजयराज्य में आपने सं० १६४० विक्रमपुर (बीकानेर) में 'कल्पलतिका' नाम की टीका की रचना स्वशिष्य पद्मराज गणि की सहायता से पूर्ण की है: "प्रासीत् पुरा खरतराभिधगच्छनाथः, श्रीमान् जिनेश्वरगुरुः शुभशाखिपाथः । सूरिस्ततोपि जिनचन्द्र इति प्रतीतः, शीतद्य तिप्रतिमचारुगुरसरुदीतः ॥१॥ तदनुकोत्तितरैरविनश्वराः, शुशुभिरेऽभयदेवमुनीश्वराः । विहितचङ्गनवाङ्गसुवृत्तयः, परहितोचतमानसवृत्तयः ॥२॥ तत्सन्ततो समजनिष्ट गरिष्ठधामा, सूरीश्वरः श्रुतधरो जिनभद्रनामा । श्रीजैनचन्द्रगरिणमृद्गुणरत्नराशे-रब्धिस्तत्तो जिनसमुद्रपुरुश्चकाशे ॥३॥ तत्पट्टराजीवसहस्ररश्मयस्ततो बभुः श्रीजिनहंससूरयः । तेषां विनयविवृति विनिर्ममे, यत्नादियं पाठकपुण्यसागरः ॥४॥ समषिता विक्रमसत्पुरेऽसो, वृत्तिषियद्वाद्धिरसेन्दुवर्षे । गुरौ शुभश्वेतमहो दशम्या, श्रीजैनचन्द्राभिधसूरिराज्ये ॥५॥ पद्मराजगणिसत्सहायता योगतः सपदि सिद्धिमागता। वत्तिकल्पलतिका सतामियं. परयन्त्वभिमतार्थसन्ततिम ॥६॥ इस विषम चित्रबद्धप्रश्नोत्तर काव्य पर कई अवचूरिये प्राप्त थीं किन्तु विद्वद्भोग्या १. श्रीपुण्यसागरमहोपाध्यायः पाठकोद्गधनराजः। अपि साधुकीतिगणिना सुशोधिता दीर्घदृष्ट्येयम् ।।२६।। पौषधविधि-प्रकरणटीका प्रशस्ति २. श्रीमज्जेसलमेरुदुर्गनगरे श्रीभीमभूमीपती, राज्ये शासति बागवारिधिरसक्षोणीमिते वत्सरे । पुष्यार्के मधुमासि शुक्लदशमी सहासरे भासुरे, टोके विहिता सदैव जयतादाचन्द्रसूर्य भुवि ।।२।। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका प्रशस्ति ३. जैन स्तोत्र रत्नाकर द्वितीय भाग में सोमसुन्दरसूरि-शिष्य रचित अवचूरि सह प्रस्तुत काव्य प्रकाशित हो चुका है। बल्लभ-भारती] [ १६५ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका प्राप्त नहीं थी। ऐसी अवस्था में कल्पलतिका नाम की टीका लिख कर पाठकजी ने एक क्षति की पूर्ति की है जो अभिनन्दनीय है। प्रस्तुत काव्य अत्यन्त ही दुर्घट-काव्य है । टीका बिना इसका अर्थ करना एक कठिन कार्य है । किन्तु पाठकजी की प्रतिभा ने अपनी परिमार्जित और प्राञ्जल भाषा में इसको सरल और सरस बनाने में पूर्ण योग दिया है। इससे यह काव्य विषम होता हुआ भी सरलतम हो गया है जिसका श्रेय पाठकजी को ही है। ___इस काव्य की विषमता को पाठकजी स्वयं स्वीकार करते हुए प्रारम्भ के मंगलाचरण में लिखते हैं: स जयताज्जगति जनवल्लमः, परहितकपरो जिनवल्लमः । चतुरचेतसि यस्य चमत्कृति, रचयतीह चिरं रुचिर वचः ॥२॥ तद्विरचितविषमार्थप्रश्नोत्तरषष्टिशतकशास्त्रस्य । वितनोमि विवरणमह सुगमं स्वपरोपकारकृते ॥३॥ प्रस्तुत काव्यमयी टीका प्रकाशन योग्य है। आशा है जैन समाज इस कृति को अवश्य प्रकाशित करेगा। उपाध्याय साधुसोम चरित्र पञ्चक और नन्दीश्वर स्तोत्र के टीकाकार उपाध्याय साधुसोम, जैसलमेर ज्ञान भंडार के संस्थापक श्रीजिनभद्रसूरि के प्रशिष्य और महोपाध्याय श्री सिद्धान्तरुचि के शिष्य थे। महो• सिद्धान्तरुचि १६ वीं शतो के प्रौढ विद्वानों में माने जाते थे। आपने अपने पूज्य-गुरु आचार्य जिनभद्र के अनुरूप ही मांडवगढ (मालवा) में एक भंडार की स्थापना की थी। संभवतः आचार्य जिनभद्रसूरि ने अपने करकमलों से सं० १५०० के पूर्व ही आपको दीक्षा प्रदान की होगी। इस अनुमान का कारण यह है कि आपने सं० १५१० में संग्रहणी पर अवचूरि और पुष्पमाला प्रकरण पर स० १५१२ में वृत्ति की रचना की है। पुष्पमाला प्रकरण टीका की भाषा आलकारिक, प्रवाहपूर्ण तथा परिमाजित होने से १०.१५ वर्ष का व्यवधान होना तो स्वाभाविक ही है। आपको सं० १५१६ के पूर्व ही गणि पद प्राप्त हो चुका था और संभवतः तत्कालीन गच्छनायक श्री जनचन्द्रसूरि ने ही आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था। __चरित्न पंचक पर सं० १५१६ में आपने अर्थ-प्रबोधिनी नामक टीका की रचना पूर्ण की: श्रीखरतरगच्छेश श्रीमज्जिनभद्रसूरिशिष्याणाम् । जीरापल्लीपार्श्वप्रभुलब्धवरसावानम् ॥१॥ १. १७ वीं शती की लिखित प्रति मेरे संग्रह में है। [ वल्लभ-भारती Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x श्रोग्यासदीनसाहेमहासभालब्धवादिविजयानाम् । श्रीसिद्धान्तरुचिमहोपाध्यायानां विनेयेन ॥२॥ साधुसोमगणोशेनाक्लेशेनार्थप्रबोधिनी । श्रोवीरचरिते चक्रे वृत्तिश्चित्तप्रमोदिनीम् ॥३॥ जिनवल्लभसूरीन्द्रसूक्तिमौक्तिकपंक्तयः । दर्शितार्था सुदृष्टीनां सुखग्राह्या भवन्विति ॥६॥ चार्वरित्रपञ्चककृतिविहिता नवैकतिथिवर्षे । हर्षेण महर्षिगरमैः प्रवाच्यमाना चिरं जयतु ॥७॥ इस टीका में आपने चरित्र संबंधी अनेक रहस्यों का समाधान आगमिक ग्रन्थों द्वारा करके जीवन-चरित्र का क्या महत्व है ? इत्यादि बातों का विशिष्ट प्रतिपादन किया है । टीका सुस्पष्ट और शिष्यहितैषिणी प्रतीत होती है । नन्दीश्वर स्तोत्र की टीका तो केवल पर्यायबोधिनी मात्र है, विशिष्ट टीकागुणों से युक्त नहीं । इनके अतिरिक्त संसारदावावृत्ति और कई स्तोत्रादि भी आपके प्राप्त होते हैं। चरित्र पंचक की प्रतियां पूना, यशसूरि भंडार जोधपुर आदि में प्राप्त हैं। और नंदीश्वरस्तोत्र-टीका की प्रतियां बीकानेर बड़ा भंडार आदि तथा मेरे संग्रह में है। वाचक कनकसोम __ चरित्र-पञ्चक अवचूरिकार वाचक कनकसोम आचार्य जिनभद्रसूरि सन्तानीय वाचनाचार्य श्रीअमरमाणिक्य गणि के शिष्य थे और महोपाध्याय श्री साधुकोत्ति आपके बृहद् गुरुभ्राता थे। वैसे आप ओसवंशीय नाहटा गोत्र के थे। आपके माता-पिता का नामोल्लेख हमें प्राप्त नहीं है । वृत्तरत्नाकर की सं० १६१३ चैत्र कृष्णा ११ को लिखित, आपकी करकमलाङ्कित प्रति प्राप्त होने से यह निश्चित है कि आपको दीक्षा श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी ने प्रदान की होगी। जिनवल्लभीय चरित्र पञ्चक पर अवचूरि की सं० १६१५ की स्वयं लिखित प्रति होने से यह अनुमान करना अस्वाभाविक नहीं होगा कि आपकी दीक्षा सं० १६००-१६०५ के मध्य में हुई होगी। चरित्र पञ्चक पर अवचूरि लिखने के लिये १० वर्ष की दीक्षा-पर्याय तो अवश्य होना ही चाहिये। सं० १६४८ में यु० श्रीजिनचन्द्रसूरि अकबर के आमन्त्रण से लाहोर पधारे थे उस समय आप भी साथ थे। संभवतः आपको वाचक पद यु. जिनचन्द्रसूरि ने ही दिया होगा। थावच्चा सुकोमल चरित्र की अन्तिम रचना सं० १६५५ में होने से इसके पश्चात् ही आपका स्वर्गवास हुआ है। ___ आपकी रचित जइतपदवेली, हरिकेशी संधि आदि भाषात्मक १० रचनायें और नववाडी गीत, जिनचन्द्रसूरि गीत आदि अनेक गीत भी प्राप्त हैं। संस्कृत रचनाओं में आपकी यह एक ही कृति उपलब्ध है। इसमें आदिनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इन पांचों तीर्थकरों के चरित्र पर आपने वल्लभ-भारती] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवचूरि की रचना सं० १६१५ में की है । यह अवचूरि सुगम, सुबोध तथा पठनीय है। इसमें वाक्याडम्बर रहित किन्तु परिमार्जित शैली का अनुसरण किया गया है । कमलकीर्त्ति चरित्र - पञ्चक बालावबोध और लघु अजितशान्ति स्तव के बालावबोधकार श्रीकमलकीत आचार्य श्रीजिनमाणिक्यसूरि के प्रशिष्य, वाचनाचार्य श्रीकल्याणधीर गणि के शिष्य थे| युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि स्थापित ४४ नन्दियों में ४० वीं नन्दी 'कीर्ति' होने से अनुमानतः सं० १६५० और १६६० के मध्य में आपकी दीक्षा हुई होगी। सं० १६७६ में आपने महीपाल चरित्र चतुष्पदी की रचना की है। इससे भी यह अनुमान स्वाभाविक साही प्रतीत होता है । सं० १६८७ चैत्र शुक्ला ह सोमवार को आपने बाल ब्रह्मचारिणी सूजी नामकी श्राविका के लिये सप्तस्मरण बालाववोध की २५०० श्लोक परिमाण में रचना की है; जो सखवाल गोत्रीय श्रष्ठि सांगण के पुत्र श्री सहस्रकरण की पुत्री थी और आपकी चाची लगती थी तथा जिनको आप माता के रूप में ही मानते थे; उसी के लिये आपने स्वयं सं० १६८८ में यह प्रति भी लिखी है । लघु अजित - शान्तिस्तव बालावबोध ( २० सं० १६८९ ) और चरित्र पञ्चक बालावबोध (२० सं० १६६८ श्रा० ० ६ ) पर आपने बहुत ही विस्तृत विवेचन लिखे हैं । इसमें उन्होंने न केवल कवि की प्रतिभा को सम्यकरूप से प्रकट करने का सफल प्रयत्न किया है अपितु स्तोत्र में वर्णित भगवान् के स्वरूप की दार्शनिक मीमांसा भी अच्छी की है । आपकी ये दोनों कृतियें पठन योग्य हैं । उपाध्याय समयसुन्दर जैन जगत् के प्रसिद्ध कवि समयसुन्दर का नाम किसने न सुना होगा ? आफ मूलतः राजस्थान में साचौर के निवासी थे और आपके पिता का नाम था रूपसी तथा माता का नाम लीलादेवी था । १७वीं शती के प्रसिद्ध जैनाचार्य सम्राट् अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि के आप प्रशिष्य तथा सकलचन्द्र गणि के शिष्यरत्न थे । आपके विद्यागुरु थे वाचक महिमराज और वाचक समयराज । आपके पाण्डित्य, चारित्र्य और सिद्धान्तज्ञान का समुचित मूल्यांकन करना यहां संभव नहीं । अकबर की सभा में आपने "राजानो ददते सौख्यम्" की व्याख्या में ८ आठ लाख अर्थ कर 'भारती पुत्र' कलिकाल कालिदास-ता सिद्ध की थी। आप व्याकरण, न्याय, दर्शन, लक्षण, साहित्य, आगम आदि के प्रकाण्डपण्डित थे और इनकी वाग्मिता तथा प्रगल्भता का लोहा उस समय सब मानते थे । जब ० जिनचन्द्रसूरि सम्राट् अकबर के आग्रह से लाहोर पधारे थे उस समय आप भी साथ में थे। सं० १६४६ में फाल्गुन शुक्ला २ को आचार्यश्री ने आपको वाचक पद प्रदान किया था । सं० १६७१ लवेरा में जिनसिंहसूरिजी ने आपको उपाध्याय पद दिया था । सं० १६८७-१६८८ के दुष्काल के कारण जो साधु-समाज में शिथिलता आगई थी उसका परिहार कर १६६१ में आपने क्रियोद्धार किया था। जैसलमेर के राउल श्री भीमसिंहजी को १६८ ] [ वल्लभ-भारती Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्न कर मयणों (मीणों) द्वारा मारे जाने वाले 'सांडा' जीवों को बचाया था । सिन्धु देश में विहार करते हुए सिद्धपुर के मखनूम महमद शेख को प्रतिबोध देकर पञ्चनदीय जलचर जीवों तथा गौ की रक्षा का अमारी पटह बजवा कर अहिंसा धर्म का सुन्दर प्रचार किया था । मंडोवर ( मंडोर ) और मेड़ता के नृपति आपके भक्त थे । सं० १७०२ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को अहमदाबाद में आपका स्वर्गवास हुआ था । आपके द्वारा सर्जित साहित्य-निधि आज भी अपार संख्या में उपलब्ध है । आपने अनेकों मौलिक ग्रन्थ, टीका ग्रन्थ, विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थ, संग्रहात्मक ग्रन्थ, रासचतुष्पदी आदि भाषा-साहित्य के अनेकों ग्रन्थ निर्माण किये । आपके स्तोत्र, स्तवन, स्वाध्याय, (सज्झाय) पद आदि की तो गिनती भी नहीं है, जिसमें बहुलता से अनेकों नष्ट हो गये हैं । फिर भी प्रचुर परिमाण में आपका साहित्य उपलब्ध है । आपके प्रणीत साहित्य की तालिका और आपके जीवन का कला-कलाप विस्तार भय से यहां नहीं दिया जा रहा है । आपके सम्बन्ध में विशेष प्ररिचय 'समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि' की भूमिका में और युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पुस्तक में प्राप्त होगा । आपने वीर चरित्र पर एक टीका लिखी। दुर्भाग्यवश अब तक की प्राप्त प्रतियों में इसकी प्रशस्ति नहीं है । अतः इसका रचनाकाल नहीं बताया जा सकता। आपके लघु अजित शान्तिस्तव वृत्ति की रचना सं० १६६५ में हुई है। टीकाकार के रूप में आपकी शैली सर्वदा शिष्य - हितैषिणी रही है । इसी कारण यह भी प्रारम्भिक जिज्ञासुओं के लिये उपादेय वस्तु बन गई है । भाषा सरल और वाक्याडम्बर रहित तथा परिमार्जित है । श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सूरत की तरफ से ये प्रकाशित हो चुकी हैं । विमलरत्न वीरचरित बालावबोधकार त्रिमलरत्न पाठक विमलकीर्ति के शिष्य थे । आपके सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है । आपके नाम को सुरक्षित रखने वाला केवल यही एक बालावबोध उपलब्ध है। इसकी रचना आपने सं० १८०२ पौष शुक्ला दसमी को साचोर (मारवाड़) में की थी । इसकी एक मात्र ११ पत्र की प्रति श्री मोतीचन्दजी खजांची संग्रह बीकानेर में सुरक्षित है । यह बालावबोध विवेचन पूर्ण है । इसमें श्रमण महावीर के पूर्व-भवों और तपस्या . के सम्बन्ध में लेखक ने अच्छा विवेचन किया है। इसे पढकर जरा साहित्यिक आनन्द अवश्य प्राप्त होता है । इसकी भाषा भी अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा परिमार्जित है । वाचनाचार्य धर्मतिलक लघु अजित - शान्ति - स्तव के टीकाकार वाचनाचार्य धर्मतिलक गणि आचार्य जिनपतिसूरि के पट्टधर आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वितीय के शिष्य थे। सं० १२६७ चैत्र शुक्ला १. देखें मेरी लिखित 'महोपाध्याय समयसुन्दर' वल्लभ-भारती ] [ १६६ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ को पालनपुर में श्री जिनेश्वरसूरि ने आपको दीक्षा प्रदान की थी। सं० १३२५ ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्थी को सुवर्णगिरि (जालोर) में आचार्य जिनेश्वर ने ही आपको वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया था। सम्भव है विद्याध्ययन आपने श्री लक्ष्मीतिलकोपाध्याय आदि के पास में किया हो। एतदरिक्त अन्य कोई ऐतिह्य उल्लेख आपके सम्बन्ध में प्राप्त नहीं है। आपकी रचनाओं में भी केवल यही एक टीका प्राप्त है। इसकी रचना सं० १३२२ फाल्गुन कृष्णा ६ को हुई है। यह रचना आपने मुनि अवस्था में की है और वाचनाचार्य पद आपको १३२५ में मिला है। इसका संशोधन श्री लक्ष्मीतिलकोपाध्याय ने किया है तेषां युगप्रवरसूरिजिनेश्वराणां, शिष्यः स धर्मतिलको मुनिरादधाति । व्याख्यामिमामजितशान्तिजिनस्तवस्य, स्वार्थ-परोपकृतये च कृताभिसन्धिः ॥२॥ विचक्षणग्रन्थसुवर्णमुद्रिका, विचित्रविच्छित्तिमि (व)ता विनिर्मिता। यदीयनेत्रोत्तमरत्नयोगतः, श्रियं लभन्ते मितिमण्डले पराम् ॥३॥ तैः श्री लक्ष्मीतिलकोपाध्यायः परोपकृतिदक्षः । विद्वद्भिवत्तिरियं समशोधिततरां प्रयत्नेन ॥४॥ युग्मम् नयनकरशिखीन्दु १३२२ विक्रमवर्षे तपस्यसितषष्ठ्याम् । वृत्तिः सथिताऽस्या मानं च सविंशति स्त्रिशती ॥५॥ यह टीका प्रौढ एवं विद्वद्भोग्या है। इसमें विशेषावश्यक भाष्य जैसे ग्रन्थों के भी उद्धरण हमें प्राप्त होते हैं। इसमें वस्तु का विवेचन प्राञ्जल और प्रौढ भाषा में होते हुए भी सरलता को लिये हुए है जिससे उनका इस भाषा पर आधिपत्य प्रकट होता है। यह टीका वैराग्यशतकादि पञ्चग्रन्थों में प्रकाशित हो चुकी है। उपाध्याय गुणविनय लघुअजितशान्तिस्तव के टीकाकार गुणविनय के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में ऐतिह्य प्रमाणों का अभाव है। युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि द्वारा स्थापित ८ वी नन्दि 'विनय' होने से आपका दीक्षा काल संभवतः १६२१ या २२ का होगा । आप जिनकुशलसूरि सन्तानीय क्षेमकीति शाखा के प्रौढ विद्वान् उपाध्याय जयसोम गणि के शिष्य थे। जिस समय सं० १६४८ में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि सम्राट अकबर के आग्रह से लाहोर पधारे थे उस समय आप भी उनके साथ में थे। यु० जिनचन्द्रसूरि ने सं० १६४६ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को आपको वाचनाचार्य पद से सुशोभित किया था। सम्राट् जहांगीर ने आपकी असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर आपको 'कविराज पद प्रदान किया था। . १. कर्मचन्द्रवंशप्रबन्धवृत्ति । २. प्रापके शिष्य मतिकीति निर्मित नियुक्तिस्थापन प्रश्नोत्तर ग्रन्थ की प्रशस्तिः "चम्पू-रघु-मुख्यानां ग्रन्थानां विवरणात्तथा जहांगीरात् । नवनवकवित्वकथने स्यादाप्राप्त कविराजपदम् ॥५॥ १७.1 [ वल्लभ-भारती Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 आप प्राकृत, संस्कृत तथा देश्यभाषा के उद्भट विद्वान् थे । आपकी विशेष ख्याति टीकाकार और जैनागमों के प्रौढ अभ्यासी के रूप में थी । सं० १६७५ वैशाख शुक्ला १३ को सं० रूपजी कारित वृहद् प्रतिष्ठा महोत्सव के समय आ० जिनराजसूरि के साथ शत्रु ञ्जय पर आप भी विद्यमान थे। आपका साहित्य - सर्जन काल सं० १६४१ से १६७६ तक का है । सं० १६७६ के पश्चात् आपकी कोई कृति प्राप्त न होने से संभव है १६७६ के आसपास ही आपका स्वर्गवास हो गया हो। आपकी निर्मित कृतियों की तालिका इस प्रकार है: (१) सव्वत्थ शब्दार्थ समुच्चय' ( " सव्वत्थ' शब्द के ११७ अर्थ ) (२) खण्डप्रशस्ति वृत्ति (२० सं० १६४१) मेरे द्वारा संपादित होकर शीघ्र ही राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित होने वाली है । ३. नेमिदूत वृत्ति (सं० १६४४ बीकानेर) । ४. नलचम्पू वृत्ति ( २० स. १६४६ सेरुणा ) । ५. रघुवंश टीका ४ (सं० १६४६ बीकानेर ) । ६. वैराग्य शतक टीका (सं० १६४७) । ७. संबोध सप्तति टीका (सं. १६५१) । ८. कर्मचन्द्र वंश प्रबन्ध टीका (सं. १६५६ तोसामनगर )। ६. लघु शान्तिवृत्ति ( १६५९ वेनातट ) । १०. इन्द्रिय पराजय शतक वृत्ति, ११. लघु अजितशान्तिवृत्ति, १२. ऋषिमण्डल अवचूरि ६, १३. दशाश्रु तस्कन्ध टीका १०, १४. शीलोपदेशमाला लघुवृत्ति 1 32, 5 भाषा टीकाएं - १५ बृहत्संग्रहणी बालावबोध' २, १६. आदिनाथ स्तव बालावबोध ( बापड़ाउ, ज्ञाननन्दन आग्रह से ) । १७. णमुत्थुणं बाला० । १८. जयतिहुअण स्तोत्र बाला० 13, १९. भक्तामर स्तबक, २०. कल्पसूत्र बालावबोध '४, २१. चरण- करण- सत्तरी भेद । रास संग्रहात्मक – २२. हुण्डिका (सं० १७५७ सैरुणा, पद्य सं० १२००० ) । २३. प्रश्नोत्तर | रास चौपाई - २४. कयवन्ना संधि' (१६५४ नेमिजन्म महिमपुर ) । २५. कर्मचन्द्र वंशावली ( १६५६ भा० व० १०)। २६. अंजना सुन्दरी रास ७ (१६६३ खंभात ) । २७. ऋषिदत्ता चौपाई ( १६६३ खंभात ) । २८. गुणसुन्दरी चौपाई | ८ ( १६६५ नवानगर)। २६. नलदमयन्ती प्रबन्ध ( १६६५ नवानगर ) । ३०. जम्बूरास ( १६७० बाडमेर ) । ३१. धन्ना शालिभद्र चौपाई (१६७४ आगरा श्रीमाल मानसिंह आग्रह से ) । ३२. अगडदत्त रास । १. अनेकार्थरत्न मंजुषा में प्रकाशित २. मेरे द्वारा सम्पादित होकर सुमति सदन कोटा से प्रकाशित हो चुकी है। ३. सेठिया लायब्ररी बीकानेर, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । ४. बीकानेर भंडार ५. ८. हीरा० हं० द्वारा प्रकाशित ६. प्रात्मानन्द सभा भावनगर द्वारा प्र० । ७. नाहटा संग्रह । ६. मेरे संग्रह में १०. उल्लेख फुटकर पत्र में, अप्राप्य, १२. अपूर्ण प्रति अनंतनाथ ज्ञान भंडार बम्बई, १४. कई पत्र स्वयं लिखित बद्रीदास संग्रह कलकत्ता । १६. प्रकाशित १५. बीकानेर भं० । १७ - १८ मेरे संग्रह में बल्लभ-भारती ] ११. आत्मानद सभा भावनगर १३. पत्र १३ स्वयं लि० रामचन्द्र भं० बीकानेर; [ १७१ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. कलावती चौपाई (१६७३ सांगानेर)। ३४. बारह व्रत रास (१६५५)। ३५. जीवस्वरूप चौ.' (१६६४ राजनगर) । ३६. मूलदेव चौपाई (१६७३ जे• सु० ३ सांगानेर)। ३७. दुमुह प्रत्येक बुद्ध चौपाई। __ खण्डनात्मकः-३८. अंचलमत स्वरूप वर्णन४ (१६७४ भा० सु० ६ मालपुरा)। ३६. लुम्पकमततमोदिनकर चौपाई' (१६७५ सा०व० ६ सांगानेर)। ४०. तपा ५१ बोल चौपाई (१६७६ राडद्रहपुर)। ४१. प्रश्नोत्तर मालिका अपरनाम पार्वचन्द्र मत दलन (१६७३ सांगानेर)। ४२. कुमतिमत खण्डन अपरनाम उत्सूत्रोद्घाटन कुलक (१६७५ नवानगर)। इनके अतिरिक्त आपके स्तवन और स्वाध्याय तो अनेक हैं जिनका यहां उल्लेख कर कलेवर बढाना उचित नहीं। ____ लघु अजित-शान्ति-स्तव टीका की प्रति सन्मुख न होने से इसका भी विवेचन नहीं किया जा सकता। उपाध्याय देवचन्द्र अठारहवीं शती के सुप्रसिद्ध कवि, आध्यामिक और द्रव्यानुयोगिक उपाध्याय देवचन्द्र गणि खरतरगच्छीय उपाध्याय दीपचन्द्र गणि के शिष्य थे । आपका जन्म सं० १७४६ में बीकानेर निकटवर्ती ग्राम के निवासी लूणिया गोत्रीय तुलसीदास-धनबाई के यहां हुआ था। परम्परानुसार आपके अभिभावकों ने अपने पुत्ररत्न को बहोरा (भेंट) दिया था । श्री राजसागरजी ने आपको सं० १७५६ में दीक्षित कर आपका राजविमल नाम रखा । परन्तु आपका यह राजविमल नाम प्रसिद्धि को प्राप्त न कर सका, केवल देवचन्द्र नाम ही चलता रहा। सरस्वती की कृपा और गुरु के आशीर्वाद से थोड़े ही समय में आप सब ही शास्त्रों में निष्णात हो गये। सं० १७६६ में, २० वर्ष की अवस्था में आपने ध्यानदीपिका चौपाई नामक ग्रन्थ की पद्यबन्ध रचना कर आध्यात्मिक प्रगति और साहित्यनिष्ठा का जो परिचय दिया है वह स्मरणीय है। यह ध्यानदीपिका दि० शुभचन्द्राचार्य रचित ज्ञानार्णव का राजस्थानी पद्यानुवाद है। ____ आपका प्रारम्भिक विहार क्षेत्र तो सिन्ध व मरुधर ही रहा, किन्तु आपकी विमलकीत्ति मरुधर देश तक ही सीमित न रह सकी। आपकी ख्याति से प्रभावित होकर श्री खिमाविजयजी ने गुर्जर देश पधारने का आपको आमन्त्रण दिया। सं० १७७७ में आप पाटण पधारे और जहां श्री ज्ञानविमलसूरि जैसे विद्वान् भी सहस्रकूट चैत्यों के नाम बताने में असफल हो गये थे बहां आपने शास्त्रोक्त नाम बतला कर ज्ञानविमलसूरि के हृदय में भी अपना एक स्थान बना लिया था। १. पत्र १३ भां० ओ० रि० इ० पूना, २. पत्र ५ मुकनजी संग्रह बीकानेर । ३. आदिपत्र यति रामलालजी सं. बीकानेर । ४. थाहरु भ० जैसलमेर । ५. जयपुर संघ भंडार । ६. बीकानेर भंडार। ७. प्रकाशित १७२ 1 [वल्लभ-भारती Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छीय संविग्नपक्षीय प्रसिद्ध विद्वान् जिनविजयजी, उत्तमविजयजी, विवेकविजयजी' आदि ने आपके पास महाभाष्य जैसे महान् ग्रन्थों का विधिवत् अध्ययन किया था । उस समय ढूंढक ( स्थानकवासी ) लोग प्रतिमा-अर्चन का जो आत्यन्तिक निषेध कर रहे थे उन्हीं के नेता माणिकलालजी आदि को आपने मूर्तिपूजक बनाया । भावनगर के महाराजा आपके भक्त थे । अहमदाबाद की शान्तिनाथ पोल में सहस्रफणा बिंब, सहस्रकूट जिनबिंब, शत्रु जय पर प्रतिष्ठा, लींबड़ी, धांगध्रा, चूडा इत्यादि अनेक स्थलों पर आपने प्रतिष्ठाएं करवाई । सं० १८१२ में अहमदाबाद में गच्छनायक ने आपको उपाध्याय-पद प्रदान किया और सं० १८१२ भाद्रपद कृष्णा अमावस्या को अहमदाबाद में आपका स्वर्गवास हुआ । आप एकपक्षीय विद्वान् नहीं थे। जहां जिनविजयजी जैसे विद्वान् आपके पास महाभाष्य पढ़ते थे वहां आप भव्य - परोपकारार्थ व्याख्यान में गोमट्टसारादि दिगम्बर ग्रन्थों का भी प्रयोग करते थे । ध्यानदीपिका, आयमसार, द्रव्य प्रकाश जैसे उच्च कोटि के ग्रन्थों को भाषा में प्रणयन करते थे तथा ज्ञानसार जैसे ग्रन्थों पर संस्कृत टीका की रचना करते थे । आप बहुत एवं बहुज्ञ थे। आपने द्रव्य प्रकाश ब्रजभाषा में बनाया है । आपकी समस्त रचनाओं का संग्रह श्रीमद् देवचन्द्र नाम से दो भागों में अध्यात्मज्ञान प्रसारक मंडल पादरा द्वारा प्रकाशित हो चुका है। अतः रचित साहित्य के संबंध में यहां उल्लेख करना पिष्टपेषण मात्र हो होगा ।. लघु अजित शान्तिस्तव की प्रति का अभी तक हमें पता नहीं चल सका है; संभवतः वह अप्राप्य है । उपाध्याय जयसागर ओसवाल वंश के दरडागोत्रीय पिता आसूराज और माता सोखू के आप पुत्ररत्न थे । जिनराजसूरि आपके दीक्षा गुरु थे और आपके विद्यागुरु थे जिनवर्धनसूरि । सं० १४७५ में या उसके आस-पास ही आचार्य जिनभद्रसूरि ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत किया था । आचार्य जिनभद्रसूरि ने जो ग्रन्थोद्धार का महत्त्वपूर्ण कार्य प्रारंभ किया था उसमें आपका पूर्ण सहयोग था । आपने भी अपने उपदेशों से बहुत से ग्रन्थ लिखवाये जो जैसलमेर, पाटण आदि के भंडारों में आज भी उपलब्ध हैं । आप साहित्य के उच्चकोटि के मर्मज्ञ थे । आपने कई मौलिक-ग्रन्थों, टीकाओं एव स्तोत्रों की रचनाएं कीं जिसमें से कई तो काल - कवलित हो चुकी हैं और कई शोध के अभाव में अभी तक उपलब्ध नहीं हुई हैं। वर्तमान में जो कुछ साहित्य उपलब्ध है उनमें से पर्वरत्नावली, विज्ञप्ति त्रिवेणी, पृथ्वीचन्द्र चरित्रादि मौलिक, संदेहदोलावली बृत्ति आदि ६ टीका ग्रन्थ, जिनकुशलसूरि छन्द आदि ३३ भाषा-कृतियां एवं तीर्थमाला स्तव स्तोत्र आदि फुटकर १. जिनविजय निर्वाणरास तथा उत्तमविजय निर्वाणरास देखें । वल्लभ-भारती ] [ १७३ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ रचनायें उपलब्ध हैं । श्रीवल्लभोपाध्याय ने जयसागरोपाध्याय रचित साधारण जिनस्तुति टीका में लिखा है कि 'जयसागरोपाध्याय ने संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में ५०० लघु स्तोत्रों की रचना की थी और स्तुतियों की भी विपुल परिमाण में रचना की थी।' __आपने अपने जीवन में अनेक तीर्थयात्राएं की थी, जिनमें से नगरकोट तीर्थयात्रा का वर्णन 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' जैसे आलङ्कारिक ग्रन्थों में पाया जाता है । आपकी शिष्य-परंपरा भी बड़ी थी। आपके संबंध में विशेष ज्ञातव्य के लिये देखें मेरे द्वारा लिखित 'अरजिन स्तव की भूमिका'। भावारिवारण स्तोत्र वृत्ति का रचना काल ज्ञात नहीं । यह वृत्ति बालावबोधहिताय लिखी गई है। सामान्यतया यह वृति सुन्दर है और प्राथमिक अभ्यासियों के लिये तो उपादेय है ही। यह टीका हीरालाल हंसराज की तरफ से प्रकाशित हो चुकी है। वाचनाचार्य चारित्रवर्धन पंच महाकाव्यों के प्रसिद्ध व्याख्याकार वाचनाचार्य चारित्रवर्धन भारतीय वाङमय के एक समर्थ प्रतिभाशाली एवं विश्रत विद्वान थे। व्याकरण, निरुक्त तथा अलकार विषयक आपका ज्ञान इतना व्यापक था कि अन्य परवर्ती टीकाकारों को भी आपका 'मत' स्वीकार करना पड़ा। आपकी टीकाओं को देखने से न केवल हमें उनके व्याकरण तथा लक्षणशास्त्र के अगाध ज्ञान का पता चलता है अपितु उनके न्याय, दर्शन, जैन सिद्धान्त और साहित्य का भी पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है । अतः यह कहा जा सकता है कि आप सर्वदेशीय विद्वान थे। यही कारण है कि आप अपनी टीकाओं की प्रशस्ति में अपनी योग्यता का गर्व भरे शब्दों में स्वयं को 'नरवेष सरस्वती' उपनाम स्थापित करते हुए लिखते हैं: तच्छिष्य-प्रतिपक्षदुद्धं रमहावादीमपञ्चाननो, मानानाटकहाटकामरािरः साहित्यरत्नाकरः। न्यायाम्भोजविकाशवासरमणिबौद्धति जाग्रत्प्रभो, वेदान्तोपनिन्निधन्नधिषणोऽलङ्कारचूडामणिः ॥ मीवीरशासनसरोरुहवासरेशः, सद्धर्मकर्मकुमुदाकरपूरिणमेन्दुः । बाचस्पतिप्रतिमधीनरवेषवाणि-र्चारित्रवधनमुनिविजयी जगत्याम् । चारित्रवर्धन गणि खरतरगच्छ की एक प्रमुख शाखा (जो लघु खरतर के नाम से प्रसिद्ध है) के प्रसिद्ध जैनाचार्य मुहम्मद तुगलक प्रतिबोधक, विविधतीर्थकल्प आदि ऐतिहासिक ग्रन्थों के रचयिता, १४ वीं प्रती के उद्भट विद्वान् श्रीजिनप्रभसूरि की परम्परा के 'चौथे आचार्य श्रीजिनहितसूरि के प्रशिष्य तथा उपाध्याय कल्याणराज के शिष्य थेः वंशे श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः सिद्धान्तशास्त्रार्थवित, दपिष्ठप्रतिवादिकुञ्जरघटाकण्ठीरवः सूरिराट् । नानानव्यसुभव्यकाव्यरचनाकाव्यो विभाख्याऽमलप्रज्ञो विज्ञनतो जिनेश्वर इति प्रौढप्रतापोऽभवत् ॥१॥ १७४ ] [ वल्लभ-भारती Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्यस्तदीयोऽजनि जन्तुजात-हितार्थसम्पादनकल्पवृक्षः । विपक्षवादिद्विपपञ्चवक्त्रः, सूरीश्वरः श्रीजिनसिंहसूरिः ।।२।। तत्पट्टपूर्वाद्रिसहस्ररश्मि-जिनः प्रभः सूरिपुरन्दरोऽभूत् । वाग्देवताया रसनां तदीयामास्थानष जगदुर्बुधेन्द्राः ॥३॥ तदनु जिनदेवरिः स्वशे मुषी-तजितत्रिदशसूरिः । निरुपमसमरसभूरिः सूरिवरः सबजनिष्ट जयी ॥४॥ तदनु जिनमेरुसूरिः दूरीकृतपातको निरातङ्कः । समजनि रजनीवल्लभवादनो मदनोरयेताः ॥५॥ गुणगणमरिससिन्धुव्यलोकैकबन्धुविधुरितकुमतीयः प्रीणिताशेषसङ्कः। जिनमतकृतरक्षस्तजितारातिपक्षोऽबनि जिनहितखूरिस्त्यक्तनिश्चेषभूरिः ॥६॥ जिनसर्वसूरिरभवत्तत्पऽघट्टित-प्रबलमोहः । सब्जनपङ्कजराजीविकाशभास्वान्महौजस्कः ॥७॥ तस्य जिनचन्द्रसरिः शिष्यो दक्षः कलावतां पक्षः । कक्षीकृताऽखिलजनोपकारसारः सदाचारः ॥८॥ सूरिजिनसमुद्राख्यस्तस्य जज्ञे महामतिः । पन्तिपत्सुकृतीसाधुवृन्दाम्भोजनभोमणिः ॥६॥ जिनतिलकसूरिरस्माद् विजयी जीयादशेषयुषकलितः । श्रीवीरनाथशासनसरसीपहभास्करः श्रीमान् ॥१०॥ तत्पट्टपूर्वाचलमौलिचन्द्रः, विपक्षवादिद्विपपञ्चवक्त्रः । जीयात् सदाऽसौ जिनराजसौरिः, सत्पक्षयुक्तो जिनधर्मरक्षः ।।११।' जिनहितसूरे:२ शिष्यो, बभूव भूमीशवन्दितांघ्रियुगः । कल्याणरामनामोपाध्यायस्तीशास्त्रान्धिः ।।१२।। तशिष्य... -रघुवंशटीका प्रशस्ति १. यह पब नैषध, सिन्दूरप्रकर, कुमारसंभव को प्रशस्तियों में नहीं है। केवल रघुवंशवृत्ति की प्रशस्ति २. नैषधीय प्रशस्ति में जिनहितसूरेः के स्थान पर जिनसिंहसूरेः पाठ है जो गुरु परम्परा तथा छन्दो भंग दृष्टि से अयोग्य है। पल्लभ-भारती] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रशस्ति के अनुसार आपका वंशक्रम इस प्रकार है: जिनवल्लभसूरि जिनदत्तसूरि जिनचन्द्रसूरि जिनपतिसूरि जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) जिनप्रबोधसूरि (बृहत्शाखा) जिनसिंहसूरि (लखुखरतर शाखा) _जिनप्रभसूरि . जिनदेवसूरि जिनमेरुसूरि जिनचन्द्रसूरि जिनहितसूरि जिनसर्वसृरि उ० कल्याणराज जिनचन्द्रसूरि - चारित्रवर्धन जिनसमुद्रसूरि (कुमारसंभव वृत्ति) जिनतिलकसरि जिनराजसूरि १७६ ) [ वल्लभ भारती Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ गणि चारित्रवर्धन की पूर्वावस्था का वर्णन तथा दीक्षा-शिक्षा इत्यादि का वर्णन पूर्णतः अनुपलब्ध है। केवल टीकाओं की प्रशस्तियां देखने से यह ज्ञात होता है कि आपका साहित्य-सर्जन काल सं० १४६२ से १५२० तक का है। आचार्य जिनहितसूरि के प्रशिष्य चारित्रवर्धन थे और आचार्य-परम्परा के अनुसार जिनराजसूरि ५वे पट्ट पर आते है। इस दृष्टि से चारित्रवर्धन का दीक्षा काल अनुमानतः १४७० स्वीकार किया जा सकता है। चाहे कल्याणराज अतिवृद्ध हों या चारित्रवधन; किन्तु यह निःसंदेह है कि इनकी दीक्षा पर्याय बहुत बड़ी रही है। कुमारसम्भव टीका की रचना सं० १४६२ में हुई है। इस टीका का आद्योपान्त भाग अवलोकन करने से यह निश्चित ज्ञात होता है कि यह कृति प्रारम्भिक अवस्था की नहीं अपितु प्रौढावस्था की है। तथा इसमें उल्लिखित स्वयं के लिये वाचनाचार्य पद को ध्यान में रखने से ऐसा अनुमान होता है कि लगभग २०-२२ वर्ष का समय उनकी दीक्षा को हो चुका होगा। इस दृष्टि से दीक्षा समय १४७० के लगभग ही आता है। सं० १४६२ की रचना में जिनतिलकसूरि का उल्लेख होने से सम्भवतः वाचनाचार्य पद आपको इन्होंने प्रदान किया होगा। कवि की कोई भी मौलिक कृति प्राप्त नहीं है। व्याख्या ग्रन्थ अवश्य प्राप्त हैं जो इनकी कीत्ति को अक्षुण्ण रखने में अवश्य समर्थ हैं । तालिका इस प्रकार है१. रघुवंश शिष्यहितैषिणी वृत्ति - अरडक्कमल्ल अभयर्थनया २. कुमारसंभव शिशुहितैषिणी वृत्ति सं० १४६२३ ३. शिशुपालवध वृत्ति ४. नैषध वृति सं० १५११५ .. ५. मेघदूत वृत्ति ६. राघवपाण्डवीय वृत्ति १. मेरे संग्रह में, २. गुजराती मुद्रणालय बम्बई द्वारा सं० १९५४ में प्रकाशित । ३. वर्षे विक्रमभूपतेविरचिता दृग्नन्दमन्वङ्किते, माघे मासि सिताष्टमी सुरगुरावेषोऽञ्जलिर्वो बुधाः । (कु. सं. व. प्र.) ४. नाहटाजी की सूचना के अनुसार नित्य विनय मणि जीवन जैन लायब्रेरी, कलकत्ता आदि में प्राप्त है। ५. तेनामुख्यविपक्षवादिनिकराहकारविश्वम्भरा भृल्लेखप्रभुणा शिवेषशशभृत्संख्या कृते वत्सरे। टीका राघवलक्षमाधवतिथौ शक्रेण चक्रे महाकाव्यस्यातिगरीयसो मतिमतां श्रीनैषधस्यार्थदाः ॥१४॥ (नषष-टीका-प्रशस्ति) ६. मेरे संग्रह में व मुद्रित बल्लभ-भारती ] । १७७ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. सिन्दूर प्रकर वृत्ति सं० १५०५' भीषण अभ्यर्थनया ८. भावारिवारणस्तोत्र वृत्ति २ ६. कल्याणमन्दिर स्तोत्र वृत्ति रघुवंश और नैषधटीका में तो कवि ने अपनी प्रतिभा एवं पाण्डित्य का पूर्ण उपयोग किया है। नैषध की टीका में तो कवि ने अपनी कलम ही तोड़ दी है और उसने उसमें यह प्रयत्न किया है कि अन्य टीकाओं की भी यह 'जननी' पथप्रदर्शिका बन सके। "यद्यपि बह व्यस्टीका: सन्ति मनोज्ञारनथापि कुत्रापि। एषा विशेषजननी भविष्यतीत्यत्र मे यत्नः ।। यही कारण है कि गुजराती मुद्रणालय बम्बई से प्रकाशित कुमारसंभव वृत्ति की प्रस्तावना में सम्पादक आपके पाण्डित्य की प्रशंसा करता हुआ लिखता है: "चारित्रवर्धनकृता शिशूहितैषिणी टीका......, सा च श्लोकाभिप्रायं स्पष्टतया विशदीकरोति पदार्थांश्चाभिर्वक्ति, अतो शिशुहितैषिणी व्युत्पित्सूनामतीवोपकारिणीति सम्प्रधार्य।" सिन्दूरप्रकर जैसे १०० पद्यों के काव्य पर ४८०० श्लोक प्रमाणोपेत टीका की रचना कर गणिजी ने अपनी असाधारण योग्यता का परिचय दिया है। इस टीका में व्याख्याकार ने सुरुचिपूर्ण एवं मौलिक दृष्टान्तों की शानों माला ही खड़ी कर दी है। ____ आपके टीकाओं की प्रशस्तियों को देखने से यह मालूम होता है कि न केवल आप ही नरवेष सरस्वती थे; अपितु आपका भक्त-श्रावक-वृन्द भी नरवेषसरस्वती तो नहीं किन्तु । सरस्वत्युपासक अवश्य था और इन्हीं भक्तों की अभ्यर्थना से ही इनने महाकाव्यों पर अपनी लेखिनी चलाई । ऊपर सूचित नं० १.३.७ ग्रन्थों में व्याख्याकार ने जो उपासकों का परिचय दिया है वह ऐतिह्य दृष्टि से बहत ही महत्व रखता है। व्याख्याकार प्रत्येक का परिचय प्रशस्तियों में इस प्रकार देता है: १. श्रीमविक्रमभूपतेरिषुवियद्बारणेन्दुसंख्यामिते, वर्षे राधसिताष्टमी गुरुदिने टीकामिमा निर्ममे । सिन्दूरप्रकरस्य चारुकरुणो निर्मापयामासिवान्, दृष्टान्तः कलितामनाथधिषणश्चारित्रनामामुनिः ।।११।। सिन्दूर प्रकर वृत्ति प्रशस्ति) २. श्रीपुण्यविजयजी संग्रह ३. हीरालाल र. कापड़िया द्वारा उल्लेख ४. अनुष्टुभां सहस्त्राणि चत्वार्यष्टौ शतानि च। ग्रन्थसंख्या मिता यत्र विवृतौ वर्णसंख्यया ।।१३।। १७८ ] [ वल्लभ-भारती Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “इत्यखण्डपाण्डित्यमण्डितपाण्डुभूमण्डलाखण्डलस्थापनाचार्य कर्पूरचीरधाराप्रवाह - प्रभृतिविरदावली चलित ललितोत्कटवदान्यसुभट देशलहरवंशसरसीरुहविकाशन मार्त्तण्ड बिम्बप्रचण्डदोर्दण्डविकटचे चटगोत्त्राभिदुन्नत साधुश्री देशल सन्तानीय साधु-श्रीभैरवात्मजसाधु-श्री सहस्रमल्लसमश्यथिता'''''' ( शिशुपालवध प्र० ) श्रीमालवंशहंसो, डोडागोत्र पवित्रगुरणपात्रम् । समजनि जगलूश्रेष्ठी, विशिष्टकर्मा वरिष्ठयशाः । । १४ ।। माल्लू श्रेष्ठी तस्य, प्रशस्य मूर्तिर्बभूव तनुजन्मा । पुत्रोऽमुष्य स भूधर इत्याख्यो दक्षजनमान्यः ।। १५ ।। जगसीधर इति तस्माज्जातः स्मरविग्रहः कलानिलयः । तस्यापि लखमसिंहस्तनयो विनयी नयाभिज्ञः || १६ || तेजपालस्ततो जज्ञ. सुतो मुख्याद्यगोपि च । पीप्पड़ो बाहड़ो न्यूनधर्मः शर्मनिधिः सुधीः ॥१७॥ मुख्यमुरुषो दाक्षिण्यभाजनं तनुजो जयी । देवसिंह इति स्वान्तः वासिताऽर्हत्पदाम्बुजः || १८ || सालिगनामाभूत्तत्पुत्रः स चरित्रभूः । एतस्याङ्गसमुद्भूताश्चत्वारोऽपि जयन्त्यमी ||१६|| धाः साधुधियां भूमिभैरवो ततः सेहुण्डनामा च धर्मधामा रडक मल्लस्तुर्यो वर्यो धुर्यः सताममात्सर्यः । सत्कार्यो धर्मधनो, मनोहरः सकलललनानाम् ॥ २१ ॥ यद्यप्येष कनिष्ठस्तदपि गुणैज्येष्ठ एव विख्यातः । कान्तगुणोऽनबुद्धिः शुद्धाचारो विचारज्ञः ॥ २२ ॥ तत्त्वाद्गत्वरमन्त्राखिलभुर्व्या वस्तुजातमवधार्य । यो धर्म एव बुद्धि विदधाति नितान्त गुरुधिषणः ।। २३ ।। एतेनाभ्यथितोऽप्यर्थ ............ साधुः रिपुभैरवः । मनोरमः ॥२०॥ [कुमारसंभववृत्ति प्र० ] इसी श्रीमालवंशीय डौडागोतीय अरडक्कमल की अभ्यर्थना से रघुवंश काव्य' की का भी प्रणयन किया है । श्रीमाल वंशसरसीरुहतिग्मभानुः, सड्ढोरगोत्रकुमुदाकरशीतभानुः । धारू इति प्रथितचारुयशोविलासः, श्रीमानभूच्छुभमतियंतिपादसेवी ॥१॥ १. इति श्रीमालान्बय साधुश्री सालिगतनुज श्री अरड कक महलसमभ्यथित....... | बल्लभ-भारती ] [ १७९ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्याङ्गजोऽजनि जनव्रजनीरजाको, बीजाभिधो विधुत विपक्षलक्ष: । कक्षीकृताखिलमहोपकृतिकृतज्ञः, सर्वज्ञशासनसरोजमरालमौलिः ||२|| तत्पुत्रः कामदेवोऽभूत्, कामदेव-समद्य ुतिः । प्रथिनां कामदः कामं, सामजातगतिः ( ? ) कृती ॥३॥ तस्याङ्गभूः समजनिष्ट विशिष्ट कीत्ति - श्रीदेवसिंह इति सिंहसमानशौर्यः । वर्यः सतां गुणवतां प्रथमः पृथुश्रीस्तीर्थङ्करक्रमसरोरुहचञ्चरीकः ।।४।। पुत्रस्तदीयोऽजनि वस्तुपालः, शुभाशयोऽद्धन्दुसनाभिभाल: । जिनेन्द्रपादाचं ननाकपालः, समस्त वैरिव्रजनाशकालः ||५|| सच्चरित्रपवित्रितो | अभूतामस्य पुत्रौ द्वौ ज्येष्ठः सहजपालाख्यो, द्वितीयो भीषणः प्रभुः || ६ || नि षणो यो निजवंशभूषणं, गुखानुरागेण वशीकृताशयः । श्रनन्यसामान्यवरेण्यतां दधद्दधाति निःकेवलमेव धर्मताम् ||७|| यः कारुण्य पयोनिधि गवतां मुख्यः सतामग्रणी - मद्य ( ? ) रिकुलेभ केशरि शिशुविश्वोपकारक्षमः । धर्मज्ञः सुविचक्षणः कविकुलैः संस्तूयमानो वशी, जीयाज्जैन मताम्बुजैकमधुपः श्रीभीषणः शुद्धधीः ||८ ॥ देवगुरुचरणनिरतो विरतो पापात् प्रमादसंत्यक्तः । सोऽयं भीषणनामा कामतनुर्भाति धर्ममतिः । ६ । सोऽहमम्यथितोऽत्यर्थं टीकां ठक्कुरभीषणैः । सिन्दूरकरस्यास्याकार्ष चारित्रवर्द्धनः ||६|| [ सिन्दूरप्रकर वृत्ति प्रशस्तिः ] उपासकों के लिये रघुवंश, कुमारसंभव तथा शिशुपालवध इत्यादि महाकाव्यों पर प्रौढ एवं परिष्कृत शैली में व्याख्या करना उपासकों की योग्यता और बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करता है। देशलहर सन्तानीय चेचटगोत्रीय भैरवसुत सहस्रमल्ल, श्रीमालवंशीय डौडागोत्रीय सालिग सुत अरडक्कमल तथा श्रीमालवंशीय ढोरगोत्रीय ठक्कुर भीषण प्रायः करके विहार और उत्तर प्रदेश के ही निवासी थे और संभवतः यह निश्चित है कि लघु खरतर शाखा का फैलाव भी इसी प्रदेश में था । आगे भी हम देखते हैं कि १७ वीं शती के अन्तिम चरण में जब इस लघु शाखा परम्परा का ह्रास हो जाता है, तो बृहत्शाखीय जिनराजसूरि के शिष्य निरंगसूरि को इस शाखा के अनुयायी स्वीकार लेते हैं जो आज भी इसी रूप अवस्थित हैं । अतः चारित्रवर्धन का विहार- भ्रमण- प्रदेश भी यही प्रदेश रहा है । केवल २,४,७ नं० की कृतियों में संवत् का उल्लेख प्राप्त है, अन्यों में नहीं । नैषधटीका की रचना स० १५९११ में हुई है । यदि इस रचना को अन्तिम मान लें तो अनुमानतः सं० १५२० तक आप विद्यमान रहे होंगे । १८० ] [ वल्लभ-भारती Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत भावारिवारण स्तोत्र टीका की भाषा, शैली तथा विशिष्टता देखते हुए यह निश्चिततया कह सकते हैं कि यह प्रारंभिक कृति होने पर भी व्युत्पत्ति की दृष्टि से उतम और पठनीय है। न केवल गणि चारित्रवर्धन ही देवी पद्मावती के उपासक थे अपितु जैनप्रभीय सारी परम्परा ही पद्मावती को इष्ट मान कर उपासना करती रही है । यही कारण है कि नैषधीय व्याख्या के प्रारंभ में ही चारित्रवर्धन लिखते हैं: पद्मावती भगवती जगती नमस्या भूयाद्भयातिशमिनी जगतो वयस्या । नागाधिराजरमणी रमणीयहास्या, देवैर्नुता मम विकाशिसरोरुहास्या ||२॥ उपाध्याय मेरुसुन्दर युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरि की परम्परा में वाचनाचार्य शीलचन्द्र गणि के प्रशिष्य, वाचक रत्नमूर्ति गण के आप शिष्य थे । आपका सत्ताकाल सोलहवीं शती का पूर्वार्ध है । आप के सम्बन्ध में विशेष ज्ञात नहीं है किन्तु आप के साहित्य को देख कर यह तो निश्चित हो ही जाता है कि लोकभाषा को लक्ष्य में रख कर आपने जो अनुपम साहित्य सेवा की है। वह भाषा साहित्य की दृष्टि से सर्वदा चिरस्मरणीय रहेगी । वाग्भटालंकार और विदग्धमुखमंडन जैसे आलंकारिक ग्रन्थों को भाषा के बालावबोध रूप देने में जिस दक्षता का परिचय दिया है वह स्तुत्य है | आप की प्रणीत निम्न कृतियां उपलब्ध हैं: - १. शीलोपदेशमाला बालावबोध (सं० १५२५ मांडवगढ में श्रीमाल धनराज की अभ्यर्थना से रचित) २. पुष्पमाला बालावबोध (सं० १५२८ पूर्व ) ३. षडावश्यक बालावबोध (सं० १५२५ वै. सु. ५ मांडवगढ संघ की अभ्यर्थना से ) ४. कर्पूर प्रकर बालावबोध (सं० १५३४ से पूर्व ) ५. योगशास्त्र बालावबोध ६. पंचनिर्ग्रन्थी बालावबोध ७. अजितशांति बालावबोध ८. शत्रु ञ्य स्तवन बालावबोध (सं० १५१८ ) ६. भावारिवारण स्तोत्र बालावबोध १०. वृत्तरत्नाकर बालावबोध ११. संबोधसत्तरी बालावबोध १२. श्रावक प्रतिक्रमण बालाववोध १३. कल्पप्रकरण बालावबोध १४. योगप्रकाश बालावबोध १५. अंजनासुन्दरी कथा १६. प्रश्नोत्तर ग्रन्थ १७. भावारिवारण वृत्ति वल्लभ-भारती ] [ १८१ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. षष्टिशतक बालावबोध १६. वाग्भटालंकार बालावबोध, २०. विदग्धमुखमण्डन बालावबोध भावारिवारण स्तोत्र पर वृत्ति और बालावबोध दोनों की आपने रचना की है। किस संवत् में इन की रचनायें हुई हैं यह ज्ञात नहीं है। भावारिवारण की वृत्ति और बालावबोध दोनों ही सुविस्तृत और सुन्दर हैं। इस प्रतियां भांडरकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्ट्रोट्य ट पूना आदि में सुरक्षित है। विशेष अध्ययन के लिये देखें, डा. भोगीलाल ज. सांडेसरा लिखित 'पष्टिशतक प्रकरण त्रय बालावबोध' की भूमिका। क्षेमसुन्दर भावारिवारण स्तोत्र के टीकाकार क्षेमसुन्दर के सम्बन्ध में हमें किञ्चित् भी उल्लेख प्राप्त नहीं है। किन्तु आप खरतरगच्छीय पिप्पलक शाखा के प्रवर्तक आचार्य जिनवर्धनसूरि के शिष्य थे। अतः आपका सत्ताकाल १५ वीं शती का अन्तिम भाग और १६ वीं शती का पूर्वार्ध है। ___ इस टीका की रचना आपने कब और कहां पर की ? इसका प्रशस्ति में कोई उल्लेख नहीं। टीका सामान्यतया सुन्दर है। इसमें प्रायः पर्यायों पर ही विशेष बल दिया गया है । इसकी प्रति जयचन्द्रजी भंडार व मुनिराज श्री पुण्यविजयजी के संग्रह में है। उपाध्याय पदमराज आचार्य जिनवल्लभ-प्रणीत ग्रन्थों और स्तोत्रों पर टिप्पण, चूणि, वृत्ति, अवचूरि, दीपिका, पञ्जिका, बालावबोध, स्तबक आदि अनेक विवरण प्राप्त हैं। किन्तु स्तोत्रों पर स्वतन्त्र पादपूात्मक रचनाओं में केवल एक कृति को छोड़ अन्य कोई प्राप्त नहीं है। यह स्वाभाविक भी है; क्योंकि वृत्ति इत्यादि की रचना करना सहज है किन्तु पादपूात्मक रचनायें करने के लिये साहित्य-शास्त्र. लक्षण-शास्त्र, छन्द-शास्त्र पर पूर्ण अधिकार होने के साथ-साथ एक विशेष प्रकार की प्रतिभा भी आवश्यक है। यही कारण है कि इस प्रकार की रचनायें वल्लभीय-साहित्य में ही नहीं अपितु संस्कृत-साहित्य में भी अल्प परिमाण में ही प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार की पादपूत्मिक रचना जिन वल्लभ प्रणीत समसंस्कृत-प्राकृत भाषा में महावीर-स्तोत्र प्रसिद्ध नाम भावारिवारण स्तोत्र पर है। इस कति के कर्ता हैं उपाध्याय पद्मराज गणि। __वाचक पद्मराज खरतरगच्छीय श्रीजिनहससूरि के प्रशिष्य, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति इत्यादि ग्रन्थों के टीकाकार महोपाध्याय श्रीपुण्यसागर के शिष्य थे। 'राज' नन्दी को देखते हुए युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के कर-कमलों से सं० १६२३ के लगभग आपकी दीक्षा हुई होगी। प्रश्नोतरैकषष्टिशतक वृत्ति की प्रशस्ति देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि सं० १६४० के पूर्व १८२] [ वल्लभ-भारती Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही आप गणि पद से अलंकृत हो चुके होंगे। भावारिवारण पादपूर्ति महावीरस्तोत्र की सं० १६५६ में रचित स्वोपज्ञ वृत्ति प्रशस्ति में 'उपाध्याय' पद का उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि तत्पूर्व ही आप इस पद को युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि से प्राप्त कर चुके थे। आप प्रतिभाशाली विद्वान् थे । आपकी प्रतिभा की प्रशंसा आपके गुरु महोपाध्याय पुण्यसागरजी भी प्रश्नोत्तरैषष्टिशत वृत्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्ति आदि में करते हैं । प्रशस्तियों के अनुसार ये दोनों ही कृतियां आपके सहयोग से पूर्ण हुई थी। आपकी स्वतंत्र और मौलिक रचनाओं में तो भावारिवारण पादपूर्ति महावीर स्तोत्र और महायमकमय पार्श्वनाथ स्तोत्र ही है और टीकाओं में भुवनहिताचार्य तथा जिनेश्वराचार्य रचित दण्डक-स्तुति मुख्य हैं और भाषा-साहित्य में उवसग्गहर बाल वबोध, अभयकुमार चौपाई एवं स्तवन, स्वाध्याय आदि ३० कृतियां प्राप्त हैं। इस स्तोत्र में कवि-निबद्ध श्लोक का अन्तिम चरण ही लेकर पादूपूर्ति की गई है, इसी कारण से इस स्तोत्र के भी ३० ही पथ हैं। सभी पद्यों में अलंकारों एवं गुणों का प्राचुर्य है। उदाहरण के लिये देखिये: गम्भीरिमालयमहापरिमारणमङ्गसम्बद्धभङ्गलहरीबहुभङ्गिचङ्गम् । नीरालयं नय सरणी कुलसङ्कलं वा, देवागमं तब नरा विरला महन्ति ।।११।। इस स्तोत्र पर स्वयं आपकी ही लिखित वृत्ति प्राप्त है। इसकी रचना सं० १६५९ आश्विन कृष्णा १० को जैसलमेर में हुई है: खरतरगणे नवाङ्गी-वृत्तिकृताम भयदेवसूरीणाम् । वंशे क्रमादभूवन् श्रीमज्जिनहस पूरीन्द्राः ॥१॥ तेषां शिष्यवरिष्ठाः समग्रसमयार्थनिष्ककषपट्टाः । श्रीपुण्यसागरमहोपाध्यायाः जज्ञिरे विज्ञाः ।।२।। तेषां शिष्यो विवृति वाचकवर मराज-गणिरकरोत् । भावारिवारणान्तिमचरणनिबलस्तवस्यैताम् ।।३।। ग्रहकरणदर्शनेन्दुप्रमितेब्दे चाश्विनासितदशम्याम् । श्रीजैसलमेरुपुरे श्रीमज्जिनचन्द्र गुरुराज्ये ।।४।। टीका सामान्यतया सुन्दर तथा समृद्ध है । इसकी एक मात्र प्रति मेरे संग्रह में है और इसका प्रकाशन सुमति-सदन कोटा, द्वारा 'भावारिवारण-पादपूर्त्यादिस्तोत्र संग्रह' नाम से हो चुका है। १. तेषां शिष्यो विवृति वाचकवर पद्मराज-गणिर करोत् । २. पनराजगणि-सत्सहायतायोगतः सपदि सिद्धिमा गता। वृत्तिकल्पलतिका सतामियं पूरयन्त्वभिमतार्थसल्लतिम् ॥६॥ [प्रश्नोत्तरैकषष्टिशत वृत्ति प्र.] ३.४. भावारिवारण पादपूर्त्यादिस्तोत्र संग्रह में प्रकाशित । वल्लभ-भारती] । १९३ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार रससिद्धकवीश्वर गीतार्थप्रवर प्रबल क्रान्तिकारी आचार्यश्रेष्ठ श्री जिनवल्लभसूरि के कृतित्व की प्रशंसा करते हुए जहां दादा जिनदत्तसूरि इन्हें महाकवि कालीदास, माघ, वाक्पतिराज से भी अधिक उच्चकोटि का महाकवि और सुविहित चारित्र-चूडामणि युगप्रवर मानते हैं, वहीं जिनपालोपाध्याय के वचनों में सुविद्यावनिताप्रिय जिनवल्लभ की कीत्तिहंसी आज भी प्रसन्न चित्त से गुणिजनों के मानस में रमण कर रही है । ऐसे आगमज्ञ जिनवल्लभ के व्यक्तित्व और कृतित्व पर मेरे जैसे अज्ञ का समीक्षात्मक अध्ययन लिखना 'पंगु गिरि लंघे' के समान ही है फिर भी प्रयत्न कर जो कुछ मैंने लिखा है वह आचार्य जिनवल्लभ की कृपा और आशीर्वाद का ही सुफल है । अतः षडशीति के टीकाकार श्री यशोभद्रसूरि के शब्दों को उद्ध त करता हुआ मैं आचार्य जिनवल्लभ के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करता है। क्वासौ श्रीजिनवल्लभस्य रचना सक्ष्मार्थचर्चाञ्चिता, क्वेयं मे मतिरग्रिमाप्रणयिनी मुग्धत्व पृथ्वीभुजः। पङ्गोस्तुङ्गनगाधिरोहणसुहृद्यत्नोयमार्यास्ततोऽसद्ध्यानव्यसनावे निपततः स्वान्तस्य पोतोपितः। १८४ । वल्लभ-भारती Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : १. जिनवल्लभसूरि : 1 युगप्रधान जिनदत्तसूरि रचित जिनवल्लभ सूरि-गुणवर्णन सूरिपयं दिन्नमसोगचन्दसूरीहि चत्तभूरिहि । तेसि पयं मह पहुणो दिन्न जिरणवल्लहस्स पुणो ||६४ || गिरिमुवग जिग-जुगपवरागमेसु कालवसा । सूरम्मि व दिट्ठिहरेण विलसियं मोहसंतमसा ।। ८५ । संसारचारगाग्रो निव्विन्नेहि पि भव्वजीहि । इच्छंतेहि वि मुक्खं दीसइ मुक्खारिहो न हो ॥ ८६ ॥ | फुरियं नक्खत्तेहि महागहेहि तत्र समुल्लसियं । बुड्ढी रयरिणयरेणावि पाविया पत्तपसरेण ॥। ८७|| पासत्यको सियकुलं पडीहोउ हंतुमारद्ध । are का य विधाए भावि भयं जं न तं गणइ ||८८ || जग्गति जरणा थोवा सपरेसि निव्वुई समिच्छता । "परमत्थरक्खरणत्थं सद्द सद्दस्स मेलंता 115811 नारणा सत्थारिण धरंति ते उ जेहिं वियारिकरण परं । मुसरणत्थमागयं परिहरंति निज्जीवमिह काउ ॥१०॥ श्रविरणासियजीवं धरंति धम्मं सुवंसनिप्फन्नं । भयनिवारणं पत्तनिव्वाणं ॥११॥ सपरे रक्खंति सुगुरुफरयजुया । वियारभीओ न ते मुसई ॥६२॥ मुक्खस्स कारणं धरियकिवारणा केई पासत्यचोर विसरो मग्गुम्मग्गा नज्जंति नेय विरलो जणो त्थि मग्गन्तु । थोवा तदुत्तमग्गे लग्गंति न वीससंति घरणा ॥ ६३ ॥ अन्न अन्नत्थीहिं सम्मं सिवपमपिच्छिरेहि पि । 1 सुत्ते ।।५।। सत्था सिवत्थिरणो चालिया वि पडिया भवारण्ये ||१४|| परमत्थसत्थ रहिए भव्वसत्थेसु मोहनिद्दाए सज्ज पोढा सत्य चोहि श्रसमंजसमेयारिसमवलोइय जेरण जायकरुरणेण एसा जिरणारणमारणा सुमरिया सायरं तइया सुहसीलतेगगहिए भवपल्लितेण जगडियमरणाहे । जो कुरण कु वि यत्तं सो वण्णं कुणई संघस्स ||७|| 118811 , Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थयररायाणो पायरिया रक्वियव्व तेहिं कया। पासस्थपमुहचोरोवरुद्धघणभव्वसत्थाणं ॥१८॥ सिद्धपुरपत्थियाणं रक्खट्ठाऽऽयरिय च्याउ सेसा । अहिसेयवायणायरिय-साहुणो रखगा तेसि ।।६।। ता तित्थयराणाए मए वि ते हुति रक्खणिज्जायो। वीरवत्ति: इय मुणिय वीरवित्ति पडिवज्जिय सुगुरुसन्नाहं ॥१०॥ करिय खमाफलयं धरिउमक्खयं कयदुरुत्तसररक्खं । । तिहयणसिद्ध तं जं सिद्धतमसिं समुक्खिविय ॥१०१ निवारणठाणमणहं सगुणं सद्धम्म मषिसमं विहिणा। परलोयसाहगं मुक्खकारगं धरिय विप्फुरियं ॥१०२।। जेण तो पासत्थाइतेणसेरणा विहक्किया सम्म । सत्थेहि महत्थेहिं वियारिऊरणं च परिचत्ता ।।१०३।। आसन्नसिद्धिया भवसत्थिया सिवपहम्मि संठविया । निव्वुइमुर्विति तह जे पडंति ना भीमभवरण्णे ॥१०४।। मुद्धाऽणाययणगया चुक्का मग्गाउ जायसंदेहा । बहुजणपुट्ठिविलग्गा दुहिणो या समाहूया ॥१०॥ आयतनम्: दंसियमाययरणं तेसि जत्थ विहिणा समं हवइ मेलो । गुरुपारतंतनो समयसुत्तमो जस्स निप्फत्ती ॥१०६।। मायतनविधि . दीसई य वीयरायो तिलोयनाहो विरायसहिएहि । सेविज्जतो संतो हरइ ह संसारसंतावं ॥१०७।। वाइयमुवगीयं नट्टमवि सुयं दिमिट्ठमुत्तिकरं । कीरइ सुसावएहिं सपरहियं समुचियं जत्थ ॥१०८।। रागोरगो वि नासइ सोउ र गुरूवएसमंतपए । भव्वमणो सालूरं नासइ दोसो वि जन्थाही ॥१०६।। नो जत्थुस्सुत्तजणक्कमु त्थि ण्हाणं बली पइट्ठा य । जइ-जुवइपवेसो वि य न विज्जा विज्जइविमुक्को ॥११०।। जिजत्ता-हाणाई दोसाण जं खयाइ कीरति । दोसोदयम्मि कह तेसि संभवो भवहरो होज्जा ॥१११।। जा रत्ती जारत्थीणमिह रई जणइ जिणवरगिहे वि। सा रयणी रयणियरस्स हेऊ कह नीरयाण मया ॥११२।। साहू सयणासण-भोयणाइअासायणं च कुणमायो । देवह रएण लिप्पइ देवहरे जमिह निवसंतो ।।११३।। २ 1 [ वल्लभ-भारती Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंबोलो तं बोलइ जिणवसहिटिठएण सो खद्धो । खुद्ध भवदुक्खजले तरइ विणा नेय सुगुरुतरि ॥११४।। तेसि सुविहियजइणो य दंसिया जेउ हुति प्राययणं । सुगुरुजणपारतंतेण पाविया जेहिं नासिरी ॥११॥ संदेहकारितिमिरेण तरलियं जेसिं दंसणं नेयं । निव्वुइपहं पलोयइ गुरु-विज्जुवएसनो सहरो ॥११६।। निप्पच्चवायचरणा कज्जं साहति जे उ मुत्तिकरं । मन्नंति कयं तं जं कयंतसिद्ध तु सपरहियं ॥११७।। पडिसोएण पयट्टा चत्ता अणुसोप्रगामिणी वत्ता। जणजत्ताए मुक्का मय-मच्छर-मोहो चुक्का ॥११८।। सिद्ध सिद्धतकहं कहंति बीहंति नो परेहितो । वयणं वयंति जत्तो निव्वुइवयणं धुवं होइ ॥११६।। तविवरीमा अन्ने जइवेसधरा वि हुति न हु पुज्जा। तद्दसणमवि मिच्छत्तम गुखणं जणइ जीवाणं ॥१२०॥ धम्मत्थीणं जेण विवेयरयणं विसेसो ठवियं । चित्तउडे चित्तउडे ठियारण जं जणइ निवारणं ॥१२१।। प्रसाहएणावि विही य साहियो जो न सेससूरीणं । लोयणपहे वि वच्चइ वृच्चइ पुण जिरणमयन्नूहिं ।।१२२।। पवलोपमा घजणपवाहसरियाणुमोअपरिवत्तसंकडे पडियो । पडिसोएगाणीमो धवलेण ब सुद्धधम्मभरो ॥१२३॥ मेघोपमा कयबहुविज्जुज्जोयो विसुद्धलद्धोदनो सुमेह व्व । सुगुरुच्छाइयदोसायरपहो पहयसंतावो ॥१२४।। सम्वत्थ वि वित्थरिम वुटठो कयसस्ससंपनो सम्म ।। नेव वायहमो न चलो न गज्जिो जो जए पयडो ।।१२।। जलध्युपमा कहमुवमिज्जइ जलही तेरण समं जो जडारण कयबुड्ढी ।। तियसेहिं पि परेहिं मुयइ सिरिं पिहु महिज्जतो ॥१२६।। सूर्योपमा सूरेण जेण समुग्गएण संहरिय मोहतिमिरण । सद्दिट्ठीणं सम्मं पयडो निव्वुइपहो हो ॥१२७।। वित्थरियममलपत्तं कमलं बहुकुमयकोसिया दूसिया । तेयस्सीण वि तेप्रो विगग्रो विलयं गया दोसा ॥१२८।। विमलगुणचक्कवाया वि सव्वहा विहडिया वि संघडिया । भमिरेहि भमरेहि पि पाविमो सुमणसंजोगो ॥१२६।। वल्लभ-भारती] Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्वजणेण जग्गियमवग्गियं दूसावयगणेण । जडुमवि खंडियं मंडियं य महिमंडलं सयलं ॥१३०॥ चन्द्रोपमा प्रथमई सकलंको सया संसको वि दंसियपयोसो। दोसोदए पत्तपहो तेण समो सो कहं हुज्जा ॥१३१॥ विष्णूपमा संजणियविही संपत्तगुरुसिरी जो सया विसेसपयं । विण्हव्व किवाणकरो सुरपणो धम्मचक्कधरो ॥१३२।। ब्रह्मोपमा दंसियवयणविसेसो परमप्पारणं य मुणइ जो सम्म। ' पयडविवेप्रो छच्चरणसम्मो चउमुहु व्व जए ॥१३३।। शम्भूपमा धरइ न कवड्डयं पिहु कुणइ न बंधं जडाण कया वि। दोसायरं च चक्कं सिरम्मि न चडावए कह वि ॥१३४।। संहरइ न जो सत्ते गोरीए अप्पए न नियमगं । सो कह तन्विवरीएण संभुणा सह लहिज्जुवमं ॥१३५।। विद्या साइसएसु सग्गं गएसु जुगपवरसूरिनियरेसु । । सव्वानो विज्जायो भुवणं भमिऊग स्संतानो ॥१३६।। तह वि न पत्तं जुगवं जव्वयणपंकए वासं । करिय परुप्परमच्चंतं पणयसो हुँति सुहियाओ ॥१३७।। अन्नुन्नविरहविहुरोहतत्तगत्तानो तणुईप्रो । जायायो पुण्णवसा वासपयं पि जो पत्तो ॥१३८।। तं लहिय वियसियानो तारो तन्वयणसररुहगयानो। तुट्ठामो पुट्ठामो समगं जायानो जिट्ठामो ॥१३९।। अनुपमेयत्वम् जाया कइणो के के न सुमइणो परमिहोवमं ते वि। पावंति न जेण समं समंतो सव्वकव्वेण ॥१४०।। उवमिजंते संतो संतोसमुविति जम्मि नो सम्मं । . असमाणगुणो जो होइ कह णु सो पावए उवमं ।।१४१।। जलहिजलमंजलीहिं जो मीणइ नहंगणं पि पएहिं ।' परिसक्कइ सो वि न सक्कइ जग्गुण गणं भणिउं ॥१४१।। जुगपवरगुरुजिणेसरसीसाणं अभयदेवसूरीणं । तित्थभरधरणधवलाणमंतिए जिणमयं विमयं ।।१४३।। सविणयमिह जेण सुयं सप्पणयं तेहि जस्स परिकहियं । कहियाणु सारो सन्वमुवगयं सुमइणा सम्मं ॥१४४॥ . [ वल्लभ-भारती Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लभ-भारती ] निच्छम्मं भव्वाणं तं पुरप्र पयडियं यसुकसं गिदुल्लाह जिणवल्ल हसूरिणा सो मह सुहविहिसद्धम्मदाबगो तित्वनायगो य गुरू । तप्पयप उमं पावि जानो जाया जाओ हं ।। १४६ ॥ तममुदिरखं दिन्नमुषं वंदे जिणवल्लहं पहुँ पथ 1 पयत्तेण 1 जेण ।। १४५ ।। नमिवि हरिव्व ।।१५।। कय सावयसंतास सारंग भग्गसंदेहो 1 गय समय दप्पदल रो साइपवरकव्वरसो भीमभवकारणरणम्मी दसियगुरुवयरणरयरणसंदोहो 4 नीसेससत्तगरुम्रो सूरी जिणवल्लहो जबइ ||१६|| उवरिट्ठिम सच्चरणो चउरयोगप्पहास सच्चरणो । असममयराय महणो उड्ढमुहो सहइ जस्स करो ॥१७॥ दंसियनिम्मलनिच्च लदंत गुणोऽगरिणयसावउत्थभयो । कया जेण 'जिरण बल्ल हे गुरुगिरिगरुश्रो सरहु व्व सूरी जिरपवल्ल हो होत्या ।। १८ ।। जुगपवरागमपी उस पारणपीरिणयमरणा भव्वा । गुरुणा तं सव्वहा गंदे ||१६|| - सुगुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र पा० १५-११ जिसे सरधम्मह तिहुयण सामियह, पायकमलु ससिनिम्मलु सिवगयगामियह। जहट्ठियगुरणथुइ सिरि जिरणवल्लहह, राम रह गुणगणदुल्लह ॥१॥ जो अपमाणु पमाणइ छद्दरिसरण तराइ, जागइ जिव नियनामु न तिरप बिव कुबि धरणइ । परपरिवाइगइंदविया रणपंच मुहु, इक्कमुहु ? ||२|| तसु गुरणवन्नणु करण कु सक्कइ जो वायस्तु वियाणइ सुहलक्खरनिलउ, सद्द . असद्द. वियारणइ सुवियक्खरपतिलउ । सुच्छंदिर वक्खारणइ छंदु जु सुजइमउ, गुरु लहु लहि पइठावइ नरहिउ बिजयमड़ ॥ ३ ॥ केव्यु उन्बु जु विरय नवरसभर सहिउ, लद्धसिद्धिहि सुकइह सायरु जो महिउ । सुकइ माहुति पसंसहि जे तसु सुहगुरुहु, साहु न मुरणहि श्रयागुय कालियासु कइ श्रासि जु लोइहि मइजिक्सुरगुरुहु ।।४॥ वन्नियइ, नामन्नियइ । ताच नाव जिरणवल्लह कइ अप्पु चित्तु परियाराहि तं पि विसुद्ध न य, करिमि -- गणधर सार्द्ध शतक गा० ८५-१४७ [ x Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते वि चित्तकइराय भणिज्जहि मुद्धनय ॥२॥ सुकइविसे सियवयणु जु वप्पइराउकइ, सु वि जिणवल्लह पुरउ न पावइ कित्ति कइ। अवरि अणेयविणेयहिं सुकइ पसंसियहि, तक्कव्वामयलुद्धिहिं निच्चु नमंसियहिं ।।६।। जिण कय नाणा चित्तई चित्त हरंति लहु, . तसु दंसणु विणु पुन्निहि कउ लब्भइ दुलहु । सारई बहु थुइ-थुत्तइ चित्तई जेण कय; तसु पयकमलु जि पणमहि ते जण कयसुकय ।।७।। जो सिद्ध'तु वियागइ जिरणवयणुब्भविउ, तसु नामु वि सुणि तूसइ होइ जु इहु भविउ । पारतंतु जिणि पयडिउ विहिविसइहिं कलिउ, ___ सहि ! जसु जसु पसरंतु न केणइ पडिखलिउ ।।८।। 1 x x x x x इय निष्पन्नह दुल्लह सिरिजिणवल्लहिण, तिविड निवेइउ चेइउ सिवसिरिवल्लहिण । उस्सुत्तइ वारंतिरण सुत्त, कहतइण, ... इह नवं व जिणसासणु दंसिउ सुम्मइण ।।४।। इक्कवयणु जिरणवल्लह पहु वयणइ घणई, किं व जंपिवि जणु सक्कइ सक्कु वि जइ मुगइ। तसु पयभत्तह सतह सतह भवभयह होइ अंतु सुनिरुत्त उ तव्वयणुजजयह ॥४१॥ इक्ककालु जसु विज्ज असेस वि वयरिण ठिय, मिच्छदिदि वि वंदहि किंकरभावट्रिय । ठाणि ठाणि विहिपक्खु वि जिण अप्पडिखलिउ, फूड पडिउ निक्कवडिण पर अप्पउ कलिउ ॥४२॥ तसु फ्यपंकयउ पुन्निहि पाविउ जण-भमरु, सुद्धनाण-महुपाणु करतंउ हुइ अमरु । सत्यु हुतु सो जाणइ सत्य पसत्थ सहि, कहि अणुवमु उवमिज्जइ केण समाणु सहि ॥४३॥ बद्धमाणसूरिसीसु जिणेसरसूरिवरु, तासु सीसु जिणचंदजईसरु जुगपवरु । अभयदेउमुणिनाहु नवंगह वित्तिकरु, तसु पयपंकय-भसलु सलक्खणुचरणकर ॥४४॥ सिरिजिणवल्लहु दुल्लहु निःपुन्नहं जणहं, [वल्लभ भारती Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हउं न अंतु परियारण प्रहु जण तग्गुबह । सुद्धधम्मि हउ ठाविउ जुगपवरागमिण, एउ विमइ परियाणिउ तग्गुणसंकमिण ॥४५।। भमिउ भूरिभवसायरि तह. वि न पत्तु मई, . सुगुरुरयणु जिणवल्लहु दुल्लहु सुद्धमइ । पाविय तेण न निव्वुड इह पारत्तियइ, परिभव पत्त बहुत्त न हुय पारत्तियइ ।।४६।। इय . जुगपवरह सूरिहि सिरिजिणवल्लहह, नायसमयपरमत्थह बहुजगदुल्लहह। तसू गुणथुइ बहुमाणिण सिरिजिणवत्तगुरु, करइ सु निरुवमु पावइ पउ जिणदत्तगुरु ॥४७॥ - -चर्चरी पद्य १-८%४०-४७, सिरिजिणवल्लहसूरीहि विरइयं अमिह तं वंदे ।।२२।। कलिकालकुमुइणीवरणसंकोयणकारि सूरकिरणव्व । इह सुत्तासुत्तपया व भासराल्लासिणो जेसि ।।२३।। ठाणट्ठाणट्ठियमग्गनासि संदेहमोहतिमिरहरा। कुग्गहिवग्गकोसियकुलकवलियलोया लोया ॥२४॥ तेहिं पभासियं जं तं विहडइ नेय घडइ जुत्तीए । वंदे सुत्तं सुत्ताणुसारि संसारिभयहरणं ॥२॥ गुरुगयणयलपसाहरण पत्तपहो पयडिया समदि सोहो। हयसिवपहसंदेहो कयभब्वम्भोरुहविबोहो ॥२६॥ सूरुब्व सूरिजिणवल्लहो य जाउ जए जुगपवरो । -श्रुतस्तव गाथा २२-२७ वल्लभ-भारती] Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ; २. 5] नेमिचन्द्र भण्डारी विरचित जिनवल्लभसूरि गुरुगुणवर्णन परणमवि सामिय वीरजिण, गरगहर गोयम सामि । असमत्थु । सकयत्थो || ३ || सुधर्मसामिश्रन लगि सरणि जुगप्रधान सिवगामि ||१|| तित्थुधरणु सु मुणिरयण, जुगप्रधान क्रमि पत्तु । जिणवल्लहसूरि जुगपवरो, जसु निम्मलउ चरित्तु ॥२॥ तसु सुहगुरु गुण कित्तराइ, सुरराउ तो भक्त्तिब्भर तरलियउ कह हंउ कह भवसाय र दुहपवर, कह हि जिणवल्ल हसूरिवयरणु, जागउ कह सबोहि मणु उल्लसिङ, कह जुगसमला नाएग मई, पत्तउ जिरणवल्लभसूरि सुहगुरह, बलि कि जसु वयणेण विजातीयए, तुट्टइ मूढा मिल्हहु मूढ पहु, लग्गहु सुद्धइ जो जिणवल्लहसूरि कहिउ, गच्छउ जिम थिर माइ पिय बंधव, अथिर रिद्धि जिगवल्लहसूरि पय नमउ, तोडउ भवदुपासु || परमपराइ न के वि गुरु, निम्मल धम्मह हुति । सव्वि ति सुहगुरु मन्नियहि, जे जिणक्यरण 'गुरु गुरु' गायवि रंजियहि, मूढउ लोउ न मुराइ जं जिस आारण विणु, गुरु हुइ सत्सु जिम सररणाइय मारसहं, कोई करइ न मुराइ जं जिल-भासियउ, तिम कुकुरह हुड - विसप्पिणि भसम गहु, दूसम कालु जिणवल्लहसूरि भडु नमहु, जिणिउ सत्तु जा जहि कुलगुरु श्रावियउ, ते तहि विरला जोइवि जिरणवयण, जहि गुण तहि रचंति ||१३|| हा हा दूसमकाल बलु, खल वक्कत्तरण जोइ । नामेरिणय सुविहिय तराइ, मित्तु वि वयरीय होइ || १४ || मिलति ॥ १ ॥ श्रया । समाणु ॥ १० ॥ सिरछेउ । भक्ति करत । वि कहि पसउ मयसु । समय पवित्त ॥४॥ सुद्धउ सम्मत्तः । जिविह-तत्तु ॥५॥ जिसु मुरराय । कुमय - कसाय ॥ ६ ॥ घम्मि । सिवरम्मि ॥७॥ गिहवासु । संजोउ ।। ११ ।। कलिट्ठ । निसि || १२ || [ वल्लभ-भारती Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहि चेडाहिव हर नमउ, सुमरिणय परमत्थाह । हीयडइ जिरणवर इक्कपर, अनु सुद्धउ गुरु जाह ।।१५।। जिणि जिरणवर पडू हीलियइ, जणु रजियइ सहासु । सो वि सुगुरु परामंत यह, फूटि न हिया हयासु ।।१६।। मिरियभवे जिउ वीर जिण, इक्क उसत्त लवेण । कोडाकोडि सागर भमिउ, किं न भणह मोहेण ॥१७॥ तव संजम सुत्तेण सहु, सव्वु वि सहलउ होइ। सो वि उसुत्तलवेण सह, भवदुह-लक्खई देइ ।।१८।। माया, मोह चएह जण, दुलहउ जिण-विहधम्म । जो जिणवल्लहसूरि कहिउ, सिग्ध देह सिव सम्मु ॥१६।। संसउ कोइ म करहु मुरिण, संसइ होइ मिच्छत्तु । जिणवल्लहसूरि जुगपवर, नमहु सु तिजग पवित्त ॥२०॥ जइ जिणवल्लहसूरि गुरु, नह दिट्ठउ नयणेहिं । जुगपहाण तउ जाणीयइ, निच्छइ गुण-चरिएहिं ।।२१।। ते धन्ना सुकयस्थ नर, ते संसारु तरंति । जे जिणवल्लहसूरि तणीए, प्राण सिरेण धरंति ।।२२।। तह न रोग दोहगु नह, तह मंगल कल्लाण । जे जिणवल्लह गुरु नमइ, तिन्नि संझ सुविहाण ।।२३।। सुविहिय-मुरिण-चूडान्यण, जिणवल्लह बहुराउ । - इक्क जीह किम संथुरण उ, भोलउ भत्ति सहाउ ।।२४।। संपइ ते मन्नादि गुरु, उग्गइ उग्गइ सूरि । जो जिणवल्लह पह कहइ, गमइ उमग्गु सुदूरि ।।२५।। इकि जिण वल्लह जाणीयइ, सव्वु मुरिणयइ धम्मु । अनु सुहगुरु सवि. मंनियउ, तित्थु जि धरहिं सुहम्मु ।।२६।। इय जिणवल्लह थुइ भणिय, सुरिणयइ करइ कल्लाणु । देउ बोहि चउषीस जिण, सासइ सुखनिहाणु ।।२७।। जिरणवल्लह ऋमि जारिणयउ, हिव मइ तासु सुसीम् । जिदत्तसूरि जुगपवरो, उद्धरियउ गुरुवंसो ॥२८॥ तिणि निय पइ पुरण ठावियउ, बालउ सीहकिसोरु । परमइ-मइगल-बलदलणु, जिरणचंदसूरि मुणि सारु ॥२६॥ तसु सुपट्टि हिव गुरु जयउ, जिणपत्तिसूरि मुरिणराउ । जिएमय-विहि-उज्जोयकरु, दिणवर जिम विक्खाउ ॥३०॥ पारतंतु विहि विसयसुहु, वीरजिणेसर बयणु । जिरणवइसूरि गुरु हिव कहइ, निच्छइ अन्न न कवरणु ॥३१॥ घन्न ति पुरचर पट्टणई, धन्न ति देस विचित्त । जिहि विहर जिणवइ सुगुरु, देसरण करइ पवित्त ॥३२॥ वल्लभ-भारती] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 कवणु सु होसइ दिवसडउ, कवगु सु तिहि सुमुहुत्त । जिहि वंदिसु जिणवइ सुगुरु, निसुरिणसु धम्मह तत्तु ॥ ३३ ॥ सल्लुद्धारु करेसु हउ, पालिसु दिदु सम्मत्तु । नेमिचंदु इम वीनवइ, नंदउ विहि- जिमंदिर, नंदउ जिरणपत्तिसूरि गुरु, सुहगुरु-गुरणगरण-रत्त ॥३४॥ नंदउ विहिसमु दाउ । विहि- जिरणधम्म पसाउ ||३५|| [ वल्लभ-भारती Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ : ३. जिनवल्लभ त्रि-स्तुत्यात्मक-पद्या: १. मुनिचन्द्रसूरि - [सं० ११७० ] कालोचियसमयपरसमय गंथगब्भेण जिरगवल्लहगरिणा । - सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारप्रकरण चूर्णि अवतरणिका २. धनेश्वरसूरि - [सं० १९७१] सूक्ष्म पदार्थ निष्कनिष्कषकष पट्टकसन्निभप्रतिभः श्री जिनवल्लभाख्यः सूरिः । - सूक्ष्मार्थविचारसारोद्वारप्रकरण- टीका प्रवतरणिका ३. कवि पल्ह - [सं० १९७१ लगभग ] वल्लभ-भारती ] देवसूरि पहु नेमिचंदु बहुगुणिहि पसिद्धउ, उज्जोय तह वद्धमाणु खरतरवर लद्धउ । सुगुरु जिणेसरसूरि नियमि जिरणचंदु सुसंजमि, अभयदेउ सव्वंगुनारणी जिरणवल्लहु श्रागमि ॥ ४. हरिभद्रसूरि - [सं० ११७२] जिनवल्लभ गरिणनामा सूत्रकारः । ५. श्रीचन्द्रसूरि - [ ११७८ ] - जिनवत्तसूरि-स्तुति. पद्म ४. - षडशीति-टीका प्रवतरणिका सूक्ष्म पदार्थ निष्कनिष्कषणपट्टकसन्निभप्रतिभजिनवल्लभाभिधानाचार्यः । - पिण्डविशुद्धि-टीका ६. यशोभद्रसूरि - [ १२वीं शती का अन्तिम चरण ] क्वासौ श्रीजिनवल्लभस्य रचना सूक्ष्मार्थचर्चाञ्चिता, क्वेयं मे मतिरग्रिमाप्रणयिनी मुग्धत्व पृथ्वीभुजः । पङ्गोम्तुङ्गनगाधिरोहण सुहृद्यत्नोयमार्यास्ततोसद्धानव्यसनार्णवे निपततः स्वान्तस्य पोतोर्पितः ॥ - षडशीति-टोका-मंगलाचरण प० २ इति विविधविलसदर्थ सुषिशुद्धाहारमहितसाधुजनम् । श्रीजिनवल्लभरचितं प्रकरणमेतन्न कस्य मुदे ? ॥ मादृश इह प्रकरणे महार्थपंक्तौ विवेश बालोऽपि । यदुवृत्त्यङ्ग लिलग्नस्तं श्रयत गुरु यशोदेवम् ॥ - पिण्डविशुद्धि-दीपिका- प्रशस्तिः [११ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. अज्ञात-[जेसलमेर भाण्डागारीय ताडपत्रीय प्रति से, समय लगभग १३वीं शती] दूसमदमनीरहरु दुसहभमम गहमयहरु हुडवसप्पिणिसप्पगरुड संजमसिरिकुलहरु । निव्ववाइमयम तदंतिदारणपंचागणु, गुरु-सावय-समणेस समरण-मानेवरण कारणरणु । जुगपवर-सूरि जिणवल्लह ह जो प्रारणाकर गणहरु। . सो सरहु म गुरु संसउ करहु जो भवियह भवभूरिहरु ।।१२।। जसु सन्नाणु प्रमाणु मणह विप्फुरइ फुरतउ, पर कवित्त सुक इत्तबंध विरयइ जु तुरंतउ। जो निम्मलचारित्तरयणस चयरयणायरु, मिच्छतिमिरतमहरण तत्तपयडणदिवायरु । भावारिमहीरुहमत्तकरि करणचरण संजम सहिउ । तहु वीरपदं पय अणुसरहु सगुण गािहि जे अविरहिउ ।।१३।। - जिनदत्तसूरि स्तुति छप्पय १२-१३ ८. कवि पद्मानन्द - [१२वीं शती का अन्तिम चरण] सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतः, श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः । । - वैराग्यशतक ६. श्री मलयगिरि-[१३वीं शती न चायमाचार्यो न शिष्टः । - षडशीति-टीका प्रवतरणिका १०. जिनपतिसूरि-[१३वीं शती का पूर्वाद्ध ] क्वेमा: श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः सूक्ष्मार्थसारा गिरः, क्वाहं तद्विवृतौ क्षमः क्लमजुषां दुर्मेधसामग्रणी: । द्विड्वत्तद्विपदन्तभञ्जनभुजस्तम्भैजयधी: क्व नु, प्राप्या सङ्गर मूर्धनि व्यवसित: क्लीव: क्व तल्लिप्सया ।।२।। -सङ्कपटक-टीका-मंगलाचरण सूरिः श्रीजिनवल्लभोऽजनि बुधश्चान्द्र कूले तेजसा, सम्पूर्णोऽभयदेवसूरिचरणाम्भोजालिलीलायितः । चित्र राजसभासू यस्य कृतिनां कर्णे सूधार्दिन, तन्वाना विबुधैर्गुरोरपि कवेः कैर्न स्तुताः सूक्तयः ? ।।१।। हित्वा वाङमयपारदृश्वतिलकं यं दीप्रलोकम्पूरणं, प्रज्ञानामपि रञ्जयन्ति गुणिनां चित्राणि चेतांस्यहो । लुण्टाक्यश्च्युततन्द्रचन्द्रमहसामद्याप्यविद्यामुषः, कस्यान्यस्य मनोरमाः सकलदिक्कूलङ्कषाः कीर्तयः ? ॥२॥ १२ ] [वल्लभ-भारती Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधुर्य शार्करितशर्करया रयाद्यं, पीयूषवर्षमिव तर्कगिरा किरन्तम् । विद्यानुरक्तवनिताजनितास्यलायं हित्वा परत्र न मनो विदुषामरस्त ||३|| वल्लभ-भारती ] , तदनु समधूच्छिष्यस्तस्य प्रभुजिनवल्लभो, जगति कवितागुम्फा यस्य द्रवद्रसमन्थराः । श्रनितरकविच्छायापत्या चमत्कृतिचुञ्चवो, न हृदि मधुरा लग्नाः कस्य स्मरस्य यथेषवः ? ||८|| ११. जिनपालोपाध्याय - [ १३वीं शती ] - सङ्घपट्टक- टीका - प्रशस्तिः - पञ्चलिङ्गीप्रकरण - टीका - प्रशस्तिः चित्रं चित्रं वितन्वन्नवरसरुचिरं काव्यमन्यच्च भूयः, सर्वं निर्दोषमह्नो मुखमिव सगुणत्वेन पट्टांशुकश्रि । कान्तावत्कान्तवर्णं भरतनृपतिवच्चार्वलङ्कारसारं, चक्रे माघादिसूतेष्वभिमुखमहो धीमतां मानसं यः || १० || - सनत्कुमारच क्रि-चरितमहाकाव्य प्रशस्तिः ततोऽजनि श्रीजिनवल्ल पारव्यः सूरिः सुविद्यावनिताप्रियोऽसी । अद्यापि सुस्था रमते नितान्तं यत्कीतिहंसी गुणिमानसेषु ||५|| - धर्मशिक्षा-टीका - प्रशस्तिः शिष्योऽथ स श्रीजिनवल्लभाख्यश्चैत्यासिनः सूरिजिनेश्वरस्य । प्राप्य प्रसन्नोऽभयदेवसूरि, ततोऽग्रहीज्ज्ञानचरित्रचर्याम् ||७|| शुभगुरूपदसेवा वाप्तसिद्धान्तसारा वगतिगलितचैत्याबासमिध्यात्वभावः । गृहिवसति स स्वीचकारातिशुद्ध तथाऽस्य सुविहित पदवीवद्गाढ संवेगरङ्गः ||८|| संविग्नशिरोमणेरभून्मनः प्रसन्नं सकलेषु जन्तुषु 1 जिनानुकृत्यां भुवनं विबोधयन् यथा न शश्राम महामनाः स्वयम् ||१|| धर्मोपदेशकुलका ङ्कितमारलेखः, श्राद्ध ेन बन्धुरधिया गणदेवनामा । प्राबोधयत्सकलवाग्ज देशलोकं, सूर्योऽरुणेन कमलं किरणैरिव स्वैः ।।१०।। तानि द्वादशविस्तृतानि कुलकान्यम्भोधिवद् दुर्गमा न्यत्यन्तं च गभीरभूरिसुपदान्युन्निद्रितार्याणि च । व्याख्यातुं य उपक्रमः कृशधियाऽप्याधीयते मादृशे, नारोढुं तदमर्त्यशैलशिखरं प्रागल्भ्यतः पङ्गना ।।११।। एवं श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोश्चारित्रचूडामणे - भव्य प्राणिविबोधने रसिकतां वीक्ष्याद्भतां शाश्वतीम् 1 [ १३ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] श्रादेशाद् गुणविन्नवाङ्गविवृतिप्रस्ताव कस्यादरात्, प्रादात् सूरिपदं मुदञ्चितवपुः श्रीदेवभद्रप्रभुः ।।१२।। -- द्वादश कुलक- टीका- मंगलाचरणम् जयन्ति सन्देहलतासिधाराः, श्रोत्रप्रमोदामृतवारिधारा: । सूरेगिर: श्रीजिनवल्लभस्य प्रहीणपुण्याङ्गिसुदुर्लभस्य || १ || श्रासन्नत्र मुनीश्वराः सुबहवश्चारित्रलक्ष्म्यास्पदं, स्तोका : श्रीजिनवल्लभेन सदृशा निर्भीकवाग्विस्तराः । संग्रामे गहनेऽपि भूरिसुभटश्रेण्या वरे भारते, तुल्याः श्रीजितवाजिना विजयिनो वीराः कियन्तोऽभवन् ॥ २ ॥ - द्वादश कुलक- टीका - प्रशस्तिः १२. नेमिचन्द्र भण्डारी - [ १३वीं उत्तरार्ध ] श्रज्ज वि गुरुरणो गुणिरणो सुद्धा दीसंति तउयडा केइ । परं जिगवल्लह सरिसो, पुणो वि जिरणवल्लहो चेव ॥ १०७॥ वय व सुगुरु जिरवल्लहस्स केसि न उल्लसइ सम्मं । श्रह कह दिरणमरिणतेयं उलूयारणं हरइ अंधत्ते दिठ्ठा वि के वि गुरुणो हियए न रमंति मुणिय तत्ताणं । के वि पुरण ठ्ठि च्चिय, रमंति जिरणबल्लहो जेम ॥ १२६॥ ॥१०६ ॥ १३. अभयदेव सूरि - [सं० १२७८ ] - षष्टिशतक प्रकरण तच्छिष्यो जिनवल्लभः प्रभुरभूद् विश्वम्भराभामिनीभास्वद्भालललामकोमलयशः स्तोमः शनारामभूः । यस्य श्रीनरवर्मभूपतिशिरःकोटी ररत्नाङ कुरज्योतिर्जालजलैरपुष्यत सदा पादारविन्दद्वयी । काश्मीरानपहाय सन्तत हिमव्यासङ्गवैराग्यतः, प्रोन्मीलद् गुणसम्पदा परिचिते यस्यान्यपङ्केरुहे । सान्द्रामोदतरङ्गिता भगवती वाग्देवता तस्थुषी, धाराला लव्भय-काव्यरचनाव्याज ( दनृत्यच्चिरम् ॥ १४. पूर्णभद्रगरि - ( सं० १२८५ ) - जयन्त विजय-काव्य - प्रशस्तिः श्राकर्ण्याभयदेवसूरि सुगुरोः सिद्धान्ततस्वामृतं, नाज्ञायि न सङ्गतो जिनगृहे वासो यतीनामिति । तं त्यक्त्वा गृहमेधिगेहिवसतिनिर्दृषरता शिश्रिये, सूरिः श्रीजिनवल्लभोऽभवदसौ विख्यात कीत्तिस्ततः । - धन्यशालिभद्रचरित्र - प्रशस्तिः [ वल्लभ-भारती Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. उदयसिंहसूरि-[सं० १२६५] सुविहितहितसूत्रधार जयति जिनवल्लभो गणिर्येन । येन पिण्डविशुद्धिप्रकरणमकारि चारित्रभवनम् ।। -पिण्डविशुद्धिदीपिका-मंगलाचरण प० २. १६. चित्रकूट वास्तव्य सा. सल्हाक लिखित प्रति (सं. १२६५) "चारित्रचूडामणिश्रीजिनवल्लभसूरि....। १७. पूर्णकलशगरिण-(सं.१३०७) तस्मिन् सोऽभयदेवसूरिरभवत् क्लृप्ताङ्गवृत्तिस्ततः, संविग्नो जिनवल्लभो युगवरो विद्यालिताराऽम्बरम् । -प्राकृतद्वयाश्रय-टीका प्रशस्ति प. २ १८. अभयतिलकोपाध्याय-(सं. १३१२) तच्छिष्यो जिनवल्लभो गुरुरभाच्चारित्रपावित्र्यतः, सारोद्धारसमुच्चयो नु निखिलश्रीतीर्थसार्थस्य यः । सिद्धाकर्षणमन्त्रकोन्वखिलसद्विद्याभिरालिङ्गनात्, कीर्त्या सर्वगया प्रसाधितनमोयानाग्रयविद्यो ध्र वम् । -संस्कृत-द्वयाश्रय टीका प्रशस्ति प. ४ जज्ञ तदीयपदवीनलिनीमरालः, स्वेभ्यश्चरित्ररमया जिनवल्लभाख्यः । -न्यायालंकार-टीका प्रशस्ति १९. चन्द्रतिलकोपाध्याय-(सं. १३१२) श्रीजिनवल्लभसूरिस्तत्पट्टऽभूद् विमुक्तबहुभूरिः । भव्यजनबोधकारी कल्मषहारी सदोद्यतविहारी ।। तर्क-ज्योतिरलङ्क तीनिजपरानेकागमांल्लक्षणं, यो वेत्ति स्म सुनिश्चितं सुविहितश्चारित्रिचूडामणिः ।। नानावाग्जडमुख्यकान् जनपदान् श्रीचित्रकूटस्थितां, चामुण्डामपि देवतां गुणनिधिर्यो बोधयामासि वा ।। -अभयकुमार-चरित्र-प्रशस्ति प. १०-११ २०. लक्ष्मीतिलकोपाध्याय-(सं. १३१७) विद्वत्ताऽतिशद्धि संयमरमात्रैमातुरः सर्वतो, वक्त्रो यस्य यश:कुमार उदितः श्रीतारकाधीश्वरम् । चित्रं न्यत्कृतवांस्त्रिलोकमपि च प्रासाधयल्लीलया, तीर्थ श्रीजिनवल्लभो गणपतिः शास्ति स्म सोऽयं ततः ।। -श्रावकधर्म-टीका प्रशस्ति प.४ वल्लभ-भारती ] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] २१. प्रबोधचन्द्रगरण -- (सं. १३२० ) विद्या मा भवताकुला जननि ! वाग्देवि ! त्वमाश्वासयता धातस्त्वमिमां प्रबोधय गिरं ब्रह्मन् ! स्वयं मा मुहः । श्रासीनोऽभयदेवसूरिमुनिराट-पट्ट जगद्वल्लभः, सूरि : श्रीजिनवल्लभः स्वरसतः सिद्ध तवैवेप्सितम् ।। - सदेहदोलावलि-टीका प्रशस्ति पं० ५ २२. धर्मतिलकगरण -- (सं. १३२२ ) वर्णनातिक्रान्तानुपमभागधेयाः सुगृहीतनामधेयाः सकललोकसंश्लाघ्यमहार्घ्य - विमल गुरणमणिश्रेणयः संविग्नमुनिजन व्रातचूडामरणयः स्वप्रज्ञातिशयविशेषविनिजितामरसूरयः श्रीजिनवल्लभसूरयः । २३. सङ्घपुर जिनालय शिलालेख - ( सं १३२६ ) अपमलगुणग्रामोऽमुष्मादधीतजिनागमः, प्रवचनधुराधौरेयोऽभूद् गुरुजिनवल्लभः । सकल विलसद्विद्यावल्लीफलावलिवित्रमं प्रकरणगणो यस्यास्येन्दोः सुधा विभतेतराम् ॥ १०१ ॥ सम्यक्त्वबोधचरणैस्त्रिजगज्जनौघ- चेतोहरेवंरगुणैः परिरब्धगात्रम् । यं वीक्ष्य निस्पृहशिखामणिमायलोक: सस्मार सप्रमदमार्यं महागिरीणाम् ।। १०२ ।। - बीजापुर- वृत्तान्त पृ. ४ -लघु जतशान्तिस्तव-टीका प्रवतरणिक २४. जिनप्रबोधसूरि - ( सं. १३२८ ) चान्द्रे कुलेऽजनि गुरुजनवल्लभाख्यो । ऽर्हच्छासनप्रथयिताऽद्भुत कृच्चरित्रः 1 २५. जगडु कवि - (सं. १२७८ - १३३१ ) धन्नु सु जिरणवल्लहु वक्खाणि नाश-रयणकेरी छइ खाणि । इतालीस सुद्ध, पिण्डु विहरेइ, त्रिविधु मंदिरु जगि प्रगटु करेइ ॥ - सम्यक्त्वमाई चउपई गा ४१ २६. प्रभानन्दाचार्य - (सं. १३३५) - कातरत्रदुर्गपद प्रबोध तस्मान्मुनीन्दुजिनवल्लभोऽथ तथा प्रथामाप निजैर्गुणोर्वैः । विपश्चितां संयमितां गणे च, घुरागता तस्य यथाऽधुनापि ॥ २७. ठक्कुर फेरू - [सं० १३४७ ] नंदि-न्हवगु-बलि रहु-सुइट्ठ, तालारासु निसि जि हरि जिणि वारिय श्रविहि, - ऋषभपंचाशिका टोका जुवइ मुणिसि । गहु सु जिरण वहलह सूरि सुविहि ॥ १७॥ युगप्रधान चतुष्पदिका [ वल्लभ-भारती Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. जिनप्रभसूरि - [सं० १३५६ ] वंशे श्रीजिनवल्लभव्रतिपतैः शुभैर्यशोभिदिशः । २६. सोमतिलकसूरि - [सं० १३९२] ३०. तरुणप्रभसूर - [सं० १४११] संविग्नचूडामणयो न केषां स्युर्वल्लभाः श्रीजिनवल्लभास्ते । मूर्त्ताऽपि यद्गीर्भविनाममूर्त-मात्मानमुत्तङ्गगुणैः ससज्ज || ३ || - शीलतरङ्गिणी- प्रशस्ति: - द्वयाश्रय-काव्य - प्रशस्ति प० २ तदीयपादद्वयपद्मसेवा मधुव्रतः श्रीजिनवल्लभोऽभूत् । यदङ्गरङ्ग व्रतनर्त्तकेन, किं नृत्यतां कीत्तिधनं न लेभे ।। ३ ।। ३१. भुवनहिताचार्य - [सं० १४१२] वल्लभ-भारती ] - षडावश्यक बालावबोध - प्रशस्तिः ............ जिनवल्लभ" ...शाङ्गनावल्लभो " यदीयगुणगौरवं श्रुतिपुटेन सुधोपमं निपीय । शिरसोऽधुनापि कुरुते न कस्ताण्डवम् ? ||२०|| ३२. सङ्घतिलकसूरि — [सं० १४२२ ] - ३३. देवेन्द्रसूरि - [सं० १४२९] - राजगृह प्रशस्ति, नाहर जैन लेख संग्रह प्रथम भाग तत्पट्टपूर्वाचल चूलिकायां, भास्वानिव श्रीजिनवल्लभाख्यः । सच्चत्रसम्बोधनसावधान-बुद्धिः प्रसिद्धो गुरुमुख्य आसीत् ||३|| - सम्यक्त्वसप्तति- टीका प्रशस्तिः ३४. वर्द्ध मानसूर - [सं० १४६८ ] ...प्रियः । तदनु जिनवल्लभाख्यः प्रख्यातः समयकनककषपट्ट्ः । यत्प्रतिबोधनपटहोऽधुनापि दन्ध्वन्यते जगति ।। ५ ।। - प्रश्नोत्तररत्नमाला टीका-प्रशस्तिः श्राद्धप्रबोधप्रवरणस्तत्पट्टे जिनवल्लभः । सूरिर्वल्लभतां भेजे त्रिदशानां नृणामपि ।। १४ ।। श्राचारदिनकर प्रशस्तिः ३५. जेसलमेर सम्भवजिनालय - प्रशस्ति शिलालेख - [सं० १४६७ ] 'ततः क्रमेण श्रीजिनचन्द्रसूरि नवाङ्गीवृत्तिकार - श्रीस्तम्भन पार्श्वनाथ प्रकटीकार-श्रीमभयदेवसूरि-श्रीपिण्डविशुद्ध यादिप्रकररणकार श्री जिनवल्लभ सूरि '''''' ३६. गुरण रत्नोपाध्याय - [सं० १५०१ ] यः स्फुर्जत्कलिकाल कुण्डलिकरालाऽऽस्यस्थितेः दुःस्थिते, लोकेस्मिन्नवधूयकुग्रह विषं सिद्धान्तमन्त्राक्षरैः । चक्रे तन्मुखमुद्रया वसुकृते सज्जं स्वमत्यावरं, - स श्रीमान् जिनवल्लभोऽजनि गुरुस्तस्मान्महामन्त्रवित् || ६ || - षष्टिशतक- टीका - प्रशस्तिः | १७ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] ३७. जयसाग रोपाध्याय - [सं० १५०३] श्रीवीरशासनाम्भोधिसमुल्लासनशीतगोः । नवाङ्गीवृत्तिवेधसः ॥ सूरेरभयदेवस्य पट्टालङ्कारसारश्रीः सूरि : श्री जिनवल्लभः ।। पृथ्वीचन्द्रचरित्र प्रशस्ति प० २-३ ३८. महेश्वर कवि - [सं० १५०४ ] एतत्कुले श्री जिनवल्लभाख्यो गुरुः - काव्यमनोहर सर्ग ७, प० ३५ क्व जिनवल्लभसूरि सरस्वती, क्व च शिशोर्मम वाग्विभवोदयः । - सङ्घपट्टक- टीका- मंगलाचरण प० १ ३६. लक्ष्मीसेन - [सं० १५१३] ४०. साधुसोमोपाध्याय - [सं० १५१६] जिनवल्लभसूरीन्द्रसूक्तिमौक्तिकपंक्तयः । दशतार्थः सुदृष्टीनां सुखग्राह्या भवन्त्विति ||६|| - चरित्र पञ्चकवृत्ति प्रशस्तिः ४१. कमल संयमोपाध्याय - [सं० १५४४ ] विचारववाङमयवारधाता, गुरुगंरीयान् जिनवल्लभोऽभूत् । सूत्रोक्तमार्गाचरगोपदेश- प्रावीण्यपात्रं न हि यादृशोऽन्यः || ४ || - उत्तराध्ययन सूत्र 'सर्वार्थसिद्धि' टीका-प्रशस्तिः ४२. पद्ममन्दिर गरिण - [सं० १५५३ ] प्राप्तोपसम्पद्विभवस्तदन्ते, द्विघाऽपि सूरिजिनवल्लभोऽभूत् । जग्रन्थ यो ग्रन्थमनर्थसार्थ - प्रमाथिनं तीव्रक्रियाकठोर : ||७|| -- ऋषि मण्डल - वृत्ति प्रशस्ति: ४३. युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि - [सं० १६१७] तत्पट्टपद्मवनबोधनराजहंसा:, विश्वातिशायिचररणामलशीलहंसाः । चारित्रचारुमनसो विहितोपकाराः, सप्रातिहार्य - जिनवल्लभ-नामधाराः ||६|| चामुण्डाप्रतिबोधका निजगुणैः श्रीचित्रकूटे स्फुटं, मूलोन्मूलित कुग्रहोग्रफलिना : सत्याधुमार्गादराः । मिथ्यात्वान्घतमोनिरासरवयः प्रख्यातसत्कीर्त्तयः पूज्य श्री जिन वल्लभाख्यगुरवस्ते सङ्घभद्रङ्कराः ||७| - पौषधविधिप्रकरण- टीका-प्रशस्तिः [ वल्लभ-भारती Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. महोपाध्याय पुण्यसागर -- [सं० १६४० ] स जयताज्जगति जनवल्लभः परहितैकपरो जिनवल्लभः । चतुरचेतसि यस्य चमत्कृति, रचयतीह चिरं रुचिरं वचः || २ || - प्रश्नोत्तरं कषष्टिशतकाव्य-टीका- मंगलाचरण ४५. श्रज्ञात-- [ लेखन सं. १६४० ] विमलप्रज्ञाशालिबुधजनितानवद्यविद्याधरी सङ्ग मोन्मुखप्रवृत्तेन तेनैव श्रुतमकरन्दस्वादलुब्ध यद् पदेनैवानवरता सेव्यमान चरणारविन्दः सीज्जिनवल्लभाभिधानः सूरिः । - प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यावचूरिश्रवतरणिका ४६. समयसुन्दरोपाध्याय - [सं. १६४६ ] कृत्वा समीपेऽभयदेवसूरि, येनोपसम्पदग्रहणं प्रमोदात् । पप रहस्यामृतमागमान, सूरिस्ततः श्रीजिनवल्लभोऽभूत् ।।११।। - प्रष्ट लक्षार्थी प्रशस्तिः ४७. जयसोमोपाध्याय - [सं. १६५० ] श्रीजिनवल्लभसूरिस्ततोऽभवद् व्रतधुरैकधौरेयः । चण्डाऽपि हि चामुण्डा यत्सान्निध्यादचण्डाभूत् ||५०८ || — कर्मचन्द्रवंशोत्कोत्तं न-काव्य ४८. गुरणविनयोपाध्याय - [सं. १६५१] वल्लभ-भारती ] सोऽभूदभवदेवाख्यः सूरिः श्रीजिनवल्लभः । ज्ञानदर्शनचारित्रपात्रं भ्रजे ततो भृशम् ॥७॥ - मेन चण्डापि चामुण्डा दर्शनं प्रापिता गुणैः । कर्त्ता पिण्डविशुद्ध, यदि शास्त्राणां तत्त्वशालिनाम् ||८|| - सम्बोधसप्तति- टीका-प्रशस्तिः ४६. ज्ञानविमलोपाध्याय --- [सं. १६५४ ] तत्पट्टे च विरेजुः कर्म ग्रन्थादिशास्त्रकर्त्तारः । बैराग्यकनिधानाः श्रीमज्जिनवल्लभाचार्याः ||३|| - शब्दभेदप्रकाश - टीका-प्रशस्तिः ५०. श्रीवल्लभोपाध्याय --- [सं० १६५४ ] तत्पट्टे जिनबल्लभ सूरिबराः सर्वशास्त्रपारीणाः ||२|| - हैमनाममालाशिलोज्छ टीका - प्रशस्तिः ५१. सुमतिबद्ध नोपाध्याय - [सं० १८७४ ] सत्प्रज्ञा हि जिनादिवल्ल भगरणाधीशा जगद्विश्रुताचामुण्डाभिषदेवताऽचितपदा आशुजिताक्षन्रजाः ||५|| - समरादित्य के बलीचरित्र-प्रशस्तिः [ te Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थों की तालिका : कमांक नाम १ अजितशान्तिस्तव टीका २ अपभ्रंश काव्यत्रयी ३ अभयकुमार चरित ४ अरजिन स्तव ५ अष्टलक्षार्थी ६ अष्टसप्ततिका ७ आगमिक वस्तुविचारसार प्र. टीका लेखक वाचनाचार्य धर्मतिलक सं. लालचंद्र भ. गांधी चन्द्रतिलकोपाध्याय सं० म० विनयसागर उपाध्याय समयसुदर जिनवल्लभसूरि मलयगिरि यशोभद्र सुरि हरिभद्रसूरि वर्धमानसूरि शीलांकाचार्य पार्श्वचन्द्रसूरि इरिभद्रसूरि जयचन्द्र विद्यालंकार कमलसंयमोपाध्याय १० प्राचार दिनकर ११ आचारांग सूत्र १२ आचारंग सूत्र टीका १३ प्राचारांग सूत्र बालावबोध १४ आवश्यक सूत्र बृहद् वृत्ति १५ इतिहास प्रवेश १६ उत्तराध्ययन सूत्र टीका १७ उपदेश सप्ततिका १८ ऋषभ पंचाशिका टीका १६ ऋषिमंडल टीका २० कथाकोष २१ कर्मग्रन्थ शतक स्वोपज्ञ टीका २२ कल्पसूत्र २३ कल्पसूत्र टीका प्रभाचन्द्राचार्य पद्ममंदिरगणि सं. प्राचार्य जिनविजय देवेन्द्रसूरि आचार्य भद्रबाहु उदयसागर माणिक्यऋषि २५ , २६ कल्पावचूरिका २७ कल्पकिरणावली २८ कल्पटिप्पन २६ कल्पदीपिका ३० कल्पनिरुक्त ३१ कल्पसूत्र बालावबोध ३२ कल्पान्तर्वाच्य कुलमंडनसूरि उ. धर्मसागर पृथ्वीचन्द्रसूरि जयविजय विनयचन्द्रसरि गणपति सोमसुदरसूरि २० । [ वल्लभ-भारती Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ कल्पान्तर्वाच्य हेमहंससूरि जयचन्द्रसूरि ३५ , स्तबक शान्ति विजय ३६ कातंत्र-दुर्गपद-प्रबोध जिनप्रबोधसूरि ३७ काव्यप्रकाश प्राचार्य मम्मट ३८ काव्य-मनोहर महेश्वर कवि ३६ काव्य-मीमांसा राजशेखर ४० कुमार-संभव-टीका चारित्रवर्धन ४१ खरतरगच्छालंकार युगप्रधानाचार्य गुर्षावली जिनपालोपाध्याय ४२ गणधर साख शतक जिनदत्तसूरि , बृहद्वृत्ति सुमतिगणि गुरुतत्त्वप्रदीप यशोविजय ४५ गुरुपारतंत्र्य स्तोत्र जिनदत्तसूरि ४६ चर्चरी टीका जिनपालोपाध्याय ४८ चरित्रपंचक टीका उ० साधुसोम ४६ जइतपदवेली कनकसोम जयदामन प्रो. एच. डी. वेल्हणकर ५१ जयन्त विजय काव्य रुद्ध. अभयदेव सूरि ५२ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्र टीका शान्तिचन्द्रगणि ५४ जिनचन्द्रसूरि प्रादेशपत्र ५५ जिनरत्नकोश प्रो. एच. डी. वेल्हरपकर ५६ जीवाभिगम सूत्र टीका मलयगिरि ५७ जैन ग्रन्थावली ५८ जैन लेखसंग्रह पूरणचन्द्र नाहर ५६ जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास मोहनलाल द. देशाई ६० त्रिदशतरंगिरणी मुर्वावली मुनिसुदरसूरि ६१. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र हेमचन्द्राचार्य ६२ द्वादश कुलक टीका जिनपालोपाध्याय ६३ द्याश्रय काव्य जिनप्रभसूरि . ६४ , टीका (प्राकृत) पूर्णकलश ६५ हयाश्रय काव्य टीका (संस्कृत) अभयतिलकोपाध्याय ६६ धन्य-शालिभद्र चरित्र . पूर्णभद्र गणि ६७ नागरीप्रचारिणी पत्रिका ६८ नैषधकाव्य टीका चारित्रवर्धन वल्लभ-भारती ] [ २१ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका ६६ पट्टावली कवि पल्ह ७. पंचाशक हरिभद्रसूरि ७१ , टीका अभयदेवसूरि ७२ पंचलिंगी प्रकरमा टीका जिनपतिसूरि ७३ प्रज्ञापना सूत्र टीका मलयगिरि ७.४ प्रतिष्ठा लेख संग्रह उपाध्याय विनयसागर ७५ प्रबन्ध-चिन्तामसिह सं. प्राचार्य जिनविजय ७६ प्रभावक चरित ७७ प्रवचन परीक्षा उपाध्याय धर्मसागर ७८ प्रश्नोत्तरकषष्टिशतं जिनवल्लभमूरि प्रक्चर सोमसुंदरसूरि शिष्य महोपाध्याय पुण्यसामर ८१ प्रश्नोत्तर-रत्नमाला टीका देवेन्द्रसूरि ८२ पिण्डक्शुिद्धि टीका उदयसिंहसूरि श्रीचन्द्रसूरि २४ , प्रस्तावना जानविजय ८५ पुरातत्व-प्रबन्ध-संग्रह सं. प्राचार्य जिनविजय - ८६ पृथ्वीचन्द्र चरित्र उपाध्याय जयसागर ८७ पृथ्वीराज विजय काव्य ८८ पौषधविधिप्रकरण टीका कुगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ८६ बीजापुर वृत्तान्त १० बृहत्संग्रहणी ११ भगवतीसूत्र टीका अमयदेवाचार्य १२ भारत का इतिहास डा. ईश्वरीप्रसाद १३ भारत के प्राचीन राजवंश महामहोपाध्याय विश्वेश्वरनाथ रेउ १४ भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का इतिहास लूनिया १५ भारत की संस्कृति का इतिहास डा. मथुरालाल शर्मा १६ भावारिवारपादपादि स्तोत्र संग्रह सं० मुनि विनयसामर १७ युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि अगरचन्द्र-भंवरलाल नाहटा १८ युगप्रधान जिनदत्तसूरि अगरचन्द्र-भंवरलाल नाहटा &९ कुगप्रधान चतुष्पदिका १०० रघुवंश टीका वारित्रवर्वन १०१ राजपूताने का इतिहास गौरीशंकर ही. अोझा १०२ राजगृह प्रशस्ति अवनहितोपाध्याय १०३ वर्धमान विद्याकल्प बेरुतुगसूरि १०४ विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह सं. प्राचार्य जिनविजय sant tikai oleh २२] [ वल्लभ-भारती Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ विविध तीर्थकल्प - १०६ . वैराग्य शतक १०७ शब्दप्रभेद टीका १०८ शिशुपालवध टीका १०६ शिलोंछनाममाला टीका ११० शोलतरंगिणी १११ श्रावकव्रत कुलक ११२ श्रावकधर्मप्रकरण टीका ११३ षष्टिशतक टीका ११५ षष्टिशतक प्रकरण त्रय ११६ षट् कल्याणक निर्णय ११७ . षडावश्यक बालावबोध ११८ स्थानांग सूत्र टीका ११६ सनत्कुमार चरित महाकाव्य १२० समरादित्य केवली चरित्र १२१ समवायांग सूत्र टीका १२२ सरस्वती कंठाभरण . १२३ सिंदूर प्रकरणटीका १२४ संघपटक टीका १२५ ", " १२६ संदेहदोलावली टीका १२७ संबोध प्रकरण १२८ संबोध सप्तति टीका १२६ संवेगरंगशाला १३० साधुकीर्ति स्वर्गगमनगीत १३१ सुलसा चरित्र १३२ सूक्ष्मार्थविचार सारोद्वार चूणि टीका १३४ , प्रस्तावना १३५ सेनप्रश्न १३६ सोलंकियों का प्राचीन इतिहास १३७ स्वप्नसप्तति सं.प्राचार्य जिनविजय कवि पद्मानंद उपाध्याय ज्ञानविमल चारित्रवर्धन उपाध्याय श्रीवल्लभ सोमतिलकसूरि जिनवल्लभसूरि उपाध्याय लक्ष्मीतिलक सोमसुन्दरसूरि उपाध्याय गुरगरल सं. डा. भोगीलाल ज. सांडेसरा जिनमणिसागरसूरि तरुणप्रभाचार्य अभयदेवाचार्य जिनपालोपाध्याय उपाध्याय सुमतिवर्धन प्रभयदेवसूरि महाराजा भोज चारित्रवर्धन जिनपतिसूरि लक्ष्मीसेन प्रबोधचन्द्र गणि हरिभद्रसूरि उपाध्याय गुणविनय जिनचंद्रसूरि चयनिधान जयतिलकसरि मुनिचन्द्राचार्य धनेश्वराचार्य बिजयप्रेमसूरि सोमविजय । जिनबल्लभसूरि वल्लभ-भारती ] [ २३ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय विनयसागर द्वारा लिखित एवं सम्पादित अन्य पुस्तकें-- १. सनत्कुमारचक्रि-चरित्र महाकाव्य २. वृत्तमौक्तिक ३. संघपति रूप जी वंश-प्रशस्ति ४. परजिन स्तक ५. नेमिदूत ६. प्रतिष्ठा लेख संग्रह प्रथम भाग ७. खरतर गच्छ का इतिाहस ८. महोपाध्याय समयसुन्दर ९. हैमनाममालाशिलोञ्छ सटीक १०. चतुर्विशति जिन-स्तुत्यः ११. चतुविंशति-जिन-स्तक्नानि १२. भावारिकारण पादपूर्त्यादि स्तोत्र संग्रह १३. महावीर षट् कल्याणक पूजा १४. खण्ड प्रशस्ति टीका द्वय सह १५, शासनप्रभाक्क प्राचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य १६. खरतरगच्छ साहित्य-सूची [ वल्लभ-भारती Page #244 -------------------------------------------------------------------------- _