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और इस प्रयत्न में इनको पूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई । गणिजी ने इस लघु काव्य में तत्कालीन चैत्यवासी आचार्यों की शिथिलता, उनकी उन्मार्ग - प्ररूपणा और सुविहितपथप्रकाशक गुणिजनों के प्रति द्वेष इत्यादि विषय का सुन्दर चित्र उपस्थित करते हुए विधिपक्ष ( खरतर - गच्छ ) के व्यावहारिक आचार का विवेचन किया है। संघ (विधिपक्ष) का पट्टक ( विधानशास्त्र) होने से कवि ने इसका नाम भी संवपट्टक किया है । "
इस काव्य में ४० पद्य हैं। उनमें प्रथम श्लोक में श्री पार्श्वनाथ को नमस्कार कर 'विज्ञों को कुपथत्याग करने का उपदेश देकर दूसरे पद्य में श्रोताओं की योग्यता का निरूपण किया है । ३.४ पद्य में उपमाओं द्वारा चैत्यवासियों को 'जिनोक्तिप्रत्यर्थी' सिद्ध करते हुए पांचवें पद्य में १. औद्दे शिक भोजन, २. जिनगृह में निवास, ३. वसतिवास के प्रति मात्सर्य, ४. द्रव्य संग्रह, ५. भक्तों के प्रति ममत्व, ६. चैत्य स्वीकार (चिन्ता), ७. गद्दी आदि का आसन, ८. सावद्य आचरण, ६. सिद्धान्तमार्ग की अवज्ञा और १० गुणियों के प्रति द्वेष का विवेचन किया है । इस प्रकार वक्ष्यमाण दस द्वारों का उल्लेखकर पद्य ६ से ३६ तक इनका विशद विवेचन किया गया है । पद्य ३४.३५ ग्रन्थ रचना का कारण कह कर पद्य ३६-३८ में सुविहित साधुवृन्द के पवित्र आचार की प्रशंसा की है । पद्य ३८ में चित्रकाव्य द्वारा 'जिनवल्लभगणिनेदं चक्रे' कहकर अपना चित्रालङ्कार प्रेम प्रदर्शित किया है । पद्य ३९.४० में चैत्यवास को भस्मकम्लेच्छसैन्य की उपमा प्रदान कर उसकी भर्त्सना करते हुए उपसंहार किया गया है ।
इस लघु काव्यात्मक वैधानिक एवं चाचिक ग्रन्थ में भी गणिजी ने निदर्शना, अप्रस्तुत प्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, तुल्ययोगिता, रूपक, उपमा, अनुप्रासादि अलंकारों तथा स्रग्धरा आदि ८ प्रकार के छन्दों के प्रयोग द्वारा अपनी बहुमुखी प्रतिभा का सुन्दर परिचय दिया है । समग्र ओ गुण से परिपूर्ण होने के कारण पाठक के हृदय को पुलकित करता है । इसमें आये हुए छन्दों का वर्गीकरण इस प्रकार है:
स्रग्धरा - १, ४, ७, ६, २१, ३०, ३५, ३७ । शार्दूलविक्रीडित -- २, ५, ६, १०, १३१७, २२-२६, ३१-३३, ३८,४०, । मालिनी - ३, ११, ३६ । द्विपदी - १८-२० । शिखरिणी - ६६ । मन्दाक्रान्ता -- ३४ । पृथ्वी - १२ । वसन्ततिलका
- ८ ।
११. स्वप्न सप्तति
जिनपालोपाध्याय ने जिनवल्लभरि प्रणीत ग्रन्थों में स्वप्नसप्तति का उल्लेख किया है किन्तु यह ग्रन्थ अद्यावधि अप्राप्त था । शोध करते हुए सन् १९६७ में इसकी एक टीका सहित • पाण्डुलिपि राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, शाखा कार्यालय बीकानेर के श्रीपूज्य श्री जिन
१. सङ्घस्य पट्टकरूपं श्रीसङ्घराज्यपट्टकशास्त्र चकार । ( साधुकीत अवचूरि)
२. यत्रौद्द शिकभोजनं जिनगृहे वासो वसत्यक्षमा,
स्वीकारोर्थगृहस्थचैत्य सदनेष्वप्रेक्षिताचासनम् । सावद्याचरितादरः श्रुतपथाऽवज्ञा गुरिण षधीः, धर्मः कर्महरोऽत्र चेत्पथि भवेन्मेरुस्तदाच्धी तरेत् ॥ ५॥
बल्लभ-भारती ]
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