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________________ द्वादशम कुलक:- काल की विचित्रता से श्रेष्ठ श्रु तधरों का अभाव होने से और अपने गुरुकर्मीपन से आज बहुत लोग जिनमत तथा साधु धर्म का ज्ञान होने पर भी एवं श्रेष्ठ धर्म अंगीकार कर लेने पर भी आजीविका के भय से कषायादि अन्तरंग शत्रु ओं को प्रोत्साहन दे रहे हैं । धर्म के नाम पर स्वच्छंद आचरण कर रहे हैं । अपनी आत्मा को कषाय विष से नाश कर रहे हैं और गारव धारण कर रहे हैं । आह!!! ये सब महा मोह का प्रभाव है। इसलिये भव्य को सुबुद्धि पूर्वक शठभाव का त्याग कर, सिद्धान्त का परमार्थ जानकर, कषाय भावों का पूर्ण रूप से त्याग करना चाहिए, जिससे तू बुद्धिमानों का पूज्य हो सके । ९. धर्म शिक्षा प्रकरण कवि ने इस काव्य की सृष्टि भव्यजीवोपकारार्थ ही की है। यह श्लोक संख्या की अपेक्षा तो अत्यन्त ही लघु काव्य है किन्तु प्रसाद और ओज संयुक्त होने से इसकी कोमल-कान्त-पदावली, चैत्रिक गरिमा, अलंकारों का सम्मिश्रण तथा विविधतामयी छंद योजना इसको एक विशेष महत्त्व प्रदान करते हैं। प्रस्तुत काव्य में जीवन में आचरणीय १८ विषयों का प्रतिपादन बहुत ही मार्मिक शैली से किया गया है। प्रस्तुत अठारह विषयों में देव गुरु और धर्म तीनों की प्रमुखता बतलाते हुए इनकी आराधना-पद्धति, तज्जनित फल और सांसारिक पदार्थों की नश्वरता से उत्पन्न दुःख तथा उनके निवारण के हेतओं का विवेचन बहत ही सरल शब्दों में किया गया है। १८ विषय निम्नलिखित हैं भक्तिश्चंत्येषु शक्तिस्तपसि गुणिजने सक्तिरर्थे विरक्तिः, प्रीतिस्तत्त्वे प्रतीतिः शुभगुरुषु भवाद् भीतिरुद्धात्मनीतिः । क्षान्तिः दान्तिः स्वशान्तिः खहतिरबलावान्तिरभ्रान्तिराप्ते, ज्ञोप्सा दित्सा विधित्सा श्रुत-धन-विनयेष्वनु धिः पुस्तके च ॥ इसमें कवि ने प्रथम पद्य में जिनेश्वर को नमस्कार कर काव्य कहने की प्रतिज्ञा की है। दूसरे पद्य में मानवभव की दुर्लभता बतलाते हुए महाकुलीन भव्यों को धार्मिक कर्तव्य करने का उपदेश दिया है। तीसरे पद्य में १८ प्रसंगों का नामोल्लेख कर पद्य ४ से ३६ तक में प्रत्येक विषय का दो-दो पद्यों में प्रतिपादन किया गया है। प्रथम और अन्तिम पद्य चक्रबन्ध काव्यरूप में है जिसमें कवि ने अपना नाम 'जिनवल्लभगणिवचनमिदम्' और 'गणिजिनवल्लभवचनमदः' सूचित किया है। इस परिपाटी की रचना श्वेताम्बर जैन साहित्य में सम्भवतः सर्वप्रथम आचार्य जिनवल्लभ ने ही की है। इसके अनुकरण पर तो परवर्ती कवियों ने अनेक रचनायें की हैं जिनमें सोमप्रभाचार्य प्रणीत सिन्दूरप्रकर आदि मुख्य हैं। १०. सङ्घ पट्टक इस काव्य की रचना में गणिजी के जीवन का चरमोत्कर्ष निहित है। उपसम्पदा के पश्चात् आपने चैत्यवास का सक्रिय विरोध कर उसके आमूलोछेच्दन करने का प्रयत्न किया ६८ ] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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