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________________ में परिभ्रमण करते हुए तुझे यह मानुषभव प्राप्त हुआ । यह जीवन आशा, चिन्ता, रोग, शोक, वियोग, संताप आदि दुःखों से भरा हुआ है । अनन्त सागरोपमों तक भ्रमण करते हुए पुण्य सञ्चय के कारण श्रेष्ठकुल, सद्गुरु आदि की तुझे प्राप्ति हुई है । अतः अनिवृत्तिकरण द्वारा मिथ्यात्व की ग्रन्थि का छेदन करके गुणस्थानों की श्र ेणि का आलंबन लेकर आत्मसिद्धि कर । कुनयों और कदाग्रहों का त्याग कर, अन्यथा ग्रहण किया हुआ चारित्र भी प्रमाद और आश्रवों के कारण संसार में परिभ्रमण का हेतु मात्र ही होगा । इसलिये शास्त्रमर्यादानुसार दानशीलादि धर्म जो गीतार्थ-परम्परा द्वारा मान्य हैं वे सुगुरु के आदेशानुसार पालन कर, धर्माराधन कर, जिससे तुझे मोक्षलाभ हो । षष्ठं कुलक :- धनादि में ममत्व संसार वृद्धि का हेतु है । अतः उस पर से ममत्व हटा कर उसका श्र ेष्ठ कार्यों में सदुपयोग कर अन्यथा यह लक्ष्मी १८ पापस्थान की भूमिका होने कारण तुझे दुर्गति प्राप्त करावेगी । वास्त्रसम्मत सम्पूर्ण श्रेष्ठ कार्य 'सुगुरु की अध्यक्षता में राग रहित होकर आचरण कर जिससे मोक्षसुख का लाभ तुझे प्राप्त हो । मे सप्तम कुलक :- अनंतकाल तक संसार में परिभ्रमण करते हुए तसत्व, नरत्व, श्रेष्ठ क्षेत्र, कुल, जाति, रूप, आरोग्य, पूर्णायुत्य आदि अति दुर्लभ सामग्री अत्यन्त पुण्योदय से तुझे प्राप्त हुई है। इसलि यदि तूं साधुधमं पालन करने में अपने को असमर्थ समझता हो तो श्रावक-धर्म का पालन कर । विधिपूर्वक त्रिकाल चैत्यवन्दन, सुगुरु सेवा, धर्मश्रवण, जिनपूजा, सुपात्रदान, उपधान आदि तप तथा स्वाध्याय आदि उत्तम कृत्यों की आराधना कर । संसार की असारता का विचार करके आश्रव के कार्यों का त्याग कर । मोह-ममत्व का त्याग कर । हृदय में जिनमत का शुद्ध स्वरूप देख; जिससे तेरा भवभ्रमण का चक्र समाप्त हो जाय । श्रष्टम कुलक :- मिथ्यात्व, अत्रत, कषाय, प्रमाद आदि कर्म - बंधन एवं भवबंधन के हेतु हैं उनको तथा इनसे उपार्जित भयंकर फलों को ज्ञान पूर्वक त्याग कर, अन्यथा तुझे प्राप्त गुरु की प्राप्ति आदि सारी उत्तम सामग्री व्यर्थ हो जायगी। इसलिये मार्गानुसारिता स्वीकार कर के अप्रमत्ततया धर्माचरण कर, जिससे तुझे शिवसुख प्राप्त हो । नवम कुलक :- हुण्डा अवसर्पिणी काल पंचम आरक, भस्मराशि ग्रह आदि अनेक पापग्रहों के कारण जहां धर्म सामग्री का बीज ही मिलना दुष्कर है वहां तुझे जो उत्तम उत्तम सामग्रियां प्राप्त हुई हैं उनका तू त्याग न कर । कुगुरुओं का भक्त न हो । उन्मार्ग का अनुयायी न बन । प्रमाद धारण न कर । गीतार्थ गुरुपरंपरा का त्याग न कर, अन्यथा चारों गति का भ्रमण पुनः तुझे घसीटेगा और तू चिन्तामणी रत्न को यों ही खो देगा । इसलिये प्रमाद त्याग करके निष्ठा और श्रद्धा पूर्वक सुविहित पथ दर्शित सम्पूर्ण विधि-विधानों का अनुष्ठान कर, जिससे तू अभय पद प्राप्त कर सके । दशम एकादश कुलक: - यदि तु मुखाकांक्षी है और अक्षयपद प्राप्त करना चाहता है तो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र, सद्गुरु-सेवा तथा गीतार्थ परंपरा का पूर्णरूपेण पालन कर । दुर्गति के कारण भूत कुगुरु, उन्मार्ग आचरण, काम-क्रोधादि कषाय, मिथ्यात्व, कुतीर्थी-संसर्ग, शंका, विषय आदि जितने अंतरंग जीवन के शत्रु हैं उनका पूर्णरूपेण दमन कर, जिससे तू अचिन्त्य मोक्षरूपी कल्पवृक्ष को प्राप्त कर सके । बल्लभ-भारती ] [ ७
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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